गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

हठी हम्मीर देव चौहान।

"सिंह गमन संत्पुरूष वचन, कदली फले इक बार।       त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार॥"

  इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को!

 हठी हम्मीर देव चौहान ने रणथंभोर पर 1282 से 1301 तक राज किया था, वे रणथम्भौर के सबसे महान शासकों में से एक माने जाते हैं, हम्मीर देव के पिता का नाम जैत्रसिंह चौहान एवं माता का नाम हीरा देवी था, वे इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर" के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।

हम्मीर देव 1282 में रणथम्भौर के शासक बने, हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहान वंश के सर्वाधिक प्रतापी, शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे, उन्होंने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

हम्मीर रासौ के अनुसार रणथम्भौर साम्राज्य उज्जैन से लेकर मथुरा तक एवं मालवा (गुजरात) से लेकर अर्बुदाचल तक हो गया था, हम्मीर देव के वारे में कहा जाता है कि- वो अगर कोई हठ (अर्थात - निश्चय) कर ले वो उसको पूरा किये बिना पीछे नहीं हटते थे।

उनके हठ (अर्थात - दृढ निश्चय) को लेकर अनेको महाकाव्य लिखे गए जिनमे जोधराज शारंगधर द्वारा रचित "हम्मीर रासो" और न्यायचन्द्र सूरी द्वारा रचित "हम्मीर महाकाव्य" अत्यंत प्रसिद्ध हैं, उनके हठ को लेकर "हम्मीर महाकाव्य" में लिखा है :- 

"सिंह गमन तत्पुरूष वचन, कदली फले इक बार। 
त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार"॥

दिल्ली के सुलतान गुलाम बंश के अंतिम शासक "कय्यूम" की हत्या कर "जलालुद्दीन खिलजी" दिल्ली का सुलतान बन गया था, उसने सुलतान बनते ही 1291 में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 

हम्मीर देव ने उसे बहुत आसानी से हराकर खदेड़ दिया, जलालुद्दीन ने 1292 में दो बार फिर हमले किये लेकिन हम्मीर देव ने उसे दोनों बार मार भगाया।

उसके बाद जलालुद्दीन खिलजी की दोबारा कभी हिम्मत नहीं हुई रणथम्भौर पर हमला करने की, 1296 में जलालुद्दीन के भतीजे और दामाद "अलाउद्दीन खिलजी" ने, जलालुद्दीन की हत्या कर दी और खुद सुलतान बन गया.सुल्तान बनने के बाद उसने 1298 में गुजरात पर हमला किया। 

सोमनाथ को लूटा और वापसी में उसने अपने सेना नायक उल्गू खान को रणथम्भौर पर हमला करने का आदेश दिया, इस लड़ाई में भी हम्मीर देव ने खिलजी की सेना को मार भगाया और गुजरात की लूट का माल और हथियार भी छीन लिए, उस धन से हम्मीर देव ने गुजरात सोमनाथ मंदिर, उजजैन के महाकालेश्वर मंदिर और पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर का पुनरुद्धार कराया।

इस घटना के बाद अलाउद्दीन खिलजी को रणथम्भौर और भी खटकने लगा, इसी बीच मंगोल से नवी मुसलमान बने, खिलजी के एक मंगोल रिश्तेदार "मुहम्मद शाह" के अवैद्ध सम्बन्ध खिलजी की एक रानी "चिमना" से हो गए थे। 

मालिक काफूर को इसका पता चल गया और उसने खिलजी को इसकी खबर करदी, इसपर खिलजी आग बबूला हो गया।

खिलजी के भय मुहम्मद शाह अपने साथियों के साथ हम्मीर देव के पास पहुँच गया और चालाकी से उनसे अपनी प्राणरक्षा का बचन ले लिया।

 अलाउद्दीन खिलजी ने विशाल सेना लेकर रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया, लेकिन 9 महीने के घेरे के बाद भी वह हम्मीर देव को झुका नहीं पाया, इसी बीच हम्मीर देव के दो सेना नायक खिलजी से मिल गए।

रणमल और रतिपाल को खिलजी ने रणथम्भौर का राजा बनाने का बचन देकर अपने साथ मिला लिया था। रणमल और रतिपाल ने किले के कमजोर हिस्सों को बारूद से उडा दिया, तब हम्मीर देव ने "शाका" करने का निर्णय लिया, राजपूत केसरिया बाना पहन कर अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए महिलाओं ने जौहर की तैयारी कर ली।


11जुलाई 1301 को किले के फाटक खोलकर खिलजी की सेना पर टूट पड़े, रणथम्भौर की सेना संख्या में कम थी लेकिन उनके हौसले बुलंद थे, उन्होंने खिलजी की सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया और देखते ही देखते खिलजी की सेना अपने हथियार, तम्बू, झंडे, आदि अपना सब सामान छोड़कर भाग खड़ी हुई।

हम्मीर देव के सैनिको ने वो सारा सामान उठा लिया और किले की तरफ वापस चल पड़े, उन्होंने खिलजी की सेना के झंडे भी उठा लिए थे, बस यहीं उनसे गलती हो गई।

खिलजी के झंडों को देखकर किले की महिलाओं को लगा कि- उनके लोग मारे गए हैं और खिलजी की सेना किले पर कब्ज़ा करने आ रही है और वे जौहर की अग्नि में कूद गईं।

जब हम्मीर देव किले में पहुंचे तो महिलाओं को जौहर की अग्नि में जलता देखकर उनको बहुत दुःख हुआ, मन की शांति के लिए शिव मंदिर में गए और प्राश्चित स्वरूप अपना सर काटकर भगवान् शिव के चरणों में चढ़ा दिया, अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो वह वापस लौट आया और उसने दुर्ग पर कब्जा कर लिया।

रणमल और रतिपाल ने रणथम्भौर का राजा बनाने को कहा तो खिलजी ने दोनों का सर कलम करने का आदेश देते हुए कहा कि - जो अपनों का नहीं हुआ वो हमारा क्या होगा।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

शूरवीर भूपति सिंह खंगार।

परिचय :- शूरवीर भूपति सिंह खंगार महाराजा खेत सिंह खंगार के वंशज हैं जिन्होंने "राजुराव भदौरिया" के द्वारा मिर्धा की उपाधि हासिल की। 

गढ़चंद्रवार जिला इटावा के महाराज शैल्यदेव भदौरिया के सेनापति थे। जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से भदौरिया कुल की रक्षा की जिससे भदौरिया राजवंश के संस्थापक महाराज राजूरावत भदौरिया के से "मिर्धा" उपाधि के साथ जमसारा गांव जागीर में प्राप्त किया। 

महाराजा खेत सिंह खंगार की पुत्री विजय कुँवरबाई का विवाह भदौनगढ़ के भीमसेन भदौरिया को व्याही थी और जिला आगरा के खंगरोल क्षेत्र जो कि खंगार राजपूतों का शक्तिकेन्द्र था उसे दहेज में दिया । जिससे भदौरिया और खंगारों के संबंध हमेशा के लिए मधुर हो गये  

भदौरिया राजवंश के 25वें नरेश शल्यदेव भदौरिया की वीर गाथा सन.1194 से 1208 तक-

वीर सम्राट पृथ्वीराज से 16 बार पराजित होने के बाद 17वीँ बार तराइन के मैदान मेँ मोहम्मद गौरी विजयी हुआ व पृथ्वीराज बँदी बन गये इसके उपरान्त महाराज जयचँद को मारकर दुष्ट गौरी ने कन्नौज पर भी अधिकार कर लिया। 

तब भदौरिया नरेश शल्यदेव की राजधानी भदौरागढ़ दुर्ग पर मोहम्मदगौरी के सेनापति कुतबुद्दीन एबक ने विशाल सेना ले कर हमला किया राजा शल्यदेव बड़ी वीरता से युद्द करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

राजा के वीरगति प्राप्त होते ही सेना संग्राम में टिक न सकी भदौरागढ़ दुर्ग भारी पत्थर फेकने वाले यन्त्रों से विध्वँस कर दिया गया यह युद्ध इतना भयँकर था कि अरनोटा नदी का जल ढाई कोस तक रक्त रजिँत व धूल धूसरित हो गया था। 

शल्यदेव की तीन रानियोँ मेँ से दो रानी सती हो गयी, तीसरी रानी जो सीकरी के राव शिखरदेव सिकरवार की बहिन (दलखू शाह सिकरवार की पुत्री) थी, जिनका प्रसवकाल समीप था वंश रक्षार्थ वह सती न हो सकी। 

वह गुप्त मार्ग से विश्वासपात्र भुपति सिंह खँगार को साथ लेकर फटे पुराने वस्त्र पहिन वेश बदल कर डोली में बैठ कर निकल पड़ी, डोली में कहारो की जगह विश्वसनीय राजपूत वीर खंगार राजपूत अँगरक्षक थे ।

रास्ते मेँ आगरा के पास मुसलमान सेनानायकोँ के रोकने पर राजपुरोहित ने रानी को अपनी पुत्री व भूपति सिंह खँगार ने अपनी बहिन बता कर बचा लिया। रानी भागते समय एक हार के अलावा सब कुछ किले मेँ ही छोड़ आयीँ थीँ इस प्रकार रानी सीकरी पहुँच गयी। 

राव शिखरदेव ने अपनी बहिन को अत्यँत आदर सत्कार से अपने यहाँ शरण दी राव शिखर देव पर सुल्तान का दवाब पड़ा कि रानी को दिल्ली भेजा जाये परँतु राव ने कहा कि मेरे यहाँ भदौरिया राजा की कोई रानी नहीँ है मेरी बहिन तो सती हो चुकी है सीकरी मेँ पहुँचने के एक सप्ताह बाद रानी ने पुत्र को जन्म दिया। 

यही भदौरिया कुलदीपक रजूराव भदौरिया कहलाये अगर ये न होते तो भदौरिया वँश का लोप ही हो जाता।

इतिहास :- अनुसार खंगार राजपूतों की वजह से भदौरिया राजवंश का कुल दीपक बुझने बचा इसलिए भदौरिया आज भी खंगार राजपूतों को मामा मानते हैं और भिंड ,मुरैना ,भदावर क्षेत्र में भदौरिया राजपूतों के घर मे जब भी शादी विवाह होते हैं तो खंगार राजपूतों का होना शुभ माना जाता है। 

हल्दी कुमकुम से तिलक कर बहन खंगार मामा जी को मीठा खिलाकर ये रसम पूरी की जाती है एवं धर्म के रक्षक मामा खंगार के हाथ के हल्दी भरे पाँच थप्पे लगायें जाते हैं और खंगार मामा को भोजन कराके पीछे आप भोजन करते हैं। 

मेहर का सम्बन्ध खंगार और भदौरिया में आज तक चला आ रहा है। भूपति सिंह खंगार ने राजकुमार रजूराव को 12 बर्ष की आयु तक घुड़सवारी मल्लयुद्ध अस्त्र-शस्त्र चलाना और युद्धकला के दावपेचौं में प्रवीण कर दिया।

चम्बल नदी के किनारे बसा जमसारा स्टेट मध्यप्रदेश के जिला भिण्ड अटेर तहसील के अंतर्गत आता है जिसके वंशज ठा. विश्वनाथ सिंह खंगार आज भी जीवित हैं जो किले के मरम्मती करण एवं रखरखाव की जिम्मेवारी का निर्वाहन करते आ रहे हैं एवं सती मन्दिर के पुनर्निर्माण का कार्य भी किया। 

भिण्ड गजेटर व सरकारी दस्तावेजों में जमसारा स्टेट ठा विश्वनाथ सिंह के नाम है ।
आज भदौरिया परम्पराएं आज भी खंगार क्षत्रियों को खंगार देव के रूप में प्रतिष्ठित का सम्मान देती हैं।

 खंगारोल भार तहसील जिला आगरा के भदावर महाराज मृदन सिंह भदौरिया एवं अरविंद सिंह भदौरिया (मन्त्री मध्यप्रदेश सरकार ) चम्बल दस्यु सम्राट दद्दा मलखान सिंह खंगार को "मामा"जी से सम्बोधित करते हैं जो ऐतिहासिक संबंधों को मधुर करते हैं ।

 शूरवीर भूपति सिंह खंगार उनके शौर्य एवं पराक्रम को बारम्बार प्रणाम एवं शत-शत नमन ।🙏🏻

👑 जय राजपूताना।⚔️

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चौहान भी सूर्यवंशी थे…!!?

चौहान वंश के महान शासक विग्रहराज चतुर्थ व उनका भगवान श्रीराम को समर्पित सोने का सिक्का।

सांभर - अजयमेरू के क्षत्रिय चौहान वंशी राजपूत शासको में विग्रहराज चतुर्थ उर्फ बीसलदेव चौहान (1151-1164 ई) इस वंश के महानतम शासको में से एक थे।

जिन्होंने उत्तरी भारत के बड़े हिस्से जिसे आर्यवर्त कहते है पर अपना प्रभुत्व जमाया। उनका शासन चाहमान वंश में एक अविस्मरणीय अध्याय है। 

उन्होंने अपने समकालीन उत्तर भारत के समस्त राजवंशों को पराजित कर चौहान वंश को सार्वभौम स्थिति में ला दिया। सन 1152 ई में उन्होंने दिल्ली के शासक मदनपाल तंवर से दिल्ली भी जीत ली और अपनी राजधानी अजयमेरू के अंतर्गत दिल्ली को एक सूबा बनाकर अपना सामंत दिल्ली में बिठा दिया। 

इसके अतिरिक्त अपना चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए देश के अन्य राजाओं को एक-एक करके मित्रता से या युद्ध से अपने साथ जोड़ लिया था। उस समय भारतवर्ष की पश्चिमोत्तर सीमा की रक्षा का भार चाहमानों पर था जिसका विग्रहराज चतुर्थ ने सफलतापूर्वक निर्वहन किया। 

उन्होंने तुर्को पर शानदार विजय हासिल की व लाहौर के यामिनी वंश के सुल्तान खुसरोशाह की शक्ति का भी विनाश किया था तथा उनके बारंबार होने वाले आक्रमणों से देश की रक्षा की। उन्होंने तुर्कों के कुछ प्रदेश भी जीत लिये। 

अपनी विजयो के उपलक्ष्य में विग्रहराज चतुर्थ ने टोपरा यमुनानगर में लगे मौर्य सम्राट अशोक महान के स्तंभ पर संस्कृत में चार बिंदुओं में एक शानदार शिलालेख वैशाख पूर्णिमा विक्रम संवत् 1220 तदनुसार 9 अप्रैल 1164 ई को संस्कृत में उत्कीर्ण करवाया जिसके तीसरे बिंदु का भावात्मक वर्णन इस प्रकार है:- 

"मैंने इस आर्यावर्त देश से तमाम म्लेच्छों का समूल नाश कर दिया है और वास्तव में ही इस देश को "आर्यों का देश" बना दिया है।" 

फिरोज शाह तुगलक (1351-1388 ई) ने अपने समय में वहां से यह स्तंभ उखड़वा कर दिल्ली फिरोजशाह परिसर में स्थापित कर दिया था, कोटला परिसर में आज भी यह स्तंभ व लेख देखा जा सकता है। 

हिमालय और विंध्य पर्वत आर्यावर्त "प्राचीन आर्यों की भूमि" की पारंपरिक सीमा बनाते हैं और विग्रहराज ने इस भूमि पर आर्यों के शासन को बहाल करने का दावा किया। 

इसमें हिमालय की तलहटी से लेकर सतलज तथा यमुना नदियों के बीच स्थित पंजाब का एक बङा भाग, उत्तर पूर्व में उत्तरी गंगा घाटी, दक्षिण में नर्मदा विंध्यांचल पर्वत तक का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित था। 

इस प्रकार विग्रहराज चौहान उत्तर भारत के वास्तविक सार्वभौम सम्राट थे, जिन्होंने चौहान वंश की प्रतिष्ठा को चरम सीमा पर पहुंचाया। 

उनके राज्य में दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी यूपी और मध्य प्रदेश के आधुनिक राज्य शामिल थे। उनके राज्य की राजधानी अजमेर थी "इस शहर का प्राचीन नाम अजयमेरू है।"

विग्रहराज चतुर्थ के राज्यकाल को चौहान वंश का स्वर्णिम काल भी कहते है, क्योंकि इस महान शासक ने अपने शासनकाल के दौरान सोने के सिक्के चलाए थे। 

विग्रहराज चतुर्थ ने बहुत ही रोचक सिक्के ढलवाये थे। इनमे से एक सोने का सिक्का बहुत ही महत्वपूर्ण है, जो कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को समर्पित है। 

चौहान भी सूर्यवंशी थे और उन्होंने अपने कुल के सिरमौर अयोध्या नगरी के राजा भगवान श्रीराम को समर्पित सोने के सिक्के ढलवाये, जो चौहान कुल के भगवान श्रीराम के प्रति अटूट श्रद्धा के प्रतीक है। 

यह सिक्के लगभग (1151-1164) ईस्वी के मध्य ढले थे। इन सिक्कों का वजन 4.07 ग्राम था। यह सिक्के बहुत खास है क्योंकि सिक्के के अग्रभाग में वन में घूमते हुए रामायण के महानायक भगवान श्रीराम को दिखाया गया है।

 भगवान राम को 14 वर्ष के लिए वनवास भेजा गया था इसी दृश्य को इस सिक्के में दर्शाया गया है। 

सिक्के की एक तरफ देवनागरी लिपि में "श्री रा मां" लिखा है व सिक्के पर अपने बाएं हाथ में धनुष लिए हुए हैं और दाएं हाथ में बाण पकड़े हुए भगवान श्रीराम की मनमोहक छवि उत्कीर्ण हैं व जंगल में पेड़ों, पक्षी और फूलों से घिरे हैं। 

बाएं हाथ के कोने में एक पक्षी जैसा प्राणी (संभवतः एक मोर) दिखाया गया है। सिक्के की दूसरी तरफ "श्रीमद विग्रा / हे राजा दे / वा" देवनागरी में तीन पंक्तियों में सिक्के पर लिखे हुए है। नीचे तारा और चंद्रमा प्रतीक है। 
"आंचल और आग" अपने प्रसिद्ध उपन्यास में लक्ष्मीनाथ बिड़ला ने विग्रह्राज चतुर्थ उर्फ बीसलदेव के बारे में कहा है की बीसलदेव चौहान स्वतंत्रता के अमर पुजारी थे। उन्होंने अजमेर नगर को भव्य कलाकृतियों एवं स्मारकों से अलंकृत करवाया।

 इनमें सरस्वती मंदिर का निर्माण सबसे अधिक उल्लेखनीय है, जिसे भारतीय कला की अत्युत्कृष्ट रचनाओं में स्थान दिया गया है। उनके द्वारा 1153 में सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ का निर्माण करवाया था, जो संस्कृत अध्ययन का बहुत बड़ा केन्द्र था। 

जिसे कालांतर में तुर्क आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर 'अढाई दिन का झोपड़ा' में बदल दिया गया। वह कला और स्थापत्य के पोषक भी थे। विग्रहराज चतुर्थ साहित्य प्रेमी भी थे, उन्होंने संस्कृत मे हरिकेलि नाटक लिखा। 

इसकी कुछ पंक्तियां अजमेर स्थित वर्तमान के ढाई दिन का झोपङा की सीढियों पर उत्कीर्ण हैं। यह नाटक भारवि के किरातार्जुनीयम के अनुकरण पर लिखा गया है। सोमदेव कृत ललितविग्रहराज नाटक में कहा गया है कि विग्रहराज ने मित्रों, ब्राह्मणों, तीर्थों तथा देवालयों की रक्षा के निमित्त तुर्कों से युद्ध किया था। 

जयनक नामक विद्वान विग्रहराज चतुर्थ को कविबान्धव कहता है, जिसके निधन से यह शब्द ही विलुप्त हो गया। सोमदेव ने उनको विद्वानों में सर्वप्रमुख कहा है। 

विग्रहराज चतुर्थ ने बीसलसर नामक झील का निर्माण भी करवाया था। इस झील को आज बीसलपुर झील कहा जाता है और वर्तमान में टोंक में स्थित है। शत्रू के हाथों उनका कभी पराभाव नहीं हुआ। 

उनकी असाधारण योग्यता की ओर लोगों का यथोचित ध्यान नहीं गया और यही कारण है कि इतिहास में जितनी प्रतिष्ठा उन्हे मिलना चाहिए थी वह मिल नहीं सकी।

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः।। लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।

🚩🚩जय मां भवानी 🚩🚩
🚩🚩जय राजपूताना 🚩🚩
🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

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सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

वीरवर चांपा जी राठौड़


राठौड़ी कुल के वीर सपूत राव चांपा जी राठौड़ का जन्म मंडोर के राजा राव रिड़मल जी के घर हुआ। राव रिड़मल जी के पुत्र जोधा जी राठौड़ों के राजा बने और अन्य सभी भाई इस राठौड़ी राज के मजबूत स्तम्भ। 

राव जोधा जी और यह चौइस भाई थे। 
अखेराज जी, जोधा जी, कांधल जी, चाम्पा जी, मंडला जी, भाखर जी, पाता जी, रूपा जी, करण जी, मानडण जी, नाथो जी, सांडो जी, बेरिसाल जी, अड्मल जी, जगमाल जी, लखा जी, डूंगर जी, जेतमाल जी, उदा जी, हापो जी, सगत जी, सायर जी, गोयन्द जी, सुजाण जी। 

मंडोर को मेवाड़ से मुक्त कराने औऱ राठौड़ों की नई व मजबूत राजधानी जोधपुर के अधीन मारवाड़ जैसे मजबूत और विशाल साम्राज्य को खड़ा करने में चांपा जी जैसे वीर सपूतों का प्रमुख योगदान रहा। 

आगे भी मारवाड़ के लिए चांपा जी के वंशजों ने अनेकों बलिदान दिए औऱ राठौड़ी राज को मारवाड़ में स्थायित्व व ऊंचाईयां दी। 

चांपा जी के वंशज चम्पावत राठौड़ कहलाए। जिनके मारवाड़, मेवाड़, जयपुर, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और हरियाणा में बड़े ठिकाने है।

चांपा जी ने जोधपुर के लिए अनेकों युद्ध लड़े और जीते। जोधपुर राज्य की तरफ से चांपा जी को राव की पदवी व बनाड़ एवं कापरड़ा की जागीर मिली। वि.सं.1536 में राव चांपा जी मणीयारी के पास गायों की रक्षा में बलिदान हुए। 

आज राव चांपा जी राठौड़ की 612 वीं जयंती है। जिनके शौर्य को प्रदर्शित करती विशाल छतरी कापरड़ा गांव में आज भी अडिग खड़ी है। 

जोधा जी से बड़े होने पर भी चांपा जी राजा और रियासत के प्रति वफादार रहें और आजीवन अपना पूर्ण समर्पण दिया। 

ऐसे वीर सपूतों के त्याग, तप और वीरता के बल पर ही राज्य खड़े होते है, साम्राज्य खड़े होते है। आइए हम सब भी वीरों के उसी पथ के पथिक बनें जन्म सफल करें।

 🚩जय भवानी।🙏🏻
👑जय🤟🏻 राजपूताना।⚔️ 

मंगलवार, 7 जनवरी 2025

सम्राट विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव चाहमान)।

क्षत्रिय जीवन परिचय:- 

सम्राट विग्रहराज चतुर्थ अथवा वीसलदेव (चाहमान वंश) के एक अति प्रतापी और विख्यात नरेश थे, जिन्होंने चाहमानों (चौहानों) की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया। 

सन् ११५३ में विग्रहराज चतुर्थ वीसलदेव शाकम्भरी राजसिंहासन पर बैठे इन्होंने सम्पूर्ण भारत में विजय पायी थी और अरबों को खदेड़ा था। 

११५३ से ११६४ तक राज्य किया, दिल्ली पर भी अधिकार किया था। मेवार से एक लेख प्राप्त हैं एवं मध्यकालीन इतिहास में लिखा हैं, की मलेच्छो को परास्त कर दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। 

डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा हैं की अपने पराक्रम और शौर्य का परिचय देते हुये कई राज्यों को जीत लिया था, अरबों को ना केवल भारत से खदेड़ा अपितु शौर्य का परचम तुर्क के शासक खुसरो शाह को परास्त कर लाहौर पर विजय पाई थी । महाकवि सोमदेव ने वीसलदेव के प्रताप और शौर्य की प्रशंसा में 'ललित विग्रहराज' नामक ग्रन्थ लिखा।

चाहमान वंश को आज नवीनतम इतिहास में चौहान कहा जाता हैं चाहमान वंश २५०० साल तक सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के प्रहरी थे। कुशल शासन द्वारा प्रजा और भारत माता के सेवा प्रदान किये, चाहमान वंश ने अरब, हूण और अस्सीरिया के अस्सूरों को धूल चटाई थी।

वीसलदेव चाहमान और अरबो के बीच कुल ८ से १० युद्ध हुए। पर दुर्भाग्यवश तीन युद्ध का वर्णन मिला बहोत खोज के बाद असल में वामपंथियों ने वीसलदेव को केवल एक संगीतकार बना कर पेश किया जो की पूरी तरह गलत हैं। 

वीसलदेव चाहमान अति पराक्रमी और प्रतापी राजा थे तुर्क, बेबीलोनिया, मिस्र, फातिमद साम्राज्य जिसमे काइरो, और मिस्र, तुर्क इत्यादि राज्य आते थे।अरबो के खलीफा को परास्त कर मिस्र तुर्क एवं फातिम साम्राज्य के राज्यो पर केसरिया ध्वज फहरानेवाले वीर थे।

(१.) प्रथम युद्ध:- 
विग्रहराज चौहान जी ने अरबो को हराया था प्रथम युद्ध सन् ११५४ में अबुल क़ासिम के साथ हुआ था यह मिस्र, तुर्क, बेबीलोनिया, सीरिया, काइरो में आते थे, विग्रहराज चतुर्थ के पराक्रम के सामने क़ासिम की सेना धराशायी हो गई थी। 
विग्रहराज अपने प्रेम से और बल से आसपास के सभी राज्यों को जीत कर एकछत्र शासित राज्य की स्थापना कि थी । कासिम की सेना में जाबालिपुर पर आक्रमण किया था तब विग्रहराज जी ने क़ासिम की सेना की कमर तोड़ दि थी। अरब के खलीफा क़ासिम की विशाल जिहादि सेना को बंदी बनाकर जाबालिपुर में जुलुस निकाला था।

(२.) द्वितीय युद्ध:- 
तुर्क के साथ द्वितीय युद्ध सन् ११५७ खुसरोशाह के साथ हुआ था। तुर्क क्रुर शासक थे जिन्होंने तलवार के बल पर एवं पैशाचिक सेना के बल पर सम्पूर्ण उज़्बेकिस्तान, मंगोलिया, कजाखस्तान को रौंध कर इस्लाम में तब्दील कर दिया था आधे से ज़्यादा मध्य एशिया के अधिकतर भू-भाग इस्लाम के क्रूरता का शिकार बन गए थे। 

नददुल और दिल्ली को रौंधने का प्रयास खुसरो शाह की मृत्यु की वजह बन गया, विग्रहराज चतुर्थ की सेना २०,००० से अधिक थी हर हर महादेव के शंखनाद से धर्मयोद्धाओं में अलग सी ऊर्जा का संचय हुआ और भिड़त हुई लाखों मलेच्छों तथा तुर्क सेना नायक अहमद संजार की टुकड़ी सेना नायक अहनेद संजार के साथ खत्म हो गई, और फिर खुसरोशाह की विग्रहराज के सेना नायक अरिवलसिन्ह तंवर द्वारा मृत्यु होने के पश्चात तुर्क की जिहादी सेना की हार हुई और वैदिक ध्वजा तुर्की तक फहराई चाहमान (चौहान) काल में अखंड जम्बूद्वीप पर मलेच्छो के कुल ६४ से अधिक आक्रमण हुये थे जिसमे से केवल दो या तीन आक्रमण का ही उल्लेख मिलता हैं।

(३.) तृतीय युद्ध:- 
 तृतीय युद्ध सन ११५५ में अतसिज़ ने किया था जो की ख्वारेज़्म के द्वितीय शाह थे सेल्जुक साम्राज्य के सुल्तान थे विग्रहराज चतुर्थ के साथ समरकन्द में युद्ध हुआ था।

समरकन्द ( समारा + खांडा ) यह एक संस्कृत नाम हैं जिसका मतलब होता हैं युद्ध क्षेत्र (Region of War) जो की वर्तमान में उज़्बेकिस्तान का हिस्सा हैं यह उस समय विग्रहराज चतुर्थ (वोसलदेव चौहान) के साम्राज्य का हिस्सा था यहाँ अतसिज़ की सेना को परास्त होकर समरकन्द छौड़ कर भागना पड़ा था।
चाहमान शाकम्बरी विग्रहराज विसलदेव चतुर्थ।

सोमवार, 6 जनवरी 2025

नीमराणा फोर्ट: - 551 साल पहले चट्टानों को काटकर बना 10 मंजिला किला, ऊपर है स्विमिंग पूल

भारत में ऐसे कई किले, उद्यान और जगह हैं जिन्हें विश्व विरासत में जगह मिली है। वहीं, कुछ ऐसे भी हैं जो इस सूची में शामिल होने की क्षमता रखते हैं।

अलवर:- 
यह नजारा है राजस्थान के निमराना फोर्ट पैलेस का। अरावली की पहाडियों पर बने इस किले का निर्माण लगभग 551 साल पहले सन 1464 में हुआ था। नीमराना फोर्ट पैलेस रिजॉर्ट के रूप में इस्तेमाल की जा रही भारत की सबसे पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में से एक है।


कमरे ही नहीं बाथरूम से भी दिखता है बाहर का भव्य नजारा:- 
10 मंजिलें इस विशाल किले को तीन एकड़ में अरावली पहाड़ी और आसपास की चट्टानों को काटकर बनाया गया है। यही कारण है कि इस महल में नीचे से ऊपर जाना किसी पहाड़ी पर चढ़ने का अहसास कराता है।

नीमराना की भीतरी साज-सज्जा में काफी छाप अंग्रेजों के दौर की भी देखी जा सकती है। ज्यादातर कमरों की अपनी बालकनी है जो आसपास की भव्यता का पूरा नजारा प्रदान करती है। यहां तक की इस किले के बाथरूम से भी आपको हरे-भरे नजारे मिल जाएंगे।

इस पैलेस में हैं 50 भव्य कमरे:- 

दस मंजिलों पर कुल 50 कमरे इस रिजॉर्ट में हैं। 1986 में हेरिटेज पैलेस को रिजॉर्ट के रूप में तब्दील कर दिया गया। यहां नजारा महल और दरबार महल में कॉन्फ्रेंस हॉल है। पैलेस में बदले इस किले में कई रेस्तरां बने हैं। इस पैलेस में ओपन स्विमिंग पूल भी बना है। नाश्ते के लिए राजमहल व हवामहल तो खाने के लिए आमखास, पांच महल, अमलतास, अरण्य महल, होली कुंड व महाबुर्ज बने हुए हैं। इस किले की बनावट ऐसी है कि हर कदम पर शाही ठाठ का अहसास होता है।

देव महल से लेकर गोपी महल तक हर कमरे का है अलग नाम:- 

यहां पर बने हर कमरे का अलग नाम है- देव महल से लेकर गोपी महल तक। नीमराना की एक खास बात यह है कि यहां कमरे केवल दिन भर के इस्तेमाल के लिए भी मिल जाते हैं और अगर आप खाली सैर करना चाहते हैं तो मामूली शुल्क देकर दो घंटे के लिए महल की भव्यता का लुत्फ उठा सकते हैं।

पृथ्वीराज चौहान ने बनाई थी अपनी राजधानी:- 

नीमराना ऐतिहासिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। इसे पृथ्वीराज चौहान के वंशजों ने अपनी राजधानी के रूप में चुना था। 1192 में मुहम्मद गोरी के साथ जंग में हार के बाद गोरी के सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया था। इसके बाद चौहान वंश के राजा राजदेव ने नीमराना चुना, लेकिन यहां का निर्माता मियो नामक बहादुर शासक था। चौहानों से जंग में हारने के बाद मियो के अनुरोध पर इसे नीमराना कहा जाने लगा।


Mahabharat Katha: पांडवों के मामा ने युद्ध में क्यों दिया दुर्योधन का साथ? लेकिन एक शर्त कौरवों पर पड़ी भारी! पता है यह कहानी!

महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र में हुए भयंकर युद्ध का वर्णन विस्तार से मिलता है, कौरवों ने पांडवों को हराने के लिए हर प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हुए।

कौरवों की सेना में एक से बढ़कर एक योद्धा और महारथी थे, लेकिन अधर्म का साथ देने के कारण उनको पराजय का सामना करना पड़ा, उस युद्ध में कौरवों की ओर से पांडवों के मामा भी शामिल हुए थे,अब आपको आश्चर्य होगा कि जो पांडवों के सगे मामा थे, वे अपने भांजों के खिलाफ क्यों खड़े हुए? हालांकि उनको दिया दुर्योधन का एक वचन, कौरवों पर ही भारी पड़ गया, आइए जानते हैं पांडवों के मामा की इस कहानी के बारे में।

कौन थे पांडवों के मामा!
महाभारत में यह घटना उस समय की है, जब कौरव और पांडव युद्ध के लिए अपनी सेना का संगठन कर रहे थे, बड़े से बड़े योद्धाओं को अपनी ओर से लड़ने के लिए राजी कर रहे थे, इसी क्रम में दुर्योधन ने पांडवों के सगे मामा यानि मद्र नरेश शल्य के साथ छल किया. शल्य राजा पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के भाई थे, वे नकुल और सहदेव के सगे मामा थे, इस प्रकार से वे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के मामा भी हुए।

दुर्योधन ने मद्र नरेश शल्य से किया छल!
पांडवों और कौरवों में युद्ध की घोषणा हुई थी, उसी दौरान मद्र नरेश शल्य अपने भांजे से मिलने के लिए सेना के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे, इस बात की भनक दुर्योधन को लग गई, उसने बड़ी ही चालाकी से उन सभी स्थानों पर मद्र नरेश शल्य और उनकी सेना के रहने, खाने और पीने का पूरा बंदोबस्त करा दिया था, जहां जहां पर उनकी सेना ने डेरा डाला था।

रास्ते भर मद्र नरेश शल्य और उनकी सेना को सही प्रकार से भोजन और पानी की व्यवस्था प्राप्त हुई, इससे राजा शल्य बहुत खुश हुए, हस्तिनापुर के पास भी उनके और सेना के लिए अच्छा प्रबंध किया गया था, यह देखकर राजा शल्य ने पूछा कि युधिष्ठिर के किन कर्मचारियों और सहयोगियों ने उनके लिए उत्तम व्यवस्था की है? वे उनसे मिलना चाहते हैं और कुछ पुरस्कार देना चाहते हैं।

दुर्योधन वहां पर पहले से ही छिपा हुआ था, यह बात सुनते ही वह राजा शल्य के सामने आकर खड़ा हो गया, उसने कहा कि मामा जी, यह सारी व्यवस्था आपके लिए मैंने ही की है, ताकि आपको और आपकी सेना को कोई परेशानी न हो, इतना सुनकर राजा शल्य के मन में दुर्योधन के लिए प्रेम उमड़ पड़ा, उन्होंने दुर्योधन से कहा कि आज तुम जो मांगोगे, वो मिलेगा।

अपने वचन में फंसे राजा शल्य!
चालाक दुर्योधन इस मौके के ही ताक में था, उसने राजा शल्य से कहा कि वह चाहता है कि आप युद्ध में कौरवों की सेना का साथ दें और सेना का संचालन करें, राजा शल्य ने दुर्योधन को वचन दिया था, इसलिए वे अपने वचन से मुकर नहीं सकते थे, राजा शल्य ने कौरव सेना के साथ रहने के लिए हां कह दिया।

राजा शल्य ने भी दुर्योधन के सामने रखी एक शर्त!
राजा शल्य ने दुर्योधन की बात मान ली, लेकिन उन्होंने उससे एक वचन भी लिया, उन्होंने कहा कि वे युद्ध में कौरवों के साथ रहेंगे, जो आदेश होगा, उसका पालन करेंगे, लेकिन उनकी वाणी पर उनका ही अधिकार होगा, दुर्योधन ने सोचा कि इससे उसे कोई हानि नहीं है, इसलिए उसने भी राजा शल्य की शर्त मान ली।

राजा शैल्य की शर्त पड़ी भारी!
पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध शुरू हुआ तो राजा शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया, वे कर्ण का रथ चलाते थे, लेकिन शर्त के अनुसार, वे पूरे युद्ध में पांडवों की वीरता का ही बखान करते थे, वे कौरवों को हमेशा कमजोर बताते और उनको हतोत्साहित करते थे, युद्ध समाप्ति के बाद भी शाम के समय कौरवों को उनकी कमजोरियों को ही बताते, कर्ण को अर्जुन की वीरता का बखान करके उसे हतोत्साहित करने का काम करते थे, वे कौरवों की ओर से होते हुए भी अपनी वाणी से पांडवों की मदद करते थे।