रविवार, 30 सितंबर 2018

राजपूत रणनीति कुछ इस प्रकार से होनी चाहिए।

समाज/समूह का नेतृत्वकर्ता
भेड़ियों के इस समूह से हम एक बेहतरीन नेतृत्व का सबक सीख सकते हैं ।
 पहले 3 भेड़िये बूढ़े और कमजोर है और वे समूह में आगे रहकर समूह को दिशा और गति प्रदान कर रहे हैं।
और उनके बाद 5 भेड़िये सबसे ताकतवर है । वो आगे से होने वाले हमलों से बचने और उनसे निपटने के लिए तैयार रहते हैं।
और समूह का मध्य भाग पूर्णतः सुरक्षित हैं।
और समूह के पीछे के 5 भेड़िये भी सबसे ताकतवर हैं और वे समूह को पीछे से होने वाले हमलों  से बचाते है।
और समूह के अंत मे जो भेड़िया वो इस समूह का नेतृत्वकर्ता है और वो इस बात को निश्चित करता है कि समूह को कोई सदस्य उनसे पिछड़ तो नही गया ।
वह समूह को मजबूती से साथ रखता है और उसे निर्देशित करता  है । और किसी भी दिशा से समूह पर होने वाले हमलो का सामना करने को तैयार रहता है । 
नेतृत्वकर्ता होने का यह आशय नही की आप अपने समाज /समूह  में आगे खड़े  रहें ।
यह चित्र आपके समाज के प्रति दृष्टिकोण को एक नया आयाम देने को प्रेरित करता है।
यही चित्र कॉरपोरेट जगत में टीम मैनेजमेंट के गुर सिखाने के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
यह चित्र मानव समाज के नेतृत्व के लिए एक आदर्श है।
जीवन और संघर्ष की यह अद्भुत कला कुदरत ने इस विश्व के सभी प्राणियों को दी हैं ।

समझ सको को समझो नही तो हमारी भूल

शनिवार, 29 सितंबर 2018

गाथा वीर चौहानों की - भाग 4

अंतिम लेख गाथा वीर चौहानों की आपने गोपेन्द्रराज तक पढ़ा था, गोपेन्द्रराज के बाद 784 ईस्वी में चाहमान शासन की बागडोर दुर्लभराज प्रथम के हाथ आयी।

पृथ्वीराज विजय के अनुसार "" दुर्लभराज ने अपनी तलवार की धाक से गंगा तथा दक्षिण के समुद्र तक को हिला दिया । दुर्लभराज ने अपनी तलवार के दम पर बहुत उपलब्धियां तथा प्रसिद्धि प्राप्त की ।। दुर्लभराज ने भारत से लेकर दक्षिण तक के बहुत से राज्यो पर विजय प्राप्त की, दुर्लभराज का पुत्र गुवक प्रथम  महान प्रतिहार साम्राज्य में सम्मानित सदस्य थे, उस समय प्रतिहार शाशन महापराक्रमी, महावीर नागभट्ट द्वितीय  के हाथों में था, ओर ऐसे विराट साम्राज्य में सम्मानित सदस्य होना आम बात नही थी ।।

पृथ्वीराज विजय के अनुसार दुर्लभराज ने अपना विजय अभियान बंगाल तक चलाया था,  प्रतिहार राजा वत्सराज ने जब अपनी तलवार से चारो यत् धुंध मचा दी थी, उसमे दुर्लभराज का बहुत बड़ा योगदान था, दुर्लभराज प्रथम के विषय मे तो पृथ्वीराज रासो में कहा गया है कि 

" उन्होंने अपनी तलवार को गंगासागर में डूबा कर शुद्ध किया " 

गंगासागर को रक्त से लाल करने के बाद उन्होंने गोड़ प्रदेशो पर विजय अभियान शुरू किया । 

दुर्लभराज के बाद चौहान साम्राज्य उनके पुत्र गुवक प्रथम ने संभाला, इन्हें इतिहास् में गोविन्दराज के नाम से भी जाना जाता है, हर्ष शिलालेख में गोविन्दराज की प्रशंसा एक महान योद्धा के रूप में  की गई है । 

गुवक प्रथम उर्फ गोविंद राज को प्रतिहार शाशक " नागभट्ट द्वितीय " अपने दरबार की शान समझते थे । 

गुवक प्रथम का नाम इतिहास् में मुख्य रूप से लिया जाना चाहिए, उन्होने सनातनं संस्कृति और हिन्दुओ की रक्षा के लिए अरब मुसलमानों और तुर्को से घोर युद्ध किये । नागभट्ट ने गुजरात तथा राजस्थान तक विजय प्राप्त की थी, यह प्रदेश नागभट्ट को गुवक द्वितीय ने ही जीतकर दिए थे । प्रतिहारो का शाशन राजस्थान तक हो, इसमे चौहानों की राजनीति भी थी, क्यो की उस समय पश्चिमी भारत की सीमाओं पर अरबो के आक्रमण हो चुके थे, ओर चौहान जानते थे, की अगर प्रतिहार साम्राज्य राजस्थान तक फैलता है, तो उन्हें अरबो के विरुद्ध हथियार उठाने ही पड़ेंगे ।।  

इस तरह गुवक प्रथम इतिहास ने अपनी तलवार की नोक पर अपना इतिहास लिखा ।

गुवक प्रथम के बाद उनका पुत्र चन्दनराज गद्दी पर बैठा । यह कोई कार्य ऐसा नही कर पाए, जिसका विवरण किया जा सके ।।

लेकिन चन्दनराज के पुत्र गुवक द्वितीय जब गद्दी ओर विराजमान हुए, तब स्थितियां बदल गयी । गुवक द्वितीय को महाप्रतापी योद्धा कहा गया है । गुवक द्वितीय ने अपनी बहन कलावती का स्वयंवर रखा, 12 राज्यो के राजकुमारों ने इस स्वयम्वर में हिस्सा लिया, कलावती ने यह शर्त स्वमयर में रखी, जिसकी तलवार मेरे भाई गुवक की तलवार पर भारी पड़ेगी, में उसी से विवाह करूँगी ।।

12 राज्यो के राजकुमार भी गुवक द्वितीय को परास्त नही कर सके , लेकिन उसके बाद सम्राट मिहिरभोज ने गुवक द्वितीय से तलवार में दो दो हाथ किये ।। कलावती ने सम्राट मिहिरभोज से विवाह किया ।। प्रतापगढ़ अभिलेख में सम्राट मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्रपाल ने स्वयं गुवक द्वितीय की भूरी भूरी प्रशंसा की है ।
गुवक द्वितीय के बाद उनके पुत्र चन्दनराज द्वितीय गद्दी पर विराजमान हुए, यह बात सन 876 ईस्वी की है, इस समय तक चौहान और तोमर आपस मे शत्रु बन चुके थे । तोमर शाशक अपने साम्राज्य को दिल्ली से पश्चिम की ओर विस्तृत कर रहे थे, इस कारण उनके राज्य की सीमाये चौहानों की सीमा को स्पर्श करने लगीं थी, चौहान भी अपने साम्राज्य विस्तार के लिए बहुत महत्वाकाक्षी थे । यही कारण था, की चौहान तथा तोमर राजनीतिक शत्रु बन चुके थे।   ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा अभिलेखों से ज्ञात होता है कि तोमर राजकुमार रुद्र की मृत्यु के बाद कोई भी तोमर राजा चौहानों का सामना नही कर पाया, ओर तोमर राज्य पर भी चौहानों का अधिकार हो गया, ओर यही चौहान शाशक अब सामंत से सम्राट बनने की ओर अग्रसर हो चुके थे ।।।

एक बात इससे यह भी स्पष्ठ होती है, की वास्तव में दिल्ली के चौहानों का अधिकार बहुत पहले हो चुका था, जयचन्द ओर पृथ्वीराज की शत्रुता का जो कारण आज के इतिहासकार बताते है, उसमे कोई सच्चाई नही है । जयचंद्र ओर पृथ्वीराज का खून का रिश्ता कुछ नही था, केवल इतना रिश्ता था, की दोनो क्षत्रिय थे ।। जब दिल्ली 876 में ही चौहानों के अधीन हो गयी, तो उसके बाद दिल्ली के लिए जयचन्द्र ओर पृथ्वीराज का विवाद कैसे हो सकता है ??

ओर जब कोई विवाद ही नही था, तो जयचन्द्र भला क्यो मुहम्मद गौरी को आमंत्रित करेगा ?? 

चौहानों की गाथा में आगे पढ़िए,  सामन्त से महाराज तक चौहान ....

गाथा वीर चौहानों की - भाग 3


पृथ्वीराज विजय में कहा गया है, की चौहान साम्राज्य के विस्तार में विग्रहराज चौहान का योगदान अविस्मरणीय है , लेकिन विग्रहराज प्रथम का शाशन ज़्यादा लंबे समय तक नही चल पाया , लेकिन् विग्रहराज प्रथम ने अपने अल्पकाल में ही अनेक युद्ध लड़े, अपनी तलवार से उन्होंने पूरे भारत मे धुंध मचा दी । विग्रहराज प्रथम ने अल्पायु में ही इतिहास् में अपना नाम अमर कर लिया।

विग्रहराज चौहान के दो पुत्र थे --
चन्दनराज प्रथम ( 759 ईस्वी - 771 ईस्वी )
गोपेन्द्रनाथ ( 771 ईस्वी से 784 ईस्वी )
विग्रहराज प्रथम के दोनों ही पुत्रो ने ही क्रमशः राज किया, प्रबन्धकोश से हमे ज्ञात होता है कि उस समय तक भारत पर मुसलमानों के हमले हो चुके थे ।
मुहम्मद बिन कासिम ने जब सिंध पर आक्रमण किया था, उस समय चाहमान शाशन की बागडोर गोपेन्द्रराज के हाथो में थी । मुल्तान ओर सिंध को रौंदते हुए कासिम राजस्थान की ओर बढ़ा, मुहम्मद बिन कासिम ने अपने सबसे शक्तिशाली सेनापति " बेग वारिस " के नेतृत्व में एक विशाल टिड्डी दल चाहमान शाशक गोपेन्द्रराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए भेजा । किंतु गोपेन्द्र राज ने मुसलमानी सेना को ऐसा सबक सिखाया की उन्हें उल्टे पाँव सिर पर चप्पल लेकर भागना पड़ा ।
चौहानों ने अरब सेना की हालत इतनी खराब कर दी कि मुसलमानों का यह टाइटेनिक बहुत जल्द ही असफलता के समंदर में डूब गया । कासिम जैसे अत्याचारी को सबक सिखाने वाले गोपेन्द्रनाथ चौहान का नाम आज इतिहास् में नही है, यह हमारी सबसे बड़ी हार है । गोपेन्द्रराज ने तो कासिम को हरा दिया, लिजिन कलम ने गोपेन्द्र राज चौहान को वह स्थान् नही दिया, जिसके वह हकदार थे।
आगे के भाग चौहानों की वीरगाथा का एक ओर भाग ....
गाथा वीर चौहानों की ...🙏
💪✌🏹🚩

गाथा वीर चौहानों की - भाग 2

पिछले लेख में आपने पढ़ा था, की सामंत के रूप में सत्ता में आने वाले चौहान सामन्तराज चौहान के समय तक एक महान शक्ति बन चुकी थी । सामन्तराज के बाद उनके पुत्र नरदेव ने चौहानों की सत्ता संभाली थी, लेकिन इनका कोई विख्यात इतिहास् नही है ।

चौहानों की शक्ति में अभूतपूर्व परिवर्तन 721 ईस्वी में आया, जब चाहमान शाशक अजयराज गद्दी पर विराजमान हुए। अजयराज जब सिंहासन पर विराजमान हुए, तो राज्य की आंतरिक स्थिति भी संतोषजनक नही थी। 


अजयराज चौहान ने इन सभी बाधाओं को पार करते हुए ना केवल राज्य की आंतरिक स्थिति को संभाला, बल्कि शत्रुओ का दमन करते हुए चौहानों की शक्ति की भभक सारे भारत को दिखा दी। अजयराज के समय चौहानो ने महान् वीरता दिखाई थी, खुद अजयराज चौहान भी वीरता तथा पराक्रम में किसी से कम नही थे, उनकी वीरता और अद्भुत पराक्रम , हारे हुए युद्ध का अपनी वीरता और तलवार के दम में नतीजा परिवर्तित कर देने वाले महावीर अजयराज चौहान को इतिहास् ने " चक्री " कहा है । अजयराज चौहान ने अपने पराक्रम ओर वीरता से अपनी जनता का इतना मनोबल बढ़ा दिया था, की जनता अब अपनी सुरक्षा को लेकर निश्चिन्त रहने लगी।


अजयराज चौहान एक महावीर योद्धा थे, उनकी महत्वाकाक्षा बहुत बड़ी थी । किंतु कुछ ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि अजयराज चौहान कम उम्र में ही वैरागी हो गए।
आपको अजयराज चौहान के राजसी जीवन के बारे में जानना चाहिए, ओर उसके बाद उनके सन्यास लेने की घटना देखिये। अजयराज ऐसे राजा थे, जिन्होंने घन् संपति, सुख होते हुए भी सारे मोह माया से मुक्त होकर वैराग्य धारण किया।।
पहाड़ो पर बनने वाला कलयुग का सबसे पुराना किला " तारागढ़ " का किला अजयराज चौहान ने ही बनाया था। यह उस समय के सबसे शक्तिशाली किलो में एक हो गया, यही चौहानों की राजनीतिक समझ को भी बताता है, की उन्होंने पहाड़ो पर दुर्ग बनाकर अपनी स्थिति बहुत मजबूत कर ली थी। तारागढ़ चौहानों का सबसे पुराना किला है । तारागढ़ का किला आज भी चौहानों की शक्ति का मूल क दर्शक है , लेकिन हमारा दुर्भाग्य तो देखिए, जिस चौहानों के नाम पर आज हम गर्व करते है, उन्ही चौहानों का प्रथम दुर्ग आज मुसलमानों के कब्जे में है, वहां के सारे अवशेष धीरे धीरे मिटायें जा रहे है, अब वहां भव्य मस्जिद है, जो कि पिछले 10 - 5 सालों में बनी है, हालांकि जब आप किला घूमने जाते है, त्यप सरकार उसे तारागढ़ का किला ही बताती है, लेकिन भीतर प्रवेश के बाद पता लगता है, की यहां तो मस्जिद बन गयी है । पहले यहां पर छोटी सी मजार बनाई गई थी, बाद में उसी मजार को भव्य मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया ।
" जबकि तारागढ़ का दुर्ग राजपूताने की शान माना जाता है ""
अजयराज चौहान ने ही पहाड़ो पर अद्भुत दुर्ग का निर्माण किया था, लेकिन अजयराज चौहान वैरागी हो गए, ओर अपना जीवन अजमेर के आश्रम में जाकर व्यतीत करने लगे । अजयराज अब बहुत ही धार्मिक जीवन जीने वाले सद्पुरुष बन चुके थे।
आजका अजमेर शहर अजयराज चौहान के द्वारा ही बसाया गया है। यह शहर बहुत ही भव्य तथा शानदार था। यह भव्यता भी चौहान शाशको की अन्य राजवंशों पर विजय को दर्शाता है ।
आगे के लेख में आप पढ़ेंगे की अजयराज के उत्तराधिकारी विग्रहराज प्रथम के बारे में पढ़ेंगे , उसी समय मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण हुआ था। किस तरह उस भयानक आतंक को विग्रहराज् चौहान ने धूल चटा दी।
जय राजपूताना।

गाथा चक्रवर्ती चौहानों की - भाग 1

बिजली सी गति, गिद्ध सी आंख, हाथी की तरह बलशाली ओर चीते की तरह पूरी शक्ति और गति के साथ ऐसा प्रहार की पल भर में शत्रु का शीश जमीन की धूल में मिल जाता । ऐसे ही वीर पुरुष थे चौहान !!

चौहानों ने अद्भुत गति के साथ अपनी शक्ति को विश्व शक्ति बनाकर खड़ा किया था, प्रतिहार साम्राज्य के काल मे भारत की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति को देखते हुए सामन्तशाही व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी । उसी समय विदेशों से लगातार मल्लेछो ( मुसलमानों और हूणों ) के आक्रमण हो रहे थे , हालांकि हुण इतने शक्तिशाली उस समय तक नही बचे थे, लेकिन् उसके बाद भी भारत के लिए यह संकट पैदा कर ही देते थे । भारत की सत्ता सुदृढ रूप से पनप नही पा रही थी, इसी काल मे सामंतों का उदय हुआ।
सामंतों का कार्य राजा को सैनिक शक्ति उपलब्ध करवाना, तथा कुछ क्षेत्रों में पूरी तरह व्यवस्था लागू करना था। यदि शाशक कमजोर या डरपोक होता, तो सामन्त विद्रोह कर दिया करते, सामन्तगण राजाओ के अनिवार्य आवश्यकता बन गए थे ।
चौहानों ने भी सामन्त के रूप में ही अपना शाशन शुरू किया था, यह प्रतिहारो के सामन्त हुआ करते थे। समय के साथ साथ चौहानों की शक्ति बढ़ती गयी, ओर प्रतिहार शाशको की शक्ति क्षीण होती गयी।
प्रतिहारो ने शिलालेखों में चौहान सामंतों की भूरी भूरी प्रशंसा की गयी है। प्रतापगढ़ का 944 ई के अभिलेख का दूसरे भाग के अनुसार , " चौहान सरदारों ने प्रतिहारो के लिए अनेक भयंकर युद्ध किये थे , जिनमे वह पूर्ण रूप से सफल भी रहें "
चौहानों का पितामह वासुदेव चौहान को कहा जाता है । वासुदेव चौहान के बारे में ज़्यादा विवरण हमे नही मिलता, लेकिन पृथ्वीराज विजय नामक ग्रन्थ में वासुदेव चौहान को चौहान वंश का संस्थापक बताया गया है। वासुदेव चौहान साक्षात भगवान श्री कृष्ण का अवतार था । ( अर्थात - उनकी कूटनीति , लोकप्रियता ओर शक्ति भगवान श्री कृष्ण के समान थी )
लेकीन् चौहानों का वास्तविक उदय " सामन्तराज चौहान " के समय से शुरू हुआ । अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सामन्तराज चौहान अपने समय मे इतने शक्तिशाली हो चुके थे, की कई सामंतों की अगुवाई करने लगे, तथा भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बना चुके थे। सामन्तराज चौहान के समय मे चौहानों की शक्ति दिन - ब - दिन बढ़ती जा रही थी, इससे यह स्पष्ठ हो जाता है कि सामन्त राज् के समय ही चौहान भारत की सत्ता के लिए दावेदारी ठोक चुके थे । सामन्तराज इतने शक्तिशाली हो चुके थे, की उन्होंने प्रतिहार सत्ता तक को चुनोती दे डाली, हालांकि वे इसमे सफल नही हुए।
लेकिन सामन्तराज चौहानों को इस स्थिति तक पहुंचा चुके थे, की अब दिल्ली दूर नही थी ----
( चौहानों को अग्निवंशी कहकर जाना जाता है, लेकिन यह वास्तविक सत्य नही है, चौहानों को अग्निवंशी केवल पृथ्वीराज रासो में कहा गया है, लेकिन पृथ्वीराज रासो को कोई भी इतिहासकार विश्वसनीय नही मानता, पृथ्वीराज विजय के अनुसार तथा हम्मीर महाकाव्य के अनुसार चौहान सूर्यवँशी राजा है, इन्हें श्री राम का वंसज कहा गया है। )
आगे के लेख में हम जानेंगे कि किस तरह चौहान भारत की सत्ता के सर्वोसर्वा बन गए, ओर उस समय भारत की स्थिति क्या थी, चौहान राजाओ का व्यवहार कैसा था, राजाओ का आचरण कैसा था, सामाजिक स्थिति से लेकर राजनीतिक स्थिति क्या थी --
पढ़ते रहिये .....
जय राजपूताना।