महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य "रघुवंशम्" अद्भुत ग्रंथ है, इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के वृत्त को जिस सुन्दरता से कालिदास ने गाया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता. इस महाकाव्य के षोडशवें सर्ग में राम और उनके भाइयों के पुत्रों का वर्णन है. राम ने अपने बड़े बेटे कुश को "कुशावती" नामक राज्य सौंपा था. रघुवंश के सभी सात भाइयों ने अलग-अलग राज्यों पर शासन तो किया पर वो सबके सब रघुकुल की रीति के अनुरूप अपने सबसे बड़े भाई कुश को अपना प्रधान और पूज्य मानतें थे.
यही "जानकीनंदन कुश" एक दिन राजकाज से निवृत होकर जब रात्रि विश्राम हेतू अपने कक्ष में गये तो आधी रात को देखा कि उनके शयन कक्ष का द्वार अंदर से बंद होने के बाबजूद एक स्त्री उनके घर के अंदर आई हुई है. वो फौरन अपनी शैय्या से उठे और उस स्त्री से कहा,
"शुभे ! तुम कौन हो और तुम्हारे पति का नाम क्या है? तुम यह समझकर ही मुंह खोलना कि हम रघुवंशियों का चित्त कभी भी पराई स्त्रियों की ओर नहीं जाता".
उस स्त्री ने उत्तर देते हुये कहा कि मैं आपके "राम के अयोध्या की अधिष्ठात्रि देवी" हूँ जो राम के बैकुंठ गमन के बाद से ही अनाथ हूँ. राम के बिना सैकड़ों अट्टालिकाओं से युक्त होने के बाबजूद मेरी अयोध्या ऐसी उदास लगती है मानो सूर्यास्त के बाद की डरावनी संध्या. जब राम थे तो मेरी अयोध्या अपने ऐश्वर्य में कुबेर की अलकापुरी को भी मात देती थी पर राम के बिना आज अयोध्या सूनी पड़ी हुई है. पहले अयोध्या की जिन सड़कों पर चमकते और मधुर ध्वनि करते नूपुरवाली अभिसारिकायें चलती थीं वहां आजकल सियारिनें घूमतीं हैं जिनके मुख से चिल्लाते समय चिंगारियाँ निकलती है. राम से सूनी हुई अयोध्या में न तो अब मोर नाचतें हैं, न वहां मृग भ्रमण करतें हैं, कमल के ताल में खेलने वाले हाथी भी नहीं हैं. नगर की जिन बाबलियों का जल पहले जल-क्रीड़ा करने वाली सुंदरियों से संवरता था, आज वहां जंगली भैंसे दौड़तें हैं.
ये सब कहकर उस स्त्री ने कुश से निवेदन किया कि राम न सही तो कम से कम हे जानकीनंदन कुश ! आप तो अयोध्या चलें. कुश ने प्रसन्नतापूर्वक उस स्त्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली और "राम की अयोध्या" के परित्राण के लिये अयोध्या की ओर चल पड़े.
कुश जब अयोध्या पहुँचते हैं तो उस समय का वर्णन करते हुये महाकवि कालिदास लिखतें हैं,
"अयोध्या के उपवन की वायु ने फूल से आच्छादित वृक्ष की डालियों को थोड़ा हिलाकर और सरयू के शीतल तरंगों का स्पर्श करके सेना के साथ थके हुये कुश का स्वागत किया".
कुश ने "रघुवंशियों के अयोध्या" की कायापलट कर दी. मुनियों को बुलवाकर पहले तो पूरी अयोध्या नगरी की पूजा करवाई फिर वहां और दूसरे काम किये जिसके बाद वो नगरी ऐसी लगने लगी मानो "सारे शरीर में आभूषण घारण की हुई कोई सुंदर स्त्री" हो. वो अयोध्या ऐसी हो गई कि मिथिलेशकुमारी के पुत्र कुश को फिर न तो इन्द्र्लोक की कामना रही, न स्वर्ग के वैभव की और न ही असंख्य रत्नों वाली अलकापुरी की और इस तरह "जानकीनंदन कुश" ने खुद को भारत के इतिहास में अमर कर लिया.
"अयोध्या जिसे चुनती है समझो स्वयं सौभाग्य उसका वरण करता है" और जो अयोध्या को पूजता है उसके लिये स्वर्ग में बैठे देवता भी कहतें हैं कि देखो, इसके पूर्व जन्म के संचित कर्म कैसे उत्तम हैं कि इसे उस अयोध्या के वंदन का सौभाग्य मिला है जिसकी गोद में खेलने वालों ने "गंगा" को धरती पर अवतरित किया था, जिसकी मिट्टी को "बिष्णु अवतार श्रीराम" ने स्वर्ग से भी बढ़कर बताया था, जहाँ रघु, दिलीप और सगर और दशरथ जैसे महान कीर्ति वाले राजा हुये थे, जो वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ऋषियों के आशीर्वाद से निर्मित हुई थी और जहाँ की पवित्र विश्वरम्भा ने माँ जानकी को अपनी गोद में समां लिया था.
"अयोध्या की अधिष्ठात्रि देवी" अपनी अयोध्या की दशा से विकल होकर सबके पास नहीं जाती. वो उनको ही अपनी अयोध्या के पुनः-कायाकल्प और इस पावन नगरी के पूजन का अवसर देतीं हैं जिनके अन्त:स्थ में श्रीराम से अगाध प्रेम हो और जिनके लिये प्रभु श्रीराम केवल राजनीति और सत्ता साधने मात्र का जरिया नहीं बल्कि आराध्य हों.
युगों बाद युग बदल रहा है...
अयोध्या
नब्बे का वह दौर याद आता है। लाखों लोग, दोगुनी आंखे, राम नाम की धूम, लाखों कलेजों की उम्मीदें, बन्दूक की गोलियां, रक्त, हाहाकार, मृत्यु, शान्ति... प्रलय के बाद की शान्ति केवल सनातन भाव जो जन्म देती है। पीड़ा की कोख से ही देवत्व जन्म लेता है।
अयोध्या का मन्दिर इस बात के लिए भी विश्व में अनूठा होगा कि उसके लिए प्रजा ने पाँच शताब्दियों तक लड़ाई लड़ी है। इसके लिए असँख्य बार, असँख्य बीरों ने धर्म के हवनकुण्ड में अपने जीवन की आहुति दी है... बार बार पराजित हुए, गिरे, पर फिर उठ कर खड़े हुए और लड़े... और अंततः जीते...
अयोध्या ने सिद्ध किया है कि धर्म की लड़ाइयां पाँच सौ वर्षों के बाद भी जीती जा सकती हैं, बस अपने मार्ग पर चलते रहना है। आज के समय में किसी क्षणिक पराजय के बाद ही लोग हतोत्साहित हो कर विलाप करने लगते हैं कि 'सब समाप्त हो गया, हमें कोई बचा नहीं सकता...' अब ऐसे समय में अयोध्या का मन्दिर ऊर्जा देने का काम करेगा कि हम पराजित नहीं हो सकते... अंत में धर्म ही जीतेगा। जो खतरे में आ जाय वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म न संकट में पड़ता है, न समाप्त होता है।
नियति का खेल बड़ा मनोरंजक होता है। ध्यान से देखिये समय ने कितना अद्भुत संयोजन किया है। महाराज हेमचंद्र विक्रमादित्य (१५५६ ई) के बाद सन २०१४ में पहली बार भारत की केंद्रीय सत्ता पर कोई ऐसा व्यक्ति पहुँचता है, जिसे स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा नहीं आती। वह निकलता है तो भगवान शिव की नगरी बनारस से...वह तिलक लगाता है, भगवा पहनता है... उसके दो वर्षों बाद ही समय उत्तर प्रदेश के सिंहासन पर एक साधु को बैठाता है। मुझे लगता है भारत में किसी साधु के राजा होने की यह पहली ही घटना होगी... साधु भी वे, जिनकी गद्दी ने राममन्दिर के लिए लड़ी गयी लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वर्षों से जातियों के नाम पर टूटी जनता धर्म के नाम पर एक साथ खड़ी होती है, और तब आता है सन 2020... अचानक सब कुछ आसान लगने लगता है। दोनों पक्ष ही कहने लगते हैं कि मंदिर बनना चाहिए... और...
कब क्या होना है और किसके हाथों होना है, यह समय तक कर के बैठा है। समय ने तय किया था कि मन्दिर की ईंट किसी नेता, किसी राजा के हाथों नहीं बल्कि एक सन्त के हाथों रखी जायेगी। वही हुआ... है न अद्भुत?
वर्तमान भारत को याद है कि दो हजार वर्ष पूर्व महाराज विक्रमादित्य ने अयोध्या का पुनरुद्धार किया था, और भव्य मंदिर बनवाया था। भारत को यह भी याद है उस प्राचीन मंदिर का भव्य पुनर्निर्माण कनौज नरेश महाराज विजयचन्द्र ने कराया था।
भविष्य का भारत भी पूरी श्रद्धा के साथ स्मरण रखेगा कि आधुनिक युग में मन्दिर का निर्माण गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ जी महाराज के काल में हुआ था। समय ने योगी बाबा को सहस्त्राब्दियों तक के लिए स्थापित कर दिया है/अमर कर दिया है।
वे असँख्य लोग जिन्होंने आज का दिन दिखाने के लिए अपनी आहुति दी थी, उनको सादर नमन। हमें तो उन सब के नाम भी याद नहीं। नाम याद है केवल दो कोठारी भाइयों का... वे दोनों बलिदानी उन असँख्य बलिदानियों के प्रतिनिधि के रूप में याद किये जायेंगे, पूजे जाएंगे।
✍🏻मीता भट्ट
*राष्ट्रीय चेतना का उदघोष*
*अयोध्या आंदोलन*
जिसे युद्ध में कोई जीत न सके वही अयोध्या है। हिमालय की गोद में अठखेलियां खेलती हुई पण्य-सलिला सरयु अविरल चट्टानी रास्तों को तोड़कर मैदानी क्षेत्रों को तृप्त करती चली आ रही है। वैदिक काल से आज तक निरंतर चला आ रहा यह पुण्य प्रवाह अपने अंदर भारत राष्ट्र के सहस्राब्दियों पुराने इतिहास को संजोए हुए है। इसी पतित पावनी नदी ‘सरयु मैया’ के किनारे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की क्रीडास्थली अयोध्या नगरी बसी है। यही राम की जन्मस्थली है। राम भारतीय संस्कृति की सशक्त और चिरंतन अभिव्यक्ति हैं। इसलिए अयोध्या भी इस मृत्युंजय संस्कृति का एक अमिट हस्ताक्षर है। राम और अयोध्या परस्पर प्रयाय हैं।
दशरथनंदन राम के जन्म के उपरांत तो अयोध्या का संबंध सम्पूर्ण सृष्टि के साथ जुड़ गया। संसार के प्राणी मात्र के लिए स्वर्ग का द्वार बन गई अयोध्या। विश्व के प्राचीनतम उपलब्ध ज्ञान के भंडार वेद के रचियता ने अयोध्या के महात्मय को निम्नलिखित श्लोक में प्रकट किया है -
अष्ट चक्रा नव द्वारा देवानां यूः अयोध्या।
तस्या हिरण्यमयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।। (अथर्व वेद, 10-2-32)
भारत और भारतीय जीवनमूल्यों के गगनस्पर्शी ध्वज यदि राम हैं तो अयोध्या को इस ध्वज (भारतीय संस्कृति) का ध्वजस्थान मान लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अतः राम, अयोध्या और भारत यह तीनों ही एक ही भावधारा को प्रकट करते हैं और तीनों ही अवध्य अर्थात परास्त नहीं किए जा सकते।
इतिहास साक्षी है कि सरयु के पवित्र तट पर मनु के द्वारा बसाई इस अयोध्या नगरी ने वैभव और पतन के कई कालखंड देखे। परन्तु अपने नाम को सदैव सार्थक रखा। विदेशी आक्रमणकारियों की गिद्धदृष्टि प्राचीनकाल से ही अयोध्या पर रही है। भारत पर आक्रमण करने वाले प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी ने अयोध्या को अपना लक्ष्य बनाया। अयोध्या को विजित किये बिना भारत विजय की कल्पना भी अधूरी थी। यह महानगरी मानो भारत राष्ट्र का प्राणतत्व थी। यही कारण है कि भारत के राजाओं और प्रजा ने सहस्रों बार अपने प्राणों की आहूति देकर अयोध्या की रक्षा की। एक समय तो ऐसा भी था जब अयोध्या के सूर्यवंशी पुत्रों ने अयोध्या के परम्परागत शत्रु महापापी पौलस्त्य वंशीय दसग्रीव (रावण परम्परा) के घर जाकर उसकी समस्त पापमयी लंका को ही भस्म कर दिया।
हिन्दू समाज जिन सात तीर्थों को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी यात्रा को अपना अहोभाग्य मानता है। जिनकी यात्राओं को मोक्ष प्राप्ति हेतु आवश्यक समझा जाता है, उनमें अयोध्या की गणना सर्वपरि है। अयोध्या को भगवान विष्णु का शीर्ष कहा जाता है। अयोध्या को महाऋषियों ने मोक्षदायिनी कहा है।
अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावतीश्चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
समस्त भारत के आध्यात्मिक जीवन के साथ अयोध्या का इतिहास भारत के सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन की निर्विवाद अभिव्यक्ति है। भारत राष्ट्र का वैभव और पराभव अयोध्या के उत्थान और पतन के साथ जुड़ा हुआ है। राम इसी राष्ट्र जीवन के नायक हैं। जैसे राम और अयोध्या को बांटा नहीं जा सकता, उसी प्रकार राम और राष्ट्र को बांटा नहीं जा सकता। राम भारत के राष्ट्र जीवन की सरल, स्पष्ट और अद्वितीय परिभाषा है। अयोध्या इसी राष्ट्र जीवन (राम) की जन्मस्थली है। इस जन्मस्थली पर श्रीराम का भव्य मंदिर पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भारत की सांस्कृतिक मर्यादा के अनुरूप अनेक महत्वपूर्ण निर्णय अपने जीवन में ही ले लिये थे. मरते दम तक सत्ता से चिपके रहने के अनैतिक दुर्भाव को ठोकर मारकर राजा राम ने समस्त साम्राज्य को अपने भाईयों एवं पुत्रों में बांट दिया था. श्रीराम ने अयोध्या छोड़ने का निश्चय कर के महाप्रयाण की मानसिकता बना ली. आयु का प्रभाव शरीर पर पड़ते ही उन्होंने सरयु मैया की गोद में शरण लेकर इस शाश्वत प्रवाह को गौरवान्वित कर दिया.
महाराज कुश ने सभी प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों से वार्तालाप करके श्रीराम की स्मृति में एक भव्य स्मारक/मंदिर बनाने का निर्णय लिया. महाराज कुश की देखरेख में कसौटी के 84 खम्बों पर भव्य श्रीराम मंदिर निर्मित हो गया. चैत्र शुक्ल नवमी पर मंदिर में भगवान राम
की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई. इस मंदिर में कसौटी के जिन 84 खम्भों को लगाया गया था, इनकी चर्चा आज तक किसी न किसी रूप में चल रही है. लोमस रामायण में वर्णित बालकांड के अनुसार यह खम्भे श्रीराम के पूर्वज महाराजा अनरण्यक के आदेश पर विश्व प्रसिद्ध शिल्पी विश्वकर्मा के द्वारा गढ़े गए थे.
सूर्यवंश के पूर्व पुरुष महाराजा इक्ष्वाकु के समय से ही भारत पर राक्षसों के आक्रमण होने प्रारम्भ हो गए. यह आक्रमण लंका की ओर से समुद्री मार्ग से होते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी होते रहे. लंका के प्रत्येक राजा को रावण की उपाधि दी जाती थी. अतः इक्ष्वाकु वंश की 64 पीढ़ियों ने लंका के लगभग इतने ही रावणों से अयोध्या की रक्षा की थी. इसी इक्ष्वाकु वंश के एक राजा अनरण्यक को उस समय के लंकाधिपति रावण ने परास्त कर दिया. राक्षसी सेना ने अयोध्या में लूटपाट की. सोने, हीरे जवाहरात के ढेरों के ढेर लंका पहुंचा दिये गए. महाराज अनरण्यक के राजदरबार में लगे कसौटी के खम्भों को भी तत्कालीन रावण अपने साथ ले गया. इस युद्ध में महाराज अनरण्यक अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए. उस समय का रावण जीता, परन्तु अयोध्या पर वह अधिकार नहीं कर सका.
सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट अनरण्यक की मृत्यु के समाचार से समस्त भारतवासी शोक में डूब गए. यह आघात पूरे राष्ट्र पर था. कसौटी के खम्भों का लंका में चले जाना देश का घोर अपमान था. इस राष्ट्रीय अपमान को अयोध्यावासी कभी नहीं भूले. इस दाग को वह मिटाना चाहते थे. अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं की प्रत्येक पीढ़ी ने यह प्रतिज्ञा दोहराई ‘हम इस अपमान का बदला लेंगे’. इन खम्भों को वापस भारत में लाना एक महान राष्ट्रीय कार्य था. इस कार्य को सम्पन्न किया था धनुर्धारी श्रीराम ने.
रावण वध के पश्चात श्रीराम ने महाबलि हनुमान से वार्तालाप करते हुए कहा था कि सीता को वापस ले लिया गया है. अयोध्या पर अनेक आक्रमण करने वाली रावण परम्परा को समाप्त किया जा चुका है. परन्तु सूर्यवंशी सम्राट अनरण्यक (श्रीराम के पूर्वज) का जो अपमान हुआ है, उसको कैसे धोया जाए ? तब ‘विद्यावान गुणी अति चातुर’ वीर हनुमान ने श्रीराम को इस अपमान का परिमार्जन करने का मार्ग सुझाया था. पवन सुत हनुमान ने कसौटी के खम्भों को वापस भारत में लाकर राष्ट्र के सम्मान पर लगी चोट मिटानी चाहिए, ऐसा सुझाव दिया. इसी सुझाव को शिरोधार्य करते हुए धर्नुधारी श्रीराम भारत के गौरवशाली अतीत की इन समृतियों को वापस अयोध्या लाए थे.
महाराज कुश ने जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मंदिर का प्रस्तावित नक्शा सबके सामने रखा तो सभी ने एक स्वर में कहा कि श्रीराम का मंदिर सम्पूर्ण राष्ट्र के गौरव का प्रतीक होगा. भारत ने संसार में राक्षसी वृति को समाप्त करने हेतु लंका के साथ सैकड़ों वर्षों तक जब युद्ध लड़ा तो उसकी विजय का श्रेय श्रीराम को जाता है. श्रीराम का मंदिर किसी एक वंश, जाति, पंथ और विचारधारा का न होकर सारे राष्ट्र की विजय का प्रतीक होगा. इस मंदिर में इन्हीं कसौटी के खम्भों को स्तम्भों के रूप में जढ़ना चाहिए जिन्हें श्रीराम लंका से वापस लाए थे. राम मंदिर के आधार के यह खम्भे राष्ट्र मंदिर के आधार स्तम्भ होंगे।
इस प्रकार राम मंदिर के निर्माण को राष्ट्रीय कार्य घोषित करके महाराज कुश ने कसौटी के इन 84 खम्भों के ऊपर एक भव्य राममंदिर का निर्माण करवा दिया. यह कार्य चैत्र शुक्ल नवमी के शुभावसर पर सम्पन्न हुआ. कुश के द्वारा रामनवमी राष्ट्रीय पर्व घोषित कर दी गई. अतः यह मंदिर, राम और राष्ट्र परस्पर पर्याय बन गए. आज इसी स्थान पर भव्य मंदिर का पुर्ननिर्माण करने के लिए हिन्दू समाज आंदोलित है।
श्रीराम जन्मभूमि के साथ भारत की अस्मिता और हिन्दुओं का सर्वस्व जुड़ा है. यही कारण है कि रावण से लेकर बाबर तक जिस भी विदेशी और अधर्मी आक्रांता ने रामजन्मभूमि को अपवित्र करने का जघन्य षड्यंत्र रचा, हिन्दुओं ने तुरन्त उसी समय अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हुए अपने इस सांस्कृतिक प्रेरणा केन्द्र की रक्षा की. जन्मभूमि पर महाराजा कुश के द्वारा बनवाया गया मंदिर भी आक्रान्ताओं का निशाना बनता रहा. यह मंदिर अपने बिगड़ते-संवरते स्वरूप में सदियों पर्यन्त आघात सहन करता रहा, परन्तु इसका अस्तित्व कोई नहीं मिटा सका।
रामजन्मभूमि मंदिर के ऊपर विदेशियों के आक्रमण यूनान के यवनों के साथ शुरु हुए थे. ईसा से तीन शताब्दी पहले ग्रीक से यवन आक्रान्ता भारत आए. राष्ट्रजीवन के प्रतीक इस मंदिर पर पहला विधर्मी आघात ईसा से 150 वर्ष पूर्व हुआ. एक विदेशी यवन मिलेन्डर ने भारत पर अपनी सत्ता जमाने के उद्देश्य से अयोध्या पर आक्रमण कर दिया. उसने समझ लिया था कि रामजन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़े बिना भारत की शक्ति को क्षीण नहीं किया जा सकता. इस प्रकार के आध्यात्मिक केन्द्र ही हिन्दुओं को शक्तिशाली बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं. इस विधर्मी सेनापति ने एक प्रबल सैनिक टुकड़ी के साथ महाराजा कुश द्वारा निर्मित मंदिर को भूमिसात कर दिया।
हिन्दू समाज के प्रबल विरोध के बावजूद वह अपनी विशाल सैनिक शक्ति के बल पर जीत तो गया, परन्तु इस विजय के बाद तीन मास के भीतर ही उसे हिन्दुओं की संगठित शक्ति के आगे झुकना पड़ा. शुंग वंश के पराक्रमी हिन्दू राजा द्युमदसेन ने अपनी प्रचंड सेना के साथ उसे घेर लिया. इस वीर राजा ने न केवल जन्मभूमि को ही मुक्त करवाया, अपितु मिलेन्डर की राजधानी कौशांभी पर अपना अधिकार जमाकर उसकी सारी सेना को समाप्त कर दिया. मिलेन्डर को भी यमलोक पहुंचाकर द्युमदसेन ने हिन्दू समाज की संकठित शक्ति का परिचय देकर राममंदिर के अपमान का बदला ले लिया।
मंदिर तो मुक्त हो गया परन्तु उसके जीर्णोद्धार की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी. विदेशी आक्रमणों से जूझते रहने के कारण हिन्दू राजा इस ओर ध्यान नहीं दे सके. तो भी मंदिर के खण्डहरों में ही गर्भगृह स्थान पर एक पेड़ के नीचे हिन्दू अपने आराध्य देव की पूजा करते रहे।
ईसा से पूर्व उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने श्रीराम जन्मभूमि पर फिर से वैभवशाली मंदिर बनाने का बीड़ा उठाया. विदेशी आक्रांता शकों को पूर्णतया परास्त करके उन्हें भारत की सीमाओं से बाहर खदेड़ने का कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् शकारि विक्रमादित्य ने अयोध्या की प्राचीन सीमाओं को ढूंढने के लिए एक सर्वेक्षण दल की स्थापना की. प्राचीन ग्रंथों को आधार मानकर रामजन्मभूमि का वास्तविक स्थान खोज पाना बहुत कठिन काम था. प्राचीन शास्त्रों के आधार पर जन्मभूमि के निकटवर्ती शेषनाथ मंदिर की कंटीली झाड़ियों के मध्य में से इस स्थान को खोज लिया गया. शास्त्रों में वर्णित मार्गों को नापा गया, रहस्य खुलते चले गए।
लक्ष्मण घाट के निकट एक ऊंचे टीले की खुदाई की गई, उत्खनन कार्य से प्राचीन मंदिर के अवशेष मिलते चले गए. भूगर्भ में समाए हुए मंदिर के कसौटी के 84 खम्भे भी प्राप्त हो गए. इन्हीं खम्भों को आधार स्तम्भ बनाकर विक्रमादित्य ने एक अति विशाल राम मंदिर का निर्माण करवा दिया. भारत का विराट राष्ट्रपुरुष फिर से स्वाभिमान के साथ मस्तक ऊंचा करके खड़ा हो गया. विक्रमादित्य की योजनानुसार भारत के प्रत्येक पंथ, जाति और क्षेत्र के सहयोग से अनेक मंदिर बनना प्रारम्भ हो गए. आज भी अयोध्या में इन हजारों मंदिरों को देखा जा सकता है।
सम्राट विक्रमादित्य ने सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्रीय एकता का अद्भुत एवं सफल प्रयास किया. अयोध्या सम्पूर्ण भारत का एक मूर्तिमान स्वरूप बन गई. विविधता में एकता का प्रतीक अयोध्या आज भी अपने इस एकत्व भाव के साथ भारत के एक राष्ट्र होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है. अयोध्या के मध्य में राम का मंदिर और चारों ओर भारत के सभी सम्प्रदायों के मंदिर, पूजास्थल और अखाड़े इसी तथ्य को सारे संसार के समक्ष उजागर करते हैं कि सभी पंथों के आदि महापुरुष श्रीराम भारत के राष्ट्रजीवन के प्रतीक हैं।
अतः अयोध्या में कारसेवकों द्वारा बनाए गए अस्थाई एवं साधारण मंदिर को भव्य स्वरूप देना हमारे राष्ट्र की एकता, अखंडता और परम वैभव के लिए आवश्यक है।