गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन


इस्लाम धर्म के संस्‍थापक हजरत मुहम्मद के समकालीन राजा हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था उनके काल में कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे…

 हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था यहां 51 शक्तिपीठों में से 1 पीठ है हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संदर्भ में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजा गया है…

हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था उनके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा
हर्ष ने लगभग 41 वर्ष शासन किया इन वर्षों में हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लभीपुर तक कर लिया इसने आर्यावर्त को भी अपने अधीन किया हर्ष को बादामी के चालुक्यवंशी शासक पुलकेशिन द्वितीय से पराजित होना पड़ा ऐहोल प्रशस्ति (634 ई.) में इसका उल्लेख मिलता है माना जाता है कि हर्षवर्धन ने अरब पर भी चढ़ाई कर दी थी…

लेकिन रेगिस्तान के एक क्षेत्र में उनको रोक दिया गया 
 6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया…

 कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना थी…

'कादंबरी' के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी 'हर्षचरित' में विस्तार से लिखी है।

बुधवार, 30 सितंबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट...राजा भोज (राज भोज)


ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुनर्निर्माण कराया था राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदिशंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था…

कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था इनके ही नाम पर भोज नाम से उपाधी देने का भी प्रचलन शुरू हुआ जो इनके ही जैसे महान कार्य करने वाले राजाओं की दी जाती थी…

 भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं…

 राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में 'सरस्वतीकण्ठभरण' नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में 'सरस्वती मंदिर' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम 'भोजशाला' लिखा था पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है…
 
राजा भोज का परिचय :* परमारवंशीय राजाओं ने 
मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया…

 महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया…

 ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं…

 उन्होंने 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वांत संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धांत', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि ग्रंथों की रचना की…

 'भोज प्रबंधनम्' नाम से उनकी आत्मकथा है हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाष्टक के रूप में विश्वविख्यात है तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था…

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा, राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है…

इसके अलवा गौतमी पुत्र शतकर्णी, यशवर्धन, नागभट्ट और बप्पा रावल, मिहिर भोज, देवपाल, अमोघवर्ष , इंद्र द्वितीय, चोल राजा, राजेंद्र चोल, पृथ्वीराज चौहान, विक्रमादित्य , हरिहर राय और बुक्का राय, राणा सांगा, अकबर, श्रीकृष्णदेववर्मन, महाराणा प्रताप, गुरुगोविंद सिंह, शिवाजी महाराज, पेशवा बाजीराव और बालाजी बाजीराव, महाराजा रणजीत सिंह आदि के शासन में भी जनता खुशहाल और निर्भिक रही।

राष्ट्रवीर हिंदुगौरव वीर दुर्गादास राठौड़ जी


आसाणी तव आस में जड़ रैयगी जौधाण
नितर कलमां नित वल्लता मुलां देता माण 

वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड़ वो शख़्स थे जिन्होंने मारवाड़ तथा यहाँ के राजवंश दोनों को मुग़ल* *बादशाह औरंगज़ेब के कोपभाजन से बचाकर इसके गौरवशाली इतिहास को क़ायम रखा…

धर्मांध औरंगज़ेब नें सता हासिल करनें के लिए हर उस शख़्स को अपनें रास्ते से हटाया जो उसके लिए रौड़ा थे वो चाहे उसके अपनें सग्गे भाई दारा,सूजा,मुराद ही क्यों नहीं हो जिनको मारकर तथा अपनें जन्मदाता शाहजंहा को केद में डालकर उसनें राजगद्दी प्राप्त करी थी उसनें अनेकों अनेक प्राचीन मंदिरों को नेस्तनाबूद किया और उन मंदिरों की मूर्तियों को मस्जिदों की सीड्डियों की जगह लगाकर मंदिरों की जगह को मस्जिदों में परिवर्तित किया…

उसनें उन सभी को मरवाया जिसनें अपना धर्म नहीं बदला चाहे वो शिवाजी महाराज के पुत्र शम्भाजी हो जिनके हाथ पाँव के नाख़ून और आँखें तक निकाल ली गयी,सिक्खों के गुरु गोविन्दसिंहजी के पुत्र जौरावरसिंह और फ़तहसिंह वो बहादुर नौजवान थे,जिनको इस्लाम स्वीकार नहीं करनें पर ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया ताकि इसको देखकर कायर लोग अपना धर्म परिवर्तन करलें 
 ये सब समकालीन एतिहासिक ग्रंथों में लिखित है जो प्रामाणिक है की धार्मिक कट्टरता के कारण हिंदुस्थान में जगह जगह विद्रोह हुए… 

जिसके फलस्वरूप मुग़ल सता धीरे धीरे कमज़ोर होती गयी आख़िर में हमेशा के लिए समाप्त हुई उसके बाद कोई योग्य उतराधिकारी नहीं रहा…

अगर उसके मन में कहीं किसी का भय था तो सिर्फ मारवाड़ के महानायक दुर्गादास राठौड़ का…

मारवाड़ के अस्तित्व को बचाने व भारतवर्ष मे औरंगजेब की इस्लामीकरण की आंधी को रोकने के लिऐ 28 साल घोड़े की पीठपर अपना आसियाना रखकर यहा तक की घोड़े की पीठपर ही भाले की नोक से श्मशान की आग पर रोटियां सेक कर पेट की आग को शांत कर संघर्ष कर मारवाड़ को तो बचाया ही साथ ही औरंगजेब को लगातार युद्धों मे उलझाये रखकर हिंदुधरम को बचाया हिंदुस्तान के इतिहास मे पुरुषोत्तम श्री राम के बाद समस्त क्षत्रियोचित गुणों को धारण कर हिंदुधरम की रक्षा करने वाली महान शख्सियत वीरदुर्गादास राठौड़ थे जिन्हें बड़े फक्र के साथ हम हिंदुगौरव कहकर अपने आपको गौरवान्वित महसुस करते है।

आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले ऊपर वास 
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

🙏🏻जय🪔मां🪔भवानी🔱

पाटण की रानी रुदाबाई👆जिसने सुल्तान बेगडा के सीने को फाड़ कर 👉दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, और

👉धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था। 
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गुजरात से कर्णावती के राजा थे…
राणा वीर सिंह वाघेला (सोलंकी), ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह वाघेला के पराक्रम के सामने सुल्तान  की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज २ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह वाघेला को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान  को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान  वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान  का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और.. उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 

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                Thakur Sachin Chauhan

👑जय💪राजपूताना।🚩

बुधवार, 2 सितंबर 2020

तलवार का नाप

आप के घर में क्या तलवार है :-

 क्या आपको पता है कि उस तलवार का नाप क्या है, और वह आपके जीवन और घर को कितना प्रभावित कर रही है। जी हां, यह जानकारी आप को निचे दोहे और छंद के माध्यम से दी जा रही है आप कि सुविधा के लिए में इसका भावार्थ में पहले कर देता हूँ। 


अगर आपके घर में तलवार है :- 

और अगर नहीं है और खरीदने का मन बना लिया है तो आप अपने हाथ से तलवार की मूंठ से लेकर निचे अणी तक अपनी अंगुलियों से नाप कर लिजिए। अब जो नाप आता है उसमे तेरह की संख्या और मिला दिजिये अब उक्त संख्या में सात का भाग दिजिये शेष जो बचेगा उसी के अनुसार तलवार का नाम और उसका प्रभाव निचे छंद के रूप में दिया गया है आप सभी विद्वजनो के लिए....

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                Thakur Sachin Chauhan
निज अंगुल से नापिये, तेरह और मिलाय।
भाग सात को दिजिये, खड्ग नाप लखाय।।

पेहली निज मालिनी नेत कहै, लख दूण प्रमाण प्रभाव लहै।
द्वितिय जुतकी कही नेत तलै, कर राखत ताही को त्रुंग मीलै।
त्रितिय लख चण्डी नेत तकी, कभी होत न छांह पिशाचन की।
चवथी निज शंखनी कोप करै, धन भोमि कुटुंब ने आद हरै।
पंचमी पद्मिनी नाम गहै निज हाथ रहे तहां प्राण लहै।
अति नून कहावत तेग छठी, कछु काज सरै न घटे न बधी
सत अंगुल भेद कहै वरणी, जय होय सदा अरि को हरणी
यह छंद विधान कहै जग से, वसुधा कुलरीत रहै खग सै। 

नाप लेने के बाद तेरह मिला कर सात का भाग देवै। 
अब शेष जो बचे उसी के अनुसार फलादेश है मान लिजिए एक बचा तो इस को पहली तलवार और नाम है इसका मालिनी यह घर में रहने से गृह स्वामी का प्रभाव दुगुना हो जाता है। 
इसी प्रकार दूसरी तलवार का नाम जुतकी है जिस के पास रहती है उसे घौड़ा मिलता है आज के हिसाब से सवारी मोटरसाइकिल हो सकती है। 

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तीसरी चंडी और काम भूत पिशाच से रक्षा और चौथी नाम शंखनी काम, धन भुमि कुटुंब का नाश करती है पांचवीं नाम पद्मिनी और काम जिस के हाथ में रहती है उसी के प्राणों का हरण करती है।
छठी नाम अति नून इस से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है न घटता है न बढता है। 
जिस में बराबर भाग चला जाए शेष नहीं बचे उसका नाम वरणी है काम युद्ध मैं जीत और शत्रु का विनाश निश्चित है।

क्षत्राणी माता जिया रानी ( मौला देवी पुंडीर ) की गौरवगाथा

इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए व्यक्तित्व होते हैं जिनके बारे में ज्यादा लोग
नहीं जानते मगर एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वे
लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं,आज हम आपको एक ऐसी ही वीरांगना
से परिचित कराएँगे जिनकी कुलदेवी के रूप में आज तक उतराखंड में
पूजा की जाती है.
उस वीरांगना का नाम है राजमाता जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) जिन्हें
कुमायूं की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है -
जिया रानी(मौला देवी पुंडीर)
हरिद्वार(मायापुर) के शासक चन्द्र पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े
सामन्त थे,
तुर्को से संघर्ष में चन्द्र पुंडीर,उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और
पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया।
ईस्वी 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद
देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था,मगर उसके बाद भी किसी तरह
दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा,
ईस्वी 1380 के आसपास हरिद्वार पर अमरदेव पुंडीर का शासन था, जिया
रानी का बचपन का नाम मौला देवी था,वो हरिद्वार(मायापुर) के राजा
अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी,
इस क्षेत्र में तुर्कों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि
गढ़वाल और कुमायूं में भी तुर्कों के हमले होने लगे,ऐसे ही एक हमले में
कुमायूं (पिथौरागढ़) के कत्युरी राजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव
पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता
के लिए भेजा,
जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी का विवाह
कुमायूं के कत्युरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया,
मौला देवी प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी,उनके धामदेव,दुला,ब्रह्मदेव पुत्र
हुए जिनमे ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से मानते
हैं,मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को जिया
कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया,
कुछ समय बाद जिया रानी की प्रीतम देव की पहली पत्नी से अनबन हो
गयी और वो अपने पुत्र के साथ गोलाघाट की जागीर में चली गयी जहां
उन्होंने एक खूबसूरत रानी बाग़ बनवाया,यहाँ जिया रानी 12 साल तक रही।

⛳जय राजपूताना 🚩 जय क्षत्राणी ⛳

बुधवार, 26 अगस्त 2020

भारतीय इतिहास के पन्नों में अत्यंत सुंदर और साहसी रानी; रानी पद्मावती।

भारतीय इतिहास के पन्नों में अत्यंत सुंदर और साहसी रानी; रानी पद्मावती का उल्लेख है। रानी पद्मावती को रानी पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता है। रानी पद्मावती के पिता सिंघल प्रांत (श्रीलंका) के राजा थे। उनका नाम गंधर्वसेन था। और उनकी माता का नाम चंपावती था। पद्मावती बाल्य काल से ही दिखने में अत्यंत सुंदर और आकर्षक थीं। उनके माता-पिता नें उन्हे बड़े लाड़-प्यार से बड़ा किया था। कहा जाता है बचपन में पद्मावती के पास एक बोलता तोता था जिसका नाम हीरामणि रखा गया था।

रानी पद्मावती का स्वयंवर

महाराज गंधर्वसेन नें अपनी पुत्री पद्मावती के विवाह के लिए उनका स्वयंवर रचाया था जिस में भाग लेने के लिए भारत के अगल अलग हिन्दू राज्यों के राजा-महाराजा आए थे। गंधर्वसेन के राज दरबार में लगी राजा-महाराजाओं की भीड़ में एक छोटे से राज्य का पराक्रमी राजा मल्खान सिंह भी आया था। उसी स्वयंवर में विवाहित राजा रावल रत्न सिंह भी मौजूद थे। उन्होनें मल्खान सिंह को स्वयंवर में परास्त कर के रानी पद्मिनी पर अपना अधिकार सिद्ध किया और उनसे धाम-धूम से विवाह रचा लिया। इस तरह राजा रावल रत्न सिंह अपनी दूसरी पत्नी रानी पद्मावती को स्वयंवर में जीत कर अपनी राजधानी चित्तौड़ वापस लौट गये।

चित्तौड़ राज्य

प्रजा प्रेमी और न्याय पालक राजा रावल रत्न सिंह चित्तौड़ राज्य को बड़े कुशल तरीके से चला रहे थे। उनके शासन में वहाँ की प्रजा हर तरह से सुखी समपन्न थीं। राजा रावल रत्न सिंह रण कौशल और राजनीति में निपुण थे। उनका भव्य दरबार एक से बढ़कर एक महावीर योद्धाओं से भरा हुआ था। चित्तौड़ की सैन्य शक्ति और युद्ध कला दूर-दूर तक मशहूर थी।

चित्तौड़ का प्रवीण संगीतकार राघव चेतन
चित्तौड़ राज्य में राघव चेतन नाम का संगीतकार बहुत प्रसिद्ध था। महाराज रावल रत्न सिंह उन्हे बहुत मानते थे इसीलिये राज दरबार में राघव चेतन को विशेष स्थान दिया गया था। चित्तौड़ प्रजा और वहाँ के महाराज को उन दिनों यह बात मालूम नहीं थी की राघव चेतन संगीत कला के अतिरिक्त जादू-टोना भी जनता था। ऐसा कहा जाता है की राघव चेतन अपनी इस आसुरी प्रतिभा का उपयोग शत्रु को परास्त करने और अपने कार्य सिद्ध करने में करता था। एक दिन राघव चेतन जब अपना कोई तांत्रिक कार्य कर रहा था तब उसे रंगे हाथों पकड़ लिया गया और राजदरबार में राजा रावल रत्न सिंह के समक्ष पेश कर दिया गया। सभी साक्ष्य और फरियादी पक्ष की दलील सुन कर महाराज नें चेतन राघव को दोषी पाया और तुरंत उसका मुंह काला करा कर गधे पर बैठा कर देश निकाला दे दिया।

अलाउद्दीन खिलजी से मिला राघव चेतन

अपने अपमान और राज्य से निर्वासित किये जाने पर राघव चेतन बदला लेने पर आमादा हो गया। अब उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रहे गया था और वह था चित्तौड़ के महाराज रावल रत्न सिंह का सम्पूर्ण विनाश। अपने इसी उद्देश के साथ वह दिल्ली राज्य चला गया। वहां जाने का उसका मकसद दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को उकसा कर चित्तौड़ पर आक्रमण करवा कर अपना प्रतिशोध पूरा करने का था।

12वीं और 13वीं सदी में दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी का राज था। उन दिनों दिल्ली के बादशाह से मिलना इतना आसान कार्य नहीं था। इसीलिए राघव चेतन दिल्ली के पास स्थित एक जंगल में अपना डेरा डाल कर रहने लगता है क्योंकि वह जानता था कि दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन खिलजी शिकार का शौक़ीन है और वहाँ पर उसकी भेंट ज़रूर अलाउद्दीन खिलजी से हो जाएगी। कुछ दिन इंतज़ार करने के बाद आखिर उसे सब्र का फल मिल जाता है।

एक दिन अलाउद्दीन खिलजी अपने खास सुरक्षा कर्मी लड़ाकू दस्ते के साथ घने जंगल में शिकार खेलने पहुँचता है। मौका पा कर ठीक उसी वक्त राघव चेतन अपनी बांसुरी बजाना शुरू करता है। कुछ ही देर में बांसुरी के सुर बादशाह अलाउद्दीन खिलजी और उसके दस्ते के सिपाहियों के कानों में पड़ते हैं। अलाउद्दीन खिलजी फ़ौरन राघव चेतन को अपने पास बुला लेता है राज दरबार में आ कर अपना हुनर प्रदर्शित करने का प्रस्ताव देता है। तभी चालाक राघव चेतन अलाउद्दीन खिलजी से कहता है- कि आप मुझ जैसे साधारण कलकार को अपनें राज्य दरबार की शोभा बना कर क्या पाएंगे, अगर हासिल ही करना है तो अन्य समपन्न राज्यों की ओर नज़र दौड़ाइये जहां एक से बढ़ कर एक बेशकीमती नगीने मौजूद हैं और उन्हे  जीतना और हासिल करना भी सहज है।

अलाउद्दीन खिलजी तुरंत राघव चेतन को पहेलिया बुझानें की बजाए साफ-साफ अपनी बात बताने को कहता हैं। तब राघव चेतन चित्तौड़ राज्य की सैन्य शक्ति, चित्तौड़ गढ़ की सुरक्षा और वहाँ की सम्पदा से जुड़ा एक-एक राज़ खोल देता है और राजा रावल रत्न सिंह की धर्म पत्नी रानी पद्मावती के अद्भुत सौन्दर्य का बखान भी कर देता है। यह सब बातें जान कर अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ राज्य पर आक्रमण कर के वहाँ की सम्पदा लूटने, वहाँ कब्ज़ा करने और परम तेजस्वी रूप रूप की अंबार रानी पद्मावती को हासिल करने का मन बना लेता है।

अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ राज्य पर आक्रमण की योजना।

राघव चेतन की बातें सुन कर अलाउद्दीन खिलजी नें कुछ ही दिनों में चित्तौड़ राज्य पर आक्रमण करने का मन बना लिया और अपनी एक विशाल सेना चित्तौड़ राज्य की और रवाना कर दी। अलाउद्दीन खिलजी की सेना चित्तौड़ तक पहुँच तो गयी पर चित्तौड़ के किले की अभेद्य सुरक्षा देख कर अलाउद्दीन खिलजी की पूरी सेना स्तब्ध हो गयी। उन्होने वहीं किले के आस पास अपने पड़ाव डाल लिए और चित्तौड़ राज्य के किले की सुरक्षा भेदने का उपाय ढूँढने लगे।

अलाउद्दीन खिलजी नें राजा रावल रत्न सिंह को भेजा कपट संदेश

जब से राजा रावल रत्न सिंह नें रूप सुंदरी रानी पद्मावती को स्वयमर में जीता था तभी से पद्मावती अपनी सुंदरता के लिये दूर-दूर तक चर्चा का विषय बनी हुई थी। इस बात का फायदा उठाते हुए कपटी अलाउद्दीन खिलजी नें चित्तौड़ किले के अंदर राजा रावल रत्न सिंह के पास एक संदेश भिजवाया कि वह रानी पद्मावती की सुंदरता का बखान सुन कर उनके दीदार के लिये दिल्ली से यहाँ तक आये हैं और अब एक बार रूप सुंदरी रानी पद्मावती को दूर से देखने का अवसर चाहते हैं।

अलाउद्दीन खिलजी नें यहाँ तक कहा की वह रानी पद्मावती को अपनी बहन समान मानते हैं और वह सिर्फ उसे दूर से एक नज़र देखने की ही तमन्ना रखते हैं।

चित्तौड़ के महाराज रावल रत्न सिंह का अलाउद्दीन खिलजी को जवाब

अलाउद्दीन खिलजी की इस अजीब मांग को राजपूत मर्यादा के विरुद्ध बता कर राजा रावल रत्न सिंह नें ठुकरा दिया। पर फिर भी अलाउद्दीन खिलजी नें रानी पद्मावती को बहन समान बताया था इसलिये उस समय एक रास्ता निकाला गया। पर्दे के पीछे रानी पद्मावती सीढ़ियों के पास से गुज़रेंगी और सामने एक विशाल काय शीशा रखा जाएगा जिसमें रानी पद्मावती का प्रतिबिंम अलाउद्दीन खिलजी देख सकते हैं। इस तरह राजपूतना मर्यादा भी भंग ना होगी और अलाउद्दीन खिलजी की बात भी रह जायेगी।

अलाउद्दीन खिलजी नें दिया धोखा

शर्त अनुसार चित्तौड़ के महाराज ने अलाउद्दीन खिलजी को आईने में रानी पद्मावती का प्रतिबिंब दिखला दिया और फिर अलाउद्दीन खिलजी को खिला-पिला कर पूरी महेमान नवाज़ी के साथ चित्तौड़ किले के सातों दरवाज़े पार करा कर उनकी सेना के पास छोड़ने खुद गये। इसी अवसर का लाभ ले कर कपटी अलाउद्दीन खिलजी नें राजा रावल रत्न सिंह को बंदी बना लिया और किले के बाहर अपनी छावनी में कैद कर दिया।

 इसके बाद संदेश भिजवा दिया गया कि –
अगर महाराज रावल रत्न सिंह को जीवित देखना है तो रानी पद्मावती को फौरन अलाउद्दीन खिलजी की खिदमद में किले के बाहर भेज दिया जाये।

रानी पद्मावती, चौहान राजपूत सेनापति गौरा और बादल की युक्ति

चित्तौड़ राज्य के महाराज को अलाउद्दीन खिलजी की गिरफ्त से सकुशल मुक्त कराने के लिये रानी पद्मावती, गौरा और बादल नें मिल कर एक योजना बनाई। इस योजना के तहत किले के बाहर मौजूद अलाउद्दीन खिलजी तक यह पैगाम भेजना था की रानी पद्मावती समर्पण करने के लिये तैयार है और पालकी में बैठ कर किले के बाहर आने को राज़ी है। और फिर पालकी में रानी पद्मावती और उनकी सैकड़ों दासीयों की जगह नारी भेष में लड़ाके योद्धा भेज कर बाहर मौजूद दिल्ली की सेना पर आक्रमण कर दिया जाए और इसी अफरातफरी में राजा रावल रत्न सिंह को अलाउद्दीन खिलजी की कैद से मुक्त करा लिया जाये।

रानी पद्मावती के इंतज़ार में बावरा हुआ अलाउद्दीन खिलजी

कहा जाता है की वासना और लालच इन्सान की बुद्धि हर लेती है। अलाउद्दीन खिलजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब चित्तौड़ किले के दरवाज़े एक के बाद एक खुले तब अंदर से एक की जगह सैकड़ों पालकियाँ बाहर आने लगी। जब यह पूछा गया की इतनी सारी पालकियाँ क्यूँ साथ हैं तब अलाउद्दीन खिलजी को यह उत्तर दिया गया की यह सब रानी पद्मावती की खास दासीयों का काफिला है जो हमेशा उनके साथ जाता है।

अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती पर इतना मोहित था की उसने इस बात की पड़ताल करना भी ज़रूरी नहीं समझा की सभी पालकियों को रुकवा कर यह देखे कि उनमें वाकई में दासियाँ ही है। और इस तरह चित्तौड़ का एक पूरा लड़ाकू दस्ता नारी भेष में किले के बाहर आ पहुंचा। कुछ ही देर में अलाउद्दीन खिलजी नें रानी पद्मावती की पालकी अलग करवा दी और परदा हटा कर उनका दीदार करना चाहा। तो उसमें से राजपूत सेनापति गौरा निकले और उन्होने आक्रमण कर दिया। उसी वक्त चित्तौड़ सिपाहीयों नें भी हमला कर दिया और वहाँ मची अफरातफरी में बादल नें राजा रावल रत्न सिंह को बंधन मुक्त करा लिया और उन्हे अलाउद्दीन खिलजी के अस्तबल से चुराये हुए घोड़े पर बैठा कर सुरक्षित चित्तौड़ किले के अंदर पहुंचा दिया। इस लड़ाई मे राजपूत सेनापति गौरा और पालकी के संग बाहर आये सभी योद्धा शहीद हो गये।
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अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण

अपनी युक्ति नाकाम हो जाने की वजह से बादशाह अलाउद्दीन खिलजी झल्ला उठा उसनें उसी वक्त चित्तौड़ किले पर आक्रमण कर दिया पर वे उस अभेद्य किले में दाखिल नहीं हो सके। तब उन्होने किले में खाद्य और अन्य ज़रूरी चीजों के खत्म होने तक इंतज़ार करने का फैसला लिया। कुछ दिनों में किले के अंदर खाद्य आपूर्ति समाप्त हो गयी और वहाँ के निवासी किले की सुरक्षा से बाहर आ कर लड़ मरने को मजबूर हो गये। अंत में रावल रत्न सिंह नें द्वार खोल कर आर- पार की लड़ाई लड़ने का फैसला कर लिया और किले के दरवाज़े खोल दिये। किले की घेराबंदी कर के राह देख रहे मौका परस्त अलाउद्दीन खिलजी ने और उसकी सेना नें दरवाज़ा खुलते ही तुरंत आक्रमण कर दिया।

इस भीषण युद्ध में पराक्रमी राजा रावल रत्न सिंह वीर गति हो प्राप्त हुए और उनकी पूरी सेना भी हार गयी। अलाउद्दीन खिलजी नें एक-एक कर के सभी राजपूत योद्धाओं को मार दिया और किले के अंदर घुसने की तैयारी कर ली।

चित्तौड़ की महारानी पद्मावती और नगर की सभी महिलाओं नें लिया जौहर करने का फैसला

युद्ध में राजा रावल रत्न सिंह के मारे जाने और चित्तौड़ सेना के समाप्त हो जाने की सूचना पाने के बाद रानी पद्मावती जान चुकी थी कि अब अलाउद्दीन खिलजी की सेना किले में दाखिल होते ही चित्तौड़ के आम नागरिक पुरुषों और बच्चों को मौत के घाट उतार देगी और औरतों को गुलाम बना कर उन पर अत्याचार करेगी। इसलिये राजपूतना रीति अनुसार वहाँ की सभी महिलाओं नें जौहर करने का फैसला लिया।

जौहर की रीति निभाने के लिए नगर के बीच एक बड़ा सा अग्नि कुंड बनाया गया और रानी पद्मावती और अन्य महिलाओं ने एक के बाद एक महिलायेँ उस धधकती चिता में कूद कर अपने प्राणों की बलि दे दी।

इतिहास में राजा रावल रत्न सिंह, रानी और पद्मावती, सेना पति गौरा और बादल का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है और चित्तौड़ की सेना वहाँ के आम नागरिक भी सम्मान के साथ याद किये जाते हैं जिनहोने अपनी जन्म भूमि की रक्षा के खातिर अपने प्राणों का बलिदान दिया।

सोमवार, 10 अगस्त 2020

पहला हाईप्रोफाइल पुलिस एनकाउंटर


#पहला_हाईप्रोफाइल_पुलिस_एनकाउंटर

राजस्थान के भरतपुर- डीग में 20 फरवरी 1985 को पुलिस फायरिंग में हुई थी राजा मानसिंह की मौत .... मानसिंह पर तत्कालीन सीएम शिवचरण माथुर के हेलिकाॅप्टर को तोड़ने का लगा था आरोप....

केस में अब तक हो चुकीं 1607 तारीखें....करीब 35 साल पहले हुए इस हत्याकांड में अब तक लगभग 1607 तारीखें पड़ने के साथ ही 14 वकील बदल चुके हैं.... फैसला कब आएगा यह तो नहीं कहा जा सकता.... लेकिन.... भरतपुर के लोगों को इसका इंतजार जरूर है.... केस की गंभीरता इसी से आंकी जा सकती है कि मुख्य आरोपी तत्कालीन डीएसपी कानसिंह भाटी एवं 14 अन्य आरोपियों को पेशी पर स्पेशल टास्क फोर्स की निगरानी में लाया जाता है.... अनुमान है कि एक पेशी पर सरकार के करीब 50 हजार रुपए खर्च होते हैं.... अब तक पेशी कराने में ही सरकार के करीब 9 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं.....

झंडा उतारने से नाराज राजा मानसिंह ने तोड़ दिया था सीएम का हेलीकॉप्टर............

वर्ष 1985 में विधानसभा चुनाव हो रहे थे..... राजा मानसिंह निर्दलीय प्रत्याशी थे और कांग्रेस के प्रत्याशी सेवानिवृत आईएएस ब्रजेंद्रसिंह थे.... कांग्रेस के पक्ष में सभा करने के लिए 20 फरवरी को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर डीग आए थे... बताया जाता है कि कांग्रेस समर्थकों ने किले में लक्खा तोप के पास लगे राजा मानसिंह के रियासतकालीन झंडे को हटाकर कांग्रेस का झंडा लगा दिया था.... इससे राजा मानसिंह नाराज हो गए.....

एफआईआर के अनुसार राजा मानसिंह ने चौड़ा बाजार में लगे तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर के सभा मंच को जोंगा (वाहन) की टक्कर से तोड़ दिया.... इसके बाद वे हायर सेकंडरी स्कूल पहुंचे और सीएम के हेलीकॉप्टर को टक्कर मारकर क्षतिग्रस्त कर दिया..... इस मामले में दो एफआईआर दर्ज हुई... तत्कालीन डीएसपी कानसिंह भाटी 21 फरवरी 1985 को दोनों एफआईआर की कापी लेकर जयपुर जाने वाले थे... लेकिन.... बताते हैं कि उन्हें फोन आया और वे जयपुर जाने के बजाय थाने पहुंच गए..... वहां आरएसी के कुछ जवानों समेत हथियार बंद फोर्स को तैयार कर राजा मानसिंह को गिरफ्तार करने की बात कही.....

पुलिस ने अनाज मंडी में राजा मानसिंह को हाथ से रुकने का इशारा किया.... लेकिन, राजा मानसिंह ने आगे रुकने का इशारा किया.... इस पर पुलिस जीप के ड्राइवर महेंद्र सिंह ने जीप को जोंगा के आगे लगा दिया.... जब राजा मानसिंह अपने जोंगा को बैक करने लगे तभी फायरिंग हुई.... इसमें राजा मानसिंह... ...सुमेरसिंह और हरिसिंह को गोली लगी... जिन्हें भरतपुर के अस्पताल लाया गया.... जहां उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया.... इस काण्ड के बाद शिवचरण माथुर की मुख्यमंत्री पद की कुर्सी चली गई थी....||

ये वो जोंगा जीप का कबाड़ है जिससे मानसिंह ने मंच और हेलिकॉप्टर तोड़ा था...
कॉपी पेस्ट.....साभार

बुधवार, 5 अगस्त 2020

अयोध्या अपना राम स्वयं चुनती है।


महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य "रघुवंशम्" अद्भुत ग्रंथ है, इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के वृत्त को जिस सुन्दरता से कालिदास ने गाया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता. इस महाकाव्य के षोडशवें सर्ग में राम और उनके भाइयों के पुत्रों का वर्णन है. राम ने अपने बड़े बेटे कुश को "कुशावती" नामक राज्य सौंपा था. रघुवंश के सभी सात भाइयों ने अलग-अलग राज्यों पर शासन तो किया पर वो सबके सब रघुकुल की रीति के अनुरूप अपने सबसे बड़े भाई कुश को अपना प्रधान और पूज्य मानतें थे.

यही "जानकीनंदन कुश" एक दिन राजकाज से निवृत होकर जब रात्रि विश्राम हेतू अपने कक्ष में गये तो आधी रात को देखा कि उनके शयन कक्ष का द्वार अंदर से बंद होने के बाबजूद एक स्त्री उनके घर के अंदर आई हुई है. वो फौरन अपनी शैय्या से उठे और उस स्त्री से कहा, 

"शुभे ! तुम कौन हो और तुम्हारे पति का नाम क्या है? तुम यह समझकर ही मुंह खोलना कि हम रघुवंशियों का चित्त कभी भी पराई स्त्रियों की ओर नहीं जाता".

उस स्त्री ने उत्तर देते हुये कहा कि मैं आपके "राम के अयोध्या की अधिष्ठात्रि देवी" हूँ जो राम के बैकुंठ गमन के बाद से ही अनाथ हूँ. राम के बिना सैकड़ों अट्टालिकाओं से युक्त होने के बाबजूद मेरी अयोध्या ऐसी उदास लगती है मानो सूर्यास्त के बाद की डरावनी संध्या. जब राम थे तो मेरी अयोध्या अपने ऐश्वर्य में कुबेर की अलकापुरी को भी मात देती थी पर राम के बिना आज अयोध्या सूनी पड़ी हुई है. पहले अयोध्या की जिन सड़कों पर चमकते और मधुर ध्वनि करते नूपुरवाली अभिसारिकायें चलती थीं वहां आजकल सियारिनें घूमतीं हैं जिनके मुख से चिल्लाते समय चिंगारियाँ निकलती है. राम से सूनी हुई अयोध्या में न तो अब मोर नाचतें हैं, न वहां मृग भ्रमण करतें हैं, कमल के ताल में खेलने वाले हाथी भी नहीं हैं. नगर की जिन बाबलियों का जल पहले जल-क्रीड़ा करने वाली सुंदरियों से संवरता था, आज वहां जंगली भैंसे दौड़तें हैं. 

ये सब कहकर उस स्त्री ने कुश से निवेदन किया कि राम न सही तो कम से कम हे जानकीनंदन कुश ! आप तो अयोध्या चलें. कुश ने प्रसन्नतापूर्वक उस स्त्री की प्रार्थना स्वीकार कर ली और "राम की अयोध्या" के परित्राण के लिये अयोध्या की ओर चल पड़े. 

कुश जब अयोध्या पहुँचते हैं तो उस समय का वर्णन करते हुये महाकवि कालिदास लिखतें हैं, 

"अयोध्या के उपवन की वायु ने फूल से आच्छादित वृक्ष की डालियों को थोड़ा हिलाकर और सरयू के शीतल तरंगों का स्पर्श करके सेना के साथ थके हुये कुश का स्वागत किया". 


कुश ने "रघुवंशियों के अयोध्या" की कायापलट कर दी. मुनियों को बुलवाकर पहले तो पूरी अयोध्या नगरी की पूजा करवाई फिर वहां और दूसरे काम किये जिसके बाद वो नगरी ऐसी लगने लगी मानो "सारे शरीर में आभूषण घारण की हुई कोई सुंदर स्त्री" हो. वो अयोध्या ऐसी हो गई कि मिथिलेशकुमारी के पुत्र कुश को फिर न तो इन्द्र्लोक की कामना रही, न स्वर्ग के वैभव की और न ही असंख्य रत्नों वाली अलकापुरी की और इस तरह "जानकीनंदन कुश" ने खुद को भारत के इतिहास में अमर कर लिया.

"अयोध्या जिसे चुनती है समझो स्वयं सौभाग्य उसका वरण करता है" और जो अयोध्या को पूजता है उसके लिये स्वर्ग में बैठे देवता भी कहतें हैं कि देखो, इसके पूर्व जन्म के संचित कर्म कैसे उत्तम हैं कि इसे उस अयोध्या के वंदन का सौभाग्य मिला है जिसकी गोद में खेलने वालों ने "गंगा" को धरती पर अवतरित किया था, जिसकी मिट्टी को "बिष्णु अवतार श्रीराम" ने स्वर्ग से भी बढ़कर बताया था, जहाँ रघु, दिलीप और सगर और दशरथ जैसे महान कीर्ति वाले राजा हुये थे, जो वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ऋषियों के आशीर्वाद से निर्मित हुई थी और जहाँ की पवित्र विश्वरम्भा ने माँ जानकी को अपनी गोद में समां लिया था.   
"अयोध्या की अधिष्ठात्रि देवी" अपनी अयोध्या की दशा से विकल होकर सबके पास नहीं जाती. वो उनको ही अपनी अयोध्या के पुनः-कायाकल्प और इस पावन नगरी के पूजन का अवसर देतीं हैं जिनके अन्त:स्थ में श्रीराम से अगाध प्रेम हो और जिनके लिये प्रभु श्रीराम केवल राजनीति और सत्ता साधने मात्र का जरिया नहीं बल्कि आराध्य हों.


युगों बाद युग बदल रहा है...

अयोध्या
नब्बे का वह दौर याद आता है। लाखों लोग, दोगुनी आंखे, राम नाम की धूम, लाखों कलेजों की उम्मीदें, बन्दूक की गोलियां, रक्त, हाहाकार, मृत्यु, शान्ति... प्रलय के बाद की शान्ति केवल सनातन भाव जो जन्म देती है। पीड़ा की कोख से ही देवत्व जन्म लेता है।
    अयोध्या का मन्दिर इस बात के लिए भी विश्व में अनूठा होगा कि उसके लिए प्रजा ने पाँच शताब्दियों तक लड़ाई लड़ी है। इसके लिए असँख्य बार, असँख्य बीरों ने धर्म के हवनकुण्ड में अपने जीवन की आहुति दी है... बार बार पराजित हुए, गिरे, पर फिर उठ कर खड़े हुए और लड़े... और अंततः जीते...
     अयोध्या ने सिद्ध किया है कि धर्म की लड़ाइयां पाँच सौ वर्षों के बाद भी जीती जा सकती हैं, बस अपने मार्ग पर चलते रहना है। आज के समय में किसी क्षणिक पराजय के बाद ही लोग हतोत्साहित हो कर विलाप करने लगते हैं कि 'सब समाप्त हो गया, हमें कोई बचा नहीं सकता...' अब ऐसे समय में अयोध्या का मन्दिर ऊर्जा देने का काम करेगा कि हम पराजित नहीं हो सकते... अंत में धर्म ही जीतेगा। जो खतरे में आ जाय वह धर्म नहीं हो सकता। धर्म न संकट में पड़ता है, न समाप्त होता है।
      
नियति का खेल बड़ा मनोरंजक होता है। ध्यान से देखिये समय ने कितना अद्भुत संयोजन किया है। महाराज हेमचंद्र विक्रमादित्य (१५५६ ई) के बाद सन २०१४ में पहली बार भारत की केंद्रीय सत्ता पर कोई ऐसा व्यक्ति पहुँचता है, जिसे स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा नहीं आती। वह निकलता है तो भगवान शिव की नगरी बनारस से...वह तिलक लगाता है, भगवा पहनता है...  उसके दो वर्षों बाद ही समय उत्तर प्रदेश के सिंहासन पर एक साधु को बैठाता है। मुझे लगता है भारत में किसी साधु के राजा होने की यह पहली ही घटना होगी...  साधु भी वे, जिनकी गद्दी ने राममन्दिर के लिए लड़ी गयी लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वर्षों से जातियों के नाम पर टूटी जनता धर्म के नाम पर एक साथ खड़ी होती है, और तब आता है सन 2020... अचानक सब कुछ आसान लगने लगता है। दोनों पक्ष ही कहने लगते हैं कि मंदिर बनना चाहिए... और...
      
कब क्या होना है और किसके हाथों होना है, यह समय तक कर के बैठा है। समय ने तय किया था कि मन्दिर की ईंट किसी नेता, किसी राजा के हाथों नहीं बल्कि एक सन्त के हाथों रखी जायेगी। वही हुआ... है न अद्भुत?
     
वर्तमान भारत को याद है कि दो हजार वर्ष पूर्व महाराज विक्रमादित्य ने अयोध्या का पुनरुद्धार किया था, और भव्य मंदिर बनवाया था। भारत को यह भी याद है उस प्राचीन मंदिर का भव्य पुनर्निर्माण कनौज नरेश महाराज विजयचन्द्र ने कराया था। 

भविष्य का भारत भी पूरी श्रद्धा के साथ स्मरण रखेगा कि आधुनिक युग में मन्दिर का निर्माण गोरक्षपीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ जी महाराज के काल में हुआ था। समय ने योगी बाबा को सहस्त्राब्दियों तक के लिए स्थापित कर दिया है/अमर कर दिया है।
      
वे असँख्य लोग जिन्होंने आज का दिन दिखाने के लिए अपनी आहुति दी थी, उनको सादर नमन। हमें तो उन सब के नाम भी याद नहीं। नाम याद है केवल दो कोठारी भाइयों का... वे दोनों बलिदानी उन असँख्य बलिदानियों के प्रतिनिधि के रूप में याद किये जायेंगे, पूजे जाएंगे।
✍🏻मीता भट्ट

*राष्ट्रीय चेतना का उदघोष*
*अयोध्या आंदोलन* 
जिसे युद्ध में कोई जीत न सके वही अयोध्या है। हिमालय की गोद में अठखेलियां खेलती हुई पण्य-सलिला सरयु अविरल चट्टानी रास्तों को तोड़कर मैदानी क्षेत्रों को तृप्त करती चली आ रही है। वैदिक काल से आज तक निरंतर चला आ रहा यह पुण्य प्रवाह अपने अंदर भारत राष्ट्र के सहस्राब्दियों पुराने इतिहास को संजोए हुए है। इसी पतित पावनी नदी ‘सरयु मैया’ के किनारे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की क्रीडास्थली अयोध्या नगरी बसी है। यही राम की जन्मस्थली है। राम भारतीय संस्कृति की सशक्त और चिरंतन अभिव्यक्ति हैं। इसलिए अयोध्या भी इस मृत्युंजय संस्कृति का एक अमिट हस्ताक्षर है। राम और अयोध्या परस्पर प्रयाय हैं।

दशरथनंदन राम के जन्म के उपरांत तो अयोध्या का संबंध सम्पूर्ण सृष्टि के साथ जुड़ गया। संसार के प्राणी मात्र के लिए स्वर्ग का द्वार बन गई अयोध्या। विश्व के प्राचीनतम उपलब्ध ज्ञान के भंडार वेद के रचियता ने अयोध्या के महात्मय को निम्नलिखित श्लोक में प्रकट किया है -

    अष्ट चक्रा नव द्वारा देवानां यूः अयोध्या।

तस्या हिरण्यमयः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।। (अथर्व वेद, 10-2-32)

भारत और भारतीय जीवनमूल्यों के गगनस्पर्शी ध्वज यदि राम हैं तो अयोध्या को इस ध्वज (भारतीय संस्कृति) का ध्वजस्थान मान लेना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अतः राम, अयोध्या और भारत यह तीनों ही एक ही भावधारा को प्रकट करते हैं और तीनों ही अवध्य अर्थात परास्त नहीं किए जा सकते।

इतिहास साक्षी है कि सरयु के पवित्र तट पर मनु के द्वारा बसाई इस अयोध्या नगरी ने वैभव और पतन के कई कालखंड देखे। परन्तु अपने नाम को सदैव सार्थक रखा। विदेशी आक्रमणकारियों की गिद्धदृष्टि प्राचीनकाल से ही अयोध्या पर रही है। भारत पर आक्रमण करने वाले प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी ने अयोध्या को अपना लक्ष्य बनाया। अयोध्या को विजित किये बिना भारत विजय की कल्पना भी अधूरी थी। यह महानगरी मानो भारत राष्ट्र का प्राणतत्व थी। यही कारण है कि भारत के राजाओं और प्रजा ने सहस्रों बार अपने प्राणों की आहूति देकर अयोध्या की रक्षा की। एक समय तो ऐसा भी था जब अयोध्या के सूर्यवंशी पुत्रों ने अयोध्या के परम्परागत शत्रु महापापी पौलस्त्य वंशीय दसग्रीव (रावण परम्परा) के घर जाकर उसकी समस्त पापमयी लंका को ही भस्म कर दिया।

हिन्दू समाज जिन सात तीर्थों को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी यात्रा को अपना अहोभाग्य मानता है। जिनकी यात्राओं को मोक्ष प्राप्ति हेतु आवश्यक समझा जाता है, उनमें अयोध्या की गणना सर्वपरि है। अयोध्या को भगवान विष्णु का शीर्ष कहा जाता है। अयोध्या को महाऋषियों ने मोक्षदायिनी कहा है।

अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवंतिका।

पुरी द्वारावतीश्चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

समस्त भारत के आध्यात्मिक जीवन के साथ अयोध्या का इतिहास भारत के सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन की निर्विवाद अभिव्यक्ति है। भारत राष्ट्र का वैभव और पराभव अयोध्या के उत्थान और पतन के साथ जुड़ा हुआ है। राम इसी राष्ट्र जीवन के नायक हैं। जैसे राम और अयोध्या को बांटा नहीं जा सकता, उसी प्रकार राम और राष्ट्र को बांटा नहीं जा सकता। राम भारत के राष्ट्र जीवन की सरल, स्पष्ट और अद्वितीय परिभाषा है। अयोध्या इसी राष्ट्र जीवन (राम) की जन्मस्थली है। इस जन्मस्थली पर श्रीराम का भव्य मंदिर पहले भी था, अब भी है और आगे भी रहेगा।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भारत की सांस्कृतिक मर्यादा के अनुरूप अनेक महत्वपूर्ण निर्णय अपने जीवन में ही ले लिये थे. मरते दम तक सत्ता से चिपके रहने के अनैतिक दुर्भाव को ठोकर मारकर राजा राम ने समस्त साम्राज्य को अपने भाईयों एवं पुत्रों में बांट दिया था. श्रीराम ने अयोध्या छोड़ने का निश्चय कर के महाप्रयाण की मानसिकता बना ली. आयु का प्रभाव शरीर पर पड़ते ही उन्होंने सरयु मैया की गोद में शरण लेकर इस शाश्वत प्रवाह को गौरवान्वित कर दिया.

महाराज कुश ने सभी प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों से वार्तालाप करके श्रीराम की स्मृति में एक भव्य स्मारक/मंदिर बनाने का निर्णय लिया. महाराज कुश की देखरेख में कसौटी के 84 खम्बों पर भव्य श्रीराम मंदिर निर्मित हो गया. चैत्र शुक्ल नवमी पर मंदिर में भगवान राम

की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई. इस मंदिर में कसौटी के जिन 84 खम्भों को लगाया गया था, इनकी चर्चा आज तक किसी न किसी रूप में चल रही है. लोमस रामायण में वर्णित बालकांड के अनुसार यह खम्भे श्रीराम के पूर्वज महाराजा अनरण्यक के आदेश पर विश्व प्रसिद्ध शिल्पी विश्वकर्मा के द्वारा गढ़े गए थे.

सूर्यवंश के पूर्व पुरुष महाराजा इक्ष्वाकु के समय से ही भारत पर राक्षसों के आक्रमण होने प्रारम्भ हो गए. यह आक्रमण लंका की ओर से समुद्री मार्ग से होते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी होते रहे. लंका के प्रत्येक राजा को रावण की उपाधि दी जाती थी. अतः इक्ष्वाकु वंश की 64 पीढ़ियों ने लंका के लगभग इतने ही रावणों से अयोध्या की रक्षा की थी. इसी इक्ष्वाकु वंश के एक राजा अनरण्यक को उस समय के लंकाधिपति रावण ने परास्त कर दिया. राक्षसी सेना ने अयोध्या में लूटपाट की. सोने, हीरे जवाहरात के ढेरों के ढेर लंका पहुंचा दिये गए. महाराज अनरण्यक के राजदरबार में लगे कसौटी के खम्भों को भी तत्कालीन रावण अपने साथ ले गया. इस युद्ध में महाराज अनरण्यक अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए. उस समय का रावण जीता, परन्तु अयोध्या पर वह अधिकार नहीं कर सका.

सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट अनरण्यक की मृत्यु के समाचार से समस्त भारतवासी शोक में डूब गए. यह आघात पूरे राष्ट्र पर था. कसौटी के खम्भों का लंका में चले जाना देश का घोर अपमान था. इस राष्ट्रीय अपमान को अयोध्यावासी कभी नहीं भूले. इस दाग को वह मिटाना चाहते थे. अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं की प्रत्येक पीढ़ी ने यह प्रतिज्ञा दोहराई ‘हम इस अपमान का बदला लेंगे’. इन खम्भों को वापस भारत में लाना एक महान राष्ट्रीय कार्य था. इस कार्य को सम्पन्न किया था धनुर्धारी श्रीराम ने.

रावण वध के पश्चात श्रीराम ने महाबलि हनुमान से वार्तालाप करते हुए कहा था कि सीता को वापस ले लिया गया है. अयोध्या पर अनेक आक्रमण करने वाली रावण परम्परा को समाप्त किया जा चुका है. परन्तु सूर्यवंशी सम्राट अनरण्यक (श्रीराम के पूर्वज) का जो अपमान हुआ है, उसको कैसे धोया जाए ? तब ‘विद्यावान गुणी अति चातुर’ वीर हनुमान ने श्रीराम को इस अपमान का परिमार्जन करने का मार्ग सुझाया था. पवन सुत हनुमान ने कसौटी के खम्भों को वापस भारत में लाकर राष्ट्र के सम्मान पर लगी चोट मिटानी चाहिए, ऐसा सुझाव दिया. इसी सुझाव को शिरोधार्य करते हुए धर्नुधारी श्रीराम भारत के गौरवशाली अतीत की इन समृतियों को वापस अयोध्या लाए थे.

महाराज कुश ने जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के मंदिर का प्रस्तावित नक्शा सबके सामने रखा तो सभी ने एक स्वर में कहा कि श्रीराम का मंदिर सम्पूर्ण राष्ट्र के गौरव का प्रतीक होगा. भारत ने संसार में राक्षसी वृति को समाप्त करने हेतु लंका के साथ सैकड़ों वर्षों तक जब युद्ध लड़ा तो उसकी विजय का श्रेय श्रीराम को जाता है. श्रीराम का मंदिर किसी एक वंश, जाति, पंथ और विचारधारा का न होकर सारे राष्ट्र की विजय का प्रतीक होगा. इस मंदिर में इन्हीं कसौटी के खम्भों को स्तम्भों के रूप में जढ़ना चाहिए जिन्हें श्रीराम लंका से वापस लाए थे. राम मंदिर के आधार के यह खम्भे राष्ट्र मंदिर के आधार स्तम्भ होंगे।

इस प्रकार राम मंदिर के निर्माण को राष्ट्रीय कार्य घोषित करके महाराज कुश ने कसौटी के इन 84 खम्भों के ऊपर एक भव्य राममंदिर का निर्माण करवा दिया. यह कार्य चैत्र शुक्ल नवमी के शुभावसर पर सम्पन्न हुआ. कुश के द्वारा रामनवमी राष्ट्रीय पर्व घोषित कर दी गई. अतः यह मंदिर, राम और राष्ट्र परस्पर पर्याय बन गए. आज इसी स्थान पर भव्य मंदिर का पुर्ननिर्माण करने के लिए हिन्दू समाज आंदोलित है।

श्रीराम जन्मभूमि के साथ भारत की अस्मिता और हिन्दुओं का सर्वस्व जुड़ा है. यही कारण है कि रावण से लेकर बाबर तक जिस भी विदेशी और अधर्मी आक्रांता ने रामजन्मभूमि को अपवित्र करने का जघन्य षड्यंत्र रचा, हिन्दुओं ने तुरन्त उसी समय अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हुए अपने इस सांस्कृतिक प्रेरणा केन्द्र की रक्षा की. जन्मभूमि पर महाराजा कुश के द्वारा बनवाया गया मंदिर भी आक्रान्ताओं का निशाना बनता रहा. यह मंदिर अपने बिगड़ते-संवरते स्वरूप में सदियों पर्यन्त आघात सहन करता रहा, परन्तु इसका अस्तित्व कोई नहीं मिटा सका।

रामजन्मभूमि मंदिर के ऊपर विदेशियों के आक्रमण यूनान के यवनों के साथ शुरु हुए थे. ईसा से तीन शताब्दी पहले ग्रीक से यवन आक्रान्ता भारत आए. राष्ट्रजीवन के प्रतीक इस मंदिर पर पहला विधर्मी आघात ईसा से 150 वर्ष पूर्व हुआ. एक विदेशी यवन मिलेन्डर ने भारत पर अपनी सत्ता जमाने के उद्देश्य से अयोध्या पर आक्रमण कर दिया. उसने समझ लिया था कि रामजन्मभूमि पर बने मंदिर को तोड़े बिना भारत की शक्ति को क्षीण नहीं किया जा सकता. इस प्रकार के आध्यात्मिक केन्द्र ही हिन्दुओं को शक्तिशाली बनने की प्रेरणा प्रदान करते हैं. इस विधर्मी सेनापति ने एक प्रबल सैनिक टुकड़ी के साथ महाराजा कुश द्वारा निर्मित मंदिर को भूमिसात कर दिया।

हिन्दू समाज के प्रबल विरोध के बावजूद वह अपनी विशाल सैनिक शक्ति के बल पर जीत तो गया, परन्तु इस विजय के बाद तीन मास के भीतर ही उसे हिन्दुओं की संगठित शक्ति के आगे झुकना पड़ा. शुंग वंश के पराक्रमी हिन्दू राजा द्युमदसेन ने अपनी प्रचंड सेना के साथ उसे घेर लिया. इस वीर राजा ने न केवल जन्मभूमि को ही मुक्त करवाया, अपितु मिलेन्डर की राजधानी कौशांभी पर अपना अधिकार जमाकर उसकी सारी सेना को समाप्त कर दिया. मिलेन्डर को भी यमलोक पहुंचाकर द्युमदसेन ने हिन्दू समाज की संकठित शक्ति का परिचय देकर राममंदिर के अपमान का बदला ले लिया।

मंदिर तो मुक्त हो गया परन्तु उसके जीर्णोद्धार की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी. विदेशी आक्रमणों से जूझते रहने के कारण हिन्दू राजा इस ओर ध्यान नहीं दे सके. तो भी मंदिर के खण्डहरों में ही गर्भगृह स्थान पर एक पेड़ के नीचे हिन्दू अपने आराध्य देव की पूजा करते रहे।

ईसा से पूर्व उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने श्रीराम जन्मभूमि पर फिर से वैभवशाली मंदिर बनाने का बीड़ा उठाया. विदेशी आक्रांता शकों को पूर्णतया परास्त करके उन्हें भारत की सीमाओं से बाहर खदेड़ने का कार्य सम्पन्न करने के पश्चात् शकारि विक्रमादित्य ने अयोध्या की प्राचीन सीमाओं को ढूंढने के लिए एक सर्वेक्षण दल की स्थापना की. प्राचीन ग्रंथों को आधार मानकर रामजन्मभूमि का वास्तविक स्थान खोज पाना बहुत कठिन काम था. प्राचीन शास्त्रों के आधार पर जन्मभूमि के निकटवर्ती शेषनाथ मंदिर की कंटीली झाड़ियों के मध्य में से इस स्थान को खोज लिया गया. शास्त्रों में वर्णित मार्गों को नापा गया, रहस्य खुलते चले गए।

लक्ष्मण घाट के निकट एक ऊंचे टीले की खुदाई की गई, उत्खनन कार्य से प्राचीन मंदिर के अवशेष मिलते चले गए. भूगर्भ में समाए हुए मंदिर के कसौटी के 84 खम्भे भी प्राप्त हो गए. इन्हीं खम्भों को आधार स्तम्भ बनाकर विक्रमादित्य ने एक अति विशाल राम मंदिर का निर्माण करवा दिया. भारत का विराट राष्ट्रपुरुष फिर से स्वाभिमान के साथ मस्तक ऊंचा करके खड़ा हो गया. विक्रमादित्य की योजनानुसार भारत के प्रत्येक पंथ, जाति और क्षेत्र के सहयोग से अनेक मंदिर बनना प्रारम्भ हो गए. आज भी अयोध्या में इन हजारों मंदिरों को देखा जा सकता है।

सम्राट विक्रमादित्य ने सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्रीय एकता का अद्भुत एवं सफल प्रयास किया. अयोध्या सम्पूर्ण भारत का एक मूर्तिमान स्वरूप बन गई. विविधता में एकता का प्रतीक अयोध्या आज भी अपने इस एकत्व भाव के साथ भारत के एक राष्ट्र होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है. अयोध्या के मध्य में राम का मंदिर और चारों ओर भारत के सभी सम्प्रदायों के मंदिर, पूजास्थल और अखाड़े इसी तथ्य को सारे संसार के समक्ष उजागर करते हैं कि सभी पंथों के आदि महापुरुष श्रीराम भारत के राष्ट्रजीवन के प्रतीक हैं।

अतः अयोध्या में कारसेवकों द्वारा बनाए गए अस्थाई एवं साधारण मंदिर को भव्य स्वरूप देना हमारे राष्ट्र की एकता, अखंडता और परम वैभव के लिए आवश्यक है।

मंगलवार, 9 जून 2020

ठाकुर होकर ठाकुर का आप सभी सम्मान करो!

क्षत्रिय धर्म को भूल,राजपूत हम बन गये !
छोङे सारे क्षत्रिय सँस्कार, अँहकार मे तन गये !

क्षत्रिय धर्म मे पले हुए हम सिर कटने पर भी लङते थे ! 
दिख जाता अगर पापी ओर अन्याय कही शेरो कि भाँती टूट पङते थे !

शेरो सी शान,हिमालय सी ईज्जत,और गौरवशाली इतिहास का पूरखो ने हमे अभयदान दिया !
जनता के सेवक थे हम लोगो ने भी हमे सम्मान दिया !

छूट गई शान, टुट गयी इज्जत पी दारु छोङे सँस्कार !
इतिहास का हमने अपमान किया भूल गई क्या दुनिया सम्मान की खातिर लाखो क्षत्राणियो ने अग्नी स्नान किया !!

तो फिर दासी को जोधा बता राजपूत का क्यो अपमान किया !
दया हम दिखाते है जब ही तो चौहान ने गोरी को 18 बार छोङ दिया !!

पर रजपूती रँग मे रँग जाये राजपूत तो देखो बिन आँखो के चौहान ने गोरी का शिर फोङ दिया !

अकेले महाराणा ने दिल्ली कि सल्तनत को हिला दिया !
वीर दुर्गादास ने मुगल के सपनो को मिट्टी मे मिला दिया !!

अरे हम एक नही रहे तो दुनिया ने हमे भूला दिया !
भूल गई क्या दुनिया- हम उनके वँशज है जिन्होने रावण,कँस जैसो को मिट्टी मे मिला दिया ॥
ठाकुर होकर ठाकुर का 
आप सभी सम्मान करो ,
सभी ठाकुर एक हमारे 
मत उसका नुकसान करो, 
चाहे ठाकुर कोई भी हो 
मत उसका अपमान करो, 
जो गरीब हो अपना ठाकुर 
धन देकर धनवान करो, 
हो गरीब ठाकुर की बेटी 
मिलकर कन्यादान करो, 
अगर ठाकुर लडे चुनाव 
शत प्रतिशत मतदान करो, 
हो बीमार कोई भी ठाकुर 
उसे रक्त का दान करो, 
बिन घर के मिले कोई ठाकुर 
उसका खडा मकान करो, 
मामला अगर अदालत मे हो उसका 
बिना फीस के काम करो, 
अगर ठाकुर दिखे भूखा 
खाने का इंतजाम करो, 
ठाकुर को अगर कोई सताये 
उसकी तुम पहचान बनो,
अगर ठाकुर दिखे वस्त्र बिन उसे अंग वस्त्र का दान करो, 
अगर ठाकुर दिखे उदाशा 
खुश करने का काम करो, 
अगर ठाकुर घर पर आये 
आदर सहित🙏🙏 सम्मान करो ,
अपने से हो बडा ठाकुर 
उसको आप प्रणाम 🙏करो, 
बेटा हो गरीब ठाकुर का पढता 
कापी पुस्तक दान करो, 
भगवान ने अगर दिया तुम्हें ठाकुरकुलवंश
आप खुद पर 💪💪अभिमान करो।
🚩⚔🙏🙏जय श्री राम 🚩
🚩#जय_माँ_भवानी🚩
          🚩#जय_राजपुताना🚩
🚩#जय_क्षात्र_धर्म🚩

सोमवार, 25 मई 2020

आखिर कौन थे ? सम्राट पृथ्वीराज चौहान?

पुरा नाम :- पृथ्वीराज चौहान
अन्य नाम :- राय पिथौरा
वंश :- अग्निवंश
गौत्र :- वत्स (बच्छस)
माता/पिता :- राजा सोमेश्वर चौहान/कमलादेवी
पत्नी :- संयोगिता
जन्म :- 1149 ई.
राज्याभिषेक :- 1169 ई.
मृत्यु :- 1192 ई.
राजधानी :- दिल्ली, अजमेर
वंश :- चौहान (राजपूत)

आज की पिढी इनकी वीर गाथाओ के बारे मे....बहुत कम जानती है..!!
तो आइए जानते है.. सम्राट पृथ्वीराज चौहान से जुडा इतिहास एवं रोचक तथ्य…!!

(1) प्रथ्वीराज चौहान ने 12 वर्ष कि उम्र मे बिना किसी हथियार के खुंखार जंगली शेर का जबड़ा फाड़ ड़ाला था।

(2) पृथ्वीराज चौहान ने 16 वर्ष की आयु मे ही
महाबली नाहरराय को युद्ध मे हराकर माड़वकर पर विजय प्राप्त की थी।

(3) पृथ्वीराज चौहान ने तलवार के एक वार से जंगली हाथी का सिर धड़ से अलग कर दिया था।

(4) महान सम्राट प्रथ्वीराज चौहान कि तलवार का वजन 84 किलो था, और उसे एक हाथ से चलाते थे ..सुनने पर विश्वास नहीं हुआ होगा किंतु यह सत्य है..
(5) सम्राट पृथ्वीराज चौहान पशु-पक्षियो के साथ बाते करने की कला जानते थे।

(6) महान सम्राट पुर्ण रूप से मर्द थे ।
अर्थात उनकी छाती पर स्तंन नही थे ।

(8) प्रथ्वीराज चौहान 1166 ई. मे अजमेर की गद्दी पर बैठे और तीन वर्ष के बाद यानि 1169 मे दिल्ली के सिहासन पर बैठकर पुरे हिन्दुस्तान पर राज किया।

(9) सम्राट पृथ्वीराज चौहान की तेरह पत्निया थी।
इनमे संयोगिता सबसे प्रसिद्ध है..
(10) पृथ्वीराज चौहान ने महमुद गौरी को 16 बार युद्ध मे हराकर जीवन दान दिया था..
और 16 बार कुरान की कसम का खिलवाई थी ।

(11) गौरी ने 17 वी बार मे चौहान को धौके से बंदी बनाया और अपने देश ले जाकर चौहान की दोनो आँखे फोड दी थी ।
उसके बाद भी राजदरबार मे पृथ्वीराज चौहान ने अपना मस्तक नहीं झुकाया था।

(12) महमूद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर अनेको प्रकार की पिड़ा दी थी और कई महिनो तक भुखा रखा था..
फिर भी सम्राट की मृत्यु न हुई थी ।

(13) सम्राट पृथ्वीराज चौहान की सबसे बड़ी विशेषता यह थी की...
जन्मसे शब्द भेदी बाण की कला ज्ञात थी।
जो की अयोध्या नरेश "राजा दशरथ" के बाद..
केवल उन्ही मे थी।

(14) पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को उसी के भरे दरबार मे शब्द भेदी बाण से मारा था।
गौरी को मारने के बाद दुश्मन के हाथो नहीं मरे..
अर्थार्त अपने मित्र के हाथो मरे दोनो ने एक दुसरे को मार लिया.. क्योंकि और कोई विकल्प नहीं था।
👑जय💪राजपूताना🚩

जोधाबाई के बारे में ये बात आपको भी जाननी चाहिए।

जब भी कोई राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है!
बताया जाता है की कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया! परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नही किया!
सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी, किसी  रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया।परन्तु  राजपूतों को नीचा दिखने के लिए कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!
और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए! जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नही था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर राजपूत बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठ पहचान शुरू किया गया। फिर 18वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरीयम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!
और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया की आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चूका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को निचा दिखाने की कोशिश जाती है! जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन,बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व मे प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??

हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं????जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आई, उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाली पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नही मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए-जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया! इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नही किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी एतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई जो बहुत चौकानें वाली है! ईतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथो में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया! जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नही बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था। इस विवाह के विषय मे अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें संदेह
इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں) हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नही थे और ना ही हिन्दू गोद भरई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय मे कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनो का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपुताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब उन्होंने अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव(अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत! (1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!

लेकिन अब यह षणयंत्र अधिक दिन नही चलेगा।

मंगलवार, 19 मई 2020

हिन्दू ह्रदय सम्राट पृथ्वीराज चौहान जयंती पर विशेष


जयंती ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी मंगलवार तिथि 19 मई 2020 पर सभी देशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं.....||
तराइन के युद्ध से देश को सन्देश..... 
जय राजपूताना…
                देश का भाग्य पलटने वाला था
आतताइयों के लंबे और असफल आक्रमण अब सफल होने वाले थे.....
हिन्दवी शौर्य धर्म और धरती अब धूल-धूसित होने ही वाली थी..
तराइन के ही मैदान में महान पृथ्वीराज और गौरी के बीच दूसरा मुकाबला होने वाला था...||

🏹 सम्राट के परमवीर सामन्त चामुंडराय नाराज होकर हथियार न पकड़ने की प्रतिज्ञा कर चुके थे...
सम्राट का एक और समर्थ वीर सामन्त हुहुलीराय राष्ट्र के दुर्भाग्य का वाहक बनकर गौरी की तरफ से लड़ने आया था...||

सम्राट को कुछ कुछ दुर्दैव का पूर्वाभास हो चुका  था..
हठी चामुंडराय को स्वयं जाकर मनाया...
किन्तु जब राष्ट्र का दुर्भाग्य शुरू होने वाला ही तो विवेक दूर चला जाता है...||

हठी चामुंडराय ने कहा कि सम्राट का आग्रह है तो मैं अपनी प्रतिज्ञा से हटकर  सिर्फ एक बाण चलाऊंगा...
युद्ध मैदान में गौरी के कंधे से कंधा मिलाकर राष्ट्र के दुर्भाग्य का अग्रदूत घर का गद्दार हुहुलीराय भी खड़ा था...
चामुंडराय ने सम्राट से आज्ञा मांगी मेरे अचूक एक बाण से कहो तो दुष्ट गौरी के प्राण हर लूं....||

🏹सम्राट ने भावी का पूर्वानुमान लगा दिया था सोचकर बोले" एक गौरी को मार भी देंगे तो भी यह आक्रमणों का सिलसिला अनवरत रहेगा ....लेकिन घर के गद्दार को खत्म करो, अगर गद्दारी का सिलसिला रुक गया तो राष्ट्र फिर उठ खड़ा होगा...||

⚔️परमवीर के अचूक बाण ने राष्ट्रघाती के रक्त से तराइन की धरती को तृप्त कर दिया...
उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है....||
राष्ट्र को खतरा घर के गद्दारो से है सम्राट पृथ्वीराज चौहान संकेत कर गए थे...||

                         👑राष्ट्र सर्वोपरि.. हैं।

           जय माँ भवानी            जय पिथौरा 

                             जय💪क्षात्र धर्म।

सोमवार, 11 मई 2020

राजपूतों और मुस्लिम लड़कियो के वैवाहिक संबंध बनाने का इतिहास।

अक्सर हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखाने के लिए जोधा अकबर का झूठा वैवाहिक संबंध इतिहास बता दिया जाता है!
तो आज हम बताते हैं राजपूतों और मुस्लिम लड़कियो के वैवाहिक संबंध बनाने का इतिहास!

1:- अकबर की बेटी शहज़ादी खानूम से महाराजा अमर सिंह जी का विवाह!

2:- कुँवर जगत सिंह ने उड़ीसा के अफगान नवाब कुतुल खां कि बेटी मरियम से विवाह!

3:- महाराणा सांगा मुस्लिम सेनापति की बेटी मेरूनीसा से ओर तीन मुस्लिम लड़किया से विवाह!

4:- महाराणा कुंभा (अपराजित योद्धा) का जागीरदार वजीर खां की बेटी से विवाह!

5:- बप्पा रावल (फादर ऑफ रावलपिंडी) गजनी के मुस्लिम शासक की पुत्री से और 30 से अधिक मुस्लिम राजकुमारीयों से विवाह!

6:- विक्रमजीत सिंह गौतम का आज़मगढ़ की मुस्लिम लड़की से विवाह!

7:- जोधपुर के राजा राजा हनुमंत सिंह का मुस्लिम लड़की ज़ुबेदा से विवाह!

8:- चंद्रगुप्त मौर्य (राजपूत) का सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर की बेटी हेलेना से विवाह!

9:- महाराणा उदय सिंह ने एक मुस्लिम लड़की लाला बाई से विवाह!

10:- राजा मान सिंह मुस्लिम लड़की मुबारक से विवाह!

11:- अमरकोट के राजा वीरसाल का हामिदा बानो से विवाह!

12:- राजा छत्रसाल का हैदराबाद के निजाम की बेटी रूहानी बाई से विवाह!

13:- मीर खुरासन की बेटी नूर खुरासन का राजपूत राजा बिन्दुसार से विवाह!
ये तो वैवाहिक संबंध की बात हुई अब राजपूत राजाओ की मुस्लिम प्रेमिकाओ पर बात करते हैं!

1:- अल्लाउदीन खिलजी की बेटी "फिरोजा"" जो जालोर के राजकुमार विरमदेव की दीवानी थी वीरमदेव की युद्ध मै वीरगति प्राप्त होने पर फिरोजा सती हो गयी थी!

2:- औरंगजेब की एक बेटी ज़ेबुनिशा जो कुँवर छत्रसाल के पीछे दीवानी थी ओर प्रेम पत्र लिखा करती थी ओर छत्रसाल के अलावा किसी ओर से शादी करने से इंकार कर दिया था!

3:- औरंगजेब की पोती ओर मोहम्मद अकबर की बेटी सफियत्नीशा जो राजकुमार अजीत सिंह के प्रेम की दीवानी थी!

4:- इल्तुतमिश की बेटी रजिया सुल्तान जो राजपूत जागीरदार कर्म चंद्र से प्रेम करती थी!

5:- औरंगजेब की बहन भी छत्रपति शिवाजी की दीवानी थी शिवाजी से मिलने आया करती थी!
राजपूत राजाओ की और भी बहुत सी मुस्लिम बीवीयां थी लेकिन वो राज परिवार और कुलीन वर्ग से नहीं थी!

लेकिन उस समय की किताबो में ब्रिटिश और उस समय के कवियों के रचनाओ मैं जिक्र स्पष्ट है!
और ब्रिटिश रिकॉर्ड में भी औऱ ज्यादातर राजपूतो राजाओ की एक से ज्यादा मुस्लिम बीवीया थी लेकिन रक्त शुध्दता की वजह से इनके बच्चो को अपनाया नहीं जाता ओर उन बच्चों को वर्णशंकर मान के जागिर दे दी जाती थी!

तो ये ऐतिहासिक प्रक्षेप चप्पल की तरह फेंक कर उनके मुह पर अवश्य मारिए जो हिन्दुओ को जोधा अकबर जैसे झूठे ऐतिहासिक तथ्यों पर बहस करते हैं!

जय श्री राम 🚩🚩
वीर भोग्य वसुंधरा 💪
जय राजपूताना ⚔️🚩

रविवार, 19 अप्रैल 2020

पुंडीर वंश का सम्पूर्ण इतिहास


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...........पुंडीर राजपूत भगवान श्री राम के वंशज राजा पुण्डरीक के वंशज माने जाते है...........
 
१  गोत्र- पुलस्त कहीं कपिल भी है। 
२  प्रवर- पुलस्त, विश्वश्रवस और दंभोलि। 
३  वेद - यजुर्वेद।
४  शाखा- वाजसनेयी माध्यन्दिनी 
५  सुत्र- पारस्कर गृह्यसूत्र।
६  कुलदेवि- दधिमति माता  व् शाकुंभरी देवी ।

पहले अयोध्या से वैशाली बिहार में गये।

वहां से आगे बिहार और बंगाल कलिंग में पुंड्रा डायनेस्टी ने कई सो साल शासन किया। इस शासन के सिक्के कई हजार साल बाद भी मिलते हैं।
कलिंग से बाद में दक्षिण की और जाकर तेलंगाना में शासन किया।
सन 544 इसवी में इसके राजा मधुकरदेव कुरुक्षेत्र स्नान के लिए आज के हरियाणा में आये तो यहाँ के राजा सिन्धु रघुवंशी ने अपनी पुत्रि का विवाह उनसे कर कैथल और करनाल का इलाका दहेज में दे दिया।
यहाँ उन्होंने अपना नया राज्य पूंडरी के नाम से स्थापित किया जो आज तक करनाल में एक बड़ा कस्बा है।।
यह राज्य सम्राट हर्षवर्धन के बाद 712 इसवी में  यमुना पार कर आज के यूपी के सहारनपुर हरिद्वार और मुजफरनगर तक फ़ैल गया।
 
नीमराना के चौहानो और पुण्डरी(करनाल,कैथल) के पुंडीर राजपूतों के बीच हुए इस रक्तरंजित युद्ध का इतिहास गवाह है। यह ऐतिहासिक कहानी आपको हरियाणा के उस स्वर्णिम काल में ले जाएगी जब यहां क्षत्रिय राजपूतो का राज था ,यानी अंग्रेजों और मुगलों के समय से भी पहले ।।

राजा मधुकर देव पुंडीर ने यही पर अपने पूर्वज के नाम पर पुण्डरी नाम से राजधानी स्थापित की, बाद में उनके वंशजो ने यहां चार गढ़ स्थापित किये
जो कि पुण्डरी, पुंडरक ,हावडी, चूर्णी(चूर्णगढ़) के नाम से जाने गए,
हर्षवर्धन के पश्चात् सन 712 इसवी के आसपास पुंडीर राजपूतो ने यमुना पार सहारनपुर और हरिद्वार क्षेत्र पर भी कब्जा कर शासन स्थापित किया. पुंडीर राज्य के दक्षिण पश्चिम में मंडाड राजपूतों का शासन था जोकि यहां मेवाड़ से आये थे और राजोर गढ़ के बड़गुजरों की शाखा थे। मंडाड राजपूतो का कई बार पुंडीर राज्य से संघर्ष हुआ पर उन्हें सफलता नहीं मिली।।
 गंगा स्नान से लौटते वक्त राणा हर राय चौहान थानेसर पहुंचे तथा पुरोहितो के सुझाव पर पुंडीरो से कुछ क्षेत्र राज करने के लिए भेंट में माँगा, पुंडीरो ने राणा जी की मांग ठुकराई और क्षत्रिये धर्म निभाते हुए विवाद का निर्णय युद्ध में करने के लिए राणा हर राय देव को आमंत्रित किया। जिसे हर राय देव ने
स्वीकार किया।।
ऐसा कहा जाता है कि मंडाड राजपूतो ने चौहानो का इस युद्ध में साथ दिया, पुंडीर सेना पर्याप्त शक्तिशाली होने के कारण प्रारम्भ में हर राय को सफलता नहीं मिली मात्र पुण्डरी पर वो कब्जा कर पाए,राणा हर राय ने हार नजदीक देख नीमराणा से मदद बुलवाई।
नीमराणा से राणा हर राय चौहान के परिवार के राय दालू तथा राय जागर अपनी सेना के साथ इस युद्ध में हिस्सा लेने पहुंचे।।

नीमराणा की अतिरिक्त सेना और मंडाड राज्य की सेना के साथ मिलने से राणा हर राय चौहान की स्थिति मजबूत हो गयी और चौहानो ने फिर हावडी,पुंड्रक को जीत लिया,अंत में पुंडीर राजपूतो ने चूर्णगढ़ किले में अंतिम संघर्ष किया और रक्त रंजित युद्ध के बाद इस किले पर भी राणा हर राय चौहान का कब्ज़ा हो गया,
इसके बाद बचे हुए पुंडीर राजपूत यमुना पार कर आज के सहारनपुर क्षेत्र में आये और कुछ समय पश्चात् उन्होंने दोबारा संगठित होकर मायापुरी(हरिद्वार)को राजधानी बनाकर राज्य किया,बाद में इस मायापुरी राज्य के चन्द्र पुंडीर और धीर सिंह पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामंत बने  सन 965 इसवी में नीमराना के राणा हर राय चौहान से युद्ध में हारने के बाद पुंडीर राजपूतो से हरियाणा का इलाका छीन गया। जिसके बाद इन्होने हरिद्वार (मायापुर)को राजधानी बनाकर शासन किया जो 1440 गाँव की रियासत की।
पुण्डीरों के वर्णन में है कि पुण्डीर शासक ईसम हरिद्वार का शासक था। उसके बाद क्रमशः सीखेमल, वीडो, कदम, हास और कुंथल शासक हुए। 
कुंथल के बारह पुत्र हुएः- अजत, अनत,लालसिंह, नौसर, सलाखन, गोगदे, मामदे, भाले, हद, विद, भोईग और जय सिंह। 

अजत ने निम्न ग्राम बसायेः- जुरासी, पतरासी, मोरमाजरा, खटका, लादपुर, गोगमा, हरड़, रामपुर, सोथा, हींड, मोहब्बतपुर, कैड़ी, बाबरी, बनत, हिनवाड़ा, नसला, लगदा, पीपलहेड़ा, भसानी, सिक्का।।

 अनत ने निम्न ग्राम बसायेः- दूधली, कसौली, मारवा, शेरपुर, चौवड़, दुदाहेड़ी, वामन हेड़ी, बाननगर, रामपुर, कल्लरपुर, कौलाहेड़ी, कछोली, सरवर, मगलाना।।

लालसिंह ने निम्न ग्राम बसायेः- गिरहाऊ, कोटा, खजूरवाला, माही, हसनपुर, भलसवा, बोहड़पुर।।

नौसर ने निम्न ग्राम बसायेः- नौसरहेड़ी, खुजनावर, जीवाला, हलवाना, अनवरपुर, बड़ौली, बेहड़ा, माडॅला, मानकपुर, मुसेल, गदरहेड़ी, सरदोहेड़ी, रामखेड़ी, चुबारा, गगाली, खपराना।।

सलाखन मायापुर (हरिद्वार) में ही रहा तथा वहाँ का शासक हुआ। इसके दो पुत्र चांदसिंह और गजसिंह थे। गजसिंह गंगापार रामगढ़ (वर्तमान अलीगढ़) की तरफ चला गया था। उसके वंशजों के १२५ गाँव थे, जिनमें ८० गाँव मैनपुरी और इटावा जिले में और ६ गाँव छतेल्ला, भभिला, नसीरपुर, कुलहेड़ी, रणायच।।

नानौता से देवबंद तक , सोना अर्जुनपुर, खुडाना, शमभालेडी , कुराली, सुभरी, जन्धेरी, भारी , मोरा , कलारपुर ,बडगाव , मुस्कीपुर , शिमलाना , भैयला , रनखंडी , जदोड़ा, महेशपुर इताय्दी बड़े गाव है 
इसके अलावा देहरादून उत्तराखंड में कंवाली , पृथ्वीपुर , जम्नीपुर , बदामावाला , राघंडवाला , बदोवाला, धर्मपुर , सहसपुर , इत्यादी बड़े गाव है इसके साथ ही रूडकी शहर व् उसके आस पास के गाव पहले से ही पुंडीर राजपूतो के अधिपत्य मे है  
बाद में ये अजमेर के चौहानो के सामंत बने और पृथ्वीराज चौहान की और से इन्हें पंजाब सीमा पर वहां का राज्यपाल बनाया गया। चन्द्र पुंडीर और उनके पुत्र धीर पुंडीर पृथ्वीराज के बड़े सेनापति थे। पृथ्वीराज रासो में लिखा है कि तराईन के पहले युद्ध में जब गोविन्दराज तोमर ने गौरी को घायल कर दिया तो भाग रहे गौरी को धीर पुंडीर ने ही पकड़ा था,जिसे पृथ्वी ने छोड़ दिया।।
 एक बार पृथ्वीराज शिकार खेलने गया था,उस समय शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर चढ़ाई की,चांदसिंह पुण्डीर ने सेना लेकर चिनाब नदी के किनारे उसका मार्ग रोका। काफी देर तक युद्ध होने के बाद चांदसिंह पुण्डीर के घायल होकर गिरने पर ही मुसलमान सेना चिनाब नदी पार कर सकी थी। पृथ्वीराज के पहुँचने पर फिर गौरी से जबरदस्त युद्ध हुआ। उसमें बगल से चांदसिंह पुण्डीर ने शत्रु पर हमला किया। उस युद्ध में इसका एक पुत्र वीरतापूर्वक युद्ध करता हुआ,मातृभूमि के लिये बलिदान हुआ था।।
शहाबुद्दीन फिर युद्ध में परास्त होकर भागा, जब पृथ्वीराज कन्नौज से संयोगिता का हरण करके भागा, तब जयचन्द की विशाल सेना ने उसका पीछा किया,जयचन्द की सेना से पृथ्वीराज के सामंतों ने घोर युद्ध करके उस विशालवाहिनी को रोका था, जिससे पृथ्वीराज को निकल जाने का समय मिल गया,उस भीषण युद्ध में चांदसिंह पुण्डीर कन्नोज की सेना से युद्ध करके जूझा था।।
इस युद्ध के कुछ महीने बाद ही चन्द्र पुंडीर पृथ्वीराज चौहान के साथ संयोगिता स्वयमर में कन्नौज के साथ हुए युद्ध में मारे गये।
एक बार जब शहाबुद्दीन भारत पर आक्रमण करने आया, तब पृथ्वीराज का सामंत जैतराव आठ हजार घुड़सवार सेना के साथ उसे रोकने के लिये गया था। उसके साथ धीर पुण्डीर तथा उसके अन्य भाई भी थे। उस युद्ध में धीर पुण्डीर का भाई उदयदेव वीर गति को प्राप्त हुआ था।।
 एक बार मुसलमान घोड़ों के सौदागर बनकर पंजाब में आए और धोखे से धीर पुण्डीर को मार डाला। इस पर पावस पुण्डीर ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया,पृथ्वीराज को जब इस घटना की खबर मिली, तब उसे बड़ा अफसोस हुआ। पावस पुण्डीर धीर पुण्डीर का पुत्र था, पृथ्वीराज के ई॰ ११९२ में गौरी के साथ हुए अन्तिम युद्ध में पावस पुण्डीर मारा गया।।
पृथ्वी राज की एक रानी धीर पुंडीर की बहन थी जिससे रणजीत सिंह का जन्म हुआ पर वो भी बाद में अल्पायु में ही मारे गये।।
दिल्ली पर तुर्को की सत्ता होने के बावजूद एक राज्य हरिद्वार सहारनपुर मुजफरनगर और दूसरा अलीगढ एटा हाथरस में पुंडीर राज्य बना रहा।
हरिद्वार (मायापुर)राज्य का अंत 14 वी सदी में तैमूर के हमले से हुआ और वहां के राजपरिवार के सदस्यों ने उतराखंड और हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र में जाकर शरण ली और छोटे छोटे राज्य स्थापित किये।
बाकी पुंडीर यही बने रहे उनमे से एक ने सहारनपुर में जसमोर राज्य स्थापित किया जो आज भी मौजूद ह और इसकी रानी देवलता पूर्व विधायक हैं।।
देहरादून में गुलाब सिंह पुंडीर ने सभी गोरखा को युद्ध मे पराजित करते हुए अपना राज्य कायम किया।
हिमाचल में छोटा सा सतोड़ा राज्य है।।
अलीगढ हाथरस एटा क्षेत्र में विजियापुर,मऊ और सिकन्दराराऊ तीन स्टेट थी जिनमे से दो 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजो ने खत्म कर दी।।
अब पुंडीर राजपूतो की जनसंख्या सहारनपुर मुजफरनगर अलीगढ एटा हाथरस हरिद्वार देहरादून हिमाचल के सिरमौर उतराखंड के गढ़वाल में है।।

मुजफ़्फ़रनगर/अब शामली में "जलालाबाद"पहले राजा मनहर सिंह पुंडीर का राज्य था और इसे मनहर खेडा कहा जाता था। इनका औरंगजेब से शाकुम्भरी देवी की ओर सड़क बनवाने को लेकर विवाद हुआ। इसके बाद औरंगजेब के सेनापति जलालुदीन पठान ने हमला किया और एक भेदीये ने किले का दरवाजा खोल दिया। जिसके बाद नरसंहार में सारा राजपरिवार मारा गया। सिर्फ एक रानी जो गर्भवती थी और उस समय अपने मायके में थी,उसकी संतान से उनका वंश आगे चला और मनहरखेडा रियासत के वंशज आज सहारनपुर के "भारी-भावसी" गाँव में रहते हैं।।
पूर्व भाजपा जिलाध्यक्ष सहारनपुर श्री मानवीर सिंह पुण्डीर भी उसी राजपरिवार से हैं।
इस राज्य पर जलालुदीन ने कब्जा कर इसका नाम 'जलालाबाद'रख दिया।।
 ये किला आज भी शामली रोड़ पर जलालाबाद में स्थित है।इसके गुम्बद सड़क से ही दिखते हैं।

जलालाबाद के पठानो के उत्पीड़न की शिकायत बन्दा सिंह पर गई और राजपूताने के राजाओं पर गयी।।
राजपुताना(वर्तमान राजस्थान)के राजाओं ने सेना की छोटी-2 टुकड़ी को सहायता के लिए भेज दिया। थानाभवन के रैकवार राजपूत(राज्यमंत्री स्वतंत्र प्रभार श्री सुरेश राणा जी का परिवार),खट्टा प्रह्लादपुर के दाहिमा-राजपूत,बिराल के कुशवाहा राजपूत सब उसी समय राजस्थान से यहाँ युद्ध लड़ने आये थे।चौहान राजा की सेना युद्ध के बाद वापिस लौट गई थी।कुछ दिन बाद ही इस इलाके के पुण्डीर राजपूत व राजपुताने से आयी राजपूती फ़ौज की मदद से जलालाबाद पर बन्दा बहादुर के नेतृत्व मे हमला किया।।

 बीस दिनों तक सिक्खो और  राजपूतो ने किले को घेरे रखा। यह मजबूत किला पूर्व में पुंडीर राजपूतो ने ही बनवाया था ,इस किले के पास ही कृष्णा नदी बहती थी, बंदा बहादुर ने किले पर चढ़ाई के लिए सीढियों का इस्तेमाल किया। रक्तरंजित युद्ध में जलाल खान के भतीजे ह्जबर खान,पीर खान,जमाल खान और सैंकड़ो गाजी मारे गए।।

 जलाल खान ने मदद के लिए दिल्ली गुहार लगाई, दुर्भाग्य से उसी वक्त जोरदार बारीश शुरू हो गई और कृष्णा नदी में बाढ़ आ गई। वहीँ दिल्ली से बहादुर शाह ने दो सेनाएं एक जलालाबाद और दूसरी पंजाब की और भेज दी। पंजाब में बंदा की अनुपस्थिति का फायदा उठा कर मुस्लिम फौजदारो ने हिन्दू सिखों पर भयानक जुल्म शुरू कर दिए। इतिहासकार खजान सिंह के अनुसार इसी कारण बंदा बहादुर और उसकी सेना ने वापस पंजाब लौटने के लिए किले का घेरा समाप्त कर दिया,और जलालुदीन पठान बच गया।।

पुंडीर दुसरे राजपूत की संख्या में बहुत कम है लकिन फिर भी तीन विधायक पुंडीर है, इसके साथ ही अगर जगा भाट की बात पर गोर किया जाये तो सभी राजपूतो  में सबसे जयादा उपज वाली भूमि पुंडीर राजपूतो के पास ही है।।

जय राजपूताना ||
जय क्षात्र धर्म ||

पोस्ट सौजन्य से:- योगेंद्र पुंडीर, सुमित राणा, रोबिन पुंडीर, प्रशांत पुंडीर।।

शनिवार, 25 जनवरी 2020

मत चूको चौहान

वसन्त पंचमी का शौर्य

चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण!
ता उपर सुल्तान है, चूको मत चौहान!!

वसंत पंचमी का दिन हमें "हिन्दशिरोमणि पृथ्वीराज चौहान" की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी इस्लामिक आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ बंदी बनाकर काबुल  अफगानिस्तान ले गया और वहाँ उनकी आंखें फोड़ दीं।

पृथ्वीराज का राजकवि चन्द बरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। 

चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। 

इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया।

पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। 

चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया।

इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया

‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है, चूको मत चौहान।।’’

अर्थात् चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।

इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का
आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। 

इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया।

गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार एक-दूसरे को 
कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये।

"आत्मबलिदान की यह घटना भी 1192 ई. वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।"

ये गौरवगाथा अपने बच्चों को अवश्य सुनाए।

बुधवार, 8 जनवरी 2020

पृथ्वीराज चौहान राजपूत है।

क्या राजपूत शब्द नवीन है ? इस इतिहास को बताने से पहले ही गुर्जर विवाद करेंगे की राजपूत शब्द तो नवीन है तो पहले यह स्पष्ठ करना जरूरी है की राजपूत शब्द नवीन नही बल्कि आदिकाल से है ।। 

राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है प्राचीन भारत मे राजपुत्र शब्द का प्रयोग क्षत्रियों के लिए होता था ( ऐते रुक्मरथानाम राजपुत्रा महारथाः - महाभारत 7 -112-2 )  

शासक वर्ग से सम्बंध होने के कारण क्षत्रिय कुमार  राजकुमार , महाराजकुमार , राजपुत्र या महाराजपुत्र नाम से संबोधित होते थे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सौन्दरानंद ( अश्वघोष ) में कालिदास के मालविकाग्निमित्र में ओर हर्षचरित्र के कादम्बरी बाण में राजपूत शब्द का प्रयोग हुआ है । 

अब तो अभिलेखों में भी राजपुत्र शब्द ढूंढ निकाला गया है विक्रमं संवत 1287 के तेजपाल मंदिर अभिलेख में भालीभाड़ा प्रवर्ति ग्रामेषु संतिस्थमान श्रीप्रतिहारःवंशीय सर्वराज पुत्रेश्चय साफ साफ लिखा हुआ है ।। 

इसके अलावा एपी●इंडिया● खण्ड 16 पेज संख्या 10 टिप्पणी 4 बहिखण्ड 20 पृष्ठ 135 टिप्पणी में राजपुत्र शब्द का उल्लेख हुआ है विक्रमसंवत १२८७ के हिंडोरिया जिला जिला दमोह अभिलेख में चंदेल हमीरवर्मा के सामन्त को महाराजपुत्र कहा गया है लेकिन विदेशी हेनसांग ने जब भारत पर किताब लिखी अपनी यात्रा का वर्णन लिखा तो राजपूतों को केवल क्षत्रिय कहा।

बस यही से मसाला मिल गया मूर्खो को उन्हे यह नही पता की हेनसांग तो कल की बकरी थी जबकि राजपूत शब्द तो तब से है जब से इस धरती का निर्माण हुआ है मनुमहाराज राजपूत इसलिए नही क्यो की वह किसी महाराज के पुत्र नही वह स्वयम्भू है लेकिन वर्ण तो उनका भी क्षत्रिय ही है।

अंग्रेज कर्नलजेम्सटॉड ने यह भसड़ फैलाई थी कि राजपूत शक ओर सीथियन के वंसज है ओर अंग्रेजो ओर अंग्रेजो की भारतीय औलादों ने इसे ही ब्रह्मसत्य मान लिया टॉड को यह कहने का मौका भी इसलिए मिला क्यो की परमारो का अग्निकुल का होना उस समय भी जगतविख्यात था इसी को आधार मानकर कर्नलटॉड ने राजपूतों को शक सीथियन कहा उसका मानना था कि शक सीथियन को शुद्ध करके अग्नि प्रतिज्ञा दिलवाकर उन्हें क्षत्रिय बनाया गया।

टॉड का कहना है कि अग्निकुल के राजपूतो की शक्ल सूरत पर्शियन राजाओ से मिलती जुलती है इसके अतिरिक्त दोनो जातियों में समानता भी है - जैसे  अश्वपूजा, शस्त्रपूजा, अश्वमेघ, सुरापान के प्रति अनुराग , शकुन, अपशकुन विचार, अंधविश्वास,  युद्ध मे काम आने वाले रथ, चारण प्रथा, समाज मे स्त्रियों का स्थान तथा युद्ध के नियम।

पार्थियन के यह सब गुण राजपूतों से मिलते है लेकिन इस बात का खंडन तो यही हो जाता है क्यो की राजपूतो में तो यह प्रथा बहुत प्राचीन है पार्थियन आदि का तो इतिहास ही 4000 साल से ज़्यादा पुराना नही बल्कि राजपूतों में तो ( जैसा कि महाभारत में भी राजपूत नाम आ चुका है ) महाभारत काल से ही यह सारी प्रथाएं प्रचलन में थी।

इससे तो यह स्पष्ठ होता है कि पार्थियन राज्य भी पहले क्षत्रिय के अधीन ही था लेकिन बाद में उन्होने अपना अलग पंथ चलाया ओर वे मल्लेछ हो  गए असल सत्य को दबाने के लिए शातिर खोपड़ी के टॉड ने राजपूतो को ही शक सीथियन घोषित कर दिया और यही ब्रह्मसत्य है सूर्यपूजा, अश्वपूजा, यह तो वैदिक काल से चला आ रहा है अश्वमेघ यज्ञ तो आज से 10 लाख वर्ष पूर्व श्रीराम के काल मे ही प्रचलन में था राजपूतों के गोत्र ओर प्रवर भी आज भी वही है जो वेदिकयुग में थे नारायण ।।

अब बात आती है बम्बई गेजेटियर् की -- जैसे महाराजपुत्र होता है उसी तरह अंग्रेजो में महामूर्ख होता है इसमें केम्पबेल ओर जैक्सन नाम के दो महामूर्ख लेखकों ने महामूर्ख प्रतियोगिता में बाजी मार ली ओर यही पहले मूर्ख थे जिन्होने राजपूतो की उतपति गुर्जर( गुजर) जाति से बताई इन दोनों शब्दो की ध्वनि समान है इस कारण उन्होने बिना सोचे समझे इतिहास को अपमानित किया कलम की स्याही बेकार की ।।

रही अग्निकुल की बात - तो अग्नि सूर्य और चन्द्र के बीच का प्रतीक है अग्नि सूर्य और चन्द्र के बीच मध्यममार्ग है सूर्य का तेज तो ऐसा है कि उनके निकट जाना भी संभव नही इसलिए आदमी सुरक्षित है लेकिन अग्नि के निकट परवाना बनकर जाना ही होता है मिटना ही होता है दो चन्द्रवन्स के ओर दो सूर्यवंश के योद्धाओं को लिया गया ओर बन् गया मध्यममार्ग अग्निकुल ।।

परमारो का चन्द्रवँशी होने का सीधा सीधा प्रमाण उनका ध्वज ही है यदुओं के नेता श्रीकृष्ण के ध्वज पर भी गरुड़ विधमान ताज विक्रमादित्य परमार के ध्वज पर गरुड़ ही था जो वर्तमान तक है अगर परमार चन्द्रवंश से अलग होते तो उन्हें यदुओं का ध्वज इस्तेमाल करने दिया जाता ? ओर वे खुद भी दूसरों का ध्वज अपने महल पर भला क्यो लगायेंगे ??

जैसा कि रामायण में वर्णन है कि वसिष्ठ ने अग्निकुंड से प्रतिहार, परमार, चाहमान ओर चालुक्यों का निर्माण किया जबकि ऐसा नही है वसिष्ठ के कहने पर यह चार जातियां विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध करने को उद्धत हुईं, ओर विश्वामित्र को पराजित भी किया तभी कहा जाता है की वसिष्ठ में वह सारा सामर्थ्य था की वह राजपूतों से ही राजपूतो का नाश करवा देते लेकिन उन्होंने असमर्थ की भांति विश्वामित्र को क्षमा कर दिया ।।

815 ईस्वी तक के प्रतिहारो के जितने भी अभिलेख प्राप्त हुए है उनमें से किसी एक मे भी प्रतिहारो को अग्निवंशी नही कहा गया है ग्वालियर प्रशस्ति में भी उन्हें सूर्यवँशी ही बताया गया है।

मन्विज्ञाकुकस्थ(तस्थ) मुल पृथ्वः स्मापालकल्पद्रूमा ।।
तेषां वंशें सुजन्मा क्रमनिहतपदे धामिन वजेषु घोरं।
रामः पौलस्त्यहिन्श्र ज्ञतविहित सीम्नकम्र्मचकपालशः।।
श्लाध्यस्त हथानुजोसौ मधवमधनादस्यसख्यें।
सौमित्रिस्तीव्रदण्डः प्रतिहरण विधेर्य प्रतिहारः आसीत।।

इसीप्रकार चाहमानों के भी अनेक अभिलेख, दानपत्र, ऐतिहासिक संस्कृत ग्रँथ प्राप्त हुए है जहां कहीं भी चौहानों को अग्निकुल का नही बताया गया है पृथ्वीराज विजय में ओर हम्मीर महाकाव्य के सर्ग में चौहानों का सूर्यवंश से होना साफ साफ लिखा है :- फिलहाल आपके संतोष के लिए पृथ्वीराज विजय से साक्ष्य आपके सामने है।

सुतोप्यपरगांगेयो निन्येस्य रविसनुना उन्नति रविवंशस्य पृथ्वीराजेन पश्यता ।। ( पृथ्वीराज विजय - 18 ; 34 )

वास्तविक बात तो यह है 1600 ईस्वी तक अग्निकुल था ही नही पृथ्वीराज रासो में मिलावट करके इसे 1600 ईस्वी में खूब प्रचारित किया गया और उसका परिणाम आज सामने है ।।

#चौहानो_के_सूर्यवँशी_राजपूत_होने_का_संक्षिप्त_वर्णन

चौहान वंश वास्तव में चतुर्भुजचव्हाण के नाम से चला है चतुर्भुज का अर्थ यह नही है कि चव्हाण नाम के राजा के चार हाथ थे बल्कि चौहान नाम के इस राजा की मारक क्षमता इतनी थी की अलंकारिक रूप में इन्हें चतुर्भुज कहा गया चौहान निश्चित रूप से राम के वंसज रघुवंशी ही है इसका प्रमाण भी साफ साफ है।

सूर्यवंश के उपवंश चौहान वंश में एक राजा विजयसिंह जी हुए जिन्होंने हरपालिया कीर्तिस्तम्भ में अचलेश्वर शिलालेख ( मरु भारती पिलानी )  में आसराज के प्रसंग में लिखा है।

राघर्यथा वंश करोहिवंशे सुर्यस्यशुरोभुतिमंडलेsग्रे ।
तथा बभूवत्र पराक्रमेंणा स्वानामसिद्धः प्रभुरामसराजः ।। १६।।
भावार्थ :- पृथ्वीतल पर जिस प्रकार पहले सूर्यवँश में पराक्रमी राजा रघु हुए, उसी प्रकार इस वंश रघुवंश में अपने पराक्रम से कीर्तिराज आसराज नामक राजा हुए इस शिलालेख से स्पष्ठ है कि चौहान सूर्यवँशी थे राम के रघुवंश से थे जब श्रीराम ही ठाकुरजी है तो उनके वंसज गुर्जर कैसे हो सकते है ??

अब सवाल यह उठता है कि चौहानो का सूर्यवँशी राम से सम्बन्ध कहाँ जुड़ता है ;-  तो अजमेर के सरस्वती मंदिर शिलालेख में लिखा है :-

सप्तद्वीपभुजो नृपः सम्भवन्निक्ष्वाकु रामादयः।
तस्मित्रयारिविजयेन विराजमानो राजानुरंजित जनोजानि चाहमान ।। ३७ ।।

इसमें साफ साफ वर्णन है की चौहान श्रीराम के कुल से है तो चौहान अगर राम के कुल में है तो इस वंश का आदि पुरुष कौन है ? इसपर भी विचार करना जरूरी है हम सब जानते है कि चौहानों का उत्कर्ष राजस्थान से है बिजौलिया शिलालेख में इन्हें अहिस्छतरपुर अंकित किया है पृथ्वीराज विजय हमीर महाकाव्य, तथा सुरजन चरित्र में इनका मूल स्थान पुष्कर है। 

चौहानो के बहिभाट नर्मदा के उत्तर में स्थित महिष्मति ग्राम को इनका मूल बताते है इन सब आधार पर तो एक ही निष्कर्ष निकलता है की चौहानो का मूल स्थान राजस्थान ही है परंतु चौहान भृववट 813 में भड़ौच गुजरात पर शासन कर रहा था जो कि पहले गुर्जर प्रदेश हुआ करता था तो इनका मूल स्थान यह भी हो सकता है आबू पर्वत में चन्द्रवंशी अर्जुनायन में चालुक्य( चोल )  नाम का राजा चौहानो में चौहान नाम का राजा एक प्रतिहारः राजा तथा एक यदुवंशी परमार नाम के राजा सम्मिलित हुए, इनके नाम से ही इनका वंश चला ।।

#गुर्जर(गुजरो) का इतिहास भी सम्मानीय है -

यह सच है कि प्राचीन समय मे गुर्जर जाति की तुलना राजवंशों में ही होती थी इन वंश की उतपति के बारे में अनेक इतिहासकारो के अनेक विचार है डॉ भण्डारकर का तो कहना है की #खजर नाम की विदेशी जाति से #गुजर नाम की उतपति हुई कनिधम ने इन्हें कुषाणवंशी माना है वी.ए स्मिथ ने इनकी तुलना हूणों में की है ( राज . ई .प्र. जि.प्र. भाग ओझा पेज 133-34) 

लेकिन यह सब बातें आधारहीन है इसने यह कह दिया उसने वह कह दिया -- यह कौई इतिहास का आधार नही होता इतिहास का अर्थ है - इति+हास = ऐसा ही हुआ था जिसमे घटनाओं का सही सही और सटीक वर्णन होता है ।।

श्रीवैद्य में इन्हें पशुपालन ओर कृषि के करने के कारण वैश्य वर्ग में माना है( हिंदू भारत का उत्कर्ष - पृ. 16 ) किंतु यह भी मात्र अनुमान ही है।

नवसारी ( गुजरात ) मे मिले भड़ौच ( गुजरात ) से मिले भड़ौच शाशक ने विक्रम संबत में गुर्जरों को महाराज कर्ण ( महाभारत वाले ) का वंसज अंकित किया है वायु पुराण में कर्ण के पौत्र द्विज का नाम आया है( वायु पुराण 99/112/|| ) इससे यह स्पष्ठ हो जाता है कि महाराज कर्ण का वंश महाभारत के बाद भी चल रहा था।

इससे यह सिद्ध हो जाता है कि गुर्जर ना तो विदेशी थे ओर ना वैश्य यह कर्ण के वंसज चन्द्रवँशी क्षत्रिय ही थे हां ! कर्ण के सुत के घर मे पलने के कारण वह सूतपुत्र कहलाता था संभवतः इसी कारण कर्ण के वसँजो को भी क्षत्रिय जाति में सम्मान नही मिल सका क्यो की कर्ण ने सूतपुत्र कहलाने के अलावा अपने अपराध से भी खुद कों पतित किया था। 

गुर्जरों के कई वंश में इन्हें नृपति वंश भी कहा गया है कर्ण के किसी वंश में गुर्जर होने के कारण यह गुर्जर कहलाये बाद में उसी राजा के नाम पर गुर्जर प्रदेश का नाम पड़ा क्षत्रियों में अपने वंस के नाम पर विस्तार होने के कारण जैसे वह अपने राजा के नाम पर ही अपना विस्तार किया - जैसे शिवि, जोधा

इसी तरह गुर्जरों ने अपने वंश का विस्तार गुर्जर नाम के राजा के नाम पर किया हर्ष चरित्र में प्रभाकर वर्धन के शत्रुओ में गुर्जरों का नाम आया है :- इससे यह तय हो जाता है कि लगभग 661 ईस्वी तक गुर्जर लगातार सत्ता में थे ( हूण हरिण केसरी सिंधुराज्वेगुर्जरप्रजारको गांवारधीचगनः द्वपकुटपालकोलाटपाट व कोटच्चरी मालवा लक्ष्मीलतापृरथू: इतिप्रथितापरनामा प्रभाकरवर्धननोनामगराजधिराजः - हर्षचरित्र पेज संख्या 120 राज ई प्र जि प्र भाग ओझा पेज 156) 

जब प्रतिहार सूर्यवँशी राजपूत की शाखा चावड़ा ने भीनमाल पर आक्रमण कर उसे अपने राज्य में मिलाया था उससे पहले वह गुर्जर राज्य ही था जैसे शकों को परास्त करने के कारण विक्रमादित्य शकारि कहलाये कुशवाहा नागवंशी क्षत्रियों को परास्त करने के कारण कच्छवाहा कहलाये उसी तरह जब प्रतिहारो ने गुर्जरों को परास्त कर दिया उसे बाद गुर्जरधिपति कहलाने लगे और जिस जिस राजपूतों ने अंगराज कर्ण के वंशज गुर्जर की खापो पर विजय प्राप्त की तबतब उन्होने अपने आप को गुर्जरधिपति कहा गुर्जर राजा के नाम पर ही गुर्जरात्रा आठवी सदी तक चल रहा था ।।

नवसारी में  मिले भड़ौच के गुर्जर राजा जयभट्ट तृतीय ने कलचुरी संवत 456 विक्रमं संवत 762 के दानपत्र में खुद को अंगराजकर्ण का वंसज लिखा है कर्ण कब वसँजो में यहां का प्रथम शासक दद था कुछ इतिहासकारों ने दद को प्रतिहारः मान लिया लेकिन यह एकदम गलत है क्यो की दद कर्ण का वंसज था जबकि प्रतिहारः रघुवंशी श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के बंसज है एक दूसरा दद्द हुआ है जो हरिश्चन्द्र प्रतिहारः का पुत्र था जिसकी माता क्षत्राणी भद्रा थी गुर्जर दद खुद राजा नही था जबकि किसी राजा का सामन्त था ।।

बाद में यही कर्ण के वंसज लगातार पराजित होने के कारण ( अरबो ओर राजपूतों से ) खेती बाड़ी के काम मे लग गए और जब इन्होंने अपना मूल काम छोड़ दिया तो यह क्षत्रिय जाति से अलग हो गए बाद में कई राजपूत भी इनके साथ मिल गए ओर गाय चराने का काम करने लगे ओर वे भी गुजर कहलाये इसी कारण गुर्जरों में प्रतिहार्, परमार, यह सब मिल जाते है वास्तव में यह समयदोष के कारण गुजर बने ओर बाद में इन्होंने क्षत्रिय धर्म की कठोरता को त्याग दिया खासकर अरबो के आक्रमण के कारण इस जाति का बहुत विनाश हुआ ओर यह अपनी मूल जाति से अलग हो गए।

अतः गुर्जरों से मेरा तो यही कहना है की आपका स्वयं का इतिहास भी कम गौरवशाली नही है जो अंगराज कर्ण महाभारत में अर्जुन जैसे तपस्वी ओर वीर को टक्कर देता है जिसकी प्रशंसा खुद श्रीकृष्णविष्णु करते है उनके बसँजो को किसी अन्य का इतिहास चुराने की क्या जरूरत है ? दरअसल यह चुराने की परंपरा भी नई नही है ;- अंगराज कर्ण ने भी धोखे से ज्ञान चुराया था यही रीत गुजर भाइयो में आजतक चली आ रही है लेकिन इनकी योग्यता पर संदेह नही किया जा सकता यह वास्तव में बहादुर कौम है ।।

यह तो हुआ गुर्जरवंश का परिचय - आप गुर्जरभाई जाने ओर समस्त जनता जाने की पृथ्वीराज चौहान किस वंश से थे चौहान राजाओ का सम्पूर्ण इतिहास आगले के लेख में आप पेज को लाइक करना ना भूलें ।

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जय राजपूताना। 
जय मां भवानी। 
धर्म क्षत्रिय युगे युगे।