बुधवार, 14 जुलाई 2021

सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश का संक्षिप्त परिचय

सिकरवार' शब्द राजस्थान के 'सिकार' (Sikar) जिले से बना है।
यह जिला सिकरवार राजपूतों ने ही स्थापित किया था।
इसके बाद इन्होने 823 ई में "विजयपुर सीकरी" की स्थापना की, बाद में खानवा के युद्ध में जीतने के बाद 1524 ई में बाबर ने "फतेहपुर सीकरी" नाम रख दिया।
इस शहर का निर्माण चित्तोड के महाराज राणा भत्रपति के शाशनकाल में 'खान्वजी सिकरवार' के द्वारा हुआ था।

•इतिहास• 

1524 ई में 'राव धाम देव सिंह सिकरवार' ने "खनहुआ के युद्ध" में राणा संगा (संग्राम सिंह) की बाबर के विरुद्ध मदद की,बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये।

• राव जयराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र क्रमशः थे…
1 - काम देव सिंह सिकरवार(दलपति)
2 - धाम देव सिंह सिकरवार (राणा संगा के मित्र)
3 - विराम सिंह सिकरवार

• काम देव सिंह सिकरवार जो दलखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने मध्यप्रदेश के जिला मुरैना में जाकर अपना वंश चलया।

• कामदेव सिकरवार (दलकू) सिकरवार की वंशावली •

चंबल घाटी के सिकरवार राव दलपत सिंह यानि दलखू बाबा के वंशज कहलाते हैं ...

दलखू बाबा के गॉंव इस प्रकार हैं -

सिरसैनी – स्थापना विक्रम संवत 1404
भैंसरोली – स्थापना विक्रम संवत 1465
पहाड़गढ़ – स्थापना विक्रम संवत 1503
सिहौरी - स्थापना बिवक्रम संवत 1606

इनके परगना जौरा में कुल 70 गॉंव थे , दलखू बाबा की पहली पत्नी के पुत्र रतनपाल के ग्राम बर्रेंड़ , पहाड़गढ़, चिन्नौनी, हुसैनपुर, कोल्हेरा, वालेरा, सिकरौदा, पनिहारी आदि 29 गॉंव रहे।

भैरोंदास त्रिलोकदास के सिहोरी, भैंसरोली, "खांडोली" आदि 11 गॉंव रहे।

हैबंत रूपसेन के तोर, तिलावली, पंचमपुरा बागचीनी , देवगढ़ आदि 22 गॉंव रहे।

दलखू बाबा की दूसरी पत्नी की संतानें – गोरे, भागचंद, बादल, पोहपचंद खानचंद के वंशज कोटड़ा तथा मिलौआ परगना ये सब परगना जौरा के ग्रामों में आबाद हैं , गोरे और बादल मशहूर लड़ाके रहे हैं।

राव दलपत सिंह (दलखू बाबा) के वंशजों की जागीरें – 

1. कोल्हेरा 2. बाल्हेरा 3. हुसैनपुर 4. चिन्नौनी (चिलौनी) 5. पनिहारी 6. सिकरौदा आदि रहीं।

मुरैना जिला में सिहौरी से बर्रेंड़ तक सिकरवार राजपूतों की आबादी है, आखरी गढ़ी सिहोरी की विजय सिकरवारों ने विक्रम संवत 1606 में की उसके बाद मुंगावली और आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया , इनके आखेट और युद्ध में वीरता के अनेकों वृतांत मिलते हैं।

दूसरा व्रतांत

वर्ष 1527 ई में राजपूत एवं बाबर के बीच हुए खानवा के युद्व में राजपूतों की हार हुई। युद्व में फतेहपुर-सिकरी के राजा धाम देव अपना सब कुछ गवाँ दिया । उनको कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। 

वह अपनी कुलदेवी माँ कामाँख्या देवी को याद करने लगे। माँ कामाँख्या ने उन्हे स्वप्न में आदेशित किया कि तुम काशी की तरफ प्रस्थान करो और विश्वामित्र एंव जमदिग्न में तपोभूमि में निवास करो। उनके आदेश से राजा धाम देव काशी की तरफ प्रस्थान कर दिये। 

उनके साथ उनके परिवार के सदस्य, पुरोहित सेवक इत्यादि साथ थे। वह सबके साथ आगे बढ़ते गये उस समय यहाँ चेरू-राजा शशांक का अधिपत्य था, वे काफी क्रूर थे। राजा धाम देव ने उनके साथ युद्व कर उन्हें पराजित कर दिया तथा इस स्थान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। 

सकराडीह के पास गंगा के पावन तट पर माँ कामाँख्‍या मंदिर की स्थापना कर निवास करने लगे। उस समय गंगा का बहाव माँ के धाम के पास था। अब गंगा की धारा अब मंदिर से दूर हो गयी है। संकरागढ़ को जीत कर राजा घाम देव ने इसे अपना निवास बनाया तो पुरोहितो एवं विद्वानो ने राजा घाम देव के नाम के शादिब्क अर्थ पर इस जगह का नामकरण गृहामर किया। इस प्रकार गृहामर की स्थापना हुई। मगर भाषा विकार के कारण गृहामर का नाम गहमर हुआ।

प्राचीन काल में गहमर का नाम गृहामर एवं गहवन होने का भी उल्लेख होता है। गाजीपुर गजेटियर में भी गृहामर का ही जिक्र है। कुछ लोगो का मानना है कि अंग्रेजो के भारत आगमन के बाद भाषा विकार के तहत गृहामर का नाम गहमर हो गया। गहमर के स्थापना के विषय में कुछ लोग का मानना है कि ''राजा घाम देव अपने साथीयों के साथ आगें बढ़ते चले जा रहे थे।

पर इस जगह पर काफी धना जंगल था यहाँ जब घाम देव पहुचे तो देखा कि यहाँ बिल्ली को चुहो से भगाते देखा तो उनको लगा इस जगह पर कोई दैव्य शक्ति का चमत्कार है। उन्होनें अपना डेरा यही डाल दिया और इस प्रकार गहमर की स्थापना हुई ''। इतिहास से यह बात प्रमाणित नहीं होती है कहा जाता है 1530 के पहले ही यह क्षेत्र काफी विकसित हो चुका था जिससे तथा चेरू राजा का साम्राज्य था। इस लिये जंगल होने का प्रश्न ही नहीं होता है।

-सिकरवार राजपूत और चैरासी :-

राजा धाम देव सिकरी के राजा थे और वहाँ से आकर ही गृहामर या गहमर की स्थापना किये थे। इस लिये यहाँ के रहने वाले क्षत्रिय वंश के लोग सिकरवार राजपूत कहलाने लगे। सकराडीह - वर्तमान समय में माँ कामाँख्या मंदिर के पास वन विभाग है। 

वही स्थान सकराडीह के नाम से जाना जाता है। इस स्थान के पास गंगा का बहाव था। बाढ़़ के समय चारो ओर पानी आ जाता था। यह छोटा टीला ही सुरक्षित बचता था। काफी सकरा स्थान लोगो के सुरक्षित रहने के लिये था । इस लिये इस स्थान का नाम सकराड़ीह पड़ा।

इसी टीले के नाम से यहाँ के राजपूत सिकरवार कहलाने लगें। सिकरवार वंश के लोग अहिनौरा, हथौरी, देवल, डरवन, महुआरी, विश्रामपुर, भँवतपुरा, बगाढ़ी, मुसिया, पुरबोतिमपरु, तरैथा, सूर्यपुरा, जुझारपुर, कर्मछाता, कन्हुआ, बड़ा सीझूआ, छोटा सीझूआ, चपरागढ़, नईकोट, पुरानी कोट, गोड़सरा ,गोडि़यारी, सागरपर, तुर्कवलिया, पुरैनी, सिमवार, भैरवा, सेवराई, अमौरा, पढियारी, लहना, खुदुरा, समहुता, खरहना, बकइनिया, करहिया सहित 36 गाँवो में फैल गये। जो चैरासी के नाम से जाने जाते है।

सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश

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👑जय 💪🏻राजपूताना। 🔫
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