रविवार, 23 अक्टूबर 2022

"जोधा अकबर" की झूठी कहानी


"जोधा अकबर" की कहानी झूठी निकली सैकड़ो सालो से प्रचारित झूंठ का खंडण अकबर की शादी "हरकू बाई " से हुई थी , जोमान सिंह की दासी” थी।

:- जयपुर के रिकॉर्ड


पुरातत्व विभाग भी यही मानता है, जोधा एक झूठ है, जो झूठ वामपंथी इतिहासकारों ने और फ़िल्मी भांडो ने रचा है।


ऐतिहासिक षड्यंत्र :-

आइए एक और ऐतिहासिक षड्यंत्र से आप सभी को अवगत कराते हैं... अब ध्यानपूर्वक पूरा पढ़े।


जब भी कोई राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है।


बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया! परन्तु अकबरकालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया।


सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है।

1.सलीमा सुल्तान

2.मरियम उद ज़मानी

3.रज़िया बेगम

4.कासिम बानू बेगम

5.बीबी दौलत शाद



अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी, किसी रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया। परन्तु राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई।


और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए, जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था।


18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर राजपूत बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया। 


फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब “एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान” में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!


और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है।


और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जाती है। जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!



आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं ?


हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं ? 


जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!


अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी ‘अबुल फजल’ द्वारा लिखित ‘अकबरनामा’ निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया। 


उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाली पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला।


मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ ‘तुजुक-ए-जहांगिरी’ जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया। इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया।


हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है।


इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है। इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में ‘रुकमा’ नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!


रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को ‘रुकमा-बिट्टी’ नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को ‘हीर कुँवर’ नाम दिया। 


चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!


राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी  नाम दिया।


चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया। जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी।

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था। इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है।


(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) 


हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है।


‘अकबर-ए-महुरियत’ में यह साफ-साफ लिखा है कि 

(ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) 

हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी।


सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है।


17वी सदी में जब ‘परसी’ भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव (अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें”!


भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है:-

“गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत! (1563 AD)”

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!


ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!


लेकिन अब यह षडयंत्र अधिक दिन नहीं चलने वाला।

रविवार, 16 अक्टूबर 2022

पुंडीर क्षत्रिय की वंशावली व गोत्र।

पुण्डीर राजवंश-1444 


वंश :- सूर्यवंशी।

कुल :- पुण्डरीक, पुण्डीर, पुण्ढीर।

कुलदेवता :- महादेव।

कुलदेवी :- दधिमाता (जिला :- नागौर, तहसील :- जायल, गाँव :- गौठ मंगलोद :- राजस्थान।)

गौत्र :- पौलिस्त, पुलत्सय।

नदी :- सरयू।

निकास :- अयोध्या से तिलांगाना व तिलंगाना से हरियाणा (करनाल, कुरुक्षेत्र, कैथल व पुण्डरी ) से मायापुर (हरिद्वार व पश्चिम उत्तर प्रदेश।)

पक्षी :- सफेद चील।

पेड़ :- कदम्ब।

प्रवर :- महर्षि पौलिस्त, महर्षि दंभौली, महर्षि विश्वाश्रवस।

शाखा :- तीसरी शताब्दी के महाराज पुण्डरीक द्वितीय से भगवान श्री राम के पुत्र की 158वीं पीढ़ी में महाराज पुण्डरीक द्वितीय हुए। 

महाराज पुण्डरीक द्वितीय (तीसरी शताब्दी के अंत में ) असम, धनवंत, बाहुनिक :- राजा लक्षण कुमार (तिलंगदेव :- तिलंगाना शहर बसाया। 

जढेश्नर (जढासुर :- कुरुक्षेत्र स्नान हेतु सपरिवार व सेना सहित कुरुक्षेत्र पधारे। 

मंढेश्वर (मँढासुर :- सिंधुराज की पुत्री अल्पदे से विवाह कर कैथल क्षेत्र दहेज मे प्राप्त किया व  "पुण्डरी " नगर की स्थापना हुई। 

राजा सुफेदेव :- राजा इशम सिंह (सतमासा 

सीखेमल - बिडौजी - राजा कदम सिंह (निमराणा के चौहान शस्क हरिराय से दूसरे युद्ध मे पराजय मिली व इनके पुत्र हंस ने मायापुरी मे राज्य कायम कर 1440 गाँवो पर अधिकार किया। )

हंस (वासुदेव ) - राजा कुंथल (मायापुर के स्वामी बने व इनके 12 पुत्र हुए। )


1:- अजत सिंह (इनके पुण्डीर वंशज गोगमा, हिनवाडा आदि गाँव मे है जो जिला शामली मे है। )

2:- अणत सिंह (इनके पुण्डीर वंशज दूधली, कसौली, कछ्छौली आदि गाँव मे है। )

3:- लाल सिंह (अविवाहित। )

4:- नौसर सिंह (नौसरहेडी। 

5:- सलाखनदेव (मायापुर राज्य में रहे। )

राजा सुलखन (सलाखन देव ) के 2 पुत्र हुए।

राजा चाँद सिंह पुण्डीर (लाहौर के सूबेदार बने व दिल्ली पति संम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामंत बने व इनके पुत्र धीर सिंह पुंडीर पंजाब (भटिनडा) का सुबेदार बना, इस वीर चाँद सिंह की वीरता पृथ्वीराज रासौ मे स्वर्ण अक्षरों मे अमर है। )


राजा गजै सिंह पुण्डीर (गंगा पार कर हाथरस अलीगढ कासगंज एटा जिलों में गए व इनके वंशज 82 गांव मे विराजमान है, जिनमे से 6 गाँव मुजफ्फरनगर जिले में लगते हैं। )


राजा चाँद सिंह पुंडीर के 7 पुत्र हुए
धीर सिंह पुण्डीर
कुँवर अजय देव
कुंवर उदय देव
कुंवर बीसलदेव
कुवर सौविर सिंह
कुंवर साहब सिंह
कुंवर वीर सिंह


इनमे धीर सिंह पुंडीर मीरो से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए व इनके पुत्र पावस पुंडीर तराई के अंतिम युद्ध मे पृथ्वीराज चौहान के सहयोगी बन कर लौहाना अजानबाहू का सिर काटकर वीरगती को प्राप्त हुए।


चांद सिंह के इन पुत्रो के वंशज आज सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, शामली जिले में विराजमान है। 


कुँवर वीर सिंह के वंशजो की रियासत मनहारखेड़ा (वर्तमान जलालाबाद शामली ) में  थी, औरंगजेब से चल रहे संघर्ष मे पुरोहितों द्वारा गद्दारी करने पर मुग़लों के कब्जे मे गई।


विजय गढ़(गंभीरा अलीगढ़ ) की रियासत अंग्रेजो से हुए युद्ध मे बर्बाद हुई।


अभी पुंडीर वंश की रियासत जसमोर जिला सहारनपुर मे है, जहां पुंडीर राजा द्वारा बनवाया गया शाकम्भरी देवी का प्राचीन मंदिर स्थित है।

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022

तब ना साबुन था और ना सर्फ, कैसे साफ चमचमाते थे राजा-रानियों के कपड़े!

19वीं के आखिरी दशक के पहले तक भारत में ना तो सर्फ था और ना ही कपड़ा धोने वाले साबुन और ड्राई क्लीनिंग जैसी तकनीक, ये वो समय भी था जब आज की तरह भारतीयों के पास ज्यादा कपड़े नहीं होते थे।

उनके पास गिने चुने कपड़े ही होते थे. उन्हीं को साफ करके वो अपना काम चलाते थे. हां, राजे-रजवाड़ों की बात अलग है. उनके पास तो एक से एक महंगे कपड़ों के परिधान होते थे लेकिन तब भारत में कपड़े आखिर साफ कैसे किये जाते थे. किस तरीके से कपड़े धुलते थे कि साफ होकर चमचमाते थे और आर्गनिक तरीके से साफ होते थे तो शरीर की त्वचा पर भी वो कोई खराब असर नहीं पैदा करते थे।

आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि जब साबुन और सर्फ नहीं रहे होंगे तो कपड़े कैसे धुलते रहे होंगे. राजा-रानियों के महंगे कपड़े कैसे साफ होकर चमकते रहे होंगे. कैसे आम साधारण व्यक्ति भी अपने कपड़े धोता रहा होगा।

भारत में आधुनिक साबुन की शुरुआत 130 साल से पहले पहले ब्रिटिश शासन में हुई थी. लीबर ब्रदर्स इंग्‍लैंड ने भारत में पहली बार आधुनिक साबुन बाजार में उतारने का काम किया. पहले तो ये ब्रिटेन से साबुन को भारत में आयात करती थी और उनकी मार्केटिंग करती थी. जब भारत में लोग साबुन का इस्तेमाल करने लगे तो फिर यहां पहली बार उसकी फैक्ट्री लगाई गई।

ये फैक्ट्री नहाने और कपड़े साफ करने दोनों तरह के साबुन बनाती थी. नॉर्थ वेस्‍ट सोप कंपनी पहली ऐसी कंपनी थी जिसने 1897 में मेरठ में देश का पहला साबुन का कारखाना लगाया. ये कारोबार खूब फला फूला. उसके बाद जमशेदजी टाटा इस कारोबार में पहली भारतीय कंपनी के तौर पर कूदे।

लेकिन सवाल यही है कि जब भारत में साबुन का इस्तेमाल नहीं होता था. सोड़े और तेल के इस्तेमाल से साबुन बनाने की कला नहीं मालूम थी तो कैसे कपड़ों को धोकर चकमक किया जाता था।

प्राचीन भारत में रीठे का इस्तेमाल सुपर सोप की तरह होता था. इसके छिलकों से झाग पैदा होता था, जिससे कपड़ों की सफाई होती थी, वो साफ भी हो जाते थे और उन पर चमक भी आ जाती थी. रीठा कीटाणुनाशक का भी काम करता था।

अब रीठा का इस्तेमाल बालों को धोने में खूब होता है. रीठा से शैंपू भी बनाए जाते हैं. ये अब भी खासा लोकप्रिय है. पुराने समय में भी रानियां अपने बड़े बालों को इसी से धोती थीं. इसे सोप बेरी या वाश नट भी कहा जाता था।

गर्म पानी में डालकर उबाला जाता था कपड़ों को।

तब दो तरह से कपड़े साफ होते थे. आम लोग अपने कपड़े गर्म पानी में डालते थे और उसे उबालते थे. फिर इसे उसमें निकालकर कुछ ठंडा करके उसे पत्थरों पर पीटते थे, जिससे उसकी मैल निकल जाती थी. ये काम बड़े पैमाने पर बड़े बड़े बर्तनों और भट्टियों लगाकर किया जाता था. अब भारत में जहां बड़े धोबी घाट हैं वहां कपड़े आज भी इन्हीं देशी तरीकों से साफ होते हैं. उसमें साबुन या सर्फ का इस्तेमाल नहीं होता।

महंगे कपड़ों को रीठा के झाग से धोते थे।

महंगे और मुलायम कपड़ों के लिए रीठा का इस्तेमाल होता था. पानी में रीठा के फल डालकर उसे गर्म किया जाता है. ऐसा करने से पानी में झाग उत्पन्न होता है. इसको कपड़े पर डालकर उसे ब्रश या हाथ से पत्थर या लकड़ी पर रगड़ने से ना कपड़े साफ हो जाते थे बल्कि कीटाणुमुक्त भी हो जाते थे. शरीर पर किसी प्रकार का रिएक्शन भी नहीं करते।

देश के मशहूर धोबीघाटों पर अब भी धोबी ना तो साबुन का इस्तेमाल करते हैं और ना ही सर्फ का!

सफेद रंग का एक खास पाउडर भी आता था काम

एक तरीका साफ करने का और था, जो भी खूब प्रचलित था. ग्रामीण क्षेत्रों में खाली पड़ी भूमि पर, नदी-तालाब के किनारे अथवा खेतों में किनारे पर सफेद रंग का पाउडर दिखाई देता है जिसे ‘रेह’ भी कहा जाता है. भारत की जमीन पर यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. इसका कोई मूल्य नहीं होता. इस पाउडर को पानी में मिलाकर कपड़ों को भिगो दिया जाता है. इसके बाद कपड़ों लकड़ी की थापी या पेड़ों की जड़ों से बनाए गए जड़ों से रगड़कर साफ कर दिया जाता था।

रेह एक बहुमूल्य खनिज है. इसमें सोडियम सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट और कैल्शियम सल्फेट होता है, इसमें सोडियम हाइपोक्लोराइट भी पाया जाता है, जो कपड़ों को कीटाणुमुक्त कर देता है।

प्राचीन चीन में नए सिल्क के कपड़े टबों में भिगोकर उन्हें इस तरह पीटकर साफ किया जाता था।

नदियों और समुद्र के सोडा से भी साफ होते थे कपड़े!

जब नदियों और समुद्र के पानी में सोड़े का पता लगा तो कपड़े धोने में इसका भरपूर इस्तेमाल होने लगा।

भारतीय मिट्टी और राख से रगड़कर नहाते थे।

प्राचीन भारत ही नहीं बल्कि कुछ दशक पहले तक भी मिट्टी और राख को बदन पर रगड़कर भी भारतीय नहाया करते थे या फिर अपने हाथ साफ करते थे. राख और मिट्टी का इस्तेमाल बर्तनों को साफ करने में भी होता था. पुराने समय में लोग सफाई के लिए मिट्टी का प्रयोग करते थे।


रविवार, 2 अक्टूबर 2022

राजपूतों के जमींदारी के अंत का कारण :- एक विश्लेषण!

एक सर्वे के अनुसार करीब 180 साल पहले क्षत्रियों के पास 84% जमीन हुआ करती थी। आजादी के बाद यह प्रतिशत घटकर 52% हुआ। सन् 2000 में 31% और सन् 2013 में 16% । आने वाले 10 साल में परिस्थितियाँ क्या होंगी, यह आसानी से समझा जा सकता है।

 Facebook :-    Thakur Sachin Chauhan

कारण:-

1- बेटी की शादी है:- जमीन बेच दो।

2- घर बनवाना है:- जमीन बेच दो।

3- नशा करना है:- जमीन बेच दो।

4- लड़ाई झगड़े का केस लडना है:- जमीन बेच दो।

5- चाहे कुछ भी हो:- जमीन बेच दो।


अरे भाई जमीन कोई सामान नहीं "अचल सम्पत्ति है, हमारी शान है, हमारी मूल, हमारी पहचान है । अगर जमीन को माँ की सँज्ञा दी जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी और जो अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये माँ का सौदा करे वो काहे का क्षत्रिय। भाइयो, शब्द कडवे जरुर हैं पर सच हैं। 

शपथ लेते हैं कि कुछ भी करेंगे, चाहे मजदूरी क्यों न करना पड़े, पर अपना पैतृक जमीन नहीं बेचेंगे। हम क्षत्रिय हैं क्षत्रिय -जिसका सारे संसार ने लोहा माना है .. खुद मिट जायेंगे पर अपना वजूद नही बिकने देगे।


आज गाँव के संपन्न और बुद्धिजीवी राजपूतों को चाहिए कि बेरोजगार व निर्धन राजपूतों को मदद करे ताकि जमीन बेचने की नौबत न आए। मजबूरी में जमीन बेचना भी पड़े तो राजपूत की जमीन राजपूत ही खरीदे! क्षत्रिय संस्थाओं का भी कर्तव्य है कि इस सम्बंध में समाज में जागरूकता लाए।

शनिवार, 1 अक्टूबर 2022

"जम्मू कश्मीर" के महाराजा

आमेर के कछवाहा खंगारोत है "जम्मू कश्मीर" के महाराजा
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-- राजस्थान पत्रिका। लेखक-जितेन्द्र सिंह शेखावत, (खाचरियावास) 

कश्मीर में कछवाहा वंश के संस्थापक रामचंद्र खंगारोत ने कुलदेवी जमवाय माता के नाम पर जम्मू शहर बसाकर जमवाय माता का मंदिर बनाया। 
 
-- आमेर के कछवाहा वंश से निकली खंगारोत शाखा के रामचंद्र ने जम्मू कश्मीर में शासन कायम किया था। 565 रियासतों में जम्मू कश्मीर को सबसे बड़ी रियासत होने का सौभाग्य मिला।


कश्मीर के सुल्तान यूसुफ खान ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। तब अकबर ने आमेर के कच्छावा नरेश भगवंतदास के नेतृत्व में सेना को कश्मीर भेजा था।


28 मार्च 1586 में भगवंतदास ने यूसुफ खान को गिरफ्तार कर अकबर के सामने पेश कर दिया, उस युद्ध में भगवान दास के साथ रामचंद्र खंगारोत भी गया था।


रामचंद्र ने वीरता का परिचय दिया तब रामचंद्र को कश्मीर का मनसबदार बना दिया गया। कश्मीर में कच्छावा वंश के संस्थापक रामचंद्र खंगारोत ने कुलदेवी जमवाय माता के नाम पर जम्मू शहर में जमवाय माता का मंदिर बनवाया। 


जम्मू के पश्चिम में भारत-पाक सीमा पर रामगढ़ गांव बसाया। रामचंद्र के पिता आमेर नरेश पृथ्वीराज के पुत्र थे । डोगरा प्रदेश होने से आमेर के कछवाहा वहां डोगरा कहलाए। 


रामचंद्र के बाद में संग्राम देव, हरिदेव ,पृथ्वी सिंह गजे सिंह, सूरत सिंह ,जोरावर सिंह, किशोर सिंह ,गुलाब सिंह महाराजा रहे। सिक्ख महाराजा रणजीत सिंह की गुलाब सिंह से मित्रता के कारण उनका एक भाई पंजाब का दीवान बना। 


गुलाब सिंह के बाद रणवीर सिंह, प्रताप सिंह ,हरि सिंह व वर्तमान महाराजा करण सिंह है। आजादी के बाद कर्णी सिंह को कश्मीर का सदरे रियासत बनाया गया। कश्मीर के महाराजाओं का जयपुर के राजाओं से संपर्क बना रहा। 


कश्मीर महाराजा हरि सिंह जोबनेर आए तब रावल नरेंद्र सिंह के साथ एक थाली में भोजन किया था। बोराज ठिकाने के रिकॉर्ड के मुताबिक राव खंगार का एक पोता गोपीनाथ जम्मू कश्मीर में गोद गया था। 


महाराजा गुलाब सिंह के पुत्र रणबीर सिंह ने कश्मीर के लिए दंड संहिता कानून बनाया। कश्मीर में उनकी दंड संहिता आज भी प्रचलन में है। अंतिम शासक हरि सिंह 1947 तक कश्मीर के महाराजा रहे। 


उन्होंने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। हरि सिंह सवाई मानसिंह के राजतिलक में महाराजा सवाई माधव सिंह के निमंत्रण पर जयपुर आए थे। 

पर्यटन अधिकारी गुलाब सिंह मीठड़ी के पास मौजूद दस्तावेजों के मुताबिक जम्मूवाल, मनकोटिया, जसरोटिया, बनियाल, नारायणी आदि गोत्र के कछवाह कश्मीर के इलाकों में बसे हुए हैं।