रविवार, 19 अप्रैल 2020

पुंडीर वंश का सम्पूर्ण इतिहास


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...........पुंडीर राजपूत भगवान श्री राम के वंशज राजा पुण्डरीक के वंशज माने जाते है...........
 
१  गोत्र- पुलस्त कहीं कपिल भी है। 
२  प्रवर- पुलस्त, विश्वश्रवस और दंभोलि। 
३  वेद - यजुर्वेद।
४  शाखा- वाजसनेयी माध्यन्दिनी 
५  सुत्र- पारस्कर गृह्यसूत्र।
६  कुलदेवि- दधिमति माता  व् शाकुंभरी देवी ।

पहले अयोध्या से वैशाली बिहार में गये।

वहां से आगे बिहार और बंगाल कलिंग में पुंड्रा डायनेस्टी ने कई सो साल शासन किया। इस शासन के सिक्के कई हजार साल बाद भी मिलते हैं।
कलिंग से बाद में दक्षिण की और जाकर तेलंगाना में शासन किया।
सन 544 इसवी में इसके राजा मधुकरदेव कुरुक्षेत्र स्नान के लिए आज के हरियाणा में आये तो यहाँ के राजा सिन्धु रघुवंशी ने अपनी पुत्रि का विवाह उनसे कर कैथल और करनाल का इलाका दहेज में दे दिया।
यहाँ उन्होंने अपना नया राज्य पूंडरी के नाम से स्थापित किया जो आज तक करनाल में एक बड़ा कस्बा है।।
यह राज्य सम्राट हर्षवर्धन के बाद 712 इसवी में  यमुना पार कर आज के यूपी के सहारनपुर हरिद्वार और मुजफरनगर तक फ़ैल गया।
 
नीमराना के चौहानो और पुण्डरी(करनाल,कैथल) के पुंडीर राजपूतों के बीच हुए इस रक्तरंजित युद्ध का इतिहास गवाह है। यह ऐतिहासिक कहानी आपको हरियाणा के उस स्वर्णिम काल में ले जाएगी जब यहां क्षत्रिय राजपूतो का राज था ,यानी अंग्रेजों और मुगलों के समय से भी पहले ।।

राजा मधुकर देव पुंडीर ने यही पर अपने पूर्वज के नाम पर पुण्डरी नाम से राजधानी स्थापित की, बाद में उनके वंशजो ने यहां चार गढ़ स्थापित किये
जो कि पुण्डरी, पुंडरक ,हावडी, चूर्णी(चूर्णगढ़) के नाम से जाने गए,
हर्षवर्धन के पश्चात् सन 712 इसवी के आसपास पुंडीर राजपूतो ने यमुना पार सहारनपुर और हरिद्वार क्षेत्र पर भी कब्जा कर शासन स्थापित किया. पुंडीर राज्य के दक्षिण पश्चिम में मंडाड राजपूतों का शासन था जोकि यहां मेवाड़ से आये थे और राजोर गढ़ के बड़गुजरों की शाखा थे। मंडाड राजपूतो का कई बार पुंडीर राज्य से संघर्ष हुआ पर उन्हें सफलता नहीं मिली।।
 गंगा स्नान से लौटते वक्त राणा हर राय चौहान थानेसर पहुंचे तथा पुरोहितो के सुझाव पर पुंडीरो से कुछ क्षेत्र राज करने के लिए भेंट में माँगा, पुंडीरो ने राणा जी की मांग ठुकराई और क्षत्रिये धर्म निभाते हुए विवाद का निर्णय युद्ध में करने के लिए राणा हर राय देव को आमंत्रित किया। जिसे हर राय देव ने
स्वीकार किया।।
ऐसा कहा जाता है कि मंडाड राजपूतो ने चौहानो का इस युद्ध में साथ दिया, पुंडीर सेना पर्याप्त शक्तिशाली होने के कारण प्रारम्भ में हर राय को सफलता नहीं मिली मात्र पुण्डरी पर वो कब्जा कर पाए,राणा हर राय ने हार नजदीक देख नीमराणा से मदद बुलवाई।
नीमराणा से राणा हर राय चौहान के परिवार के राय दालू तथा राय जागर अपनी सेना के साथ इस युद्ध में हिस्सा लेने पहुंचे।।

नीमराणा की अतिरिक्त सेना और मंडाड राज्य की सेना के साथ मिलने से राणा हर राय चौहान की स्थिति मजबूत हो गयी और चौहानो ने फिर हावडी,पुंड्रक को जीत लिया,अंत में पुंडीर राजपूतो ने चूर्णगढ़ किले में अंतिम संघर्ष किया और रक्त रंजित युद्ध के बाद इस किले पर भी राणा हर राय चौहान का कब्ज़ा हो गया,
इसके बाद बचे हुए पुंडीर राजपूत यमुना पार कर आज के सहारनपुर क्षेत्र में आये और कुछ समय पश्चात् उन्होंने दोबारा संगठित होकर मायापुरी(हरिद्वार)को राजधानी बनाकर राज्य किया,बाद में इस मायापुरी राज्य के चन्द्र पुंडीर और धीर सिंह पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामंत बने  सन 965 इसवी में नीमराना के राणा हर राय चौहान से युद्ध में हारने के बाद पुंडीर राजपूतो से हरियाणा का इलाका छीन गया। जिसके बाद इन्होने हरिद्वार (मायापुर)को राजधानी बनाकर शासन किया जो 1440 गाँव की रियासत की।
पुण्डीरों के वर्णन में है कि पुण्डीर शासक ईसम हरिद्वार का शासक था। उसके बाद क्रमशः सीखेमल, वीडो, कदम, हास और कुंथल शासक हुए। 
कुंथल के बारह पुत्र हुएः- अजत, अनत,लालसिंह, नौसर, सलाखन, गोगदे, मामदे, भाले, हद, विद, भोईग और जय सिंह। 

अजत ने निम्न ग्राम बसायेः- जुरासी, पतरासी, मोरमाजरा, खटका, लादपुर, गोगमा, हरड़, रामपुर, सोथा, हींड, मोहब्बतपुर, कैड़ी, बाबरी, बनत, हिनवाड़ा, नसला, लगदा, पीपलहेड़ा, भसानी, सिक्का।।

 अनत ने निम्न ग्राम बसायेः- दूधली, कसौली, मारवा, शेरपुर, चौवड़, दुदाहेड़ी, वामन हेड़ी, बाननगर, रामपुर, कल्लरपुर, कौलाहेड़ी, कछोली, सरवर, मगलाना।।

लालसिंह ने निम्न ग्राम बसायेः- गिरहाऊ, कोटा, खजूरवाला, माही, हसनपुर, भलसवा, बोहड़पुर।।

नौसर ने निम्न ग्राम बसायेः- नौसरहेड़ी, खुजनावर, जीवाला, हलवाना, अनवरपुर, बड़ौली, बेहड़ा, माडॅला, मानकपुर, मुसेल, गदरहेड़ी, सरदोहेड़ी, रामखेड़ी, चुबारा, गगाली, खपराना।।

सलाखन मायापुर (हरिद्वार) में ही रहा तथा वहाँ का शासक हुआ। इसके दो पुत्र चांदसिंह और गजसिंह थे। गजसिंह गंगापार रामगढ़ (वर्तमान अलीगढ़) की तरफ चला गया था। उसके वंशजों के १२५ गाँव थे, जिनमें ८० गाँव मैनपुरी और इटावा जिले में और ६ गाँव छतेल्ला, भभिला, नसीरपुर, कुलहेड़ी, रणायच।।

नानौता से देवबंद तक , सोना अर्जुनपुर, खुडाना, शमभालेडी , कुराली, सुभरी, जन्धेरी, भारी , मोरा , कलारपुर ,बडगाव , मुस्कीपुर , शिमलाना , भैयला , रनखंडी , जदोड़ा, महेशपुर इताय्दी बड़े गाव है 
इसके अलावा देहरादून उत्तराखंड में कंवाली , पृथ्वीपुर , जम्नीपुर , बदामावाला , राघंडवाला , बदोवाला, धर्मपुर , सहसपुर , इत्यादी बड़े गाव है इसके साथ ही रूडकी शहर व् उसके आस पास के गाव पहले से ही पुंडीर राजपूतो के अधिपत्य मे है  
बाद में ये अजमेर के चौहानो के सामंत बने और पृथ्वीराज चौहान की और से इन्हें पंजाब सीमा पर वहां का राज्यपाल बनाया गया। चन्द्र पुंडीर और उनके पुत्र धीर पुंडीर पृथ्वीराज के बड़े सेनापति थे। पृथ्वीराज रासो में लिखा है कि तराईन के पहले युद्ध में जब गोविन्दराज तोमर ने गौरी को घायल कर दिया तो भाग रहे गौरी को धीर पुंडीर ने ही पकड़ा था,जिसे पृथ्वी ने छोड़ दिया।।
 एक बार पृथ्वीराज शिकार खेलने गया था,उस समय शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर चढ़ाई की,चांदसिंह पुण्डीर ने सेना लेकर चिनाब नदी के किनारे उसका मार्ग रोका। काफी देर तक युद्ध होने के बाद चांदसिंह पुण्डीर के घायल होकर गिरने पर ही मुसलमान सेना चिनाब नदी पार कर सकी थी। पृथ्वीराज के पहुँचने पर फिर गौरी से जबरदस्त युद्ध हुआ। उसमें बगल से चांदसिंह पुण्डीर ने शत्रु पर हमला किया। उस युद्ध में इसका एक पुत्र वीरतापूर्वक युद्ध करता हुआ,मातृभूमि के लिये बलिदान हुआ था।।
शहाबुद्दीन फिर युद्ध में परास्त होकर भागा, जब पृथ्वीराज कन्नौज से संयोगिता का हरण करके भागा, तब जयचन्द की विशाल सेना ने उसका पीछा किया,जयचन्द की सेना से पृथ्वीराज के सामंतों ने घोर युद्ध करके उस विशालवाहिनी को रोका था, जिससे पृथ्वीराज को निकल जाने का समय मिल गया,उस भीषण युद्ध में चांदसिंह पुण्डीर कन्नोज की सेना से युद्ध करके जूझा था।।
इस युद्ध के कुछ महीने बाद ही चन्द्र पुंडीर पृथ्वीराज चौहान के साथ संयोगिता स्वयमर में कन्नौज के साथ हुए युद्ध में मारे गये।
एक बार जब शहाबुद्दीन भारत पर आक्रमण करने आया, तब पृथ्वीराज का सामंत जैतराव आठ हजार घुड़सवार सेना के साथ उसे रोकने के लिये गया था। उसके साथ धीर पुण्डीर तथा उसके अन्य भाई भी थे। उस युद्ध में धीर पुण्डीर का भाई उदयदेव वीर गति को प्राप्त हुआ था।।
 एक बार मुसलमान घोड़ों के सौदागर बनकर पंजाब में आए और धोखे से धीर पुण्डीर को मार डाला। इस पर पावस पुण्डीर ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया,पृथ्वीराज को जब इस घटना की खबर मिली, तब उसे बड़ा अफसोस हुआ। पावस पुण्डीर धीर पुण्डीर का पुत्र था, पृथ्वीराज के ई॰ ११९२ में गौरी के साथ हुए अन्तिम युद्ध में पावस पुण्डीर मारा गया।।
पृथ्वी राज की एक रानी धीर पुंडीर की बहन थी जिससे रणजीत सिंह का जन्म हुआ पर वो भी बाद में अल्पायु में ही मारे गये।।
दिल्ली पर तुर्को की सत्ता होने के बावजूद एक राज्य हरिद्वार सहारनपुर मुजफरनगर और दूसरा अलीगढ एटा हाथरस में पुंडीर राज्य बना रहा।
हरिद्वार (मायापुर)राज्य का अंत 14 वी सदी में तैमूर के हमले से हुआ और वहां के राजपरिवार के सदस्यों ने उतराखंड और हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र में जाकर शरण ली और छोटे छोटे राज्य स्थापित किये।
बाकी पुंडीर यही बने रहे उनमे से एक ने सहारनपुर में जसमोर राज्य स्थापित किया जो आज भी मौजूद ह और इसकी रानी देवलता पूर्व विधायक हैं।।
देहरादून में गुलाब सिंह पुंडीर ने सभी गोरखा को युद्ध मे पराजित करते हुए अपना राज्य कायम किया।
हिमाचल में छोटा सा सतोड़ा राज्य है।।
अलीगढ हाथरस एटा क्षेत्र में विजियापुर,मऊ और सिकन्दराराऊ तीन स्टेट थी जिनमे से दो 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजो ने खत्म कर दी।।
अब पुंडीर राजपूतो की जनसंख्या सहारनपुर मुजफरनगर अलीगढ एटा हाथरस हरिद्वार देहरादून हिमाचल के सिरमौर उतराखंड के गढ़वाल में है।।

मुजफ़्फ़रनगर/अब शामली में "जलालाबाद"पहले राजा मनहर सिंह पुंडीर का राज्य था और इसे मनहर खेडा कहा जाता था। इनका औरंगजेब से शाकुम्भरी देवी की ओर सड़क बनवाने को लेकर विवाद हुआ। इसके बाद औरंगजेब के सेनापति जलालुदीन पठान ने हमला किया और एक भेदीये ने किले का दरवाजा खोल दिया। जिसके बाद नरसंहार में सारा राजपरिवार मारा गया। सिर्फ एक रानी जो गर्भवती थी और उस समय अपने मायके में थी,उसकी संतान से उनका वंश आगे चला और मनहरखेडा रियासत के वंशज आज सहारनपुर के "भारी-भावसी" गाँव में रहते हैं।।
पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष सहारनपुर श्री मानवीर सिंह पुण्डीर भी उसी राजपरिवार से हैं।
इस राज्य पर जलालुदीन ने कब्जा कर इसका नाम 'जलालाबाद'रख दिया।।
 ये किला आज भी शामली रोड़ पर जलालाबाद में स्थित है।इसके गुम्बद सड़क से ही दिखते हैं।

जलालाबाद के पठानो के उत्पीड़न की शिकायत बन्दा सिंह पर गई और राजपूताने के राजाओं पर गयी।।
राजपुताना(वर्तमान राजस्थान)के राजाओं ने सेना की छोटी-2 टुकड़ी को सहायता के लिए भेज दिया। थानाभवन के रैकवार राजपूत(राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार श्री सुरेश राणा जी का परिवार),खट्टा प्रह्लादपुर के दाहिमा-राजपूत,बिराल के कुशवाहा राजपूत सब उसी समय राजस्थान से यहाँ युद्ध लड़ने आये थे।चौहान राजा की सेना युद्ध के बाद वापिस लौट गई थी।कुछ दिन बाद ही इस इलाके के पुण्डीर राजपूत व राजपुताने से आयी राजपूती फ़ौज की मदद से जलालाबाद पर बन्दा बहादुर के नेतृत्व मे हमला किया।।

 बीस दिनों तक सिक्खो और  राजपूतो ने किले को घेरे रखा। यह मजबूत किला पूर्व में पुंडीर राजपूतो ने ही बनवाया था ,इस किले के पास ही कृष्णा नदी बहती थी, बंदा बहादुर ने किले पर चढ़ाई के लिए सीढियों का इस्तेमाल किया। रक्तरंजित युद्ध में जलाल खान के भतीजे ह्जबर खान,पीर खान,जमाल खान और सैंकड़ो गाजी मारे गए।।

 जलाल खान ने मदद के लिए दिल्ली गुहार लगाई, दुर्भाग्य से उसी वक्त जोरदार बारीश शुरू हो गई और कृष्णा नदी में बाढ़ आ गई। वहीँ दिल्ली से बहादुर शाह ने दो सेनाएं एक जलालाबाद और दूसरी पंजाब की और भेज दी। पंजाब में बंदा की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर मुस्लिम फौजदारो ने हिन्दू सिखों पर भयानक जुल्म शुरू कर दिए। इतिहासकार खजान सिंह के अनुसार इसी कारण बंदा बहादुर और उसकी सेना ने वापस पंजाब लौटने के लिए किले का घेरा समाप्त कर दिया,और जलालुदीन पठान बच गया।।

पुंडीर दुसरे राजपूत की संख्या में बहुत कम है लकिन फिर भी तीन विधायक पुंडीर है, इसके साथ ही अगर जगा भाट की बात पर गोर किया जाये तो सभी राजपूतो  में सबसे जयादा उपज वाली भूमि पुंडीर राजपूतो के पास ही है।।

जय राजपूताना ||
जय क्षात्र धर्म ||

पोस्ट सौजन्य से:- योगेंद्र पुंडीर, सुमित राणा, रोबिन पुंडीर, प्रशांत पुंडीर।।

शनिवार, 25 जनवरी 2020

मत चूको चौहान

वसन्त पंचमी का शौर्य

चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण!
ता उपर सुल्तान है, चूको मत चौहान!!

वसंत पंचमी का दिन हमें "हिन्दशिरोमणि पृथ्वीराज चौहान" की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ बंदी बनाकर काबुल  अफगानिस्तान ले गया और वहाँ उनकी आंखें फोड़ दीं।

पृथ्वीराज का राजकवि चन्द बरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। 

चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। 

इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया।

पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। 

चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया।

इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया

‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, चूको मत चौहान।।’’

अर्थात् चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।

इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का
आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। 

इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया।

गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार एक-दूसरे को 
कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये।

"आत्मबलिदान की यह घटना भी 1192 ई. वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।"

ये गौरवगाथा अपने बच्चों को अवश्य सुनाए।

बुधवार, 8 जनवरी 2020

पृथ्वीराज चौहान राजपूत है।

क्या राजपूत शब्द नवीन है ? इस इतिहास को बताने से पहले ही गुर्जर विवाद करेंगे की राजपूत शब्द तो नवीन है तो पहले यह स्पष्ठ करना जरूरी है की राजपूत शब्द नवीन नही बल्कि आदिकाल से है ।। 

राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है प्राचीन भारत मे राजपुत्र शब्द का प्रयोग क्षत्रियों के लिए होता था ( ऐते रुक्मरथानाम राजपुत्रा महारथाः - महाभारत 7 -112-2 )  

शासक वर्ग से सम्बंध होने के कारण क्षत्रिय कुमार  राजकुमार , महाराजकुमार , राजपुत्र या महाराजपुत्र नाम से संबोधित होते थे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सौन्दरानंद ( अश्वघोष ) में कालिदास के मालविकाग्निमित्र में ओर हर्षचरित्र के कादम्बरी बाण में राजपूत शब्द का प्रयोग हुआ है । 

अब तो अभिलेखों में भी राजपुत्र शब्द ढूंढ निकाला गया है विक्रमं संवत 1287 के तेजपाल मंदिर अभिलेख में भालीभाड़ा प्रवर्ति ग्रामेषु संतिस्थमान श्रीप्रतिहारःवंशीय सर्वराज पुत्रेश्चय साफ साफ लिखा हुआ है ।। 

इसके अलावा एपी●इंडिया● खण्ड 16 पेज संख्या 10 टिप्पणी 4 बहिखण्ड 20 पृष्ठ 135 टिप्पणी में राजपुत्र शब्द का उल्लेख हुआ है विक्रमसंवत १२८७ के हिंडोरिया जिला जिला दमोह अभिलेख में चंदेल हमीरवर्मा के सामन्त को महाराजपुत्र कहा गया है लेकिन विदेशी हेनसांग ने जब भारत पर किताब लिखी अपनी यात्रा का वर्णन लिखा तो राजपूतों को केवल क्षत्रिय कहा।

बस यही से मसाला मिल गया मूर्खो को उन्हे यह नही पता की हेनसांग तो कल की बकरी थी जबकि राजपूत शब्द तो तब से है जब से इस धरती का निर्माण हुआ है मनुमहाराज राजपूत इसलिए नही क्यो की वह किसी महाराज के पुत्र नही वह स्वयम्भू है लेकिन वर्ण तो उनका भी क्षत्रिय ही है।

अंग्रेज कर्नलजेम्सटॉड ने यह भसड़ फैलाई थी कि राजपूत शक ओर सीथियन के वंसज है ओर अंग्रेजो ओर अंग्रेजो की भारतीय औलादों ने इसे ही ब्रह्मसत्य मान लिया टॉड को यह कहने का मौका भी इसलिए मिला क्यो की परमारो का अग्निकुल का होना उस समय भी जगतविख्यात था इसी को आधार मानकर कर्नलटॉड ने राजपूतों को शक सीथियन कहा उसका मानना था कि शक सीथियन को शुद्ध करके अग्नि प्रतिज्ञा दिलवाकर उन्हें क्षत्रिय बनाया गया।

टॉड का कहना है कि अग्निकुल के राजपूतो की शक्ल सूरत पर्शियन राजाओ से मिलती जुलती है इसके अतिरिक्त दोनो जातियों में समानता भी है - जैसे  अश्वपूजा, शस्त्रपूजा, अश्वमेघ, सुरापान के प्रति अनुराग , शकुन, अपशकुन विचार, अंधविश्वास,  युद्ध मे काम आने वाले रथ, चारण प्रथा, समाज मे स्त्रियों का स्थान तथा युद्ध के नियम।

पार्थियन के यह सब गुण राजपूतों से मिलते है लेकिन इस बात का खंडन तो यही हो जाता है क्यो की राजपूतो में तो यह प्रथा बहुत प्राचीन है पार्थियन आदि का तो इतिहास ही 4000 साल से ज़्यादा पुराना नही बल्कि राजपूतों में तो ( जैसा कि महाभारत में भी राजपूत नाम आ चुका है ) महाभारत काल से ही यह सारी प्रथाएं प्रचलन में थी।

इससे तो यह स्पष्ठ होता है कि पार्थियन राज्य भी पहले क्षत्रिय के अधीन ही था लेकिन बाद में उन्होने अपना अलग पंथ चलाया ओर वे मल्लेछ हो  गए असल सत्य को दबाने के लिए शातिर खोपड़ी के टॉड ने राजपूतो को ही शक सीथियन घोषित कर दिया और यही ब्रह्मसत्य है सूर्यपूजा, अश्वपूजा, यह तो वैदिक काल से चला आ रहा है अश्वमेघ यज्ञ तो आज से 10 लाख वर्ष पूर्व श्रीराम के काल मे ही प्रचलन में था राजपूतों के गोत्र ओर प्रवर भी आज भी वही है जो वेदिकयुग में थे नारायण ।।

अब बात आती है बम्बई गेजेटियर् की -- जैसे महाराजपुत्र होता है उसी तरह अंग्रेजो में महामूर्ख होता है इसमें केम्पबेल ओर जैक्सन नाम के दो महामूर्ख लेखकों ने महामूर्ख प्रतियोगिता में बाजी मार ली ओर यही पहले मूर्ख थे जिन्होने राजपूतो की उतपति गुर्जर( गुजर) जाति से बताई इन दोनों शब्दो की ध्वनि समान है इस कारण उन्होने बिना सोचे समझे इतिहास को अपमानित किया कलम की स्याही बेकार की ।।

रही अग्निकुल की बात - तो अग्नि सूर्य और चन्द्र के बीच का प्रतीक है अग्नि सूर्य और चन्द्र के बीच मध्यममार्ग है सूर्य का तेज तो ऐसा है कि उनके निकट जाना भी संभव नही इसलिए आदमी सुरक्षित है लेकिन अग्नि के निकट परवाना बनकर जाना ही होता है मिटना ही होता है दो चन्द्रवन्स के ओर दो सूर्यवंश के योद्धाओं को लिया गया ओर बन् गया मध्यममार्ग अग्निकुल ।।

परमारो का चन्द्रवँशी होने का सीधा सीधा प्रमाण उनका ध्वज ही है यदुओं के नेता श्रीकृष्ण के ध्वज पर भी गरुड़ विधमान ताज विक्रमादित्य परमार के ध्वज पर गरुड़ ही था जो वर्तमान तक है अगर परमार चन्द्रवंश से अलग होते तो उन्हें यदुओं का ध्वज इस्तेमाल करने दिया जाता ? ओर वे खुद भी दूसरों का ध्वज अपने महल पर भला क्यो लगायेंगे ??

जैसा कि रामायण में वर्णन है कि वसिष्ठ ने अग्निकुंड से प्रतिहार, परमार, चाहमान ओर चालुक्यों का निर्माण किया जबकि ऐसा नही है वसिष्ठ के कहने पर यह चार जातियां विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध करने को उद्धत हुईं, ओर विश्वामित्र को पराजित भी किया तभी कहा जाता है की वसिष्ठ में वह सारा सामर्थ्य था की वह राजपूतों से ही राजपूतो का नाश करवा देते लेकिन उन्होंने असमर्थ की भांति विश्वामित्र को क्षमा कर दिया ।।

815 ईस्वी तक के प्रतिहारो के जितने भी अभिलेख प्राप्त हुए है उनमें से किसी एक मे भी प्रतिहारो को अग्निवंशी नही कहा गया है ग्वालियर प्रशस्ति में भी उन्हें सूर्यवँशी ही बताया गया है।

मन्विज्ञाकुकस्थ(तस्थ) मुल पृथ्वः स्मापालकल्पद्रूमा ।।
तेषां वंशें सुजन्मा क्रमनिहतपदे धामिन वजेषु घोरं।
रामः पौलस्त्यहिन्श्र ज्ञतविहित सीम्नकम्र्मचकपालशः।।
श्लाध्यस्त हथानुजोसौ मधवमधनादस्यसख्यें।
सौमित्रिस्तीव्रदण्डः प्रतिहरण विधेर्य प्रतिहारः आसीत।।

इसीप्रकार चाहमानों के भी अनेक अभिलेख, दानपत्र, ऐतिहासिक संस्कृत ग्रँथ प्राप्त हुए है जहां कहीं भी चौहानों को अग्निकुल का नही बताया गया है पृथ्वीराज विजय में ओर हम्मीर महाकाव्य के सर्ग में चौहानों का सूर्यवंश से होना साफ साफ लिखा है :- फिलहाल आपके संतोष के लिए पृथ्वीराज विजय से साक्ष्य आपके सामने है।

सुतोप्यपरगांगेयो निन्येस्य रविसनुना उन्नति रविवंशस्य पृथ्वीराजेन पश्यता ।। ( पृथ्वीराज विजय - 18 ; 34 )

वास्तविक बात तो यह है 1600 ईस्वी तक अग्निकुल था ही नही पृथ्वीराज रासो में मिलावट करके इसे 1600 ईस्वी में खूब प्रचारित किया गया और उसका परिणाम आज सामने है ।।

#चौहानो_के_सूर्यवँशी_राजपूत_होने_का_संक्षिप्त_वर्णन

चौहान वंश वास्तव में चतुर्भुजचव्हाण के नाम से चला है चतुर्भुज का अर्थ यह नही है कि चव्हाण नाम के राजा के चार हाथ थे बल्कि चौहान नाम के इस राजा की मारक क्षमता इतनी थी की अलंकारिक रूप में इन्हें चतुर्भुज कहा गया चौहान निश्चित रूप से राम के वंसज रघुवंशी ही है इसका प्रमाण भी साफ साफ है।

सूर्यवंश के उपवंश चौहान वंश में एक राजा विजयसिंह जी हुए जिन्होंने हरपालिया कीर्तिस्तम्भ में अचलेश्वर शिलालेख ( मरु भारती पिलानी )  में आसराज के प्रसंग में लिखा है।

राघर्यथा वंश करोहिवंशे सुर्यस्यशुरोभुतिमंडलेsग्रे ।
तथा बभूवत्र पराक्रमेंणा स्वानामसिद्धः प्रभुरामसराजः ।। १६।।
भावार्थ :- पृथ्वीतल पर जिस प्रकार पहले सूर्यवँश में पराक्रमी राजा रघु हुए, उसी प्रकार इस वंश रघुवंश में अपने पराक्रम से कीर्तिराज आसराज नामक राजा हुए इस शिलालेख से स्पष्ठ है कि चौहान सूर्यवँशी थे राम के रघुवंश से थे जब श्रीराम ही ठाकुरजी है तो उनके वंसज गुर्जर कैसे हो सकते है ??

अब सवाल यह उठता है कि चौहानो का सूर्यवँशी राम से सम्बन्ध कहाँ जुड़ता है ;-  तो अजमेर के सरस्वती मंदिर शिलालेख में लिखा है :-

सप्तद्वीपभुजो नृपः सम्भवन्निक्ष्वाकु रामादयः।
तस्मित्रयारिविजयेन विराजमानो राजानुरंजित जनोजानि चाहमान ।। ३७ ।।

इसमें साफ साफ वर्णन है की चौहान श्रीराम के कुल से है तो चौहान अगर राम के कुल में है तो इस वंश का आदि पुरुष कौन है ? इसपर भी विचार करना जरूरी है हम सब जानते है कि चौहानों का उत्कर्ष राजस्थान से है बिजौलिया शिलालेख में इन्हें अहिस्छतरपुर अंकित किया है पृथ्वीराज विजय हमीर महाकाव्य, तथा सुरजन चरित्र में इनका मूल स्थान पुष्कर है। 

चौहानो के बहिभाट नर्मदा के उत्तर में स्थित महिष्मति ग्राम को इनका मूल बताते है इन सब आधार पर तो एक ही निष्कर्ष निकलता है की चौहानो का मूल स्थान राजस्थान ही है परंतु चौहान भृववट 813 में भड़ौच गुजरात पर शासन कर रहा था जो कि पहले गुर्जर प्रदेश हुआ करता था तो इनका मूल स्थान यह भी हो सकता है आबू पर्वत में चन्द्रवंशी अर्जुनायन में चालुक्य( चोल )  नाम का राजा चौहानो में चौहान नाम का राजा एक प्रतिहारः राजा तथा एक यदुवंशी परमार नाम के राजा सम्मिलित हुए, इनके नाम से ही इनका वंश चला ।।

#गुर्जर(गुजरो) का इतिहास भी सम्मानीय है -

यह सच है कि प्राचीन समय मे गुर्जर जाति की तुलना राजवंशों में ही होती थी इन वंश की उतपति के बारे में अनेक इतिहासकारो के अनेक विचार है डॉ भण्डारकर का तो कहना है की #खजर नाम की विदेशी जाति से #गुजर नाम की उतपति हुई कनिधम ने इन्हें कुषाणवंशी माना है वी.ए स्मिथ ने इनकी तुलना हूणों में की है ( राज . ई .प्र. जि.प्र. भाग ओझा पेज 133-34) 

लेकिन यह सब बातें आधारहीन है इसने यह कह दिया उसने वह कह दिया -- यह कौई इतिहास का आधार नही होता इतिहास का अर्थ है - इति+हास = ऐसा ही हुआ था जिसमे घटनाओं का सही सही और सटीक वर्णन होता है ।।

श्रीवैद्य में इन्हें पशुपालन ओर कृषि के करने के कारण वैश्य वर्ग में माना है( हिंदू भारत का उत्कर्ष - पृ. 16 ) किंतु यह भी मात्र अनुमान ही है।

नवसारी ( गुजरात ) मे मिले भड़ौच ( गुजरात ) से मिले भड़ौच शाशक ने विक्रम संबत में गुर्जरों को महाराज कर्ण ( महाभारत वाले ) का वंसज अंकित किया है वायु पुराण में कर्ण के पौत्र द्विज का नाम आया है( वायु पुराण 99/112/|| ) इससे यह स्पष्ठ हो जाता है कि महाराज कर्ण का वंश महाभारत के बाद भी चल रहा था।

इससे यह सिद्ध हो जाता है कि गुर्जर ना तो विदेशी थे ओर ना वैश्य यह कर्ण के वंसज चन्द्रवँशी क्षत्रिय ही थे हां ! कर्ण के सुत के घर मे पलने के कारण वह सूतपुत्र कहलाता था संभवतः इसी कारण कर्ण के वसँजो को भी क्षत्रिय जाति में सम्मान नही मिल सका क्यो की कर्ण ने सूतपुत्र कहलाने के अलावा अपने अपराध से भी खुद कों पतित किया था। 

गुर्जरों के कई वंश में इन्हें नृपति वंश भी कहा गया है कर्ण के किसी वंश में गुर्जर होने के कारण यह गुर्जर कहलाये बाद में उसी राजा के नाम पर गुर्जर प्रदेश का नाम पड़ा क्षत्रियों में अपने वंस के नाम पर विस्तार होने के कारण जैसे वह अपने राजा के नाम पर ही अपना विस्तार किया - जैसे शिवि, जोधा

इसी तरह गुर्जरों ने अपने वंश का विस्तार गुर्जर नाम के राजा के नाम पर किया हर्ष चरित्र में प्रभाकर वर्धन के शत्रुओ में गुर्जरों का नाम आया है :- इससे यह तय हो जाता है कि लगभग 661 ईस्वी तक गुर्जर लगातार सत्ता में थे ( हूण हरिण केसरी सिंधुराज्वेगुर्जरप्रजारको गांवारधीचगनः द्वपकुटपालकोलाटपाट व कोटच्चरी मालवा लक्ष्मीलतापृरथू: इतिप्रथितापरनामा प्रभाकरवर्धननोनामगराजधिराजः - हर्षचरित्र पेज संख्या 120 राज ई प्र जि प्र भाग ओझा पेज 156) 

जब प्रतिहार सूर्यवँशी राजपूत की शाखा चावड़ा ने भीनमाल पर आक्रमण कर उसे अपने राज्य में मिलाया था उससे पहले वह गुर्जर राज्य ही था जैसे शकों को परास्त करने के कारण विक्रमादित्य शकारि कहलाये कुशवाहा नागवंशी क्षत्रियों को परास्त करने के कारण कच्छवाहा कहलाये उसी तरह जब प्रतिहारो ने गुर्जरों को परास्त कर दिया उसे बाद गुर्जरधिपति कहलाने लगे और जिस जिस राजपूतों ने अंगराज कर्ण के वंशज गुर्जर की खापो पर विजय प्राप्त की तबतब उन्होने अपने आप को गुर्जरधिपति कहा गुर्जर राजा के नाम पर ही गुर्जरात्रा आठवी सदी तक चल रहा था ।।

नवसारी में  मिले भड़ौच के गुर्जर राजा जयभट्ट तृतीय ने कलचुरी संवत 456 विक्रमं संवत 762 के दानपत्र में खुद को अंगराजकर्ण का वंसज लिखा है कर्ण कब वसँजो में यहां का प्रथम शासक दद था कुछ इतिहासकारों ने दद को प्रतिहारः मान लिया लेकिन यह एकदम गलत है क्यो की दद कर्ण का वंसज था जबकि प्रतिहारः रघुवंशी श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के बंसज है एक दूसरा दद्द हुआ है जो हरिश्चन्द्र प्रतिहारः का पुत्र था जिसकी माता क्षत्राणी भद्रा थी गुर्जर दद खुद राजा नही था जबकि किसी राजा का सामन्त था ।।

बाद में यही कर्ण के वंसज लगातार पराजित होने के कारण ( अरबो ओर राजपूतों से ) खेती बाड़ी के काम मे लग गए और जब इन्होंने अपना मूल काम छोड़ दिया तो यह क्षत्रिय जाति से अलग हो गए बाद में कई राजपूत भी इनके साथ मिल गए ओर गाय चराने का काम करने लगे ओर वे भी गुजर कहलाये इसी कारण गुर्जरों में प्रतिहार्, परमार, यह सब मिल जाते है वास्तव में यह समयदोष के कारण गुजर बने ओर बाद में इन्होंने क्षत्रिय धर्म की कठोरता को त्याग दिया खासकर अरबो के आक्रमण के कारण इस जाति का बहुत विनाश हुआ ओर यह अपनी मूल जाति से अलग हो गए।

अतः गुर्जरों से मेरा तो यही कहना है की आपका स्वयं का इतिहास भी कम गौरवशाली नही है जो अंगराज कर्ण महाभारत में अर्जुन जैसे तपस्वी ओर वीर को टक्कर देता है जिसकी प्रशंसा खुद श्रीकृष्णविष्णु करते है उनके बसँजो को किसी अन्य का इतिहास चुराने की क्या जरूरत है ? दरअसल यह चुराने की परंपरा भी नई नही है ;- अंगराज कर्ण ने भी धोखे से ज्ञान चुराया था यही रीत गुजर भाइयो में आजतक चली आ रही है लेकिन इनकी योग्यता पर संदेह नही किया जा सकता यह वास्तव में बहादुर कौम है ।।

यह तो हुआ गुर्जरवंश का परिचय - आप गुर्जरभाई जाने ओर समस्त जनता जाने की पृथ्वीराज चौहान किस वंश से थे चौहान राजाओ का सम्पूर्ण इतिहास आगले के लेख में आप पेज को लाइक करना ना भूलें ।

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जय राजपूताना। 
जय मां भवानी। 
धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

रविवार, 5 जनवरी 2020

वीर विरांगना रानी सारंधा की वीर गाथा

बादशाह औरंगजेब रानी सारंधा से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था... रानी सारंधा के पति ओरछा के राजा चंपतराय थे... बादशाह ने हिन्दू सुबेदार शुभकरण को चंपतराय के विरुद्ध युद्ध अभियान पर भेजा....शुभकरण बचपन में चंपतराय का सहपाठी भी था...दुर्भाग्यवश चंपतराराय के कई दरबारी भयवश उससे टूटकर औरंगजेब से जा मिले थे..पर राजा चंपतराय और रानी सारंधा ने अपना धैर्य और साहस नहीं छोड़ा.. उन्होंने डटकर मुकाबला किया लेकिन बादशाह के सैनिकों की संख्‍या बढ़ती ही जा रही थी.. लगातर आक्रमण के चलते राजा और रानी ने ओरछा से निकल जाना ही उचित समझा..ओरछा से निकलकर राजा तीन वर्षों तक बुंदेलखंड के जंगलों में भटकते रहे.. महाराणा प्रताप की तरह ऐसे कई राजाओं ने अपने स्वाभिमान के लिए कई वर्षों तक जंगल में बिताने पड़े थे...
चंपतराय भी जंगलों में घूम रहे थे..साथ में रानी सारंधा भी अपना पत्नी धर्म निभा रही थी...वह भी अपने पति और परिवार के हर सुख दुख में साहसपूर्ण तरीके से साथ देती थी.. औरंगजेब ने चंपतराय को बंदी बनाने के अनेक प्रयास किए..लेकिन असफल हुए.. अंत में उसने खुद की चंपतराय को ढूंढ निकालने और गिरफ्‍तार करने का फैसला किया...तलाशी अभियान में लगी बादशाही सेना हटा ली गई..जिससे चंपतराय को यह लगा की बादशाह औरंगजेब ने हार मानकर तलाशी अभियान खत्म कर दिया है...
तब ऐसे में राजा अपने किले ओरछा में लौट आए... औरंगजेब इसी बात कर इंतराज कर रहा था.. उसने तत्काल ही ओरछा के किले को घेर लिया... वहां उसने खूब उत्पात मचाया.. किले के अंदर लगभग 20 हजार लोग थे.. किले की घेराबंदी को तीन सप्ताह हो गए थे..राजा की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी...रसद और खाद्य सामग्री लगभग समाप्त हो रही थी.. राजा उसी समय ज्वार से पीढ़ित हो गया... एक दिन ऐसा लगा की शत्रु आज किले में दाखिल हो जाएंगे.. तब उन्होंने सारंधा के साथ विचार विमर्ष किया.. सारंधा ने किले से बाहर निकल जाने का प्रस्ताव राजा के समक्ष रखा.. राजा इस दशा में अपनी प्रजा को छोड़कर जाने के लिए सहमत नहीं थे... रानी ने भी संकट के समय प्रजा को छोड़कर जाने को बाद में उचित नहीं समझा.. तब रानी ने अपने पुत्र छत्रसाल को बादशाह के पास संधि पत्र लेकर भेजा...जिससे निर्दोष लोगों के प्राण बचाए जा सके...अपने देशवासियों की रक्षा के लिए रानी ने अपने प्रिय पुत्र को संकट में डाल दिया...
जैसा की आशंका थी औरंगजेब ने छत्रसाल को अपने पास रखा लिया और प्रजा से कुछ न कहने का प्रतिज्ञापत्र भिजवाने का सुनिश्चित किया.. रानी को यह प्रतिज्ञा पत्र उस वक्त मिला जब वह मंदिर जा रही थी... उसे पढ़कर प्रसन्नता हुई लेकिन पुत्र के खोने का दुख भी..अब सारंधा के समक्ष एक ओर बीमार पति तो दूसरी ओर बंधक पुत्र था...फिर भी उसने साहस से काम लिया और अब चंपतराय को अंधेरे में किले से निकालने की योजना बनाई.. अचेतावस्त्रा में रानी अपने राजा को किले से 10 कोस दूर ले गई.. तभी उसने देखा कि पीछे से बादशाह के सैनिक आ रहे हैं.. राजा को भी जगाया...राजा ने कहा कि मैं बादशाह का बंधक बनसे से अच्‍छा है कि यही वीरगती को प्राप्त हो जांऊ.. राजी के साथ कुछ लोग थे जिन्होंने बादशाह के सैनिकों से मुकाबला किया और रानी का अंतिम सैनिक भी जब वीरगती को प्राप्त हो गया तो डोली में बैठे राजा ने रानी से कहा आप मुझे मार दें क्योंकि में बंधक नहीं बनना चाहता..रानी ने भारी मन से ऐसा ही किया.. बादशाह के सैनिक रानी के साहस को देखकर दंग रह गए...कुछ ही देर बाद उन्होंनें देखा की रानी ने भी अपनी उसी तलवार से स्वयं की गर्दन उड़ा दी।

🙏 जय भवानी।🙏
👑 जय राजपूताना।👑

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

महान राजपूत सैनिक जनरल जोरावर सिंह


जनरल जोरावर सिंह ने जम्मू के डोगरा सेना के सेनापति के रूप में लद्दाख, बाल्टिस्तान, लेह जीत कर जम्मू राज्य का हिस्सा बनाया इन्होने तिब्बत क्षेत्र के मानसरोवर और कैलाश ( तीर्थ पुरी ) तथा भारत और नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक विजय हासिल की।

इन्होने भारत की विजय पताका भारत के बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी तोयो ( अब चीन में ) में युद्ध करते हुए गोली लगने से इनका देहांत हुआ और तोयो में आज भी इनकी समाधी मौजूद है।

लद्दाख जिस वीर सेनानी के कारण आज भारत में है, उनका नाम है जनरल जोरावर सिंह 13 अप्रैल, 1786 को इनका जन्म ग्राम अनसरा (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में #ठाकुर_हरजे_सिंह के घर में हुआ था जोरावर सिंह  महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये।

राजा ने इनके सैन्य कौशल से प्रभावित होकर कुछ समय में ही इन्हें सेनापति बना दिया वे अपनी विजय पताका लद्दाख और बाल्टिस्तान तक फहराना चाहते थे। 

अतः जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया और लेह की ओर कूच कर दिया किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया सुरू के तट पर वकारसी तथा दोरजी नामग्याल को हराकर जनरल जोरावर सिंह की डोगरा सेना लेह में घुस गयी इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हो गया।

अब जोरावर ने बाल्टिस्तान पर हमला किया लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं तो उसे सन्धि करनी पड़ी जोरावर ने उसके बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7,000 रु. वार्षिक जुर्माने का फैसला कराया। 

अब उन्होंने तिब्बत की ओर कूच किया हानले और ताशी गांग को पारकर वे आगे बढ़ गये अब तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये हथियार डाल दिये अब ये लोग मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच गये। 

वहां 8,000 तिब्बती सैनिकों ने परखा में मुकाबला किया जिसमे तिब्बती पराजित हुए जोरावर सिंह तिब्बत भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक जा पहुँचे। वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये।

जोरावर सिंह के पराक्रम की बात सुनकर अंग्रेजों के कान खड़े हो गये उन्होंने पंजाब के राजा रणजीत सिंह पर उन्हें नियन्त्रित करने का दबाव डाला निर्णय हुआ कि।

10 दिसम्बर, 1841 को तिब्बत को उसका क्षेत्र वापस कर दिया जाये। इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की जनरल जोरावर सिंह के 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई राक्षसताल के पास सभी डोगरा सैनिक शहीद हो गये जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में सैनिक भेजे पर वे सब भी शहीद हुये। 

अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे पर तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला।

12 दिसम्बर को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया। 

सिंह छोतरन नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है तिब्बती इसकी पूजा करते हैं इस प्रकार जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी वह भारत ही नहीं अपितु विश्व के एकमात्र योद्धा हैं जिनके शौर्य व वीरता से प्रभावित होकर शत्रु सेना द्वारा उनकी समाधि बनाई गई हो। 

उन्होंने लद्दाख को जम्मू रियासत का अंग बताया जो भारत का अभिन्न अंग है प्रकार इस वीर सपूत ने 12 दिसंबर 1841 ई. को तिब्बती से लड़ते हुए टोयो नामक स्थान पर वीरगति प्राप्त की तिब्बतियों ने इनके  उनकी समाधि बनाई उन्होंने कहा कि वे हमारे प्रेरणास्त्रोत हैं।

जय राजपूताना।
जय मां भवानी।
👑क्षत्रिय धर्म युगे युगे।👑

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

ज़िला मुजफ़्फ़रनगर के शामली/अब शामली जिले में "जलालाबाद" पहले राजा मनहर सिंह पुंडीर का राज्य था। और इसे "मनहर खेडा " कहा जाता था।

ज़िला मुजफ़्फ़रनगर के शामली/अब शामली जिले में "जलालाबाद" पहले राजा मनहर सिंह पुंडीर का राज्य था। और इसे "मनहर खेडा " कहा जाता था। इनका औरंगजेब से शाकुम्भरी देवी की ओर सड़क बनवाने को लेकर विवाद हुआ। इसके बाद औरंगजेब के सेनापति जलालुदीन पठान ने हमला किया और एक भेदीये ने किले का दरवाजा खोल दिया। जिसके बाद नरसंहार में सारा राजपरिवार मारा गया। सिर्फ एक रानी जो गर्भवती थी और उस समय अपने मायके में थी, उसकी संतान से उनका वंश आगे चला और मनहरखेडा रियासत के वंशज आज सहारनपुर के "भारी-भावसी" गाँव में रहते हैं। पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष सहारनपुर श्री मानवीर सिंह पुण्डीर भी उसी राजपरिवार से हैं। मनहर खेड़ा वालो के 12 गांव है
भारी, भाबसी, काशीपुर
माही, ठसका, कल्लरपुर
रोनी, हरनाकी, मगनपुर
भनेड़ा, दखोड़ी, उमरपुर

ये सब एक ही बाबा के है
जो अलग अलग जाकर बस
गये थे। 
एक परिवार गांव मसावी मे भी रहता है।
इस राज्य पर जलालुदीन ने कब्जा कर इसका नाम 'जलालाबाद' रख दिया। ये किला आज भी शामली-सहारनपुर रोड़ पर जलालाबाद में स्थित है। इसके गुम्बद सड़क से ही दिखते हैं।

जलालाबाद के पठानो के उत्पीड़न की शिकायत बन्दा सिंह पर गई और राजपूताने के राजाओं पर गयी। राजपूताना मतलब (वर्तमान राजस्थान) जिसका नाम पहले राजपूताना था, आजदी के बाद राजस्थान हुआ। राजस्थान के राजाओं ने सेना की छोटी-2 टुकड़ी को सहायता के लिए भेज दिया। थानाभवन के रैकवार राजपूत(राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार श्री सुरेश राणा जी का परिवार), खट्टा प्रह्लादपुर के दाहिमा-राजपूत, बिराल के कुशवाहा राजपूत सब उसी समय राजस्थान से यहाँ युद्ध लड़ने आये थे। चौहान राजा की सेना युद्ध के बाद वापिस लौट गई थी। कुछ दिन बाद ही इस इलाके के पुण्डीर राजपूत व राजपूताने से आयी राजपूती फ़ौज की मदद से जलालाबाद पर ( बन्दासिंह बहादुर सिख राजपूत ) के नेतृत्व मे हमला किया। बीस दिनों तक सिक्खो और  राजपूतो ने किले को घेरे रखा। यह मजबूत किला पूर्व में पुंडीर राजपूतो ने ही बनवाया था, इस किले के पास ही कृष्णा नदी बहती थी,बन्दासिंंह बहादुर ने किले पर चढ़ाई के लिए सीढियों का इस्तेमाल किया। रक्तरंजित युद्ध में जलाल खान के भतीजे ह्जबर खान, पीर खान, जमाल खान और सैंकड़ो गाजी मारे गए। जलाल खान ने मदद के लिए दिल्ली गुहार लगाई, दुर्भाग्य से उसी वक्त जोरदार बारिश शुरू हो गई और कृष्णा नदी में बाढ़ आ गई। वहीँ दिल्ली से बहादुर शाह ने दो सेनाएं एक जलालाबाद और दूसरी पंजाब की और भेज दी। पंजाब में बंदा की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर मुस्लिम फौजदारो ने हिन्दू सिखों पर भयानक जुल्म शुरू कर दिए। इतिहासकार खजान सिंह के अनुसार इसी कारण बन्दासिंंह बहादुर और उसकी सेना ने वापस पंजाब लौटने के लिए किले का घेरा समाप्त कर दिया और जलालुदीन पठान बच गया। 

 नोट :– उपयुक्त जानकारी क्षेत्र के बड़े बुजुर्गों एवं मित्रों द्वारा इकट्ठा की है । लेख को पढ़ रहे सभी बंधुओ से अपील करूँगा की जलालाबाद का नाम बदलकर इस कलंक को साफ करने के लिए आगे आएं। इस ऐतिहासिक भूमि को इसकी पहचान वापस दिलाये। 🙏🙏

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

एक निहत्थे और घायल वीर योद्वा की गाथा।

एक निहत्था और घायल शख्स सामने बैठा था और अकबर का जल्लाद बहरम खान  उसे इस्लाम कबूल करने पर जोर डाल रहा था.….||
ये निहत्था और घायल शख्स था हेमचंद विक्रमादित्य उर्फ़ हेमू..
वो राजा जिसने 350 वर्ष के मुग़ल सल्तनत को उखड फेका था...||
वो राजा जिसने अपने जीवन में लड़े 24 युद्ध में से 22 को जीता था....||
वो राजा जिसके चलते दिल्ली ने कई सौ वर्ष बाद हिन्दु रीतीरिवाज़ से हुआ राज्य अभिषेक देखा था..
पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू ने अकबर की फौज को तिनके की तरह बिखेर दिया था.. हेमू की तलवार के सामने अकबर का कोई भी योद्धा आने को तैयार नही था....||
पर शायद भारत की इस भूमि के नसीब में अभी और मुगलिया अत्याचार लिखे थे...||
और तभी किसी ने धोखे से हेमू की आँख में एक तीर मार दिया...
जिसके बाद युद्ध का रूप बिलकुल पलट गया और अकबर की सेना ने हेमू को गिरफ्तार कर लिया...||
इस पर भी अकबर का जब कोई भी जल्लाद हेमू की वीरता से प्रभावित हो  उसका सर कलम करने को राजी नही हुआ और बहरम खान की लाख यातनायो पर भी हेमू ने इस्लाम नही कबूला
तो क्रूर बहरम खान ने निहत्थे हेमू का सर कलम कर दिया...||
और भारत की भूमि फिर से मुगलों के आधीन हो गई..
और फिर मां भारती के एक और वीर सपूत राजा हेमचन्द्र ने मातृभूमि के लिए प्राण न्यौछावर कर दिए...||

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

👑सयंम नही है अपने में…!!✌

⛳【👑 सयंम नही है अपने में…🔫 अपना 😎 एक ही उसूल ✊ है… जो उंगली 👉 करें…☝ उसका हाथ 👋 काट 🔪 दो।💀】⛳

बुधवार, 27 नवंबर 2019

राजा दाहिर सेन

पहली बार अगर किसी ने मुस्लिमों का विश्वास जीतने की कोशिश की होगी  तो वो राजा दाहिर सेन थे मोहम्मद साहब के परिवार को शरण दी और बदले में उनको  मौत मिली।
 राजा दाहिर सेन एक प्रजावत्सल राजा थे। गोरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। यह देखकर ईरान के शासक हज्जाम ने 712 ई0 में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किये; पर राजा दाहरसेन और हिन्दू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया।
सीधी लड़ाई में बार-बार हारने पर कासिम ने धोखा किया। 20 जून, 712 ई. को उसने सैकड़ों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं जैसा वेश पहना दिया। लड़ाई छिड़ने पर वे महिला वेशधारी सैनिक रोते हुए राजा दाहरसेन के सामने आकर मुस्लिम सैनिकों से उन्हें बचाने की प्रार्थना करने लगे। राजा ने उन्हें अपनी सैनिक टोली के बीच सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शेष महिलाओं की रक्षा के लिए तेजी से उस ओर बढ़ गये, जहां से रोने के स्वर आ रहे थे।

इस दौड़भाग में वे अकेले पड़ गये। उनके हाथी पर अग्निबाण चलाये गये, जिससे विचलित होकर वह खाई में गिर गया। यह देखकर शत्रुओं ने राजा को चारों ओर से घेर लिया। राजा ने बहुत देर तक संघर्ष किया; पर अंततः शत्रु सैनिकों के भालों से उनका शरीर क्षत-विक्षत होकर मातृभूमि की गोद में सदा को सो गया। इधर महिला वेश में छिपे मुस्लिम सैनिकों ने भी असली रूप में आकर हिन्दू सेना पर बीच से हमला कर दिया। इस प्रकार हिन्दू वीर दोनों ओर से घिर गये और मोहम्मद बिन कासिम का पलड़ा भारी हो गया।

राजा दाहरसेन के बलिदान के बाद उनकी पत्नी लाड़ी और बहिन पद्मा ने भी युद्ध में वीरगति पाई। कासिम ने राजा का कटा सिर, छत्र और उनकी दोनों पुत्रियों (सूर्या और परमाल) को बगदाद के खलीफा के पास उपहारस्वरूप भेज दिया। जब खलीफा ने उन वीरांगनाओं का आलिंगन करना चाहा, तो उन्होंने रोते हुए कहा कि कासिम ने उन्हें अपवित्र कर आपके पास भेजा है।
इससे खलीफा भड़क गया। उसने तुरन्त दूत भेजकर कासिम को सूखी खाल में सिलकर हाजिर करने का आदेश दिया। जब कासिम की लाश बगदाद पहुंची, तो खलीफा ने उसे गुस्से से लात मारी। दोनों बहिनें महल की छत पर खड़ी थीं। जोर से हंसते हुए उन्होंने कहा कि हमने अपने देश के अपमान का बदला ले लिया है। यह कहकर उन्होंने एक दूसरे के सीने में विष से बुझी कटार घोंप दी और नीचे खाई में कूद पड़ीं।

सौजन्य से :–
          पं. खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
          राजर्षि राजवंश - आर्यावर्त्य
        धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
        प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़