शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

गाथा वीर चौहानों की - भाग 8




विग्रहराज द्वितीय के बाद दुर्लभराज द्वितीय ने चौहान सत्ता संभाली दुर्लभराज के काल मे भी चौहान साम्राज्य ने खासी उन्नति की तथा अपना भौगोलिक विस्तार किया।

दुर्लभराज के बाद विरायानामा चौहानों की गद्दी पर विराजमान हुए ओर उनके बाद 1040ईस्वी से 1065 ईस्वी तक चौहान साम्राज्य के सिंहासन पर चामुंडाराज चौहान गद्दी पर विराजमान हुए इन्हें बहुत ही धार्मिक राजा माना जाता है चामुंडाराज ने नरपुरा में भगवान विष्णु का एक बहुत ही भव्य मंदिर बनवाया था चामुंडाराज के समय भी भारत मे मुसलमानों के हमले लगतार हो रहे थे प्रबन्धकोश के अनुसार चामुंडाराज ने मुसलमानों से बहुत युद्ध किये थे ओर उन्हें रोके रखा हम्मीर महाकाव्य में चामुंडाराज की मुस्लिम शाशक हजिम-उ-दीन पर विजय का उल्लेख है।

सुरमान चरित्र में भी चामुंडाराज की मुस्लिमो पर विजय का उल्लेख है ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मुस्लिम पंजाब तक के क्षेत्र को अपने अधीन कर चुके होते अगर चामुंडाराज उन्हें न् रोकते तो चामुंडाराज ने अपनी राजधानी गजनी के निकट ही स्थापित की जिससे सीमा ओर ही मल्लेछो से डटकर लोहा लिया जा सके ओर भारत मे प्रवेश करने से पहले ही उन्हें खदेड़ मारा जाएं। 

चामुंडाराज के बाद चाहमान साम्राज्य की गद्दी दुर्लभराज तृतीय ने संभाली इन्हें वीरसिंह के नाम से भी जाना जाता है पृथ्वीराज विजय के अनुसार दुर्लभराज तृतीय उर्फ वीरसिंह ज़्यादा समय तक शासन नही कर सके ओर मातंगों ( मुसलमानों ) के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।

दुर्लभराज के बाद चौहान साम्राज्य की गद्दी विग्रहराज चौहान तृतीय को मिली इतिहास में इन्हें विसलदेव के नाम से भी जाना जाता है हम्मीर महाकाव्य में विसलदेव की सहाबुद्दीन गौरी एवं चालुक्यों ओर विजय का उल्लेख है।

दुर्लभराज के बाद चाहमान साम्राज्य की गद्दी पृथ्वीराज चौहान प्रथम ने संभाली पृथ्वीराज बहुत ही धार्मिक प्रवर्ति के राजा थे सोमनाथ जाने वाले रास्तों में उन्होंने अपार अन्नभंडार बनवाये जिससे तीर्थयात्रियों को रास्ते मे भोजन की कोई कमी न रहें पृथ्वीराज प्रथम के समय भी भारत और मुसलमानों के भयंकर आक्रमण हुए थे प्रबन्धकोश में पृथ्वीराज को बहुत ही शक्तिशाली तथा वीर शाशक बताते हुए इनका सुल्तान बागुली शाह से आपसी संघर्ष का उल्लेख किया गया है मिनहास अस सिराज ने अपने ग्रन्थ तबाकत ए नासिरी में लिखा है अल्लाउदीन मसूद के शासन काल  1098 से 1115 ईस्वी में मुसलमानों ने गंगा नदी पार कर हिंदुस्तान में प्रवेश किया तथा चारो ओर भयंकर तबाही मचा दी प्रतीत ऐसा होता है कि बागुली शाह अल्लाउद्दीन मसूद का सेनापति रहा होगा म्लेच्छ मुसलमानों की आती तबाही को चौहान शाशक पृथ्वीराज ने रौका तथा इतिहास में अपना नाम अमर करवाया।

पृथ्वीराज प्रथम के बाद चाहमान गद्दी पर महाराज अजयराज चौहान विराजमान हुए इनका शासनकाल 1105 से 1130 ईस्वी तक माना जाता है अजयराज चौहान ऐसे शाशक थे जिन्होंने मालवा से भी ज़्यादा सम्पनता ओर सुविधा अपने राज्य के निवासियों को दी अजयराज चौहान के बाद चाहमान शाशन की गद्दी अर्णोराज चौहान ने संभाली अर्णोराज चौहान ऐसे वीर शासक थे जिन्होंने मुसलमानों के रक्त से पूरा अजमेर रंग दिया था।

जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।
रॉयल राजपूत अज्य ठाकुर गोत्र भारद्वाज सूर्यवंशी।
पढ़ते रहिये गाथा वीर चौहानों की।

गाथा वीर चौहानों की - भाग 7


गाथा वीर चौहानों की में आपने अंतिम लेख विग्रहराज चौहान द्वितीय के बारे में पढ़ा विग्रहराज द्वितीय ही प्रथम चाहमान शाशक थे जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र थे विग्रहराज द्वितीय के बाद उनके छोटे भाई दुर्लभराज चाहमान सिंहासन की गद्दी पर विराजमान हुए दुर्लभराज ओर विग्रहराज के भाई प्रेम की कथा का वर्णन उसी प्रकार किया जाता है जिस प्रकार रामायण में राम और लक्ष्मण के भाई प्रेम का प्रसंग हमे सुनने और पढ़ने को मिलता है।

 विग्रहराज के दो भाई और थे चंड राज ओर गोविन्दराज लेकिन प्रशस्तियों में उनका उल्लेख बहुत ही कम मिलता है।

लेकिन् दुर्लभराज की वीरता तथा शौर्य से इतिहास भरा पड़ा है ऐतिहासिक अभिलेखों तथा साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि  1030 तक दुर्लभराज ऑफ चाहमान साम्राज्य अपने चरम पर थे दुर्लभराज द्वितीय इतने वीर तथा पराक्रमी राजा थे की कोई शत्रु उनके सामने खड़े रहने का साहस नही करता था।

दुर्लभराज द्वितीय को शाकुंभरी सत्ता को भली भांति स्थापित करने के लिए बहुत से भयंकर युद्ध भी लड़ने पड़े तमाम संघर्षों तथा विपदाओं को धूल चटाते हुए दुर्लभराज चौहान ने अपने साम्राज्य को इतना शक्तिशाली बना दिया की शत्रु अब चाहमान साम्राज्य पर आक्रमण करने के नाम मात्र से भय खाने लगे थे।

दुर्लभराज के प्रमुख शत्रु चालुक्य हुआ करते थे चालुक्यों ने मित्रता स्थापित करने के प्रयास से चौहानों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये सकरई अभिलेख में तो दुर्लभराज की वीरता के बारे में अद्भुत विवरण है।

दुर्लभराज को अपनी कुशलता तथा वीरता के कारण महाराजधिराज नाम से जाना जाता है किनसरिया अभिलेख में दुर्लभराज को दुरल्लगया - मेरु कहकर संबोधित किया गया है इसी अभिलेख के बाहरवें भाग में शत्रु को पराजित करने वाला रासोसितना संबोधन से दुर्लभराज द्वितीय को सम्मानित किया गया है।

कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों में तो दुर्लभराज की तलवार की भी भारी प्रशंसा की गई है 1008 में जिस हिन्दू राजा ने मुहम्मद सुल्तान को हराया था तथा भारत भूमि से लौट जाने के लिए मजबूर किया था वह राजा भी दुर्लभराज चौहान ही था।

दुर्लभराज के बाद गोविन्दराज सत्ता में आएं पृथ्वीराज विजय में उन्हें वैरिघाटटा नाम से सबोधित किया गया है जिसका अर्थ होता है शत्रु का विनाश करने वाला
प्रबन्धकोश में गोविन्दराज द्वितीय को सुल्तान मुहम्मद पर विजय का श्रेय दिया गया है कहा जाता है कि सुल्तान मुहम्मद को सिंध के  रास्ते भागना पड़ा था क्यो की अजमेर से चाहमान शाशक गोविन्दराज ने अपनी विशाल सेना से मेवाड़ के रास्ते को बन्द कर दिया था।

दुर्लभराज द्वितीय के बाद वाक्यतिराज द्वितीय हुए इन्हें भी अपनी वीरता के कारण खूब ख्यति मिली हुई है।
जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

गाथा वीर चौहानों की - भाग 6

आपने पिछली पोस्ट में पढ़ा चौहान अब सामन्त से महाराज बन चुके थे यह ऐतिहासिक कार्य महाप्रतापी राजा वाक्यतिराज ने किया।

वाक्यतिराज के तीन पुत्र थे विंध्यराज सहराज एवं लक्ष्मण -- इन तीनो पुत्रो में सिंहराज वाक्यतिराज के सबसे योग्य पुत्र थे।

विंध्यराज तथा सहराज ने बहुत ही अल्प समय तक राज्य किया ओर उनके तीसरे पुत्र लक्ष्मण ने नाडोल में चाहमानों की एक अलग शाखा स्थापित की हर्ष चरित्र से यह ज्ञात होता है कि सिंहराज ने तोमर सेनापति सालवान को बंदी बना लिया था ओर सिंहराज ने उसे तब तक मुक्त नही किया जब तक खुद सम्राट उन्हें नही छुड़वाने आये सेनापति  तोमर राजवंश के परिवार का ही एक सदस्य था जो शाशक राजकुमार रुद्र को छुड़वाने आये थे वे रघुकुल वंश के थे -- अर्थात प्रतिहार राजा तोमर राजकुमार को छुड़वाने आएं थे।

लगभग 10 वी सदी के आते आते प्रतिहार साम्राज्य की नींव ही हिल गयी थी जब प्रतिहारो की इमारत ढ़ह रही थी तो चौहान राजा सिंहराज ने उस जगह अपनी इमारत की नींव रखनी शुरू कर दी प्रतिहार राजा का बन्दी को छुड़वाने आना साफ बतलाता है की चौहानों का कद सिंहराज के समय तक कितना बढ़ चुका था कन्नौज के ऑर्टिहरो के पतन के साथ ही शाकुंभरी के चौहानों की शक्ति बढ़ती जा रही थी।

हर्ष चरित्र में सिंहराज के विषय मे कहा गया है कि उसने अपनी वीरता से रघुकुल- भु- चक्रवर्ती  परमभट्टारक -महाराजधिराज-चक्रवर्ती - परमेश्वर आदि की उपाधियां धारण की सिंहराज अपने पिता के समान ही बहुत प्रतापी राजा थे।

आठवी सदी से लेकर 10 वी सदी तक चौहानों ने बहुत स्वामिभक्ति के साथ प्रतिहारो की सेवा की थी वे प्रतिहार राजाओ के लिए युद्ध करने के लिए सेना लेकर सदैव तैयार रहते थे प्रतिहार साम्राज्य के विस्तार में भी चौहान सामंतों ने अपनी सेना सहित पूर्ण योगदान दिया था किंतु दिन प्रतिदिन प्रतिहारो की घटती शक्ति और निकुंशता के कारण चौहानों ने अपनी शक्ति को बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया।

चौहान राजा वाक्यतिराज राज ने सर्वप्रथम चौहानों को सामन्त से साम्राज्य तक की सोची लेकिन वे इसमे पूर्ण रूप से सफल नही हुए लेकिन आगे आने वाले चौहान राजाओ को सही राह दिखा दी वाक्यतिराज के इस स्वपन को चौहान सिंहराज ने पूरा किया।

सिंहराज के बाद चौहान साम्राज्य का वास्तविक विस्तार शुरू हुआ विग्रहराज चौहान द्वितीय पहला चौहान राजा था जो प्रतिहारो से पूरी तरह मुक्त हो चुका था विग्रहराज द्वितीय बहुत ही वीर तथा प्रतापी चाहमान शाशक था विग्रहराज द्वितीय ने चौहानो के समस्त शत्रुओ को परास्त किया विग्रहराज द्वितीय ने चालुक्य नरेश मूलराज को भी आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया उसके बाद उसने भृगुकच्छ में आशापुरी देवी के मंदिर का निर्माण किया हम्मीर महाकाव्य के अनुसार विग्रहराज ने चालुक्य नरेश मूलराज का वध करके उनके राज्य को चौहान साम्राज्य में मिला लिया।

पृथ्वीराज विजय में उल्लेख किया गया है कि चाहमान शासक विग्रहराज द्वितीय ने अपनी विशाल एवम शक्तिशाली सेना के साथ नर्मदा नदी तक अपनी विजय यात्रा निकाली उस रास्ते मे आने वाले जिस राजा ने भी चौहानों का विरोध किया विग्रहराज ने उन सभी को परास्त किया और आगे बढ़ गया इस प्रकार विग्रहराज चौहान द्वितीय ने अपनी विजय पताका उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैलाई दक्षिण में विग्रहराज ने आशापुरी माँ का बहुत ही भव्य मंदिर बनवाया था आशापुरी देवी के मंदिर की सीढ़ियां नर्मदा नदी के तट को भी स्पर्श करती थी।

विग्रहराज द्वितीय की अश्वसेना को इतना शक्तिशाली सेना कहा जाता है कि जब उसके घोड़े दौड़ते थे तो सूर्य के प्रकाश को भी छिप जांना पड़ता था।

लेकिन् विग्रहराज का दूसरा चरित्र यह भी था की वह बहुत ही धार्मिक तथा दयालु राजा था उसने अपने शत्रुओं को भी गले से लगाया जब वे उनकी शरण मे आएं सुबुक्तगीन ने जब अफगानिस्तान के राजा जयपाल पर आक्रमण किया था तब विग्रहराज ने अपनी सेना जयपाल की मदद के लिए भेजी थी चौहानों की अंधाधुंध विजय ओर साम्राज्यविस्तार की गाथा जारी है।

जय राजपूताना जय माँ भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

गाथा वीर चौहानों की - भाग 5

अब वह समय आ चुका था जब हिंदुस्थान की धरती पर शाशन कौन करें इसका टूर्नामेंट शुरू हो चुका था लगभग इसी समय ईस्वी 944 के आसपास चाहमान शाशन की सत्ता पर वाक्यतिराज विराजमान थे। 

पृथ्वीराज विजय में वाक्यतिराज की शोर्यगाथा का अद्भुत रूप से वर्णन किया गया है वाक्यतिराज एक महान् शिवभक्त थे ओर उन्होंने धरती पर तांडव भी भगवान शिव की  तरह ही किया।

वाक्यतिराज चौहान ने अपने जीवन मे कुल 188 युद्ध किये ओर सभी युद्ध जीते इस बात का प्रमाण पृथ्वीराज विजय है यहां तक कि वाक्यतिराज चौहान ने महाशक्तिशाली प्रतिहार साम्राज्य को भी परास्त कर दिया ओर चौहानों को विश्व की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।

वाक्यतिराज की प्रतिहारो पर विजय के बाद चौहानों का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर जा पहुंचा चौहानों की प्रतिहारो पर विजय का उल्लेख हर्ष शिलालेख में कुछ इस तरह किया हुआ है।

यैनादैन्य सव्सैन्य कथमपि दद्यता वाजि वल्गा मुमुक्षः 
प्रागेव प्रासितेव सरसि करि रट्ड डिण्डिमेर डिण्डु जेद्ध वन्ध क्ष्मार्भुराज्ञांम समदमभिवहन्ना गेतानन्त 

इस श्लोक का अर्थ यह है कि चौहान राजा वाक्यतिराज ने पहले तो प्रतिहार शाशक तंत्रपाल को फटकारा क्यो की वह अहंकारवंश बहुत से हांथियो की सेना के साथ चौहानों के राज्य में घुस आया था हर्ष चरित्र कहता है कि पहला वार वाक्यतिराज ने नही किया उन्होंने प्रतिहार राजा को शांतिपूर्ण तरीके से वापस लौट जाने को कहा लेकीन् तंत्रपाल ने चौहानों पर आक्रमण कर दिया तब चौहानों की घुड़सवार सेना ने प्रतिहारो की हस्ति सेना को बड़ी बुरी तरह परास्त किया।

यही से किसी भी चौहान सामन्त को पहली बार महाराज की उपाधि मिली थी चौहान अब भारतेश्वर बन चुके थे चौहानों की अंधाधुंध विजयें यहीं से शुरू होती है इंतजार किजिये अगले भाग का।

जय राजपूताना जय माँ भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

राजपूतों को राज धर्म सिखाने वालों जरा यहाँ भी देख लो… 👀

⚔️ राजपूतों ने जब जब कोई और धर्म अपनाया ईमानदारी से अपनाया और निभाया है।
तब दुनिया भी देखती रह गयी है।

✍️ ब्राह्मण -----
जब एक राजपूत ब्राह्मण बना तो जो पद ब्राह्मण भी प्राप्त न कर सके वो उन्होंने प्राप्त किया।
और वो थे "विश्वामित्र जिन्होंने ब्रह्मऋषि का पद प्राप्त किया।"

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✍️ वैश्य -----
जब एक राजपूत ने वैश्य धर्म अपनाया तो देवता भी देखते रह गए थे।
वो थे "राजा शिवि जिन्होंने एक कबुतर को शरण दी और उसके बदले में अपना शरीर तक तराजू पर तोल दिया था… बाज का भोजन बनने के लिए।"

✍️ शूद्र -----
जब एक राजपूत ने शूद्र धर्म निभाया तो शूद्र भी अपना धर्म भूल गए।
वो थे "राजा हरिश्चंद्र वो जब चांडाल बने तो अपने बेटे का अंतिम संस्कार भी बिना दान के न होने दिया।"

✍️हम किसी जाती का विरोध नहीं करते पर जब ऊँगली हम पर उठेगी तो हम हाथ काट देना पसंद करते हैं।

                          और…

✍️यह हम नहीं हमारा इतिहास बोलता है।
फिर से पढ़ लेना जरूरत पड़े तो…
वरना नया इतिहास भी बना देगें।

             🚩जय माँ भवानी।🚩

             🚩जय राजपुताना।🚩

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

🚩क्षत्रिय राजपूत जागरण के 27 सूत्र।⚔

(01) सभी राजपूत एक हों।

(02) भगवान श्रीराम  को अपना नायक मानें।

(03) छोटे छोटे संगठनों के राजपूत, कोष बनें।

(04) कोष से गरीब राजपूत परिवारोंं की मदद हो।

(05) हर राजपूत कोई न कोई तकनीक सीखें।

(06) राजपूत अधिकारी,प्रधानाचार्य, नेता, उद्योगपति, कानून के अंदर राजपूतो के काम को यथा संभव हो तो आगे बढ़कर मदद करे।

(07) डा. बी.आर अम्बेडकर के कारण,ओर नेहरू की नीतिओ के कारण राजपूतो का पतन हुआ है,इसलिए डाँ. बी.आर अम्बेडकर के विरुद्ध पंडित मदन मोहन मालवीय को खड़ा करें।♦

(08) पढ़े लिखे राजपूत डाक्टर बी. आर. अम्बेडकर की समस्त थियोरी को ध्वस्त करें।

(09) आपसी सहयोग की भावना रखें, लेकिन पैसो💵ओर लेंन- देंन को व्यवहारकुशल अवश्य रखें।

(10) राजपूत होने पर 💪🏼गर्व करें।ओर अपनी झूठी शान के लिए 🍷शराब ओर कोई भी अनैतिक कार्य न करे।

(11) सभी राजपूत अपने नाम के आगेे कुँवर, ठाकुर ओर बाद में सिंह, शब्द जरूर लगाएं।, यग्योपवीत और ♦चंदन तिलक लगाना प्रारम्भ करें।

(12) राजपूत राजपूत  की निंदा कभी न करे। यदि कोई करता है, तो तार्किक विरोध करे।

(13) गो वध और आरक्षण समाप्ति का मिलकर आंदोलन चलाये और पुर जोर विरोध करे।

(14) जहाँ भी वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता का विरोध हो, मुकाबला करें।

(15) मनुस्मृति का अपमान बिलकुल सहन न करें।

(16) श्री राम चरित मानस को अपना गौरव ग्रंथ मानें व बच्चों को राजपुताना इतिहास अवश्य पढ़ाएं।

(17) इतिहास के राजपूत, नायकों पर शोध पूर्ण लेख लिखा जाए।

(18) राजपूत पहले बने,समाज के साथ चली आयी राजपूती मिसाल कायम रखे।

(20) सभी राजपूत प्रति दिन मंदिर जाएं और यथाशक्ति दान करें।

(21) 🤝🏼संगठित होकर रहे।किसी भी राजपूत पर संकट आने पर मिलकर मुकाबला करें। स्वयं व धर्म रक्षार्थ कम से कम 🗡तलवार और कोई भी 🔫अस्त्र शस्त्र अपने घर पर रखे।

(22) प्राचीन व आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें।

(23) कैरियर पर अधिक ध्यान दें, खेलो को महत्व दे।

(24) जीविका के लिए जो भी काम मिले, ईश्वर का नाम लेकर करें।

(25) भगवान राम में आस्था रखें। भगवान राम का प्रचार प्रसार करें। सभी राजपूत घर मैं भगवान राम की पूजा और आरती ओर सनातन धर्म का पालन ओर रक्षा  करें।

(26) सभी राजपूत भाई, आपस मैं जय श्री राम, जय रघुनाथजी की, जय माता दी या जय भवानी का संबोधन करें।

(27) सभी राजपूत एकजुट रहे।

अगर आप राजपूत  है, तो इस संदेश को अपने सभी बंधुओं तक जरूर भेजे और बार बार भेजे।🙏

⛳💪राजपूत एकता जिंदाबाद✌⛳

⛳जय श्री राम⛳
🇮🇳जय हिन्दुस्तान🇮🇳
⚔💪जय राजपूताना✌⚔
🚩  🙏🙏

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

मेवाड़ राजवंश का संक्षिप्त इतिहास।🙏

सभी क्षत्रिय वीर ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।

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वीर प्रसूता मेवाड की धरती राजपूती प्रतिष्ठा मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण के  अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है मेवाड अपनी समृद्धि परम्परा अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है स्वतन्त्रता की अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। श्री गौरीशंकर ओझा की पुस्तक “मेवाड़ राज्य का इतिहास” एक ऐसी पुस्तक है जिसे मेवाड़ के सभी शासकों के नाम एवं क्रम के लिए सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है।

मेवाड में गहलोत राजवंश – बप्पा ने सन 734 ई० में चित्रांगद गोरी परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था।

रावल बप्पा ( काल भोज ) – 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।

रावल खुमान – 753 ई०

मत्तट – 773 – 793 ई०

भर्तभट्त – 793 – 813 ई०

रावल सिंह – 813 – 828 ई०

खुमाण सिंह – 828 – 853 ई०

महायक – 853 – 878 ई०

खुमाण तृतीय – 878 – 903 ई०

भर्तभट्ट द्वितीय – 903 – 951 ई०

अल्लट – 951 – 971 ई०

नरवाहन – 971 – 973 ई०

शालिवाहन – 973 – 977 ई०

शक्ति कुमार – 977 – 993 ई०

अम्बा प्रसाद – 993 – 1007 ई०

शुची वरमा – 1007- 1021 ई०

नर वर्मा – 1021 – 1035 ई०

कीर्ति वर्मा – 1035 – 1051 ई०

योगराज – 1051 – 1068 ई०

वैरठ – 1068 – 1088 ई०

हंस पाल – 1088 – 1103 ई०

वैरी सिंह – 1103 – 1107 ई०

विजय सिंह – 1107 – 1127 ई०

अरि सिंह – 1127 – 1138 ई०

चौड सिंह – 1138 – 1148 ई०

विक्रम सिंह – 1148 – 1158 ई०

रण सिंह ( कर्ण सिंह ) – 1158 – 1168 ई०

क्षेम सिंह – 1168 – 1172 ई०

सामंत सिंह – 1172 – 1179 ई०

(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया।)

कुमार सिंह – 1179 – 1191 ई०

मंथन सिंह – 1191 – 1211 ई०

पद्म सिंह – 1211 – 1213 ई०

जैत्र सिंह – 1213 – 1261 ई०

तेज सिंह -1261 – 1273 ई०

समर सिंह – 1273 – 1301 ई०

(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं। )

35. रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) – इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया गोरा – बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।

36. अजय सिंह ( 1303 – 1326 ई० ) – हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे किन्तु अवयस्क थे इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।

37. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 – 1364 ई० ) – हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।

38. महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 – 1382 ई० )

39. महाराणा लाखासिंह ( 1382 – 1421 ई० ) – योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।

40. महाराणा मोकल ( 1421 – 1433 ई० )

41. महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1469 ई० ) – इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।

42. महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 – 1473 ई० )  महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।

43. महाराणा रायमल ( 1473 – 1509 ई० ) – सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।

44. महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 – 1527 ई० ) – महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे इनका इतिहास स्वर्णिम है जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।

45. महाराणा रतन सिंह ( 1528 – 1531 ई० )

46. महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 – 1534ई० ) – यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300 महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 – 1537 तक मेवाड पर शासन किया लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली इसी समय सिसोदिया वंश के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।

47. महाराणा उदय सिंह ( 1537 – 1572 ई० ) –मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली।

48. महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० ) – इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें धीरे – धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला लेकिन हार नहीं मानी ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता कीअन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।

49. महाराणा अमर सिंह -(1597 – 1620 ई० ) –प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।

50. महाराणा कर्ण सिद्ध ( 1620 – 1628 ई० )_ इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।

51.महाराणा जगत सिंह ( 1628 – 1652 ई० )

52. महाराणा राजसिंह ( 1652 – 1680 ई० ) – यह मेवाड के उत्थान का काल था इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके महाराणा के प्रयास से अंबेर मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया।

53. महाराणा जय सिंह ( 1680 – 1698 ई० )_ जयसमंद झील का निर्माण करवाया।

54. महाराणा अमर सिंह द्वितीय ( 1698 – 1710 ई० ) इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।

55. महाराणा संग्राम सिंह ( 1710 – 1734 ई० ) – महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।

56.  महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 – 1751 ई० ) – ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे इन्होने जलमहल बनवाया शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी।

57. महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 – 1754 ई० )
58. महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 – 1761 ई० )
59. महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 – 1773 ई० )

60. महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 – 1778 ई० ) इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।

61. महाराणा भीमसिंह ( 1778 – 1828 ई० ) – इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया 13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल,कुम्भा,महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी,वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे\ निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे इनमें व्यवहारिकता का आभाव था।ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।

62. महाराणा जवान सिंह ( 1828 – 1838 ई० ) – निःसन्तान। सरदार सिंह को गोद लिया।

63. महाराणा सरदार सिंह ( 1838 – 1842 ई० ) – निःसन्तान। भाई स्वरुप सिंह को गद्दी दी।

64.  महाराणा स्वरुप सिंह ( 1842 – 1861 ई० ) – इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई इन्होने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की।

65. महाराणा शंभू सिंह ( 1861 – 1874 ई० ) – 1868 में घोर अकाल पडा अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।

66 . महाराणा सज्जन सिंह ( 1874 – 1884 ई० ) बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला  इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।

67. महाराणा फ़तह सिंह ( 1883 – 1930 ई० ) – सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दत्तक पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। संत प्रवृति के व्यक्तित्व थे इनके कार्यकाल में ही किंग जार्ज पंचम ने दिल्ली को देश की राजधानी घोषित करके दिल्ली दरबार लगाया. महाराणा दरबार में नहीं गए।

68. महाराणा भूपाल सिंह (1930 – 1955 ई० ) –इनके समय  में भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता भोपाल के नवाब और जोधपुर के महाराज हनुवंत सिंह पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे इस पर उन्होनें कहा कि मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा यह कह कर वे इतिहास में अमर हो गये स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।

69. महाराणा भगवत सिंह ( 1955 – 1984 ई० )
70. श्रीजी अरविन्दसिंह एवं महाराणा महेन्द्र सिंह (1984 ई० से निरंतर..)।

इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये।

(साभार – मेवाड़ राजवंश का इतिहास – गौरीशंक)
जय राजपूताना
जय माँ भवानी
धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

ठाकुर सचिन चौहान अग्निवंशी।

आज की यह पोस्ट,मर्यादा पुरुषोत्तम सुर्यवंश शिरोमणि प्रभु श्री राम के भ्राता लक्ष्मण जी से निकास माने जाने वाले प्रतापी प्रतिहार वंश पर केन्द्रित है।

The Colonial Mythof Gurjara Pratihara

आज की यह पोस्ट,मर्यादा पुरुषोत्तम सुर्यवंश शिरोमणि प्रभु श्री राम के भ्राता लक्ष्मण जी से निकास माने जाने वाले प्रतापी प्रतिहार वंश पर केन्द्रित है।

यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ "द्वारपाल" मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के  मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।

अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।

इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।

(१) सोमदेव सूरी ने सन ९५९ में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।

(२) विद्व शाल मंजिका, सर्ग १,श्लोक ६ में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।

(३)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ १११ पर भी गुर्जर देश का वर्णन है...

कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।
उच्चाया चैव चमेयां  मारवे मालवे तथा।।

(४) महाराज कक्कूड का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है....अर्थात रघुवंशी

रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।

(५) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)

स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।

इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।

(६) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।

(७) भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति

मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,
राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।
श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।
तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।

अर्थात:- सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।

(८) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,१/११)

तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश मुक्तामणिना(बालभारत)

बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।

(९)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत १०१३(ईस्वी ९५६) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-

तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।६।।
तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।

अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।

(१०) गौडेंद्र वंगपति निर्ज्जयदुर्व्विदग्ध सदगुर्ज्जरेश्वर दिगर्ग्गलतां च यस्य।
नीत्वा भुजं विहतमाल वरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।
-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160

उक्त ताम्रपत्र के 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश(गुजरात) का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।

ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।

(११) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।

(१२)३६ राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ "गुर्जर" एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।

(१३)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात "जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया हो" ही है।

(१४) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।

उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।

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प्रतिहार वंश
संस्थापक:- हरिषचन्द्र
वास्तविक:- नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)
पाल:- धर्मपाल
राष्ट्रकूट:- ध्रव
प्रतिहार:- वत्सराज

राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।

त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।

नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् शक्तिषाली शासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु  कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।

मिहिर भोज प्रथम :- इस वंष का सर्वाधिक शक्तिषाली शासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।
- आदिवराह व प्रीाास की उपाधी धारण की।
-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।
मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल शासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।
मारवाड़ का राठौड़ वंष
मेवाड़ का सिसोदिया वंष
जैजामुक्ति का चन्देष वंष
ग्वालियर का कच्छपधात वंष

                     गुर्जर-प्रतिहार
8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।
प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें "द्वारपाल"भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर - प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भीनमाल (जालौर) थी।
मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।
मण्डौर शाखा का संस्थापक - हरिचंद्र था।
गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर

                  भीनमाल शाखा
1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंष की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।

2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंष का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने "कुवलयमाला" की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।
-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।
-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।
-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
-जिनसेन ने "हरिवंष पुराण " की रचना की।
वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।

                त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष
कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंष तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंष के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।
 
3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।

4. मिहिर भोज (835-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक षक्तिषाली राजा था। इस काल चर्माेत्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रषक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।
851 ई. में अरब यात्री सुलेमान न मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रषासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का शत्रु बताया।

5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेष कहा है।

6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा।  915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।

7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।

8. यषपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यषपाल था।

भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त " ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।
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       प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान स्थिति

भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते है।

उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।

प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़ में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है। राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी राजधानी बनाया।

17वीं सदी में भी जब कुछ समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।

इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते है।
बुन्देल खंड में भी परिहारों की अच्छी संख्या है। यहाँ परिहारों का एक राज्य नागौद भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज है।

प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर, दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़, रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है।

उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है। इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था)  अच्छी संख्या में प्रतिहार/परिहार राजपूत मिलते है।

लेखक--कुंवर विश्वजीत सिंह शिशोदिया(खानदेश महाराष्ट्र)