रविवार, 5 जनवरी 2020

वीर विरांगना रानी सारंधा की वीर गाथा

बादशाह औरंगजेब रानी सारंधा से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था... रानी सारंधा के पति ओरछा के राजा चंपतराय थे... बादशाह ने हिन्दू सुबेदार शुभकरण को चंपतराय के विरुद्ध युद्ध अभियान पर भेजा....शुभकरण बचपन में चंपतराय का सहपाठी भी था...दुर्भाग्यवश चंपतराराय के कई दरबारी भयवश उससे टूटकर औरंगजेब से जा मिले थे..पर राजा चंपतराय और रानी सारंधा ने अपना धैर्य और साहस नहीं छोड़ा.. उन्होंने डटकर मुकाबला किया लेकिन बादशाह के सैनिकों की संख्‍या बढ़ती ही जा रही थी.. लगातर आक्रमण के चलते राजा और रानी ने ओरछा से निकल जाना ही उचित समझा..ओरछा से निकलकर राजा तीन वर्षों तक बुंदेलखंड के जंगलों में भटकते रहे.. महाराणा प्रताप की तरह ऐसे कई राजाओं ने अपने स्वाभिमान के लिए कई वर्षों तक जंगल में बिताने पड़े थे...
चंपतराय भी जंगलों में घूम रहे थे..साथ में रानी सारंधा भी अपना पत्नी धर्म निभा रही थी...वह भी अपने पति और परिवार के हर सुख दुख में साहसपूर्ण तरीके से साथ देती थी.. औरंगजेब ने चंपतराय को बंदी बनाने के अनेक प्रयास किए..लेकिन असफल हुए.. अंत में उसने खुद की चंपतराय को ढूंढ निकालने और गिरफ्‍तार करने का फैसला किया...तलाशी अभियान में लगी बादशाही सेना हटा ली गई..जिससे चंपतराय को यह लगा की बादशाह औरंगजेब ने हार मानकर तलाशी अभियान खत्म कर दिया है...
तब ऐसे में राजा अपने किले ओरछा में लौट आए... औरंगजेब इसी बात कर इंतराज कर रहा था.. उसने तत्काल ही ओरछा के किले को घेर लिया... वहां उसने खूब उत्पात मचाया.. किले के अंदर लगभग 20 हजार लोग थे.. किले की घेराबंदी को तीन सप्ताह हो गए थे..राजा की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी...रसद और खाद्य सामग्री लगभग समाप्त हो रही थी.. राजा उसी समय ज्वार से पीढ़ित हो गया... एक दिन ऐसा लगा की शत्रु आज किले में दाखिल हो जाएंगे.. तब उन्होंने सारंधा के साथ विचार विमर्ष किया.. सारंधा ने किले से बाहर निकल जाने का प्रस्ताव राजा के समक्ष रखा.. राजा इस दशा में अपनी प्रजा को छोड़कर जाने के लिए सहमत नहीं थे... रानी ने भी संकट के समय प्रजा को छोड़कर जाने को बाद में उचित नहीं समझा.. तब रानी ने अपने पुत्र छत्रसाल को बादशाह के पास संधि पत्र लेकर भेजा...जिससे निर्दोष लोगों के प्राण बचाए जा सके...अपने देशवासियों की रक्षा के लिए रानी ने अपने प्रिय पुत्र को संकट में डाल दिया...
जैसा की आशंका थी औरंगजेब ने छत्रसाल को अपने पास रखा लिया और प्रजा से कुछ न कहने का प्रतिज्ञापत्र भिजवाने का सुनिश्चित किया.. रानी को यह प्रतिज्ञा पत्र उस वक्त मिला जब वह मंदिर जा रही थी... उसे पढ़कर प्रसन्नता हुई लेकिन पुत्र के खोने का दुख भी..अब सारंधा के समक्ष एक ओर बीमार पति तो दूसरी ओर बंधक पुत्र था...फिर भी उसने साहस से काम लिया और अब चंपतराय को अंधेरे में किले से निकालने की योजना बनाई.. अचेतावस्त्रा में रानी अपने राजा को किले से 10 कोस दूर ले गई.. तभी उसने देखा कि पीछे से बादशाह के सैनिक आ रहे हैं.. राजा को भी जगाया...राजा ने कहा कि मैं बादशाह का बंधक बनसे से अच्‍छा है कि यही वीरगती को प्राप्त हो जांऊ.. राजी के साथ कुछ लोग थे जिन्होंने बादशाह के सैनिकों से मुकाबला किया और रानी का अंतिम सैनिक भी जब वीरगती को प्राप्त हो गया तो डोली में बैठे राजा ने रानी से कहा आप मुझे मार दें क्योंकि में बंधक नहीं बनना चाहता..रानी ने भारी मन से ऐसा ही किया.. बादशाह के सैनिक रानी के साहस को देखकर दंग रह गए...कुछ ही देर बाद उन्होंनें देखा की रानी ने भी अपनी उसी तलवार से स्वयं की गर्दन उड़ा दी।

🙏 जय भवानी।🙏
👑 जय राजपूताना।👑

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

महान राजपूत सैनिक जनरल जोरावर सिंह


जनरल जोरावर सिंह ने जम्मू के डोगरा सेना के सेनापति के रूप में लद्दाख, बाल्टिस्तान, लेह जीत कर जम्मू राज्य का हिस्सा बनाया इन्होने तिब्बत क्षेत्र के मानसरोवर और कैलाश ( तीर्थ पुरी ) तथा भारत और नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक विजय हासिल की।

इन्होने भारत की विजय पताका भारत के बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी तोयो ( अब चीन में ) में युद्ध करते हुए गोली लगने से इनका देहांत हुआ और तोयो में आज भी इनकी समाधी मौजूद है।

लद्दाख जिस वीर सेनानी के कारण आज भारत में है, उनका नाम है जनरल जोरावर सिंह 13 अप्रैल, 1786 को इनका जन्म ग्राम अनसरा (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में #ठाकुर_हरजे_सिंह के घर में हुआ था जोरावर सिंह  महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये।

राजा ने इनके सैन्य कौशल से प्रभावित होकर कुछ समय में ही इन्हें सेनापति बना दिया वे अपनी विजय पताका लद्दाख और बाल्टिस्तान तक फहराना चाहते थे। 

अतः जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया और लेह की ओर कूच कर दिया किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया सुरू के तट पर वकारसी तथा दोरजी नामग्याल को हराकर जनरल जोरावर सिंह की डोगरा सेना लेह में घुस गयी इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हो गया।

अब जोरावर ने बाल्टिस्तान पर हमला किया लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं तो उसे सन्धि करनी पड़ी जोरावर ने उसके बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7,000 रु. वार्षिक जुर्माने का फैसला कराया। 

अब उन्होंने तिब्बत की ओर कूच किया हानले और ताशी गांग को पारकर वे आगे बढ़ गये अब तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये हथियार डाल दिये अब ये लोग मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच गये। 

वहां 8,000 तिब्बती सैनिकों ने परखा में मुकाबला किया जिसमे तिब्बती पराजित हुए जोरावर सिंह तिब्बत भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक जा पहुँचे। वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये।

जोरावर सिंह के पराक्रम की बात सुनकर अंग्रेजों के कान खड़े हो गये उन्होंने पंजाब के राजा रणजीत सिंह पर उन्हें नियन्त्रित करने का दबाव डाला निर्णय हुआ कि।

10 दिसम्बर, 1841 को तिब्बत को उसका क्षेत्र वापस कर दिया जाये। इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की जनरल जोरावर सिंह के 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई राक्षसताल के पास सभी डोगरा सैनिक शहीद हो गये जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में सैनिक भेजे पर वे सब भी शहीद हुये। 

अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे पर तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला।

12 दिसम्बर को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया। 

सिंह छोतरन नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है तिब्बती इसकी पूजा करते हैं इस प्रकार जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी वह भारत ही नहीं अपितु विश्व के एकमात्र योद्धा हैं जिनके शौर्य व वीरता से प्रभावित होकर शत्रु सेना द्वारा उनकी समाधि बनाई गई हो। 

उन्होंने लद्दाख को जम्मू रियासत का अंग बताया जो भारत का अभिन्न अंग है प्रकार इस वीर सपूत ने 12 दिसंबर 1841 ई. को तिब्बती से लड़ते हुए टोयो नामक स्थान पर वीरगति प्राप्त की तिब्बतियों ने इनके  उनकी समाधि बनाई उन्होंने कहा कि वे हमारे प्रेरणास्त्रोत हैं।

जय राजपूताना।
जय मां भवानी।
👑क्षत्रिय धर्म युगे युगे।👑

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

ज़िला मुजफ़्फ़रनगर के शामली/अब शामली जिले में "जलालाबाद" पहले राजा मनहर सिंह पुंडीर का राज्य था। और इसे "मनहर खेडा " कहा जाता था।

ज़िला मुजफ़्फ़रनगर के शामली/अब शामली जिले में "जलालाबाद" पहले राजा मनहर सिंह पुंडीर का राज्य था। और इसे "मनहर खेडा " कहा जाता था। इनका औरंगजेब से शाकुम्भरी देवी की ओर सड़क बनवाने को लेकर विवाद हुआ। इसके बाद औरंगजेब के सेनापति जलालुदीन पठान ने हमला किया और एक भेदीये ने किले का दरवाजा खोल दिया। जिसके बाद नरसंहार में सारा राजपरिवार मारा गया। सिर्फ एक रानी जो गर्भवती थी और उस समय अपने मायके में थी, उसकी संतान से उनका वंश आगे चला और मनहरखेडा रियासत के वंशज आज सहारनपुर के "भारी-भावसी" गाँव में रहते हैं। पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष सहारनपुर श्री मानवीर सिंह पुण्डीर भी उसी राजपरिवार से हैं। मनहर खेड़ा वालो के 12 गांव है
भारी, भाबसी, काशीपुर
माही, ठसका, कल्लरपुर
रोनी, हरनाकी, मगनपुर
भनेड़ा, दखोड़ी, उमरपुर

ये सब एक ही बाबा के है
जो अलग अलग जाकर बस
गये थे। 
एक परिवार गांव मसावी मे भी रहता है।
इस राज्य पर जलालुदीन ने कब्जा कर इसका नाम 'जलालाबाद' रख दिया। ये किला आज भी शामली-सहारनपुर रोड़ पर जलालाबाद में स्थित है। इसके गुम्बद सड़क से ही दिखते हैं।

जलालाबाद के पठानो के उत्पीड़न की शिकायत बन्दा सिंह पर गई और राजपूताने के राजाओं पर गयी। राजपूताना मतलब (वर्तमान राजस्थान) जिसका नाम पहले राजपूताना था, आजदी के बाद राजस्थान हुआ। राजस्थान के राजाओं ने सेना की छोटी-2 टुकड़ी को सहायता के लिए भेज दिया। थानाभवन के रैकवार राजपूत(राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार श्री सुरेश राणा जी का परिवार), खट्टा प्रह्लादपुर के दाहिमा-राजपूत, बिराल के कुशवाहा राजपूत सब उसी समय राजस्थान से यहाँ युद्ध लड़ने आये थे। चौहान राजा की सेना युद्ध के बाद वापिस लौट गई थी। कुछ दिन बाद ही इस इलाके के पुण्डीर राजपूत व राजपूताने से आयी राजपूती फ़ौज की मदद से जलालाबाद पर ( बन्दासिंह बहादुर सिख राजपूत ) के नेतृत्व मे हमला किया। बीस दिनों तक सिक्खो और  राजपूतो ने किले को घेरे रखा। यह मजबूत किला पूर्व में पुंडीर राजपूतो ने ही बनवाया था, इस किले के पास ही कृष्णा नदी बहती थी,बन्दासिंंह बहादुर ने किले पर चढ़ाई के लिए सीढियों का इस्तेमाल किया। रक्तरंजित युद्ध में जलाल खान के भतीजे ह्जबर खान, पीर खान, जमाल खान और सैंकड़ो गाजी मारे गए। जलाल खान ने मदद के लिए दिल्ली गुहार लगाई, दुर्भाग्य से उसी वक्त जोरदार बारिश शुरू हो गई और कृष्णा नदी में बाढ़ आ गई। वहीँ दिल्ली से बहादुर शाह ने दो सेनाएं एक जलालाबाद और दूसरी पंजाब की और भेज दी। पंजाब में बंदा की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर मुस्लिम फौजदारो ने हिन्दू सिखों पर भयानक जुल्म शुरू कर दिए। इतिहासकार खजान सिंह के अनुसार इसी कारण बन्दासिंंह बहादुर और उसकी सेना ने वापस पंजाब लौटने के लिए किले का घेरा समाप्त कर दिया और जलालुदीन पठान बच गया। 

 नोट :– उपयुक्त जानकारी क्षेत्र के बड़े बुजुर्गों एवं मित्रों द्वारा इकट्ठा की है । लेख को पढ़ रहे सभी बंधुओ से अपील करूँगा की जलालाबाद का नाम बदलकर इस कलंक को साफ करने के लिए आगे आएं। इस ऐतिहासिक भूमि को इसकी पहचान वापस दिलाये। 🙏🙏

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

एक निहत्थे और घायल वीर योद्वा की गाथा।

एक निहत्था और घायल शख्स सामने बैठा था और अकबर का जल्लाद बहरम खान  उसे इस्लाम कबूल करने पर जोर डाल रहा था.….||
ये निहत्था और घायल शख्स था हेमचंद विक्रमादित्य उर्फ़ हेमू..
वो राजा जिसने 350 वर्ष के मुग़ल सल्तनत को उखड फेका था...||
वो राजा जिसने अपने जीवन में लड़े 24 युद्ध में से 22 को जीता था....||
वो राजा जिसके चलते दिल्ली ने कई सौ वर्ष बाद हिन्दु रीतीरिवाज़ से हुआ राज्य अभिषेक देखा था..
पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू ने अकबर की फौज को तिनके की तरह बिखेर दिया था.. हेमू की तलवार के सामने अकबर का कोई भी योद्धा आने को तैयार नही था....||
पर शायद भारत की इस भूमि के नसीब में अभी और मुगलिया अत्याचार लिखे थे...||
और तभी किसी ने धोखे से हेमू की आँख में एक तीर मार दिया...
जिसके बाद युद्ध का रूप बिलकुल पलट गया और अकबर की सेना ने हेमू को गिरफ्तार कर लिया...||
इस पर भी अकबर का जब कोई भी जल्लाद हेमू की वीरता से प्रभावित हो  उसका सर कलम करने को राजी नही हुआ और बहरम खान की लाख यातनायो पर भी हेमू ने इस्लाम नही कबूला
तो क्रूर बहरम खान ने निहत्थे हेमू का सर कलम कर दिया...||
और भारत की भूमि फिर से मुगलों के आधीन हो गई..
और फिर मां भारती के एक और वीर सपूत राजा हेमचन्द्र ने मातृभूमि के लिए प्राण न्यौछावर कर दिए...||

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

👑सयंम नही है अपने में…!!✌

⛳【👑 सयंम नही है अपने में…🔫 अपना 😎 एक ही उसूल ✊ है… जो उंगली 👉 करें…☝ उसका हाथ 👋 काट 🔪 दो।💀】⛳

बुधवार, 27 नवंबर 2019

राजा दाहिर सेन

पहली बार अगर किसी ने मुस्लिमों का विश्वास जीतने की कोशिश की होगी  तो वो राजा दाहिर सेन थे मोहम्मद साहब के परिवार को शरण दी और बदले में उनको  मौत मिली।
 राजा दाहिर सेन एक प्रजावत्सल राजा थे। गोरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। यह देखकर ईरान के शासक हज्जाम ने 712 ई0 में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किये; पर राजा दाहरसेन और हिन्दू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया।
सीधी लड़ाई में बार-बार हारने पर कासिम ने धोखा किया। 20 जून, 712 ई. को उसने सैकड़ों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं जैसा वेश पहना दिया। लड़ाई छिड़ने पर वे महिला वेशधारी सैनिक रोते हुए राजा दाहरसेन के सामने आकर मुस्लिम सैनिकों से उन्हें बचाने की प्रार्थना करने लगे। राजा ने उन्हें अपनी सैनिक टोली के बीच सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शेष महिलाओं की रक्षा के लिए तेजी से उस ओर बढ़ गये, जहां से रोने के स्वर आ रहे थे।

इस दौड़भाग में वे अकेले पड़ गये। उनके हाथी पर अग्निबाण चलाये गये, जिससे विचलित होकर वह खाई में गिर गया। यह देखकर शत्रुओं ने राजा को चारों ओर से घेर लिया। राजा ने बहुत देर तक संघर्ष किया; पर अंततः शत्रु सैनिकों के भालों से उनका शरीर क्षत-विक्षत होकर मातृभूमि की गोद में सदा को सो गया। इधर महिला वेश में छिपे मुस्लिम सैनिकों ने भी असली रूप में आकर हिन्दू सेना पर बीच से हमला कर दिया। इस प्रकार हिन्दू वीर दोनों ओर से घिर गये और मोहम्मद बिन कासिम का पलड़ा भारी हो गया।

राजा दाहरसेन के बलिदान के बाद उनकी पत्नी लाड़ी और बहिन पद्मा ने भी युद्ध में वीरगति पाई। कासिम ने राजा का कटा सिर, छत्र और उनकी दोनों पुत्रियों (सूर्या और परमाल) को बगदाद के खलीफा के पास उपहारस्वरूप भेज दिया। जब खलीफा ने उन वीरांगनाओं का आलिंगन करना चाहा, तो उन्होंने रोते हुए कहा कि कासिम ने उन्हें अपवित्र कर आपके पास भेजा है।
इससे खलीफा भड़क गया। उसने तुरन्त दूत भेजकर कासिम को सूखी खाल में सिलकर हाजिर करने का आदेश दिया। जब कासिम की लाश बगदाद पहुंची, तो खलीफा ने उसे गुस्से से लात मारी। दोनों बहिनें महल की छत पर खड़ी थीं। जोर से हंसते हुए उन्होंने कहा कि हमने अपने देश के अपमान का बदला ले लिया है। यह कहकर उन्होंने एक दूसरे के सीने में विष से बुझी कटार घोंप दी और नीचे खाई में कूद पड़ीं।

सौजन्य से :–
          पं. खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
          राजर्षि राजवंश - आर्यावर्त्य
        धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
        प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़

सोमवार, 25 नवंबर 2019

अमर सिंह हाड़ा [चौहान]


परम उज्जवल हाडा चौहान वंश में अनेक योद्धाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने बाहुबल से समस्त क्षत्रियों का गौरव बढ़ाया। परन्तु आज उन योद्धाओं के केवल नाम ही शेष रह गए हैं और वर्तमान समय में तो वह नाम भी हम भूलते जा रहे हैं। 

हाडा चौहान वंश में जन्मे अमरसिंह हाडा ठिकाना पलायथा की वीरगाथा भी अविस्मरणीय है, यह घटना मध्यकाल से उत्तरार्द्ध तथा उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक काल की हैं। भारत में इस समय अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो चुका था, लेकिन मराठों का उपद्रव रूका नहीं था, इस समय कोटा पर महाराव उम्मेदसिंह का शासन था। इनके समय सन् 1860 में मराठा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में कोटा राज्य की ओर से पलायथा ठिकाणे से अमरसिंह (आपजी सा) इस युद्ध में कर्नल मोन्सून के साथ शामिल हुए थे।



यह युद्ध मध्यप्रदेश के गरोठ नामक स्थान पर हुआ था। युद्ध के दौरान अमरसिंह जी हाडा ने अपनी प्रचण्ड वीरता का परिचय दिया और हाथी पर सवार एक मराठे सरदार को अमरसिंह जी हाडा (आपजी सा) ने मार गिराया। इससे क्रोधित होकर मराठा सरदार जसवंत राव होल्कर ने अपनी सेना के साथ अमरसिंह पर धावा बोल दिया। अमरसिंह जी हाडा (आपजी सा) ने अपनी अद्भूत वीरता तथा युद्ध कौशल का परिचय देते हुए करीबन 837 मराठों को खेत कर दिया यानी मार गिराया। अमरसिंह जी हाडा प्रचण्डता से युद्ध करते हुए काफी सारे दुश्मनों से घिर गए और किसी मराठे ने पीछे से वार कर अमरसिंह जी का सिर कलम कर दिया। अमरसिंह जी हाडा (आपजी सा हुकूम) सिर कटने के बाद भी बराबर तलवार चला रहे थे और मराठाओं को मौत के घाट उतार रहे थे, जो भी अमरसिंह जी हाडा की तलवार के सामने आता वह फना यानी खत्म हो जाता।



यह नजारा अद्भुत एवं रोमांचित कर देने वाला था, जिसे देखकर सभी अचंभित थे। अमरसिंह जी हाडा की बहादुर और वफादार घोड़ी जिसका नाम केसर था, उस घोड़ी ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए अमरसिंह जी के धड़ को युद्ध स्थल से पलायथा ठिकाणे ले आई। गरोठ के युद्ध मैदान से पलायथा ठिकाणे की दूरी करीबन 130 किलोमीटर है। इस युद्ध में मराठों की हार हुई थी। 


इतिहास गवाह है कि युद्ध के समय पर राजपूतों के घोड़ों की अहम भूमिका रही है। यहां पर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के साहसी घोड़े चेतक और वीर अमरसिंह राठौड़ के घोड़े का स्मरण करना प्रासंगिक ही होगा।

🙏वीर भोग्या वसुंधरा।🚩
🙏जय राजपुताना।🚩

शनिवार, 23 नवंबर 2019

क्षत्रिय राजपूत वंश

राजपूत वह जाति है....
जिसका उदाहरण दुनिया मे शायद ही कहीं मिल सकें.... वीरता, दृढ़ता, स्वाभिमान, चातुर्य, युद्धकौशल, निर्भयता, ज्ञान ओर आन पर मर मिट जाने का इतिहास राजपूत जाति का ही मिलेगा...
स्वतंत्रता के उपासक, प्रातः स्मरणीय महाराणा 
प्रताप, सम्राट पृथ्वीराज चौहान,वीरवर सेनापति दुर्गादास, मुगलो के दांत खट्टे करने वाले क्षत्रपति शिवाजी , वीर जयमल मेड़तिया, मिहिरभोज , अमर सिंह राठौड़ राणा सांगा, और ऐसे अनगिनत वीरो का जन्म इस जाति में हुआ है....
कर्तव्यपरायण क्षत्राणी खींची वंश की राजपूतानी पन्ना धाय, दुर्गावती , हाड़ा रानी, सती पद्मावती औेर ऐसी कई वीरांगनाओं ने किस जाति में जन्म लिया, वह कौन सी जाति है, जिसने अपने बेटों, पति, पिता, भाई की बलि देकर संसार मे अपना नाम अमर किया! वह जाति है राजपूत ...
ओह !! मैं यह सुबह सुबह कैसा स्वपन देख रहा हूँ… कितनी सुंदर और पवित्र स्मृतियां है मेरे देश के वीर राजपूतो की… देवताओ ने भी आज तक इतने सुंदर चरित्र और सदाचारी आचरण करने वाले मनुष्य नही देखे होंगे, जैसे वीर राजपूत जाति में पैदा हुए...
पौरूष, विक्रम, त्याग के नाम पर जो भाव व्यक्त किये जा सकते है, वह सभी गुण राजपूतो में है । राजपूत हमारी श्रद्धा के अधिकारी है । राजपूतो का इतिहास लिखना, ओर उनके ह्रदय में जगह बनाना, एक स्वपन जैसा है....
मनुष्य जाति की इस कौम को, मानवता के इस पुष्प को, जिसके सौंदर्य  ओर सौरभ की तुलना संसार मे कोई दूसरा नही कर सकता, ऐसे पुष्प राजपूत जाति में ही खिले है ....
राजपूत ....तू इतिहास का निर्माता है तू अत्यंत मधुरतम  वीररस की  कविता है , तू जीवन का तत्वज्ञान है । तेरी आत्मा महत्तम है । यधपि वर्तमानकाल में तू अपने पूर्ण रुप मे दिखाई नही देता, लेकिन मेरा विश्वास है कि तू शीघ्र ही अपनी आत्मा को पहचानने में सफल होगा । 
अतीत काल मे तू हमेशा उत्पीड़ितों की रक्षा के लिए उठा और लड़ा, तूने रक्त की नदियां बहाई ओर अपने नाम को अमर बनाया....
राजपूत !! तू धन्य है, तेरा नाम स्मरण होते ही, ईश्वर का स्मरण हो जाता है। संपुर्ण विश्व के राजपूत, महान् चौहान, राठौड़, मेवाड़ी, वीर मारवाड़ी, कभी न झुकने वाले हाड़ा, निर्भय भाटी, महाराणा प्रताप , उनका गौरव, उनकी शान, ओर उनके नाम की कीर्ति - पताका आज भी संसार मे प्रसिद्ध है....
राजपूत, तेरे पूर्व के गौरव को देखकर मेरा सिर श्रद्धा से झुक जाता है...... तेरी वीरता का किस्सा पढ़ पढ़ के मेरी इस मुर्दा नसों में भी उबाल आ जाता है। तेरी कथाएं सुनते ही निर्बल मनुष्य की भुजाएं भी फड़क उठती है।
         ||  तू धन्य है ... तुझे बार बार नमन है ||

शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

यह समाधि गवाह है योद्धाओं के अपमान की।

बाबर के ऊपर मौत बन कर टूटे और हिंदुत्व की रक्षा के लिए 80 घाव खा कर भी अंतिम सांस तक लड़ते रहने वाले महायोद्धा रणासांगा की समाधि की ये दुर्दशा। 🥴
यह समाधि राजस्थान के दौसा जिले के बसवा गाँव में रेलवे लाइन के एक तरफ स्थित है। चित्र को देखकर ही समझा जा सकता है कि हम अपने वीरों का कितना सम्मान करते हैं। जिन्होंने इस देश की रक्षा के लिए अपनी जान दी आज हम लोगो ने उनका क्या हाल कर दिया? भले ही दुश्मन उनका सर ना झुका सके लेकिन हम लोगों ने उनकी शान जरूर मिट्टी में मिला दी। 😞😞

हमारी मांग है राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता के सिंहासन पर बैठे उन तमाम लोगों से कि अविलम्ब इस पावन स्थली का जीर्णोद्धार करवा कर इसको नवीनीकरण का स्वरूप दिया जाय जिस से आने वाली पीढ़ी राणा सांगा जैसे महावीरो का इतिहास पढ़ सकें बजाय कि विधर्मी, क्रूर लुटेरे बाबर जैसे आक्रान्ताओं का।