बुधवार, 24 अक्टूबर 2018

सम्राट पृथ्वीराज चौहान




भारत के प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय, का जन्म गुजरात के अन्हिलवाड़ा नामक स्थान पर दिनांक 7 जून, 1166 ज्येष्ठ कृष्ण 12 विक्रम संवत 1223 को हुआ था।

उनके पिता का सोमेश्वर चौहान और माता का नाम कमला देवी कर्पूरी देवी तंवर था, जो अजमेर के सम्राट थे। कमला देवी की बड़ी बहिन सुर सुन्दरी, कनौज के राजा विजयपाल जयचन्द राठौड़ की पत्नी थी।

पृथ्वीराज के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि पृथ्वीराज बड़े-बड़े राजाओं का घमण्ड खत्म करेगा और कई राजाओं को हराकर दिल्ली पति चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया।

★बाल्यकाल★
जब पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का वि.स. 1234 में देहांत हो गया और 14 वर्ष की आयु में उनका राजतिलक कर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया। पृथ्वीराज बाल्यावस्था होने के कारण उनकी माता ने प्रधानमंत्री के मास की देखरेख में राज्य का कार्यभार संभाला और पुत्र को ज्ञान दिया। और कुलगुरु आचार्य के सानिध्य में उन्होंने 25 वर्ष की आयु तक 64 कलाओं, 14 विद्याओं और गणित, युद्ध-शास्त्र, तुरंग विद्या, चित्रकला, संगीत, इंद्रजाल, कविता, वाणिज्य, विनय तथा विविध देशो की भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। पृथ्वीराज को शब्द-भेदी धनुर्विद्या उनके गुरू ने देकर आशीर्वाद दिया था कि ‘‘इस शब्द-भेदी बाण-विद्या से तुम विश्व में एक मात्र योद्धा कहलाओगे और धनुर्विद्या में कोई तुम्हारा मुकाबला नहीं कर पाएगा और तुम चक्रवर्ती सम्राट कहलाओगे।’’ इस प्रकार ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के तदनुसारसार पृथ्वीराज ने अपने दरबार के 150 सामंतों के सहयोग से छोटी सी उम्र में दिग्विजय का बीड़ा उठाया और चारों दिशाओं के राजाओं पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बन गया।

★युवावस्था★
पृथ्वीराज को कविता में रूचि थी। उनके दरबार में कश्मीरी पंडित कवि जयानक, विद्यापति गौड़, वणीश्वर जर्नादन, विश्वरूप प्रणभनाथ और पृथ्वी भट्ट जिसे चंद्रबरदायी कहते थे, उच्च कोटि के कवि थे। पत्राचार और बोल-चाल की भाषा संस्कृत थी। उज्जैन और अजमेर के सरस्वती कण्ठ भरण विद्यापीठ से उत्तीर्ण छात्र प्रकाण्ड पण्डित माने जाते थे। पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल तंवर दिल्ली के राजा थे, और उनके कोई संतान नहीं होने के कारण पृथ्वीराज को 1179 में दिल्ली की राजगद्दी मिली। अनंगपाल ने अपने दोहित्र पृथ्वीराज को शास्त्र सम्मत युक्ति के अनुसार उत्तराधिकारी बनाने हेतु अजमेर के प्रधानमंत्री कैमास को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने यह लिखा कि ‘‘मेरी पुत्री का पुत्र पृथ्वीराज 36 कुलों में श्रेष्ठ चौहान वंश का सिरमौर है। मैं वृद्धावस्था के कारण उसे उत्तरदायित्व देकर भगवत् स्मरण को जाना चाहता हॅूं, तद्नुसार व्यवस्था करावें।’’ इस प्रकार हेमन्त ऋतु के आरम्भ में वि.स. 1229 मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी गुरूवार को पृथ्वीराज का दिल्लीपति घोषित करते हुए राजतिलक किया गया। दिल्ली में पृथ्वीराज ने एक किले का निर्माण करवाया जो ‘‘राय पिथौरा किले’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

★विवाह★

प्रथम विवाह - पृथ्वीराज चौहान का प्रथम विवाह बाल्यकाल में ही नाहर राय प्रतिहार परमार की पुत्री से होना निश्चित हो गया था, परन्तु बाद में नाहर राय ने अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज के साथ करने से मना कर दिया। इस पर पृथ्वीराज ने संदेश भिजवाया कि यदि यह विवाह नहीं हुआ तो युद्ध होगा और क्षत्रिय परम्परानुसार हम कन्या का हरण करके विवाह करने को बाध्य होंगे। नाहर राय ने पृथ्वीराज की बात नहीं मानी और दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें नाहर राय की पराजय हुई तथा पृथ्वीराज ने कन्या का हरण कर विवाह किया।

द्वितीय विवाह - पृथ्वीराज का दूसरा विवाह आबू के परमारों के यहां हुआ, राजकुमारी का नाम ‘‘इच्छानी’’ था।

तृतीय विवाह - पृथ्वीराज का तीसरा विवाह चन्दपुण्डीर की पुत्री से हुआ।

चर्तुथ विवाह - पृथ्वीराज का चौथा विवाह दाहिमराज दायमा की पुत्री से हुआ और इसी रानी से पृथ्वीराज को रयणसीदेव पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।

पंचम विवाह - पृथ्वीराज का पांचवा विवाह राजा पदमसेन यादव की पुत्री पदमावती से हुआ। पदमावती एक दिन बाग में विहार कर रही थी, तभी उसने वहाँ पर बैठे हुए एक शुक सुवा तोता को पकड़ लिया। वह सुवा पृथ्वीराज चौहान के राज्य का था और शास्त्रवेता होने के कारण उसकी वाणी पर राजकुमारी मुग्ध हो गई तथा वह शुक को अपने पास रखने लगी। उस शुक ने राजकुमारी को पृथ्वीराज चौहान की वीरता एवं शौर्य की कहानी सुनाई, जिसके कारण राजकुमारी पृथ्वीराज चौहान पर मोहित हो गई तथा उस शुक के साथ ही पृथ्वीराज को यह संदेश भिजवाया कि ‘‘आप कृष्ण की भांति रूकमणी जैसा हरण पर मेरे साथ पाणिग्रहण करो, मैं आपकी भार्या हॅू।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज का पाचवा विवाह हुआ।

षष्ठम् विवाह - पृथ्वीराज चौहान का छठा विवाह देवगिरी के राजा तवनपाल यादव की पुत्री शशिवृता के साथ हुआ। तनवपाल यादव की रानी ने पृथ्वीराज के पास संदेश भिजवाया कि ‘‘हमारी पुत्री शशिवृता ने आपको परिरूप में वरण करने का निश्चिय किया है। उसकी सगाई कन्नोज के राज जयचन्द राठौड़ के भाई वीरचन्द के साथ हुई है, परन्तु कन्या उसे स्वीकार नहीं करती है, अस्तु आप आकर उसका युक्ति-बुद्धि से वरण करें।’’

सप्तम विवाह - पृथ्वीराज का सातवां विवाह सारंगपुर मालवाद्ध के राजा भीम परमार की पुत्री इन्द्रावती के साथ खड़ग विवाह हुआ। जब पृथ्वीराज विवाह हेतु सारंगपुर आ रहे थे, तब दूत से खबर मिली कि पाटण के राजा भोला सालंकी ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया है। यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने अपनी सैन्य शक्ति के साथ चित्तौड़ की ओर प्रयाण किया और सामंतों से मंत्रणा विवाह हेतु अपना खड़ग आमेर के राजा पजवनराय कछवाहा के साथ सारंगपुर भिजवा दिया। निश्चित दिन राजकुमारी इन्द्रावती का पृथ्वीराज के खड़ग से विवाह की रस्म पूरी हुई।

अष्ठम विवाह - कांगड़ के युद्ध के पश्चात जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर की पुत्री के साथ पृथ्वीराज का आठवां विवाह सम्पन्न हुआ।

नवम् विवाह - पृथ्वीराज का नवां विवाह पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की कहानी के रूप में मशहूर है, कन्नोज के राजा जयचन्द राठौड़ की पुत्री संयोगिता थी । संयोगिता अपने मन में पृथ्वीराज को अपना पति मान चुकी थी और उसने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आकर वरण करने का संदेश भिजवाया था। संयोगिता के विवाह हेतु राजा जयचन्द ने स्वयंवर का आयोजन किया था, जिसमें कई राजा-महाराजाओं को निमंत्रित किया गया, लेकिन पृथ्वीराज से मन-मुटाव नाराजगी के कारण उनको निमंत्रण नहीं भिजवाया गया और उपस्थिति के रूप में द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा लगवा दी। स्वयंवर में राजकवि क्रमानुसार उपस्थित राजाओं की विरूदावली बखानते हुए चल रहा था और संयोगिता भी आगे बढ़ती रही। इस प्रकार सभी राजाओं के सामने से गुजरने के बावजूद किसी भी राजा के गले में संयोगिता ने वरमाला पहनाकर अपना पति नहीं चुना और द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में वरमाला डालकर पृथ्वीराज को अपना पति चुन लिया। संयोगिता के इस कृत्य से जयचन्द बहुत क्रोधित हुआ और दूसरी वरमाला संयोगिता के हाथ में देकर पुनः सभी राजाओं की विरूदावलियों के बखान के साथ संयोगिता को स्वयंवर पाण्डाल में घुमाया गया फिर भी संयोगिता ने पृथ्वीराज के गल्ले में ही अपनी वरमाला पहनाकर अपना पति चुना। इस प्रकार यह क्रम तीसरी बार भी चलाया गया और उसका वही परिणाम हुआ। तभी पृथ्वीराज ने जो कि अपने अंगरक्षकों के साथ उसकी प्रतिमा के पास खड़ा था संयोगिता को उठाकर अपने घोड़े पर बिठा लिया और वहां से चल निकला। जयचन्द ने भी अपने सैनिक पृथ्वीराज संयोगिता के पीछे लगा दिए और बीच रास्ते में पृथ्वीराज और जयचन्द के सैनिकों के बीच युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज की विजय हुई और वह संयोगिता को लेकर दिल्ली पहुंच गया। बाद में जयचन्द ने कुल-पुरोहितों को यथोचित भेंट के साथ दिल्ली भिजवाकर पृथ्वीराज और संयोगिता का विधिवत विवाह करवाया और यह संयोगिता के लिए यह संदेश भिजवाया कि ‘‘हे प्यारी पुत्री तुझे वीर चौहान को समर्पित करते हुए दिल्ली नगर में अपनी प्रतिष्ठा दान में अर्पित करता हॅूं।’’

आल्हाखंड में राजकुमारी संयोगिता का अपहरणका वर्णन -

आगे आगे पृथ्वीराज हैं, पाछे चले कनौजीराय।

कबहुंक डोला जैयचंद छिने, कबहुंक पिरथी लेय छिनाय।

जौन शूर छीने डोला को, राखे पांच कोस पर जाय।

कोस पचासक डोला बढ़िगो, बहुतक क्षत्री गये नशाय।

लडत भिडत दोनो दल आवैं, पहुंचे सौरां के मैदान ।

राजा जयचंद नें ललकारो, सुनलो पृथ्वीराज चौहान।

डोला ले जई हौ चोरी से, तुम्हरो चोर कहे हे नाम।

डोला धरि देउ तुम खेतन में, जो जीते सो लय उठाय।

इतनी बात सुनि पिरथी नें , डोला धरो खेत मैदान।

हल्ला हवईगो दोनों दल में, तुरतै चलन लगी तलवार।

झुरमुट हवईग्यो दोनों दल को, कोता खानी चलै कटार।

कोइ कोइ मारे बन्दूकन से, कोइ कोइ देय सेल को घाव।

भाल छूटे नागदौनी के, कहुं कहुं कडाबीन की मारू।

जैयचंद बोले सब क्षत्रीन से, यारो सुन लो कान लगाय।

सदा तुरैया ना बन फुलै, यारों सदा ना सावन होय।

सदा न माना उर में जनि हे, यारों समय ना बारम्बार।

जैसे पात टूटी तरुवर से, गिरी के बहुरि ना लागै डार।

मानुष देही यहु दुर्लभ है, ताते करों सुयश को काम।

लडिकै सन्मुख जो मरिजैहों, ह्वै है जुगन जुगन लो नाम।

झुके सिपाही कनउज वाले, रण में कठिन करै तलवार।

अपन पराओ ना पहिचानै, जिनके मारऊ मारऊ रट लाग।

झुके शूरमा दिल्ली वाले, दोनों हाथ लिये हथियार।

खट खट खट खट तेग बोलै, बोले छपक छपक तलवार।

चले जुन्नबी औ गुजराती, उना चले विलायत वयार।

कठिन लडाई भई डोला पर, तहं बही चली रक्त की धार।

उंचे खाले कायर भागे, औ रण दुलहा चलै पराय।

शूर पैंतीसक पृथीराज के, कनउज बारे दिये गिराय।

एक लाख झुके जैचंद कें, दिल्ली बारे दिये गिराय।

ए॓सो समरा भयो सोरौं में, अंधाधु्ंध चली तलवार।

आठ कोस पर डोला पहुंचै, जीते जंग पिथोरा राय।

पृथ्वीराज द्वारा निम्नलिखित युद्ध किये गए:-

प्रथम युद्ध:- पृथ्वीराज ने प्रथम युद्ध 1235 में अपने प्रधानमंत्री और माता के निर्देशन में चालुक्य भीम द्वारा नागौर पर हमला करने के कारण लड़ा और उसमें विजयी हुए।

दितीय युद्ध:- राज्य सिंहासन पर बैठते ही मात्र 14 वर्ष की आयु में पृथ्वीराज से गुड़गांव पर नागार्जुन ने अधिकार के लिये विद्रोह किया था, उसमें वि.स. 1237 में विजय प्राप्त की।

तृतीय युद्ध:- वि.स. 1239 में अलवर रेवाड़ी, भिवानी आदि क्षेत्रों में मदानकों ने विद्रोह किया, इस विद्रोह को दबाकर विजय प्राप्त की।

चर्तुथ युद्ध:- वि. स. 1239 में ही महोबा के चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव (परिमालद्ध पर आक्रमण कर उस युद्ध में विजय प्राप्त कर उसके राज्य को अपने अधीन किया।

पंचम युद्ध:- कर्नाटक के राजा वीरसेन यादव को जीतने के लिये पृथ्वीराज ने उस पर हमला करके उसे अपने अधीन कर लिया और दक्षिण के सभी राजा इस युद्ध के बाद उसके अधीन हो गए। सब राजाओं ने मिलकर इस विजय पर पृथ्वीराज को कई चीजें भेंट की।

षष्ठम् युद्ध:- पृथ्वीराज ने कांगड़ा नरेश भोटी भान को कहलवाया कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर लें, परन्तु भोटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस कारण पृथ्वीराज ने कांगड़ा पर हमला किया, जिसमें भोटी भान मारा गया। भान के पश्चात उसका साथी वीर पल्हन जो शिशुपाल का वंशज था, एक लाख सवार और एक लाख पैदल सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने आया। इस पर पृथ्वीराज ने मुकाबला करने के लिए जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर को कांगड़ा राज्य का प्रशासन सौंपा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने वीर पल्हन को बन्दी बनाकर कांगड़ा में चौहान राज्य स्थापित किया। बाद में पृथ्वीराज ने हमीर को ही कांगड़ा का राजा बना दिया, जिसने पहले ही पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर रखी थी। हमीर ने अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज से कर पारीवारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच शत्रुता एवं युद्ध:-

मोहम्मद गौरी की चित्ररेखा नामक एक दरबारी गायिका रूपवान एवं सुन्दर स्त्री थी। वह संगीत एवं गान विद्या में निपुण, वीणा वादक, मधुर भाषिणी और बत्तीस गुण लक्षण बहुत सुन्दर नारी थी। शाहबुदीन गौरी का एक कुटुम्बी भाई था ‘‘मीर हुसैन’’ वह शब्दभेदी बाण चलाने वाला, वचनों का पक्का और संगीत का प्रेमी तथा तलवार का धनी था। चित्ररेखा गौरी को बहुत प्रिय थी, किन्तु वह मीर हुसैन को अपना दिल दे चुकी थी और हुसैन भी उस पर मंत्र-मुग्ध था। इस कारण गौरी और हुसैन में अनबन हो गई। गौरी ने हुसैन को कहलवाया कि ‘‘चित्ररेखा तेरे लिये कालस्वरूप है, यदि तुम इससे अलग नहीं रहे तो इसके परिणाम भुगतने होंगें।’’ इसका हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ और वह अनवरत चित्ररेखा से मिलता रहा। इस पर गौरी क्रोधित हुआ और हुसैन को कहलवाया कि वह अपनी जीवन चाहता है तो यह देश छोड़ कर चला जाए, अन्यथा उसे मार दिया जाएगा। इस बात पर हुसैन ने अपी स्त्री, पुत्र आदि एवं चित्ररेखा के साथ अफगानिस्तान को त्यागकर पृथ्वीराज की शरण ली, उस समय पृथ्वीराज नागौर में थे। शरणागत का हाथ पकड़कर सहारा और सुरक्षा देकर पृथ्वी पर धर्म-ध्वजा फहराना हर क्षत्रिय का धर्म होता है। इधर मोहम्मद गौरी ने अपने शिपह-सालार आरिफ खां को मीर हुसैन को मनाकर वापस स्वदेश लाने के लिए भेजा, किन्तु हुसैन ने आरिफ को स्वदेश लौटने से मना कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीराज द्वारा मीर हुसैन को शरण दिये जाने के कारण मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी हो गई।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया। जब-जब भी मोहम्मद गौरी परास्त होता, उससे पृथ्वीराज द्वारा दण्ड-स्वरूप हाथी, घोड़े लेकर छोड़ दिया जाता । मोहम्मद गौरी द्वारा 15वीं बार किये गए हमले में पृथ्वीराज की ओर से पजवनराय कछवाहा लड़े थे तथा उनकी विजय हुई। गौरी ने दण्ड स्वरूप 1000 घोड़ और 15 हाथी देकर अपनी जान बचाई। कैदखाने में पृथ्वीराज ने गौरी को कहा कि ‘‘आप बादशाह कहलाते हैं और बार-बार प्रोढ़ा की भांति मान-मर्दन करवाकर घर लौटते हो। आपने कुरान शरीफ और करीम के कर्म को भी छोड़ दिया है, किन्तु हम अपने क्षात्र धर्म के अनुसार प्रतिज्ञा का पालन करने को प्रतिबद्ध हैं। आपने कछवाहों के सामने रणक्षेत्र में मुंह मोड़कर नीचा देखा है।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने उदारवादी विचारधारा का परिचय देते हुए गौरी को 17 बार क्षमादान दिया। चंद्रवरदाई कवि पृथ्वीराज के यश का बखान करते हुए कहते हैं कि ‘‘हिन्दु धर्म और उसकी परम्परा कितनी उदार है।’’

18वीं बार मोहम्मद गौरी ने और अधिक सैन्य बल के साथ पृथ्वीराज चौहान के राज्य पर हमला किया, तब पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया ही था, इसलिए अधिकतर समय वे संयोगिता के साथ महलों में ही गुजारते थे। उस समय पृथ्वीराज को गौरी की अधिक सशक्त सैन्य शक्ति का अंदाज नहीं था, उन्होंने सोचा पहले कितने ही युद्धों में गौरी को मुंह की खानी पड़ी है, इसलिए इस बार भी उनकी सेना गौरी से मुकाबला कर विजयश्री हासिल कर लेगी। परन्तु गौरी की अपार सैन्य शक्ति एवं पृथ्वीराज की अदूरदर्शिता के कारण गौरी की सेना ने पृथ्वीराज के अधिकतर सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और कई सैनिकों को जख्मी कर दिल्ली महल पर अपना कब्जा जमा कर पृथ्वीराज को बंदी बना दिया। गौरी द्वारा पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया और उनके साथ घोर अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया। गौरी ने यातनास्वरूप पृथ्वीराज की आँखे निकलवा ली और ढ़ाई मन वजनी लोहे की बेड़ियों में जकड़कर एक घायल शेर की भांति कैद में डलवा दिया। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई और हजारों क्षत्राणियों ने पृथ्वीराज की रानियों के साथ अपनी मान-मर्यादा की रक्षा हेतु चितारोहण कर अपने प्राण त्याग दिये।

इधर पृथ्वीराज का राजकवि चन्दबरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया। इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया:-

‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण।

ता ऊपर सुल्तान है, चूके मत चौहान।।’’

अर्थात् :-
चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।

इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया। गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक-दूसरे को कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये। आज भी पृथ्वीराज चौहान और चंद्रवरदाई की अस्थियां एक समाधी के रूप में काबुल में विद्यमान हैं। इस प्रकार भारत के प्रतापी सम्राट का 1192 में अन्त हो गया और फिर हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। चंद्रवरदाई और पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। अपने महान राजा पृथ्वीराज चौहान के सम्मान में रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है। अंततोगत्वा पृथ्वीराज चौहान एक पराजित विजेता कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा।

🚩🙏जय⚔भवानी।🙏🚩
🚩💪जय🎯राजपूताना।✌🚩

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

गाथा वीर चौहानों की - भाग 8




विग्रहराज द्वितीय के बाद दुर्लभराज द्वितीय ने चौहान सत्ता संभाली दुर्लभराज के काल मे भी चौहान साम्राज्य ने खासी उन्नति की तथा अपना भौगोलिक विस्तार किया।

दुर्लभराज के बाद विरायानामा चौहानों की गद्दी पर विराजमान हुए ओर उनके बाद 1040ईस्वी से 1065 ईस्वी तक चौहान साम्राज्य के सिंहासन पर चामुंडाराज चौहान गद्दी पर विराजमान हुए इन्हें बहुत ही धार्मिक राजा माना जाता है चामुंडाराज ने नरपुरा में भगवान विष्णु का एक बहुत ही भव्य मंदिर बनवाया था चामुंडाराज के समय भी भारत मे मुसलमानों के हमले लगतार हो रहे थे प्रबन्धकोश के अनुसार चामुंडाराज ने मुसलमानों से बहुत युद्ध किये थे ओर उन्हें रोके रखा हम्मीर महाकाव्य में चामुंडाराज की मुस्लिम शाशक हजिम-उ-दीन पर विजय का उल्लेख है।

सुरमान चरित्र में भी चामुंडाराज की मुस्लिमो पर विजय का उल्लेख है ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि मुस्लिम पंजाब तक के क्षेत्र को अपने अधीन कर चुके होते अगर चामुंडाराज उन्हें न् रोकते तो चामुंडाराज ने अपनी राजधानी गजनी के निकट ही स्थापित की जिससे सीमा ओर ही मल्लेछो से डटकर लोहा लिया जा सके ओर भारत मे प्रवेश करने से पहले ही उन्हें खदेड़ मारा जाएं। 

चामुंडाराज के बाद चाहमान साम्राज्य की गद्दी दुर्लभराज तृतीय ने संभाली इन्हें वीरसिंह के नाम से भी जाना जाता है पृथ्वीराज विजय के अनुसार दुर्लभराज तृतीय उर्फ वीरसिंह ज़्यादा समय तक शासन नही कर सके ओर मातंगों ( मुसलमानों ) के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।

दुर्लभराज के बाद चौहान साम्राज्य की गद्दी विग्रहराज चौहान तृतीय को मिली इतिहास में इन्हें विसलदेव के नाम से भी जाना जाता है हम्मीर महाकाव्य में विसलदेव की सहाबुद्दीन गौरी एवं चालुक्यों ओर विजय का उल्लेख है।

दुर्लभराज के बाद चाहमान साम्राज्य की गद्दी पृथ्वीराज चौहान प्रथम ने संभाली पृथ्वीराज बहुत ही धार्मिक प्रवर्ति के राजा थे सोमनाथ जाने वाले रास्तों में उन्होंने अपार अन्नभंडार बनवाये जिससे तीर्थयात्रियों को रास्ते मे भोजन की कोई कमी न रहें पृथ्वीराज प्रथम के समय भी भारत और मुसलमानों के भयंकर आक्रमण हुए थे प्रबन्धकोश में पृथ्वीराज को बहुत ही शक्तिशाली तथा वीर शाशक बताते हुए इनका सुल्तान बागुली शाह से आपसी संघर्ष का उल्लेख किया गया है मिनहास अस सिराज ने अपने ग्रन्थ तबाकत ए नासिरी में लिखा है अल्लाउदीन मसूद के शासन काल  1098 से 1115 ईस्वी में मुसलमानों ने गंगा नदी पार कर हिंदुस्तान में प्रवेश किया तथा चारो ओर भयंकर तबाही मचा दी प्रतीत ऐसा होता है कि बागुली शाह अल्लाउद्दीन मसूद का सेनापति रहा होगा म्लेच्छ मुसलमानों की आती तबाही को चौहान शाशक पृथ्वीराज ने रौका तथा इतिहास में अपना नाम अमर करवाया।

पृथ्वीराज प्रथम के बाद चाहमान गद्दी पर महाराज अजयराज चौहान विराजमान हुए इनका शासनकाल 1105 से 1130 ईस्वी तक माना जाता है अजयराज चौहान ऐसे शाशक थे जिन्होंने मालवा से भी ज़्यादा सम्पनता ओर सुविधा अपने राज्य के निवासियों को दी अजयराज चौहान के बाद चाहमान शाशन की गद्दी अर्णोराज चौहान ने संभाली अर्णोराज चौहान ऐसे वीर शासक थे जिन्होंने मुसलमानों के रक्त से पूरा अजमेर रंग दिया था।

जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।
रॉयल राजपूत अज्य ठाकुर गोत्र भारद्वाज सूर्यवंशी।
पढ़ते रहिये गाथा वीर चौहानों की।

गाथा वीर चौहानों की - भाग 7


गाथा वीर चौहानों की में आपने अंतिम लेख विग्रहराज चौहान द्वितीय के बारे में पढ़ा विग्रहराज द्वितीय ही प्रथम चाहमान शाशक थे जो पूर्ण रूप से स्वतंत्र थे विग्रहराज द्वितीय के बाद उनके छोटे भाई दुर्लभराज चाहमान सिंहासन की गद्दी पर विराजमान हुए दुर्लभराज ओर विग्रहराज के भाई प्रेम की कथा का वर्णन उसी प्रकार किया जाता है जिस प्रकार रामायण में राम और लक्ष्मण के भाई प्रेम का प्रसंग हमे सुनने और पढ़ने को मिलता है।

 विग्रहराज के दो भाई और थे चंड राज ओर गोविन्दराज लेकिन प्रशस्तियों में उनका उल्लेख बहुत ही कम मिलता है।

लेकिन् दुर्लभराज की वीरता तथा शौर्य से इतिहास भरा पड़ा है ऐतिहासिक अभिलेखों तथा साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि  1030 तक दुर्लभराज ऑफ चाहमान साम्राज्य अपने चरम पर थे दुर्लभराज द्वितीय इतने वीर तथा पराक्रमी राजा थे की कोई शत्रु उनके सामने खड़े रहने का साहस नही करता था।

दुर्लभराज द्वितीय को शाकुंभरी सत्ता को भली भांति स्थापित करने के लिए बहुत से भयंकर युद्ध भी लड़ने पड़े तमाम संघर्षों तथा विपदाओं को धूल चटाते हुए दुर्लभराज चौहान ने अपने साम्राज्य को इतना शक्तिशाली बना दिया की शत्रु अब चाहमान साम्राज्य पर आक्रमण करने के नाम मात्र से भय खाने लगे थे।

दुर्लभराज के प्रमुख शत्रु चालुक्य हुआ करते थे चालुक्यों ने मित्रता स्थापित करने के प्रयास से चौहानों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये सकरई अभिलेख में तो दुर्लभराज की वीरता के बारे में अद्भुत विवरण है।

दुर्लभराज को अपनी कुशलता तथा वीरता के कारण महाराजधिराज नाम से जाना जाता है किनसरिया अभिलेख में दुर्लभराज को दुरल्लगया - मेरु कहकर संबोधित किया गया है इसी अभिलेख के बाहरवें भाग में शत्रु को पराजित करने वाला रासोसितना संबोधन से दुर्लभराज द्वितीय को सम्मानित किया गया है।

कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों में तो दुर्लभराज की तलवार की भी भारी प्रशंसा की गई है 1008 में जिस हिन्दू राजा ने मुहम्मद सुल्तान को हराया था तथा भारत भूमि से लौट जाने के लिए मजबूर किया था वह राजा भी दुर्लभराज चौहान ही था।

दुर्लभराज के बाद गोविन्दराज सत्ता में आएं पृथ्वीराज विजय में उन्हें वैरिघाटटा नाम से सबोधित किया गया है जिसका अर्थ होता है शत्रु का विनाश करने वाला
प्रबन्धकोश में गोविन्दराज द्वितीय को सुल्तान मुहम्मद पर विजय का श्रेय दिया गया है कहा जाता है कि सुल्तान मुहम्मद को सिंध के  रास्ते भागना पड़ा था क्यो की अजमेर से चाहमान शाशक गोविन्दराज ने अपनी विशाल सेना से मेवाड़ के रास्ते को बन्द कर दिया था।

दुर्लभराज द्वितीय के बाद वाक्यतिराज द्वितीय हुए इन्हें भी अपनी वीरता के कारण खूब ख्यति मिली हुई है।
जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

गाथा वीर चौहानों की - भाग 6

आपने पिछली पोस्ट में पढ़ा चौहान अब सामन्त से महाराज बन चुके थे यह ऐतिहासिक कार्य महाप्रतापी राजा वाक्यतिराज ने किया।

वाक्यतिराज के तीन पुत्र थे विंध्यराज सहराज एवं लक्ष्मण -- इन तीनो पुत्रो में सिंहराज वाक्यतिराज के सबसे योग्य पुत्र थे।

विंध्यराज तथा सहराज ने बहुत ही अल्प समय तक राज्य किया ओर उनके तीसरे पुत्र लक्ष्मण ने नाडोल में चाहमानों की एक अलग शाखा स्थापित की हर्ष चरित्र से यह ज्ञात होता है कि सिंहराज ने तोमर सेनापति सालवान को बंदी बना लिया था ओर सिंहराज ने उसे तब तक मुक्त नही किया जब तक खुद सम्राट उन्हें नही छुड़वाने आये सेनापति  तोमर राजवंश के परिवार का ही एक सदस्य था जो शाशक राजकुमार रुद्र को छुड़वाने आये थे वे रघुकुल वंश के थे -- अर्थात प्रतिहार राजा तोमर राजकुमार को छुड़वाने आएं थे।

लगभग 10 वी सदी के आते आते प्रतिहार साम्राज्य की नींव ही हिल गयी थी जब प्रतिहारो की इमारत ढ़ह रही थी तो चौहान राजा सिंहराज ने उस जगह अपनी इमारत की नींव रखनी शुरू कर दी प्रतिहार राजा का बन्दी को छुड़वाने आना साफ बतलाता है की चौहानों का कद सिंहराज के समय तक कितना बढ़ चुका था कन्नौज के ऑर्टिहरो के पतन के साथ ही शाकुंभरी के चौहानों की शक्ति बढ़ती जा रही थी।

हर्ष चरित्र में सिंहराज के विषय मे कहा गया है कि उसने अपनी वीरता से रघुकुल- भु- चक्रवर्ती  परमभट्टारक -महाराजधिराज-चक्रवर्ती - परमेश्वर आदि की उपाधियां धारण की सिंहराज अपने पिता के समान ही बहुत प्रतापी राजा थे।

आठवी सदी से लेकर 10 वी सदी तक चौहानों ने बहुत स्वामिभक्ति के साथ प्रतिहारो की सेवा की थी वे प्रतिहार राजाओ के लिए युद्ध करने के लिए सेना लेकर सदैव तैयार रहते थे प्रतिहार साम्राज्य के विस्तार में भी चौहान सामंतों ने अपनी सेना सहित पूर्ण योगदान दिया था किंतु दिन प्रतिदिन प्रतिहारो की घटती शक्ति और निकुंशता के कारण चौहानों ने अपनी शक्ति को बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया।

चौहान राजा वाक्यतिराज राज ने सर्वप्रथम चौहानों को सामन्त से साम्राज्य तक की सोची लेकिन वे इसमे पूर्ण रूप से सफल नही हुए लेकिन आगे आने वाले चौहान राजाओ को सही राह दिखा दी वाक्यतिराज के इस स्वपन को चौहान सिंहराज ने पूरा किया।

सिंहराज के बाद चौहान साम्राज्य का वास्तविक विस्तार शुरू हुआ विग्रहराज चौहान द्वितीय पहला चौहान राजा था जो प्रतिहारो से पूरी तरह मुक्त हो चुका था विग्रहराज द्वितीय बहुत ही वीर तथा प्रतापी चाहमान शाशक था विग्रहराज द्वितीय ने चौहानो के समस्त शत्रुओ को परास्त किया विग्रहराज द्वितीय ने चालुक्य नरेश मूलराज को भी आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया उसके बाद उसने भृगुकच्छ में आशापुरी देवी के मंदिर का निर्माण किया हम्मीर महाकाव्य के अनुसार विग्रहराज ने चालुक्य नरेश मूलराज का वध करके उनके राज्य को चौहान साम्राज्य में मिला लिया।

पृथ्वीराज विजय में उल्लेख किया गया है कि चाहमान शासक विग्रहराज द्वितीय ने अपनी विशाल एवम शक्तिशाली सेना के साथ नर्मदा नदी तक अपनी विजय यात्रा निकाली उस रास्ते मे आने वाले जिस राजा ने भी चौहानों का विरोध किया विग्रहराज ने उन सभी को परास्त किया और आगे बढ़ गया इस प्रकार विग्रहराज चौहान द्वितीय ने अपनी विजय पताका उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक फैलाई दक्षिण में विग्रहराज ने आशापुरी माँ का बहुत ही भव्य मंदिर बनवाया था आशापुरी देवी के मंदिर की सीढ़ियां नर्मदा नदी के तट को भी स्पर्श करती थी।

विग्रहराज द्वितीय की अश्वसेना को इतना शक्तिशाली सेना कहा जाता है कि जब उसके घोड़े दौड़ते थे तो सूर्य के प्रकाश को भी छिप जांना पड़ता था।

लेकिन् विग्रहराज का दूसरा चरित्र यह भी था की वह बहुत ही धार्मिक तथा दयालु राजा था उसने अपने शत्रुओं को भी गले से लगाया जब वे उनकी शरण मे आएं सुबुक्तगीन ने जब अफगानिस्तान के राजा जयपाल पर आक्रमण किया था तब विग्रहराज ने अपनी सेना जयपाल की मदद के लिए भेजी थी चौहानों की अंधाधुंध विजय ओर साम्राज्यविस्तार की गाथा जारी है।

जय राजपूताना जय माँ भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

गाथा वीर चौहानों की - भाग 5

अब वह समय आ चुका था जब हिंदुस्थान की धरती पर शाशन कौन करें इसका टूर्नामेंट शुरू हो चुका था लगभग इसी समय ईस्वी 944 के आसपास चाहमान शाशन की सत्ता पर वाक्यतिराज विराजमान थे। 

पृथ्वीराज विजय में वाक्यतिराज की शोर्यगाथा का अद्भुत रूप से वर्णन किया गया है वाक्यतिराज एक महान् शिवभक्त थे ओर उन्होंने धरती पर तांडव भी भगवान शिव की  तरह ही किया।

वाक्यतिराज चौहान ने अपने जीवन मे कुल 188 युद्ध किये ओर सभी युद्ध जीते इस बात का प्रमाण पृथ्वीराज विजय है यहां तक कि वाक्यतिराज चौहान ने महाशक्तिशाली प्रतिहार साम्राज्य को भी परास्त कर दिया ओर चौहानों को विश्व की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।

वाक्यतिराज की प्रतिहारो पर विजय के बाद चौहानों का आत्मविश्वास सातवें आसमान पर जा पहुंचा चौहानों की प्रतिहारो पर विजय का उल्लेख हर्ष शिलालेख में कुछ इस तरह किया हुआ है।

यैनादैन्य सव्सैन्य कथमपि दद्यता वाजि वल्गा मुमुक्षः 
प्रागेव प्रासितेव सरसि करि रट्ड डिण्डिमेर डिण्डु जेद्ध वन्ध क्ष्मार्भुराज्ञांम समदमभिवहन्ना गेतानन्त 

इस श्लोक का अर्थ यह है कि चौहान राजा वाक्यतिराज ने पहले तो प्रतिहार शाशक तंत्रपाल को फटकारा क्यो की वह अहंकारवंश बहुत से हांथियो की सेना के साथ चौहानों के राज्य में घुस आया था हर्ष चरित्र कहता है कि पहला वार वाक्यतिराज ने नही किया उन्होंने प्रतिहार राजा को शांतिपूर्ण तरीके से वापस लौट जाने को कहा लेकीन् तंत्रपाल ने चौहानों पर आक्रमण कर दिया तब चौहानों की घुड़सवार सेना ने प्रतिहारो की हस्ति सेना को बड़ी बुरी तरह परास्त किया।

यही से किसी भी चौहान सामन्त को पहली बार महाराज की उपाधि मिली थी चौहान अब भारतेश्वर बन चुके थे चौहानों की अंधाधुंध विजयें यहीं से शुरू होती है इंतजार किजिये अगले भाग का।

जय राजपूताना जय माँ भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

राजपूतों को राज धर्म सिखाने वालों जरा यहाँ भी देख लो… 👀

⚔️ राजपूतों ने जब जब कोई और धर्म अपनाया ईमानदारी से अपनाया और निभाया है।
तब दुनिया भी देखती रह गयी है।

✍️ ब्राह्मण -----
जब एक राजपूत ब्राह्मण बना तो जो पद ब्राह्मण भी प्राप्त न कर सके वो उन्होंने प्राप्त किया।
और वो थे "विश्वामित्र जिन्होंने ब्रह्मऋषि का पद प्राप्त किया।"

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✍️ वैश्य -----
जब एक राजपूत ने वैश्य धर्म अपनाया तो देवता भी देखते रह गए थे।
वो थे "राजा शिवि जिन्होंने एक कबुतर को शरण दी और उसके बदले में अपना शरीर तक तराजू पर तोल दिया था… बाज का भोजन बनने के लिए।"

✍️ शूद्र -----
जब एक राजपूत ने शूद्र धर्म निभाया तो शूद्र भी अपना धर्म भूल गए।
वो थे "राजा हरिश्चंद्र वो जब चांडाल बने तो अपने बेटे का अंतिम संस्कार भी बिना दान के न होने दिया।"

✍️हम किसी जाती का विरोध नहीं करते पर जब ऊँगली हम पर उठेगी तो हम हाथ काट देना पसंद करते हैं।

                          और…

✍️यह हम नहीं हमारा इतिहास बोलता है।
फिर से पढ़ लेना जरूरत पड़े तो…
वरना नया इतिहास भी बना देगें।

             🚩जय माँ भवानी।🚩

             🚩जय राजपुताना।🚩

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

🚩क्षत्रिय राजपूत जागरण के 27 सूत्र।⚔

(01) सभी राजपूत एक हों।

(02) भगवान श्रीराम  को अपना नायक मानें।

(03) छोटे छोटे संगठनों के राजपूत, कोष बनें।

(04) कोष से गरीब राजपूत परिवारोंं की मदद हो।

(05) हर राजपूत कोई न कोई तकनीक सीखें।

(06) राजपूत अधिकारी,प्रधानाचार्य, नेता, उद्योगपति, कानून के अंदर राजपूतो के काम को यथा संभव हो तो आगे बढ़कर मदद करे।

(07) डा. बी.आर अम्बेडकर के कारण,ओर नेहरू की नीतिओ के कारण राजपूतो का पतन हुआ है,इसलिए डाँ. बी.आर अम्बेडकर के विरुद्ध पंडित मदन मोहन मालवीय को खड़ा करें।♦

(08) पढ़े लिखे राजपूत डाक्टर बी. आर. अम्बेडकर की समस्त थियोरी को ध्वस्त करें।

(09) आपसी सहयोग की भावना रखें, लेकिन पैसो💵ओर लेंन- देंन को व्यवहारकुशल अवश्य रखें।

(10) राजपूत होने पर 💪🏼गर्व करें।ओर अपनी झूठी शान के लिए 🍷शराब ओर कोई भी अनैतिक कार्य न करे।

(11) सभी राजपूत अपने नाम के आगेे कुँवर, ठाकुर ओर बाद में सिंह, शब्द जरूर लगाएं।, यग्योपवीत और ♦चंदन तिलक लगाना प्रारम्भ करें।

(12) राजपूत राजपूत  की निंदा कभी न करे। यदि कोई करता है, तो तार्किक विरोध करे।

(13) गो वध और आरक्षण समाप्ति का मिलकर आंदोलन चलाये और पुर जोर विरोध करे।

(14) जहाँ भी वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता का विरोध हो, मुकाबला करें।

(15) मनुस्मृति का अपमान बिलकुल सहन न करें।

(16) श्री राम चरित मानस को अपना गौरव ग्रंथ मानें व बच्चों को राजपुताना इतिहास अवश्य पढ़ाएं।

(17) इतिहास के राजपूत, नायकों पर शोध पूर्ण लेख लिखा जाए।

(18) राजपूत पहले बने,समाज के साथ चली आयी राजपूती मिसाल कायम रखे।

(20) सभी राजपूत प्रति दिन मंदिर जाएं और यथाशक्ति दान करें।

(21) 🤝🏼संगठित होकर रहे।किसी भी राजपूत पर संकट आने पर मिलकर मुकाबला करें। स्वयं व धर्म रक्षार्थ कम से कम 🗡तलवार और कोई भी 🔫अस्त्र शस्त्र अपने घर पर रखे।

(22) प्राचीन व आधुनिक शिक्षा प्राप्त करें।

(23) कैरियर पर अधिक ध्यान दें, खेलो को महत्व दे।

(24) जीविका के लिए जो भी काम मिले, ईश्वर का नाम लेकर करें।

(25) भगवान राम में आस्था रखें। भगवान राम का प्रचार प्रसार करें। सभी राजपूत घर मैं भगवान राम की पूजा और आरती ओर सनातन धर्म का पालन ओर रक्षा  करें।

(26) सभी राजपूत भाई, आपस मैं जय श्री राम, जय रघुनाथजी की, जय माता दी या जय भवानी का संबोधन करें।

(27) सभी राजपूत एकजुट रहे।

अगर आप राजपूत  है, तो इस संदेश को अपने सभी बंधुओं तक जरूर भेजे और बार बार भेजे।🙏

⛳💪राजपूत एकता जिंदाबाद✌⛳

⛳जय श्री राम⛳
🇮🇳जय हिन्दुस्तान🇮🇳
⚔💪जय राजपूताना✌⚔
🚩  🙏🙏

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

मेवाड़ राजवंश का संक्षिप्त इतिहास।🙏

सभी क्षत्रिय वीर ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।

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वीर प्रसूता मेवाड की धरती राजपूती प्रतिष्ठा मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण के  अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है मेवाड अपनी समृद्धि परम्परा अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है स्वतन्त्रता की अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। श्री गौरीशंकर ओझा की पुस्तक “मेवाड़ राज्य का इतिहास” एक ऐसी पुस्तक है जिसे मेवाड़ के सभी शासकों के नाम एवं क्रम के लिए सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है।

मेवाड में गहलोत राजवंश – बप्पा ने सन 734 ई० में चित्रांगद गोरी परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था।

रावल बप्पा ( काल भोज ) – 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।

रावल खुमान – 753 ई०

मत्तट – 773 – 793 ई०

भर्तभट्त – 793 – 813 ई०

रावल सिंह – 813 – 828 ई०

खुमाण सिंह – 828 – 853 ई०

महायक – 853 – 878 ई०

खुमाण तृतीय – 878 – 903 ई०

भर्तभट्ट द्वितीय – 903 – 951 ई०

अल्लट – 951 – 971 ई०

नरवाहन – 971 – 973 ई०

शालिवाहन – 973 – 977 ई०

शक्ति कुमार – 977 – 993 ई०

अम्बा प्रसाद – 993 – 1007 ई०

शुची वरमा – 1007- 1021 ई०

नर वर्मा – 1021 – 1035 ई०

कीर्ति वर्मा – 1035 – 1051 ई०

योगराज – 1051 – 1068 ई०

वैरठ – 1068 – 1088 ई०

हंस पाल – 1088 – 1103 ई०

वैरी सिंह – 1103 – 1107 ई०

विजय सिंह – 1107 – 1127 ई०

अरि सिंह – 1127 – 1138 ई०

चौड सिंह – 1138 – 1148 ई०

विक्रम सिंह – 1148 – 1158 ई०

रण सिंह ( कर्ण सिंह ) – 1158 – 1168 ई०

क्षेम सिंह – 1168 – 1172 ई०

सामंत सिंह – 1172 – 1179 ई०

(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया।)

कुमार सिंह – 1179 – 1191 ई०

मंथन सिंह – 1191 – 1211 ई०

पद्म सिंह – 1211 – 1213 ई०

जैत्र सिंह – 1213 – 1261 ई०

तेज सिंह -1261 – 1273 ई०

समर सिंह – 1273 – 1301 ई०

(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं। )

35. रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) – इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया गोरा – बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।

36. अजय सिंह ( 1303 – 1326 ई० ) – हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे किन्तु अवयस्क थे इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।

37. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 – 1364 ई० ) – हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।

38. महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 – 1382 ई० )

39. महाराणा लाखासिंह ( 1382 – 1421 ई० ) – योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।

40. महाराणा मोकल ( 1421 – 1433 ई० )

41. महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1469 ई० ) – इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।

42. महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 – 1473 ई० )  महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।

43. महाराणा रायमल ( 1473 – 1509 ई० ) – सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।

44. महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 – 1527 ई० ) – महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे इनका इतिहास स्वर्णिम है जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।

45. महाराणा रतन सिंह ( 1528 – 1531 ई० )

46. महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 – 1534ई० ) – यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300 महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 – 1537 तक मेवाड पर शासन किया लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली इसी समय सिसोदिया वंश के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।

47. महाराणा उदय सिंह ( 1537 – 1572 ई० ) –मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली।

48. महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० ) – इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें धीरे – धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला लेकिन हार नहीं मानी ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता कीअन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।

49. महाराणा अमर सिंह -(1597 – 1620 ई० ) –प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।

50. महाराणा कर्ण सिद्ध ( 1620 – 1628 ई० )_ इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।

51.महाराणा जगत सिंह ( 1628 – 1652 ई० )

52. महाराणा राजसिंह ( 1652 – 1680 ई० ) – यह मेवाड के उत्थान का काल था इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके महाराणा के प्रयास से अंबेर मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया।

53. महाराणा जय सिंह ( 1680 – 1698 ई० )_ जयसमंद झील का निर्माण करवाया।

54. महाराणा अमर सिंह द्वितीय ( 1698 – 1710 ई० ) इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।

55. महाराणा संग्राम सिंह ( 1710 – 1734 ई० ) – महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।

56.  महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 – 1751 ई० ) – ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे इन्होने जलमहल बनवाया शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी।

57. महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 – 1754 ई० )
58. महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 – 1761 ई० )
59. महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 – 1773 ई० )

60. महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 – 1778 ई० ) इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।

61. महाराणा भीमसिंह ( 1778 – 1828 ई० ) – इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया 13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल,कुम्भा,महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी,वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे\ निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे इनमें व्यवहारिकता का आभाव था।ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।

62. महाराणा जवान सिंह ( 1828 – 1838 ई० ) – निःसन्तान। सरदार सिंह को गोद लिया।

63. महाराणा सरदार सिंह ( 1838 – 1842 ई० ) – निःसन्तान। भाई स्वरुप सिंह को गद्दी दी।

64.  महाराणा स्वरुप सिंह ( 1842 – 1861 ई० ) – इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई इन्होने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की।

65. महाराणा शंभू सिंह ( 1861 – 1874 ई० ) – 1868 में घोर अकाल पडा अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।

66 . महाराणा सज्जन सिंह ( 1874 – 1884 ई० ) बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला  इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।

67. महाराणा फ़तह सिंह ( 1883 – 1930 ई० ) – सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दत्तक पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। संत प्रवृति के व्यक्तित्व थे इनके कार्यकाल में ही किंग जार्ज पंचम ने दिल्ली को देश की राजधानी घोषित करके दिल्ली दरबार लगाया. महाराणा दरबार में नहीं गए।

68. महाराणा भूपाल सिंह (1930 – 1955 ई० ) –इनके समय  में भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता भोपाल के नवाब और जोधपुर के महाराज हनुवंत सिंह पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे इस पर उन्होनें कहा कि मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा यह कह कर वे इतिहास में अमर हो गये स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।

69. महाराणा भगवत सिंह ( 1955 – 1984 ई० )
70. श्रीजी अरविन्दसिंह एवं महाराणा महेन्द्र सिंह (1984 ई० से निरंतर..)।

इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये।

(साभार – मेवाड़ राजवंश का इतिहास – गौरीशंक)
जय राजपूताना
जय माँ भवानी
धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

ठाकुर सचिन चौहान अग्निवंशी।