रविवार, 3 अक्टूबर 2021

अल्लाउद्धिन खिलजी की बेटी दिल्ली की फिरोजा बाई के प्यार और राजपूत वंश गौरव की युद्ध गाथा।


फिरोजा बाई जो दिल्ली की मुस्लिम राजकुमारी थी वह अल्लाउद्धिन खिलजी की लाडली और जिद्दी बेटी थी
वो जालौर के चौहान राजकुमार की वीरगति बाद सती हुई थी वह उस राजपूत राजकुमार से बेइंतहा मुहब्बत करती थी फीरोजा बाई बेहद सुंदर भी थी पर वो मुहब्बत इकतरफा थी क्योंकि उस राजपूत राजकुमार ने उसके विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया और इसी कारण वो युद्ध में वीरगति को प्राप्त होता है। 

हम फिर भी फीरोजा बाई के उस राजपूत राजकुमार के प्रति ऐसे एकतरफा प्यार समर्पण का सम्मान करते हैं।

क्योंकि वह दुनिया की पहली ऐसी मुस्लिम राजकुमारी थी जो एक राजपूत राजकुमार की मृत्यु बाद श्री यमुना जी में उस राजकुमार के कटे सिर साथ जल समाधि ले सती हुई जब उसके पिता अल्लाउद्धिन खिलजी ने अपनी बेटी समक्ष थाली मे सजा वीरमदेव का कटा सिर भेजा तो वो दिल्ली स्थित यमुना जी नदी में उस कटे सिर साथ जल समाधि ले इतिहास में अनूठी प्रेम कथा को अमर कर गई |

पर इस प्रेम एवम युद्ध गाथा के पीछे क्षत्रिय वंश गौरव की एक पारंपरिक कहानी है जो संक्षिप्त में इस प्रकार से है फिरोजा उस रणबांकुरे राजकुमार के सुंदर वीरता पर मुग्ध हो अपनी सुध बुद्ध खो बेठी थी और उसने 'वीरम दे' नाम के उस राजपूत राजकुमार को अपनी तरफ से प्रणय निवेदन भेजा।

पर राजपूत राजकुमार ने अपने क्षत्रिय संस्कारो कारण उस राजकुमारी को खेद जताते हुए सविनय मना कर दिया असमर्थता जता दी कि यह हम लोगों के धर्म एवं रक्त वंश परंपरा के खिलाफ है।

अपने खुद के कुल वंश के दाग लगने साथ अपने ननिहाल के यदुवंशी भाटीयों को भी उस म्लेच्छ युवती संग विवाह करने से लज्जित न होना पड़े ऐसा स्वरचित दोहा कहते हुए कि मामा लाजै भाटियां कुल लाजै चह्वमान जे तै परणू तुर्कसी पश्चिम उगै भान।

उस सुंदर मुस्लिम राजकुमारी से विवाह न कर पाने का कह उसके विवाह प्रस्ताव को एक तरह से ठुकरा दिया
और उसी कारण क्रोध में आ उस हठी राजकुमारी के बाप दिल्ली के सुल्तान उस अल्लाउद्धिन खिलजी ने
जो एक क्रुर और निर्दयी शासक के रुप में कुख्यात था उसने अपनी भारी भरकम फौजी लश्करों साथ जालौर की राजपूत रियासत पर 1311-12 में आक्रमण कर दिया।

अल्लाउद्धिन खिलजी की सेना ने जालौर दुर्ग को घेरते हुए वहीं पड़ाव डाल दिया और कई महीनों के घेरे बाद आखिर थक हारकर सुल्तान अल्लाउद्धिन खिलजी ने उस जालौर राजकुमार के पास एक सुंदर सा मन को लुभाने वाला संधी प्रस्ताव भेजा।

पर अपने वंश की मर्यादा पर दाग न लगे यह विचार कर लड़ने मरने की ठानते हुए उस सोनगरा राजकुमार ने अल्लाउद्धिन खिलजी के उस प्रलोभन को भी ठुकराते हुए युद्ध में अपनी जौहर प्रदर्शित करते हुए लड़ने का निर्णय।

और ऐसे प्रलोभन को ठुकराने वाला वो एक राजपूत ही हो सकता है जिसने सुंदर राजकुमारी और हिंदुस्तान की आधी सल्तनत ठुकरा दी जाहिर है कि सुल्तान के मरने बाद फीरोजा ही एकमात्र बेटी होने के कारण उत्तराधिकारी तो उसका दामाद ही बनता इस प्रकार उसने हिंदुस्तान की सल्तनत ठुकरा दी अपनी वंश परंपरा और क्षत्रिय संस्कारो के लिए जहाँ स्व धर्म को सर्वोपरि मानने की रीत रही है।

उस वीर बांकुरे राजपूत राजकुमार ने विवाह करने पर आधे हिंदुस्तान की सल्तनत देने के अल्लाउद्धिन खिलजी के प्रस्ताव को ठुकराते हुए युद्ध का अनुसरण किया शक्तिशाली दुश्मनों की बड़ी फौज मुकाबले अपनी कम संख्या वाली सेना वीर राजपूत सैनिकों की मदद से बड़ी तादाद में दुश्मन सेना को मारते काटते हुए वह शूरमा आखिर वीरगति को प्राप्त हुआ।

ऐसे वीर वंश से हैं हम राजपूत जिन्होंने धर्म की रक्षा को रियासतों के सुख वैभव से भी सदैव ऊपर माना धर्म और स्वाभिमान की रक्षा सर्वोपरि मानते हुए हम राजपूतों की वीरता साथ हमारे पूर्वजो के त्याग और बलिदान के ऐसे असंख्य उदाहरण है।

जो विश्व में कहीं भी देखने सुनने और पढ़ने को नहीं मिलेंगे इसीलिए कर्नल टॉड ने राजपूतो की बहादुरी पर लिखा कि अगर कोई यह कहे कि मैं मरने से नहीं डरता तो या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो कोई राजपूत है।

कुछ सिरफिरे इतिहासकारों ने लिखा है कि राजपूत तो लड़ना नहीं वो तो मरना जानते हैं और यह सही भी है कि हम लोगों नें तुर्को माफिक चाल अपनाई होती तो आज संपूर्ण दुनिया में हमारी ही हुकूमत होती।

⚔ जय 👑 राजपूताना।⚔

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

मुगलई दुर्गंध :- अनारकली, सलीम और अकबर का सच!

भारत में इतिहास शोध का विषय कभी रहा ही नही वरन एक विशेष एजेंडे को स्थापित करने के लिए दरबारियों द्वारा कल्पना के आधार पर अनाप शनाप लिखा जाता रहा। 

पाठ्य पुस्तकों और फिल्मों के माध्यम से असत्य और भ्रामक बातों का प्रचार- प्रसार करने में कोई कमी नहीं की गयी।झूठ बोलने/लिखने वालों को महान लेखकों की पदवी दी गयी। पद, प्रतिष्ठाऔर पुरस्कार दिए गये ताकि वैसा लिखने समझने की एक परम्परा बन सके। 

गुलामों ने गुलाम वंश को जीवित रखने का भरपूर प्रयास किया पर वे भूल गये कि यह देश सत्य और धर्म की परम्परा मानने वालों का देश है। 

धीरे धीरे असत्य के बादलों का विलोपन होना शुरू हुआ।जब सत्य का सूरज चमका तो सारी गंदगी और कूड़ा अनावृत हो गया। ऐसी ही एक गंदी और असत्य कहानी सामने आयी जिसे इतिहास में सलीम अनारकली की प्रेम कहानी के नाम से ग्लोरीफाई किया गया।

एक काल्पनिक बात को इतिहास के नाम से प्रचारित किया गया, अकबर को न्याय के लिए बेटे का बलिदान देते हुए बताया गया और सलीम को मोहब्बत के लिए हिन्दुस्तान का ताज ठुकराते हुए दिखाया गया। पर क्या आप जानते हैं कि असलियत क्या है।असलियत में इस प्रकरण में मुगलई दुर्गंध भरी पड़ी है। 

अनारकली का नाम नादिरा बेगम हुआ करता था. ईरान से एक विवश ,अति सुंदर नारी को खरीद कर व्यापारी उसे अकबर के दरबार में ले आये, उन्हें पता था कि अकबर औरतों की खरीद का अच्छा दाम देता है। 

जब उसे अकबर बादशाह के दरबार में पेश किया गया तो अकबर उसके लिए मचल उठा। अकबर ने उसके चटख रंग व खूबसूरती को देख कर अनारकली नाम देकर अपने हरम में भेज दिया ।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी जी ने इस सच्चाई को अपनी पु‌स्तक दास्तान- मुगल महिलाओं की के पेज नं. 141 से 148 तक में लिखा है।  

प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी के अनुसार ,सलीम अपनी सौतेली मां और अकबर की पत्नी व अपने सबसे छोटे भाई दानियाल की मां 'अनारकली' के साथ जिस्मानी सम्बन्ध रखता था। 

इस बात से मुगल 'हरम' में सभी लोग वाकिफ थे। जी हां, अनारकली सलीम की प्रेमिका नहीं बल्कि रिश्ते में मां लगती थी जिससे सलीम शारीरिक सम्बन्ध बनाया करता था। 

हेरम्ब चतुर्वेदी अपनी पुस्तक में कहते हैं कि इस बात का खुलासा कई अंग्रेज यात्रियों ने अपनी पुस्तकों में किया है। उन्हीं में से एक यात्री विलियम फिंच ने 1611 में हिंदुस्तान का भ्रमण करते हुए अनारकली और सलीम के संबंधों को नाजायज़ बताया।

पर्चास हिज पिल्ग्रिम्स नामक पुस्तक में सैमुअल पर्चास ने लिखा कि सलीम और अनारकली के बीच में मां-बेटे का संबंध होते हुए भी अवैध शारिरिक संबंध थे। जब अनारकली-सलीम के बारे में अकबर को पता चला तो उन्होने अनारकली को सलीम से दूर रहने की चेतावनी दी। 

वहीं फिन्च के अनुसार, एक बार अकबर ने अपनी पत्नी नादिरा बेगम उर्फ अनारकली को पर्दे के पीछे से सलीम के साथ मुस्कुराता हुआ देख लिया था, तब उसे यकीन हो गया इस मामले में अनारकली की भी सहमति है, तो अकबर ने लाहौर के अपने महल की दीवार में नादिरा बेगम यानि अनारकली को चुनवा देने का आदेश दे डाला, पर कुछ कारणों से उसे अपना आदेश वापस लेना पड़ा।

उसकी मृत्यु के बाद जहांगीर जब बादशाह बना तो लाहौर में ही अनारकली का मकबरा बनवा दिया। इसी के बगल में अनारकली के बेटे दानियाल का भी मकबरा है।

फिंच के पांच साल बाद पादरी एडवर्ड टेरी ने भी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अकबर अपनी प्रिय पत्नी ईरान से आई नादिरा उर्फ़ अनारकली से अवैध संबंधों के कारण सलीम को उत्तराधिकार से वंचित करना चाहता था, पर दानियाल के मरने के बाद उसे अपना निर्णय बदलना पड़ा। 

द लास्ट स्प्रिंग द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ ग्रेट मुगल्स के लेखक अब्राहम एराली ने अनारकली को अकबर की पत्नी बताते हुए दानियाल की माँ बताया है ।  

भारत आने वाले अन्य विदेशी यात्रियों ने भी लगभग यही बातें लिखी हैं और कहा कि अकबर और जहांगीर के बीच कटुता की मुख्य वजह जहांगीर का अपनी सौतेली मां से शारीरिक संबंध बनाना ही था।

कुछ और पुस्तकों पर नजर डालें तो एक महत्वपूर्ण किताब तहकीकात-ई-चिश्तिया का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है जिसे नूर अहमद चिश्ती ने 1860 में लिखा था। वह कहता है कि अनारकली अकबर को बहुत प्रिय थी जिससे अकबर की अन्य दो बीवियां जलती थी।अकबर जब दक्कन की लड़ाई में गया तब अनारकली बीमार हो गयी थी। 

तारीख-ई-लाहौर में सैयद अब्दुल लतीफ़ ने भी इसे लिखा था कि अनारकली अकबर के हरम मे रहती थी, जिसमें केवल अकबर की पत्नियाँ या उसकी दासियाँ रह सकती थी। अकबर को सलीम-अनारकली के रिश्ते का शक हो जाता हैं और वो इसलिए अनारकली को जिन्दा दीवार में चुनवा देता है।

दरअसल प्रेम कहानी जैसा कुछ था ही नहीं! यह मुगलों के व्यभिचारिक संबंधों का उद्घाटन है। यह कडवा सत्य है पर कोई फिल्म, कोई कल्पना, कोई कहानी बना कर इस सच को कब तक झुठलाया जा सकता है।

मध्यकालीन भारत कुछ और नही केवल सनातन को ध्वंस करने के प्रयासों पर निर्मित खँडहर के सिवा कुछ नही है।पाखंडियों का भांडा फूट चुका है। फर्जी कहानीकारों, चाटुकारों और भारत द्रोही लोगों का पर्दाफाश होना धीरे धीरे ही सही ,पर आरंभ अवश्य हो गया है।

स्वरूप कंवर जी


पुत्र वियोग से हुई देवलोक, पीहर के दमामी (ढोली) को दिया पहला पर्चा

जैसलमेर जिले के जोगीदास गांव में वि.सं. 1745 को जोगराज सिंह भाटी के यहां एक पुत्री का जन्म हुआ, नाम रखा गया स्वरूप कंवर।

मालाणी की राजधानी जसोल के राव भारमल के पुत्र जेतमाल के उत्तराधिकारी राव कल्याण सिंह के पहली पत्नी के पुत्र नहीं होने पर स्वरूप कंवर के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ।

विवाह के दो साल बाद राणी भटियाणीजी ने बालक को जन्म दिया, जिसका नाम लालसिंह रखा गया। इससे प्रथम राणी देवड़ी के रूठी रहने लगी तो स्वरूप कंवर ने उन्हें विश्वास दिलाते हुए कहा कि मां भवानी की पूजा-अर्चना कर व्रत व आस्था रखें, उनकी मुराद जरूर पूरी होगी।

देवड़ी राणी ने स्वरूप कंवर की बातों में विश्वास कर वैसा ही किया, इस पर कुछ समय पश्चात उनके भी पुत्र र| की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि कुछ समय पश्चात एक दासी ने देवड़ी राणी को बहकाया कि छोटी राणी स्वरूपों का पुत्र प्रताप सिंह से बड़ा होने पर वह ही कल्याण सिंह का उत्तराधिकारी बनेगा।

दासी बार-बार उनके पुत्र को राजपाट दिलाने के लिए बहकाने लगी। इस पर देवड़ी राणी अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने के लिए चिंतित रहने लगी।

श्रावण पक्ष की काजली तीज के दिन राणी स्वरूप कंवर ने राणी देवड़ी को झुला झूलने के लिए बाग में चलने को कहा तो उन्होंने बहाना बनाते हुए मना कर दिया, तब राणी स्वरूप अपने पुत्र लालसिंह को राणी देवड़ी के पास छोड़कर झूला झूलने चली गई।

इस अवसर को देखते हुए उसने विश्वासपात्र दासी को जहर मिला दूध लेकर बुलाया, कुछ समय बाद खेलते-खेलते दूध के लिए रोने लगा तो दासी ने जहर मिला दूध लालसिंह को पिला दिया। इससे लालसिंह के प्राण निकल गए।

राणी स्वरूप कंवर जब झूला झुलाकर वापस आई तो अपने पुत्र के न जागने पर व उसे मृत देखकर पुत्र वियोग में व्याकुल हो गई तथा कुछ समय बाद ही उन्होंने भी प्राण त्याग दिए। एक दिन राणी भटियाणीजी के गांव से दो ढोली शंकर व ताजिया रावल कल्याणमल के यहां जसोल पहुंचे।

उन्होंने बाईसा से मिलने का कहा तो राणी देवड़ी ने उन्हें श्मशान में जाकर मिलने की बात कही। इससे दुखी होकर ढोली गांव के श्मशानघाट पर जाकर बाईसा से विनती करने लगे और आप बीती सुनाई।

इस पर प्रसन्न होकर राणी भटियाणीजी ने दोनों को साक्षात दर्शन देकर पर्चा दिया और दमामियों को उपहार स्वरूप नेक भी दी।

इसे लेकर वे वापस रावल के यहां पहुंचे तो एकबारगी सभी अचरज में पड़ गए, लेकिन कुछ ही दिनों में यह बात आस-पास के गांवों में फैल गई।

इस पर रावल कल्याणमल कुछ लोगों के साथ श्मशानघाट पहुंचे तो

वहां पर खड़ी खेजड़ी हरी-भरी नजर आई।
इस पर उसी जगह राणी भटियाणीजी के चबूतरे पर
एक मंदिर बनवा दिया और उनकी विधिवत पूजा
करने लगे। मंदिर में गोरक्षक सवाईसिंहजी, लाल
बन्ना, कल्याणसिंह, बायोसा आदि की भी पूजा की जाती है।

स्वरूप कंवर जी को रानी भटियाणी जी, माजीसा,
भुआसा आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है..
माजीसा का विख्यात मंदिर बाड़मेर के जसोल गांव
में है जिसे जसोल धाम के नाम से जाना जाता है।

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

जाहर वीर गोगा चौहान


खैड़ै खैड़ै खेजड़ी, अर गाँव गाँव गोगो...

गोगाजी राजस्थान के लोक देवता हैं, जिन्हे जाहर वीर गोगा जी के नाम से भी जाना जाता है । राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का एक शहर गोगा मेड़ी है । यहां भादवशुक्लपक्ष की नवमी को गोगाजी देवता का मेला भरता है । इन्हे सभी जाती धर्मो के लोग पूजते है|

वीर गोगाजी गुरुगोरखनाथ के परम शिष्य थे। चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत 1003 में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था सिद्ध वीर गोगादेव के जन्मस्थान, जो राजस्थान के चुरू जिले के दत्तखेड़ा ददरेवा में स्थित है। जहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं।

कायम खानी मुस्लिम समाज उनको जाहर पीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्‍था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। 

इस तरह यह स्थान सनातन एकता का प्रतीक है। मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी सनातन, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए।

गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के राजपूत शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। 

चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था।

लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। 

यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।

जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास दत्तखेड़ा (ददरेवा) में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। दत्तखेड़ा चुरू के अंतर्गत आता है।

गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। 

उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्‍था टेककर मन्नत माँगते हैं।

आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है। गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है। 

लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है। 

भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है। उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसलमान इन्हें गोगा पीर कहते हैं

हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं।

श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोगा पीर व जाहिर वीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। 

भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथाछड़ियों की विशेष पूजा करते हैं।

प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।

गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं। विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। 

लोक देवता जाहरवीर गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा में भादवा मास के दौरान लगने वाले मेले के दृष्टिगत पंचमी (सोमवार) को श्रद्धालुओं की संख्या में और बढ़ोतरी हुई। मेले में राजस्थान के अलावा पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।

जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े (ग्रुप) में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं।

प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। 

संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ ‘गोगामेडी’ के टीले पर तपस्या कर रहे थे। 

बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। 

प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा।

गोगा नवमी पर कडाई, पुआ, पुडी, खीर बनाई जाती है, कुम्हारो के धर से मिटटी का घोडा लाया जाता है ।
जिस पर गोगाजी विराजमान रहते है, उनकी पूजा कि जाती है, भोग लगाया जाता है, राखी चढाई जाती है।

सोमवार, 6 सितंबर 2021

सती माता रूप कंवर

(1987 दिवराला, सीकर - राजस्थान)

सत परवड़ा पगा पगा, पगा पगा है थान ।
पगा पगा मेला भरे, हर पग नेज निशान ।।
सतीयां वणी साख ने, अमर करें जग आण ।
भवानी भलो सत भवे, देवे ज्यौता भाण ।।


सती" जिसका नाम सुनते ही रूह काँप जाती है, बदन का रोयाँ-रोयाँ खड़ा हो जाता है, दिल में एक अलग तरह की सनसनी पैदा हो जाती है, हम यह सोच भी नहीं सकते है कुछ अरसे पहले ही 4 सितम्बर 1987 को रूप कँवर पत्नी माल सिंह शेखावत कि चिता पर जिन्दा बैठकर सती हुयी और मिथक/किवदन्ती है कि उस वक़्त चिता को ज्योत हाथो से नही दी गई थी, असमान से चुनरी उठी और ज्योत लग गयी देवराला, जिला सीकर सती हुए थी। अपने पति माल सिंह जी शेखावत (24) के निधन के बाद रूप कँवर (18) ने सती होने का सोचा और इनके पीछे कोई संतान नहीं थी।


इन्हे राजस्थान और भारत वर्ष कि आखिरी सती माना जाता है सती होने के बाद आपके परिवार पर तत्कालीन मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी सरकार ने 39 व्यक्तियों के खिलाफ मुकदमा राजस्थान उच्च न्यायालय में दर्ज करवाया था। उस समय यह विश्व में चर्चित घटना थी। उसके बाद कहीं भी कोई महिला सती नहीं हुई है।

आजादी के बाद राजस्थान में कुल 29 सती हुयी है इनमे रूपकंवर आखिरी है, इस घटना ने काफी तुल पकड़ा था।


 39 राजपूतो पर केस लगे उसके बाद भारत के सविंधान में बदलाव किये गए। हजारो राजपूत जयपुर कि सड़को पर तलवारे लेकर उतरे पूरी दुनिया कि मीडिया ने इस पर काफी प्रोग्राम किये। बीबीसी जैसे प्रतिष्ठीत चैनल तो दीवराला गांवों में डेरा डाले हुए थे। मुक़दमा आज भी अदालत में चल रहा है जिसमे 11 लोग बरी कर दिए गए है, सती माँ का मंदिर दीवराला गांव में मौजूद है।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

स्वतंत्रता सेनानी निशान सिंह जी का जीवनी


चारों तरफ अंग्रेज सैनिक खड़े थे। सूरज अपने चरम पर था। एक विशाल हवेली का प्रांगण भीड़ से भरा हुआ था।

भीड़ में डरे सहमे लोग भवन के मुख्य द्वार की तरफ टकटकी लगाये देख रहे थे। तभी कुछ अंग्रेज सैनिक एक पुरुष को जकड़े हुये भवन में से निकलते हैं। 

वीर पुरुष बिना किसी भय एवं संताप के इठलाता हुआ चल रहा था। भीड़ को पता था कि जिस वीर को लाया जा रहा है उसे मृत्यु दंड दिया जाना पक्का है फिर भी भीड़ ने उस वीर के श्रीमुख पर चिंता या मृत्यु डर के भाव कहीं चिंहित ही नहीं हो रहे थे। 

वह वीर तो उस हवेली में उसी शान के साथ चला आ रहा था जब कभी इसी हवेली अपने राज्याभिषेक के समय गर्वीले अंदाज में पेश हुआ था। कुछ ही देर में अंग्रेज सैनिक अपने उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करते हुए उसे प्रांगण के बीचों बीच रखी तोप से बाँध देते हैं।

सामने खड़ा एक अग्रेज अधिकारी जो कभी इस वीर का नाम सुनते ही कांप जाया करता था पर आज इस वीर के बेड़ियों में जकड़े होने की वजह से रोबीले अंदाज में आदेश मारने का आदेश देता है। 

तोप के पीछे खड़ा अंग्रेजों का भाड़े का भारतीय सिपाही तोप में आग लगा देता है और उस वीर पुरुष के परखच्चे उड़ जाते हैं। इस तरह एक योद्धा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भारत माता के लिए अपने जीवन की आहुति दे देता है।

स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले इस वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म बिहार के रोहतास जिले में शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमीनदार रघुवर दयाल सिंह के चौहान राजपूत घराने मे हुआ था। 

शहीद निशान सिंह सासाराम और चैनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया एवं आरा के सरकारी प्रतिष्ठानों को लूट लिया।

ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे। 

अंग्रेजों ने बनारस और गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा लेकिन तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे। यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। 

क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई। लेकिन अंग्रेजों की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। 

अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ। 

इसके बाद कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी, ऊंट, बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे। इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये।

एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर थर कांपते थे। 26 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह के निधन के बाद अंतिम समय में बीमार निशान सिंह खुद को कमजोर महसूस करने लगे।

अंग्रेजों द्वारा गांव की संपत्ति जब्त किये जाने के बाद वे रोहतास जिले के डुमरखार के समीप जंगल की एक गुफा में रहने लगे। जिसे आज निशान सिंह मान के नाम से जाना जाता है। 

आने-जाने वाले सभी लोगों से वे अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का आह्वान करते थे। अंग्रेज तो ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। निशान सिंह को गिरफ्तार करने के लिये एक बड़ी सशस्त्र सैनिकों की टुकड़ी सासाराम भेजी गयी जिसने निशान सिंह को गिरफ्तार कर लिया। 

इन्हें कर्नल स्कॉट्स के सुपुर्द किया गया। आनन-फानन में फौजी अदालत बैठाई गयी जिसने निशान सिंह को मृत्युदंड दे दिया। ना कोई मुकद्दमा, ना कोई बहस -जिरह, ना कोई अपील, ना कोई दलील। 

5 जून 1858 को निशान सिंह को उनके ही निवास स्थान पर तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया। लेकिन कहते हैं मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करने वाले मरते नहीं अमर हो जाते हैं। ऐसे ही निशान सिंह पूरे बिहार और भारत के लिए अमर है।

🇮🇳 जय हिंद। 🇮🇳

🚩जय महाराणा प्रताप 🚩

गुरुवार, 26 अगस्त 2021

पूर्वांचल के इतिहास से…!!

शंकरगंज रियासत (रायबरेली )

यह रियासत बैसवारा वंश की कर्मभूमि रही है।।
खजूर गांव थुलरई,सैबंशी,निहस्था, सेमरी,कुर्री सुडौली,सेमरपहा आदि तालुक एक दूसरे से संबंधित है।

बैसवारा महाराज त्रिलोकचन्द्र की चौदवही पीढ़ी सन 1805 मे राना बेनी माधवबख्श सिंह जी का जन्म सैबंशी राजपरिवार में हुआ,कहीं कही राणा का जन्म व लालन पालन उड़वा( शंकरपुर स्टेट) को माना जाता है।

इनके पिता राजा रामनारायण सिंह जी थे।
राना बेनी माधव सिंह जी को यह शंकरपुर रियासत अपने चाचा राजा शिवप्रसाद सिंह से मिली थी। जिसमे भीखा , जगतपुर , पुकबिया भी प्रमुख रियासते थी।

राना बेनी माधवबख्श सिंह जी का भारत के 1857 की क्रान्ति मे बहुत योगदान है उन्होने अवध को 18 महीने अग्रेंजो से सुरक्षित रखा और हार नही स्वीकार की अपना सर्वत्र न्यौछावर कर दिया इसके लिऐ उन्होने चार युद्ध भी किऐ जिसमे उनके सेनापति वीर वीरा पासी का भी सहयोग रहा।

राणा बेनी माधव का पारिवारिक संबंध नायन राज परिवार से भी रहा।
राणा का जीवन एक साधक संन्यासी का था।
वो आदिशक्ति दुर्गा के साधक थे।
जब साधना व यज्ञ के पश्चात उनकी तलवार में स्वयंम गति आ जाती थी। इसे राणा माँ दुर्गा का आश्रीवाद मानकर युद्ध पर जाते थे।

शंकरपुर रियासत में माँ का दिव्य मंदिर अभी भी स्थापित है। माँ का स्वरूप एक पिंडी के रूप में स्थापित है व पुराना राजभवन अब शंकरपुर इंटर कॉलेज के रूप में सेवा कर रहा है।

राजा बेनी माधव सिंह को राणा व दिलेरजंग की उपाधि भी प्राप्त हुई।

 “अवध में राणा भयो मरदाना डौडिया खेड़ा में राणा”

 राम बख़्स व राणा बेनी माधव के लिए कहि जाती है।वीरता व वीररस की कई नाटक काव्य रचे गए।

राष्ट्र में आप दोनों राणा को बुंदेलखंड के आल्हा ऊदल के रूप के देखा जाता था।।

1 -12मई 1958 सेमरा का युद्ध 

2-15नवम्बर 1858 भीरा गोविन्दपुर का युद्ध 

3- 24 नवम्बर 1858 को बक्सर डौडिंयाखेड़ा का युद्ध 

4 - 4 जनवरी 1859 को घाघरा का युद्ध 

आज उनके नाम पर कई शिक्षण संस्थान , रायबरेली जिला चिकित्सालय,और कई ट्रस्ट भी चलते है जो लोगो के लिऐ कार्य करते है।

राणा जब अश्व पर सवार हो कर चलते थे तब कोई भी सेना उनका सामना नही करती थी।

7 जनवरी 2017 तत्कालीन राज्यपाल श्री राम नाईक जी द्वारा नगर के मध्य में राणा बेनी माधव सिंह जी की अश्वरोही मूर्ति का अनावरण किया एवम राणा की जयंती 27 अगस्त 2019 को राणा बेनी माधव स्मारक समिति रायबरेली के भाव समपर्ण कार्यक्रम, साझी विरासत साझी शहादत में मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश श्री योगी आदित्यनाथ जी महराज का आगमन रायबरेली में राणा की विरासत को साझा करने हेतु हुआ।

राणा की मृत्यु के कोई भी साछ उपलब्ध नही। अश्व पर सवार को कर वो काशी क्षेत्र की ओर गए फिर अपनी रियासत में वो वापस नही आये।

बैसवारा के इस वीर सपूत को शत शत नमन 🙏🏻

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पूरे अवध को एक सूत्र में पिरोने वाले महान योद्धा
राणा बेनी माधव बख्श सिंह बैस जी। 🙏🏻❣️🚩

👉1856 में अवध के नबाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों द्वारा पद से हटाने का सबसे मुखर विरोध राणा बेनी माधव ने ही किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बनाया गया रायबरेली का सलोन जिला मुख्यालय पर हुआ विद्रोह राणा की ही संगठन क्षमता की देन थी। राणा के नेतृत्व और संगठन को लेकर ऐसी दूर दृष्टि थी कि 1857 की क्रांति के पहले ही पूरे रायबरेली ज़िले में जगह-जगह विद्रोह शुरू हो गया था।

कंपनी के मेजर गाल की हत्या और न्यायालय पर हमला करके आग लगा देना यह सब राणा की गुरिल्ला रणनीति का एक उदाहरण था।

राणा के नेतृत्व में पूरे 18 महीने तक अवध कंपनी के चंगुल से आज़ाद हो चुका था।

17 अगस्त 1857 को राणा बेनी माधव को जौनपुर व आजमगढ़ का प्रशासक नियुक्त किया गया। 

अवध की क्रांति में राणा का ख़ौफ़ का उल्लेख 25 अप्रैल 1858 को कानपुर के जज ने कैप्टन म्यूर को प्रेषित एक तार में विस्तार से लिखा है।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के इस वीर नायक के आखिरी दिनों को लेकर मतभेद है लेकिन माना जाता है कि दिसंबर 1858 को राणा नेपाल चले गए और वहीं अंग्रेजों के साथी नेपाल नरेश राणा जंग बहादुर के साथ हुई जंग में शहीद हो गए।

इस घटना का उल्लेख अंग्रेज इतिहासकार रॉबर्ट मार्टिन ने हावर्ड रसेल के 21 जनवरी 1860 के एक पत्र के हवाले से किया है। 

इतिहास का यह वीर शायद विरला ही होगा जिसने किताबों के पन्नों से हटकर लोकमन में अपना स्थान बनाया है, तभी आज भी पूरे अवध में कहे जाते हैं " 

अवध में राणा भयो मरदाना" 🙏
अवध में राणा भयो मरदाना ❣️🙏

ऐसे महान पराक्रमी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के वीर योद्धा,अवध केसरी, रायबरेली जिले की शान राणा बेनी माधव बख्शसिंह बैस जी को शत-शत नमन !!
🙏🏻विनम्र श्रद्धांजलि❣️💐

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महाराजा गुरुदत्त सिंह बहरेलिया (महाराजा सिंह जू )

भारत वर्ष मैं हर क्षत्रियो का इतिहास छिपाया गया।
गलत तरीके से बदनाम करने मे लगे रहे। और कई महान राजाओ एवं कई वंशो को गुमनाम कर दिया गया।

लेकिन कुछ क्षत्रिय वंशो ने दिन रात संघर्ष कर के अपने अपने इतिहास को एवं महान राजाओ को भारत मे दुबारा से उजागर किया।

लेकिन कुछ क्षत्रिय वंश एवं महान राजा लुप्त हो गये और उनकौ गलत तरीके से बदनाम करने मे लगे रहे। एवं गुमनाम कर दिया।

सेल्यूलर जेल मैं शहीदो के नाम लिखे हुए हैं उस लिस्ट मैं अधिकतर उत्तर प्रदेश राजस्थान के राजपूत है।
अंग्रेजो के पेर किसी ने भारत भूमी से उखाड़े तोह वे राजपूत थे।

क्युं इनके नाम गुमनाम कर दिये गये ? 

इसी तरह इन राजा और इस क्षत्रिय वंश को गुमनाम एवं इतिहास मिटा दिया गया।

सूरजपुर बहरेला बाराबंकी उत्तर प्रदेश के क्षत्रिय बहरेलिया सिसोदिया राजवंश के एक महाराजा, जिनका नाम महाराजा गुरुदत्त सिंह बहरेलिया (सिंह जु) इन्होने अंग्रेजो की नाक में दम कर रखा था। ऐशा गजेटियर मे भी लिखा हुआ है। 

महराजा गुरुदत्त सिंह बहरेलिया (सिंह जू) एक ऐशे महान राजा थे। जिन्होने अंग्रेजो की हुकुमत स्वीकार नही की।
अवध प्रांत मे सभी अंग्रेज महाराज सिंह जू से डरते थे। महाराज सिंह जू का नाम सुनते ही सारे अंग्रेज कांप जाया करते थे। ब्रिटिश काल मे अंग्रेज भारतवासियो पर बहुत अत्याचार करते थे। 

भारतीयो के साथ बहुत बुरा बर्ताव होता था. उन्हें गंदे बर्तनों में खाना दिया जाता था, पीने का पानी भी सीमित मात्रा में मिलता था. यहां तक कि जबरदस्ती नंगे बदन पर कोड़े बरसाए जाते थे, और जो ज्यादा विरोध करता था उसे तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया जाता था।

यही दिशा महाराज सिंह जू ने भी अंग्रेजो की कर रखी थी।
 सूरजपुर बहरेला रियासत के आस पास भी अंग्रेज भटका नही करते थे। क्योकी महाराज सिंह जू अंग्रेजो के खिलाफ थे।अगर कोई अंग्रेज सूरजपुर रियासत की तरफ आता तो वह जिन्दा वापस नही जाता था।

महराज सिंह जू ने अंग्रेजो से जम कर लोहा लिया था। महराज सिंह जू की आज्ञा अनुसार अंग्रेजो को परिवार समित जिन्दा जला दिया गया था जिन्दा दफना दिया गया था। इन सभी नजारो को देखकर ब्रिटिश गर्वनर जरनल बहुत दुखी व परेशान थे।

 महराज सिंह जू को खत्म करने के लिये कई सारे प्रयास किए गये, लेकिन अंग्रेज असफल रहे। अंत मे जाकर
 इस परेशानी को देखते हुए उन्होने अयोध्या के राजा दर्शन सिंह के पुत्र राजा मान सिंह का साथ लिया। क्योकी राजा मान सिंह सूरजपुर रियासत को भली भाती जानते थे। 

 अवध के बहुत सारे हिन्दु राजा अंग्रेजो की सेना में मिलकर अपनो के खिलाफ युद्ध करते थे। बख्तावर सिंह से लेकर 1838 में दर्शन सिंह और फिर उनका पुत्र मान सिंह 1870 तक अंग्रेज़ों के गुलाम थे।

राजा मान सिंह को अंग्रेजो के ब्रिटिश गर्वनर जरनल ने आज्ञा दी की सूरजपुर के राजा सिंह जू ने हमारे सिपाहीयो को जिन्दा जला दिया है। 

उसने हमारे नाक मे दम कर रखा है। उसको दण्ड दिया जाए। इस आज्ञा को सुनकर राजा मान सिंह ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी।

वह अशुभ दिन - 20 मार्च 1845 (24 मार्च को होली का त्योहार था।)
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राजा दर्शन सिंह के पुत्र राजा मान सिंह ने और ब्रिटिश सेना ने सूरजपुर बहरेला के महाराज सिंह जू पर भारी संख्या मे युवा मजबूत और बहादुर पुरुषों के साथ धोके से रातो रात हमला किया I क्योकी महाराजा सिंह जू को केवल धोके से ही हराया जा सकता था। राजा मान सिंह पुरी तेयारी से हमला करने आए थे। और महाराजा सिंह जू बिना किसी सूचना के रात मे विश्राम कर रहे थे। और पुरा सूरजपुर बहरेला के बहरेलिया राजपूत।

 राजा मान सिंह ने बिना सूचना दिये रातो रात सूरजपुर बहरेला मे हमला कर दिया। बहुत घमाशान युध्द हुआ युध्द में, राजा मान सिंह ने अपने कई सदस्यों को खो दिया और महाराज सिंह जू के भी कई बहरेलिया राजपूत मारे गए और कुछ घायल हो गए और अंत में राजा सिंह जू को घेरा बनाकर अंग्रेजो ने पकड कर बंधी बना लिया।

राजा सिंह जू को पकड कर उनके कई बहरेलिया राजपूतो के साथ लखनऊ जेल भेज दिया गया। और महराज सिंह जू की जेल मे मृत्यु कर दी गई। राजा मान सिंह ने सभी बंदूकों, तोपो, हाथियों, ऊंटों को जब्त कर लिया और राजा सिंह जू के बहरेलिया राजपूतो को रिहा कर दिया गया। 

यह सभी नरसंहार के बाद कुछ महाराजा सिंह जू की पत्नी रानी लेखराज कुँवर के साथ रहे। राजा के कई लोग मारे गए लेकिन चुंडा और इंदल सिंह रानी के साथ रहे और उन्होंने 4 साल तक अपना सूरजपुर बहरेला रियासत ठीक करने की कोशिश की। रानी लेखराज कुँवर एक उत्कर्ष्ट महिला थी।

सारी रियासत महाराजा सिंह जू की पत्नी के पास आ गई थी। लेकिन कुछ हिस्सा गर्वनर जरनल के सिपाहीयो को दे दिया गया था। राजमाता लेखराज कुंवर के साथ मिलकर अंग्रेज़ो से रियासत वापस पाने के लिए प्रयत्न किया। बाद में राजा न होने के कारन ये सूरजपुर बहरेला क्षेत्र बीहड़ हो गया। 

रानी लेखराज कुँवर ने बाद मे चमेरगंज और राम सनेही घाट का निर्माण किया, जैसा कि इमारतें और बाज़ार उनके द्वारा बनाए गए और यह इलाका उनकी जागीर में आ गया।

रानी लेखराज कुँवर ने राम सनेही घाट को अपना मुख्यालय बनाया।

कैप्टन ऑर ने 2 या 3 साल बाद फिर हमला किया। 
(1848 में 3 साल बाद). बहरेलिया राजपूत जो सुरक्षित थे, अंग्रेज़ो की यातनाओ से तंग आकर सभी संपत्तियों और घर को छोड़कर वहाँ से परिवारों के साथ खुद को पड़ोसी जिलों में बसा लिया। 

सूरजपुर बहरेला बाराबंकी में आज भी है। बहुत सारे महल जंगलों में दफ़न हो गए और कुछ खड़े है अपने साथी की तलाश में। 

लगभग हर रियासत जो अब के प्रतापगढ़, सुल्तानपुर और फैज़ाबाद में आती है। सबको अंग्रेजो के साथ मिलाकर राजा मान सिंह या उनके पिता दर्शन सिंह ने सताया है। 

अयोधया के राजा गर्गवंशी हरिदयाल सिंह को भी मान सिंह ने ही मारा था। भदरी, अमेठी और कालाकांकर जैसी रियासतों के साथ मान सिंह अंग्रेज़ों के कहने पर कर वसूलने के चक्कर में गलत किया। 

1838 लेकर 1870 के बीच में लिखे गए ग्रंथों में महराज सिंह जू या बहरेलिया क्षत्रिय वंश सूरजपुर बहरेला का नाम नहीं है खासकर लखनऊ से फैज़ाबाद के बीच में।

1870 के बाद भी किसी ने सूरजपुर बहरेला के बारे में नही लिखा। और जो किताबें लिखी गयी वो राजा मान सिंह द्वारा ही लिखी गयी और जो बाद मे लिखी गई वौ मान सिंह द्वारा लिखी किताबों से लिया गया था और राजा मान सिंह ने अपने को ऊचा दिखाने के लिये अपनी किताबो मे कैसे गलत लिखा गया राजा सिंह जू एवं उनके बहरेलिया वंश के बारे में।

बहुत ने तो लिख भी रखा है कि मान सिंह ने बाराबंकी में सूरजपुर बहरेला और बहरेला डीह में कत्लेआम कर गरीबों को बचा लिया।

और राजा सिंह जू को डाकू बता दिया गया। कैसे झूठ लिखा गया। बस एक गलती की थी कि अंग्रेज़ों के सामने सर नहीं झुकाया इसलिये महराज सिंह जू एवं बहरेलिया वंश को गलत लिख कर दर्शाया गया।

 बाराबंकी ,उत्तरप्रदेश के एक छोटे से क्षेत्र , सूरजपुर बहरेला - के राजा , अपने देश एवं अपने लोगो के लिये इतना लडे की उन्हे जेल में शहीद होना पड़ा.... लेकिन शर्म की बात ये है कि बाराबंकी सूरजपुर बहरेला में ही इस महान आत्मा को कोई नही पूंछता, उत्तर प्रदेश की सरकारो एवं इनके वंशजो ने इस देशभक्त को कभी याद नही किया ,और भारत सरकारों एवं इनके वंशजो को तो पता भी नही होगा कि महाराजा सिंह जू भी कोई क्रांतिकरी थे ...

ये समाज का व देश का दुर्भाग्य ही है, की इतने बड़े राजा एवं क्रांतिकारी के त्याग,व बलिदान को ना के बरावर लोग जानते है।

महाराजा सिंह जू की प्रतिमा देश के हर कोने मैं होनी चाहिये उनका व्यक्तित्व इतना बडा है की इससे देशवासियो को प्रेरणा मिल सके।

ऐसे महान राजा एवं क्रांतिकारी शहीद के चरणों मे मेरा शत शत नमन! 💐🙏🏻💐

 जय महाराजा सिंह जू
 जय बहरेलिया राजवंश
 जय जय राजपूताना
 राजपूत एकता जिन्दाबाद
 जय महाराजा गुरुदत्त सिंह बहरेलिया

नोट:- इस पोस्ट को हर राजपूत भाई आगे जरुर शेयर करें।

शनिवार, 7 अगस्त 2021

भीमदेव सोलंकी


काबुल के तूफानों से जब जन मानस था थर्राया…
गजनी की आंधी से जाकर भीमदेव था टकराया ।

राजा भीमदेव प्रथम सोलंकी वंश के थे और अणहिलवाड़ापाटन ( गुजरात ) के राजा थे दुर्लभराज के पुत्रहीन होने पर उसके छोटे भाई नागराज के पुत्र भीमदेव वि.सं. १०७९ ( ई.स. १०२२ ) में राजगद्दी पर बैठे।

जब वे सिंहासन पर बैठे तब कम उम्र थी उस समय गजनी का शासक महमूद था, वह एक शक्तिशाली शासक था।

उसने भारत पर कई बार आक्रमण कर, यहाँ से अथाह सम्पत्ति लूटकर ले गया, काठियावाड़ में सोमनाथ का शिव मन्दिर सुप्रसिद्ध था। महमूद ने वि.सं. १०८१ ( ई.स. १०२४ ) में सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण करने के लिए गजनी से प्रस्थान किया। 

इसके पहले उसने इतनी बड़ी सेना का संचालन कभी नहीं किया था, गजनी से वह मुलतान आया और मुलतान से राजपूताना के विशाल मरुस्थल को पार कर काठियावाड़ जाने का निश्चय किया। 

यहाँ के छोटे-छोटे राज्यों ने अपनी सेना के साथ उसका विरोध किया, महमूद के अचानक आक्रमण की खबर पाकर भीमदेव भी अपनी सेना के साथ, जो उस समय उपलब्ध थी। 

युद्ध के लिए आये मुस्लिम सेना बहुत अधिक होने के कारण भीमदेव को कन्थकोट ( कच्छ ) के किले में शरण लेनी पड़ी महमूद ने मन्दिर को नष्ट किया और वहाँ से धन सम्पति लूट कर वापस रवाना हुआ। 

भीमदेव ने और सेना एकत्र कर महमूद को रोकना चाहा इस समय महमूद उससे भिड़ना उचित नहीं समझता था, अत: उसने रास्ता बदल कर सिन्ध से होकर गजनी की ओर कूच किया।

भीमदेव ने सिन्ध के राजा हम्मुक पर आक्रमण कर उसे पराजित किया, जब वह सिन्ध में युद्ध कर रहे थे, तब मालवा के राजा भोज के सेनापति ने अणहिलवाड़ा पर आक्रमण किया। 

राजधानी में राजा के अनुपस्थित रहने के कारण मालव सेना ने नगर को लूटा इस युद्ध से गुजरात की बहुत अधिक क्षति हुई। 

सिन्ध से लौटने के बाद भीम, भोज की शक्ति को नष्ट करने में पूर्णतः जुट गया, उस समय आबू पर मालवा के परमारों की शाखा के धन्धु का शासन था, भीम ने आबू पर आक्रमण कर दिया धन्धु पराजित होकर भोज की शरण में मालवा चला गया। 

भीम ने आबू को सरलतापूर्वक जीत कर अपने राज्य में मिला लिया, विमलशाह को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया, भीमदेव ने मालवा पर भी आक्रमण किया। 

अपने पड़ोसियों से निरन्तर युद्ध से भोज की सामरिक शक्ति कमजोर हो गई थी, भीमदेव ने मालवा ( धारा ) के भोज को युद्ध में परास्त किया था, भीमदेव सोलंकी ने वि.सं. ११२१ ( ई.स. १०६४ ) तक गौरवपूर्ण राज्य किया।

भीमदेव गुजरात के सबसे प्रतापी शासक थे, गुजरात के इतिहास में भीमदेव का समय गौरवशाली रहा है।

🙏🏻जय🏹श्री🏹राम 🙏🏻
👑 जय राजपूताना ⚔️