
(1) राजपूतो में पहले सिर के बाल बड़े रखे जाते थे जो गर्दन के नीचे तक होते थे युद्ध में जाते समय बालो के बीच में गर्दन वाली जगह पर लोहे की जाली डाली जाती थी और वहा विषेस प्रकार का चिकना प्रदार्थ लगाया जाता था (कुछ लोग आकड़े का दूध भी लगते थे ) इससे तलवार से गर्दन पर होने वाले वार से बचा जा सके।
(2) युद्ध में धोखे का संदेह होने पर घुसवार अपने घोड़ो से उतर कर जमीनी युद्ध करते थे।
(3) मध्य काल में देवी और देव पूजा होती थी जंग में जाने से पूर्व राजपूत अपनी कुलदेवियो की पूजा अर्चना करते थे जो ही शक्ति का प्रतिक है मेवाड़ के सिसोदिया एकलिंग जी की पूजा करते।
(4) हरावल - राजपूतो की सेना में युद्ध का नेतृत्व करने वाली टुकड़ी को हरावल सेना कहा जाता था जो सबसे आगे रहती थी कई बार इस सम्माननीय स्थान को पाने के लिए राजपूत आपस में ही लड़ बैठते थे इस संदर्भ में उन्टाला दुर्ग वाला चुण्डावत शक्तावत किस्सा प्रसिद्ध है।
(5) किसी बड़े जंग में जाते समय या नय प्रदेश की लालसा में जाते समय राजपूत अपने राज्य का ढोल , झंडा ,राज चिन्ह और कुलदेवी की मूर्ति साथ ले जाते थे।
(6) युद्ध में जाते से पूर्व "चारण/गढ़वी" कवि वीररस सुना कर राजपूतो में जोश पैदा करते और अपना कर्तव्य याद दिलाते कुछ युद्ध जो लम्बे चलते वह चारण भी साथ जाते थे चारण गढ़वी और भाट एक प्रकार के दूत होते थे जो राजपूत राजा के दरबार में बिना किसी रोक टोक आ जा सकते थे चाहे वो दुश्मन राजपूत राजा ही क्यों ना हो।
(7) राजपूताने के सभी बड़े किले के बनने से पूर्व एक स्वेछिक नर बलि होती थी कुम्भलगढ़ के किले पर एक सिद्ध साधु ने खुद की स्वेछिक बलि दी थी।
(8) राजपूताने के ज्यादातर किलो में गुप्त रास्ते बने हुए है आजादी के बाद और सन 1971 के बाद सभी गुप्त रस्ते बंद कर दिए गए है।
(9) शाका - महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष जौहर कि राख का तिलक कर के सफ़ेद कुर्ते पजमे में और केसरिया फेटा ,केसरिया साफा या खाकी साफा और नारियल कमर कसुम्बा पान कर,केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ।
(10) जौहर : युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु अपने सतीत्व के रक्षा के लिए राजपूतनिया अपने शादी के जोड़े वाले वस्त्र को पहन कर अपने पति के पाँव छू कर अंतिम विदा लेती है महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश कर अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है और राजपूतनिया जिंदा अपने इज्जत कि खातिर आग में कूद कर आपने सतीत्व कि रक्षा करती थी | पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा | महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ |सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ और जैसलमेर के दुर्ग में हुए।
(11) गर्भवती महिला को जौहर नहीं करवाया जाता था अत: उनको किले पर मौजूद अन्य बच्चों के साथ सुरंगों के रास्ते किसी गुप्त स्थान या फिर किसी दूसरे राज्य में भेज दिया जाता था।
राजपुताने में सबसे ज्यादा जौहर मेवाड़ के इतिहास में दर्ज हैं और इतिहास में लगभग सभी जौहर इस्लामिक आक्रमणों के दौरान ही हुए हैं जिसमें अकबर और ओरंगजेब के दौरान सबसे ज्यादा हुए हैं ।
(12) अंतिम जौहर - पुरे विश्व के इतिहास में अंतिम जौहर अठारवी सदी में भरतपुर के जाट सूरजमल ने मुगल सेनापति के साथ मिलकर कोल और मेवात में घासेड़ा के राघव राजपूत राजा बहादुर सिंह पर हमला किया था। महाराजा बहादुर सिंह ने अपने से बहुत बड़ी सेना से जबर्दस्त मुकाबला करते हुए मुगल सेनापति को मार गिराया। पर दुश्मन की संख्या अधिक होने पर किले में मौजूद सभी राजपूतानियो ने बारुद के ढ़ेर में आग लगाकर जौहर कर प्राण त्याग दिए उसके बाद राजा और उसके परिवारजनों ने शाका किया। इस घटना का जिक्र आप "गुड़गांव जिले के Gazetteer" में पढ़ सकते है।
(13) अगर आप के पिता जी/दादोसा बिराज रहे है तो कोई भी शादी ,फंक्शन, मंदिर इत्यादि में आप के कभी भी लम्बा तिलक और चावल नहीं लगेगा, सिर्फ एक छोटी टीकी लगेगी !!
(14) आज भी कही घरो में तलवार को मयान से निकालने नहीं देते, क्योकि तलवार को परंपरा है की अगर वो मयान से बाहर आई तो या तो उनके खून लगेगा, या लोहे पर बजेगी, इसलिए आज भी कभी अगर तलवार मयान से निकलते भी है तो उसको लोहे पर बजा कर ही फिर से मयान में डालते है !!
(15)मटिया, गहरा हरा, नीला, सफेद ये शोक के साफे है
(16)पैर में कड़ा-लंगर, हाथी पर तोरण, नांगारा निशान, ठिकाने का मोनो ये सब जागीरी का हिस्सा थे, हर कोई जागीरदार नहीं कर सकता था, स्टेट की तरफ से इनायत होते थे..!!
(17) पहले के वक़्त वक़्त राजपूत समाज में अमल का उपयोग इस लिए ज्यादा होता था क्योकि अमल खाने से खून मोटा हो जाता था, जिस से लड़ाई की समय मेंहदी घाव लगने पर खून कार रिसाव नहीं के बराबर होता था, और मल-मूत्र रुक जाता था जयमल मेड़तिया ने अकबर से लड़ाई के पूर्व सभी राजपूत सिरदारो को अमल पान करवाया था।
(18) पहले कोई भी राजपूत बिना पगड़ी के घोड़े पर नही बैठते थे।
(19) सौराष्ट्र (काठियावाड़) और कच्छ में आज भी गिरासदार राजपूत घराने में अगर बेटे की शादी हो तो बारात नहीं जाती, उसकी जगह लड़के वालों की तरफ से घर के वडील (फुवासा, बनेविसा, मामासा) एक तलवार के साथ 3 या 5 की संख्या में लड़की के घर जाते हे जिसे "वेळ” या ‘खांडू" कहते है, लड़की वाले उस तलवार के साथ विधि करके बेटी को विदा करते है,मंगल फेरे लड़के के घर लिए जाते है।
(20) राजपूत परम्परा के मुताबिक पिता का पहना हुआ साफा , आप नहीं पहन सकते।
(21) पहले सारे बड़े ताजमी ठिकानो में ठिकानेदारों को विवाह से पूर्व स्टेट महाराजा से अनुमति लेनी पढ़ती थी।
(22) हर राज दरबार के, ठिकाने के, यहाँ गोत्र उप्प गोत्र के इष्ट देवता होते थे, जो की ज्यादतर कृष्ण या विष्णु के अनेक रूप में से होते थे, और उनके नाम से ही गाँववाले या नाते-रिश्तेदार दुसरो को पुकारते है करते थे, जैसे की जय रघुनाथ जी की , जय चारभुजाजी की।
(23) अमल गोलना, चिलम, हुक्का यहाँ दारू की मनवार, मकसद होता था, भाई,बंधू, भाईपे,रिश्तेदार को एक जाजम पर लाना !!मनवार का अनादर नहीं करना चाहिए, अगर आप नहीं भी पीते है तो भी मनवार के हाथ लगाके या हाथ में ले कर सर पर लगाके वापस दे दे, पीना जरुरी नहीं है , पर ना -नुकुर कर उसका अनादर न करे।
(24) जब सिर पर साफा बंधा होता है तोह तिलक करते समय पीछे हाथ नही रखा जाता।
(25) दुल्हे की बन्दोली में घोडा या हाथी हो सकता है पर तोरण पर नहीं, क्योकि घोडा भी नर है, और वो भी आप के साथ तोरण लगा रहा होता है, इस्सलिये हमेशा तोरण पर घोड़ी या हथनी होती है !!
(26) एक ठिकाने का एक ही ठाकुर,राव,रावत हो सकता था, जो गद्दी पर बैठा है, बाकि के भाई,काका ये टाइटल तभी लगा सकते थे जब की उनको ठिकाने की तरफ से अलग से जागीरी मिली हो,और वो उस के जागीरदार हो, अगर वो उसी ठिकाने /राज में रह रहे हो, तो उनके लिए "महाराज" का टाइटल होता था!
(27) आज भी त्योहारों पर ढोल बजने के नट,नगरसी या ढोली आते है उन्हें बैठने के लिए उचित आसान (जाजम) दिए जाते है उनके ढोल में देवी का वास होता है और ऐसे आदर के लिए किया जाता है।
(28) राजपूत जनाना में राजपूत महिलाये नाच गान के बाद ढोली जी और ढोलन की तरफ जुक कर प्रणाम करती है।
(29) नजराने के भी अलग अलग नियम थे, अगर आप छोटे ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के हाथ से उठा लेते थे, पर अगर आप उमराव या सिरायती ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप का हाथ अपने हाथ पर उल्टा करके, अपना हाथ नीचे रख कर नजराना लेते थे !!
(30) कोर्ट में अगर आप छोटे ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के आने पर खड़े नहीं होते थे, पर अगर आप उमराव या सिरायती ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के आने और आप के जाने पर दोनों वक्त उनको खड़ा होना पड़ता है।

(31) सिर्फ राठोरो के पास "कमध्वज" का टाइटल है, इसका मतलब है, सर काटने के बाद भी लड़ने वाला !
(32) राजपूतो में ठाकुर पदवी के इस्तेमाल के बारे में में कुछ बाते :यदि आपके दादोसा हुकम बिराज रहे है तो वो ही ठाकुर पदवी का प्रयोग कर सकते है, आपके दाता हुकम कुंवर का और आप भंवर का प्रयोग कर्रेंगे और आपके बना (चौथी पीढ़ी) के लिए टंवर का प्रयोग होगा।
(33) एक ठिकाने में तीन से चार पाकसाला (रसोई) हो सकती थी, ठाकुरसाब, ठुकरानी के लिए विशेष पाकसाला होती थी, एक पाकसाला मरदाना में होती थी, जिस में मास आदि बनते थे, जनाना में सात्विक भोजन की पाकसाला होती थी, विद्वाओ के लिए अलग भोजन बनता था, ठिकाने के कर्मचारी नौकरों के लिए अलग से पाकशाला होती थी, एक पाकशाला मेहमानों के लिए होती थी।
(34) राजपूतो में किसी की मर्त्यु में बाद "शोक भंगाई" जिसमे राजपूत दूसरे राजपूतो को दारू या अफीम की मनवार कर शोक तुड़वाते है।
उपरोक्त अधिकांश परम्पराएं अधिकतर राजस्थान गुजरात क्षेत्र की हैं देश भर के क्षत्रिय राजपूतों की परम्पराएं अलग हो सकती हैं।
साभार......
✍हमीर सिंह सिसोदिया🚩🚩
⛳⛳जय राजपूताना।⛳⛳