मंगलवार, 7 जनवरी 2025

सम्राट विग्रहराज चतुर्थ (वीसलदेव चाहमान)।

क्षत्रिय जीवन परिचय:- 

सम्राट विग्रहराज चतुर्थ अथवा वीसलदेव (चाहमान वंश) के एक अति प्रतापी और विख्यात नरेश थे, जिन्होंने चाहमानों (चौहानों) की शक्ति में पर्याप्त वृद्धि तथा उसे एक साम्राज्य के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया। 

सन् ११५३ में विग्रहराज चतुर्थ वीसलदेव शाकम्भरी राजसिंहासन पर बैठे इन्होंने सम्पूर्ण भारत में विजय पायी थी और अरबों को खदेड़ा था। 

११५३ से ११६४ तक राज्य किया, दिल्ली पर भी अधिकार किया था। मेवार से एक लेख प्राप्त हैं एवं मध्यकालीन इतिहास में लिखा हैं, की मलेच्छो को परास्त कर दिल्ली छीनकर अपने राज्य में मिला लिया था। 

डॉ. आर. सी. मजूमदार ने लिखा हैं की अपने पराक्रम और शौर्य का परिचय देते हुये कई राज्यों को जीत लिया था, अरबों को ना केवल भारत से खदेड़ा अपितु शौर्य का परचम तुर्क के शासक खुसरो शाह को परास्त कर लाहौर पर विजय पाई थी । महाकवि सोमदेव ने वीसलदेव के प्रताप और शौर्य की प्रशंसा में 'ललित विग्रहराज' नामक ग्रन्थ लिखा।

चाहमान वंश को आज नवीनतम इतिहास में चौहान कहा जाता हैं चाहमान वंश २५०० साल तक सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के प्रहरी थे। कुशल शासन द्वारा प्रजा और भारत माता के सेवा प्रदान किये, चाहमान वंश ने अरब, हूण और अस्सीरिया के अस्सूरों को धूल चटाई थी।

वीसलदेव चाहमान और अरबो के बीच कुल ८ से १० युद्ध हुए। पर दुर्भाग्यवश तीन युद्ध का वर्णन मिला बहोत खोज के बाद असल में वामपंथियों ने वीसलदेव को केवल एक संगीतकार बना कर पेश किया जो की पूरी तरह गलत हैं। 

वीसलदेव चाहमान अति पराक्रमी और प्रतापी राजा थे तुर्क, बेबीलोनिया, मिस्र, फातिमद साम्राज्य जिसमे काइरो, और मिस्र, तुर्क इत्यादि राज्य आते थे।अरबो के खलीफा को परास्त कर मिस्र तुर्क एवं फातिम साम्राज्य के राज्यो पर केसरिया ध्वज फहरानेवाले वीर थे।

(१.) प्रथम युद्ध:- 
विग्रहराज चौहान जी ने अरबो को हराया था प्रथम युद्ध सन् ११५४ में अबुल क़ासिम के साथ हुआ था यह मिस्र, तुर्क, बेबीलोनिया, सीरिया, काइरो में आते थे, विग्रहराज चतुर्थ के पराक्रम के सामने क़ासिम की सेना धराशायी हो गई थी। 
विग्रहराज अपने प्रेम से और बल से आसपास के सभी राज्यों को जीत कर एकछत्र शासित राज्य की स्थापना कि थी । कासिम की सेना में जाबालिपुर पर आक्रमण किया था तब विग्रहराज जी ने क़ासिम की सेना की कमर तोड़ दि थी। अरब के खलीफा क़ासिम की विशाल जिहादि सेना को बंदी बनाकर जाबालिपुर में जुलुस निकाला था।

(२.) द्वितीय युद्ध:- 
तुर्क के साथ द्वितीय युद्ध सन् ११५७ खुसरोशाह के साथ हुआ था। तुर्क क्रुर शासक थे जिन्होंने तलवार के बल पर एवं पैशाचिक सेना के बल पर सम्पूर्ण उज़्बेकिस्तान, मंगोलिया, कजाखस्तान को रौंध कर इस्लाम में तब्दील कर दिया था आधे से ज़्यादा मध्य एशिया के अधिकतर भू-भाग इस्लाम के क्रूरता का शिकार बन गए थे। 

नददुल और दिल्ली को रौंधने का प्रयास खुसरो शाह की मृत्यु की वजह बन गया, विग्रहराज चतुर्थ की सेना २०,००० से अधिक थी हर हर महादेव के शंखनाद से धर्मयोद्धाओं में अलग सी ऊर्जा का संचय हुआ और भिड़त हुई लाखों मलेच्छों तथा तुर्क सेना नायक अहमद संजार की टुकड़ी सेना नायक अहनेद संजार के साथ खत्म हो गई, और फिर खुसरोशाह की विग्रहराज के सेना नायक अरिवलसिन्ह तंवर द्वारा मृत्यु होने के पश्चात तुर्क की जिहादी सेना की हार हुई और वैदिक ध्वजा तुर्की तक फहराई चाहमान (चौहान) काल में अखंड जम्बूद्वीप पर मलेच्छो के कुल ६४ से अधिक आक्रमण हुये थे जिसमे से केवल दो या तीन आक्रमण का ही उल्लेख मिलता हैं।

(३.) तृतीय युद्ध:- 
 तृतीय युद्ध सन ११५५ में अतसिज़ ने किया था जो की ख्वारेज़्म के द्वितीय शाह थे सेल्जुक साम्राज्य के सुल्तान थे विग्रहराज चतुर्थ के साथ समरकन्द में युद्ध हुआ था।

समरकन्द ( समारा + खांडा ) यह एक संस्कृत नाम हैं जिसका मतलब होता हैं युद्ध क्षेत्र (Region of War) जो की वर्तमान में उज़्बेकिस्तान का हिस्सा हैं यह उस समय विग्रहराज चतुर्थ (वोसलदेव चौहान) के साम्राज्य का हिस्सा था यहाँ अतसिज़ की सेना को परास्त होकर समरकन्द छौड़ कर भागना पड़ा था।
चाहमान शाकम्बरी विग्रहराज विसलदेव चतुर्थ।

सोमवार, 6 जनवरी 2025

नीमराणा फोर्ट: - 551 साल पहले चट्टानों को काटकर बना 10 मंजिला किला, ऊपर है स्विमिंग पूल

भारत में ऐसे कई किले, उद्यान और जगह हैं जिन्हें विश्व विरासत में जगह मिली है। वहीं, कुछ ऐसे भी हैं जो इस सूची में शामिल होने की क्षमता रखते हैं।

अलवर:- 
यह नजारा है राजस्थान के निमराना फोर्ट पैलेस का। अरावली की पहाडियों पर बने इस किले का निर्माण लगभग 551 साल पहले सन 1464 में हुआ था। नीमराना फोर्ट पैलेस रिजॉर्ट के रूप में इस्तेमाल की जा रही भारत की सबसे पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में से एक है।


कमरे ही नहीं बाथरूम से भी दिखता है बाहर का भव्य नजारा:- 
10 मंजिलें इस विशाल किले को तीन एकड़ में अरावली पहाड़ी और आसपास की चट्टानों को काटकर बनाया गया है। यही कारण है कि इस महल में नीचे से ऊपर जाना किसी पहाड़ी पर चढ़ने का अहसास कराता है।

नीमराना की भीतरी साज-सज्जा में काफी छाप अंग्रेजों के दौर की भी देखी जा सकती है। ज्यादातर कमरों की अपनी बालकनी है जो आसपास की भव्यता का पूरा नजारा प्रदान करती है। यहां तक की इस किले के बाथरूम से भी आपको हरे-भरे नजारे मिल जाएंगे।

इस पैलेस में हैं 50 भव्य कमरे:- 

दस मंजिलों पर कुल 50 कमरे इस रिजॉर्ट में हैं। 1986 में हेरिटेज पैलेस को रिजॉर्ट के रूप में तब्दील कर दिया गया। यहां नजारा महल और दरबार महल में कॉन्फ्रेंस हॉल है। पैलेस में बदले इस किले में कई रेस्तरां बने हैं। इस पैलेस में ओपन स्विमिंग पूल भी बना है। नाश्ते के लिए राजमहल व हवामहल तो खाने के लिए आमखास, पांच महल, अमलतास, अरण्य महल, होली कुंड व महाबुर्ज बने हुए हैं। इस किले की बनावट ऐसी है कि हर कदम पर शाही ठाठ का अहसास होता है।

देव महल से लेकर गोपी महल तक हर कमरे का है अलग नाम:- 

यहां पर बने हर कमरे का अलग नाम है- देव महल से लेकर गोपी महल तक। नीमराना की एक खास बात यह है कि यहां कमरे केवल दिन भर के इस्तेमाल के लिए भी मिल जाते हैं और अगर आप खाली सैर करना चाहते हैं तो मामूली शुल्क देकर दो घंटे के लिए महल की भव्यता का लुत्फ उठा सकते हैं।

पृथ्वीराज चौहान ने बनाई थी अपनी राजधानी:- 

नीमराना ऐतिहासिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। इसे पृथ्वीराज चौहान के वंशजों ने अपनी राजधानी के रूप में चुना था। 1192 में मुहम्मद गोरी के साथ जंग में हार के बाद गोरी के सैनिकों ने उन्हें बंदी बना लिया था। इसके बाद चौहान वंश के राजा राजदेव ने नीमराना चुना, लेकिन यहां का निर्माता मियो नामक बहादुर शासक था। चौहानों से जंग में हारने के बाद मियो के अनुरोध पर इसे नीमराना कहा जाने लगा।


Mahabharat Katha: पांडवों के मामा ने युद्ध में क्यों दिया दुर्योधन का साथ? लेकिन एक शर्त कौरवों पर पड़ी भारी! पता है यह कहानी!

महाभारत में कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र में हुए भयंकर युद्ध का वर्णन विस्तार से मिलता है, कौरवों ने पांडवों को हराने के लिए हर प्रयास किया, लेकिन वे सफल नहीं हुए।

कौरवों की सेना में एक से बढ़कर एक योद्धा और महारथी थे, लेकिन अधर्म का साथ देने के कारण उनको पराजय का सामना करना पड़ा, उस युद्ध में कौरवों की ओर से पांडवों के मामा भी शामिल हुए थे,अब आपको आश्चर्य होगा कि जो पांडवों के सगे मामा थे, वे अपने भांजों के खिलाफ क्यों खड़े हुए? हालांकि उनको दिया दुर्योधन का एक वचन, कौरवों पर ही भारी पड़ गया, आइए जानते हैं पांडवों के मामा की इस कहानी के बारे में।

कौन थे पांडवों के मामा!
महाभारत में यह घटना उस समय की है, जब कौरव और पांडव युद्ध के लिए अपनी सेना का संगठन कर रहे थे, बड़े से बड़े योद्धाओं को अपनी ओर से लड़ने के लिए राजी कर रहे थे, इसी क्रम में दुर्योधन ने पांडवों के सगे मामा यानि मद्र नरेश शल्य के साथ छल किया. शल्य राजा पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के भाई थे, वे नकुल और सहदेव के सगे मामा थे, इस प्रकार से वे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन के मामा भी हुए।

दुर्योधन ने मद्र नरेश शल्य से किया छल!
पांडवों और कौरवों में युद्ध की घोषणा हुई थी, उसी दौरान मद्र नरेश शल्य अपने भांजे से मिलने के लिए सेना के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे, इस बात की भनक दुर्योधन को लग गई, उसने बड़ी ही चालाकी से उन सभी स्थानों पर मद्र नरेश शल्य और उनकी सेना के रहने, खाने और पीने का पूरा बंदोबस्त करा दिया था, जहां जहां पर उनकी सेना ने डेरा डाला था।

रास्ते भर मद्र नरेश शल्य और उनकी सेना को सही प्रकार से भोजन और पानी की व्यवस्था प्राप्त हुई, इससे राजा शल्य बहुत खुश हुए, हस्तिनापुर के पास भी उनके और सेना के लिए अच्छा प्रबंध किया गया था, यह देखकर राजा शल्य ने पूछा कि युधिष्ठिर के किन कर्मचारियों और सहयोगियों ने उनके लिए उत्तम व्यवस्था की है? वे उनसे मिलना चाहते हैं और कुछ पुरस्कार देना चाहते हैं।

दुर्योधन वहां पर पहले से ही छिपा हुआ था, यह बात सुनते ही वह राजा शल्य के सामने आकर खड़ा हो गया, उसने कहा कि मामा जी, यह सारी व्यवस्था आपके लिए मैंने ही की है, ताकि आपको और आपकी सेना को कोई परेशानी न हो, इतना सुनकर राजा शल्य के मन में दुर्योधन के लिए प्रेम उमड़ पड़ा, उन्होंने दुर्योधन से कहा कि आज तुम जो मांगोगे, वो मिलेगा।

अपने वचन में फंसे राजा शल्य!
चालाक दुर्योधन इस मौके के ही ताक में था, उसने राजा शल्य से कहा कि वह चाहता है कि आप युद्ध में कौरवों की सेना का साथ दें और सेना का संचालन करें, राजा शल्य ने दुर्योधन को वचन दिया था, इसलिए वे अपने वचन से मुकर नहीं सकते थे, राजा शल्य ने कौरव सेना के साथ रहने के लिए हां कह दिया।

राजा शल्य ने भी दुर्योधन के सामने रखी एक शर्त!
राजा शल्य ने दुर्योधन की बात मान ली, लेकिन उन्होंने उससे एक वचन भी लिया, उन्होंने कहा कि वे युद्ध में कौरवों के साथ रहेंगे, जो आदेश होगा, उसका पालन करेंगे, लेकिन उनकी वाणी पर उनका ही अधिकार होगा, दुर्योधन ने सोचा कि इससे उसे कोई हानि नहीं है, इसलिए उसने भी राजा शल्य की शर्त मान ली।

राजा शैल्य की शर्त पड़ी भारी!
पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध शुरू हुआ तो राजा शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया, वे कर्ण का रथ चलाते थे, लेकिन शर्त के अनुसार, वे पूरे युद्ध में पांडवों की वीरता का ही बखान करते थे, वे कौरवों को हमेशा कमजोर बताते और उनको हतोत्साहित करते थे, युद्ध समाप्ति के बाद भी शाम के समय कौरवों को उनकी कमजोरियों को ही बताते, कर्ण को अर्जुन की वीरता का बखान करके उसे हतोत्साहित करने का काम करते थे, वे कौरवों की ओर से होते हुए भी अपनी वाणी से पांडवों की मदद करते थे।