बुधवार, 14 सितंबर 2022

हरियाणा के सबसे बड़े राजपूत गांव

हरियाणा का सबसे बड़ा गांव है राजपूतो का सीवन।

हरियाणा का सबसे बड़ा शुद्ध गांव भी राजपूतो का है सालवान।

हरियाणा के 11 जिलो के सबसे बड़े गांव भी राजपूतो के ही हैं।

भिवानी और महेन्द्रगढ़ दोनो जिलो के आबादी में टॉप 10 गांव सारे राजपूतो के हैं।

अंबाला, करनाल और गुड़गांव के टॉप 5 गांव सारे राजपूतो के हैं।

अगर पार्टीशन नही हुआ होता तो हरियाणा के हर जिले में टॉप 5 या 10 गांव और पूरे हरियाणा के टॉप 25 गांव सारे राजपूतो के होते। 

विभाजन के कारण कई गांवो की डेमोग्राफी बदल गई और कई गांवो की आबादी आधी रह गई। 

जैसे रोहतक में पहले एक गाना मशहूर था:- 

मरी लाहली, सैम्पल उट्ठी, कलानौर का रे थाना, 
छोटे गांव की के गिनती बड़े गांव कहनौर निघाना।

ये कहावत भी बहुत मशहूर थी:-

दिल्ली से पचास कोस कहनौर और निघाना।
अपनी कमाई आप खाते ना दे किसी को दाना॥

आज कहनौर और निघाना को कोई नही जानता। 
ये ही हाल कभी मध्य हरियाणा के सबसे मशहूर गांव रहे कान्ही, बैंसी, मोठ लोहारी, नगथला, तलवंडी राणा, जमालपुर, हाजमपुर, बलियाली, भुन्ना आदि का है। कलानौर तो शहर है अब। 

उत्तरी हरियाणा में भी असंध, सफीदों, जुंडला, हाबड़ी, जलमाना, पूंडरी, बालू, गुमथला जैसे बड़े गांव सब राजपूतो के थे। 

राजस्व रिकार्ड्स के अनुसार हरियाणा के सबसे पुराने गांव राजपूतो के ही हैं। 

तुर्क और मुगल शासकों द्वारा हरियाणा में किसान जातियों को बसाने से पहले हरियाणा में चरवाहा संस्कृति का प्रचलन था। 

ज्यादातर क्षेत्र में जंगल हुआ करते थे। राजपूतो के बड़े बड़े राज्य हुआ करते थे जिनमे छावनियों की तरह बड़े बड़े किलेनुमा गांव हुआ करते थे जो जंगलों से घिरे होते थे। 

तुर्क और मुगल शासन द्वारा राजपूतो के दमन का मुकाबला करने के लिये बड़े किलेनुमा गांवो का प्रचलन और बढ़ा। हरियाणा में बड़े गांव होने के पीछे का ये बड़ा कारण है। 

हरियाणा के सभी पुराने बड़े शहर भी ज्यादातर राजपूतो के ही बसाए हुए हैं, जैसे अंबाला, करनाल, पानीपत, जींद, गोहाना, रोहतक, भिवानी, हांसी, फतेहाबाद, सिरसा, रेवाड़ी और पलवल आदि।

भिवानी, पलवल तो अब भी राजपूतो के शहर हैं। पुराने शहर में अब भी राजपूतो की बड़ी आबादी है। पानीपत, करनाल, फतेहाबाद और अंबाला शहरों में भी 47 तक राजपूतो के मोहल्ले थे। 

बहुत से राजपूतो के गांव हैं जो अब कस्बे या शहर बन चुके हैं जैसे घरौंदा, कलायत, बब्याल, बरारा, मुलाना, बवानीखेड़ा, सोहना, हथीन, भिवानी और पलवल वगैरह। इनको गांवो की लिस्ट में शामिल नही किया हालांकि इनमे ज्यादातर में सबसे बड़ी आबादी अब भी राजपूतो की है। 

★ गांवो की लिस्ट:- (आबादी 2011 सेन्सस के अनुसार)

सिवान (कैथल):- मडाड 23882 (हरियाणा का सबसे बड़ा ग्राम पंचायत है। हालांकि अब कस्बे का रूप ले चुका है। विभाजन के समय काफी राजपूत पाकिस्तान चले गए।)

बरारा (अंबाला):- चौहान 21,545 (अंबाला जिले का सबसे बड़ा गांव। हालांकि अब कस्बे का रूप ले चुका है। अम्बाला में सभी बड़े गांव राजपूतो के हैं।)

जटोली(हेली-मंडी)-(गुड़गांव):- चौहान 20906 (गुड़गांव का सबसे बड़ा गांव, हालांकि कसबे का रूप ले चुका है, लेकिन बहुमत आबादी राजपूतो की ही है।)

सलवान-(करनाल):- मडाड 18594 (हरियाणा का सबसे बड़ा शुद्ध गांव, लगभग 8 हजार राजपूत वोट।
किसी एक गांव में किसी एक जाती की इससे बड़ी आबादी और कही नही है। हरियाणा में सबसे ज्यादा रकबे वाला गांव। हरियाणा में सबसे ज्यादा संख्या में बड़े जमीदारों का गांव। हरियाणा में सबसे ज्यादा किसानों की संख्या वाला गांव। बावनी गांव की किवदंती को चरितार्थ करता अकेला गांव, गांव में सटीक 52 हजार बीघे का रकबा)

बोहडा कलां-(गुड़गांव):- चौहान 18961 (गुड़गांव का दूसरा बड़ा गांव।)

राजौंद-(कैथल):-मडाड 17434

भौंडसी-(गुड़गांव):- राघव 17410

गोंदर-(करनाल):- चौहान 14,542

बापोड़ा-(भिवानी):- तंवर 14332 (भिवानी और दक्षिण हरियाणा का सबसे बड़ा गांव, जनरल वीके सिंह का गांव, हरियाणा में सबसे ज्यादा फौजी देने वाला गांव। इस गांव की बड़ी आबादी अब पलायन कर के शहरों में रहती है नही तो ये हरियाणा का सबसे बड़ा गांव हो सकता था। गुडाड का गिदोड़ा आया बापोड़ा, मशहूर कहावत है इस गांव के लिये।)

बौंद कलां-(दादरी):- परमार 14309 (नए बने दादरी जिले का सबसे बड़ा गांव।) 

छांयसा-(फरीदाबाद):- बरगला भाटी 14212 (फरीदाबाद का सबसे बड़ा शुद्ध गांव। फरीदाबाद से सबसे ज्यादा फौजी इसी गाँव से हैं।)

मुआना -(जींद):- मडाड 14205 (जींद जिले का सबसे बड़ा गांव।) 

कलिंगा-(भिवानी):- परमार 13916

चांग-(भिवानी):- परमार 12979 

खरक कलां-(भिवानी):- परमार 12605

देवसर- (भिवानी):- तंवर 12488

दिनोद-(भिवानी):- तंवर 11792

बात्ता-(कैथल):- मडाड 11,755

मुनक- (करनाल):- मडाड 11,507

डडलाना- (पानीपत):- मडाड 11413 (पानीपत जिले में अब राजपूतो का अकेला गांव लेकिन जिले के टॉप 3 गांव में शामिल।)

फरल-(कैथल):- तंवर 11,030

तिगड़ाना-(भिवानी):- तंवर 10712

सतनाली-(महेंद्रगढ़):- शेखावत 10,013 (महेन्द्रगढ़ जिले का सबसे बड़ा गांव। महेन्द्रगढ़ जिले में आबादी के हिसाब से सभी टॉप 10 गांव राजपूतो के ही हैं।)

कैरु -(भिवानी):- तंवर 9894

राहड़ा-(करनाल):- मडाड 9628

धनौदा- (महेंद्रगढ़):- तंवर 8692

बरवाला-(पंचकूला):- तावनी 8308 (पंचकूला जिले का सबसे बड़ा गांव। इस जिले में भी ज्यादातर बड़े गांव राजपूतो के ही हैं।)

कासन-(गुड़गांव):- चौहान 8628

उझिना- (मेवात):- छौंकर 8500 (मेवात में हिन्दुओ का सबसे बड़ा गांव।)

जखौली- (सोनीपत):- चौहान 7800 ( सोनीपत जिले में राजपूतो के कुछ ही गांव हैं, उनमे भी जखौली जिले के टॉप 5 में शामिल है।)

गढी हरसरू- गुड़गांव:- चौहान 7894 (ढूंढोति के चौहानो की 60 गांव की रियासत की राजधानी।)

बिहटा-(अम्बाला):- चौहान 7865 (अंबाला जिले का दूसरा बड़ा गांव।) 

उगाला- (अंबाला):- चौहान 7305 (अंबाला का तीसरा बड़ा गांव।)

★ राजपूतो के वो गांव जो अब नगर निकाय बन चुके हैं:- 

बब्याल- (अंबाला):- तावनी 26,412 (राजपूतो का गांव है लेकिन अब अंबाला शहर में लगता है।)

घरौंदा- (करनाल):- मडाड 37816 (राजपूतो का गांव है लेकिन अब शहर बन चुका है।)

कलायत- (कैथल):- मडाड 18660 (राजपूतो का शुद्ध गांव है। मडाड राजपूतो का चबूतरा है। लेकिन अब नगर पालिका कहलाता है।)

बवानीखेड़ा- (भिवानी):- तंवर 20289 (राजपूतो का गांव है लेकिन अब नगर पालिका में आता है।)

सोहना- (गुड़गांव):- राघव 53962 (राजपूतो का गांव है, लेकिन अब शहर बन चुका है।)

हथीन- (पलवल):- छोंकर 14421 (राजपूतो का गांव है, लेकिन अब नगर पालिका बन चुका है। पलवल में हिन्दुओ का सबसे बड़ा गांव है।)

बोह- (अंबाला):- तावनी 8482 (राजपूतो का गांव है लेकिन शहर से लगा हुआ है।)

★ राजपूतो के गांव जो अब बड़े शहर बन चुके लेकिन अब भी राजपूतो की बड़ी आबादी:- 

भिवानी:- तंवर 2 लाख आबादी (शहर में 16 पाने राजपूतो के हैं, राजपूतो की 30 हजार से ऊपर आबादी है।)

पलवल:- खंगारोत 2,3500 आबादी (शहर में 9 पट्टी राजपूतो की हैं, 18 हजार से ऊपर वोट हैं, नगर परिषद में 5 राजपूत पार्षद हैं।)

रविवार, 11 सितंबर 2022

यदुवंशी भाटी

यदुवंशी भाटी 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे।

राजधानी का नाम काल
काशी 900 साल
द्वारिका 500 साल
मथुरा 1050 साल
गजनी 1500 साल
लाहोर 600 साल
हंसार 160 साल
भटनेर 80 साल
मारोट 140 साल
तनोट 40 साल
देरावर 20 साल
लुद्र्वा 180 साल
जैसलमेर 791 साल

इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है। 

 जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल चेतन्यराज सिंह तक । 208 पीढियों का वर्णन है। 

यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए। 

भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए। 

प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है। 

 प्रस्तुत ब्लॉग में प्रथम भाग ब्रह्मा से लुद्र्वा महारावल भोजदेव 165 भाटी 26 तक तथा दूसरा भाग जैसलमेर के संस्थापक महारावल जैसल 166 भाटी 27 से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह 208 भाटी 69 तक वर्णन करने की कोशिस करूँगा।
जय माँ स्वांगिया।

गुरुवार, 8 सितंबर 2022

राजा मानसिंह आमेर

आखिर ऐसा क्या कारण है, की हजारो मंदिरो की रक्षा एवं जीर्णोद्धार के बाद भी राजा मानसिंह भारतीयों के आदर्श नही है .......

इस बात पर सभी इतिहासकार एकमत है, की राजा मानसिंह के कार्यकाल में समय भारत मे काशी, मथुरा, अयोध्या, बिहार समेत बंगाल तक अनेको हिन्दू मंदिरो का उद्धार हुआ। राजा मानसिंह का काल हिन्दू मंदिरो के उद्धार का स्वर्णयुग माना जाता है॥

उसके बाद भी भारत की अधिकतर जनता राजा मानसिंह को घृणा की दृष्टि से ही देखती है ।देखिए, कितनी रोचक बात है न् ... एक व्यक्ति जो हजारो लाखो मंदिरो का उद्धारक है , लेकिन भारतीय जनता का प्रिय नही है॥

भारत की जनता राजा मानसिंह से घृणा क्यो करती है, इस बात को कड़ी जोड़ते हुए समझना होगा॥

1192 ईस्वी का समय था, जब मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को पराजित किया। 
1194 ईस्वी तक मुहम्मद गौरी की सेना कुतुबुद्दीन के नेतृत्व में काशी तक पहुंच गई, पूरे काशी को उजाड़ दिया। 1199 ईस्वी तक तो बख्तियार खिलजी बिहार के नालंदा तक पहुंच गया॥

1200 ईस्वी तक अफगानों ने भारत मे पूरी तरह पकड़ बना ली। यह अफगान शासक तुर्की के खलीफा को अपना सर्वोच्च शासक मानते थे। भारत मे समय के साथ अफगान सरदारों में भी फुट पड़ी, और प्रत्येक सरदार ने अपनी अलग अलग सल्तनत बना ली॥

अफगानों तुर्को की जो नई सल्तनतें बनी थी, वैसे तो यह अनगिनत थी, लेकिन जो प्रमुख शक्तिशाली सल्तनत जो थी, जैसे पश्चिम में गुजरात सल्तनत, उत्तर में मालवा सल्तनत, दिल्ली सल्तनत, पूर्व में बंगाल सल्तनत, दक्षिण में बहमनी सल्तनत और यह सभी सल्तनतें अपने आप मे सुपरपावर थी॥

गुजरात सल्तनत के पठानों ने 1472 ईस्वी में ही गुजरात का प्रमुख तीर्थ द्वारिकाधीश मंदिर मस्जिद में बदल डाला था। इसी गुजरात सल्तनत के बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया, जिसमे रानी कर्णावतीजी को जौहर करना पड़ा॥

बंगाल सल्तनत तो गुजरात सल्तनत से भी कई 100 गुणा ताकतवर थी। 200 आधुनिक तोपे उसके पास थी। 2 लाख से ऊपर सैनिक थे। यह बंगाल सल्तनत आज के जौनपुर से शुरू होती थी, और बिहार, झारखंड, बंगाल आदि राज्यो से होते हुए वर्मा तक जाकर इसकी सीमाएं खत्म होती थी॥ 

इसी बंगाल सल्तनत ने उड़ीसा के मंदिरो तक पर हमला किया था, जिसमे कोर्णाक सूर्य मंदिर तो तोड़ ही डाला, जगन्नाथपुरी मंदिर पर आक्रमण किया गया, लेकिन हिन्दुओ ने यह मंदिर बचा लिया। इसी सल्तनत के दम पर शेरशाह राजस्थान तक मे अपना झंडा गाड़ गया॥

भारत के बीचों बीच दिल्ली में लोदी सल्तनत। लोदी भी पठान। बहमनियों से तो हिन्दुओ को पेशवाओ के काल तक पड़ना पड़ा, पेशवाओ के काल तक क्यो ?? आजतक हमे बहमनियों से संघर्ष करना ही पड़ रहा है। दक्षिण का टीपू सुल्तान तक तुर्की खलीफा की आज्ञा लेकर तख्त पर बैठता था॥

पूरा भारत पठानों के चंगुल में था। इसी समय अकबर की एंट्री हो गयी। आमेर राजपरिवार ने मौका लपका, और अकबर से ही एक के बाद एक अफगान सल्तनतों का नाश करवाया॥

सबसे पहले मालवा सल्तनत पर धावा बोला, और अफगान मियां बाजबहादुर खान को मारा, उसके बाद मालवा में धर्मपरिवर्तन का नंगा नाच एकदम बन्द हो गया, कम से कम अगले 50-100 वर्ष तक॥

अकबर की सेना की सहायता से ही श्रीमानसिंह ने गुजरात सल्तनत पर धावा बोला। गुजरात सल्तनत तबाह हो गया, एक और इस्लामी सल्तनत का सफाया। इसी समय अकबर की सेना की मदद से ही राजा मानसिंह ने बंगाल सल्तनत का सफाया कर दिया॥

श्रीमानसिंह को जैसे जैसे लगा की भारत भीतर से मजबूत हो रहा है, तो उन्होंने भारत से बाहर निकलकर आक्रमण करने की योजना भी बनाई, अफगानिस्तान गए। जिस तरह आज कश्मीर मुद्दे पर सारे इस्लामी देश एक है, उस समय राजा मानसिंह के अफगानिस्तान पहुंचने पर भी इस्लामी शक्तियां एक हो गयी॥ 

उस समय तुरान नाम का एक देश हुआ करता था, आज के हिसाब से तुलना करें , तो तजाकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान , तुर्कमेनिस्तान , ईरान, इराक यह देश मिलकर तुरान कहलाते थे, तुर्की भी इस गठबंधन का सदश्य था॥

अकबर का खुद का भाई अकबर के खिलाफ हो गया, इन सभी ने मिलकर राजा मानसिंह पर से घोर युद्ध किया, लेकिन सभी पराजित हुए। ईरान, अफगानिस्तान, इराक, तुरान , तुर्की इन सबको राजा मानसिंह ने अकेले पराजित किया, उसी विजय का प्रमाण आमेर का पचरंगा ध्वज है॥

एकमात्र राजा मानसिंह का कार्यकाल ही ऐसा रहा, जब भारतीयों ने तुर्को को टैक्स नही दिया, प्रत्येक मुस्लिम शासक तुर्को को टैक्स देता था, अकबर ने तुर्को को कभी टैक्स तो क्या, भाव तक नही दिया॥

दुनिया भर की इस्लामी ताकतों ने मिलकर, जिस इस्लामी तंत्र को पिछले 600 वर्षों की मेहनत से भारत में स्थापित किया था, राजा मानसिंह ने उसे अकबर की मूर्खता की सहायता से, कुछ ही वर्षो में ध्वस्त कर दिया ॥

राजा मानसिंह जी के बाद मराठों का उदय हो गया, इधर मुगल सत्ता में तुर्की घुसपैठ हो गई, भारत समर्थित दारा शिकोह के स्थान पर तुर्की समर्थित औरंगजेब बैठ गया। औरंगजेब के पतन के बाद पेशवाओ का उदय हुआ, फिर अंग्रेज आएं और उसके बाद आया लोकतंत्र....

इस लोकतंत्र में भारत के पहले शिक्षामंत्री बने मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, यह भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे॥

भारत का पहला शिक्षामंत्री अफगानिस्तान के उलेमाओं के खानदान से ताल्लुक रखता था॥

इस्लाम मे उलेमा होता है, यह बहुत उच्च श्रेणी का ओहदा है, कुरान शरीफ और हदीस की रोशनी में उलेमा लोग मुसलमानो को गाइड करते है , और इनकी शिक्षा का स्थान होता है , मदरसा॥

जैसा कि हम बता चुके है , भारत का पहला शिक्षा अबुल कलाम आजाद मंत्री उलेमाओं के खानदान से ही था, भारत के पहले शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद इस्लाम को इतनी बारीकी से जानते थे, कि तजर्मन-ए-कुरान , और अल-हलाल जैसी पुस्तकें भी लिखी, अलहलाल नाम की इनकी एक पत्रिका भी आती थी॥

मौलाना अब्दुल कलाम के पिता थे मोहम्मद खैरुद्दीन.... उनके परिवार ने भारतीय स्वतंत्रता के पहले आन्दोलन के समय 1857 में कलकत्ता छोड़ कर मक्का चले गए॥

वहाँ पर मोहम्मद खॅरूद्दीन की मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई, मोहम्मद खैरूद्दीन 1890 में भारत लौट गए, यहां उन्हें कलकत्ता में एक मुस्लिम विद्वान के रूप में ख्याति मिली॥

इस प्रकार एक कट्टर मुसलमान जो पहला शिक्षा मंत्री बना, जिसे अपना इतिहास ज्ञात था की राजा मानसिंह के कारण उसकी पठान कौम पूरे साम्राज्य का नाश हुआ है, तो भला वह फिर श्री मानसिंह के नाम को गुमनामी में क्यो न पहुंचाता…?

स्वयं ही विचार करने वाली बात है…
राजा मानसिंह एक ऐसे व्यक्तित्व है..... जिनका पश्चिम के द्वारिकाधीश मंदिर से लेकर, पूर्व में जगन्नाथपुरी मंदिर की रक्षा एवं जीर्णोद्धार में योगदान है, जिन्होंने मथुरा, काशी, गया, हरिद्वार जैसे तीर्थो का पुनरुद्धार किया, भला उसकी आलोचना में इतने साहित्य क्यों रच दिए गए…??

कारण सिर्फ एक ही था।

विदेशी कभी नही चाहते थे, की हिन्दू अपनी कूटनीति और बलनीति के प्राप्त हुई विजय का इतिहास पढ़े, वह केवल हमें हमारी हार पढ़वाकर , हमारा मनोबल तोड़कर, हमे गुलाम बनाकर हमपर अत्याचार ही करना चाहते है, यही कारण है कि वामपंथी और अरबी शिक्षा पद्धति ने कभी भारत के सच्चे सपूतों का इतिहास सामने नही आने दिया।

बुधवार, 7 सितंबर 2022

राजा राजेन्द्र चोल प्रथम (1012-1044)

राजा राजेन्द्र चोल प्रथम (1012-1044) :- वामपंथी इतिहासकारों के साजिशों की भेंट चढ़ने वाला हमारे इतिहास का एक महान शासक..

#राजाराजेन्द्रचोल, #चोल_राजवंश के सबसे महान शासक थे उन्होंने अपनी विजयों द्वारा चोल सम्राज्य का विस्तार कर उसे दक्षिण भारत का सर्व शक्तिशाली साम्राज्य बना दिया था।

राजेंद्र चोल एकमात्र राजा थे जिन्होंने न केवल अन्य स्थानों पर अपनी विजय का पताका लहराया बल्कि उन स्थानों पर वास्तुकला और प्रशासन की अद्भुत प्रणाली का प्रसार किया जहां उन्होंने शासन किया।

सन 1017 ईसवी में हमारे इस शक्तिशाली नायक ने सिंहल (श्रीलंका) के प्रतापी राजा महेंद्र पंचम को बुरी तरह परास्त करके सम्पूर्ण सिंहल(श्रीलंका) पर कब्जा कर लिया था।

जहाँ कई महान राजा नदियों के मुहाने पर पहुँचकर अपनी सेना के साथ आगे बढ़ पाने का हिम्मत नहीं कर पाते थे वहीं राजेन्द्र चोल ने एक शक्तिशाली नेवी का गठन किया था जिसकी सहायता से वह अपने मार्ग में आने वाली हर विशाल नदी को आसानी से पार कर लेते थे।

अपनी इसी नौसेना की बदौलत राजेन्द्र चोल ने अरब सागर स्थित सदिमन्तीक नामक द्वीप पर भी अपना अधिकार स्थापित किया यहाँ तक कि अपने घातक युद्धपोतों की सहायता से कई राजाओं की सेना को तबाह करते हुए राजेन्द्र प्रथम ने जावा, सुमात्रा एवं मालदीव पर अधिकार कर लिया था।

एक विशाल भूभाग पर अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद उन्होंने (गंगई कोड़ा) चोलपुरम नामक एक नई राजधानी का निर्माण किया था, वहाँ उन्होंने एक विशाल कृत्रिम झील का निर्माण कराया जो सोलह मील लंबी तथा तीन मील चौड़ी थी। यह झील भारत के इतिहास में मानव निर्मित सबसे बड़ी झीलों में से एक मानी जाती है। उस झील में बंगाल से गंगा का जल लाकर डाला गया।

एक तरफ आगरा मे शांहजहाँ के शासन के दौरान भीषण अकाल के बावजूद इतिहासकार उसकी प्रशंसा में इतिहास के पन्नों को भरने में लगे रहे दूसरी तरफ जिस राजेन्द्र चोल के अधीन दक्षिण भारत एशिया में समृद्धि और वैभव का प्रतिनिधित्व कर रहा था उसके बारे में हमारे इतिहास की किताबें एक साजिश के तहत खामोश रहीं ।

यहाँ तक कि बंगाल की खाड़ी जो कि दुनिया की सबसे बड़ी खाड़ी है इसका प्राचीन नाम चोला झील था, यह सदियों तक अपने नाम से चोल की महानता को बयाँ करती रही, बाद में यह कलिंग सागर में बदल दिया गया गया और फिर ब्रिटिशर्स द्वारा बंगाल की खाड़ी में परिवर्तित कर दिया गया, वाम इतिहासकारों ने हमेशा हमारे नायकों के इतिहास को नष्ट करने की साजिश रची और हमारे मंदिरों और संस्कृति को नष्ट करने वाले मुगल आक्रांताओं के बारे में पढ़ाया, राजेन्द्र चोल की सेना में कमांडर के पद पर कुछ महिलाएं भी थी, सदियों बाद मुगलों का एक ऐसा वक्त आया जब महिलाएं पर्दे के पीछे चली गईं ।

हममें से बहुत से लोगों को चोल राजवंश और मातृभूमि के लिए उनके योगदान के बारे में नहीं पता है। मैंने इतिहास के अलग-अलग स्रोतों से अपने इस महान नायक के बारे में जाने की कोशिश की और मुझे महसूस हुआ कि अपने इस स्वर्णिम इतिहास के बारे में आपको भी जानने का हक है।

जय भवानी।
जय राजपूताना।

शनिवार, 6 अगस्त 2022

ब्रिगेडियर भवानी सिंह

● ब्रिगेडियर भवानी सिंह जी जैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है दुनिया मे ! 

अरबों - खरबों की संम्पत्ति होने के बाबजूद भी मातृभूमि की रक्षा के लिए इन्होंने सेना को ज्वाईन किया था ! और जीबन भर तनख्वाह के नाम पर सिर्फ 1 रुपया महीना लिया .

● ब्रिगेडियर महाराजा सवाई भवानी सिंह जी जयपुर के #कुशवाहा ( कच्छवाहा )के महाराजा थे जिन्होंने भारत पाक युद्ध में सन 1971 ई० में बाग्लादेश युद्ध में अपनी वीरता का परिचय देते हुए सन 1972 ई० में सम्मान स्वरूप महावीर चक्र से सम्मानित हुए थे ! 

● पाकिस्तान की सीमा में सैकड़ों किलोमीटर दूर तक दूश्मन के हौसले पस्त कर देने और कई शहरों को कब्जे में कर लेने के बाद छुट्टी मनाने जब जयपुर के पुर्व नरेश सवाई भवानी सिंह जब जयपुर लौटे तब सारा शहर उन्हें धन्यवाद देने के लिए खड़ा हो गया था ! पहुचने के बाद इन्होंने पहला काम शिलादेवी के मंदिर में धन्य प्रार्थना कर आशिर्वाद प्राप्त किया था ! जैसा कुशवाहा क्षत्रियों की परम्परा रही है ! 

● वे तब लैफ्टिनेंट कर्नल पद पर थे ! वर्ष 1971 में भारत ने पुर्वी पाकिस्तान ( आज के बाग्लादेश ) को स्वतंत्र कराने में अभुतपूर्व सैन्य सहायता प्रदान कर विश्व को चौंका दिया था ! पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान ने पंजाब तथा राजस्थान के कई राज्यों में आक्रमण किए जिनका माकुम जाबाब देकर उन्हें ध्वस्त किया ! भारतीय सेना दूश्मन के इलाकों में घुसती गई ! 

● बहुत कम लोगों को पता होगा कि पाँच महिनों से रेगिस्तानी क्षेत्रों में हवाई जहाजो से छताधारी लड़ाकू यौद्धाओं ( पैरा ट्रुपर सैनिक )को कुदाया जा रहा था और ऐसे प्रशिक्षण दिए जा रहे थे की वे अंधेरे में पाकिस्तान के इलाकों में कब्जा कर ले ! भवानी सिंह तब भारतीय सेना के दशवीं पैरा रेजीमेंट के शिर्ष अधिकारी थे और इस प्रशिक्षण का नैतृत्व कर रहे थे ! 

● सेना प्रमुख एस. एच. एफ जे. मानकशा कि अगुवाई में इन्होंने छताधारी सैनिकों कि अगुवाई कर उस( डेजर्ट आपरेशन ) की अगुवाई की और पाकिस्तान की सीमा में छाछरो नामक नगर पर आधी रात में ही कब्जा कर लिया "एल्फा" और "चारली" नमक दो अलग अलग तुकडियों के जमीन पर कुदते ही सेना की ''जौंगा" जीपें" खड़ी मिलती जिनमें गोला बारूद एवं खाने का सामान रखना था ! पाँच दिन में इन सभी ने छाछरो के बाद वीरावाह , स्लामकोट , नगरपारक और अन्त में लुनियों नामक नगरों पर तिरंगा झंडा फहराया था ! यह इलाके बाडमेर के दक्षिण पश्चिम में थे और करिब 60 - 90 किलोमीटर की दूरी पर इस करवाई में पाक के 36 सैनिक मारे गए और 22 को युद्ध बन्दी बनाया गया ! 

● वीरोचित सम्मान देने के लिए पुरा देश ऊन दिनों युद्ध से लौटने वाले सैनिकों के लिए पलकें बिछाए हुए था ! जयपुर में लैफ्टीनैंट कर्नल भवानी सिंह को दोह तरफा आदर मिला एक तो वे यहाँ के महाराजा थे ! दूसरे एक ऐसे सैन्य अधिकारी जिन्होंने छताधारी सैनिकों का नेतृत्व किया था और पाकिस्तान के कई शहरों को फतह किया था ! 

● स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सवाई भवानी सिंह ही एक मात्र नरेश थे जिन्होंने भारतीय सेना में सेकेंड लैफ्टीनैंट के पद से सेवा आरम्भ की और बटालियन के कमाण्डर पद से स्वतः सेवानिवृत्ति प्राप्त की ! इस लडाई में शौर्य प्राक्रम एवं नेतृत्व की श्रेष्ठता के लिए इन्हें सरकार ने महावीर चक्र से सुशोभित किया 22 अक्टूबर 1931 को जन्मे इस पैराट्रू पर फौजी अफसर को ब्रिगेडियर का ओहदा भी सरकार ने प्रदान किया ! इनका देहान्त 17 अप्रैल 2011 को हुआ !!🚩💐

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

राजा बख्तावर सिंह, 1857 की क्रांति का वीर योद्धा, बलिदान पर्व - 10 फरवरी,1858 ई. इंदौर।

मध्य प्रदेश के धार जिले में विन्ध्य पर्वत की सुरम्य श्रंखलाओं के बीच द्वापरकालीन ऐतिहासिक अझमेरा नगर बसा है। 1856 में यहाँ के राजा बख्तावरसिंह ने अंग्रेजों से खुला युद्ध किया; पर उनके आसपास के कुछ राजा अंग्रेजों से मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझते थे।

राजा ने इससे हताश न होते हुए तीन जुलाई, 1857 को भोपावर छावनी पर हमला कर उसे कब्जे में ले लिया। इससे घबराकर कैप्टेन हचिन्सन अपने परिवार सहित वेश बदलकर झाबुआ भाग गया। क्रान्तिकारियों ने उसका पीछा किया; पर झाबुआ के राजा ने उन्हें संरक्षण दे दिया। इससे उनकी जान बच गयी।

भोपावर से बख्तावर सिंह को पर्याप्त युद्ध सामग्री हाथ लगी। छावनी में आग लगाकर वे वापस लौट आये। उनकी वीरता की बात सुनकर धार के 400 युवक भी उनकी सेना में शामिल हो गये; पर अगस्त, 1857 में इन्दौर के राजा तुकोजीराव होल्कर के सहयोग से अंग्रेजों ने फिर भोपावर छावनी को अपने नियन्त्रण में ले लिया।

इससे नाराज होकर बख्तावर सिंह ने 10 अक्तूबर, 1857 को फिर से भोपावर पर हमला बोल दिया। इस बार राजगढ़ की सेना भी उनके साथ थी। तीन घंटे के संघर्ष के बाद सफलता एक बार फिर राजा बख्तावर सिंह को ही मिली। युद्ध सामग्री को कब्जे में कर उन्होंने सैन्य छावनी के सभी भवनों को ध्वस्त कर दिया।

ब्रिटिश सेना ने भोपावर छावनी के पास स्थित सरदारपुर में मोर्चा लगाया। जब राजा की सेना वापस लौट रही थी, तो ब्रिटिश तोपों ने उन पर गोले बरसाये; पर राजा ने अपने सब सैनिकों को एक ओर लगाकर सरदारपुर शहर में प्रवेश पा लिया। इससे घबराकर ब्रिटिश फौज हथियार फेंककर भाग गयी। लूट का सामान लेकर जब राजा अझमेरा पहुँचे, तो धार नरेश के मामा भीमराव भोंसले ने उनका भव्य स्वागत किया।

इसके बाद राजा ने मानपुर गुजरी की छावनी पर तीन ओर से हमलाकर उसे भी अपने अधिकार में ले लिया। 18 अक्तूबर को उन्होंने मंडलेश्वर छावनी पर हमला कर दिया। वहाँ तैनात कैप्टेन केण्टीज व जनरल क्लार्क महू भाग गये। राजा के बढ़ते उत्साह, साहस एवं सफलताओं से घबराकर अंग्रेजों ने एक बड़ी फौज के साथ 31 अक्तूबर, 1857 को धार के किले पर कब्जा कर लिया।

नवम्बर में उन्होंने अझमेरा पर भी हमला किया। 
बख्तावर सिंह का इतना आतंक था कि ब्रिटिश सैनिक बड़ी कठिनाई से इसके लिए तैयार हुए, पर इस बार राजा का भाग्य अच्छा नहीं था। 

तोपों से किले के दरवाजे तोड़कर अंग्रेज सेना नगर में घुस गयी। राजा अपने अंगरक्षकों के साथ धार की ओर निकल गये, पर बीच में ही उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर महू जेल में बन्द कर दिया गया और घोर यातनाएँ दीं। 

इसके बाद उन्हें इन्दौर लाया गया। राजा के सामने 21 दिसम्बर, 1857 को कामदार गुलाबराज पटवारी, मोहनलाल ठाकुर, भवानीसिंह सन्दला आदि उनके कई साथियों को फाँसी दे दी गयी, पर राजा विचलित नहीं हुए। 

वकील चिमनलाल राम, सेवक मंशाराम तथा नमाजवाचक फकीर को काल कोठरी में बन्द कर दिया गया, जहाँ घोर शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ सहते हुए उन्होंने दम तोड़ा। 

अन्ततः 10 फरवरी, 1858 को इन्दौर के एम.टी.एच कम्पाउण्ड में देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राजा बख्तावर सिंह को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया।स्वाधीनता के ये पुजारी हँसते-हँसते अपनी मातृभूमि के लिए जीवन का बलिदान कर गए।

👑🙏🏻जय मां भवानी।🙏🏻🚩

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

चौहान वंश की कुलदेवी माता! 🚩

आशापुरा नाडोल शहर (जिला पाली..राजस्थान) का नगर रक्षक लक्ष्मण जी हमेशा की तरह उस रात भी अपनी नियमित गश्त पर थे.. नगर की परिक्रमा करते-करते लक्ष्मण जी प्यास बुझाने हेतु नगर के बाहर समीप ही बहने वाली भारमली नदी के तट पर जा पहुंचे.. पानी पीने के बाद नदी किनारे बसी चरवाहों की बस्ती पर जैसे लक्ष्मण जी ने अपनी सतर्क नजर डाली.. तब एक झोंपड़ी पर हीरों के चमकते प्रकाश ने आ

कर्षित किया.. वह तुरंत झोंपड़ी के पास पहुंचे और वहां रह रहे चरवाहे को बुला प्रकाशित हीरों का राज पूछा.. चरवाह भी प्रकाश देख अचंभित हुआ और झोंपड़ी पर रखा वस्त्र उतारा.. वस्त्र में हीरे चिपके देख चरवाह के आश्चर्य की सीमा नहीं रही.. उसे समझ ही नहीं आया.. कि जिस वस्त्र को उसने झोपड़ी पर डाला था.. उस पर तो जौ के दाने चिपके थे..

लक्ष्मण जी द्वारा पूछने पर चरवाहे ने बताया.. कि वह पहाड़ी की कन्दरा में रहने वाली एक वृद्ध महिला की गाय चराता है.. आज उस महिला ने गाय चराने की मजदूरी के रूप में उसे कुछ जौ दिए थे.. जिसे वह बनिये को दे आया.. कुछ इसके चिपक गए..जो हीरे बन गये...!!

 लक्ष्मण जी उसे लेकर बनिए के पास गया और बनिए हीरे बरामद वापस ग्वाले को दे दिये.. लक्ष्मण जी इस चमत्कार से विस्मृत थे.. अतः उन्होंने ग्वाले से कहा- अभी तो तुम जाओ.. लेकिन कल सुबह ही मुझे उस कन्दरा का रास्ता बताना जहाँ वृद्ध महिला रहती है..

दुसरे दिन लक्ष्मण जी .. जैसे ही ग्वाले को लेकर कन्दरा में गये.. कन्दरा के आगे समतल भूमि पर उनकी और पीठ किये वृद्ध महिला गाय का दूध निकाल रही थी.. उन्होंने बिना देखे लक्ष्मण जी को पुकारा- “लक्ष्मण, राव लक्ष्मण आ गये बेटा, आओ…”

आवाज सुनते ही लक्ष्मण जी आश्चर्यचकित हो गये और उनका शरीर एक अद्भुत प्रकाश से नहा उठा.. उन्हें तुरंत आभास हो गया.. कि यह वृद्ध महिला कोई और नहीं.. उसकी कुलदेवी माँ शाकम्भरी ही है.. और लक्ष्मण जी सीधे माँ के चरणों में गिर गए.. तभी आवाज आई- मेरे लिए क्या लाये हो बेटा..? बोलो मेरे लिए क्या लाये हो...?

लक्ष्मण जी को माँ का मर्मभरा उलाहना समझते देर नहीं लगी और उन्होंने तुरंत साथ आये ग्वाला का सिर काट माँ के चरणों में अर्पित कर दिया...!!

लक्ष्मण द्वारा प्रस्तुत इस अनोखे उपहार से माँ ने खुश होकर लक्ष्मण से वर मांगने को कहा.. लक्ष्मण जी ने माँ से कहा- माँ आपने मुझे राव संबोधित किया है.. अतः मुझे राव (शासक) बना दो.. ताकि मैं दुष्टों को दंड देकर प्रजा का पालन करूँ.. 

मेरी जब इच्छा हो आपके दर्शन कर सकूं.. और इस ग्वाले को पुनर्जीवित कर देने की कृपा करें..वृद्ध महिला “तथास्तु” कह कर अंतर्ध्यान हो गई.. जिस दिन यह घटना घटी वह वि.स. 1000, माघ सुदी 2 का दिन था.. इसके बाद लक्ष्मण जी नाडोल शहर की सुरक्षा में तन्मयता से लगे रहे..

उस जमाने में नाडोल एक संपन्न शहर था.. अतः मेदों की लूटपाट से त्रस्त था.. लक्ष्मण जी के आने के बाद मेदों को तकड़ी चुनौती मिलने लगी.. नगरवासी अपने आपको सुरक्षित महसूस करने लगे.. एक दिन मेदों ने संगठित होकर लक्ष्मण जी पर हमला किया.. भयंकर युद्ध हुआ.. मेद भाग गए..

लक्ष्मण जी ने उनका पहाड़ों में पीछा किया और मेदों को सबक सिखाने के साथ ही खुद घायल होकर अर्धविक्षिप्त हो गए.. मूर्छा टूटने पर लक्ष्मण जी ने माँ को याद किया.. माँ को याद करते ही लक्ष्मण जी का शरीर तरोताजा हो गया.. 

सामने माँ खड़ी थी बोली- बेटा ! निराश मत हो.. शीघ्र ही मालव देश से असंख्य घोड़ेे तेरे पास आयेंगे..तुम उन पर केसरमिश्रित जल छिड़क देना.. घोड़ों का प्राकृतिक रंग बदल जायेगा.. उनसे अजेय सेना तैयार करो और अपना राज्य स्थापित करो..अगले दिन माँ का कहा हुआ सच हुआ.. असंख्य घोड़े आये.. 

लक्ष्मण जी ने केसर मिश्रित जल छिड़का.. घोड़ों का रंग बदल गया.. लक्ष्मण जी ने उन घोड़ों की बदौलत सेना संगठित की.. इतिहासकार डा. दशरथ शर्मा इन घोड़ों की संख्या 12000 हजार बताते है..तो मुंहता नैंणसी ने इन घोड़ों की संख्या 13000 लिखी है..

अपनी नई सेना के बल पर लक्ष्मण जी ने लुटरे मेदों का सफाया किया.. जिससे नाडोल की जनता प्रसन्न हुई और उसका अभिनंदन करते हुए नाडोल के अयोग्य शासक सामंतसिंह चावड़ा को सिंहासन से उतार लक्ष्मण जी को सिंहासन पर आरूढ कर पुरस्कृत किया...!!

इस प्रकार लक्ष्मण जी माँ शाकम्भरी के आशीर्वाद और अपने पुरुषार्थ के बल पर नाडोल का शासक बने.. मेदों के साथ घायल अवस्था में लक्ष्मण जी ने जहाँ पानी पिया और माँ के दुबारा दर्शन किये जहाँ माँ शाकम्भरी ने उसकी सम्पूर्ण आशाएं पूर्ण की! 

वहां राव लक्ष्मण ने अपनी कुलदेवी माँ शाकम्भरी को “आशापुरा माँ” के नाम से अभिहित कर मंदिर की स्थापना की तथा उस कच्ची बावड़ी जिसका पानी पिया था.. को पक्का बनवाया.. यह बावड़ी आज भी अपने निर्माता वीरवर राव लक्ष्मण की याद को जीवंत बनाये हुए है..

आज भी नाडोल में आशापुरा माँ का मंदिर लक्ष्मण के चौहान वंश के साथ कई जातियों व वंशों के कुलदेवी के मंदिर के रूप में ख्याति प्राप्त कर.. उस घटना की याद दिलाता है.. आशापुरा माँ को कई लोग आज आशापूर्णा माँ भी कहते है और अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है..
कौन था लक्ष्मण ..?

लक्ष्मण शाकम्भर(वर्तमान नमक के लिए प्रसिद्ध सांभर, राजस्थान) के चौहान राजा वाक्प्तिराज का छोटा पुत्र था.. पिता की मृत्यु के बाद लक्ष्मण के बड़े भाई को सांभर की गद्दी और लक्ष्मण को छोटी सी जागीर मिली थी.. पर पराक्रमी, पुरुषार्थ पर भरोसा रखने वाले लक्ष्मण की लालसा एक छोटी सी जागीर कैसे पूरी कर सकती थी..? 

अतः लक्ष्मण ने पुरुषार्थ के बल पर राज्य स्थापित करने की लालसा मन में ले जागीर का त्याग कर सांभर छोड़ दिया.. उस वक्त लक्ष्मण अपनी पत्नी व एक सेवक के साथ सांभर छोड़ पुष्कर पहुंचा और पुष्कर में स्नान आदि कर पाली की और चल दिया..

उबड़ खाबड़ पहाड़ियों को पार करते हुए थकावट व रात्री के चलते लक्ष्मण नाडोल के पास नीलकंठ महादेव के मंदिर परिसर को सुरक्षित समझ आराम करने के लिए रुका.. थकावट के कारण तीनों वहीं गहरी नींद में सो गये.. सुबह मंदिर के पुजारी ने उन्हें सोये देखा.. 

पुजारी सोते हुए लक्ष्मण के चेहरे के तेज से समझ गया ..कि यह किसी राजपरिवार का सदस्य है.. अतः पुजारी ने लक्ष्मण के मुख पर पुष्पवर्षा कर उसे उठाया.. परिचय व उधर आने प्रयोजन जानकार पुजारी ने लक्ष्मण से आग्रह किया कि वो नाडोल शहर की सुरक्षा व्यवस्था संभाले.. 

पुजारी ने नगर के महामात्य संधिविग्रहक से मिलकर लक्ष्मण को नाडोल नगर का मुख्य नगर रक्षक नियुक्त करवा दिया.. जहाँ लक्ष्मण ने अपनी वीरता, कर्तव्यपरायणता, शौर्य के बल पर गठीले शरीर, गजब की फुर्ती वाले मेद जाति के लुटेरों से नाडोल नगर की सुरक्षा की.. और जनता का दिल जीता.. 

उस काल नाडोल नगर उस क्षेत्र का मुख्य व्यापारिक नगर था.. व्यापार के चलते नगर की संपन्नता लुटेरों व चोरों के आकर्षण का मुख्य केंद्र थी.. पंचतीर्थी होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने नाडोल नगर को धन-धान्य से पाट डाला था.. 

हालाँकि नगर सुरक्षा के लिहाज से एक मजबूत प्राचीर से घिरा था.. पर सामंतसिंह चावड़ा जो गुजरातियों का सामंत था.. अयोग्य और विलासी शासक था..अतः जनता में उसके प्रति रोष था.. जो लक्ष्मण के लिए वरदान स्वरूप काम आया..

चौहान वंश की कुलदेवी शुरू से ही शाकम्भरी माता रही है.. हालाँकि कब से है का कोई ब्यौरा नहीं मिलता.. लेकिन चौहान राजवंश की स्थापना से ही शाकम्भरी को कुलदेवी के रूप में पूजा जाता रहा है..

चौहान वंश का राज्य शाकम्भर (सांभर) में स्थापित हुआ तब से ही चौहानों ने माँ आद्ध्यशक्ति को शाकम्भरी के रूप में शक्तिरूपा की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी..
माँ आशापुरा मंदिर तथा नाडोल राजवंश पुस्तक के लेखक डॉ. विन्ध्यराज चौहान के अनुसार- ज्ञात इतिहास के सन्दर्भ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में नगर (ठी.उनियारा) जनपद से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति सवार्धिक प्राचीन है.. 

1945 में अंग्रेज पुरातत्वशास्त्री कार्लाइल ने नगर के टीलों का सर्वेक्षण किया..1949 में श्रीकृष्णदेव के निर्देशन में खनन किया गया तो महिषासुरमर्दिनी के कई फलक भी प्राप्त हुए जो आमेर संग्रहालय में सुरक्षित है..
नाडोल में भी राव लक्ष्मण ने माँ की शाकम्भरी माता के रूप में ही आराधना की थी.. 

लेकिन माँ के आशीर्वाद स्वरूप उसकी सभी आशाएं पूर्ण होने पर लक्ष्मण ने माता को आशापुरा (आशा पूरी करने वाली) संबोधित किया.. जिसकी वजह से माता शाकम्भरी एक और नाम “आशापुरा” के नाम से विख्यात हुई और कालांतर में चौहान वंश के लोग माता शाकम्भरी को आशापुरा माता के नाम से कुलदेवी मानने लगे..

भारतवर्ष के जैन धर्म के सुदृढ. स्तम्भ तथा उद्योगजगत के मेरुदंड भण्डारी जो मूलतः चौहान राजवंश की ही शाखा भी माँ आशापुरा को कुलदेवी के रूप में मानते है.. गुजरात के जडेजा भी माँ आशापुरा की कुलदेवी के रूप में ही पूजा अर्चना करते है..

माँ आशपुरा के दर्शन लाभ हेतु अजमेर-अहमदाबाद रेल मार्ग वे पर स्थित रानी रेल स्टेशन पर उतरकर बस व टैक्सी के माध्यम से नाडोल जाया जा सकता है..मंदिर में पशुबलि निषेध है...!!

          🙏🏻 जय मां आशापुरा। 🚩
          🚩 जय मां शाकम्भरी। 🚩

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

पंवार (परमार) क्षत्रिय राजवंश का इतिहास


पंवार (परमार ) राजपूतों का इतिहास काफी स्वर्णिम रहा है, यह युद्धभूमि में वीरता का परिचय देने और अपने कुशल नेतृत्व के लिए जाने जाते है। 

पंवार मुलतः अग्निवंश है जिसकी उत्पति आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ के यज्ञ अग्निकुण्ड से मूल पूरुष परमार से मानी गई है। प्राचीनकाल में विन्ध्यशिखर पर धारानगरी और माण्डु नामक दो नगरों की स्थापना पंवार वंश के राजाओं ने ही की थी। 

पंवार वंश में एक भोज नामक महाबली और पराक्रमी राजा हुए जिनका यश और कीर्ति आज भी इस कुल को प्रकाशमय बनाए हुए है। पंवार वंश के शासकों के अधीन महेश्वर (माहिष्मति), धारानगरी, माण्डु, उज्जयिनी, चन्द्रभागा, चित्तौड़, आबू, चन्द्रावती, महू, मैदान, पॅवारवती, अमरकोट, विखार, होहदुबी और पाटन आदि नगर रहे थे।  

मालवा के परमार मुंज ने आबू को जीतकर अपने पुत्र अरण्यराज और चन्दन को क्रमशः आबू और जवालिपुर का शासन सौंपा। इस प्रकार आबू, जालौर, सिरोही, पालनपुर, मारवाड़ और दांता राज्यों के कई गाॅवों पर इनका अधिकार हो गया। 

आबू पर्वत पर अचलगढ़ का किला और चन्द्रावती नगर परमारों ने ही बसाये थे। परमारों ने दसवीं शताब्दी में मालवा, मौर्यो से जीतकर उज्जैन नगरी को अपनी राजधानी बनाया। उसके बाद संवत् १३६८ तक आबू पर इनका राज्य रहा जो कि किसी कवि ने इस प्रकार स्पष्ट किया है:-

"पृथ्वी पुंवारों तणी, अने पृथ्वी तणो पॅवार।
एक आबूगढ़ बसाणों, दूजी उज्जैनी धार॥

आबू के प्रथम राजा सिन्धुराज सं. १००० के लगभग हुए, सिन्धुराज की पांचवी पीढ़ी में धरणीवराह पंवार हुए जिन्होंने अपने भाइयों में अपने राज्य को नौ भागों में बांटकर मारवाड़ नवकोट की स्थापना की। 

धरणीवराह के पुत्र-महिपाल, बाहड़ व ध्रुवभट्ट थे। महिपाल जो आबू के राजा थे। दूसरे पुत्र बाहड़ के तीन पुत्र सोढा़, सांखला और बाघ थे। सोढा़ से सोढा़ राजपूत व सांखला से सांखला राजपूत हुए। सोढा़ ने सिन्ध प्रान्त में अमरकोट में अपना राज्य स्थापित किया। 

वीर एवं न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य जिन्होंने विक्रम सम्वत की स्थापना की, वे भी पंवार वंश के राजा थे जिन्होंने उज्जैन में राज किया। मालवा के राजा उदियादीप के एक पुत्र जगदेव पंवार काफी प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने देवी को अपना शीश अर्पण कर दिया, इस सम्बन्ध में एक कहावत है कि :—

"पुंवार नकारो नी करे, सुमेर पर्वत के हियो।
कंकाली भाटण कीरत भणे, शीशदान जगदेव दियो॥"

पंवार वंश में कुल छत्तीस शाखाएं है जिसमें विहल शाखा ही विशेष प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के राजाओं ने काफी समय तक अरावली के पश्चिम में स्थित चन्द्रावती नगर पर राज्य किया। 

इतिहासकार व शिलालेख (आबू पर्वत वि.स.१२८७)के अनुसार इस वंश में प्रथम पुरुष का नाम धूमराज लिखा है। धूमराज के ध्रुवभट्ट और रामदेव। रामदेव के यशोधवल राजा हुए। 

यशोधवल का पुत्र धारावर्ष आबू के परमारों में बड़ा प्रसिद्ध वीर प्रराक्रमी हुआ। पंवार वंश की चार प्रमुख पाटी है, जिसमें धारानाथ की एक पाटी है। धारानाथ से हरिशचन्द्र तक वंशावली इस प्रकार है:- 

धारानाथ→ भोमरक्ष→ ध्रोमरक्ष→ इन्द्रसेन→ अभयचन्द→ नीलरक्ष→ डाबरक्ष→ छत्रनख→ चन्द्रकेशर→ हरिशचन्द्र। 

हरिशचन्द्र के दो पुत्र हुए- रोहितास व मोटाजी। रोहितास के दो पुत्र हरिश और सरिया जी हुए। हरिश जी के वंशज ही मोठिस पंवार कहलाते है। सरियाजी के वंशज जहाजपुर, खेराड़ आदि क्षेत्र में रहते है। 

मोठिस पंवार की प्रमुख शाखायें निम्नलिखित स्थानो पर निवास करती है:- हरिया जी के वंश परम्परा में बालाराव के सात पुत्र हुए, जिनमें खत्रियाम के देवाजी व सातूजी के वंशज बारह भालियों में रहते है। 

दूसरे पुत्र देवधानकजी के वंशज देवाता रहते है। तीसरे पुत्र गोपालजी के वंशज गाफा में रहते है। चौथे पुत्र रीछाजी के वंशज रीछमाल में रहते है। पांचवे पुत्र पीपहंस के वंशज पीपलबावड़ी में रहते है। छठे पुत्र दोमाजी के वंशज रडाना में रहते है। सातवें पुत्र बूड़ी के वंशज बेड़ा भायलों में रहते है। 

सातूजी के पांच पुत्र नामटजी, अणदरायजी, ददेपाल, महपाल, मालाजी(मालदेव,मोठिस वंश के कुलदेवता) और एक पुत्री इन्दो बाई (कुण्डा माता,मोठिस पंवारो की कुल देवी) हुई। अणदरायजी के लखनदेव , कोदसी व सारणसी हुए।

देहलात पंवार:- हरिशचन्द्र के मोटाजी के वंश परम्परा में बहरोवरजी का पुत्र देलजी हआ जिसके वंशज देहलात पंवार कहलाते है। देहलात अधिकतर जवाजा, विहार, रावतमाल, लस्सानी आदि क्षेत्रों में रहते है। देहलात पंवारों की कुलदेवी बिहार माता का मंदिर जवाजा में स्थित है।

कल्लावत पंवार:- राजाजी के कूकराजी और कूकराजी के कटाराजी हुए जिनके वंशज कल्लावत/कलात पंवार कहलाते है।

धोधिंग पंवार:- पीथाजी के भैराजी, भैराजी के बोहराजी और बोहराजी के धोधिंगजी हुए, जिनके वंशज धोधिंग पंवार कहलाते है।

बोया पंवार:- गुणरायजी के वंशज बोया पंवार कहलाते है।
वेरात पंवार- वेराजी के वंशज वेरात पंवार कहलाते है‌।
पंवारों की बडे़ रूप में छत्तीस शाखा है- पंवार, सांखला, भरमा, भावल, पेस, पाणिसवल, वहीया, वाहल, छाहड़, मोटसी, हूवंड, सिलोरा, जयपाल, कंठावा, काब, उमर, धांधू, धूरिया, भई, कछोड़िया, काला, कालमुह, खेरा, खूंटा, ढल, ढेसल, जागा, ढूंढा, गेहलड, कलिलिया, कुकड़, पितालिया, डोडा, बारड़।

भानजी जाड़ेजा।


इतिहास का वह महान योद्धा जिसके युद्ध कौशल और वीरता को देख अकबर को बीच युद्ध से भागना पड़ा था।
 
वैसे तो भारत की भूमि वीर गथाओ से भरी पड़ी है पर कभी-कभी इतिहास के पन्नो ने उन वीरो को सदा के लिए भुला दिया, जिनका महत्व स्वय उस समय के शासक भी मानते थे और उन वीरो के नाम से थर-थर कांपते थे।

 आज अपने इस लेख में हम आपको उन्ही में से एक ऐसे वीर की कहानी बतायेंगे जो आपने पहले शायद ही कही पढ़ी हो, वह वीर उस स्वाभिमानी और बलिदानी कौम के थे जिनकी वीरता के दुश्मन भी दीवाने थे।

जिनके जीते जी दुश्मन राजपूत राज्यो की प्रजा को छु तक नही पाये, अपने रक्त से मातृभूमि को लाल करने वाले जिनके सिर कटने पर भी धड़ लड़-लड़ कर झुंझार हो गए तो आईये जानते है इन्ही की सम्पूर्ण सच्ची कहानी।


•☞︎︎︎ वीर योद्धा : भानजी जाडेजा।

•☞︎︎︎ अकबर और भानजी जाड़ेजा के मध्य संग्राम।

•☞︎︎︎ मुगलो को दौड़ा-दौड़ा कर भगाया।

यह सच्ची कहानी है एक वीर सनातनी योद्धा की जिन्होंने अकबर को हरा कर भागने पर मजबूर किया और कब्जे में ले लिए उनके 52 हाथी 3530 घोड़े पालकिया आदि बात वक़्त की है जब विक्रम सम्वंत 1633(1576 ईस्वी) में मेवाड़ गोंड़वाना के साथ-साथ गुजरात भी युद्ध में मुगलो से लोहा ले रहा था, गुजरात में स्वय अकबर और उसके सेनापति कमान संभाले थे।

इसी बीच अकबर ने जूनागढ़ रियासत पर 1576 ईस्वी में आक्रमण करना चाहा तब वहा के नवाब ने पडोसी राज्य नवानगर (जामनगर) के राजपूत राजा जाम सताजी जडेजा से सहायता मांगी क्षत्रिय धर्म के अनुरूप महाराजा ने पडोसी राज्य जूनागढ़ की सहायता के लिए अपने 30000 योद्धाओ को भेजा जिसका नेतत्व कर रहे थे नवानगर के सेनापति वीर योद्धा भानजी जाडेजा।

सभी राजपूत योद्धा देवी दर्शन और तलवार शास्त्र पूजा कर जूनागढ़ की और सहायता के निकले पर माँ भवानी को उस दिन कुछ और ही मंजूर था। 

"अकबर और भानजी जड़ेजा के मध्य संग्राम" 

जूनागढ़ के नवाब ने अकबर की स्वजातीय विशाल सेना के सामने लड़ने से अचानक साफ़ इंकार कर दिया व आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो गया और नवानगर के सेनापति वीर भांनजी दाल जडेजा को वापस अपने राज्य लौट जाने को कहा। 

भानजी और उनके वीर राजपूत योद्धा अत्यंत क्रोधित हुए और भान जी जडेजा ने सीधे-सीधे जूनागढ़ नवाब को राजपूती तेवर में कहा क्षत्रिय युद्ध के लिए निकलता है या तो वो जीतकर लौटेगा या फिर रण भूमि में वीर गति को प्राप्त होकर वहा सभी वीर जानते थे की जूनागढ़ के बाद नवानगर पर आक्रमण होगा आखिर सभी वीरो ने फैसला किया की वे बिना युद्ध किये नही लौटेंगे।

अकबर की सेना लाखो में थी उन्होंने मजेवाड़ी गाव के मैदान में अपना डेरा जमा रखा था अन्तः भान जी जडेजा ने मुगलो के तरीके से ही कुटनीति का उपयोग करते हुए आधी रात को युद्ध लड़ने का फैसला किया और इसके बाद सभी योद्धा आपस में गले मिले फिर अपने इष्ट का स्मरण कर युद्ध स्थल की और निकल पड़े।
 
आधी रात और युद्ध शूरू हुआ मुगलो का नेतृत्व मिर्ज़ा खान कर रहा था उस रात हजारो मुगलो को काटा गया और मिर्जा खांन भी भाग खड़ा हुआ सुबह तक युद्ध चला और मुग़ल सेना अपना सामान युद्ध के मैदान में ही छोड़ भाग खड़ी हुयी बादशाह अकबर जो की सेना से कुछ किमी की दुरी पर था वो भी उसी सुबह अपने विश्वसनीय लोगो के साथ काठियावाड़ छोड़ भाग खड़ा हुआ। 

उनके साथ युद्ध में मुग़ल सेनापति मिर्जा खान भी था इस युद्ध में भान जी ने बहुत से मुग़ल मनसबदारो को काट डाला व हजारो मुग़ल मारे गए।

"मुगलो को दौड़ा-दौड़ा कर भगाया"

नवानगर की सेना ने मुगलो का 20 कोस तक पीछा किया, जो हाथ आये वो काटे गए. अंत भानजीदाल जडेजा में मजेवाड़ी में अकबर के शिविर से 52 हाथी 3530 घोड़े और पालकियों को अपने कब्जे में ले लिया।

उस के बाद राजपूती फ़ौज सीधी जूनागढ़ गयी वहा नवाब को कायरकता का जवाब देने के लिए जूनागढ़ के किले के दरवाजे भी उखाड दिए ये दरवाजे आज जामनगर में खम्बालिया दरवाजे के नाम से जाने जाते है जो आज भी वहा लगे हुए है।

बाद में जूनागढ़ के नवाब को शर्मिन्दिगी और पछतावा हुआ उसने नवानगर महाराजा साताजी से क्षमा मांगी और दंड स्वरूप् जूनागढ़ रियासत के चुरू, भार सहित 24 गांव और जोधपुर परगना (काठियावाड़ वाला) नवानगर रियासत को दिए।

कुछ समय बाद बदला लेने की मंशा से अकबर फिर आया और इस बार उसे दुबारा तामचान की लड़ाई में फिर हार का मुह देखना पड़ा इस युद्ध वर्णन सौराष्ट्र नु इतिहास में भी दर्ज है जिसे लिखा है शम्भूप्रसाद देसाई ने साथ ही यह में भी प्रकाशित हुआ था इसके अलावा विभा विलास तथा यदु वन्स प्रकाश जो की मवदान जी रतनु ने लिखी है उसमे भी इस अदभुत शौर्य गाथा का वर्णन है।

दोस्तो ऐसे ओर भी कई गुमनाम योद्धा हमारी पावन भूमि पर हुवे है जिन्होंने अपनी वीरता की मिसाले दी है लेकिन उन वीरो की गाथा बस किस्से कहानियों में ही सीमित रह गए है तो मेरी आपसे विनती है हमे उन वीरो की वीरता के बारे में जाने और सभी को अपना गौरवशाली इतिहास बताये।

🙏🏻जय मां भवानी।🚩