गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

चौहान भी सूर्यवंशी थे…!!?

चौहान वंश के महान शासक विग्रहराज चतुर्थ व उनका भगवान श्रीराम को समर्पित सोने का सिक्का।

सांभर - अजयमेरू के क्षत्रिय चौहान वंशी राजपूत शासको में विग्रहराज चतुर्थ उर्फ बीसलदेव चौहान (1151-1164 ई) इस वंश के महानतम शासको में से एक थे।

जिन्होंने उत्तरी भारत के बड़े हिस्से जिसे आर्यवर्त कहते है पर अपना प्रभुत्व जमाया। उनका शासन चाहमान वंश में एक अविस्मरणीय अध्याय है। 

उन्होंने अपने समकालीन उत्तर भारत के समस्त राजवंशों को पराजित कर चौहान वंश को सार्वभौम स्थिति में ला दिया। सन 1152 ई में उन्होंने दिल्ली के शासक मदनपाल तंवर से दिल्ली भी जीत ली और अपनी राजधानी अजयमेरू के अंतर्गत दिल्ली को एक सूबा बनाकर अपना सामंत दिल्ली में बिठा दिया। 

इसके अतिरिक्त अपना चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए देश के अन्य राजाओं को एक-एक करके मित्रता से या युद्ध से अपने साथ जोड़ लिया था। उस समय भारतवर्ष की पश्चिमोत्तर सीमा की रक्षा का भार चाहमानों पर था जिसका विग्रहराज चतुर्थ ने सफलतापूर्वक निर्वहन किया। 

उन्होंने तुर्को पर शानदार विजय हासिल की व लाहौर के यामिनी वंश के सुल्तान खुसरोशाह की शक्ति का भी विनाश किया था तथा उनके बारंबार होने वाले आक्रमणों से देश की रक्षा की। उन्होंने तुर्कों के कुछ प्रदेश भी जीत लिये। 

अपनी विजयो के उपलक्ष्य में विग्रहराज चतुर्थ ने टोपरा यमुनानगर में लगे मौर्य सम्राट अशोक महान के स्तंभ पर संस्कृत में चार बिंदुओं में एक शानदार शिलालेख वैशाख पूर्णिमा विक्रम संवत् 1220 तदनुसार 9 अप्रैल 1164 ई को संस्कृत में उत्कीर्ण करवाया जिसके तीसरे बिंदु का भावात्मक वर्णन इस प्रकार है:- 

"मैंने इस आर्यावर्त देश से तमाम म्लेच्छों का समूल नाश कर दिया है और वास्तव में ही इस देश को "आर्यों का देश" बना दिया है।" 

फिरोज शाह तुगलक (1351-1388 ई) ने अपने समय में वहां से यह स्तंभ उखड़वा कर दिल्ली फिरोजशाह परिसर में स्थापित कर दिया था, कोटला परिसर में आज भी यह स्तंभ व लेख देखा जा सकता है। 

हिमालय और विंध्य पर्वत आर्यावर्त "प्राचीन आर्यों की भूमि" की पारंपरिक सीमा बनाते हैं और विग्रहराज ने इस भूमि पर आर्यों के शासन को बहाल करने का दावा किया। 

इसमें हिमालय की तलहटी से लेकर सतलज तथा यमुना नदियों के बीच स्थित पंजाब का एक बङा भाग, उत्तर पूर्व में उत्तरी गंगा घाटी, दक्षिण में नर्मदा विंध्यांचल पर्वत तक का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित था। 

इस प्रकार विग्रहराज चौहान उत्तर भारत के वास्तविक सार्वभौम सम्राट थे, जिन्होंने चौहान वंश की प्रतिष्ठा को चरम सीमा पर पहुंचाया। 

उनके राज्य में दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी यूपी और मध्य प्रदेश के आधुनिक राज्य शामिल थे। उनके राज्य की राजधानी अजमेर थी "इस शहर का प्राचीन नाम अजयमेरू है।"

विग्रहराज चतुर्थ के राज्यकाल को चौहान वंश का स्वर्णिम काल भी कहते है, क्योंकि इस महान शासक ने अपने शासनकाल के दौरान सोने के सिक्के चलाए थे। 

विग्रहराज चतुर्थ ने बहुत ही रोचक सिक्के ढलवाये थे। इनमे से एक सोने का सिक्का बहुत ही महत्वपूर्ण है, जो कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को समर्पित है। 

चौहान भी सूर्यवंशी थे और उन्होंने अपने कुल के सिरमौर अयोध्या नगरी के राजा भगवान श्रीराम को समर्पित सोने के सिक्के ढलवाये, जो चौहान कुल के भगवान श्रीराम के प्रति अटूट श्रद्धा के प्रतीक है। 

यह सिक्के लगभग (1151-1164) ईस्वी के मध्य ढले थे। इन सिक्कों का वजन 4.07 ग्राम था। यह सिक्के बहुत खास है क्योंकि सिक्के के अग्रभाग में वन में घूमते हुए रामायण के महानायक भगवान श्रीराम को दिखाया गया है।

 भगवान राम को 14 वर्ष के लिए वनवास भेजा गया था इसी दृश्य को इस सिक्के में दर्शाया गया है। 

सिक्के की एक तरफ देवनागरी लिपि में "श्री रा मां" लिखा है व सिक्के पर अपने बाएं हाथ में धनुष लिए हुए हैं और दाएं हाथ में बाण पकड़े हुए भगवान श्रीराम की मनमोहक छवि उत्कीर्ण हैं व जंगल में पेड़ों, पक्षी और फूलों से घिरे हैं। 

बाएं हाथ के कोने में एक पक्षी जैसा प्राणी (संभवतः एक मोर) दिखाया गया है। सिक्के की दूसरी तरफ "श्रीमद विग्रा / हे राजा दे / वा" देवनागरी में तीन पंक्तियों में सिक्के पर लिखे हुए है। नीचे तारा और चंद्रमा प्रतीक है। 
"आंचल और आग" अपने प्रसिद्ध उपन्यास में लक्ष्मीनाथ बिड़ला ने विग्रह्राज चतुर्थ उर्फ बीसलदेव के बारे में कहा है की बीसलदेव चौहान स्वतंत्रता के अमर पुजारी थे। उन्होंने अजमेर नगर को भव्य कलाकृतियों एवं स्मारकों से अलंकृत करवाया।

 इनमें सरस्वती मंदिर का निर्माण सबसे अधिक उल्लेखनीय है, जिसे भारतीय कला की अत्युत्कृष्ट रचनाओं में स्थान दिया गया है। उनके द्वारा 1153 में सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ का निर्माण करवाया था, जो संस्कृत अध्ययन का बहुत बड़ा केन्द्र था। 

जिसे कालांतर में तुर्क आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर 'अढाई दिन का झोपड़ा' में बदल दिया गया। वह कला और स्थापत्य के पोषक भी थे। विग्रहराज चतुर्थ साहित्य प्रेमी भी थे, उन्होंने संस्कृत मे हरिकेलि नाटक लिखा। 

इसकी कुछ पंक्तियां अजमेर स्थित वर्तमान के ढाई दिन का झोपङा की सीढियों पर उत्कीर्ण हैं। यह नाटक भारवि के किरातार्जुनीयम के अनुकरण पर लिखा गया है। सोमदेव कृत ललितविग्रहराज नाटक में कहा गया है कि विग्रहराज ने मित्रों, ब्राह्मणों, तीर्थों तथा देवालयों की रक्षा के निमित्त तुर्कों से युद्ध किया था। 

जयनक नामक विद्वान विग्रहराज चतुर्थ को कविबान्धव कहता है, जिसके निधन से यह शब्द ही विलुप्त हो गया। सोमदेव ने उनको विद्वानों में सर्वप्रमुख कहा है। 

विग्रहराज चतुर्थ ने बीसलसर नामक झील का निर्माण भी करवाया था। इस झील को आज बीसलपुर झील कहा जाता है और वर्तमान में टोंक में स्थित है। शत्रू के हाथों उनका कभी पराभाव नहीं हुआ। 

उनकी असाधारण योग्यता की ओर लोगों का यथोचित ध्यान नहीं गया और यही कारण है कि इतिहास में जितनी प्रतिष्ठा उन्हे मिलना चाहिए थी वह मिल नहीं सकी।

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः।। लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।

🚩🚩जय मां भवानी 🚩🚩
🚩🚩जय राजपूताना 🚩🚩
🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

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👑जय 💪🏻महाराणा प्रताप।🚩
🙋🏻‍♂️जय 👑सम्राट💪🏻पृथ्वीराज🎯चौहान।💣
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