गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

हठी हम्मीर देव चौहान।

"सिंह गमन संत्पुरूष वचन, कदली फले इक बार।       त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार॥"

  इस भारत भूमि पर कई वीर योद्धाओ ने जन्म लिया है। जिन्होंने अपने धर्म संस्कृति और वतन पर खुद को न्यौछावर कर दिया। सत् सत् नमन है इन वीर योद्धाओं को!

 हठी हम्मीर देव चौहान ने रणथंभोर पर 1282 से 1301 तक राज किया था, वे रणथम्भौर के सबसे महान शासकों में से एक माने जाते हैं, हम्मीर देव के पिता का नाम जैत्रसिंह चौहान एवं माता का नाम हीरा देवी था, वे इतिहास में ‘‘हठी हम्मीर" के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।

हम्मीर देव 1282 में रणथम्भौर के शासक बने, हम्मीर देव रणथम्भौर के चौहान वंश के सर्वाधिक प्रतापी, शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण शासक थे, उन्होंने अपने बाहुबल से विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

हम्मीर रासौ के अनुसार रणथम्भौर साम्राज्य उज्जैन से लेकर मथुरा तक एवं मालवा (गुजरात) से लेकर अर्बुदाचल तक हो गया था, हम्मीर देव के वारे में कहा जाता है कि- वो अगर कोई हठ (अर्थात - निश्चय) कर ले वो उसको पूरा किये बिना पीछे नहीं हटते थे।

उनके हठ (अर्थात - दृढ निश्चय) को लेकर अनेको महाकाव्य लिखे गए जिनमे जोधराज शारंगधर द्वारा रचित "हम्मीर रासो" और न्यायचन्द्र सूरी द्वारा रचित "हम्मीर महाकाव्य" अत्यंत प्रसिद्ध हैं, उनके हठ को लेकर "हम्मीर महाकाव्य" में लिखा है :- 

"सिंह गमन तत्पुरूष वचन, कदली फले इक बार। 
त्रिया तेल हम्मीर हठ, चढ़े न दूजी बार"॥

दिल्ली के सुलतान गुलाम बंश के अंतिम शासक "कय्यूम" की हत्या कर "जलालुद्दीन खिलजी" दिल्ली का सुलतान बन गया था, उसने सुलतान बनते ही 1291 में रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 

हम्मीर देव ने उसे बहुत आसानी से हराकर खदेड़ दिया, जलालुद्दीन ने 1292 में दो बार फिर हमले किये लेकिन हम्मीर देव ने उसे दोनों बार मार भगाया।

उसके बाद जलालुद्दीन खिलजी की दोबारा कभी हिम्मत नहीं हुई रणथम्भौर पर हमला करने की, 1296 में जलालुद्दीन के भतीजे और दामाद "अलाउद्दीन खिलजी" ने, जलालुद्दीन की हत्या कर दी और खुद सुलतान बन गया.सुल्तान बनने के बाद उसने 1298 में गुजरात पर हमला किया। 

सोमनाथ को लूटा और वापसी में उसने अपने सेना नायक उल्गू खान को रणथम्भौर पर हमला करने का आदेश दिया, इस लड़ाई में भी हम्मीर देव ने खिलजी की सेना को मार भगाया और गुजरात की लूट का माल और हथियार भी छीन लिए, उस धन से हम्मीर देव ने गुजरात सोमनाथ मंदिर, उजजैन के महाकालेश्वर मंदिर और पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर का पुनरुद्धार कराया।

इस घटना के बाद अलाउद्दीन खिलजी को रणथम्भौर और भी खटकने लगा, इसी बीच मंगोल से नवी मुसलमान बने, खिलजी के एक मंगोल रिश्तेदार "मुहम्मद शाह" के अवैद्ध सम्बन्ध खिलजी की एक रानी "चिमना" से हो गए थे। 

मालिक काफूर को इसका पता चल गया और उसने खिलजी को इसकी खबर करदी, इसपर खिलजी आग बबूला हो गया।

खिलजी के भय मुहम्मद शाह अपने साथियों के साथ हम्मीर देव के पास पहुँच गया और चालाकी से उनसे अपनी प्राणरक्षा का बचन ले लिया।

 अलाउद्दीन खिलजी ने विशाल सेना लेकर रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया, लेकिन 9 महीने के घेरे के बाद भी वह हम्मीर देव को झुका नहीं पाया, इसी बीच हम्मीर देव के दो सेना नायक खिलजी से मिल गए।

रणमल और रतिपाल को खिलजी ने रणथम्भौर का राजा बनाने का बचन देकर अपने साथ मिला लिया था। रणमल और रतिपाल ने किले के कमजोर हिस्सों को बारूद से उडा दिया, तब हम्मीर देव ने "शाका" करने का निर्णय लिया, राजपूत केसरिया बाना पहन कर अंतिम युद्ध के लिए तैयार हो गए महिलाओं ने जौहर की तैयारी कर ली।


11जुलाई 1301 को किले के फाटक खोलकर खिलजी की सेना पर टूट पड़े, रणथम्भौर की सेना संख्या में कम थी लेकिन उनके हौसले बुलंद थे, उन्होंने खिलजी की सेना को गाजर मूली की तरह काटना शुरू कर दिया और देखते ही देखते खिलजी की सेना अपने हथियार, तम्बू, झंडे, आदि अपना सब सामान छोड़कर भाग खड़ी हुई।

हम्मीर देव के सैनिको ने वो सारा सामान उठा लिया और किले की तरफ वापस चल पड़े, उन्होंने खिलजी की सेना के झंडे भी उठा लिए थे, बस यहीं उनसे गलती हो गई।

खिलजी के झंडों को देखकर किले की महिलाओं को लगा कि- उनके लोग मारे गए हैं और खिलजी की सेना किले पर कब्ज़ा करने आ रही है और वे जौहर की अग्नि में कूद गईं।

जब हम्मीर देव किले में पहुंचे तो महिलाओं को जौहर की अग्नि में जलता देखकर उनको बहुत दुःख हुआ, मन की शांति के लिए शिव मंदिर में गए और प्राश्चित स्वरूप अपना सर काटकर भगवान् शिव के चरणों में चढ़ा दिया, अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो वह वापस लौट आया और उसने दुर्ग पर कब्जा कर लिया।

रणमल और रतिपाल ने रणथम्भौर का राजा बनाने को कहा तो खिलजी ने दोनों का सर कलम करने का आदेश देते हुए कहा कि - जो अपनों का नहीं हुआ वो हमारा क्या होगा।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

शूरवीर भूपति सिंह खंगार।

परिचय :- शूरवीर भूपति सिंह खंगार महाराजा खेत सिंह खंगार के वंशज हैं जिन्होंने "राजुराव भदौरिया" के द्वारा मिर्धा की उपाधि हासिल की। 

गढ़चंद्रवार जिला इटावा के महाराज शैल्यदेव भदौरिया के सेनापति थे। जिन्होंने अपने शौर्य पराक्रम से भदौरिया कुल की रक्षा की जिससे भदौरिया राजवंश के संस्थापक महाराज राजूरावत भदौरिया के से "मिर्धा" उपाधि के साथ जमसारा गांव जागीर में प्राप्त किया। 

महाराजा खेत सिंह खंगार की पुत्री विजय कुँवरबाई का विवाह भदौनगढ़ के भीमसेन भदौरिया को व्याही थी और जिला आगरा के खंगरोल क्षेत्र जो कि खंगार राजपूतों का शक्तिकेन्द्र था उसे दहेज में दिया । जिससे भदौरिया और खंगारों के संबंध हमेशा के लिए मधुर हो गये  

भदौरिया राजवंश के 25वें नरेश शल्यदेव भदौरिया की वीर गाथा सन.1194 से 1208 तक-

वीर सम्राट पृथ्वीराज से 16 बार पराजित होने के बाद 17वीँ बार तराइन के मैदान मेँ मोहम्मद गौरी विजयी हुआ व पृथ्वीराज बँदी बन गये इसके उपरान्त महाराज जयचँद को मारकर दुष्ट गौरी ने कन्नौज पर भी अधिकार कर लिया। 

तब भदौरिया नरेश शल्यदेव की राजधानी भदौरागढ़ दुर्ग पर मोहम्मदगौरी के सेनापति कुतबुद्दीन एबक ने विशाल सेना ले कर हमला किया राजा शल्यदेव बड़ी वीरता से युद्द करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।

राजा के वीरगति प्राप्त होते ही सेना संग्राम में टिक न सकी भदौरागढ़ दुर्ग भारी पत्थर फेकने वाले यन्त्रों से विध्वँस कर दिया गया यह युद्ध इतना भयँकर था कि अरनोटा नदी का जल ढाई कोस तक रक्त रजिँत व धूल धूसरित हो गया था। 

शल्यदेव की तीन रानियोँ मेँ से दो रानी सती हो गयी, तीसरी रानी जो सीकरी के राव शिखरदेव सिकरवार की बहिन (दलखू शाह सिकरवार की पुत्री) थी, जिनका प्रसवकाल समीप था वंश रक्षार्थ वह सती न हो सकी। 

वह गुप्त मार्ग से विश्वासपात्र भुपति सिंह खँगार को साथ लेकर फटे पुराने वस्त्र पहिन वेश बदल कर डोली में बैठ कर निकल पड़ी, डोली में कहारो की जगह विश्वसनीय राजपूत वीर खंगार राजपूत अँगरक्षक थे ।

रास्ते मेँ आगरा के पास मुसलमान सेनानायकोँ के रोकने पर राजपुरोहित ने रानी को अपनी पुत्री व भूपति सिंह खँगार ने अपनी बहिन बता कर बचा लिया। रानी भागते समय एक हार के अलावा सब कुछ किले मेँ ही छोड़ आयीँ थीँ इस प्रकार रानी सीकरी पहुँच गयी। 

राव शिखरदेव ने अपनी बहिन को अत्यँत आदर सत्कार से अपने यहाँ शरण दी राव शिखर देव पर सुल्तान का दवाब पड़ा कि रानी को दिल्ली भेजा जाये परँतु राव ने कहा कि मेरे यहाँ भदौरिया राजा की कोई रानी नहीँ है मेरी बहिन तो सती हो चुकी है सीकरी मेँ पहुँचने के एक सप्ताह बाद रानी ने पुत्र को जन्म दिया। 

यही भदौरिया कुलदीपक रजूराव भदौरिया कहलाये अगर ये न होते तो भदौरिया वँश का लोप ही हो जाता।

इतिहास :- अनुसार खंगार राजपूतों की वजह से भदौरिया राजवंश का कुल दीपक बुझने बचा इसलिए भदौरिया आज भी खंगार राजपूतों को मामा मानते हैं और भिंड ,मुरैना ,भदावर क्षेत्र में भदौरिया राजपूतों के घर मे जब भी शादी विवाह होते हैं तो खंगार राजपूतों का होना शुभ माना जाता है। 

हल्दी कुमकुम से तिलक कर बहन खंगार मामा जी को मीठा खिलाकर ये रसम पूरी की जाती है एवं धर्म के रक्षक मामा खंगार के हाथ के हल्दी भरे पाँच थप्पे लगायें जाते हैं और खंगार मामा को भोजन कराके पीछे आप भोजन करते हैं। 

मेहर का सम्बन्ध खंगार और भदौरिया में आज तक चला आ रहा है। भूपति सिंह खंगार ने राजकुमार रजूराव को 12 बर्ष की आयु तक घुड़सवारी मल्लयुद्ध अस्त्र-शस्त्र चलाना और युद्धकला के दावपेचौं में प्रवीण कर दिया।

चम्बल नदी के किनारे बसा जमसारा स्टेट मध्यप्रदेश के जिला भिण्ड अटेर तहसील के अंतर्गत आता है जिसके वंशज ठा. विश्वनाथ सिंह खंगार आज भी जीवित हैं जो किले के मरम्मती करण एवं रखरखाव की जिम्मेवारी का निर्वाहन करते आ रहे हैं एवं सती मन्दिर के पुनर्निर्माण का कार्य भी किया। 

भिण्ड गजेटर व सरकारी दस्तावेजों में जमसारा स्टेट ठा विश्वनाथ सिंह के नाम है ।
आज भदौरिया परम्पराएं आज भी खंगार क्षत्रियों को खंगार देव के रूप में प्रतिष्ठित का सम्मान देती हैं।

 खंगारोल भार तहसील जिला आगरा के भदावर महाराज मृदन सिंह भदौरिया एवं अरविंद सिंह भदौरिया (मन्त्री मध्यप्रदेश सरकार ) चम्बल दस्यु सम्राट दद्दा मलखान सिंह खंगार को "मामा"जी से सम्बोधित करते हैं जो ऐतिहासिक संबंधों को मधुर करते हैं ।

 शूरवीर भूपति सिंह खंगार उनके शौर्य एवं पराक्रम को बारम्बार प्रणाम एवं शत-शत नमन ।🙏🏻

👑 जय राजपूताना।⚔️

#highlightsシ゚ 
#क्षत्रिय-#कुलावतंस #चंद्रवंशी #चूड़ासमा_क्षत्रिय_खंगार_राजपूत 
#vairal2025 #BestPhoto_Bharat 
#क्षत्रिय__धर्मेः__युगेः__युगे
#राजपूत
#BestPhotographyChallenge #rajputdheersinghpundhir #कछवाहा #viralvideoシ #bhagyalakshmiantv #vairalpage 
#क्षत्रियकुलावतंस
#राजपूती_रुतबा_तो_खानदानी_आ
#क्षत्रिय_केवल_राजपूत
#राजपूताना_धरोहर_एव_संस्कृति
#क्षत्रियकुलावतंस
#राजपूताना__बूलंद__रहे
#क्षत्रियकुलावतंस
#राजपूत_एकता_जिंदाबाद

चौहान भी सूर्यवंशी थे…!!?

चौहान वंश के महान शासक विग्रहराज चतुर्थ व उनका भगवान श्रीराम को समर्पित सोने का सिक्का।

सांभर - अजयमेरू के क्षत्रिय चौहान वंशी राजपूत शासको में विग्रहराज चतुर्थ उर्फ बीसलदेव चौहान (1151-1164 ई) इस वंश के महानतम शासको में से एक थे।

जिन्होंने उत्तरी भारत के बड़े हिस्से जिसे आर्यवर्त कहते है पर अपना प्रभुत्व जमाया। उनका शासन चाहमान वंश में एक अविस्मरणीय अध्याय है। 

उन्होंने अपने समकालीन उत्तर भारत के समस्त राजवंशों को पराजित कर चौहान वंश को सार्वभौम स्थिति में ला दिया। सन 1152 ई में उन्होंने दिल्ली के शासक मदनपाल तंवर से दिल्ली भी जीत ली और अपनी राजधानी अजयमेरू के अंतर्गत दिल्ली को एक सूबा बनाकर अपना सामंत दिल्ली में बिठा दिया। 

इसके अतिरिक्त अपना चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए देश के अन्य राजाओं को एक-एक करके मित्रता से या युद्ध से अपने साथ जोड़ लिया था। उस समय भारतवर्ष की पश्चिमोत्तर सीमा की रक्षा का भार चाहमानों पर था जिसका विग्रहराज चतुर्थ ने सफलतापूर्वक निर्वहन किया। 

उन्होंने तुर्को पर शानदार विजय हासिल की व लाहौर के यामिनी वंश के सुल्तान खुसरोशाह की शक्ति का भी विनाश किया था तथा उनके बारंबार होने वाले आक्रमणों से देश की रक्षा की। उन्होंने तुर्कों के कुछ प्रदेश भी जीत लिये। 

अपनी विजयो के उपलक्ष्य में विग्रहराज चतुर्थ ने टोपरा यमुनानगर में लगे मौर्य सम्राट अशोक महान के स्तंभ पर संस्कृत में चार बिंदुओं में एक शानदार शिलालेख वैशाख पूर्णिमा विक्रम संवत् 1220 तदनुसार 9 अप्रैल 1164 ई को संस्कृत में उत्कीर्ण करवाया जिसके तीसरे बिंदु का भावात्मक वर्णन इस प्रकार है:- 

"मैंने इस आर्यावर्त देश से तमाम म्लेच्छों का समूल नाश कर दिया है और वास्तव में ही इस देश को "आर्यों का देश" बना दिया है।" 

फिरोज शाह तुगलक (1351-1388 ई) ने अपने समय में वहां से यह स्तंभ उखड़वा कर दिल्ली फिरोजशाह परिसर में स्थापित कर दिया था, कोटला परिसर में आज भी यह स्तंभ व लेख देखा जा सकता है। 

हिमालय और विंध्य पर्वत आर्यावर्त "प्राचीन आर्यों की भूमि" की पारंपरिक सीमा बनाते हैं और विग्रहराज ने इस भूमि पर आर्यों के शासन को बहाल करने का दावा किया। 

इसमें हिमालय की तलहटी से लेकर सतलज तथा यमुना नदियों के बीच स्थित पंजाब का एक बङा भाग, उत्तर पूर्व में उत्तरी गंगा घाटी, दक्षिण में नर्मदा विंध्यांचल पर्वत तक का एक बड़ा भाग भी सम्मिलित था। 

इस प्रकार विग्रहराज चौहान उत्तर भारत के वास्तविक सार्वभौम सम्राट थे, जिन्होंने चौहान वंश की प्रतिष्ठा को चरम सीमा पर पहुंचाया। 

उनके राज्य में दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी यूपी और मध्य प्रदेश के आधुनिक राज्य शामिल थे। उनके राज्य की राजधानी अजमेर थी "इस शहर का प्राचीन नाम अजयमेरू है।"

विग्रहराज चतुर्थ के राज्यकाल को चौहान वंश का स्वर्णिम काल भी कहते है, क्योंकि इस महान शासक ने अपने शासनकाल के दौरान सोने के सिक्के चलाए थे। 

विग्रहराज चतुर्थ ने बहुत ही रोचक सिक्के ढलवाये थे। इनमे से एक सोने का सिक्का बहुत ही महत्वपूर्ण है, जो कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को समर्पित है। 

चौहान भी सूर्यवंशी थे और उन्होंने अपने कुल के सिरमौर अयोध्या नगरी के राजा भगवान श्रीराम को समर्पित सोने के सिक्के ढलवाये, जो चौहान कुल के भगवान श्रीराम के प्रति अटूट श्रद्धा के प्रतीक है। 

यह सिक्के लगभग (1151-1164) ईस्वी के मध्य ढले थे। इन सिक्कों का वजन 4.07 ग्राम था। यह सिक्के बहुत खास है क्योंकि सिक्के के अग्रभाग में वन में घूमते हुए रामायण के महानायक भगवान श्रीराम को दिखाया गया है।

 भगवान राम को 14 वर्ष के लिए वनवास भेजा गया था इसी दृश्य को इस सिक्के में दर्शाया गया है। 

सिक्के की एक तरफ देवनागरी लिपि में "श्री रा मां" लिखा है व सिक्के पर अपने बाएं हाथ में धनुष लिए हुए हैं और दाएं हाथ में बाण पकड़े हुए भगवान श्रीराम की मनमोहक छवि उत्कीर्ण हैं व जंगल में पेड़ों, पक्षी और फूलों से घिरे हैं। 

बाएं हाथ के कोने में एक पक्षी जैसा प्राणी (संभवतः एक मोर) दिखाया गया है। सिक्के की दूसरी तरफ "श्रीमद विग्रा / हे राजा दे / वा" देवनागरी में तीन पंक्तियों में सिक्के पर लिखे हुए है। नीचे तारा और चंद्रमा प्रतीक है। 
"आंचल और आग" अपने प्रसिद्ध उपन्यास में लक्ष्मीनाथ बिड़ला ने विग्रह्राज चतुर्थ उर्फ बीसलदेव के बारे में कहा है की बीसलदेव चौहान स्वतंत्रता के अमर पुजारी थे। उन्होंने अजमेर नगर को भव्य कलाकृतियों एवं स्मारकों से अलंकृत करवाया।

 इनमें सरस्वती मंदिर का निर्माण सबसे अधिक उल्लेखनीय है, जिसे भारतीय कला की अत्युत्कृष्ट रचनाओं में स्थान दिया गया है। उनके द्वारा 1153 में सरस्वती कण्ठाभरण विद्यापीठ का निर्माण करवाया था, जो संस्कृत अध्ययन का बहुत बड़ा केन्द्र था। 

जिसे कालांतर में तुर्क आक्रमणकारियों ने ध्वस्त कर 'अढाई दिन का झोपड़ा' में बदल दिया गया। वह कला और स्थापत्य के पोषक भी थे। विग्रहराज चतुर्थ साहित्य प्रेमी भी थे, उन्होंने संस्कृत मे हरिकेलि नाटक लिखा। 

इसकी कुछ पंक्तियां अजमेर स्थित वर्तमान के ढाई दिन का झोपङा की सीढियों पर उत्कीर्ण हैं। यह नाटक भारवि के किरातार्जुनीयम के अनुकरण पर लिखा गया है। सोमदेव कृत ललितविग्रहराज नाटक में कहा गया है कि विग्रहराज ने मित्रों, ब्राह्मणों, तीर्थों तथा देवालयों की रक्षा के निमित्त तुर्कों से युद्ध किया था। 

जयनक नामक विद्वान विग्रहराज चतुर्थ को कविबान्धव कहता है, जिसके निधन से यह शब्द ही विलुप्त हो गया। सोमदेव ने उनको विद्वानों में सर्वप्रमुख कहा है। 

विग्रहराज चतुर्थ ने बीसलसर नामक झील का निर्माण भी करवाया था। इस झील को आज बीसलपुर झील कहा जाता है और वर्तमान में टोंक में स्थित है। शत्रू के हाथों उनका कभी पराभाव नहीं हुआ। 

उनकी असाधारण योग्यता की ओर लोगों का यथोचित ध्यान नहीं गया और यही कारण है कि इतिहास में जितनी प्रतिष्ठा उन्हे मिलना चाहिए थी वह मिल नहीं सकी।

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः।। लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्। कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये॥ आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।

🚩🚩जय मां भवानी 🚩🚩
🚩🚩जय राजपूताना 🚩🚩
🚩🚩जय जय श्री राम 🚩🚩

#Kshatriya_
#चाहमान #Rajput #kshatriyacommunity #KshatriyaSamratvigrahraajchauhan 
#suryavanshi #krvansh29 #sachinc29
#godvishnu29 #RajputSamratPrathviraajchauhan
#arkvanahi #rajputofindia #आज़ादी #KshatriyaSamaj #thakur #RajputSamratPrithviRajChauhan #Kshatriya_History #rajputattitude

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

वीरवर चांपा जी राठौड़


राठौड़ी कुल के वीर सपूत राव चांपा जी राठौड़ का जन्म मंडोर के राजा राव रिड़मल जी के घर हुआ। राव रिड़मल जी के पुत्र जोधा जी राठौड़ों के राजा बने और अन्य सभी भाई इस राठौड़ी राज के मजबूत स्तम्भ। 

राव जोधा जी और यह चौइस भाई थे। 
अखेराज जी, जोधा जी, कांधल जी, चाम्पा जी, मंडला जी, भाखर जी, पाता जी, रूपा जी, करण जी, मानडण जी, नाथो जी, सांडो जी, बेरिसाल जी, अड्मल जी, जगमाल जी, लखा जी, डूंगर जी, जेतमाल जी, उदा जी, हापो जी, सगत जी, सायर जी, गोयन्द जी, सुजाण जी। 

मंडोर को मेवाड़ से मुक्त कराने औऱ राठौड़ों की नई व मजबूत राजधानी जोधपुर के अधीन मारवाड़ जैसे मजबूत और विशाल साम्राज्य को खड़ा करने में चांपा जी जैसे वीर सपूतों का प्रमुख योगदान रहा। 

आगे भी मारवाड़ के लिए चांपा जी के वंशजों ने अनेकों बलिदान दिए औऱ राठौड़ी राज को मारवाड़ में स्थायित्व व ऊंचाईयां दी। 

चांपा जी के वंशज चम्पावत राठौड़ कहलाए। जिनके मारवाड़, मेवाड़, जयपुर, गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और हरियाणा में बड़े ठिकाने है।

चांपा जी ने जोधपुर के लिए अनेकों युद्ध लड़े और जीते। जोधपुर राज्य की तरफ से चांपा जी को राव की पदवी व बनाड़ एवं कापरड़ा की जागीर मिली। वि.सं.1536 में राव चांपा जी मणीयारी के पास गायों की रक्षा में बलिदान हुए। 

आज राव चांपा जी राठौड़ की 612 वीं जयंती है। जिनके शौर्य को प्रदर्शित करती विशाल छतरी कापरड़ा गांव में आज भी अडिग खड़ी है। 

जोधा जी से बड़े होने पर भी चांपा जी राजा और रियासत के प्रति वफादार रहें और आजीवन अपना पूर्ण समर्पण दिया। 

ऐसे वीर सपूतों के त्याग, तप और वीरता के बल पर ही राज्य खड़े होते है, साम्राज्य खड़े होते है। आइए हम सब भी वीरों के उसी पथ के पथिक बनें जन्म सफल करें।

 🚩जय भवानी।🙏🏻
👑जय🤟🏻 राजपूताना।⚔️ 

मंगलवार, 7 जनवरी 2025

सम्राट विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव चाहमान)।

क्षत्रिय जीवन परिचय:- 

सम्राट विग्रहराज चतुर्थ अथवा वीसलदेव (चाहमान वंश) के एक अति प्रतापी और विख्यात नरेश थे, जिन्होंने चाहमानों (चौहानों) की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया। 

सन् ११५३ में विग्रहराज चतुर्थ वीसलदेव शाकम्भरी राजसिंहासन पर बैठे इन्होंने सम्पूर्ण भारत में विजय पायी थी और अरबों को खदेड़ा था। 

११५३ से ११६४ तक राज्य किया, दिल्ली पर भी अधिकार किया था। मेवार से एक लेख प्राप्त हैं एवं मध्यकालीन इतिहास में लिखा हैं, की मलेच्छो को परास्त कर दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। 

डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा हैं की अपने पराक्रम और शौर्य का परिचय देते हुये कई राज्यों को जीत लिया था, अरबों को ना केवल भारत से खदेड़ा अपितु शौर्य का परचम तुर्क के शासक खुसरो शाह को परास्त कर लाहौर पर विजय पाई थी । महाकवि सोमदेव ने वीसलदेव के प्रताप और शौर्य की प्रशंसा में 'ललित विग्रहराज' नामक ग्रन्थ लिखा।

चाहमान वंश को आज नवीनतम इतिहास में चौहान कहा जाता हैं चाहमान वंश २५०० साल तक सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के प्रहरी थे। कुशल शासन द्वारा प्रजा और भारत माता के सेवा प्रदान किये, चाहमान वंश ने अरब, हूण और अस्सीरिया के अस्सूरों को धूल चटाई थी।

वीसलदेव चाहमान और अरबो के बीच कुल ८ से १० युद्ध हुए। पर दुर्भाग्यवश तीन युद्ध का वर्णन मिला बहोत खोज के बाद असल में वामपंथियों ने वीसलदेव को केवल एक संगीतकार बना कर पेश किया जो की पूरी तरह गलत हैं। 

वीसलदेव चाहमान अति पराक्रमी और प्रतापी राजा थे तुर्क, बेबीलोनिया, मिस्र, फातिमद साम्राज्य जिसमे काइरो, और मिस्र, तुर्क इत्यादि राज्य आते थे।अरबो के खलीफा को परास्त कर मिस्र तुर्क एवं फातिम साम्राज्य के राज्यो पर केसरिया ध्वज फहरानेवाले वीर थे।

(१.) प्रथम युद्ध:- 
विग्रहराज चौहान जी ने अरबो को हराया था प्रथम युद्ध सन् ११५४ में अबुल क़ासिम के साथ हुआ था यह मिस्र, तुर्क, बेबीलोनिया, सीरिया, काइरो में आते थे, विग्रहराज चतुर्थ के पराक्रम के सामने क़ासिम की सेना धराशायी हो गई थी। 
विग्रहराज अपने प्रेम से और बल से आसपास के सभी राज्यों को जीत कर एकछत्र शासित राज्य की स्थापना कि थी । कासिम की सेना में जाबालिपुर पर आक्रमण किया था तब विग्रहराज जी ने क़ासिम की सेना की कमर तोड़ दि थी। अरब के खलीफा क़ासिम की विशाल जिहादि सेना को बंदी बनाकर जाबालिपुर में जुलुस निकाला था।

(२.) द्वितीय युद्ध:- 
तुर्क के साथ द्वितीय युद्ध सन् ११५७ खुसरोशाह के साथ हुआ था। तुर्क क्रुर शासक थे जिन्होंने तलवार के बल पर एवं पैशाचिक सेना के बल पर सम्पूर्ण उज़्बेकिस्तान, मंगोलिया, कजाखस्तान को रौंध कर इस्लाम में तब्दील कर दिया था आधे से ज़्यादा मध्य एशिया के अधिकतर भू-भाग इस्लाम के क्रूरता का शिकार बन गए थे। 

नददुल और दिल्ली को रौंधने का प्रयास खुसरो शाह की मृत्यु की वजह बन गया, विग्रहराज चतुर्थ की सेना २०,००० से अधिक थी हर हर महादेव के शंखनाद से धर्मयोद्धाओं में अलग सी ऊर्जा का संचय हुआ और भिड़त हुई लाखों मलेच्छों तथा तुर्क सेना नायक अहमद संजार की टुकड़ी सेना नायक अहनेद संजार के साथ खत्म हो गई, और फिर खुसरोशाह की विग्रहराज के सेना नायक अरिवलसिन्ह तंवर द्वारा मृत्यु होने के पश्चात तुर्क की जिहादी सेना की हार हुई और वैदिक ध्वजा तुर्की तक फहराई चाहमान (चौहान) काल में अखंड जम्बूद्वीप पर मलेच्छो के कुल ६४ से अधिक आक्रमण हुये थे जिसमे से केवल दो या तीन आक्रमण का ही उल्लेख मिलता हैं।

(३.) तृतीय युद्ध:- 
 तृतीय युद्ध सन ११५५ में अतसिज़ ने किया था जो की ख्वारेज़्म के द्वितीय शाह थे सेल्जुक साम्राज्य के सुल्तान थे विग्रहराज चतुर्थ के साथ समरकन्द में युद्ध हुआ था।

समरकन्द ( समारा + खांडा ) यह एक संस्कृत नाम हैं जिसका मतलब होता हैं युद्ध क्षेत्र (Region of War) जो की वर्तमान में उज़्बेकिस्तान का हिस्सा हैं यह उस समय विग्रहराज चतुर्थ (वोसलदेव चौहान) के साम्राज्य का हिस्सा था यहाँ अतसिज़ की सेना को परास्त होकर समरकन्द छौड़ कर भागना पड़ा था।
चाहमान शाकम्बरी विग्रहराज विसलदेव चतुर्थ।

सोमवार, 6 जनवरी 2025

नीमराणा फोर्ट: - 551 साल पहले चट्टानों को काटकर बना 10 मंजिला किला, ऊपर है स्विमिंग पूल

भारत में ऐसे कई किले, उद्यान और जगह हैं जिन्हें विश्व विरासत में जगह मिली है। वहीं, कुछ ऐसे भी हैं जो इस सूची में शामिल होने की क्षमता रखते हैं।

अलवर:- 
यह नजारा है राजस्थान के निमराना फोर्ट पैलेस का। अरावली की पहाडियों पर बने इस किले का निर्माण लगभग 551 साल पहले सन 1464 में हुआ था। नीमराना फोर्ट पैलेस रिजॉर्ट के रूप में इस्तेमाल की जा रही भारत की सबसे पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में से एक है।


कमरे ही नहीं बाथरूम से भी दिखता है बाहर का भव्य नजारा:- 
10 मंजिलें इस विशाल किले को तीन एकड़ में अरावली पहाड़ी और आसपास की चट्टानों को काटकर बनाया गया है। यही कारण है कि इस महल में नीचे से ऊपर जाना किसी पहाड़ी पर चढ़ने का अहसास कराता है।

नीमराना की भीतरी साज-सज्जा में काफी छाप अंग्रेजों के दौर की भी देखी जा सकती है। ज्यादातर कमरों की अपनी बालकनी है जो आसपास की भव्यता का पूरा नजारा प्रदान करती है। यहां तक की इस किले के बाथरूम से भी आपको हरे-भरे नजारे मिल जाएंगे।

इस पैलेस में हैं 50 भव्य कमरे:- 

दस मंजिलों पर कुल 50 कमरे इस रिजॉर्ट में हैं। 1986 में हेरिटेज पैलेस को रिजॉर्ट के रूप में तब्दील कर दिया गया। यहां नजारा महल और दरबार महल में कॉन्फ्रेंस हॉल है। पैलेस में बदले इस किले में कई रेस्तरां बने हैं। इस पैलेस में ओपन स्विमिंग पूल भी बना है। नाश्ते के लिए राजमहल व हवामहल तो खाने के लिए आमखास, पांच महल, अमलतास, अरण्य महल, होली कुंड व महाबुर्ज बने हुए हैं। इस किले की बनावट ऐसी है कि हर कदम पर शाही ठाठ का अहसास होता है।

देव महल से लेकर गोपी महल तक हर कमरे का है अलग नाम:- 

यहां पर बने हर कमरे का अलग नाम है- देव महल से लेकर गोपी महल तक। नीमराना की एक खास बात यह है कि यहां कमरे केवल दिन भर के इस्तेमाल के लिए भी मिल जाते हैं और अगर आप खाली सैर करना चाहते हैं तो मामूली शुल्क देकर दो घंटे के लिए महल की भव्यता का लुत्फ उठा सकते हैं।

पृथ्वीराज चौहान ने बनाई थी अपनी राजधानी:- 

नीमराना ऐतिहासिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। इसे पृथ्वीराज चौहान के वंशजों ने अपनी राजधानी के रूप में चुना था। 1192 में मुहम्मद गोरी के साथ जंग में हार के बाद गोरी के सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया था। इसके बाद चौहान वंश के राजा राजदेव ने नीमराना चुना, लेकिन यहां का निर्माता मियो नामक बहादुर शासक था। चौहानों से जंग में हारने के बाद मियो के अनुरोध पर इसे नीमराना कहा जाने लगा।


Mahabharat Katha: पांडवों के मामा ने युद्ध में क्यों दिया दुर्योधन का साथ? लेकिन एक शर्त कौरवों पर पड़ी भारी! पता है यह कहानी!

महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र में हुए भयंकर युद्ध का वर्णन विस्तार से मिलता है, कौरवों ने पांडवों को हराने के लिए हर प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हुए।

कौरवों की सेना में एक से बढ़कर एक योद्धा और महारथी थे, लेकिन अधर्म का साथ देने के कारण उनको पराजय का सामना करना पड़ा, उस युद्ध में कौरवों की ओर से पांडवों के मामा भी शामिल हुए थे,अब आपको आश्चर्य होगा कि जो पांडवों के सगे मामा थे, वे अपने भांजों के खिलाफ क्यों खड़े हुए? हालांकि उनको दिया दुर्योधन का एक वचन, कौरवों पर ही भारी पड़ गया, आइए जानते हैं पांडवों के मामा की इस कहानी के बारे में।

कौन थे पांडवों के मामा!
महाभारत में यह घटना उस समय की है, जब कौरव और पांडव युद्ध के लिए अपनी सेना का संगठन कर रहे थे, बड़े से बड़े योद्धाओं को अपनी ओर से लड़ने के लिए राजी कर रहे थे, इसी क्रम में दुर्योधन ने पांडवों के सगे मामा यानि मद्र नरेश शल्य के साथ छल किया. शल्य राजा पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के भाई थे, वे नकुल और सहदेव के सगे मामा थे, इस प्रकार से वे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के मामा भी हुए।

दुर्योधन ने मद्र नरेश शल्य से किया छल!
पांडवों और कौरवों में युद्ध की घोषणा हुई थी, उसी दौरान मद्र नरेश शल्य अपने भांजे से मिलने के लिए सेना के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे, इस बात की भनक दुर्योधन को लग गई, उसने बड़ी ही चालाकी से उन सभी स्थानों पर मद्र नरेश शल्य और उनकी सेना के रहने, खाने और पीने का पूरा बंदोबस्त करा दिया था, जहां जहां पर उनकी सेना ने डेरा डाला था।

रास्ते भर मद्र नरेश शल्य और उनकी सेना को सही प्रकार से भोजन और पानी की व्यवस्था प्राप्त हुई, इससे राजा शल्य बहुत खुश हुए, हस्तिनापुर के पास भी उनके और सेना के लिए अच्छा प्रबंध किया गया था, यह देखकर राजा शल्य ने पूछा कि युधिष्ठिर के किन कर्मचारियों और सहयोगियों ने उनके लिए उत्तम व्यवस्था की है? वे उनसे मिलना चाहते हैं और कुछ पुरस्कार देना चाहते हैं।

दुर्योधन वहां पर पहले से ही छिपा हुआ था, यह बात सुनते ही वह राजा शल्य के सामने आकर खड़ा हो गया, उसने कहा कि मामा जी, यह सारी व्यवस्था आपके लिए मैंने ही की है, ताकि आपको और आपकी सेना को कोई परेशानी न हो, इतना सुनकर राजा शल्य के मन में दुर्योधन के लिए प्रेम उमड़ पड़ा, उन्होंने दुर्योधन से कहा कि आज तुम जो मांगोगे, वो मिलेगा।

अपने वचन में फंसे राजा शल्य!
चालाक दुर्योधन इस मौके के ही ताक में था, उसने राजा शल्य से कहा कि वह चाहता है कि आप युद्ध में कौरवों की सेना का साथ दें और सेना का संचालन करें, राजा शल्य ने दुर्योधन को वचन दिया था, इसलिए वे अपने वचन से मुकर नहीं सकते थे, राजा शल्य ने कौरव सेना के साथ रहने के लिए हां कह दिया।

राजा शल्य ने भी दुर्योधन के सामने रखी एक शर्त!
राजा शल्य ने दुर्योधन की बात मान ली, लेकिन उन्होंने उससे एक वचन भी लिया, उन्होंने कहा कि वे युद्ध में कौरवों के साथ रहेंगे, जो आदेश होगा, उसका पालन करेंगे, लेकिन उनकी वाणी पर उनका ही अधिकार होगा, दुर्योधन ने सोचा कि इससे उसे कोई हानि नहीं है, इसलिए उसने भी राजा शल्य की शर्त मान ली।

राजा शैल्य की शर्त पड़ी भारी!
पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध शुरू हुआ तो राजा शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया, वे कर्ण का रथ चलाते थे, लेकिन शर्त के अनुसार, वे पूरे युद्ध में पांडवों की वीरता का ही बखान करते थे, वे कौरवों को हमेशा कमजोर बताते और उनको हतोत्साहित करते थे, युद्ध समाप्ति के बाद भी शाम के समय कौरवों को उनकी कमजोरियों को ही बताते, कर्ण को अर्जुन की वीरता का बखान करके उसे हतोत्साहित करने का काम करते थे, वे कौरवों की ओर से होते हुए भी अपनी वाणी से पांडवों की मदद करते थे।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2024

क्षत्रिय सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय


नाम:- सम्राट पृथ्वीराज चौहान- तृतीय राज्यकाल 1178 से 1192 ईस्वी,
         (इन सम्राट पृथ्वीराज तृतीय से पहले इसी चौहान राजघराने में राजा पृथ्वीराज-प्रथम राज्यकाल 1090 से 1110 ईस्वी तक तथा राजा पृथ्वी(भट्ट) राज-द्वितीय राज्यकाल 1164 से 1169 ईस्वी तक ये दो राजा और भी पृथ्वीराज नाम के हुए।)


जन्म:- सम्राट पृथ्वीराज तृतीय का जन्म ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी संवत 1223 (1166 ई.) को हुआ था। वे 12 साल की आयु में 1178 ईस्वी में राजगद्दी पर विराजमान हो गए थे।

 एक ऐसी पोस्ट भी सोशल मीडिया पर देखने में आती है जिसमें जन्म का वर्ष 1149 ई. लिखा है। वह जन्म वर्ष तो पृथ्वीराज द्वितीय का है, तृतीय का नहीं।

जन्मभूमि:- अन्हिल पाटन-गुजरात (अपने पिता सोमेश्वर के नाना क्षत्रिय सम्राट जय सिंह सिद्धराज चालुक्य-सोलंकी की राजधानी में पृथ्वीराज तृतीय का जन्म हुआ।
     पहले अन्हिल पाटन का नाम केवल पाटन ही था। किन्तु 11वीं शताब्दी के शुरू में नाडोल के राजा अन्हिल चौहान ने पाटन को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। तब इसके साथ अपना नाम अन्हिल जोड़कर उन्होंने अन्हिल-पाटन नाम रख दिया था।)

       इससे पहले कि क्षत्रिय सम्राट पृथ्वीराज तृतीय के संबंध में अन्य जानकारियां दी जायें पहले उनके चौहान राजवंश की उत्पत्ति पर संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है जिसके लिये उनका मुख्य वंश- सूर्यवंश, उपवंश- मालववंश, शाखावंश-राजर्षि वंश और प्रशाखा वंश-चौहान वंश क्रम से नीचे दिए जाते हैं :-


मुख्य वंश:- सूर्यवंश:- मनु के पूर्वज विवस्वान नामक एक बड़े ही धर्मात्मा और पराक्रमी नरेश हुए। उनका तेजयुक्त बड़ा ही जाज्वल्यमान मुख मंडल था। उनका अपरनाम सूर्य था। उनके इस सूर्य अपरनाम से ही उनके वंशज सूर्यवंशी कहलाये। 

सूर्यवंश में आगे चलकर इक्ष्वाकु, काकुत्स्थ, रघु, हरिश्चंद्र जैसे महान सम्राट हुए। इक्ष्वाकु बड़े ही पराक्रमी और शालीन शासक थे। इसलिए उनके नाम पर सूर्य वंश को इक्ष्वाकु वंश भी कहा जाने लगा। 

रघु नाम के महान सम्राट ने तो अपने अद्भुत शौर्य और पराक्रम से इस वंश को चार चांद लगाए। उनके नाम से इस वंश को रघुवंश भी कहा जाने लगा। जगत् विख्यात भगवान श्री राम ने भी इसी वंश में जन्म लेकर इसे और अधिक यशस्वी और जनप्रिय बना दिया।

उपवंश:- मालववंश:- श्री राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण के अंगद और चंद्रकेतु दो पुत्र थे। चंद्रकेतु एक महान धनुर्धर होने के साथ-साथ प्रसिद्ध मल्ल (पहलवान) भी थे। उनको महाराज मल्ल नाम से उच्चारित किया जाता था। 

कारापथ देश में उनके शासन करने के लिए उनके नाम से चंद्रकांता नगरी बसाई गई। समयांतर पर उनके मल्ल नाम से उनके राज्य को मल्ल राज्य कहा जाने लगा। किसी समय यह मल्ल राज्य राम के पुत्र कुश के वंशजों के अधिकार में आ गया। 

जब वे वीरयोद्धा मल्ल राज्य से इधर-उधर फैले तो मल्ल देश से निकलने के कारण वे मालव कहे गए। मल्ल देश के योद्धा मालव। कहीं-कहीं उन्हें मल्ल और मल्लोई भी कहा गया।

    इन मालव वीरों ने पंजाब क्षेत्र के मालवा तथा मध्य प्रदेश क्षेत्र के मालवा बड़े-बड़े दो मालवा नामक राज्यों पर हजारों वर्षों तक शासन किया। उनके वंश मालव के नाम पर ही ये दोनों स्थान मालवा कहे गए।

      राजा पोरस से हार खाने के बाद 326 ईस्वी पूर्व में जब सिकंदर अपने यूनान राज्य को वापस लौट रहा था तो तब वह अपनी सेना के साथ पंजाब के पराक्रमी मालवों के क्षेत्र में से गुजर रहा था। तब मालव वीरों ने उसकी सेना को सावधान करके उस पर इतना जबरदस्त आक्रमण किया कि उन्होंने यूनानी सैनिकों की लाशों के ढेर लगा दिए। 

उन मालव वंशी क्षत्रियों ने सिकंदर पर भी तीरों से ऐसे वार किये कि सिकंदर के दो अंग रक्षक योद्धाओं ने अपने प्राण देकर उसकी जान बचाई। फिर भी एक मालव वीर ने सपत्र बाण मारकर सिकंदर के कवच को भेद कर उसे बुरी तरह घायल कर दिया। इसी मार से घायल होकर वह कभी ठीक नहीं हुआ और बीमार रहते हुए संसार से चल बसा।

शाखा वंश:- राजर्षि वंश एक मालव वंशी राजा ने संन्यास लेकर ईश्वर की उपासना की और राजर्षि पद को प्राप्त किया। जिससे उस मालववंशी राजा के अगले पारिवारिक वंशज क्षत्रिय लोग मालव वंश के साथ-साथ राजर्षि वंशी भी कहे जाने लगे। मालव वंश में से विभिन्न शाखाएं निकली जिनमें से अब तक सात शाखाएं इतिहासकार पहचान सके हैं।

प्रशाखा वंश:- चौहान वंश:- उपरोक्त राजर्षि वंशी शाखा में पांचवी सदी के उत्तरार्ध में लगभग 480 
 ई. में "नगर" नामक राज्य के राजा विरोचन राजर्षि वंशी हुए। 'नगर' राज्य वर्तमान टोंक जिला राजस्थान के क्षेत्र में पड़ता था जो आज खंडहर के रूप में विद्यमान है। इस "नगर" राज्य का प्राचीन नाम मालवनगर था।

      मालव वंश की ही एक दूसरी शाखा औलिकर वंश के मंदसौर-मालवा वर्तमान मध्य प्रदेश के राजा प्रकाश धर्मा के साथ अपनी सेना संयुक्त करके राजा विरोचन राजर्षि ने 515 ईस्वी में कश्मीर से आए हूण आक्रांता तोरमाण की सेना को मार भगा कर युद्ध जीत लिया था। परंतु इस युद्ध में राजा विरोचन बलिदान हो गए थे। 
 
     इन राजा विरोचन के बलिदान के बाद इनके दो पुत्रों में बड़े पुत्र चाहमान राजा बने और छोटे पुत्र धनंजय राज्य के प्रधान सेनापति बने।

         राजा चाहमान ने परंपरा से चलती आ रही राजधानी को "नगर" शहर से हटाकर अपने पूर्वज आर्यों की धार्मिक नगरी "पुष्कर" में स्थापित कर दी। वहां के क्षेत्र में जो हूण घुस आए थे उनको मार मार कर भगा दिया और 515 से 550 ईस्वी तक 35 वर्ष तक वहां निष्कंटक रूप से धर्मपूर्वक राज्य किया।

       चाहमान बड़े ही धर्मात्मा, प्रजा वत्सल, शौर्य पराक्रमी और शूरवीर सम्राट थे। इसीलिए पृथ्वीराज विजय महाकाव्य ग्रंथ के सर्ग-2 श्लोक 44 में पृथ्वीराज के दरबारी कवि जयानक ने लिखा है कि सूर्यवंश कृतयुग में सम्राट इक्ष्वाकु, काकुत्स्थ और रघु को पाकर तीन प्रवर वाला था अब कलयुग में चाहमान को पाकर सूर्यवंश चार प्रवर वाला वंश बन गया है। 

      ऐसे महाप्रतापी धर्म परायण और मुनि महात्माओं का सम्मान करने वाले सम्राट चाहमान के पारिवारिक आगामी वंशज उनके चाहमान नाम से चाहमान और चौहान वंशी कहे जाने लगे। 

      चाहमान के देहावसान के बाद उनके पुत्र वासुदेव ने 551 ईस्वी में राज्यरोहण किया और सामरिक लाभ की दृष्टि से कुछ सालों बाद राजधानी को पुष्कर से हटाकर सांभर में स्थानांतरित कर दिया। राजधानी ‌सांभर से लगातार लगभग 550 सालों तक इस राजघराने के चौहान वंशज राजाओं का राज चलता रहा। 

ञ इस वंश के महान राजा अजय राज उपनाम अजयपाल देव जब सांभर के राजा बने तो उन्होंने अपने राज्यकाल 1110 से 1133 ईस्वी के बीच 1123 ईस्वी में सुरक्षा की दृष्टि से राजधानी को सांभर से हटाकर अजमेर में स्थापित कर दिया। अब राजकाज अजमेर से संचालित होने लगा।

 आगे चलकर अजयराज के पौत्र और महाराजा अर्णोराज के पुत्र विग्रहराज चौहान चतुर्थ राजगद्दी पर आसीन हुए तो उन्होंने अपने पराक्रम से दिल्ली सहित हिमालय से लेकर विंध्याचल तक सारे आर्यावर्त पर अपना आधिपत्य जमां कर इस आर्य राष्ट्र को मजबूत बना दिया था।

      इस आधिपत्य के साथ ही उन्होंने देश में तुर्क मुस्लिमों के गुप्त अड्डों को ढूंढ-ढूंढ कर उन सब म्लेछों को मौत के घाट उतारा। आक्रमणकारी खुसरो शाह के कई हजार मुस्लिम सैनिकों की लाशें बिछाकर उन्हें हराया। 

 तब उन्होंने अशोक स्तंभ पर शिलालेख लिखवाया कि - मैंने इस आर्यावर्त देश से तमाम म्लेेच्छों (तुर्क-मुस्लिमों) का समूल नाश करके वास्तव में ही इसे "आर्यों का देश" बना दिया है। अशोक स्तंभ आज भी दिल्ली के अंदर फिरोजशाह कोटला परिसर में स्थापित है। उस पर संस्कृत में सम्राट विग्रहराज चौहान चतुर्थ का यह शिलालेख देखा जा सकता है।


 उपर्युक्त पारंपारिक प्रमाणों से सिद्ध है कि चौहान राजवंश सूर्यवंश है। लेकिन आजकल बड़े पैमाने पर इसे अग्नि वंश कहना भी प्रचलित है। चौहान वंश को अग्नि वंश भी क्यों कहा जाता है और इस वंश का गोत्र वत्स गोत्र क्यों है‌ इस पर विचार करते हैं:-

चौहान वंश का कोई पूर्वज राजा ऋषि वत्स की विद्यापीठ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त होने से वत्स गोत्री कहलाया। अथवा वत्स ऋषि के वंशज किसी पुरोहित ने चौहान वंश के चाहमान आदि किसी पूर्वज राजा के राजतिलक के धार्मिक अनुष्ठान को संपूर्ण किया जिससे चौहान वंश का ऋषि गोत्र "वत्स" हुआ।

      वत्स ऋषि कण्व ऋषि के वंश में उत्पन्न हुए थे, ऐसा "गोत्र प्रवर्तक ऋषि संक्षिप्त परिचय" नामक पुस्तक राजस्थानी ग्रंथागार, सोजती गेट जोधपुर, से छपी के पृष्ठ 163 पर लिखा है। वहां यह भी वर्णन है कि वत्स ऋषि चारों वेदों (ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद और अथर्ववेद) के भिन्न-भिन्न कुछ मंत्रों के मंत्रदृष्टा ऋषि हैं। 

वे ऋग्वेद के दसवें मंडल के 187वें सूक्त "अग्नि सूक्त" के मंत्रों के दृष्टा ऋषि होने से "अग्नि" विशेषण से अभिहित हुए। उस पुस्तक में सूक्त गलती से 182 लिखा है मैंने ऋग्वेद ग्रंथ में ढूंढ कर सूक्त संख्या 187 ठीक लिखी। 

(तो मेरा अनुमान है कि वत्स ऋषि अग्नि सूक्त मंत्र दृष्टा होने से उनका वत्स गोत्र धारण किए हुए चौहान वंश को "अग्नि वंशी" भी कह दिया जाता हो, किंतु पृथ्वीराज रासो में जो क्षत्रियों के चार वंशों प्रतिहार, चौहान, परमार और चालुक्य को अग्नि वंशी लिखा गया है, वह कथा काल्पनिक होने से मान्य नहीं है। इन चार वंशों में पहले तीन वंश सूर्य वंशी हैं और चौथा चालुक्य वंश चंद्रवंशी क्षत्रिय वंश है ) 

       चौहान राजवंश के अनेकों शिलालेखों में एक 1169 ईस्वी में उत्कीर्ण किये गये सुप्रसिद्ध और बड़े-बड़े 30 बिंदुओं के वृहद बिजौलिया शिलालेख में चौहान शासकों की संक्षिप्त कीर्ति के साथ-साथ उनकी राज वंशावली भी दी हुई है। इस शिलालेख के बिंदु 6 में चौहान वंश का ऋषि गोत्र "वत्स" लिखा हुआ है।

ठाकुर इंद्र देव नारायण सिंह निकुंभ द्वारा लिखित "क्षत्रिय वंश भास्कर" ग्रंथ से प्राप्त चौहान वंश संबंधी कुछ सूचनाएं इस प्रकार हैं:-

चौहान वंश के प्रवर ऋषि पांच है, और्व्य, च्यवन, भार्गव, जामदग्न्,अप्तुवान।

वेद सामवेद:- यह वेद परमात्मा की भक्ति गुणगान संबंधी मंत्रों से भरपूर है। लगता है इसी कारण चौहान वंश के डीएनए में वीरता के साथ-साथ ईश्वर भक्ति भी बहुत शुमार है। चौहान वंश के उच्च शासकों के अतिरिक्त इस वंश में गोगादेव, हर्षदेव,जीण माता, संत पीपाजी कितनी ही उच्च कोटि की अध्यात्मिक आत्माएं हुई हैं। आज भी इस वंश के बहुत से क्षत्रिय क्षत्रियत्व के दमखम के साथ-साथ धर्म अध्यात्म और भावुक वृत्ति के पाए जाते हैं।

शाखा:- कौथूमी
सूत्र:- गोभिल गृह सूत्र
कुलगुरु:- वशिष्ठ
झंडा:- विष्णु वाहन गरुड़ चित्रांकित
इष्ट:- अचलेश्वर महादेव
इष्ट देवी:- मां शाकुंभरी
कुलदेवी:- मां आशापुरी
मुख्य राजगद्दी:- सांभर फिर अजमेर बाद में‌ दिल्ली भी। 
-------------------------------------------------------------------

उप राज गद्दियां:- 1947 ईस्वी भारत संघ में मिलाते वक्त लगभग 50 राजा चौहान वंश और इसकी शाखाओं के ही थे। 450 राजागण अन्य क्षत्रिय वंशों और शाखाओं के थे।
     इस प्रकार वंश, गोत्र इत्यादि का वर्णन करने के पश्चात पुनः सम्राट पृथ्वीराज से जुड़ी जानकारियों की तरफ लौटते हैं।

सम्राट पृथ्वीराज के पिताजी:- उनके पिताजी महाराजा सोमेश्वर थे।( वे पहले अपने मामा सम्राट कुमारपाल चालुक्य के राज्य में मांडलिक राजा थे। फिर 1169 से 1178 ईस्वी तक अपने पैतृक राज्य अजमेर के शासक रहे।)

माताजी:- त्रिपुरी-जबलपुर राज्य के कल्चूरि वंशी क्षत्रिय राजा तेजल देव उपनाम अचलराज की सुपुत्री कर्पूरदेवी।

ताऊ जी:- सम्राट विग्रहराज चौहान-चतुर्थ (दिल्ली सहित सारे आर्यावर्त के विजेता सम्राट। राज्यकाल 1151 से 1164 ईस्वी)
 
ताई जी:- दिल्ली के क्षत्रिय राजा मदनपाल तोमर (तंवर) की सुपुत्री राजकुमारी देसल देवी। 
  
(अब यहां पाठक गण ध्यान दें। इतिहास की झूठी जानकारी रखने वाले भाटों ने पृथ्वीराज के जाने के 400 साल बाद सोलहवीं सदी में पृथ्वीराज रासो में यह झूठ घुसेड़ दी थी कि पृथ्वीराज ने धोखे से अपने नाना अनंगपाल द्वितीय से दिल्ली का राज छीन लिया था। अब वैज्ञानिक तरीके से इतिहास लिखा जा रहा है उसमें अनंगपाल द्वितीय का शासनकाल 1051 से 1081 ईस्वी मिला है। इस प्रकार वे पृथ्वीराज के जन्म से लगभग 80 वर्ष पहले स्वर्ग सिधार चुके थे। इतने लंबे समय के अंतराल के बाद भी क्या कोई दौहित्र जन्म लेता है? सच्चाई तो यह है कि पृथ्वीराज के ताऊ सम्राट विग्रहराज ने 1151 ईस्वी के आसपास महाराज अनंगपाल द्वितीय के पौत्र राजा मदन पाल तंवर से दिल्ली जीती थी। उन्हीं की बेटी राजकुमारी देसल देवी सम्राट विग्रहराज से ब्याही थी। इस प्रकार पृथ्वीराज का राजा अनंगपाल से तो कोई खून का संबंध ही नहीं था। उनके नाना त्रिपुरी जबलपुर के राजा तेजल उर्फ अचलराज थे, न कि राजा अनंगपाल।)

दादा जी:- पृथ्वीराज तृतीय के दादा सम्राट अर्णोराज, राज्यकाल 1133 से 1150 ईस्वी। सवा लाख नगरों और गांवों के सांभर नामक विशाल साम्राज्य के शासक, इसे सपादलक्ष साम्राज्य भी कहते थे।अर्णोराज अजमेर में अपने लघु नाम "आना" पर आना सागर नामक विशाल झील के निर्माता भी हैं। 

दादी जी:- अन्हिल पाटन-गुजरात के चक्रवर्ती क्षत्रिय सम्राट जयसिंह सिद्धराज चालुक्य-सोलंकी की सुपुत्री राजकुमारी कांचन देवी, अर्णोराज की महारानी पृथ्वीराज तृतीय की दादी थीं।

परदादा-परदादी:- पृथ्वीराज तृतीय के परदादा महाराजा अजयराज ने राजधानी को सांभर से अजमेर में 1123 में स्थानांतरित किया। राज्यकाल 1110 से 1133 ईस्वी। इनकी महारानी का नाम सोमलेखा था। वे सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय की परदादी लगती थी।


पृथ्वीराज की रानियां:-

 1- चंद्रावती:- आर्यावर्त उत्तरी सीमा के रक्षक-सेनापति पुंडीर वंशी क्षत्रिय राजा चंद्रराज (उपनाम चांद सिंह) की राजकुमारी।

2- इच्छिनी देवी:- भीनमाल राज्य के परमार (पंवार) वंशी क्षत्रिय राजा जैतसिंह की पुत्री या पौत्री राजकुमारी इच्छिनी देवी। यह रानी जबरदस्त योद्धा भी थी। अजमेर की तलहटी में रानी ने घोड़े पर सवार होकर मौहम्मद गोरी के कईं तुर्क सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद ही अपना बलिदान दिया था।

3- संयोगिता:- कन्नौज नरेश गाहढ़वाल वंशी क्षत्रिय राजा जयचंद्र की राजकुमारी। कई बार व्हाट्सएप पोस्ट में रानी संयोगिता के बारे में यह बिल्कुल गलत सूचना जारी की जाती है कि उन्हें मोहम्मद गौरी के सैनिकों में फेंक दिया गया था । यह बात इतिहास में कहीं भी नहीं है। शरारती मन्शा के लोग समाज में द्रोह फैलाने के लिए इस प्रकार की घटिया शरारतें रचते हैं।

शासन:- आर्यावर्त(भारत) इसमें सम्राट विग्रहराज चौहान के बलिदान के पश्चात कन्नौज का राज्य क्षेत्र चौहान साम्राज्य से अलग हो गया था। सम्राट पृथ्वीराज तृतीय के समय में कन्नौज के शासक राजा जयचंद थे।

राजधानी:- अजमेर-दिल्ली 

शासनकाल:- 1178 से 1192 ईस्वी 

बलिदान:- 12 वर्ष की किशोर आयु में पृथ्वीराज ने राजगद्दी संभाली थी। आरंभिक 2 साल उनकी माता कर्पूर देवी ने सम्राट की संरक्षिका बनकर अपनी देखरेख में शासन चलाने में उनका सहयोग दिया। पृथ्वीराज ने अपने जीवन में अनेक युद्ध लड़े। 

उनके ताऊ सम्राट विग्रहराज के बलिदान के पश्चात जो राजा अजमेर साम्राज्य से स्वतंत्र हो गए थे उनको फिर से केंद्रीय सत्ता को मजबूत करने के लिए पृथ्वीराज ने अपने अधीन किया। 26 वर्ष की भरपूर युवावस्था में 1192 ईस्वी तराइन के दूसरे युद्ध में मोहम्मद गोरी के द्वारा रात को सोती हुई सेना पर धोखे से आक्रमण में सम्राट की हार हुई। 

उन को पकड़ लिया गया और उनसे कई बार जान बचाने की माफी मांगने वाले कृतघ्न मोहम्मद गौरी द्वारा उनकी आंखें निकाल दी गई।

छोटा भाई:- राजा हरिराज जो सम्राट पृथ्वीराज के बाद सिकुड़ गए अजमेर राज्य के 1192 से 1194 ईस्वी तक राजा रहे।

सम्राट पृथ्वीराज का पुत्र:- पुंडीर वंशी रानी चंद्रावती से उत्पन्न गोबिंद राज उपनाम रैणसी (रैण सिंह) जो बाद में रणथंभौर राज्य के राजा बने। उनकी चौथी पीढ़ी में (यानि सम्राट पृथ्वीराज की पांचवी पीढ़ी में) जन्मे महान पराक्रमी वीर शरणागत वत्सल (हट्ठी) हमीर देव चौहान 1282 से 1301 ईस्वी तक रणथंभौर के शासक रहे।

 इन्होंने अपने दिग्विजय अभियानों में दस राजाओं को अपने अधीन कर लिया था। पहले दो युद्धों में इस महान राजा ने दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को बुरी तरह हराया था। एक दिन उसे भी हरा कर यह भारत से भगा देने की क्षमता रखते थे।

 किंतु1301 ईस्वी में हुए तीसरे युद्ध में अलाउद्दीन ने इनके साथ संधि का बहाना करके धोखे से विजय पा ली, तब हम्मीर देव की महारानी हासिल देवी और पुत्री देवल देवी के नेतृत्व में हजारों क्षत्राणी वीरांगनाओं ने हिंदू नारी पवित्रता को कायम रखने के लिए जौहर की धधकती ज्वालाओं में अपने जीवन को स्वाहा करके बलिदान दिये।

पृथ्वीराज के युद्ध:- उनके ताऊ सम्राट विग्रहराज के देहावसान के पश्चात उनके पुत्र अपरगांगेय, भतीजे पृथ्वी भट्ट (राज)- द्वितीय तथा भाई सोमेश्वर के शासनकाल में केंद्रीय सत्ता से जो-जो राजा स्वतंत्र हो गए थे, उन्हें फिर से सम्राट पृथ्वीराज ने अपने बाहुबल से अपने अधीन करने का अभियान चलाया। 

सबसे पहले उन्होंने गुडपुर में नागार्जुन को हराया। फिर भादानकों को धूल चटाई। पहले जेजाकभुक्ति में और फिर कालिंजर में राजा परमर्दिदेव चंदेल को हराया। उनके आल्हा ऊदल जैसे बाहुबली सेनापतियों को भी शहीद किया। कन्नौज को सहायता देने वाली चंदेली सेना को हराया। 

उससे भरतपुर, अलवर, रेवाड़ी को जीता। संयोगिता की इच्छा अनुसार उनका हरण करने के बाद दोनों सेनाओं के बीच हुए युद्ध में जयचंद की सेना को हराया। गुजरात के चालुक्य राजाओं से युद्ध करके उनके जगदेव परिहार और धारावर्ष नामक सेनापतियों को हराया। 

जम्मू कश्मीर के राजा विजय राज पर हमला करके वहां से बहुत धन प्राप्त किया। मोहम्मद गोरी को सरहिंद की सरहद पर युद्ध में उसे कई बार हराया। उसे सतलुज नदी के मैदान में 1182 ई. में बुरी तरह हराया और पकड़कर उससे वार्षिक लगा लेना तय किया तथा माफी मांगने पर छोड़ा। आगे फिर 1191 ईस्वी में तरावड़ी के मैदान में बुरी तरह हराया, दंड वसूल किया और माफी मांगने पर उसे मुक्त किया।

     सम्राट ने उससे तीन बड़े-बड़े युद्ध किये। दो में उसे हराकर उससे दंड वसूल किया, लेकिन उस द्वारा क्षमा मांगने पर उसे छोड़ा जाता रहा।

        तीसरे 1192 ईस्वी के बड़े युद्ध के शुरू होने से पहले दिन गोरी ने सम्राट के पास यह संदेश भेजा कि सम्राट इस बार मुझ पर आक्रमण न करें, मैं कल प्रातः ही अपनी सेनाओं को लेकर अपने वतन वापस चला जाऊंगा।

 किंतु उस दुष्ट नैतिकहीन मोहम्मद गोरी ने विश्वासघात करते हुए ऐसी कुटिल चाल चली कि रात में सम्राट की सोती हुई सेना पर आक्रमण करके उस दुष्ट ने युद्ध जीत लिया। सम्राट को पकड़ लिया गया। 


  मानवता के द्रोही क्रूर गोरी ने सम्राट से कई बार मांगे गए अपने माफीनामों को भी अनदेखा करते हुए उस महान सम्राट की आंखें निकलवा कर इस्लाम की हैवानियत का परिचय दिया।

        इतिहास में उल्लेख मिलता है कि पृथ्वीराज तलवार के एक ही वार से हाथी की गर्दन काटने की क्षमता रखते थे। हमने रामायण में पढ़ा है कि श्रीराम अजान बाहू थे। 

अजान बाहू का अर्थ होता है कि जिस योद्धा की भुजाएं इतनी लंबी हो कि खड़े होकर उसके हाथ घुटनों तक पहुंच जाएं। पृथ्वीराज विजय महाकाव्य ग्रंथ में लिखा है कि पृथ्वीराज अजान बाहू सम्राट थे। 

लगता है श्रीराम की तरह पृथ्वीराज के अत्यंत पराक्रमी सम्राट होने तथा अजान बाहू होने के आधार पर ही कवि जयानक ने उनको राम का अवतार बताया है।जयानक पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबारी कवि थे।

       यह बात भी बड़ी प्रचलित है कि कौशल नरेश अयोध्यापति महाराज दशरथ के पश्चात इस आर्यावर्त धरा पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय ही ऐसे वीर थे जो शब्दभेदी बाण चलाने में पारंगत पाये जाते हैं। 

 तभी ऐसा इतिहास मिलता है कि चंद्रवरदाई के दोहे का अनुमान करके, अंधे हो चुके सम्राट ने तीर का सटीक निशाना मारकर गोरी के बड़े भाई गयासुद्दीन गोरी जो कि गोरखपुर देश का राजा था यानि सुल्तान था, को मौत के घाट उतार दिया।

चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूके चौहान।।

तो बाणवेध परीक्षा में सुल्तान ग्यासुद्दीन गोरी मारा गया था। उसके मरने के बाद ही मौहम्मद गोरी गद्दीनशीन हुआ यानी अपने देश का सुल्तान बना । माना जाता है कि उसे भी 1206 ई0 में गक्खड/खोखर वंश के राजपूतों ने मार डाला था।

नोट-1:- टेलीविजन एपिक चैनल पर इतिहास के विभिन्न शीर्षकों के सीरियल दिखाए जाते हैं। उनमें एक शीर्षक जासूसों का भी है। उसके एक एपिसोड में चंद्रवरदाई को सम्राट पृथ्वीराज के जासूस के रूप में दर्शाते हुए गोरी के कैदखाने में उनसे मिलवाते दिखाया गया है। 

तब दोनों में गुप्त बात होकर गोरी को चंद्रवरदाई द्वारा पृथ्वीराज के शब्दभेदी बाण की परीक्षा लेने के लिए उकसाया जाता है। परीक्षा की बात स्वीकार होने पर सम्राट को जेल से बाहर निकालकर धनुष थमाया जाता है। चंद्रवरदाई द्वारा उपर्युक्त दोहे का उच्चारण करते ही सम्राट का तीर गोरी की छाती को भेद देता है।

नोट-2:- आजकल शरारती मनोवृति के किसी व्यक्ति ने व्हाट्सएप और फेसबुक पर सम्राट पृथ्वीराज की रानी संयोगिता के संबंध में बिल्कुल झूठी कहानी चला रखी है कि पृथ्वीराज की हार के बाद रानी संयोगिता को निर्वस्त्र करके मोहम्मद गोरी के सैनिकों के बीच में फेंक दिया गया था। 

ऐसा उल्लेख तत्कालीन मुस्लिम ग्रंथों में भी नहीं है। ऐसे उल्लू के पट्ठे लोग अपनी पूर्वज परंपरा को बदनाम करने में भी बाज नहीं आते या फिर हिंदुओं को चिढ़ाने के लिए मुसलमानों ने व्हाट्सएप पर यह शरारत रची हो। यदि आपके सामने ऐसी कोई पोस्ट आए तो उसे डिलीट मारें और फॉरवर्ड करने वाले को सावधान करें।

नोट-3:- सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दूसरे दरबारी कवि 'चन्द्र वरदाई' ने "पृथ्वीराज रासो" नाम से इस सम्राट का इतिहास रचा था। वह लगभग 400 साल तक श्रुति रूप में यानि एक से दूसरी पीढ़ी में जबानी तौर पर याद करके सुनने-सुनाने की परम्परा में प्रचलित था। 

सभी राजा इसे अपने दरबारों में बड़े चाव से सुनकर गौरवान्वित होते थे। सत्रहवीं सदी में इसे लिखित रूप दिया गया। तब कईं राज्यों ने इसमें अपनी बड़ाई का मनमाना इतिहास भरवा दिया। 

अब जब तिथियों के आधार पर इतिहास को वैज्ञानिक रूप से शोध किया गया तो मिलावटी इतिहास की घटनायें बेमेल निकली, जिससे इतिहासकारों ने इस ग्रंथ "पृथ्वीराज रासो" को इतिहास की कोटि से ही बाहर कर दिया।

(इस संपूर्ण आलेख में बहुत सा भाग स्वर्ण पदक विभूषित इतिहासकार डॉ विंध्यराज चौहान द्वारा शोध किए गए चौहान इतिहास के अंतर्गत "सूर्यवंश महाप्रकाश" ग्रंथ के आधार पर दिया गया है।)

 (लेखक बलबीर सिंह चौहान घरौंडा करनाल - हरियाणा -93546-02556)

बोलो भारतेश्वर सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय की जय
  
यह लेख  Facebook से लिया गया है।

           🌹जय आर्यावर्त🙏🏻जय भारत🌹