एक आम राजपूत जिसने रजवाड़ो की आन बान शान के लिए अपनी पूरी जिंदगी लूटा दी लेकिन रजवाड़ो से जिस सम्मान की वो अपेक्षा करता था नहीं मिलने पर उसका मन द्रवित हो उठता है और इस पीड़ से उसके मन में कुछ भाव और विचार उभरते है और वो उसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने की छोटी सी कोशिस करता है।
ना रजवाड़ा म जन्म लियो,
न ही गढ़ रो राज।
दरबारां री धोख मारां
जद मिळ है दो मण नाज।।
राज करणिया राज करयो,
म्हे तो चौकीदार।
रण लड़ता र शीश चढ़ाता,
साथण ही तरवार।।
साथण ही तरवार,
राजा री शान बचावण न।
ब जनम्या कूबद कमावण न
म्हे जनम्या रण में खून बहावण न।।
म्हे जनम्या रण म खून बहावण न
ब जनम्या राज रो काज चलावण न।
म्हे जनम्या हुकुम निभावण न
ब जनम्या हुकुम सुणावण न।।
ब जनम्या सोना रा थाळ म खावण न
म्हे जनम्या सुखा टूक चबावण न।
ब जनम्या फूला री सेज सजावण न
म्हे जनम्या रातां री नींद जगावण न।।
ब जनम्या मद र रास रचावण न
म्हे जनम्या रजवाड़ी लाज बचावण न।
ब जनम्या खुद रो नाम कारावण न
म्हे जनम्या कौम रो मान कमावण न।।
जन्मभोम र मान र खातर
खुद रो खून बहायो है।
बाँ न अमर राखबा खातर
मन्न थे बिसरायो है।।
मेरो खून रो मोल छिपायो
रजवाड़ा न अमर बणायो है।
भुल्या सूं भी याद करो ना
फण बांका थान चिणायो है।।
टूटयोड़ो सो मेरो झुपड़ो
थां सूं अर्ज लगाई है।
रजवाड़ा म धोख मराणियो
मैं काईं करी खोटी कमाई है।।
~~लेखनी~~
कुं नरपत सिंह पिपराली(कुं नादान)
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