शनिवार, 29 सितंबर 2018

गाथा चक्रवर्ती चौहानों की - भाग 1

बिजली सी गति, गिद्ध सी आंख, हाथी की तरह बलशाली ओर चीते की तरह पूरी शक्ति और गति के साथ ऐसा प्रहार की पल भर में शत्रु का शीश जमीन की धूल में मिल जाता । ऐसे ही वीर पुरुष थे चौहान !!

चौहानों ने अद्भुत गति के साथ अपनी शक्ति को विश्व शक्ति बनाकर खड़ा किया था, प्रतिहार साम्राज्य के काल मे भारत की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति को देखते हुए सामन्तशाही व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी । उसी समय विदेशों से लगातार मल्लेछो ( मुसलमानों और हूणों ) के आक्रमण हो रहे थे , हालांकि हुण इतने शक्तिशाली उस समय तक नही बचे थे, लेकिन् उसके बाद भी भारत के लिए यह संकट पैदा कर ही देते थे । भारत की सत्ता सुदृढ रूप से पनप नही पा रही थी, इसी काल मे सामंतों का उदय हुआ।
सामंतों का कार्य राजा को सैनिक शक्ति उपलब्ध करवाना, तथा कुछ क्षेत्रों में पूरी तरह व्यवस्था लागू करना था। यदि शाशक कमजोर या डरपोक होता, तो सामन्त विद्रोह कर दिया करते, सामन्तगण राजाओ के अनिवार्य आवश्यकता बन गए थे ।
चौहानों ने भी सामन्त के रूप में ही अपना शाशन शुरू किया था, यह प्रतिहारो के सामन्त हुआ करते थे। समय के साथ साथ चौहानों की शक्ति बढ़ती गयी, ओर प्रतिहार शाशको की शक्ति क्षीण होती गयी।
प्रतिहारो ने शिलालेखों में चौहान सामंतों की भूरी भूरी प्रशंसा की गयी है। प्रतापगढ़ का 944 ई के अभिलेख का दूसरे भाग के अनुसार , " चौहान सरदारों ने प्रतिहारो के लिए अनेक भयंकर युद्ध किये थे , जिनमे वह पूर्ण रूप से सफल भी रहें "
चौहानों का पितामह वासुदेव चौहान को कहा जाता है । वासुदेव चौहान के बारे में ज़्यादा विवरण हमे नही मिलता, लेकिन पृथ्वीराज विजय नामक ग्रन्थ में वासुदेव चौहान को चौहान वंश का संस्थापक बताया गया है। वासुदेव चौहान साक्षात भगवान श्री कृष्ण का अवतार था । ( अर्थात - उनकी कूटनीति , लोकप्रियता ओर शक्ति भगवान श्री कृष्ण के समान थी )
लेकीन् चौहानों का वास्तविक उदय " सामन्तराज चौहान " के समय से शुरू हुआ । अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सामन्तराज चौहान अपने समय मे इतने शक्तिशाली हो चुके थे, की कई सामंतों की अगुवाई करने लगे, तथा भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बना चुके थे। सामन्तराज चौहान के समय मे चौहानों की शक्ति दिन - ब - दिन बढ़ती जा रही थी, इससे यह स्पष्ठ हो जाता है कि सामन्त राज् के समय ही चौहान भारत की सत्ता के लिए दावेदारी ठोक चुके थे । सामन्तराज इतने शक्तिशाली हो चुके थे, की उन्होंने प्रतिहार सत्ता तक को चुनोती दे डाली, हालांकि वे इसमे सफल नही हुए।
लेकिन सामन्तराज चौहानों को इस स्थिति तक पहुंचा चुके थे, की अब दिल्ली दूर नही थी ----
( चौहानों को अग्निवंशी कहकर जाना जाता है, लेकिन यह वास्तविक सत्य नही है, चौहानों को अग्निवंशी केवल पृथ्वीराज रासो में कहा गया है, लेकिन पृथ्वीराज रासो को कोई भी इतिहासकार विश्वसनीय नही मानता, पृथ्वीराज विजय के अनुसार तथा हम्मीर महाकाव्य के अनुसार चौहान सूर्यवँशी राजा है, इन्हें श्री राम का वंसज कहा गया है। )
आगे के लेख में हम जानेंगे कि किस तरह चौहान भारत की सत्ता के सर्वोसर्वा बन गए, ओर उस समय भारत की स्थिति क्या थी, चौहान राजाओ का व्यवहार कैसा था, राजाओ का आचरण कैसा था, सामाजिक स्थिति से लेकर राजनीतिक स्थिति क्या थी --
पढ़ते रहिये .....
जय राजपूताना।

शनिवार, 21 जुलाई 2018

सभी हिंदू भाई पूरी पोस्ट पढने का कष्ट करे। सारे प्रमाणो सहित है कि धर्मपरायण महाराजा जय चंद्र जी एक देशभक्त राजा थे।

कान्यकुब्जेश्वर धर्मपरायण महाराजा
जयचन्द्र गहरवार
(1170 ई. - 1194 ई.)

भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी विसंगतियों में से एक है महाराज जयचन्द्र को गद्दार कहना। बिना वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन किये आज समाज का बहुसंख्यक वर्ग बात बात पर जयचन्द्र को गद्दार कहता है। वस्तुतः स्थित बिलकुल विपरीत है।

सम्राट् जयचन्द्र गहरवार वंश के पाँचवें शासक थे। इनका शासनकाल 1170 ई. से 1194 ई. तक था। जयचन्द्र का जन्म उस दिन हुआ था, जिस दिन उनके पितामह महाराज गोविन्दचन्द्र ने दशार्ण देश (पूर्वी मालवा) पर विजय प्राप्त किया था।

इसका उल्लेख करते हुए नयचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'रम्भामंजरी' में लिखा है-

पितामहेन तज्जन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम्
यवन सैन्य जितम् अतएव तन्नाम जैत्रचन्द्रः।[1]

अर्थात् इनके जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना पर विजय प्राप्त की अतः इनका नाम जैत्रचन्द्र पड़ा।

तत्कालीन संस्कृत-साहित्य में महाराज जयचन्द्र के अनेक नाम मिलते हैं। 
मेरुतुंग ने प्रबन्धचिन्तामणि में 'जयचन्द्र', राजशेखर सूरि ने प्रबन्धकोश में 'जयन्तचन्द्र', नयचन्द्र ने रम्भामंजरी में 'जैत्रचन्द्र' कहा है, जबकि लोक में 'जयचन्द' कहा जाता है।
'रम्भामंजरी' के अनुसार महाराज जयचन्द्र की माता का नाम 'चन्द्रलेखा' था, जो अनंगपाल तोमर की ज्येष्ठ पुत्री थीं, किन्तु 'पृथ्वीराज रासो' के छन्द संख्या 681-682 के अनुसार उनका नाम सुन्दरी देवी था। 'भविष्यपुराण' में महाराज जयचन्द्र की माता का नाम चन्द्रकान्ति बताया गया है। आषाढ़ शुक्ल दशमी संवत् 1224 तदनुसार रविवार 16 जून, 1168 को पिता महाराज विजयचन्द्र ने जयचन्द्र को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया। आषाढ़ शुक्ल षष्ठी संवत् 1226 तदनुसार रविवार 21 जून, 1170 ई. को महाराज जयचन्द्र का राज्याभिषेक हुआ था। राज्याभिषेक के पश्चात् महाराज जयचन्द ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त किया। 'पृथ्वीराज रासो' के अनुसार महाराज जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो। महाकवि विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षा' में लिखा है कि यवनेश्वर सहाबुद्दीन गोरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में परास्त किया। 'रम्भामञ्जरी' में भी कहा गया है कि महाराज जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया।

बल्लभदेव कृत 'सुभाषितावली' में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी द्वारा उत्तर-पूर्व के राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने उसे प्रताड़ित करने हेतु अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा-

स्वच्छन्दं सैन्य संघेन चरन्त मुक्तो भयं।
शहाबुद्दीन भूमीन्द्रं प्राहिणोदिति लेखकम्।।
कथं न हि विशंकसेन्यज कुरग लोलक्रमं।
परिक्रमितु मीहसे विरमनैव शून्यं वनम्।।
स्थितोत्र गजयूथनाथ मथनोच्छलच्छ्रोणितम्।
पिपासुररि मर्दनः सच सुखेन पञ्चाननः।।

अर्थात् स्वतन्त्र और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन द्वारा राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने यह पद्य अपने दूतों से भेजा; ऐ तुच्छ मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछल-कूद मचाये हुए है, तेरी समझ में यह वन शून्य है अथवा तुझ-सा पराक्रमी अन्य जन्तु इस महावन में नहीं है, यह केवल तुझे धोखा और भ्रम है। ठहर ठहर आगे मत बढ़, निःशंकता छोड़ देख यह आगे मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासु बैठा है, यह महा-अरिमर्दक है, तेरे ऐसों को मारते इसे कुछ भी श्रम प्रतीत नहीं होता, वह इस समय यहाँ सुख से विश्राम ले रहा है।

महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि. सं.) में लिखे गये फ़ैज़ाबाद ताम्र-दानपत्र में वर्णित है-

अद्भुत विक्रमादय जयच्चन्द्राभिधानः पतिर्
भूपानामवतीर्ण एष भुवनोद्धाराय नारायणः।
धीमावमपास्य विग्रह रुचिं धिक्कृत्य शान्ताशया
सेवन्ते यमुदग्र बन्धन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।
छेन्मूच्छीमतुच्छां न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टामिधात
त्यावृत्तः श्रमार्तो नमदखिल फणश्वा वसात्या सहस्रम्।
उद्योगे यस्य धावद्धरणिधरधुनी निर्झरस्फारधार-
श्याद्दानन्द् विपाली वहल भरगलद्वैर्य मुद्रः फणीन्द्रः।।[2]

यहाँ अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचन्द्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचन्द्र हुए, जो अद्भुत वीर थे। राजाओं के स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात् नारायण के अवतार थे, जिन्होंने पृथ्वी के सुख हेतु जन्म लिया था। अन्य राजागण उनकी स्तुति करते थे। दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनकी हाथियों की सेना के भार से शेषनाग दब जाते थे और मूर्छित होने की अवस्था को प्राप्त होते थे।
उत्तर भारत में महाराज जयचन्द्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार किया था। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ 'कामिल उत्तवारीख़' में लिखता है कि महाराज जयचन्द्र के समय कन्नौज राज्य की लम्बाई उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और चौड़ाई समुद्र तट से दस मैजल लाहौर तक विस्तृत थी। साधारणतः 20 मील (10 कोस) की एक मैजल समझी जाती है। इस प्रकार लाहौर से 200 मील की दूरी तक महाराज जयचन्द्र का साम्राज्य फैला हुआ था। 'योजनशतमानां पृथ्वीम्-असाधयत्' अर्थात् महाराज जयचन्द्र ने 700 योजन पृथ्वी को अपने अधिकार में किया था। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि महाराज जयचन्द्र के साम्राज्य का विस्तार 5600 वर्गमील था।

'सूरज प्रकाश' नामक ग्रन्थ के अनुसार सम्राट् जयचन्द्र की सेना में अस्सी हज़ार जिरह बख्तरवाले योद्धा, तीस हज़ार घुड़सवार, तीन लाख पैदल सैनिक, दो लाख तीरन्दाज एवं हज़ारों की संख्या में हाथी सवार योद्धा थे। इसलिए सम्राट् जयचन्द्र को दलपुंगल कहा जाता था। इतिहास में जयचन्द्र के उज्ज्वल चरित्र का वर्णन मिलता है।
दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता को लेकर जो लोकापवाद चन्दबरदाई के पृथ्वीराज रासो से प्रारम्भ हुआ, उसकी बिना छानबीन किये ही महाराज जयचन्द्र को गद्दार कहना उचित नहीं है। किसी भी इतिहासकार ने महाराज जयचन्द की संयोगिता नाम की किसी पुत्री का उल्लेख नहीं किया है। भविष्यपुराण में यह संकेत है कि सम्राट् जयचन्द्र की सोलह रानियों में एक महिषी दिव्यविभावरी गौड़ राजा की पुत्री थी। उसकी दासी सुरभानवी की पुत्री का नाम संयोगिनी था। जब संयोगिनी 12 वर्ष की हुई, तब महाराज जयचन्द्र ने उसके स्वयंवर में विभिन्न राजाओं को बुलाया, परन्तु पृथ्वीराज को न बुलाकर उनकी स्वर्णनिर्मित प्रतिमा कान्यकुब्ज की सभा में स्थापित करवा दी। महाराज पृथ्वीराज चौहान भी सेना लेकर वहाँ आये और संयोगिनी (संयोगिता) का अपहरण कर अपनी राजधानी लौट गये।[3] इस कथा का अनुमोदन पृथ्वीराज रासो भी करता है। महाकवि चन्दबरदाई ने महाराज जयचन्द्र के द्वारा किये गये राजसूय यज्ञ और उसी अवसर पर आयोजित संयोगिता-स्वयंवर का वर्णन किया है। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जिस समय महाराज जयचन्द्र और पृथ्वीराज चौहान का शासन था क्या उस समय राजसूय यज्ञ और स्वयंवर की प्रथा थी?

किसी भी प्रबुद्ध इतिहासकार ने इस कथा को सत्य स्वीकार नहीं किया है। इस प्रकरण को ऐतिहासिक तथ्य से रहित केवल एक कहानी मानते हुए इतिहासकार डॉ. रामशंकर त्रिपाठी लिखते हैं-

'It is, however, difficult to accept this romantic story as a historical fact for at this time svayamvaras and rajasuya yagnas had become obsolete, and if they had been performed, they must have found mention is inscriptions.'[4]

यदि थोड़ी देर के लिए इस कथा को स्वीकार भी कर लिया जाय तो क्या उस समय के भारतीय नरेश जयचन्द्र की दासी-कन्या से विवाह करने के लिए सहमत थे? राज्य को लेकर महाराज जयचन्द्र और महाराज पृथ्वीराज चौहान में विवाद हो सकता है, किन्तु क्या पृथ्वीराज चौहान इतनी नीच प्रवृत्ति के थे कि वे अपने मौसेरे भाई की पुत्री से विवाह कर लेते? 'गहरवार राजवंश का इतिहास' लिखनेवाले डॉ. रोमा नियोगी का भी यही मत है। डॉ. नियोगी के अनुसार जयचन्द्र और पृथ्वीराज में बैरभाव होने का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है।[5]

सन 1192 से पहले पृथ्वीराज चौहान ने कई वार मुहम्मद गौरी की जान बक्शी पर सन् 1192 ई. में तराइन के युद्ध में मुहम्मद गोरी ने अपनी चाल से दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था। वहाँ का शासन-प्रबन्ध मुहम्मद गोरी ने अपने मुख्य सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराइन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना। ऐबक गोरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा। इस युद्ध के दो वर्ष बाद गोरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया। इस बार उसका लक्ष्य कन्नौज-विजय का था।
कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गोरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाक़े को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया। वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किये भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी। तराइन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हज़ार सेना के साथ आ मिला। मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गये। दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर' नामक स्थान पर संग्राम हुआ। युद्ध में महाराज जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगे। इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी-सी सेना थी। दुर्भाग्य से महाराज जयचन्द की आँख में एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया। युद्ध में गोरी की विजय हुई। यह युद्ध वि. सं. 1250 (1194 ई.) में हुआ था।

महाराज जयचन्द्र विषयक जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें उन्हें देशद्रोही या गद्दार होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते।

आधुनिक काल के जे. एच. गेन्से[6], जाॅन ब्रिग्स [7], डॉ. रामकुमार दीक्षित, कृष्णदत्त वाजपेयी[8], डॉ. आर. सी. मजूमदार [8], डॉ. रोमा नियोगी[9], जे. सी. पावेल-प्राइस[10], डॉ रामशंकर त्रिपाठी[11], विसेंट ए. स्मिथ [12], डॉ आनन्दस्वरूप मिश्र[13], डाॅ. आनन्द शर्मा[14] प्रभृति इतिहासकारों ने महाराज जयचन्द्र को निष्कलंक स्वीकार किया है।

डॉ. आनन्द शर्मा ने महाराज जयचन्द्र की निष्कलंकता के सन्दर्भ में निष्कर्षतः लिखा है- 'इस आधारहीन प्रवाद का उद्गम खोजना मेरे लिए आवश्यक हो गया था। मैं यह जानकर हतप्रभ रह गया कि यह सारा वितण्डावाद पृथ्वीराज के आश्रित चारण चन्दबरदाई रचित पृथ्वीराज रासो ने फैलाया था। इस चारणी-काव्य में चन्दबरदाई ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में ज़मीन-आसमान मिला दिये थे। उसने ही काल्पनिक संयोगिता का सृजन करके उसे दोनों नरेशों की शत्रुता का कारण ही नहीं बनाया, तराइन युद्ध में मारे गये पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गजनी ले जाने, उसे अन्धा करके आँखों में नींबू-मिर्च डलवाने और अन्धे पृथ्वीराज के शब्दबेधी बाण के द्वारा गोरी के मारे जाने तक का उल्लेख कर डाला था। जबकि गोरी तराइन युद्ध के लगभग दस वर्ष बाद सन् 1205-06 में झेलम ज़िले (अब पाकिस्तान में) के समीप शत्रु कबीले द्वारा सोते समय घात लगाकर किये हमले में मारा गया था। स्मिथ ने भी 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया' में यही लिखा था। इतिहास के सभी विद्वानों ने 'पृथ्वीराज रासो' को अप्रामाणिक माना है। इस पर भी इतिहास धरा रह गया, रासो की कथा जन जन में प्रचारित हो गयी। एक धर्मपरायण राजा देशद्रोही के रूप में सामान्य जन की घृणा का पात्र बन गया।'[15]

यहाँ निष्कर्षतः केवल इतना ही कहना है कि 'पृथ्वीराज रासो' का हवाला देकर एक दोहे को बार बार उद्धृत करते हुए कहा जाता है कि 1192 ई. में सुल्तान मुहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान और चन्दबरदाई को गजनी ले गया और वहाँ उन दोनों की आँखें निकलवा लिया। फिर चन्दबरदाई के संकेत पर पृथ्वीराज चौहान ने शब्दबेधी बाण चलाकर मुहम्मद गोरी को मार डाला। अब प्रश्न यह उठता है कि जब 1192 ई. में अन्धे पृथ्वीराज चौहान के शब्दबेधी बाण से मुहम्मद गोरी मार दिया गया, तो फिर 1194 ई. में चन्दावर के रणांगन में महाराज जयचन्द्र किस मुहम्मद गोरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए? और 1205-06 ई. में झेलम ज़िले में घात लगाकर शत्रु कबीले ने किस मुहम्मद गोरी को मारा था? वस्तुतः बिना इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढे न तो महाराज जयचन्द्र का उचित मूल्यांकन किया जा सकता है और न भारतीय इतिहास का ही मूल्यांकन सम्भव है।

सन्दर्भ

1. नयचन्द्र : रम्भामंजरी की प्रस्तावना।
2. Indian Antiquary, XI, (1886 A.D.), Page 6, श्लोक 13-14
3. भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अध्याय 6
4. Dr. R. S. Tripathi : History of Kannauj, Page 326
5. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 107
6. J. H. Gense : History of India (1954 A.D.), Page 102
7. John Briggs : Rise of the Mohomeden Power in India (Tarikh-a-Farishta), Vol. I, Page 170
8. डॉ. रामकुमार दीक्षित एवं कृष्णदत्त वाजपेयी : कन्नौज, पृ. 15
9. Dr. R. C. Majumdar : Ancient Indian, Page 336 एवं An Advanced History of India, Page 278
10. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 112
11. J. C. Powell-Price : History of India, Page 114
12. Vincent Arthur Smith : Early History of India, Page 403
13. डॉ. आनन्दस्वरूप मिश्र : कन्नौज का इतिहास, पृ. 519-555
14. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. viii-xii
15. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. xi

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साभार :-
डॉ. जितेंद्र कुमार सिंह
और साभार :-
पारुल सिंह रघुवंशी जी।

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

राजपुत बहनों से निवेदन पुरा जरूर पढ़े..!!

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
राजपुत समाज की बेटियों से उनके भाई और बाप के द्वारा पूछे गए कुछ सवाल…
उम्मीद है समाज की बेटियाँ अपने आप से इसका उत्तर जान लेगी।

1. क्या आपके भाई और माता पिता आपसे प्यार नही करते…?
जो आपके जन्म से लेकर जीवन भर वो आपको हर ख़ुशी देते और आपकी फ़िक्र करते हैं।

2.आप पर अपने घर वालो समाज वालो द्वारा कुछ पाबंदियां लगाई जाती है जिसे आप दूसरी समाज से अलग लगो ये गलत है क्या…?

3. आपकी खुशियों के खातिर रात दिन एक करते है वो आपके पापा है या आपके पीछे 4 दिन गुमने वाला आवारा ।

4. आपकी फ़िक्र ज्यादा कौन करता है जिंदगी भर राखी बांधती हो वो या 4 दिन पीछे घुमता है वो…?

5.कोई आपके बारे में कुछ गलत बोले तो आपके घर वाले सुन नही सकते और आप जो गलत करती हो वो सही है क्या…?

6. क्या राजपुत शेरनियां इतनी कमजोर है कि जो कुत्तों के साथ फिरने लग गई…?

7.क्या आपको समाज को बदनाम करने का हक है…?

8. क्या आप बता सकते हो राजपुत बेटिया ही क्यों दूसरी जाति में शादी कर रही है राजपूत लड़के तो नही कर रहे हैं…?

9.समाज को कमजोर करने वाली  समाज की बेटियां तो नही…?

10. क्या आपको हक है कि आप ऐसा कुछ करो की आपके माँ बाप भाई सब अपना मुँह छुपाए…?

11. क्या आपको हक है जिन्होंने आपको जिन्दगी दी आप उनको आत्महत्या करने पर मजबूर कर दो…?

12. आप रानी पदमावती की तरह नही जीना चाहती…?

13. आपको अपनी समाज के लड़के पसन्द नही…?

14.आपकी समाज के संस्कार जो आपने बचपन से सीखे है जिए है वो उस समाज में मिलेंगे जिस समाज में आप जा रहे हो…?

15. क्या आपके माँ-बाप में आपस में प्यार नही क्या एक ही समाज के होते हुए…?

16. आपके माँ-बाप की वजह से आपको कभी कोई तकलीफ हुई…?

17. क्या आपने अपने परिवार के बारे में सोचा…?

18. एक बार आप अपने मम्मी-पापा की जगह आकर देखो अगर आपकी औलाद ऐसे कदम उठाएगी तो आप पर क्या बीतेगी…?

19. आपकी हर गलती सहन कर लेता है आपका परिवार।
क्या 4 दिन का आवारा जिन्दगी भर ये कर सकता है…?

20. समाज ने जितनी आपको आजादी दी उतना ही आपने समाज को बर्बाद किया है ये सच है क्या…?

नोटः- ये सब बातें उन राजपूत लड़कियों के लिए हैं जो अपने समाज से हटकर किसी और समाज के व्यक्ति के साथ जाने का मन बना रही है या साथ रह रही हैं।

🙏🙏🙏
बहनों राजपुत समाज की बेटियों जो आप दूसरी समाज की लड़के लड़कियों के साथ उठना बैठना हैं वो गलत है समझ जाओ संभल जाओ समाज को आप ही बच्चा सकती हो । आप ही समाज में क्रांति ला सकती हो आज पूरे भारत में आप ही हो जो दूसरी शादी नही करती हो आपका लोग उदाहरण देते आये है पर आज वर्तमान में सबके मुँह से यही सुनने को मिलता है कि राजपूत समाज की लड़कियां सबसे ज्यादा बिगड़ी हुई है चालू हैं।

और ये सच्च भी हैं(कुछ लड़कियां साबित कर रही हैं।) । जब हम राजपूत समाज के लड़के ये सुनते हैं तो शर्म से मर जाते हैं और हमारे मरने का कारण आप हो।

आज समाज के लड़के शराब बन्द  कर रहे हैं, दहेज वापिस दे रहे हैं, रोजगार कर रहे हैं समाज के लिए और समाज की बेटी समाज को बदनाम करने में लगी है।

20 साल का प्यार प्यार नही लगता और 20 दिन का प्यार आपकी जिंदगी बन जाता है।

आपके एक बार मांगते ही आपके घर वाले आपको फोन दिला देते है बहुत से घर ऐसे हैं जिनमे लड़को के पास फोन नही और लड़कियों के पास फोन रहते है इस फोन की वजह से दूसरी जात के लड़के आपसे दोस्ती कर  आपको पागल बना देते है । ये सब एक षड्यंत्र हैं और आप सब इसका परिणाम जानते हुए भी ये गलती कर बैठती है।

क्या पढ़ा-लिखा कर आपके घर वाले गलती कर रहे हैं।

सोचो क्या हाल होता होगा उन माँ-बाप का जिनकी गुड़िया बड़ी होकर एक दिन दुनिया के सामने 4 दिन की आवारगी में पागल होकर ये कहती है ये कौन है मैं इनको नही जानती इनसे मुझे कोई लेना-देना नही कोई मतलब नही।

क्यों करती हो वो नादानियाँ जो समाज की जानलेवा बीमारियां बन जाती है।

बेटिया बोझ नही होती है।
पर आप ऐसा करते हो तो
बेटियों के जन्म पर समाज सोचने जरूर लग जायेगा।

जिसको आप दोस्त या भाई मानते हो वो कही आपके घर की बदनामी तो नही।

राजपुत समाज की बहनों समाज और परिवार की इज्जत आपसे हैं।
समझ जाओ…
समाज को बच्चा लो…
बाकि आप सब जानते हो।
हो सके तो चारो तरफ हो रही समाज की बदनामी को बन्द करो।🙏

समाज के सभी भाई बहनों से निवेदन एक भी समाज की बेटी इस पोस्ट को पढ़ने से नही बचनी चाहिए ।
ये आपकी जिमेदारी हैं।
(कॉपी पेस्ट)🙏

ठाकुर सचिन चौहान अग्निवंशी

इतिहास के पन्नों से (पुंडीर और चौहान राजवंश की कुछ झलक)

▄︻̷̿┻̿═━―• • •  ▄︻̷̿┻̿═━―• • •  ▄︻̷̿┻̿═━―• • •  ▄︻̷̿┻̿═━―• • •
पुंडीर राजवंश का वो अध्याय जो मुझे बहुत मुश्किल और अथक प्रयास के पश्चात प्राप्त हुआ था ,आज आप सब भाइयों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा  हूँ।

इतिहास बचाओ तो भूगोल भी बचा रहेगा।

यह ऐतिहासिक कहानी है दसवी सदी की जब हरयाणा के उत्तर पूर्वी भाग पर चौहानो का राज्य स्थापित हुआ। नीमराना के चौहानो और पुण्डरी(करनाल,कैथल) के पुंडीर राजपूतों के बीच हुए इस रक्तरंजित युद्ध का इतिहास गवाह है।
यह ऐतिहासिक कहानी आपको हरियाणा के उस स्वर्णिम काल में ले जाएगी जब यहां क्षत्रिय राजपूतो का राज था ,यानी अंग्रेजों और मुगलों के समय से भी पहले।

नीमराणा के राणा हर राय चौहान संतानहींन थे। राज पुरोहितो के सुझाव के पश्चात राणा हर राय गंगा स्नान के लिए हरिद्वार के लिए निकले।

लौटते हुए उन्होंने एक रात करनाल के पास के क्षेत्र में खेमा लगाया।उस क्षेत्र का नाम बाद में जा कर जुंडला पड़ा क्यूंकि यहां जांडी के पेड़ उगते थे। राणा जी और उनकी सेना इस इलाके की उर्वरता व हरयाली देख कर मोहित हो गये। उनके पुरोहितों ने उन्हें यहीं राज्य स्थापित करने का सुझाव दिया क्यूंकि पुरोहितों को यह भूमि उनके वंश की वृद्धि के लिए शुभ लगी।

उस समय यह क्षेत्र पुंडीर क्षत्रियों के पुण्डरी राज्य के अंतर्गत था। विक्रमसम्वत 602 में यह राज्य राजा मधुकर देव पुंडीर जी ने बसाया था। राजा मधुकर देव जी का शासन तेलंगाना में था, वे अपने सैनिको के साथ तेलांगना से कुरुक्षेत्र ब्रह्मसरोवर में स्नान के लिए आये थे। तब  यहां के रघुवंशी राजा सिन्धु ( जो की हर्षवर्धन के पूर्वज हो सकते हैं) ने आपने बेटी अल्प्दे का विवाह उनसे किया और दहेज़ में कैथल करनाल का इलाका उन्हें दिया।
राजा मधुकर देव पुंडीर ने यही पर अपने पूर्वज के नाम पर पुण्डरी नाम से राजधानी स्थापित की।
बाद में उनके वंशजो ने यहां चार गढ़ स्थापित किये जो कि पुण्डरी, पुंडरक ,हावडी, चूर्णी(चूर्णगढ़) के नाम से जाने गए।

हर्षवर्धन के पश्चात् सन 712 इसवी के आसपास पुंडीर राजपूतो ने यमुना पार सहारनपुर और हरिद्वार क्षेत्र पर भी कब्जा कर 1440 गाँव पर अपना शासन स्थापित किया।

पुंडीर राज्य के दक्षिण पश्चिम में मंडाड राजपूतों का शासन था जोकि यहां मेवाड़ से आये थे और राजोर गढ़ के बड़गुजरों की शाखा थे। उनके एक राज़ा जिन्द्रा ने जींद शहर बसाया और इस क्षेत्र में राज किया। इन्होने चंदेल और परमार राजपूतों को इस इलाके से हराकर निकाल दिया और घग्गर नदी से यमुना नदी तक राज्य स्थापित किया। चंदेल उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों की तराई में जा बसे।(यहां इन्होने नालागढ़ (पंजाब) और रामगढ़ ( पंचकुला ,हरयाणा) राज्य बसाये ). परमार राजपूत सालवन क्षेत्र छोडकर घग्घर नदी के पार पटियाला जा बसे। जींद ब्राह्मणों को दान देने के बाद मंढाडो ने कैथल के पास कलायत में राजधानी बसाई व घरौंदा ,सफीदों ,राजौंद और असंध में ठिकाने बनाये।मंडाड राजपूतो का कई बार पुंडीर राज्य से संघर्ष हुआ पर उन्हें सफलता नहीं मिली।

गंगा स्नान से लौटते वक्त राणा हर राय चौहान थानेसर पहुंचे तथा पुरोहितो के सुझाव पर पुंडीरो से कुछ क्षेत्र राज करने के लिए भेंट में माँगा।पुंडीरो ने राणा जी की मांग ठुकराई और क्षत्रिये धर्म निभाते हुए विवाद का निर्णय युद्ध में करने के लिए राणा हर राय देव को आमंत्रित किया। जिसे हर राय देव ने स्वीकार किया।
ऐसा कहा जाता है कि मंडाड राजपूतो ने चौहानो का इस युद्ध में साथ दिया. पुंडीर सेना पर्याप्त शक्तिशाली होने के कारण प्रारम्भ में राणा हर राय चौहान को सफलता नहीं मिली मात्र पुण्डरी पर वो कब्जा कर पाए,राणा हर राय चौहान ने हार नजदीक देख नीमराणा से मदद बुलवाई।
नीमराणा से राणा हर राय चौहान के परिवार के राय दालू तथा राय जागर अपनी सेना के साथ इस युद्ध में हिस्सा लेने पहुंचे.नीमराणा की अतिरिक्त सेना और मंडाड राज्य की सेना के साथ मिलने से राणा हर राय चौहान की स्थिति मजबूत हो गयी और चौहानो ने फिर हावडी,पुंड्रक को जीत लिया,अंत में पुंडीर राजपूतो ने चूर्णगढ़ किले में अंतिम संघर्ष किया और रक्त रंजित युद्ध के बाद इस किले पर भी राणा हर राय चौहान का कब्ज़ा हो गया।
इसके बाद बचे हुए पुंडीर राजपूत यमुना पार कर आज के सहारनपुर क्षेत्र में आये और कुछ समय पश्चात् उन्होंने दोबारा संगठित होकर मायापुरी(हरिद्वार)को राजधानी बनाकर राज्य किया, बाद में इस मायापुरी राज्य के चन्द्र पुंडीर और धीर सिंह पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामंत बने और सम्राट द्वारा उन्हें पंजाब का सूबेदार बनाया गया,यह मायापुर राज्य हरिद्वार,सहारनपुर,मुजफरनगर तक फैला हुआ था।

बाद में युद्ध की कटुता को भूलाते हुए चौहानों और पुंडीरो में पुन वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे,
पुंडीर राज्य पर जीत के बाद राणा हर राय ने राय डालु को 48 गांव की जागीर भेंट की जो की आज के  नीलोखेड़ी के आसपास का इलाका था।
जागर को 12 गांव की जागीर यमुनानगर के जगाधरी शहर के पास मिली तथा राणा हर राय के भतीजे को टोंथा के( कैथल ) आस पास के 24 गांव की जागीर मिली। राणा हर राय देव ने जुंडला से शासन किया।

इन्ही के नाम पर इस इलाके का नाम हरयाणा पड़ा जिसका मतलब वो स्थान जहा हर राय राणा के वंशज राज्य करते थे।(हर राय राणा =हररायराणा =हररायणा=हरयाणा)।

परन्तु आजादी के बाद इसका अर्थ राजपूत विरोधी जातियों ने हरी का आना बना दिया जबकि हरी तो हमेशा से उत्तर प्रदेश में ही अवतरित हुए है, हरयाणा तो हरी की कर्म भूमि थी।

राणा हरराय चौहान और उनके चौहान सेना के वंशज आज हरयाणा के अम्बाला पंचकुला करनाल यमुनानगर जिलो के 164 गाँवो में बसते है।रायपुर रानी (84 गाँव की जागीर) इनका आखिरी बचा बड़ा ठिकाना है जो की आजादी के बाद तक भी रहा। हालाकिं इन चौहानो कई छोटी जागीरे चौबीसी के टिकाइओ के नीचे बचीं रहीं।
जैसे:- उनहेरी,मंधौर,टोंथा,शहजादपुर,जुंडला,घसीटपुर आदि जो बाद में अंग्रेजो के शासन के अंतर्गत आ गयी. इन चौहानो की एक चौबीसी यमुना पार मुज़्ज़फरनगर जिले में भी मिलती है। कलस्यान गुर्जर भी खुद को इसी चौहान वंश की शाखा मानते है,(मुजफरनगर गजेटियर पढ़े). राणा हर राय देव के एक वंशज राव कलस्यान ने गुर्जरी से विवाह किया जिनकी संतान ये कलसियान गुर्जर है।ये गुर्जर आज चौहान सरनेम लगाते है और इनके 84 गांव मुज़्ज़फरनगर के चौहान राजपूतो के 24 गाँव के साथ ही बसे हुए है।

राणा हर राय चौहान ने दूसरी जातियों जैसे जाट ,रोड़ की लड़कियों से भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये।
कुरुक्षेत्र के पास के अमीन गाँव चौहान रोड़ इन्ही क वंशज माने जाते है।लकड़ा जाट या चौहान जाट भी इन्ही चौहानो के वंशज माने जाते है।अन्य जातियों की  बीविओं की संताने आज सोनीपत और उत्तर प्रदेश के घाड के आसपास के इलाके में बसते है इन्हे खाकी चौहान कहा जाता है जिनमे शुद्ध रक्त राजपूत विवाह नहीं करते।
राणा हर राय के वंशज राणा शुभमल के समय अंबाला,करनाल क्षेत्र में चौहानो के 169 गाँव थे। शुभमल के पुत्र त्रिलोक चंद को 84 गाँव मिले जबकि दुसरे पुत्र मानक चंद को 85 गाँव मिले जो मुसलमान बन गया। त्रिलोक चंद की आठवी पीढ़ी में जगजीत हुए जो गुरु गोविनद सिंह के समय बहुत शक्तिशाली थे, 1756 में जगजीत के पोते फ़तेह चंद ने अपने दो पुत्रो भूप सिंह और चुहर सिंह के साथ अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला किया जिसमे अब्दाली की विशाल शाही सेना ने कोताहा में धोखेे से घेरकर 7000 चौहानो का नरसंहार किया।

हरयाणा के चौहान आज भी बहुत स्वाभिमानी है और अपने इतिहास पर गर्व करते है। हरियाणा में राजपूतो की जनसँख्या और प्रभुत्व आज नगण्य सा हो गया है।

राणा हर राय देव चौहान की छतरी आज भी जुंडला गाँव (करनाल) में मौजूद है। पर ये दुःख की बात यहाँ के चौहान राजपूत अपने वीर पूर्वज की शौर्य गाथा को भूलते जा रहे है और हरयाणा में आज तक राणा हर राय देव के नाम पर कोई संग्रहालय मूर्ति या चौक नहीं स्थापित किये गए. हम आशा करते है इस पोस्ट को पढ़ने के बाद राणा हर राय देव चौहान को उनको वंशज यथा संभव सम्मान दिलवा पाएंगे।

ठाकुर सचिन चौहान अग्निवंशी

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🚩 जय क्षात्र धर्म 🚩

शनिवार, 30 जून 2018

महाराणा सांगा


मंझला कद , मोटा चेहरा , गेहुआ रंग और बड़ी बड़ी आँखो वाले महाराणा सांगा भारत की धरती के  वे वीर पुत्र है , जिन्होंने मध्यकाल के उस खुनी दौर में अपने सीने पर तोप  के गोले ले लिए थे। 

महाराणा  २४ मई १५०९ ईस्वी को महाराणा संग्राम सिंह मेवाड़ के  सिंहासन  पर विराजमान हुए।  इन्हें ही इतिहास में महाराणा सांगा के नाम से जाना जाता है।  महाराणा सांगा के काल में मेवाड़ की सैनिक शक्ति अपने चरम पर पहुँच गयी थी , उनकी सेना में एक लाख सैनिक तथा ५०० हाथी थे।  ७ बड़े राजा , ९ राव और १०८ रावत महाराणा सांगा के अधीन थे। 

बाबर का सामना करने से पूर्व १०८ बड़ी लड़ाईया उन्होंने मालवा के सुल्तानों से लड़ी थी , और सभी जीती।  राणा सांगा के आगे कोई दूसरा राजा कान हिलाता ना था।  जोधपुर तथा आमेर के राजा महाराणा सांगा का पूरा सम्मान करते थे , ग्वालियर , अजमेर , सीकरी  , रायसेन , कालपी , चंदेरी , बूंदी , गगनौर , रामपुरा तथा आबू जैसे शक्तिशाली प्रदेश उनके सामंत हुआ करते थे। 

महाराणा सांगा जब  चितोड़ के शाशक बने थे , उस समय उनका राज्य चारो और से शत्रुओ से ही घिरा पड़ा था , गुजरात  नवाब भी इस्लामी नशे में चूर थे , तो यहाँ मालवा के क्रूर सुल्तान भी , वहीँ दिल्ली और समय लोदी सल्तनत  राज कर रही थी , इसने भी हिन्दुओ पर कम अत्याचार नहीं किये थे।  हिन्दू मंदिरो को तोड़ने में, हिन्दु स्त्रियों और बच्चो का अपहरण करने में , बलात हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करवाने में एक भी मुस्लमान सुल्तान पीछे नहीं रहा था , भले ही उसका नाम जो भी रहे हो।  दिल्ली के लोदी ने , मालवा के नसीरुद्दीन शाह ने , और गुजरात के महमूद शाह ने एक साथ महाराणा सांगा पर हमला बोला था।, किन्तु उसके बाद भी यह तीन राजाओ को सयुक्त सेना राणा  सांगा की तलवारो का सामना नहीं कर सकी।  आज कुछ मुर्ख बिना सिर पाँव के बात करते है की महाराणा सांगा ने बाबर को  बुलाया था , अब जिस महाराणा सांगा ने ३ -३  मुस्लमान सुल्तानों को एक साथ परास्त किया हो , उन्हें क्या आवश्कयता थी , किसी विदेशी को भारत बुलाने की ?

महाराणा सांगा जितने दिन भी जीवित रहे , उन्हें सदैव युद्धरत ही रहना पड़ा।  एक हाथ , एक आँख , पाँव करते करते उनके कई अंग क्षत  विकृत हो गए थे ,  अपने सारे अंगो के यह हाल देख एक बार महाराणा  सांगा ने अपने दरबारियों से यह आग्रह किया था  की " जिस तरह टूटी हुई मूर्ति प्रतिष्ठा  में पूजने योग्य नहीं रहती , उसी प्रकार मेरी आँख , भुजा , पाँव  सभी अंग निकम्मे हो चुके है , इसलिए में सिहासन पर ना बैठकर जमींन पर बैठूंगा। आप सभी लोग  आपस में विचार कर  किसी योग्य व्यक्ति को सिंहासन  पर बिठा देवे। 

इस विनती भाव से दरबारियों के मन में महाराणा सांगा को लेकर सम्मान का भाव दुगना बढ़ गया था।  सभी एक स्वर में बोले , " रणभूमि में अंगभंग होने पर योद्धा का गौरव बढ़ता है , ना की घटता है।  इस तरह महाराणा कुम्भा की योग्यता पर मेवाड़ के प्रत्येक व्यक्ति को अटूट विश्वास था।  तीन मुस्लमान सुल्तानों को एक साथ परास्त करने वाले  ने उसके बाद मुजफ्फर में ईडर  अहमदनगर एवं बिसलनगर के सुल्तानों को हरा  वहां की गद्दी पर अपने एक सामंत रायमल्ल  राठोड को बैठा दिया।  ईडर  का सुल्तान निजामुलहक़ महाराणा सांगा से भयभीत होकर अहमदनगर के किले में रहने  लगा था , किन्तु महाराणा सांगा  ने उसे वहां भी नहीं छोड़ा। 

निजामुलहक़ ने ईडर  के आस पास इन दिनों खूब आतंक फैलाया था , गौ- हत्या तथा मंदिर तोड़ने वाले बड़े बड़े गाजियों में निजामुलहक़ का नाम भी आने लगा था।  पहली बार में यह महाराणा सांगा के  हाथ से बचकर अहमदनगर के किले में आ छुपा था , लेकिन निजामुलहक़ की मौत उसके साथ साथ अहमदनगर तक ही आ गयी। अहमदनगर का दुर्गद्वार बहुत मजबूत  था , इसे तोड़ने के लिए महाराणा सांगा के सरदार कानसिंह चौहान ने बड़ी बहादुरी दिखाई थी।  किले के किवाड़ पर तीक्षण भाले लगे थे , जिनके कारण हाथी उन किलो पर प्रहार नहीं  कर पा रहा था , कान्हसिंह चौहान उस दुर्गदार से चिपककर खड़े  हो गए , और महावत को आदेश दिया की "  हाथी को कहो की वो मेरे देह पर वार करें " महावत ने वैसा ही किया , तीक्षण भालो से , और उसपर होते  हाथी के प्रहारों से कान्हसिंह चौहान का शरीर छिन्न छिन्न हो गया , लेकिन उनके इस बलिदान के बाद  राजपूत सेनिको का  जोश दुगना हो गया , जय एकलिंग जी , और जय बाणमाता की सिंह गर्जना के साथ , साथ में जय भवानी का उद्घोष करते राजपूत अहमदनगर के इस दुर्ग में घुस गए , और वहां रह रहे प्रत्येक मल्लेछ को काट डाला। 

१३० वर्ष से मालवा में चले आ रहे इस्लामी तंत्र को भी महाराणा सांगा ने उखाड़ फ़ेंका  था।  गुजरात में जफर खान ने हिन्दुओ की दुर्गति कर रखी थी ,  उस समय महाराणा सांगा ही वह वीर  थे जिन्होंने मुसलमानी आतंक  से गुजरात तथा मालवा के हिन्दुओ को मुक्ति दिलवाई थी। 

महाराणा सांगा के लिए किसी कवि ने पंक्तियां लिखी थी, बाद में उसे सुल्तान फ़िल्म में चुरा भी लिया था ।

" खून में तेरे मिट्टी
मिट्टी में तेरा खून
चारो तरफ है उसके शत्रु
बीच मे तेरा जुनून "

जय संग्राम, जय संग्राम

महाराणा सांगा जैसे वीर के बारे में इतना पढ़कर आपको भी इतना अनुमान  तो हो गया होगा , की इब्राहिम लोदी जैसे चूहे को  हराने  के लिए महाराणा सांगा बाबर को आमंत्रण देंगे , यह बात केवल बिना सर पाँव की बकवास है।  बाबर तो तैमूर लंग की तरह भारत को लूटने आया  था , जो बाद में यही रह भी गया। 
बयाना के युद्ध में खुद महाराणा सांगा ने बाबर को परास्त किया था , उसके बाद भी  यह सोचना की महाराणा सांगा मुगलो को भारत में आमंत्रित करेंगे , ऊपर वह भी लोदी जैसे चूहे को परास्त  करने के लिए। .. तो यह केवल मानसिक दिवालियापन है। 

ना तो इब्राहिम लोदी की औकात  थी , की वह महाराणा सांगा से लड़ पाए , और ना बाबर की औकात  थी , की वह महाराणा सांगा के प्रहारों को झेल पाएं।  बाबर ने इब्राहिम लोदी को परास्त कर  भारत के सभी मुसलमानो को अपने पक्ष में कर लिया था।,  लेकिन उसके बाद भी बाबर भारत का सम्राट तभी बन सकता था  , जब वह महाराणा सांगा को परास्त करता। 

बड़े  से बड़ा  सुरमा और छोटे से छोटा सुरमा , हर कोई राणा सांगा के आगे नतमस्तक था , अखंड भारत का सम्राट बनने से राणा सांगा मात्र एक कदम की दुरी पर  ही थे।    वहीँ दूसरी और बाबर भी सारे मुस्लिम गुंडों , बदमाशों और डाकुओ की फौज इक्क्ठी कर सीकरी  की और बढ़ा।  बयाना के पास बाबर और महाराणा सांगा की सेना भी भयंकर युद्ध हुआ था , वीर राजपूतो की तीर और  तलवार के आगे तोप  के गोले भी ध्वस्त हुए थे , बयाना से दुर्ग से बाबर और उसके सैनिक जैसे तैसे अपनी जान बचाकर वापस भाग पाएं। 

अपनी हार से हताश बाबर ने जुम्मे की नमाज़ के दिन बड़ा भड़काऊ भाषण दिया।  उस भाषण के बोल कुछ इस तरह के थे

" यह युद्ध बाबर अपने लिए नहीं कर रहा , वह यह युद्ध इस्लाम के लिए कर रहा है।  जिहाद ही मुसलमानो के जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है , अगर हम जिहाद करते हुए  गजवा ए  हिन्द की इस लड़ाई में अगर शहीद हुए , तो ऊपर शराब की नदी और हो का सुख भोगेंगे , और अगर यह लड़ाई जीत  गए , तो गाजी कहलाये जाएंगे। 

मस्जिद में दिया गया यह भाषण भारत के सभी मुसलमानो के  बीच  आग की तरह फ़ैल गया।  भारत का प्रत्येक मुस्लमान तो जैसे हिन्दुओ के खून से नहाने को हरदम तैयार ही रहता था , इब्राहिम लोदी की हत्या के बाद कुछ पठान सरदार महाराणा सांगा के यहाँ शरण लिए हुए थे , इस्लाम की इस लड़ाई में तो वह भी कौम की तरफ , यानि बाबर की तरफ ही हो गए।  १५ मार्च १५२७ ईस्वी को खानवा के मैदान पर  हिन्दुओ तथा मुसलमानो के  बीच  खानवा का युद्ध शुरू हुआ।  महाराणा सांगा की सेना में , महमूद लोदी , राव गंगासिंह राठोड ( जोधपुर ) पृथ्वीराज कछवाहा ( आमेर ) भारमल ( ईडर  ) कुंवर कल्याणमल ( बीकानेर ) बिरमदेव मेड़तिया राठौड़  , रावल उदल सिंह , नरबर हाड़ा बूंदी , मेदिनीराय चंदेरी , रायमल  राठौड़  , रामदास सोनगरा  , वीरसिंह  देव , परमार गोकुलदास , चन्द्रमान चौहान मानिकचंद चौहान  आदि कई सामंत और शाशक महाराणा सांगा की और से  युद्ध  कर रहे थे , अंतिम बार पूरा राजपूताना  आपस में एक होकर कंधे से कन्धा मिलाकर युद्ध लड़ रहा था।  महाराणा सांगा और उनके सैनिक बाबर की सेना पर भूखे शेर की तरह टूट पड़े।  बाबर के पास तोपखाना था , जिसकी शक्ति के आगे तलवारो और भालो की शक्ति का कोई मोल नहीं था।  लकिन फिर भी राजपूतो ने हंस हंसकर तोप  के गोले अपनी छाती पर हंस हंस कर झेल लिए।

बाबर के पास तोपें थी  , फिर भी उसकी  सेना में  हाय  तोबा मची ही रही।  राणा सांगा के सैनिक तोप  पर कब्जा करने बिलकुल निकट  पहुँच भी चुके थे की एक तीर राणा सांगा की छाती पर  आकर लगा , राणा  सांगा अपने होदे से निचे आ गिरे , सेना में राणा सांगा के मूर्छित होने की खबर जब पहुंची , तो पूरी सेना में ही निराशा छा  गयी।  झाला अज्जा  ने राणा सांगा के वस्त्र पहनकर स्तिथि को संभालने का प्रयास किया , लेकिन तब तक तो बहुत  देर हो चुकी थी। 

इस हार के बाद महाराणा सांगा दुबारा उठ नहीं पाएं , इस हार के एक वर्ष पश्चात मात्र ४६ वर्ष की आयु में ३० जनवरी १५२८ को  महाराणा सांगा ने अंतिम साँसे ली।🙏

शनिवार, 23 जून 2018

🚩✊💪क्षत्रियत्व👊🚶🚩


(1) राजपूतो में पहले सिर के बाल बड़े रखे जाते थे जो गर्दन के नीचे तक होते थे युद्ध में जाते समय बालो के बीच में गर्दन वाली जगह पर लोहे की जाली डाली जाती थी और वहा विषेस प्रकार का चिकना प्रदार्थ लगाया जाता था (कुछ लोग आकड़े का दूध भी लगते थे ) इससे तलवार से गर्दन पर होने वाले वार से बचा जा सके।

(2) युद्ध में धोखे का संदेह होने पर घुसवार अपने घोड़ो से उतर कर जमीनी युद्ध करते थे।

(3) मध्य काल में देवी और देव पूजा होती थी जंग में जाने से पूर्व राजपूत अपनी कुलदेवियो की पूजा अर्चना करते थे जो ही शक्ति का प्रतिक है मेवाड़ के सिसोदिया एकलिंग जी की पूजा करते।

(4) हरावल - राजपूतो की सेना में युद्ध का नेतृत्व करने वाली टुकड़ी को हरावल सेना कहा जाता था जो सबसे आगे रहती थी कई बार इस सम्माननीय स्थान को पाने के लिए राजपूत आपस में ही लड़ बैठते थे इस संदर्भ में उन्टाला दुर्ग वाला चुण्डावत शक्तावत किस्सा प्रसिद्ध है।

(5) किसी बड़े जंग में जाते समय या नय प्रदेश की लालसा में जाते समय राजपूत अपने राज्य का ढोल , झंडा ,राज चिन्ह और कुलदेवी की मूर्ति साथ ले जाते थे।

(6) युद्ध में जाते से पूर्व "चारण/गढ़वी" कवि वीररस सुना कर राजपूतो में जोश पैदा करते और अपना कर्तव्य याद दिलाते कुछ युद्ध जो लम्बे चलते वह चारण भी साथ जाते थे चारण गढ़वी और भाट एक प्रकार के दूत होते थे जो राजपूत राजा के दरबार में बिना किसी रोक टोक आ जा सकते थे चाहे वो दुश्मन राजपूत राजा ही क्यों ना हो।

(7) राजपूताने के सभी बड़े किले के बनने से पूर्व एक स्वेछिक नर बलि होती थी कुम्भलगढ़ के किले पर एक सिद्ध साधु ने खुद की स्वेछिक बलि दी थी।

(8) राजपूताने के ज्यादातर किलो में गुप्त रास्ते बने हुए है आजादी के बाद और सन 1971 के बाद सभी गुप्त रस्ते बंद कर दिए गए है।

(9) शाका - महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष जौहर कि राख का तिलक कर के सफ़ेद कुर्ते पजमे में और केसरिया फेटा ,केसरिया साफा या खाकी साफा और नारियल कमर कसुम्बा पान कर,केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ।

(10) जौहर : युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु अपने सतीत्व के रक्षा के लिए राजपूतनिया अपने शादी के जोड़े वाले वस्त्र को पहन कर अपने पति के पाँव छू कर अंतिम विदा लेती है महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश कर अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है और राजपूतनिया जिंदा अपने इज्जत कि खातिर आग में कूद कर आपने सतीत्व कि रक्षा करती थी | पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा | महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ |सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ और जैसलमेर के दुर्ग में हुए।

(11) गर्भवती महिला को जौहर नहीं करवाया जाता था अत: उनको किले पर मौजूद अन्य बच्चों के साथ सुरंगों के रास्ते किसी गुप्त स्थान या फिर किसी दूसरे राज्य में भेज दिया जाता था।
राजपुताने में सबसे ज्यादा जौहर मेवाड़ के इतिहास में दर्ज हैं और इतिहास में लगभग सभी जौहर इस्लामिक आक्रमणों के दौरान ही हुए हैं जिसमें अकबर और ओरंगजेब के दौरान सबसे ज्यादा हुए हैं ।

(12) अंतिम जौहर - पुरे विश्व के इतिहास में अंतिम जौहर अठारवी सदी में भरतपुर के जाट सूरजमल ने मुगल सेनापति के साथ मिलकर कोल और मेवात में घासेड़ा के राघव राजपूत राजा बहादुर सिंह पर हमला किया था। महाराजा बहादुर सिंह ने अपने से बहुत बड़ी सेना से जबर्दस्त मुकाबला करते हुए मुगल सेनापति को मार गिराया। पर दुश्मन की संख्या अधिक होने पर किले में मौजूद सभी राजपूतानियो ने बारुद के ढ़ेर में आग लगाकर जौहर कर प्राण त्याग दिए उसके बाद राजा और उसके परिवारजनों ने शाका किया। इस घटना का जिक्र आप "गुड़गांव जिले के Gazetteer" में पढ़ सकते है।

(13) अगर आप के पिता जी/दादोसा बिराज रहे है तो कोई भी शादी ,फंक्शन, मंदिर इत्यादि में आप के कभी भी लम्बा तिलक और चावल नहीं लगेगा, सिर्फ एक छोटी टीकी लगेगी !!

(14) आज भी कही घरो में तलवार को मयान से निकालने नहीं देते, क्योकि तलवार को परंपरा है की अगर वो मयान से बाहर आई तो या तो उनके खून लगेगा, या लोहे पर बजेगी, इसलिए आज भी कभी अगर तलवार मयान से निकलते भी है तो उसको लोहे पर बजा कर ही फिर से मयान में डालते है !!

(15)मटिया, गहरा हरा, नीला, सफेद ये शोक के साफे है

(16)पैर में कड़ा-लंगर, हाथी पर तोरण, नांगारा निशान, ठिकाने का मोनो ये सब जागीरी का हिस्सा थे, हर कोई जागीरदार नहीं कर सकता था, स्टेट की तरफ से इनायत होते थे..!!

(17) पहले के वक़्त वक़्त राजपूत समाज में अमल का उपयोग इस लिए ज्यादा होता था क्योकि अमल खाने से खून मोटा हो जाता था, जिस से लड़ाई की समय मेंहदी घाव लगने पर खून कार रिसाव नहीं के बराबर होता था, और मल-मूत्र रुक जाता था जयमल मेड़तिया ने अकबर से लड़ाई के पूर्व सभी राजपूत सिरदारो को अमल पान करवाया था।

(18) पहले कोई भी राजपूत बिना पगड़ी के घोड़े पर नही बैठते थे।

(19) सौराष्ट्र (काठियावाड़) और कच्छ में आज भी गिरासदार राजपूत घराने में अगर बेटे की शादी हो तो बारात नहीं जाती, उसकी जगह लड़के वालों की तरफ से घर के वडील (फुवासा, बनेविसा, मामासा) एक तलवार के साथ 3 या 5 की संख्या में लड़की के घर जाते हे जिसे "वेळ” या ‘खांडू" कहते है, लड़की वाले उस तलवार के साथ विधि करके बेटी को विदा करते है,मंगल फेरे लड़के के घर लिए जाते है।

(20) राजपूत परम्परा के मुताबिक पिता का पहना हुआ साफा , आप नहीं पहन सकते।

(21) पहले सारे बड़े ताजमी ठिकानो में ठिकानेदारों को विवाह से पूर्व स्टेट महाराजा से अनुमति लेनी पढ़ती थी।

(22) हर राज दरबार के, ठिकाने के, यहाँ गोत्र उप्प गोत्र के इष्ट देवता होते थे, जो की ज्यादतर कृष्ण या विष्णु के अनेक रूप में से होते थे, और उनके नाम से ही गाँववाले या नाते-रिश्तेदार दुसरो को पुकारते है करते थे, जैसे की जय रघुनाथ जी की , जय चारभुजाजी की।

(23) अमल गोलना, चिलम, हुक्का यहाँ दारू की मनवार, मकसद होता था, भाई,बंधू, भाईपे,रिश्तेदार को एक जाजम पर लाना !!मनवार का अनादर नहीं करना चाहिए, अगर आप नहीं भी पीते है तो भी मनवार के हाथ लगाके या हाथ में ले कर सर पर लगाके वापस दे दे, पीना जरुरी नहीं है , पर ना -नुकुर कर उसका अनादर न करे।

(24) जब सिर पर साफा बंधा होता है तोह तिलक करते समय पीछे हाथ नही रखा जाता।

(25) दुल्हे की बन्दोली में घोडा या हाथी हो सकता है पर तोरण पर नहीं, क्योकि घोडा भी नर है, और वो भी आप के साथ तोरण लगा रहा होता है, इस्सलिये हमेशा तोरण पर घोड़ी या हथनी होती है !!

(26) एक ठिकाने का एक ही ठाकुर,राव,रावत हो सकता था, जो गद्दी पर बैठा है, बाकि के भाई,काका ये टाइटल तभी लगा सकते थे जब की उनको ठिकाने की तरफ से अलग से जागीरी मिली हो,और वो उस के जागीरदार हो, अगर वो उसी ठिकाने /राज में रह रहे हो, तो उनके लिए "महाराज" का टाइटल होता था!

(27) आज भी त्योहारों पर ढोल बजने के नट,नगरसी या ढोली आते है उन्हें बैठने के लिए उचित आसान (जाजम) दिए जाते है उनके ढोल में देवी का वास होता है और ऐसे आदर के लिए किया जाता है।

(28) राजपूत जनाना में राजपूत महिलाये नाच गान के बाद ढोली जी और ढोलन की तरफ जुक कर प्रणाम करती है।

(29) नजराने के भी अलग अलग नियम थे, अगर आप छोटे ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के हाथ से उठा लेते थे, पर अगर आप उमराव या सिरायती ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप का हाथ अपने हाथ पर उल्टा करके, अपना हाथ नीचे रख कर नजराना लेते थे !!

(30) कोर्ट में अगर आप छोटे ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के आने पर खड़े नहीं होते थे, पर अगर आप उमराव या सिरायती ठिकानेदार हो तो महाराजा साब या महाराणा साब आप के आने और आप के जाने पर दोनों वक्त उनको खड़ा होना पड़ता है।


(31) सिर्फ राठोरो के पास "कमध्वज" का टाइटल है, इसका मतलब है, सर काटने के बाद भी लड़ने वाला !

(32) राजपूतो में ठाकुर पदवी के इस्तेमाल के बारे में में कुछ बाते :यदि आपके दादोसा हुकम बिराज रहे है तो वो ही ठाकुर पदवी का प्रयोग कर सकते है, आपके दाता हुकम कुंवर का और आप भंवर का प्रयोग कर्रेंगे और आपके बना (चौथी पीढ़ी) के लिए टंवर का प्रयोग होगा।

(33) एक ठिकाने में तीन से चार पाकसाला (रसोई) हो सकती थी, ठाकुरसाब, ठुकरानी के लिए विशेष पाकसाला होती थी, एक पाकसाला मरदाना में होती थी, जिस में मास आदि बनते थे, जनाना में सात्विक भोजन की पाकसाला होती थी, विद्वाओ के लिए अलग भोजन बनता था, ठिकाने के कर्मचारी नौकरों के लिए अलग से पाकशाला होती थी, एक पाकशाला मेहमानों के लिए होती थी।

(34) राजपूतो में किसी की मर्त्यु में बाद "शोक भंगाई" जिसमे राजपूत दूसरे राजपूतो को दारू या अफीम की मनवार कर शोक तुड़वाते है।

उपरोक्त अधिकांश परम्पराएं अधिकतर राजस्थान गुजरात क्षेत्र की हैं देश भर के क्षत्रिय राजपूतों की परम्पराएं अलग हो सकती हैं।

साभार......
✍हमीर सिंह सिसोदिया🚩🚩
⛳⛳जय राजपूताना।⛳⛳

शुक्रवार, 22 जून 2018

आज तुम्हे राजपूतो के सबसे प्यारे आभूषण तलवार⚔ के बारे में बताता हूँ....

जय मां भवानी ।
जय राजपूताना


आज तुम्हे चिंघाड़ की याद कराता हूँ…
आज तुम्हे राजपूतो के सबसे प्यारे आभूषण
तलवार के बारे में बताता हूँ....
ये तो युगों सेस्वामीभक्ति करती रही…
अपने होठो से दुश्मन का रक्तपात करती रही…
अरबो को थर्राया इसने,पछायो को तड़पाया भी
गन्दी राजनीती से लड़ते हुए भी हमारा सम्मान करती रही…
ये ही तो राजपूतो का असली अलंकार है…
इसी से तो शुरू राजपूतो का संसार है…
इसके हाथ में आते ही शुरू संहार है…
इसके हाथ में आते ही दुश्मन के सारे शस्त्र बेकार है…
जीवो के बूढा होने पर उसे तो नहीं छोड़ते…
तो तलवार को क्यों छोड़ दिया…
बूढे जीवो को जब कृतघ्नता के साथ सम्मान से रखते हो…
तो मेरे भाई तलवार ने कौन सा तुम्हारा अपमान किया…
इसी ने हमेशा है ताज दिलाये…
इसी ने दिलाया अनाज भी…
जब भी आर्यावृत पर गलत नज़र पड़ी…
तब अपने रोद्र से इसने दिलाया हमें नाज़ भी… इसी ने दुश्मन के कंठ में घुसकर उसकी आह को भी रोक दिया…
जो आखिरी बूंद बची थी रक्त की…
उसे भी अपने होठो से सोख लिया…
मैं तो सच्चा राजपूत हूँ…
इतनी आसानी से कैसे अपनी तलवार छोड़ दूँ…
मैं तो क्षत्राणी का पूत हूँ…
मैं कैसे इस पहले प्यार से मुह मोड़ लू।

मद जिसका था प्रचंड, सारा दूर कर दिया।


मद जिसका था प्रचंड, सारा दूर कर दिया
इक़बाल था बुलंद, उसे धूल कर दिया
राणा प्रताप एकमात्र, ऐसे वीर थे
अकबर का सब घमंड, जिनने चूर कर दिया।

मुगलों के यूँ ख़िलाफ़, कोई और ना हुआ
जिसका हो यूँ प्रताप, कोई और ना हुआ
बाइस हज़ार लड़ गये, अस्सी हजार से
राणा जी आप जैसा, कोई और ना हुआ।

ये हिन्द तुमको, परम् वीर याद करता है
कहाँ से आयेंगे, राणा प्रताप कहता है
यहाँ तो आज सियासत में, मोहरा बन के
वतन का नौजवान ही, फ़साद करता है।

राजा महान ऐसा, आज तक नहीं हुआ
योद्धा महान ऐसा, आज तक नहीं हुआ
बलवान बुद्धिमान वीर, ढेर हुये हैं
राणा महान जैसा, आज तक नहीं हुआ।

साहस से भरा इस तरह, बलवान ना मिला
दृढ़ता का कोई इस तरह, प्रतिमान ना मिला
इतिहास रंगा है कई, वीरों के नाम से
राणा प्रताप जैसा कोई, नाम ना मिला

ये हिंद झूम उठे गुल चमन में खिल जायें
कलेजे दुश्मनों के नाम सुन के हिल जायें
कोई औकात नहीं चीन पाक जैसों की
वतन को फिर से जो राणा प्रताप मिल जायें।

मिला था गर्व ऊँची शान, जिससे राजपूतों को
कराया था हलाहल पान, मुगलों के कपूतों को
लहू से लाल कर दी घाटियाँ, बन मौत नाचे थे
नमन करता है हिंदुस्तान, इन सच्चे सपूतों को।

भालों से था प्रेम बहुत, ओ तलवारों से यारी थी
मुठ्ठी भर सेना थी लेकिन, नभ जैसी मुख्तारी थी
चेतक पर चढ़ कर जब आये, वीर प्रतापी राणा जी
काँप उठी अकबर की सेना, काँपी हल्दीघाटी थी।

नाम गगन पर लिखने वाले, वो प्रताप थे मतवाले
स्वाभिमान पर मिटने वाले, वो प्रताप थे मतवाले
मातृ भूमि की आन की ख़ातिर, जान हथेली रखते थे
अकबर जिससे हार गया था, वो प्रताप थे मतवाले।