सोमवार, 26 जुलाई 2021

चन्द्रवंशी तंवर तोमर राजपूतो का इतिहास



तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है, इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है।

क्षत्रिय वंश भास्कर, पृथ्वीराज रासो बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं।

उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शासन था, दिल्ली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।

नामकरण

तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा, पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है।

इतिहासकार ईश्वर सिंह मंडाड की राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 228 के अनुसार पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था।

नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था, पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए… अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला।

इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला… परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना, अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नौ कुल समाप्त कर दिए… 

नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे, जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे।

महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने, इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र पौत्र अदि दीक्षित हुए, क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था, इस कारण ये पांडव तुर, तोंर या बाद में तांवर, तंवर या तोमर कहलाने लगे, ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है।

(महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन)

महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है, जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया, पर इसके बाद से लेकर बौद्धकाल, मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती।

समुद्रगुप्त के शिलालेख से पाता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था।

यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं।

इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर, तूर, या तोमर के नाम से जाना गया। 
(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं।)


तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना 

ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को।

दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था, इनके छोटे राज्य पिहोवा, सूरजकुंड, हांसी, थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं, इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया।

दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई) 

1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव जाऊल इत्यादि।

2.राजा वासुदेव (754-773)3.राजा गंगदेव (773-794)

4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध

5.जयदेव (814-834)

6.राजा नरपाल (834-849)

7.राजा उदयपाल (849-875)

8.राजा आपृच्छदेव (875-897)

9.राजा पीपलराजदेव (897-919)

10.राज रघुपाल (919-940)

11.राजा तिल्हणपाल (940-961)

12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा।

13.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया।

14.जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा।

15.कुमारपाल (1021-1051) 1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हाँसी थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया।

16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया।

17.तेजपाल प्रथम(1081-1105)

18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया।

19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर।

20.मदनपाल(1151-1167)-
मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय, मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया। 

मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शौर्य से प्रभावित होकर उससे अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के पिता विजयपाल के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज के पिता सोमेशवर चौहान के साथ किया।

जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ, जबकि पृथ्वीराज चौहान तो अनंगपाल तोमर का धेवता था, विजयपाल उसका मौसा था।

21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चौहान इनके समकालीन थे।

22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया। 

पृथ्वीराज रासो के अनुसार तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था।

भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था, जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया, हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।

23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।

ग्वालियर, चम्बल, ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश

दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया, जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था, बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की। 

यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है, माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था।

यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं वीर सिंह के बाद उद्दरण, वीरम, गणपति, डूंगर सिंह, कीर्तिसिंह, कल्याणमल और राजा मानसिंह हुए।

राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए, उनकी नौ रानियाँ राजपूत थी, पर एक दीनहींन गुज्जर जाति की लडकी मृगनयनी पर मुग्ध होकर उससे भी विवाह कर लिया।

जिसे नीची जाति की मानकर रानियों ने महल में स्थान देने से मना कर दिया जिसके कारण मानसिंह ने छोटी जाति की होते हुए भी मृगनयनी गूजरी के लिए अलग से ग्वालियर में गूजरी महल बनवाया। 

इस गूजरी रानी पर राजपूत राजा मानसिंह इतने आसक्त थे कि गूजरी महल तक जाने के लिए उन्होंने एक सुरंग भी बनवाई थी जो अभी भी मौजूद है पर इसे अब बंद कर दिया गया है।

मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए, उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया, उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए, उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया।

इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए।

हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया, उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है।

मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था, यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे।

कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं, पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 ईस्वी में हमला किया। 

इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी, उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए।

बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया, कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई।

(तंवरावाटी और तंवर ठिकाने)

दिल्ली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। 

ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी ) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं मुख्य ठिकाना पाटण का ही है, एक ठिकाना खेतासर भी है इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं, बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे, जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं, आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं…

मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है।

इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी, बीकानेर में दाउदसर ठिकाना, मंढोली जागीर, भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं, धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी 18वीं सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। 

ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

(तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ…)

रुनेचा, ग्वेलेरा, बेरुआर, बिल्दारिया, खाति, इन्दोरिया, जाटू, जंघहारा, सोमवाल हैं, इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है।

इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे।

इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में, ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में, बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर, बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास, इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर, आगरा में मिलते हैं, मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है।

जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं।

जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ, बदायूं, बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं, ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है, इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।

इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं, जंजुआ वंश ही शाही वंश था, जिसमे जयपाल, आनंदपाल, जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था।

जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है।

मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ,महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था।

(तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी)

तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है।

चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं, इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं। 

भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख हैमेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं।

कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं बुलन्दशहर में 24 गाँव, खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं, हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है।

ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है, इनकी जनसँख्या का, अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये…

तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो।

(जाट, गूजर और अहीर में तोमर राजपूतो से निकले गोत्र)

कुछ तोमर राजपूत अवनत होकर या तोमर राजपूतो के दूसरी जाती की स्त्रियों से सम्बन्ध होने से तोमर वंश जाट, गूजर और अहीर जैसी जातियो में भी चला गया जाटों में कई गोत्र है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है जैसे :–

सहरावत, राठी, पिलानिया, नैन, मल्लन, बेनीवाल, लाम्बा, खटगर, खरब, ढंड, भादो, खरवाल, सोखिरा, ठेनुवा, रोनिल, सकन, बेरवाल और नारू ये लोग पहले तोमर या तंवर उपनाम नही लगाते थे लेकिन इनमे से कई गोत्र अब तोमर या तंवर लगाने लगे है। 

उत्तर प्रदेश के बड़ौत क्षेत्र के सलखलेन् जाट भी अपने को किसी सलखलेन् का वंशज बताते है जिसे ये अनंगपाल तोमर का धेवता बताते है, और इस आधार पर अपने को तोमर बताने लगे है।

गूजरो में भी तोमर राजपूतो के अवशेष मिलते है, खटाना गूजर अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है, ग्वालियर के पास तोंगर गूजर मिलते है।

जो ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर की गूजरी रानी मृगनयनी के वंशज है जिन्हें गूजरी माँ की औलाद होने के कारण राजपूतों ने स्वीकार नहीँ किया दक्षिणी दिल्ली में भी तँवर गूजरों के गाँव मिलते है। 

मुस्लिम शाशनकाल में जब तोमर राजपूत दिल्ली से निष्काषित होकर बाकी जगहों पर राज करने चले गए तो उनमे से कुछ ने गूजर में शादी ब्याह कर मुस्लिम शासकों के अधीन रहना स्वीकार किया इसके अलावा सहारनपुर में छुटकन गुर्जर भी खुद को तंवर वंश से निकला मानते हैं।

और करनाल, पानीपत, सोहना के पास भी कुछ गुज्जर इसी तरह तंवर सरनेम लिखने लगे हैं, हरयाणा के अहिरो में भी दयार गोत्र मिलती है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है दिल्ली में रवा राजपूत समाज में भी तंवर वंश शामिल हो गया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रवंशी पांडव वंश तोमर/तंवर राजपूतो का इतिहास बहुत शानदार रहा है, वर्तमान में भी तोमर राजपूत राजनीति, सेना, प्रशासन, में अपना दबदबा कायम किये हुए है।

पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह भिवानी हरियाणा के तंवर राजपूत हैं, और आज केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं मध्य प्रदेश के नरेंद्र सिंह तोमर भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं, प्रसिद्ध एथलीट और बाद में मशहूर बागी पान सिंह तोमर के बारे में सभी जानते ही हैं स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल भी तोमर राजपूत थे इनके अतिरिक्त सैंकड़ो।

राजनीतिज्ञ,प्रशासनिक अधिकारी समाजसेवी सैन्य अधिकारी,खिलाडी तंवर वंशी राजपूत हैं तोमर क्षत्रिय 
राजपूतो के बारे में कहा गया है की।

“अर्जुन के सुत सो अभिमन्यु नाम उदार…
तिन्हते उत्तम कुल भये तोमर क्षत्रिय उदार !!”

अगर मुझसे कोई लिखने में गलती हुई हो, तो आप सभी से क्षमा प्रार्थी हूं।🙏🏻

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

राजपूत कुंवर सिंह


राजपूत कुंवर सिंह (13 नवंबर 1777 - 26 अप्रैल 1858) सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही और महानायक थे, अन्याय विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे। 

इनको 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने के लिए जाना जाता है। वे राजपूत समाज से थे। वो राजपूतों की उज्जैन शाखा से थे।

वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवंबर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। 

उनके माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे।

1857 के संग्राम में बाबू कुंवर सिंह संपादित करें
1857 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पांडे की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया।

बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने अपने सेनापति मैकु सिंह एवं भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।

27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा।

जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। 

आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। 

अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। 

ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, 'उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। 

यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।'

हमारे फेसबुक पेज को फॉलो जरुर करें और अपने सभी मित्रों को पेज पर इन्वाइट जरूर करें।🙏🏻
पेज लिंक :⤵️

वीरगती :-
इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया। 

उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से गोरे पिस्सुओं का "यूनियन जैक" नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में लौटने के बाद 26 अप्रैल 1858 को इन्होंने वीरगति पाई।

🙏🏻जय माँ भवानी।⚔️
🙏🏻जय राजपूताना⚔️🚩

शनिवार, 17 जुलाई 2021

बाईसा किरण देवी


अकबर प्रतिवर्ष दिल्ली में नौ रोज़ का मेला आयोजित करवाता था....! इसमें पुरुषों का प्रवेश निषेध था....! अकबर इस मेले में महिला की वेष-भूषा में जाता था और जो महिला उसे मंत्र मुग्ध कर देती....उसे उसकी दासियाँ छल कपट से अकबर के सम्मुख ले जाती थी....!

एक दिन नौ रोज़ के मेले में महाराणा प्रताप सिंह की भतीजी, छोटे भाई महाराज शक्तिसिंह की पुत्री मेले की सजावट देखने के लिये आई....! जिनका नाम बाईसा किरण देवी था...!

जिनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज जी से हुआ था!
बाईसा किरण देवी की सुंदरता को देखकर अकबर अपने आप पर क़ाबू नहीं रख पाया....और उसने बिना सोचे समझे ही दासियों के माध्यम से धोखे से ज़नाना महल में बुला लिया....!

जैसे ही अकबर ने बाईसा किरण देवी को स्पर्श करने की कोशिश की....किरण देवी ने कमर से कटार निकाली और अकबर को ऩीचे पटक कर उसकी छाती पर पैर रखकर कटार गर्दन पर लगा दी....!

और कहा नीच....नराधम, तुझे पता नहीं मैं उन महाराणा प्रताप की भतीजी हूँ....जिनके नाम से तेरी नींद उड़ जाती है....! बोल तेरी आख़िरी इच्छा क्या है....? अकबर का ख़ून सूख गया....! कभी सोचा नहीं होगा कि सम्राट अकबर आज एक राजपूत बाईसा के चरणों में होगा....!

अकबर बोला: मुझसे पहचानने में भूल हो गई....मुझे माफ़ कर दो देवी....!
इस पर किरण देवी ने कहा: आज के बाद दिल्ली में नौ रोज़ का मेला नहीं लगेगा....!
और किसी भी नारी को परेशान नहीं करेगा....!
अकबर ने हाथ जोड़कर कहा आज के बाद कभी मेला नहीं लगेगा....!

उस दिन के बाद कभी मेला नहीं लगा....!
इस घटना का वर्णन गिरधर आसिया द्वारा रचित सगत रासो में 632 पृष्ठ संख्या पर दिया गया है।
बीकानेर संग्रहालय में लगी एक पेटिंग में भी इस घटना को एक दोहे के माध्यम से बताया गया है!

"किरण सिंहणी सी चढ़ी, उर पर खींच कटार..!
भीख मांगता प्राण की, अकबर हाथ पसार....!!"

अकबर की छाती पर पैर रखकर खड़ी वीर बाला किरन का चित्र आज भी जयपुर के संग्रहालय में सुरक्षित है।
इस तरह की‌ पोस्ट को शेअर जरूर करें और अपने महान धर्म की गौरवशाली वीरांगना ओं की कहानी को हर एक भारतीय को जरूर सुनायें…!!

👑जय⚔️मेवाड़🚩

शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

बालक पृथ्वी सिंह इतिहास


एक बार औरंगजेब के दरबार मे एक शिकारी जंगल से बहुत बडा भयानक शेर पकड कर लाया, शेर को लोहे के पिंजरे में बंद किया गया था, पिंजरे में बंद शेर बार-बार दहाड रहा था।

औरंगजेब अपने दरबार में पिंजरे में बंद भयानक शेर को देख इतराते हुए बोला “इससे बडा भयानक शेर दूसरा नही नहीं है ” औरंगजेब के दरबार में बैठे उसके गुलाम स्वरुप दरबारियो ने भी उसकी हाँ में अपनी हाँ मिलाई…

परन्तु जोधपुर के महाराजा यशवंत सिंह ने औरंगजेब की इस बात से असहमति जताते हुए कहा कि “इससे भी अधिक शक्तिशाली शेर तो हमारे पास है ” बस फिर क्या था महाराजा यशवंत सिंह की बात को सुनकर मुग़ल बादशाह औरंगजेब बड़ा क्रोधित हो उठा।

उसने यशवंत सिंह से कहा कि यदि तुम्हारे पास इस शेर से अधिक शक्तिशाली शेर है, तो अपने शेर का मुकाबला हमारे शेर से करवाओ, लेकिन तुम्हारा शेर यदि हार गया तो तुम्हारा सार काट दिया जाएगा।

महाराजा यशवंत सिंह ने औरंगजेब की चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया, अगले दिन किले में शेरों की लड़ाई का आयोजन किया गया, जिसे देखने के लिए भारी भीड़ इकट्ठी हुई औरंगजेब अपने स्थान पर एवं महाराजा यशवंत सिंह अपने बारह वर्षीय पुत्र बालक पृथ्वी सिंह के साथ अपना आसन ग्रहण किये हुए थे।

औरंगजेब ने यशवंत सिंह से प्रश्न किया “ कहाँ है तुम्हारा शेर ”  यशवंत सिंह ने औरंगजेब से कहा “ तुम निश्चिन्त रहो, मेरा शेर यहीं मौजूद है, तुम लड़ाई शुरू करवाओ “  
औरंगजेब ने शेरों की लड़ाई शुरू की जाने की घोषणा की और औरंगजेब के शेर को लोहे के पिंजरे में छोड़ दिया गया।

अब बारी थी महाराजा यशवंत सिंह के शेर की 
महाराजा यशवंत सिंह ने अपने बारह वर्षीय पुत्र बालक पृथ्वी सिंह को आदेश दिया कि आप शेर के पिंजरे में जाओ और हमारी और से औरंगजेब के शेर से युद्ध करो।

यह सब देख वहां उपस्थित सभी लोग हैरान रह गए…
अपने पिता की आज्ञा का पालन करते हुए बालक पृथ्वी सिंह पिता को प्रणाम करते हुए शेर के पिंजरे में घुस गए …

शेर ने बालक पृथ्वी सिंह की तरफ देखा उस तेजस्वी बालक की आँखो में देखते ही वह शेर पूंछ दवाकर अचानक पीछे की ओर हट गया।

यह देख किले में उपस्थित सभी लोग हैरान रह गए तब मुग़ल सैनिकों ने शेर को भाले से उकसाया, तब कहीं वह शेर बालक पृथ्वी सिंह की और लपका।

शेर को अपनी और आते देख बालक पृथ्वी सिंह पहले तो एक और हट गए बाद में उन्होंने अपनी तलवार म्यान में से खीच ली।

अपने पुत्र को तलवार खीचते देख महाराजा यशवंत सिंह जोर से चीखे “ बेटा तू ये क्या कर रहा है , शेर के पास तलवार तो है नही फिर क्या तलवार चलायेगा, ये तो धर्म युद्ध  नही है।”

हमारे फेसबुक पेज को फॉलो जरुर करें और अपने सभी मित्रों को पेज पर इन्वाइट जरूर करें।🙏🏻
पेज लिंक :⤵️

पिता की बात सुनकर बालक पृथ्वी सिंह ने तलवार फेक दी और वह शेर पर टूट पड़े , काफी संघर्ष के बाद उस वीर बालक पृथ्वी सिंह ने शेर का जबडा अपने हाथो से फाड दिया, और फिर उसके शरीर के टुकडे-टुकडे कर के फेंक दिये।

सभी लोग वीर बालक पृथ्वी सिंह  की जय जयकार करने लगे, शेर के खून से सने हुआ बालक पृथ्वी सिंह जब बाहर निकले तो राजा यशवंत सिंह जी ने दौडकर अपने पुत्र को छाती से लगा लिया।

( कहा जाता हैं कि उस दुष्ट और कपटी मुग़ल ने बालक पृथ्वी सिंह को उपहार स्वरूप् वस्त्र दिए जिनमे जहर लगा हुआ था.. उन्हें पहने के बाद बालक पृथ्वी सिंह की मृत्यु हो गयी थी...)

ऐसे थे हमारे पूर्वजों के कारनामे जो वीरता से ओतप्रोत थे।

🚩जय माँ भवानी।🙏🏻
👑जय💪🏻राजपूतताना⚔️

महाराज राजा गोविन्द्र जी

(1114 से 1154 ई.)- 

गोविंदचंद्र के पिता का नाम मदनपाल (मदन चन्द्र) और माता का नामरल्हादेवी था गहड़वाल शासक था, पिता के बाद गोविंदचंद्र उत्तराधिकारी बना गोविंदचंद्र को अश्वपति, नरपति, गजपति, राजतरायाधिपति की उपाधियाँ थी गोविंदचंद्र की चार पत्नियां थी :–

  1.- नयांअकेली देवी
  2.- गोसलल देवी
  3.- कुमार देवी
  4.- वसंता देवी

गोविंदचंद्र गहड़वाल वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था 'कृत्यकल्पतरु' का लेखक लक्ष्मीधर इसका मंत्री था।

गोविन्द चन्द्र ने अपने राज्य की सीमा को उत्तर प्रदेश से आगे मगध तक विस्तृत करके मालवा को भी जीत लिया था, उसके विशाल राज्य की राजधानी कन्नौज थी।

1104 से 1114 ई. तक तथा उसके बाद राजा के रूप में 1154 ई. तक एक विशाल राज्य पर शासन किया, जिसमें आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार का अधिकांश भाग शामिल था। 

उसने अपनी राजधानी कन्नौज का पूर्व गौरव कुछ सीमा तक पुन: स्थापित किया, गोविन्द चन्द्र का पौत्र राजा जयचन्द्र (जो जयचन्द के नाम से विख्यात हुआ है।) जिसकी सुन्दर पुत्री संयोगिता को अजमेर का चौहान राजा पृथ्वीराज अपहृत कर ले गया था।

इस कांड से दोनों राजाओं में इतनी अधिक शत्रुता पैदा हो गई, कि जब तुर्कों ने पृथ्वीराज पर हमला किया, उस समय जयचन्द ने उसकी किसी भी प्रकार से सहायता नहीं की। 

1192 ई. में तराइन (तरावड़ी) के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज पराजित हुआ और उसने स्वयं का प्राणांत कर लिया, दो वर्ष बाद सन 1194 ई. में चन्दावर के युद्ध में तुर्क विजेता शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने जयचन्द को भी हराया और मार डाला तुर्कों ने उसकी राजधानी कन्नौज को खूब लूटा और नष्ट-भ्रष्ट कर दिया उसके साथ ही गहड़वाल वंश का अंत हो गया।

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

कटोच वंश के गोत्र, कुलदेवी आदि।


गोत्र - अत्री
ऋषि - कश्यप 
देवी - ज्वालामुखी देवी
वंश - चन्द्रवंश,भुमिवंश 
गद्दी एवं राज्य - मुल्तान, जालन्धर, नगरकोट, कांगड़ा, गुलेर, जसवान, सीबा, दातारपुर, लम्बा आदि।
शाखाएँ - जसवाल, गुलेरिया, सबैया, डढवाल, धलोच आदि।
उपाधि - मिया 
वर्तमान निवास - हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, पंजाब आदि।

कटोच वंश का परिचय

सेपेल ग्रिफिन के अनुसार कटोच राजपूत वंश विश्व का सबसे पुराना राजवंश है। कटोच चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते है कटोच राजघराना एवं राजपूत वंश महाभारत काल से भी पहले से उत्तर भारत के हिमाचल व पंजाब के इलाके में राज कर रहा है, महाभारत काल में कटोच राज्य को त्रिगर्त राज्य के नाम से जाना जाता था और आज के कटोच राजवंशी त्रिगर्त राजवंश के ही उत्तराधिकारी है कल्हण कि राजतरंगनी में त्रिगर्त राज्य का जिक्र है, कल्हण के अनुसार कटोच वंश के राजा इन्दुचंद कि दो राजकुमारियों का विवाह कश्मीर के राजा अनन्तदेव (१०३०-१०४०) के साथ हुआ था।

पृथ्वीराज रासो में इस वंश का नाम कारटपाल मिलता है,
अबुल फजल ने भी नगरकोट राज्य,कांगड़ा दुर्ग एवं ज्वालामुखी मन्दिर का जिक्र किया है, यूरोपियन यात्री विलियम फिंच ने 1611 में अपनी यात्रा में कांगड़ा का जिक्र किया था, डा व्युलर लिखता है की कांगड़ा राज्य का एक नाम सुशर्मापुर था जो कटोच वंश को प्राचीन त्रिगर्त वंश के शासक सुशर्माचन्द का वंशज सिद्ध करता है त्रिगर्त राज्य की सीमाएँ एक समय पूर्वी पाकिस्तान से लेकर उत्तर में लद्दाख तथा पूरे हिमाचल प्रदेश में फैलि हुईं थी त्रिगर्त राज्य का जिक्र रामायण एवं महाभारत में भी भली भांति मिलता है कटोच राजा सुशर्माचन्द्र ने दुर्योधन का साथ देते हुए पांडवों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था सुशर्माचन्द्र का अर्जुन से युद्ध का जिक्र भी महाभारत में मिलता है त्रिगर्त राज्य की मत्स्य और विराट राज्य के साथ शत्रुता का जिक्र महाभारत में उल्लेखित है कटोच वंश का जिक्र सिकंदर के युद्ध रिकार्ड्स में भी जाता है इस वंश ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय उससे युद्ध छेड़ा और काँगड़ा राज्य को बचाने में सक्षम रहे ब्रह्म पूराण के अनुसार कटोच वंश के मूल पुरुष राजा भूमि चन्द्र माने जाते है, इस कारण इस वंश को भुमिवंश भी कहा जाता है. इन्होने जालन्धर असुर को नष्ट किया था जिस कारण देवी ने प्रसन्न होकर इन्हें जालन्धर असुर का राज्य त्रिगर्त राज्य दिया था,इस वंश का राज्य पहले मुल्तान में था, बाद में जालन्धर में इनका शासन हुआ,जालन्धर और त्रिगर्त पर्यायवाची शब्द है भुमिचंद ने सन ४३०० ईसा पूर्व में कटोच वंश एवं त्रिगर्त राज्य की स्थापना की यह वंश कितना पुराना इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है के महाभारत कल के राजा सुशर्माचंद राजा भूमिचन्द्र के २३४ वीं पीढ़ी में पैदा हुए 
इस प्राचीन चंद्रवंशी राजवंश ने सदियों से विदेशी, देशी हमलावरों का वीरतापूर्वक सामना किया है,
हिमाचल प्रदेश का मसहूर काँगड़ा किला भी कटोच वंश के क्षत्रियों की धरोहर है कटोच वंश के बारे में काँगड़ा किले में बने महाराजा संसारचन्द्र संग्रहालय से बहूत कुछ जाना जा सकता है।

कटोच वंश के वर्तमान टिकाई मुखिया और राजपरिवार

राजा श्री आदित्य देव चन्द्र कटोच , कटोच वंश के ४८८ वे राजा और काँगड़ा राजपरिवार के मुखिया एवं लम्बा गाँव के जागीरदार है यह पदवी इन्हे सं १९८८ से प्राप्त है ४ दिसंबर १९६८ में इनकी शादी जोधपुर राजघराने की चंद्रेश कुमारी से हुई इनके पुत्र टिक्का ऐश्वर्या चन्द्र कटोच कटोच वंश के भावी मुखिया है काँगड़ा राजघराने ने सन १८०० के आस पास से ही अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का युद्ध छेड़ दिया था संघर्ष काफी समय तक चला जिसमे इस परिवार को काँगड़ा गंवाना पड़ा आख़िरकार सं १८१० में दोनों पक्षों के बीच संधि हुई और काँगड़ा राजपरिवार को लम्बा गांव की जागीर मिली तत्पश्चात काँगड़ा राजपरिवार और कटोच राजपूतो के राजगद्दी लम्बा गॉव के जागीरदार के मानी जाती है।

कटोच वंश की शाखाएँ -

कटोच वंश की चार मुख्य शाखाएँ है :-

1. जसवाल : ११७० ईस्वीं में जसवान का राज्य स्थापित होने के बाद यह शाख अलग हुई 

2. गुलेरिया : १४०५ ईस्वीं में कटोचों के गुलेर राज्य स्थापित होने के बाद कटोच से यह शाखा अलग हुई 

3. सबैया : १४५० ईस्वी के दौरान गुलेर से सिबा राज्य अलग होने के बाद सिबा के गुलेर सबैया कटोच कहलाए।

4. डढ़वाल : १५५० में इस शाखा ने दातारपुर राज्य की स्थापना की, इस शाखा का नाम डढा नामक स्थान पर बसावट के कारन पड़ा 

कटोच वंश की अन्य शाखाए धलोच, गागलिया, गदोहिया, जडोत, गदोहिया आदि भी है ।

कटोच वंश की संछिप्त वंशावली और तत्कालीन समय का जुड़ा हुआ इतिहास


1. 7800 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख राजनका (राजपूत का प्रयायवाची शब्द) भूमि चन्द्र से इस वंश की शुरुआत हुई जिन्होंने त्रिगर्त राज्य जालन्धर असुर को मारकर प्राप्त किया, मुल्तान (मूलस्थान) इन्ही का राज्य था।

2. 7800 - 4000 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख त्रिगर्त राजवंश यानी मूल कटोच वंशियों ने श्री राम के खिलाफ युद्ध लड़ा। (रामायण में उल्लेखित)

3. 4000 - 1500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख त्रिगता नरेश शुशर्माचंद ने काँगड़ा किले की स्थापना की और पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ा।
(महाभारत में उल्लेखित)

4. 900 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख कटोच राजाओं ने ईरानी व असीरिआई आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध लड़ा और पंजाब की रक्षा की।

5. 500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख राजनका परमानन्द चन्द्र ने सिकंदर के खिलाफ युद्ध लड़ा।

6. 275 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख कटोच राजाओं ने अशोक महान के खिलाफ युद्ध लड़े और मुल्तान हार गए।

7. 100 AD काँगड़ा राजघराने ने कन्नौज के खिलाफ बहुत सारे युद्ध लड़े।

8. 470 AD काँगड़ा के राजाओं ने हिमालय पर प्रभुत्व ज़माने के लिए कश्मीर के राजाओं के साथ कई युद्ध किए।

9. 643 AD Hsuan Tsang ने कांगड़ा राज्य का दौरा किया उस समय इस राज्य को जालंधर के नाम से जाना जाने लगा था।

10. 853 AD राजनका पृथ्वी चन्द्र का राज्य अभिषेक हुआ।

11. 1009 AD महमूद ग़ज़नी ने सन 1009 में काँगड़ा (भीमनगर) पर आक्रमण किया इस हमले के समय जगदीशचन्द्र यहाँ के राजा थे।

हमारे फेसबुक पेज को फॉलो जरुर करें और अपने सभी मित्रों को पेज पर इन्वाइट जरूर करें।🙏🏻
पेज लिंक :⤵️

12. 1170 AD काँगड़ा राज्य जस्वान और काँगड़ा दो भागों में विभाजित हुआ राजा पूरब चन्द्र कटोच से जस्वान राज्य पर गद्दी जमाई और कटोच वंश में जसवाल शाखा की शुरुआत हुई। कटोच और मुहम्मद घोरी के बीच में युद्ध छिड़ा जिसमे (१२२० AD) कटोच जालंधर हार गए।

13. 1341 AD राजनका रुपचंद्र की अगुवाई में कटोचों के दिल्ली तक के इलाके पर हमला किया और लूटा तुग़लक़ों ने डर और सम्मान में इन्हे मियां की उपाधि दी कटोचों ने तैमूर के खिलाफ भी युद्ध लड़ा।

14. 1405 AD काँगड़ा राज्य फिर से दो भागों में बटा और गुलेर राज्य की स्थापना हुई गुलेर राज्य के कटोच आज के गुलेरिआ राजपूत कहलाए।

15. 1450 AD गुलेर राज्य भी दो भागों में बट गया और नए सिबा राज्य की स्थापना हुई सिबा राज्य के कटोच सिबिया राजपूत कहलाए।

16. 1526 - 1556 AD
शेरशाह सूरी ने हमला किया पर उसकी पराजय हुई उसके बाद अकबर ने काँगड़ा पर हमला किया जिसमे कटोच वंश कि हार हुई, कटोच राजा ने अकबर को संधि का न्योता भेजा जिसे अकबर ने स्वीकारा बाद में मुग़लों ने काँगड़ा किले पर ५२ बार हमला किया पर हर बार उन्हें मूह की खानी पड़ी इसके बाद जहाँगीर ने भी हमला किया।

17. 1620 AD जहांगीर और शाहजहाँ के समय मुग़लों का काँगड़ा किले पर कब्ज़ा हुआ।

18. 1700 AD महाराजा भीम चन्द्र ने ओरंगजेब कि हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण गुरु गोविन्द सिंह जी के साथ औरंगज़ेब के खिलाफ युद्ध किया गुरु गोविन्द सिंह जी ने उन्हें धरम रक्षक की उपाधि दी पंजाब में आज भी इनकी बहादुरी के गीत गाये जाते हैं।

19. 1750 AD महाराजा घमंडचन्द्र को अहमदशाह अब्दाली द्वारा जालंधर और ११ पहाड़ी राज्यों का निज़ाम बनाया गया।

20. 1775 AD to 1820 AD काँगड़ा राज्य के लिए यह स्वर्णिम युग कहा जाता है राजा संसारचन्द्र द्वितीय की छत्र छाँव में राज्य खुशहाली से भरा।

21. 1820 AD काँगड़ा राज्य के पतन का समय : गोरखों ने कांगड़ा राज्य पर हमला किया, राजा संसारचंद ने सिख राजा रणजीत सिंह से मदद मांगी मगर मदद के बदले महाराजा रणजीत सिंह की सिख सेना ने काँगड़ा और सीबा के किलों पर कब्ज़ा कर लिया सीबा का किला राजा राम सिंह ने सिखों की सेना को हरा कर दुबारा जीत लिया सिखों के दुर्व्यवहार ने महाराजा संसारचंद को बहुत आहत किया।

22. 1820 - 1846 AD
सिखों ने काँगड़ा को अंग्रेजो ( ईस्ट इंडिया कंपनी को ) सौंप दिया कटोच राजाओ ने कांगड़ा की आजादी की जंग छेडी यह आजादी के लिए प्रथम युद्धों और संघर्षों में से था राजा प्रमोद चन्द्र के नेतृत्व में लड़ी गयी यह जंग कटोच हार गए राजा प्रमोद चन्द्र को अल्मोड़ा जेल में बंधी बना कर रखा गया। वहां उनकी मृत्यु हो गई।

23. 1924 AD महाराजा जय चन्द्र काँगड़ा - लम्बा गाँव को महराजा की उपाधि से नवाजा गया और ११ बंदूकों की सलामी उन्हें दी जाने लगी।

24. 1947 AD महाराजा ध्रुव देव चन्द्र ने काँगड़ा को भारत में मिलाने की अनुमति दी।

कांगड़ा का किला

कांगड़ा का दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है, ये दुर्ग इतना विशाल और मजबूत था की इसे देवकृत माना जाता था, इसे नगरकोट अथवा भीमनगर का दुर्ग भी कहा जाता था, कटोच राजवंश के पूर्वज सुशर्माचंद द्वारा निर्मित इस दुर्ग पर पहला हमला महमूद गजनवी ने किया, इसके बाद गौरी, तैमूर, शेरशाह सूरी, अकबर, शाहजहाँ, गोरखों, सिखों ने भी हमला किया,सदियों तक यह महान दुर्ग अपने ऐश्वर्य, आक्रमण, विनाश के बीच झूलता रहा, यह दुर्ग प्राचीन चन्द्रवंशी कटोच राजपूतों के गौरवशाली इतिहास कि गवाही देता है, कांगड़ा का अजेय दुर्ग जिसे दुश्मन कि तोपें भी न तोड़ सकी वो सन 1905 में आये भयानक भूकम्प में धराशाई हो गया, मगर इसके खंडर आज भी चंद्रवंशी कटोच राजवंश के गौरवशाली अतीत कि याद दिलाते हैं।

बुधवार, 14 जुलाई 2021

सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश का संक्षिप्त परिचय

सिकरवार' शब्द राजस्थान के 'सिकार' (Sikar) जिले से बना है।
यह जिला सिकरवार राजपूतों ने ही स्थापित किया था।
इसके बाद इन्होने 823 ई में "विजयपुर सीकरी" की स्थापना की, बाद में खानवा के युद्ध में जीतने के बाद 1524 ई में बाबर ने "फतेहपुर सीकरी" नाम रख दिया।
इस शहर का निर्माण चित्तोड के महाराज राणा भत्रपति के शाशनकाल में 'खान्वजी सिकरवार' के द्वारा हुआ था।

•इतिहास• 

1524 ई में 'राव धाम देव सिंह सिकरवार' ने "खनहुआ के युद्ध" में राणा संगा (संग्राम सिंह) की बाबर के विरुद्ध मदद की,बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये।

• राव जयराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र क्रमशः थे…
1 - काम देव सिंह सिकरवार(दलपति)
2 - धाम देव सिंह सिकरवार (राणा संगा के मित्र)
3 - विराम सिंह सिकरवार

• काम देव सिंह सिकरवार जो दलखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने मध्यप्रदेश के जिला मुरैना में जाकर अपना वंश चलया।

• कामदेव सिकरवार (दलकू) सिकरवार की वंशावली •

चंबल घाटी के सिकरवार राव दलपत सिंह यानि दलखू बाबा के वंशज कहलाते हैं ...

दलखू बाबा के गॉंव इस प्रकार हैं -

सिरसैनी – स्थापना विक्रम संवत 1404
भैंसरोली – स्थापना विक्रम संवत 1465
पहाड़गढ़ – स्थापना विक्रम संवत 1503
सिहौरी - स्थापना बिवक्रम संवत 1606

इनके परगना जौरा में कुल 70 गॉंव थे , दलखू बाबा की पहली पत्नी के पुत्र रतनपाल के ग्राम बर्रेंड़ , पहाड़गढ़, चिन्नौनी, हुसैनपुर, कोल्हेरा, वालेरा, सिकरौदा, पनिहारी आदि 29 गॉंव रहे।

भैरोंदास त्रिलोकदास के सिहोरी, भैंसरोली, "खांडोली" आदि 11 गॉंव रहे।

हैबंत रूपसेन के तोर, तिलावली, पंचमपुरा बागचीनी , देवगढ़ आदि 22 गॉंव रहे।

दलखू बाबा की दूसरी पत्नी की संतानें – गोरे, भागचंद, बादल, पोहपचंद खानचंद के वंशज कोटड़ा तथा मिलौआ परगना ये सब परगना जौरा के ग्रामों में आबाद हैं , गोरे और बादल मशहूर लड़ाके रहे हैं।

राव दलपत सिंह (दलखू बाबा) के वंशजों की जागीरें – 

1. कोल्हेरा 2. बाल्हेरा 3. हुसैनपुर 4. चिन्नौनी (चिलौनी) 5. पनिहारी 6. सिकरौदा आदि रहीं।

मुरैना जिला में सिहौरी से बर्रेंड़ तक सिकरवार राजपूतों की आबादी है, आखरी गढ़ी सिहोरी की विजय सिकरवारों ने विक्रम संवत 1606 में की उसके बाद मुंगावली और आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया , इनके आखेट और युद्ध में वीरता के अनेकों वृतांत मिलते हैं।

दूसरा व्रतांत

वर्ष 1527 ई में राजपूत एवं बाबर के बीच हुए खानवा के युद्व में राजपूतों की हार हुई। युद्व में फतेहपुर-सिकरी के राजा धाम देव अपना सब कुछ गवाँ दिया । उनको कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। 

वह अपनी कुलदेवी माँ कामाँख्या देवी को याद करने लगे। माँ कामाँख्या ने उन्हे स्वप्न में आदेशित किया कि तुम काशी की तरफ प्रस्थान करो और विश्वामित्र एंव जमदिग्न में तपोभूमि में निवास करो। उनके आदेश से राजा धाम देव काशी की तरफ प्रस्थान कर दिये। 

उनके साथ उनके परिवार के सदस्य, पुरोहित सेवक इत्यादि साथ थे। वह सबके साथ आगे बढ़ते गये उस समय यहाँ चेरू-राजा शशांक का अधिपत्य था, वे काफी क्रूर थे। राजा धाम देव ने उनके साथ युद्व कर उन्हें पराजित कर दिया तथा इस स्थान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। 

सकराडीह के पास गंगा के पावन तट पर माँ कामाँख्‍या मंदिर की स्थापना कर निवास करने लगे। उस समय गंगा का बहाव माँ के धाम के पास था। अब गंगा की धारा अब मंदिर से दूर हो गयी है। संकरागढ़ को जीत कर राजा घाम देव ने इसे अपना निवास बनाया तो पुरोहितो एवं विद्वानो ने राजा घाम देव के नाम के शादिब्क अर्थ पर इस जगह का नामकरण गृहामर किया। इस प्रकार गृहामर की स्थापना हुई। मगर भाषा विकार के कारण गृहामर का नाम गहमर हुआ।

प्राचीन काल में गहमर का नाम गृहामर एवं गहवन होने का भी उल्लेख होता है। गाजीपुर गजेटियर में भी गृहामर का ही जिक्र है। कुछ लोगो का मानना है कि अंग्रेजो के भारत आगमन के बाद भाषा विकार के तहत गृहामर का नाम गहमर हो गया। गहमर के स्थापना के विषय में कुछ लोग का मानना है कि ''राजा घाम देव अपने साथीयों के साथ आगें बढ़ते चले जा रहे थे।

पर इस जगह पर काफी धना जंगल था यहाँ जब घाम देव पहुचे तो देखा कि यहाँ बिल्ली को चुहो से भगाते देखा तो उनको लगा इस जगह पर कोई दैव्य शक्ति का चमत्कार है। उन्होनें अपना डेरा यही डाल दिया और इस प्रकार गहमर की स्थापना हुई ''। इतिहास से यह बात प्रमाणित नहीं होती है कहा जाता है 1530 के पहले ही यह क्षेत्र काफी विकसित हो चुका था जिससे तथा चेरू राजा का साम्राज्य था। इस लिये जंगल होने का प्रश्न ही नहीं होता है।

-सिकरवार राजपूत और चैरासी :-

राजा धाम देव सिकरी के राजा थे और वहाँ से आकर ही गृहामर या गहमर की स्थापना किये थे। इस लिये यहाँ के रहने वाले क्षत्रिय वंश के लोग सिकरवार राजपूत कहलाने लगे। सकराडीह - वर्तमान समय में माँ कामाँख्या मंदिर के पास वन विभाग है। 

वही स्थान सकराडीह के नाम से जाना जाता है। इस स्थान के पास गंगा का बहाव था। बाढ़़ के समय चारो ओर पानी आ जाता था। यह छोटा टीला ही सुरक्षित बचता था। काफी सकरा स्थान लोगो के सुरक्षित रहने के लिये था । इस लिये इस स्थान का नाम सकराड़ीह पड़ा।

इसी टीले के नाम से यहाँ के राजपूत सिकरवार कहलाने लगें। सिकरवार वंश के लोग अहिनौरा, हथौरी, देवल, डरवन, महुआरी, विश्रामपुर, भँवतपुरा, बगाढ़ी, मुसिया, पुरबोतिमपरु, तरैथा, सूर्यपुरा, जुझारपुर, कर्मछाता, कन्हुआ, बड़ा सीझूआ, छोटा सीझूआ, चपरागढ़, नईकोट, पुरानी कोट, गोड़सरा ,गोडि़यारी, सागरपर, तुर्कवलिया, पुरैनी, सिमवार, भैरवा, सेवराई, अमौरा, पढियारी, लहना, खुदुरा, समहुता, खरहना, बकइनिया, करहिया सहित 36 गाँवो में फैल गये। जो चैरासी के नाम से जाने जाते है।

सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश

शनिवार, 10 जुलाई 2021

गौरवशाली इतिहास के कुछ स्वर्णाक्षर (रोहिला क्षत्रिय)

1. भारत वर्ष का क्षेत्रफल 42,02,500 वर्ग किमी था।

2. रोहिला साम्राज्य 25 ,000  वर्ग किमी 10,000  वर्गमील में फैला हुआ था।

3. रोहिला, राजपूतो का एक गोत्र, कबीला (परिवार) या परिजन-समूह है जो कठेहर-रोहिलखण्ड के शासक एंव संस्थापक थे मध्यकालीन भारत में बहुत से राजपूत लडाको को रोहिला की उपाधि से विभूषित किया गया उनके वंशज आज भी रोहिला परिवारों में पाए जाते हैं।

4. रोहिले-राजपूत प्राचीन काल से ही सीमा - प्रांत, मध्य देश (गंगा- यमुना का दोआब), पंजाब, काश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में शासन करते रहे हैं जबकि मुस्लिम-रोहिला साम्राज्य अठारहवी शताब्दी में इस्लामिक दबाव के पश्चात् स्थापित हुआ मुसलमानों ने इसे उर्दू में "रूहेलखण्ड" कहा।

5. 1702 से 1720 ई तक रोहिलखण्ड में रोहिले राजपूतो का शासन था जिसकी राजधानी बरेली थी।

6. रोहिले राजपूतो के महान शासक "राजा इन्द्रगिरी" ने रोहिलखण्ड की पश्चिमी सीमा पर सहारनपुर में एक किला बनवाया जिसे "प्राचीन रोहिला किला" कहा जाता है सन 1801 ई में रोहिलखण्ड को अंग्रेजो ने अपने अधिकार में ले लिया था, हिन्दू रोहिले-राजपुत्रो द्वारा बनवाए गये इस प्राचीन रोहिला किला को 1806 से 1857 के मध्य कारागार में परिवर्तित कर दिया गया था इसी प्राचीन-रोहिला-किला में आज सहारनपुर की जिला-कारागार है।

7. "सहारन" राजपूतो का एक गोत्र है जो रोहिले राजपूतो में पाया जाता है यह सूर्य वंश की एक प्रशाखा है जो राजा भरत के पुत्र तक्षक के वंशधरो से प्रचालित हुई थी।

8.फिरोज तुगलक के आक्रमण के समय "थानेसर" (वर्तमान में हरियाणा में स्थित) का राजा "सहारन" ही  था।

9. दिल्ली में गुलाम वंश के समय रोहिलखण्ड की राजधानी "रामपुर" में राजा रणवीर सिंह कठेहरिया (काठी कोम, निकुम्भ वंश, सूर्यवंश रावी नदी के काठे से विस्थापित कठगणों के वंशधर) का शासन था इसी रोहिले राजा रणवीर सिंह ने तुगलक के सेनापति नसीरुद्दीन चंगेज को हराया था 'खंड' क्षत्रिय राजाओं से सम्बंधित है, जैसे भरतखंड, बुंदेलखंड, विन्धयेलखंड  , रोहिलखंड, कुमायुखंड, उत्तराखंड आदि।

10. प्राचीन भारत  की केवल दो भाषाएँ संस्कृत व प्राकृत (सरलीकृत संस्कृत) थी रोहिल प्राकृत और खंड संस्कृत के शब्द हैं जो क्षत्रिय राजाओं के प्रमाण हैं इस्लामिक नाम है दोलताबाद, कुतुबाबाद, मुरादाबाद, जलालाबाद, हैदराबाद, मुबारकबाद, फैजाबाद, आदि 

11. रोहिले राजपूतो की उपस्तिथि के प्रमाण हैं योधेय गणराज्य के सिक्के, गुजरात का (1445 वि) ' का शिलालेख (रोहिला मालदेव के सम्बन्ध में), मध्यप्रदेश में स्थित रोहिलखंड रामपुर में राजा रणवीर सिंह के किले के खंडहर, रानी तारादेवी सती का मंदिर, पीलीभीत में राठौर रोहिलो (महिचा-प्रशाखा) की सतियों के सतियों के मंदिर, सहारनपुर का प्राचीन रोहिला किला, मंडोर का शिलालेख, " बड़ौत  में स्तिथ " राजा रणवीर सिंह रोहिला मार्ग "

नगरे नगरे ग्रामै ग्रामै विलसन्तु संस्कृतवाणी…
सदने-सदने जन-जन बदने,जयतु चिरं कल्याणी।

12. जोधपुर का शिलालेख, प्रतिहार शासक हरीशचंद्र को मिली रोहिल्लाद्व्यंक की उपाधि, कई अन्य।

13. राजपूतो के वंशो को प्राप्त उपाधियाँ, 'पृथ्वीराज रासो', आल्हाखण्ड-काव्यव, सभी राजपूत वंशो में पाए जाने वाले प्रमुख गोत्र।

14. अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा भारत द्वारा प्रकाशित पावन ग्रन्थ क्षत्रिय वंशाणर्व (रोहिले क्षत्रियों का राज्य रोहिलखण्ड  का पूर्व नाम पांचाल व मध्यप्रदेश)

15. वर्तमान में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा से अखिल भारतीय रो. क्ष. वि. परिषद को संबद्धता प्राप्त होना, वर्तमान में भी रोहिलखण्ड (संस्कृत भाषा में)

16. क्षेत्र का नाम यथावत बने रहना, अंग्रेजो द्वारा भी उत्तर रेलवे को "रोहिलखण्ड-रेलवे" का नाम देना जो बरेली से देहरादून तक सहारनपुर होते हुए जाती थी।

17. वर्तमान में लाखो की संख्या में पाए जाने वाले रोहिला-राजपूत, रोहिले-राजपूतों के सम्पूर्ण भारत में फैले हुए कई अन्य संगठन अखिल भारतीय स्तर पर 'राजपूत रत्न' रोहिला शिरोमणि डा. कर्णवीर सिंह द्वारा संगठित एक अखिल भारतीय रोहिला क्षत्रिय विकास परिषद (सम्बद्ध अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा) पंजीकरण संख्या - 545, आदि।

18. पानीपत की तीसरी लड़ाई (रोहिला वार) में रोहिले राजपूत - राजा गंगासहाय राठौर (महेचा) के नेतृत्व में मराठों की ओर से अफगान आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली व रोहिला पठान नजीबदौला के विरुद्ध लड़े व वीरगति पाई इस मराठा युद्ध में लगभग एक हजार चार सौ रोहिले राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए (1761-1774 ई) (इतिहास-रोहिला-राजपूत)

19. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में भी रोहिले राजपूतों ने अपना योगदान दिया, ग्वालियर के किले में रानी लक्ष्मीबाई को हजारों की संख्या में रोहिले राजपूत मिले, इस महायज्ञ में स्त्री पुरुष सभी ने अपने गहने धन आदि एकत्र कर झाँसी की रानी के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सम्राट बहादुरशाह-जफर तक पहुँचाए अंग्रेजों ने ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें काट डाला जिससे रोहिले राजपूतों ने अज्ञातवास की शरण ली।

20. राजपूतों की हार के प्रमुख कारण थे हाथियों का प्रयोग, सामंत प्रणाली व आपसी मतभेद, ऊँचे व भागीदार कुल का भेदभाव (छोटे व बड़े की भावना) आदि।

21. सम्वत 825 में बप्पा रावल चित्तौड़ से विधर्मियों को खदेड़ता हुआ ईरान तक गया बप्पा रावल से समर सिंह तक 400 वर्ष होते हैं, गह्लौतों का ही  शासन रहा इनकी 24 शाखाएँ हैं जिनके 16 गोत्र (बप्पा रावल के वंशधर) रोहिले राजपूतों में पाए जाते हैं।

22. चितौड़ के राणा समर सिंह (1193 ई) की रानी पटना की राजकुमारी थी इसने 9 राजा, 1 रावत और कुछ रोहिले साथ लेकर मौ. गोरी के गुलाम कुतुबद्दीन का आक्रमण रोका और उसे ऐसी पराजय दी कि कभी उसने चितौड़ की ओर नही देखा।

23. रोहिला शब्द क्षेत्रजनित, गुणजनित व 'मूल पुरुष' नाम - जनित है यह गोत्र जाटों में भी रूहेला, रोहेला, रूलिया, रूहेल, रूहिल, रूहिलान नामों से पाया जाता है।

24. रूहेला गोत्र जाटों में राजस्थान व उ. प्र. में पाया जाता है रोहेला गोत्र के जाट जयपुर में बजरंग बिहार और ईनकम टैक्स कालोनी टौंक रोड में विद्यमान है।

झुनझुन, सीकर, चुरू, अलवर, बाडमेर में भी रोहिला गोत्र के जाट विद्यमान हैं, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रोहेला गोत्र के जाटों के बारह गाँव हैं महाराष्ट्र में रूहिलान गोत्र के जाट वर्धा में केसर व खेड़ा गाँव में विद्यमान हैं। 

25. मुगल सम्राट अकबर ने भी राजपूत राजाओं को विजय प्राप्त करने के पश्चात् रोहिला-उपाधि से विभूषित किया था, जैसे राव, रावत, महारावल, राणा, महाराणा, रोहिल्ला, रहकवाल आदि।

हमारे फेसबुक पेज को फॉलो जरुर करें और अपने सभी मित्रों को पेज पर इन्वाइट जरूर करें।🙏🏻
पेज लिंक :⤵️

26."रोहिला-राजपूत" समाज, क्षत्रियों का वह परिवार है जो सरल ह्रदयी, परिश्रमी, राष्ट्रप्रेमी, स्वधर्मपरायण, स्वाभिमानी व वर्तमान में अधिकांश अज्ञातवास के कारण साधनविहीन है। 40 प्रतिशत कृषि कार्य से, 30 प्रतिशत श्रम के सहारे व 30 प्रतिशत व्यापार व लघु उद्योगों के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं।

इनके पूर्वजो ने हजारों वर्षों तक अपनी आन, मान, मर्यादा की रक्षा के लिए बलिदान दिए हैं और अनेको आक्रान्ताओं को रोके रखने में अपना सर्वस्व मिटाया है।

गणराज्य व लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को सजीव बनाये रखने की भावना के कारण वंश परंपरा के विरुद्ध रहे, करद राज्यों में भी स्वतंत्रता बनाये रखी कठेहर रोहिलखण्ड की स्थापना से लेकर सल्तनत काल की उथल पुथल, मार काट, दमन चक्र तक लगभग आठ सौ वर्ष के शासन काल के पश्चात् 1857 के ग़दर के समय तक रोहिले राजपूतों ने राष्ट्रहित में बलिदान दिये हैं।

क्रूर काल के झंझावालों से संघर्ष करते हुए क्षत्रियों का यह 'रोहिला परिवार' बिखर गया है, इस समाज की पहचान के लिए भी आज स्पष्टीकरण देना पड़ता है।

कैसा दुर्भाग्य है यह क्षत्रिय वर्ग का जो अपनी पहचान को भी टटोलना पड़ रहा है, परन्तु समय के चक्र में सब कुछ सुरक्षित है, इतिहास के दर्पण में थिरकते चित्र, बोलते हैं, अतीत झाँकता है, सच सोचता है कि उसके होने के प्रमाण धुंधले-धुंधले से क्यों हैं हे- क्षत्रिय तुम धन्य हो, पहचानो अपने प्रतिबिम्बों को' -

"क्षत्रिय एकता का बिगुल फूँक…
  सब धुंधला धुंधला छंटने दो…

  हो अखंड भारत के राजपुत्र…
  खण्ड खण्ड में न सबको बंटने दो।"

🙏🏻जय श्री राम।🙏🏻
🙏🏻जय राजपूताना।🙏🏻

बुधवार, 7 जुलाई 2021

चंदेल शासक विद्याधर का इतिहास

चंदेल शासक गंड के बाद उसका पुत्र विद्याधर ( 1019 - 1029 ईस्वी ) शासक बना वह चंदेल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। 
उसके शासन काल की घटनाओं का उल्लेख हमें तत्कालीन लेखों तथा मुसलमान लेखों के विवरण से मिलता है।


मुसलमान लेखक विद्याधर का नंद तथा विदा नाम से भी उल्लेख करते हैं…

इब्न उल अतहर लिखता है, कि उसके पास सबसे बङी सेना थी तथा उसके देश का नाम खजुराहो था…

विद्याधर के राजा बनते ही महमूद गजनवी के नेतृत्व में तुर्कों के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण तेज हो गये, किन्तु वीर चंदेल शासक विद्याधर तुर्कों से नहीं डरा और तुर्कों का बङी वीरता से सामना किया।

भारत पर तुर्क आक्रमणः महमूद गजनवी

1019 ईस्वी में महमूद ने कन्नौज के प्रतिहार शासक राज्यपाल के ऊपर आक्रमण किया राज्यपाल ने डरकर बिना युद्ध किये ही आत्मसमर्पण कर दिया।

जब विद्याधर को इस घटना का पता चला तो वह अत्यंत क्रुद्ध हुआ तथा उसने राज्यपाल को दंडित करने का निश्चय किया मुस्लिम लेखक इब्न-उल-अतहर बताता है, कि विद्याधर ने कन्नौज पर आक्रमण किया तथा एक दीर्घकालीन युद्ध के बाद वहाँ के राजा राज्यपाल की इस कारण हत्या कर दी थी…

हमारे फेसबुक पेज को फॉलो जरुर करें और अपने सभी मित्रों को पेज पर इन्वाइट जरूर करें।🙏🏻
पेज लिंक :⤵️

कि वह मुसलमानों के विरुद्ध भाग खङा हुआ तथा अपना, राज्य उन्हें समर्पित कर दिया था, इस विवरण की पुष्टि अभिलेखों से भी होती है, ग्वालियर के कछवाहा नरेश चंदेलों के सामंत थे इस वंश के विक्रम सिंह के दूबकुंड लेख ( 1088 ईस्वी ) से पता लगता है, कि उसके एक पूर्वज अर्जुन ने विद्याधर की ओर से युद्ध करते हुये कन्नौज के राजा राज्यपाल को मार डाला था।

चंदेल वंश का एक लेख महोबा से भी मिलता है, जिससे भी विद्याधर द्वारा राज्यपाल के मारे जाने की बात पुष्ट होती है, राज्यपाल का वध करने से विद्याधर की ख्याति चारों ओर फैल गयी तथा वह उत्तर भारत का सार्वभौम सम्राट बन गया था, कन्नौज में विद्याधर ने अपनी ओर राज्यपाल के बेटे त्रिलोचनपाल को राजा बनाया तथा उसने विद्याधर की अधीनता स्वीकार की थी।

अन्य हिन्दू राजाओं ने भी विद्याधर का लोहा मान लिया था यह महमूद गजनवी को खुली चुनौती थी, जिसका सामना करने के लिये वह प्रस्तुत हुआ 

चंदेलों पर महमूद गजनवी का पहला आक्रमण 1019 - 20 ईस्वी

1019 - 20 ईस्वी में चंदेलों पर महमूद गजनवी का प्रथम आक्रमण हुआ था, मुस्लिम स्रोतों के अनुसार दोनों के बीच किसी नदी के किनारे भीषण युद्ध हुआ, किन्तु इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला था, इस युद्ध में विद्याधर ने राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया तथा रात्रि के अंधकार में युद्ध - स्थल उपयुक्त न होने के कारण अपनी सेना को हटा लिया महमूद गजनवी भी गजनी वापस लौट गया।

महमूद गजनवी का चंदेलों पर दूसरा आक्रमण 1022 ईस्वी

महमूद गजनवी ने 1022 ईस्वी में चंदेल शासक विद्याधर पर दूसरी बार आक्रमण किया था, सबसे पहले उसने ग्वालियर के दुर्ग का घेरा डाला, जो चार दिनों तक चलता रहा अंत में दुर्गपाल ने 35 हाथियों की भेंट कर उससे पीछा छुङवाया। 

उसके बाद उसने कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाला शक्ति तथा अभेद्यता में वह दुर्ग संपूर्ण हिन्दुस्तान में बेजोङ था, ऐसा लगता है, कि महमूद दुर्ग को जीत नहीं सका तथा दोनों में संधि हो गयी तथा महमूद गजनवी मजबूर होकर गजनी वापस चला गया। 

इसके बाद उसने चंदेल राज्य पर आक्रमण करने की दुबारा हिम्मत नहीं करी तथा विद्याधर और महमूद गजनवी दोनों के बीच मित्रता के संबंध स्थापित हो गये।

दोनों के बीच यह मित्रता 1029 ईस्वी तक बनी रही, महमूद गजनवी के अलावा चंदेल शासक विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेयदेव को भी पराजित किया था। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि विद्याधर अपने समय का महान शासक था। उसके पितामह धंग ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था, विद्याधर ने अपने वीरतापूर्वक कृत्यों द्वारा उसे गौरवान्वित कर दिया।

🙏🏻 जय श्री राम। 🙏🏻
👑 जय राजपूताना।⚔️

हुतात्मा ठाकुर मोहन सिंह मडाड

ठाकुर मोहन सिंह मडाड का इतिहास साहस और शौर्य की परकाष्ठा है। भारत के इतिहास में जालौर के सोनीगारा चौहान वीरमदेव के बाद क्षत्रियों का शौर्य प्रदर्शित करने वाले इस दुर्लभ वीर पुरुष की जितनी प्रशंशा की जाय वह कम ही होगी…

क्योकि अल्प और सीमित साधन रहते हुए इन्होंने उस बाबर की समुद्र सी लहराती प्रबल सत्ता को चुनौती दी उसके अह्निर्श विजयों से उत्तर भारत थर थर काँप रहा था, इन्होंने उस महाबली बाबर को भी अपनी तलवार का पानी पिला कर छोड़ा उस समय बाबर लाहौर में था और आगरा जाने की तैयारी में था। 


4 मार्च सन् 1530 ईस्वी को बाबर ने लाहौर से आगरा जोन के लिए प्रस्थान किया सरहिंद पहुँचने पर उसे समाना के काजी ने उससे मुलाकात कर बताया की कैथल के मोहन सिंह मडाड ( मंडहिर ) नामक राजपूत ने उसकी इमलाक ( जागीर ) पर हमला करके उसे लूटा पाटा और जलाया और उसके बेटे को मार डाला। 

काजी की बात सुन के आग बबूला हुए बाबर ने फ़ौरन ही तीन हजार घुड़सवारों के साथ अली कुली हमदानी को कैथल परगना में ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गाँव भेजा यादगार अहमद बताता है कि अलसुबह मुग़लों की सेना ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गाँव पहुँचीं उस समय गाँव में बारात आई हुयी थी। 

जाड़े का दिन था और उस दिन ठण्ड भी कुछ ज्यादा ही था, जब मुघल सेना की गाँव की तरफ कूच की खबर सुनी तब वह भी अपने नौजवानों के साथ बाहर निकला और सामने आते ही मडाडों ने तेजी से वाणों की वर्षा करते हुए शाही सेना के पाँव उखाड़ दिए। 

इस भयंकर युद्ध में 1 हजार तुर्क मारे गए शेष भाग कर पास के ही एक जंगल में छिप गए यादगार अहमद को शर्मिंदगी उठाते हुए भी इस घटना का जिक्र करना पड़ा और उसने हार का बहाना बनाते हुए लिखा के जाड़े की दिनों में तुर्की धनुष की तांत अकड़ जाती है इस वजह से तुर्क कायदे से धनुष पर बाण चढ़ा ही नहीं सके। 

जंगल में पहुचने के बाद तुर्कों ने लकड़ियाँ इकट्ठी कर के उसमे आग जलाकर पूरी तरह तापा और आग से धनुष की तांत को ढीला कर फर से योजना बनाकर एक बार फिर मोहन के गाँव की और बढ़ने लगे तुर्कों की इस धृष्टता को देखकर राजपूतों की आँखों में खून उतर आया।

उन्होंने दुगने उत्साह से तुर्कों से मुकाबला किया इस बार भी बहुत सारे शाही सैनिक मारे गए बाकि सैनिको को लेकर अली खान हमदानी भाग चला और सरहिंद पहुँच कर ही साँस ली।

शाही सेना की हार सुनकर बाबर शर्मसार होते हुए ठाकुर मोहन सिंह मडाड के नाश का संकल्प लेते हुए तुरन्त 6000 घुड़सवार सैनिकों के साथ अपने सिपहसालार तरसम बहादुर और नौरंगवेग को भेजा, जो पानीपत दोनों युद्धों में अपनी तलवार और तीर का जौहर दिखा चुके थे।

इन्होंने छोटे मोटे युद्ध तो देखे ही नहीं थे बड़ी बड़ी लड़ाइयों में अपनी योग्यता दिखाने का आनंद आता था। ठाकुर मोहन सिंह मडाड के प्राराक्रम की कहानी अली कुली हमदानी के मुँह से तरसेम बेग ने सुनी थी।

हमदानी संकोच करते हुए बेग को बताता है की अब तक लड़ीं हुईं लड़ाइयों में सिर्फ ठाकुर मोहन सिंह मडाड ने ही उसकी पीठ देखी है सरहिंद से चलते-चलते तरसेम बेग ने सोचा की मोहन सिंह जरूर विशेष किस्म का बहादुर व्यक्ति होगा।

नहीं तो सब ओर गालियाँ न्योछावर करने वाला अली कुली मोहन सिंह के तारीफों के पुल नहीं बाँधता रास्ता तय करते हुए उसने सोच लिया के दुश्मन को सिर्फ बल से नहीं छल से मारना और हराना होगा। 

ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गांव के नजदीक आने पर तरसेम बेग ने अपने सैनिकों को तीन भागों में बाँट दिया हरावल दस्ते को यह हिदायत दी कि वे गाँव के पास जाकर मडाडों को ललकारें जब ललकार सुनकर राजपूत गाँव से बाहर युध्द के लिए आग बबूला होकर निकलें तो हरावल दस्ता भाग चले और भागते जाए…

इसी बीच उसकी राइट विंग गाँव को घेर ले और उसमें आग लगा दे इस विंग की कमांड उसने खुद अपने हाथों में ली और नौरंग बेग के हाथों में 2 हजार घुड़सवारों की सेना रिजर्व रखी,जब मडाड बीच में घिर जाएँ तब उन पर जोरदार हमला करना इस दस्ते का काम था।

यादगार अहमद बताता है के जिस दिन जब शाही सेना ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गाँव पहुची संयोगवश उस दिन भी गांव में बारात आई हुई थी, जब शाही सेना का हरावल दस्ता गाँव के नजदीक पहुँचा, तो योजना अनुसार उन्होंने मडाडों को ललकारा तब मडाडों की नस नस में चिंगारी दौड़ पङी और वह तुरन्त तैयार होकर बहार निकले और शाही सेना पर तीरों की बौछार करने लगे।

राजपूतों के आम के साथ ही पूर्व योजनानुसार शाही सेना पश्चिम की ओर भागने लगी और क्षत्रियों ने उनका तेजी से पीछा किया शाही सेना भागती रही और राजपूत सेना उसका पीछा करती रही, इसी बीच तरसेम बेग की टुकड़ी ने राजपूत विहीन गाँव में आग लगा दी, जब राजपूतों ने गाँव से उमड़ता हुआ धुँआ देखा तो वग वापिस लौटे…

उनके पीछे मुड़ते ही भागती हुई सेना लौटने लगी इस प्रकार राजपूतों की सेना शाही सेना के बीच फंस गयी इसी समय नौरंगबेग अपनी सेना के साथ राजपूतों पर टूट पड़ा, चारों और से घिरने के बाद भी राजपूत वीरता और शौर्य से लड़े उधर गाँव धु-धु करता जलता रहा। 

राजपूत शाही सेना के इस छल को नहीं समझ पाए और पूरा साहस और पराक्रम होते हुए भी इन्हें पराजित होना पड़ा इस युद्ध में एक हजार वीर राजपूत शहीद हुए ठाकुर मोहन सिंह अंत तक लड़ते रहे, परन्तु कब तक आखिर उन्हें भी पृथ्वीराज चौहान की तरह कैदी बनना पड़ा। 

हमारे फेसबुक पेज को फॉलो जरुर करें और अपने सभी मित्रों को पेज पर इन्वाइट जरूर करें।🙏🏻
पेज लिंक :⤵️

उस दिन हजारों नर नारियों और बच्चों को शाही सेना ने कैद कर लिया और मोहन सिंह के साथ उन कैदियों को दिल्ली ले जाया गया, क्योकि तब तक बाबर सरहिंद से रवाना होकर दिल्ली पहुँच गया था, दिल्ली दरबार में ठाकुर मोहन सिंह मडाड की पेशी हुई और बाबर ने इन्हें सजा ए मौत का फरमान सुनाया…

पर साथ साथ यह भी कहा यदि ठाकुर मोहन सिंह मडाड इस्लाम कबूल लेतें है तो उनकी सजा माफ़ कर दी जायेगी…

ठाकुर साहब चाहते तो मुस्लिम बनकर अपने प्राण बचा सकते थे, परन्तु उस योद्धा को जीवन से प्यारा वह मूल्य था, जो क्षत्रियों के लिए अभिप्रीत था…उनका धर्म…

मोहन सिंह मडाड ने यह साबित कर दिया कि वह एक सच्चे प्रतिहार और रघुवंशी थे, जिनकी रीत में ही प्राणों से पहले वचन और धर्म की रक्षा करना है।

सिजदा से गर वहिश्त मिले दूर कीजिये,
दोजख ही सही सर को झुकाना नहीं अच्छा 
बेटा तूं राजपूत, याद सदा ही राखिजे,
माथा झुके न सूत, चाहे शीश ही कटिजे।

मृत्युंजय मोहन

स्वाभिमानी ठाकुर मोहन अपना सर नहीं झुका सका और ख़ुशी ख़ुशी मृत्यु को आलिंगन करते हुए आगे बढे… क्षत्रियों के इस वारिस को बाबर ने एक विषेश प्रकार की विधि से मौत देने का फैसला किया ठाकुर मोहन सिंह को कमर तक मिटटी में दफना दिया गया और शाही सेना ने उनपर तीरों की बौछारें शुरू कर दी। 

सैकड़ों तीर देखते ही देखते ठाकुर मोहन सिंह का शरीर भेदने लगे उनके शरीर से खून की फुहारें छूटने लगीं… परन्तु गर्दन और शीश बाबर के सामने तना खड़ा रहा, वह अभी भी नहीं झुका जिससे बाबर झल्ला उठा जब तक रक्त की अंतिम बूँद ठाकुर मोहन सिंह के शरीर से नहीं छुटी, वह तन के खड़े रहे।

देखने वाले भी हैरानी से देखते रहे की इतनी आघातों के बाद भी उनके चेहरे पर दर्द और पीड़ा नहीं छलक रही थी जैसे वह संवेदनहीन ही हो गए हो, अंत में ठाकुर मोहन सिंह जी का शीश धरती माँ को वंदन करते हुए छु पड़ा।

उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए… ठाकुर मोहन सिंह मर कर भी अमर हो गए, उन्होंने दो बार शाही सेना को अपने शौर्य से पराजित किया, जिससे बाबर लज्जित हुआ।

उसने अपनी आत्मकथा तजुके बाबरी में जहाँ छोटी-छोटी बातें भी दर्ज कर लीं थी, वहीं शर्मिन्दिगी के कारण इस प्रसंग को छोड़ दिया, इस महत्वपूर्ण घटना का पूर्ण विवरण हुमायूँ कालीन यादगार अहमद ने अपनी तवारीख ए सलातीने अफगाना में दिया।

इस युद्ध में मुआँना गाँव के परम् योद्धा ठाकुर मामचन्द मडाड भी शाही सेना के साथ युद्ध करते हुए शहीद हुए… वे ठाकुर मोहन सिंह के रिसालदार थे, जिनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी कपूर कँवर सतीं हुई, जिनकी देवली मुआँना गाँव तहसील सफीदों जिला जींद हरयाणा में आज तक बनीं हुई है जहाँ शादी के बाद हर नव विवाहिता राजपूत क्षत्राणी आशीर्वाद और सौभाग्य लेने जाती है।

जय श्री राम।🙏🏻
जय राजपूताना।🙏🏻