अंतिम लेख गाथा वीर चौहानों की आपने गोपेन्द्रराज तक पढ़ा था, गोपेन्द्रराज के बाद 784 ईस्वी में चाहमान शासन की बागडोर दुर्लभराज प्रथम के हाथ आयी।
पृथ्वीराज विजय के अनुसार "" दुर्लभराज ने अपनी तलवार की धाक से गंगा तथा दक्षिण के समुद्र तक को हिला दिया । दुर्लभराज ने अपनी तलवार के दम पर बहुत उपलब्धियां तथा प्रसिद्धि प्राप्त की ।। दुर्लभराज ने भारत से लेकर दक्षिण तक के बहुत से राज्यो पर विजय प्राप्त की, दुर्लभराज का पुत्र गुवक प्रथम महान प्रतिहार साम्राज्य में सम्मानित सदस्य थे, उस समय प्रतिहार शाशन महापराक्रमी, महावीर नागभट्ट द्वितीय के हाथों में था, ओर ऐसे विराट साम्राज्य में सम्मानित सदस्य होना आम बात नही थी ।।
पृथ्वीराज विजय के अनुसार दुर्लभराज ने अपना विजय अभियान बंगाल तक चलाया था, प्रतिहार राजा वत्सराज ने जब अपनी तलवार से चारो यत् धुंध मचा दी थी, उसमे दुर्लभराज का बहुत बड़ा योगदान था, दुर्लभराज प्रथम के विषय मे तो पृथ्वीराज रासो में कहा गया है कि
" उन्होंने अपनी तलवार को गंगासागर में डूबा कर शुद्ध किया "
गंगासागर को रक्त से लाल करने के बाद उन्होंने गोड़ प्रदेशो पर विजय अभियान शुरू किया ।
दुर्लभराज के बाद चौहान साम्राज्य उनके पुत्र गुवक प्रथम ने संभाला, इन्हें इतिहास् में गोविन्दराज के नाम से भी जाना जाता है, हर्ष शिलालेख में गोविन्दराज की प्रशंसा एक महान योद्धा के रूप में की गई है ।
गुवक प्रथम उर्फ गोविंद राज को प्रतिहार शाशक " नागभट्ट द्वितीय " अपने दरबार की शान समझते थे ।
गुवक प्रथम का नाम इतिहास् में मुख्य रूप से लिया जाना चाहिए, उन्होने सनातनं संस्कृति और हिन्दुओ की रक्षा के लिए अरब मुसलमानों और तुर्को से घोर युद्ध किये । नागभट्ट ने गुजरात तथा राजस्थान तक विजय प्राप्त की थी, यह प्रदेश नागभट्ट को गुवक द्वितीय ने ही जीतकर दिए थे । प्रतिहारो का शाशन राजस्थान तक हो, इसमे चौहानों की राजनीति भी थी, क्यो की उस समय पश्चिमी भारत की सीमाओं पर अरबो के आक्रमण हो चुके थे, ओर चौहान जानते थे, की अगर प्रतिहार साम्राज्य राजस्थान तक फैलता है, तो उन्हें अरबो के विरुद्ध हथियार उठाने ही पड़ेंगे ।।
इस तरह गुवक प्रथम इतिहास ने अपनी तलवार की नोक पर अपना इतिहास लिखा ।
गुवक प्रथम के बाद उनका पुत्र चन्दनराज गद्दी पर बैठा । यह कोई कार्य ऐसा नही कर पाए, जिसका विवरण किया जा सके ।।
लेकिन चन्दनराज के पुत्र गुवक द्वितीय जब गद्दी ओर विराजमान हुए, तब स्थितियां बदल गयी । गुवक द्वितीय को महाप्रतापी योद्धा कहा गया है । गुवक द्वितीय ने अपनी बहन कलावती का स्वयंवर रखा, 12 राज्यो के राजकुमारों ने इस स्वयम्वर में हिस्सा लिया, कलावती ने यह शर्त स्वमयर में रखी, जिसकी तलवार मेरे भाई गुवक की तलवार पर भारी पड़ेगी, में उसी से विवाह करूँगी ।।
12 राज्यो के राजकुमार भी गुवक द्वितीय को परास्त नही कर सके , लेकिन उसके बाद सम्राट मिहिरभोज ने गुवक द्वितीय से तलवार में दो दो हाथ किये ।। कलावती ने सम्राट मिहिरभोज से विवाह किया ।। प्रतापगढ़ अभिलेख में सम्राट मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्रपाल ने स्वयं गुवक द्वितीय की भूरी भूरी प्रशंसा की है ।
गुवक द्वितीय के बाद उनके पुत्र चन्दनराज द्वितीय गद्दी पर विराजमान हुए, यह बात सन 876 ईस्वी की है, इस समय तक चौहान और तोमर आपस मे शत्रु बन चुके थे । तोमर शाशक अपने साम्राज्य को दिल्ली से पश्चिम की ओर विस्तृत कर रहे थे, इस कारण उनके राज्य की सीमाये चौहानों की सीमा को स्पर्श करने लगीं थी, चौहान भी अपने साम्राज्य विस्तार के लिए बहुत महत्वाकाक्षी थे । यही कारण था, की चौहान तथा तोमर राजनीतिक शत्रु बन चुके थे। ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि तोमर राजकुमार रुद्र की मृत्यु के बाद कोई भी तोमर राजा चौहानों का सामना नही कर पाया, ओर तोमर राज्य पर भी चौहानों का अधिकार हो गया, ओर यही चौहान शाशक अब सामंत से सम्राट बनने की ओर अग्रसर हो चुके थे ।।।
एक बात इससे यह भी स्पष्ठ होती है, की वास्तव में दिल्ली के चौहानों का अधिकार बहुत पहले हो चुका था, जयचन्द ओर पृथ्वीराज की शत्रुता का जो कारण आज के इतिहासकार बताते है, उसमे कोई सच्चाई नही है । जयचंद्र ओर पृथ्वीराज का खून का रिश्ता कुछ नही था, केवल इतना रिश्ता था, की दोनो क्षत्रिय थे ।। जब दिल्ली 876 में ही चौहानों के अधीन हो गयी, तो उसके बाद दिल्ली के लिए जयचन्द्र ओर पृथ्वीराज का विवाद कैसे हो सकता है ??
ओर जब कोई विवाद ही नही था, तो जयचन्द्र भला क्यो मुहम्मद गौरी को आमंत्रित करेगा ??
चौहानों की गाथा में आगे पढ़िए, सामन्त से महाराज तक चौहान ....
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