बुधवार, 30 मई 2018

क्षत्रियो की भाषा और संस्कार


बेशक पहन सकती है दुनियाँ…
राजपूतों के कपड़े ओर जेवर…
लेकिन कहाँ से लायेंगे राजपुती ?
और कहाँ से लायेंगे राजपुती तेवर ?

क्षत्रियो की भाषा और संस्कार का आपस में बहुत मेल है....इंसान के बोलने के तरीके से ही पता चल जाता हैं कि उसको कैसे संस्कार मिले हैं...उसको कैसी परवरिश दी गई है ....?

राजपुतो में सृष्टि आरम्भ से ही भाषा की शुद्घता देखी गई है....पधारो सा, जीमो सा....खम्मा घणी सा,जवाई सा,हुकम सा,आप विराजो सा, आप हुकम करो सा जैसे बहुत ही इज्जतदार और अदब के शब्दों को प्रयोग करते आए है....


इसी भाषा से हम दुसरी जातियों और लोगों से अपनी अलग पहचान बनाये हुए हैं....भाषा की ऐसी शुद्धि के कारण ही हमारे संस्कार और संस्कृति दुनियां में उच्च स्थान बनाये हुए हैं ....इसलिए दुनिया हमारे हर रीति -रिवाज और संस्कार सीखने के लिए लालायित रहती है...हमारा बोला गया हर एक लफ्ज अपने आप में इज्ज़त लिए होता है ...

म्हाने राठौडी बोली प्यारी लागे सा 😍या भले पधारो राठौडी रावलो में 🙏 जैसे शब्दो से वो आत्मसंतुष्टि मिलती है जो कही नहीं मिलती....

हमारी राजपुती भाषा में कभी भी औछे शब्द नहीं बोले जाते हैं न ही लिखे या सुने जाते हैं....राजपुतो में एक तुच्छ शब्द पर बडे-बड़े युद्ध हो जाते थे इसका मतलब ये है कि हम अपनी संस्कृति और संस्कार कभी नहीं छोड़ सकते हैं ....


ये मर्यादित सभ्यता-संस्कृति और बोली ही आज हमारी पहचान है कोई तू- तडाक से बात करता है तो लोग फटाक से बोल देते हैं कि राजपूत की संतान नहीं है ये....अदब से बोलना ही हमारी सभ्य और सुसंस्कृत संस्कार रहे है....

संस्कारो से भरी ये भाषा हम कही सीखते नहीं है ये तो हमें परिवार और समाज के वातावरण से विरासत में मिलती आई है जहाँ परिवार और समाज उच्चकुलीन हैं वहाँ भाषा और संस्कार भी बेजोड़ मिलते हैं....

संस्कार और सभ्य भाषा स्कूलों और कालेजों में नहीं सीखाई जा सकती है ये तो हमें अनुवांशिक मिलती है जैसा हम आसपास बोलते हैं वो ही हमारी आदत बन जाती हैं इसके कारण कभी -कभी हमें बडो़ के सामने शर्मिंदा भी होना पडता हैं ....यदि पारिवारिक माहौल और संगत अच्छी न हो...

मित्रो हमारे संस्कार हमारी वाणी और भाषा पर ही निर्भर करते हैं, आज विश्व में हम अपनी पहचान अपने पहनावे और बोलचाल पर ही कायम रखे हुए हैं।

इसलिए हमेशां संस्कारित भाषा का अनुसरण करे...मान -सम्मान के साथ -साथ समाज में बोली भी एक शाख है हमारी, इसे टुटने या गिरने नहीं दे...🙏
जय माँ #भवानी
जय जय #राजपूताना
🔥ठाकुर सचिन चौहान अग्निवंशी🔥
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

इतिहास के पन्नो से

पाबूजी राठौड़ जिन्होंने आधे फेरे धरती पर और आधे फेरे स्वर्ग में लिए ।

पाबूजी राठौड़ का जन्म वि.स. 1313 को कोलू मढ़ में हुआ था, पिता का नाम धाँधलजी राठौड़ था ।देवल चारणी के पास एक केसर कालवी नामक घोड़ी थी ।


पाबूजी राठौड़ ने उनकें पास से 'केसर कालवी' को इस शर्त पर ले आये थे कि जब भी उस पर संकट आएगा वे सब कुछ छोड़कर उसकी रक्षा करने के लिए आयेंगे।

देवल चारणी ने पाबूजी को बताया कि जब भी मुझ पर व मेरे पशु धन पर संकट आएगा तभी यह घोड़ी हिन् हिनाएगी  इसके हिन् हिनाते ही आप मेरे ऊपर संकट समझकर मेरी रक्षा के लिए आ जाना।

पाबूजी महाराज ने रक्षा करने का वचन दिया।

एक बार पाबूजी महाराज अमरकोट के सोढा राणा सूरजमल के यहाँ ठहरे हुए थे।
सोढ़ी राजकुमारी ने जब उस बांके वीर पाबूजी को देखा तो उसके मन में उनसे शादी करने की इच्छा उत्पन्न हुई तथा अपनी सहेलियों के माध्यम से उसने यह प्रस्ताव अपनी माँ के समक्ष रखा।

पाबूजी के समक्ष जब यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होंने राजकुमारी को जबाब भेजा कि 'मेरा सिर तो बिका हुआ है, विधवा बनना है तो विवाह करना।

लेकिन उस वीर ललना का प्रत्युतर था 'जिसके शरीर पर रहने वाला सिर उसका खुद का नहीं ,वह अमर है  उसकी पत्नी को विधवा नहीं बनना पड़ता ! विधवा तो उसको बनना पड़ता है जो पति का साथ छोड़ देती है।

और पाबूजी राठोड़ व् सोढ़ी राजकुमारी का विवाह तय हो गया।
पाबूजी राठोड़ की बारात अमरकोट पहुँची, और विवाह के फेरो के लिए संवरी (मंडप) में पहुँचे।

पाबूजी महाराज ने दो फेरे लिए और जिस समय तीसरा फेरा चल रहा था, ठीक उसी समय केसर कालवी घोड़ी हिन् हिना उठी, चारणी पर संकट आ गया था ।

देवल चारणी ने जींदराव खिंची को केसर कालवी घोड़ी देने से मना कर दिया था !
इसी नाराजगी के कारण उस दिन मौका देखकर जिन्दराव खिंची ने चारणी की गायों को घेर लिया था।

संकट के संकेत "घोड़ी की हिन्-हिनाहट" को सुनते ही वीर पाबूजी विवाह के फेरों को बीच में ही छोड़कर गठ्जोड़े को काट कर !
देवल चारणी को दिए वचन की रक्षा के लिए, देवल चारणी के संकट को दूर करने चल पड़े ।

ब्राह्मण कहता ही रह गया कि अभी तीन ही फेरे हुए है चौथा फेरा अभी बाकी है, पर कर्तव्य मार्ग के उस वीर पाबूजी राठोड़ को तो केवल कर्तव्य की पुकार सुनाई दे रही थी, जिसे सुनकर वह चल दिया।

सुहागरात की इंद्र धनुषीय शय्या के लोभ को ठोकर मार कर ।
रंगारंग के मादक अवसर पर निमंत्रण भरे इशारों की उपेक्षा कर, कंकंण डोरों को बिना खोले ही चल दिए ।

और वो क्रोधित नारदजी के वीणा के तार की तरह झनझनाता हुआ !
भागीरथ के हठ की तरह बल खाता हुआ, उत्तेजित भीष्म की प्रतिज्ञा के समान कठोर होकर केसर कालवी घोड़ी पर सवार होकर वह जिंदराव खिंची से जा भिडे ।

देवल चरणी की गायें छुडवाकर अपने वचन का पालन किया ! किन्तु पाबूजी महाराज वहाँ पर वीर-गति को प्राप्त हो गये ।

इधर सोढ़ी राजकुमारी भी हाथ में नारियल लेकर अपने स्वर्गस्थ पति के साथ शेष फेरे पूरे करने के लिए अग्नि स्नान करके स्वर्ग पलायन कर गई ।

!! इण ओसर परणी नहीं , अजको जुंझ्यो आय !
सखी सजावो साजसह,सुरगां परणू जाय !!
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

देवल माँ भी एक शक्ति थी जिसने अन्याय के विरुद्त लड़ने के लिए पाबूजी को प्रेरित किया था ।

उनके पास जो केसर कालवी घोड़ी थी वो माताजी की जान थी और उसे जिंदराव खिसी के आग्रह करने पर भी माना कर दिया था ।

जिसके कारण वो माताजी से दुश्मनी कर बैठा और बदला लेने के लिए ही गायो को घेरा था ।
और वो ही केसर कालवी घोड़ी पाबूजी राठोड़ द्वारा प्रशंसा करते ही उन्हें सुप्रत कर दी थी ।

रविवार, 27 मई 2018

👑 वीर महाराणा प्रताप सिंह 👑

वीर जयमल राठौड़ का परिचय -

( जन्म - 17 सितम्बर, 1507 ई.
राजघराना - मेड़ता
ये राणा सांगा के भांजे थे।
इस दौरान इनकी उम्र 60 वर्ष थी | महाराणा उदयसिंह ने इनको बदनोर की जागीर प्रदान की थी )

वीर फतेह सिंह चुण्डावत का परिचय -

( राजघराना - केलवा

इन्हें पत्ता या फत्ता के नाम से भी जाना जाता है | इनकी उम्र इस दौरान 15 वर्ष बताई जाती है, जो कि सही नहीं है | इनकी 9 पत्नियां इस वक्त चित्तौड़ दुर्ग में ही थीं, जिससे सिद्ध होता है कि पत्ता चुण्डावत की उम्र ज्यादा रही होगी | ये महाराणा लाखा के पुत्र चूण्डा के वंशज थे )

वीर कल्ला राठौड़ का परिचय -

( ये जयमल राठौड़ व मीराबाई के भतीजे थे | इस दौरान इनकी उम्र 23 वर्ष थी |
महाराणा उदयसिंह ने इनको रनेला की जागीर प्रदान की थी | घोसुण्डा के समीप मुगलों से लड़ते हुए कल्ला राठौड़ ने चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश किया | इनको दुर्ग में प्रवेश करवाने में इनके सेनापति रणधीर सिंह वीरगति को प्राप्त हुए ।)

अकबर ने महाराणा उदयसिंह की खोज करने के लिए बैरम खान के भांजे हुसैन कुली खान को भेजा।

हुसैन कुली खान उदयपुर पहुंचा, उसने उदयपुर में खूब लूटमार की पर महाराणा का कोई पता न चला।

हुसैन कुली खान उदयपुर से कुम्भलगढ़ गया | कुम्भलगढ़ में तैनात कुंवर प्रताप, कुंवर शक्तिसिंह व राव नेताजी से पराजित होकर हुसैन कुली निराश होकर चित्तौड़ पहुंचा |

"चित्तौड़ का तीसरा साका"

1567 ई.

अकबर ने चित्तौड़ घेरे के पहले माह के अन्त में आसफ खान को रामपुरा भेजा | आसफ खान ने रामपुरा दुर्ग पर अधिकार किया व रामपुरा के शासक राव दुर्गा ने बादशाही मातहती कुबूल की |

मांडलगढ़ का युद्ध

आसफ खान और वजीर खान को मांडलगढ़ भेजा गया | मांडलगढ़ में महाराणा उदयसिंह द्वारा नियुक्त राव बल्लु सौलंकी ने वीरगति प्राप्त की | मांडलगढ़ पर मुगलों का अधिकार हुआ |

अकबर के सिपहसालार जिन्होंने चित्तौड़ दुर्ग पर घेरा डाला -
हुसैन कुली खान
आसफ खान
राजा टोडरमल
गाजी खान बदख्शी
अब्दुल्ला खान
राजा भगवानदास
मेहतर खान
मुनीम खान
एेतमद खान
शुजात खान
जमालुद्दीन
मीरमर ओबर
कासिम खान
जान बेग
यार बेग
मिर्जा बिल्लोच
मीरक बहादुर
मुजफ्फर खान
खान आलम
कबीर खान
याजदां कुली
राव परवतदास
मुहम्मद सालिह हयात
इख्तियार खान
काजी अली बगदादी
हसन खान चगताई
शाह अली एशक आगा
जर्द अली तुवाकी
अन्य।

मुगल फौज का सैन्यबल -

60000 सैनिक

80 तोपें

800 बन्दूकें

95 घूमने वाली बन्दूकें

500 से अधिक हाथी।

(अकबर ने हथियारों से युक्त एक हाथी की तुलना 500 घुड़सवारों से की।)

दुर्ग के द्वार खुलवाने या दुर्ग की प्राचीरों को नष्ट करने के लिए अकबर के प्रयास -

पहला प्रयास -

अकबर को तोपें चलाने के लिए मीनार या बुर्ज की आवश्यकता थी, तो उसने एक मगरी बनवाई | इसे बनाने वालों को एक-एक टोकरी मिट्टी के बदले एक-एक स्वर्ण मुद्रा दी गई, इसीलिए इसे "मोहर मगरी" कहते हैं |

मोहर मगरी पर रखी तोपें दुर्ग का कुछ खास नहीं बिगाड़ सकी।

दूसरा प्रयास -

अकबर ने 5000 मुगलों/मजदूरों से दुर्ग की प्राचीर के पास 2 सुरंगें बनवाने का कार्य प्रारम्भ करवाया।

पहली सुरंग में 120 मन व दूसरी सुरंग में 80 मन बारुद भरवाया गया।

राजपूतों की बन्दूकों व तीरों से प्रतिदिन 200 मुगल (बारुद भरने वाले) मारे जाते थे।

17 दिसम्बर, 1567 ई.

सुरंग में बारुद भरते वक्त बारुद फट गया, जिससे लगभग 300 मुगल व 200 मुगल घुड़सवार मारे गए।

अकबर के कुछ खास सिपहसालार, जो बारुद के फटने से मारे गए -

जान बेग
यार बेग
मिर्जा बिल्लोच
याजदां कुली
मुहम्मद सालिह हयात
हयात सुल्तान
शाह अली एशक आगा
जमालुद्दीन
मीरक बहादुर
शेरबाग येसवाल के भाई
व अन्य।

तीसरा प्रयास -

अकबर ने राजा टोडरमल को दुर्ग में जयमल राठौड़ के पास सन्धि प्रस्ताव लेकर भेजा।

सन्धि के अनुसार यदि जयमल राठौड़ दुर्ग अकबर के हवाले कर दे, तो उन्हें फिर से मेड़ता दे दिया जाएगा।

जयमल राठौड़ ने राजा टोडरमल के जरिए कहलवाया कि मैं महाराणा उदयसिंह के आदेशों का पालन करुंगा -

"है गढ़ म्हारौ म्है धणी, असुर फिर किम आण |
कुंच्यां जे चित्रकोट री, दिधी मोहिं दीवाण ||

जयमल लिखे जबाब यूं सुणिए अकबर शाह |
आण फिरै गढ़ उपरा, पड्यो धड़ पातशाह ||"

🚩भाग 1🚩


👑 महाराणा प्रताप 👑

इतने बड़े साम्राज्य में जो छोटा सा स्वतन्त्र क्षेत्र है, वो उदयपुर है | आखिर एेसा क्या हुआ ??? आइये देखते हैं

_______1540 ई.

मेवाड़ पर दासीपुत्र बनवीर का अधिकार था | कुम्भलगढ़ दुर्ग से मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह और मारवाड़ के राव मालदेव की सम्मिलित सेना बनवीर से युद्ध करने रवाना हुई | मावली में हुए इस युद्ध में बनवीर पराजित होकर भाग गया | बनवीर की तरफ से लड़ता हुआ कुंवर सिंह तंवर मारा गया |

एक ओर चित्तौडगढ़ के दुर्ग पर मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह का पुन: अधिकार हुआ, तो दूसरी ओर इसी शुभ घड़ी में 9 मई, 1540 ई. को कुम्भलगढ़ दुर्ग के एक भाग कटारगढ़ में महारानी जयवन्ता बाई के गर्भ से कुंवर प्रताप का जन्म हुआ |

(कुंवर प्रताप का एक जन्म स्थान पाली में भी बताया जाता है, जो कि सही नहीं है।)

इसी वर्ष में महाराणा उदयसिंह की दूसरी पत्नी रानी सज्जा बाई सोलंकिनी के गर्भ से कुंवर शक्तिसिंह का जन्म हुआ |

👸महारानी जयवन्ता बाई👸

ये महाराणा उदयसिंह की पत्नी व मेवाड़ की पटरानी थीं | इनका नाम विवाह से पूर्व जीवन्त कंवर था | ये जालौर के अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री थीं | इन्होंने अपने वैवाहिक जीवन में कईं कष्ट देखे | ये कुंवर प्रताप की आदर्श थीं |

👑महाराणा उदयसिंह👑

इनका जन्म 1522 ई. में हुआ | ये राणा सांगा व रानी कर्णावती के पुत्र थे | इनका आरम्भिक जीवन काफी कष्टप्रद रहा | पन्नाधाय द्वारा इनके लिए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान विश्व प्रसिद्ध है |
पन्नाधाय मेवाड़ के इस भावी राजा को लेकर जगह-जगह भटकी, पर बनवीर के डर से किसी ने इनको शरण नहीं दी | कुम्भलगढ़ में इन्हें शरण मिली और इसी दुर्ग में महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक हुआ | महाराणा उदयसिंह की कुल 22 रानियां, 24 पुत्र, 17 पुत्रियां थीं |

गुरु राघवेन्द्र - ये कुंवर प्रताप व कुंवर शक्ति के गुरु थे |

रानी सज्जा बाई सोलंकिनी - इनके 2 पुत्र थे -

1) कुंवर शक्तिसिंह - बचपन में राज दरबार में चाकू की धार देखने के लिए इन्होंने अपना ही अंगूठा चीर दिया | राजमर्यादा तोड़ने पर महाराणा उदयसिंह ने क्रोधित होकर कुंवर शक्तिसिंह को दरबार से बाहर निकाल दिया | इनके वंशज शक्तावत कहलाए |

2) वीरमदेव - इनके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं| जब महाराणा प्रताप छापामार युद्धों में व्यस्त थे, उस कठिन समय में 15 वर्षों तक वीरमदेव ने महाराणा प्रताप के परिवार की रक्षा की | इनके पास 500 सैनिक हमेशा रहते थे | वीरमदेव ने महाराणा प्रताप के परिवार के किसी भी सदस्य को आंच तक नहीं आने दी| इनको घोसुण्डा की जागीर मिली |

रानी धीर बाई भटियानी -

ये महाराणा उदयसिंह की सबसे प्रिय रानी थीं | ये जैसलमेर के महारावल लूणकरण की पुत्री थीं | इनके 5 पुत्र हुए -

1) कुंवर जगमाल (अकबर का साथ दिया)

2) कुंवर सागर (अकबर व जहांगीर का साथ दिया)

3) कुंवर अगर (जहांगीर का साथ दिया)

4) कुंवर पच्चन

5) कुंवर सिम्हा

1544 ई. गिरीसुमेल का युद्ध

ये युद्ध अफगान बादशाह शेरशाह सूरी और मारवाड़ के राव मालदेव के बीच हुआ | मारवाड़ की पराजय हुई |

जालौर मारवाड़ का हिस्सा था, इसलिए जालौर के अखैराज सोनगरा चौहान (महाराणा प्रताप के नाना) मारवाड़ की ओर से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए |

इसी वर्ष अफगान बादशाह शेरशाह सूरी ने मेवाड़ पर चढ़ाई की | शेरशाह इससे पहले हुमायूं व राव मालदेव को पराजित कर चुका था |

महाराणा उदयसिंह ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए जहांजपुर में शेरशार सूरी के पास चित्तौड़ दुर्ग की चाबियां भिजवा दीं | शेरशाह ने अपने एक सेनापति शम्स खान को चित्तौड़ भेजा | इस तरह महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के राजा तो थे, पर उनके अधिकार सीमित थे |

1545 ई.

संयोग से इस वर्ष कालिंजर दुर्ग में बारूद के फटने से शेरशाह सूरी मारा गया

1549 ई.

शम्स खान ने अपने 1500 सैनिकों के साथ चित्तौड़ पर हमला किया | महाराणा उदयसिंह ने शम्स खान को पराजित किया।

महाराणा प्रताप 1550 ई.
जैसलमेर का अर्द्धसाका

जैसलमेर के शासक महारावल लूणकरण
(रानी धीर बाई भटियानी के पिता) थे...
1551 ई. जैसलमेर महारावल लूणकरण का
देहान्त | इनके पुत्र कुंवर मालदेव हुए,
जो महाराणा प्रताप के बहनोई थे....
कुंवर प्रताप 9-10 वर्ष तक कुम्भलगढ़ में
रहे | फिर चित्तौड़गढ़ में पधारे |
कुंवर प्रताप ने मेड़ता के जयमल राठौड़ से
तलवारबाजी सीखी |
रानी धीरबाई भटियानी को कुंवर प्रताप की
वीरता से ईर्ष्या हुई,

तो महाराणा उदयसिंह ने अपनी प्रिय रानी
की बात मानते हुए कुंवर प्रताप को तलहटी
में रहने के लिए भेज दिया |
इसी तरह कुंवर प्रताप का सम्पर्क भीलों से
हुआ | कुछ समय बाद महारानी जयवन्ता
बाई अपने पुत्र कुंवर प्रताप के साथ दुर्ग के
नीचे स्थित महल में रहने लगीं |
इसी महल के पास भामाशाह भी रहते थे |
कुंवर प्रताप और भामाशाह बचपन के मित्र
थे | 1554 ई. महाराणा उदयसिंह ने
साम्राज्य विस्तार के नजरिये से बूंदी में
हस्तक्षेप करते हुए अपने सामन्त राव सुर्जन
हाडा को भेजा | राव सुर्जन हाडा ने बूंदी के
शासक को पराजित कर वहां अधिकार
किया |

.

रणथम्भौर दुर्ग पर भी राव सुर्जन हाडा का
अधिकार था | 1555 ई. जैताणा का युद्ध
(कुंवर प्रताप का प्रथम युद्ध) महाराणा
उदयसिंह ने डूंगरपुर रावल आसकरण पर
कुंवर प्रताप के नेतृत्व में सेना भेजी |
रावल आसकरण से महाराणा उदयसिंह की
शत्रुता तब से थी, जब आसकरण ने
पन्नाधाय को बनवीर के डर से शरण नहीं दी
ये युद्ध बांसवाड़ा के आसपुर में सोम नदी के
किनारे हुआ |

.

1555 ई.
जैताणा का युद्ध
(कुंवर प्रताप का प्रथम युद्ध)

.

महाराणा उदयसिंह ने डूंगरपुर रावल
आसकरण पर कुंवर प्रताप के नेतृत्व
में सेना भेजी....

.

रावल आसकरण से महाराणा उदयसिंह की
शत्रुता तब से थी, जब आसकरण ने
पन्नाधाय को बनवीर के डर से शरण नहीं दी

.

ये युद्ध बांसवाड़ा के आसपुर में सोम नदी
के किनारे हुआ....
डूंगरपुर के रावल आसकरण ने राणा
सांवलदास को भेजा
राणा सांवलदास का भाई
कर्णसिंह मारा गया...

.

मेवाड़ की ओर से कोठारिया व केलवा के
जग्गा जी वीरगति को प्राप्त हुए |
जग्गा जी के पुत्र पत्ता चुण्डावत हुए,
जिनका हाल मौके पर लिखा जाएगा...

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मेवाड़ की विजय हुई और 15 वर्ष के कुंवर
प्रताप ने वागड़ के बड़े हिस्से पर अधिकार
कर मेवाड़ में मिला लिया....

.

ये कुंवर प्रताप के कुंवरपदे काल
(राज्याभिषेक से पूर्व) की पहली
उपलब्धि थी...

.

कुंवरपदे काल (राज्याभिषेक से पूर्व)
की दूसरी उपलब्धि.....

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कुंवर प्रताप ने छप्पन के राठौड़ों को पराजित कर छप्पन (56 इलाकों का समूह) पर अधिकार कर लिया।

27 जनवरी, 1556 ई.

बादशाह हूमायुं की पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर मृत्यु

मेवाड़-मारवाड़ के बीच टकराव -

इसी वर्ष महाराणा उदयसिंह ने अजमेर को जीतकर मेवाड़ में मिला लिया।

हूमायुं के पुत्र अकबर ने मेवात पर हमला किया, तो मेवात का शासक अफगान हाजी खान मेवाती महाराणा उदयसिंह की शरण में आया

महाराणा उदयसिंह ने हाजी खान को अजमेर में रहने की इजाजत दी

मारवाड़ के राव मालदेव ने अजमेर पर हमला किया

हाजी खान फिर भागकर महाराणा उदयसिंह की शरण में आया

महाराणा उदयसिंह ने हाजी खान की सहायता के लिए बूंदी के राव सुर्जन हाडा, मेड़ता के जयमल राठौड़, रामपुरा के दुर्गा सिसोदिया को भेजा

राव मालदेव बिना युद्ध किए ही लौट गए

इस बीच हाजी खान और महाराणा उदयसिंह का झगड़ा हो गया

हाजी खान इस बार मारवाड़ के राव मालदेव से मिल गया

1557 ई.

24 जनवरी, 1557 ई.
हरमाड़े का युद्ध

हाजी खान के 5000 पठान व राव मालदेव के 1500 सैनिकों की सम्मिलित सेना ने महाराणा उदयसिंह की मेवाड़ी सेना को बुरी तरह पराजित किया

इस युद्ध में जोधपुर के एक राजकुमार डूंगरसिंह मारे गए

इसी वर्ष एक और घटना ने मेवाड़-मारवाड़ के बीच दूरियों को और बढ़ा दिया -

खेरवाड़ा व देलवाड़ा के सामन्त जैतसिंह की पुत्री राव मालदेव की पत्नी थीं

राव मालदेव जैतसिंह की दूसरी पुत्री से भी विवाह करना चाहते थे, परन्तु राव मालदेव की उम्र अधिक होने के कारण जैतसिंह ने मना कर दिया

मारवाड़ जैसी बड़ी रियासत से लड़ना खेरवाड़ा के बस की बात न थी

जैतसिंह ने महाराणा उदयसिंह से सहायता मांगी और अपनी पुत्री वीरबाई झाली का विवाह प्रस्ताव भी रखा

महाराणा उदयसिंह ने विवाह प्रस्ताव स्वीकार कर कुम्भलगढ़ के समीप गुडा नामक स्थान पर विवाह किया

मारवाड़ के राव मालदेव ने कुम्भलगढ़ पर हमला किया, पर उन्हें असफल होकर लौटना पड़ा

(मेवाड़-मारवाड़ की ये जानकारी भवन सिंह राणा की पुस्तक महाराणा प्रताप से ली गई है)

इसी वर्ष महाराणा उदयसिंह ने मीराबाई को चित्तौड़गढ़ बुलाने के लिए ब्राम्हणों को भेजा | मीराबाई सदा - सदा के लिए अपने कान्हा में विलीन हो गईं | मीराबाई कुंवर प्रताप की बड़ी माँ थीं |

इसी वर्ष बिजौलिया के सामन्त राम रख/माम्रख पंवार की पुत्री अजबदे बाई से कुंवर प्रताप का विवाह हुआ

आगे चलकर अजबदे बाई मेवाड़ की महारानी बनीं | महाराणा प्रताप की सभी पत्नियों में उनका सबसे अधिक साथ इन्होंने ही दिया |
अजबदे बाई ने महाराणा प्रताप के लिए अपनी ज्योतिष विद्या से 100 वर्षों का पंचांग बनाया |

अजबदे बाई के गुरु मथुरा के विट्ठल राय जी थे | गोंडवाना की रानी दुर्गावती व आमेर की हीर कंवर ने भी इन्हीं गुरु से शिक्षा प्राप्त की |

गुरु विट्ठल राय जी को कृष्ण भक्ति के कारण मुगल यातनाएं भी सहनीं पड़ी | गोंडवाना की रानी दुर्गावती ने इनको 108 गांव प्रदान किए |

महाराणा उदयसिंह की 22 रानियां/कुंवर प्रताप की विमाताएँ -

1) महारानी जयवन्ता बाई
2) रानी सज्जाबाई सोलंकिनी
3) रानी धीरबाई भटियानी
4) रानी वीरबाई झाली
5) रानी राजबाई सोलंकिनी
6) रानी करमेती बाई राठौड़
7) रानी कंवरबाई राठौड़
8) रानी लखमदे राठौड़
9) रानी बाईजीलाल कंवर राठौड़
10) रानी लक्खाबाई
11) रानी प्यारकंवर राठौड़
12) रानी गनसुखदे बाई चौहान
13) रानी सुहागदे बाई चौहान
14) रानी वीरकंवर
15) रानी लाड़कंवर
16) रानी सैवता बाई खींचण
17) रानी किशनकंवर
18) रानी गोपालदे बाई
19) रानी जीवत कंवर
20) रानी कंवरबाई खींचण
21) रानी लच्छाकंवर
22) रानी लालकंवर पंवार।

महाराणा उदयसिंह की 17 पुत्रियाँ व दामाद/कुंवर प्रताप के बहन व बहनोई -

17 में से कुछ के नाम इस तरह हैं -

1) लिखमीबाई - मारवाड़ से बिगड़े सम्बन्ध सुधारने के लिए महाराणा उदयसिंह ने इनका विवाह मारवाड़ के राव मालदेव से करवा दिया | ये राव मालदेव की 24वीं पत्नी थीं |

2) सूरजदे - इनका विवाह 23 अप्रैल, 1560 ई. को मारवाड़ के राव चन्द्रसेन (राव मालदेव के पुत्र) से हुआ

3) जसवन्तदे - इनका विवाह 1563 ई. में बीकानेर के राजा रायसिंह से हुआ | ये राजा रायसिंह की पहली पत्नी थीं, इसलिए बीकानेर की महारानी हुईं |

4) चैन कंवर - इनका विवाह जैसलमेर के मालदेव से हुआ

5) हर कंवर - इनका विवाह सिरोही के महाराव उदयसिंह से हुआ

6) अमर कंवर - इनका विवाह मारवाड़ के रामसिंह (राव मालदेव के पुत्र) से हुआ

7) बाईजीराज ? - इनका विवाह देलवाड़ा के मानसिंह झाला से हुआ | मानसिंह झाला जैतसिंह के पुत्र व रानी वीरबाई झाली के भाई थे |

8) बाईजीराज ? - इनका विवाह ग्वालियर के शालिवाहन तंवर (राजा रामशाह तंवर के पुत्र) से हुआ

9) बाईजीराज ? - इनका विवाह बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ से हुआ | पृथ्वीराज राठौड़ महारानी जयवन्ता बाई की सगी बहन के पुत्र थे |

महाराणा उदयसिंह के पुत्र -

1) महाराणा प्रताप
2) कुंवर शक्तिसिंह
3) कुंवर वीरमदेव/विक्रम
4) कुंवर जगमाल
5) कुंवर सागरसिंह
6) कुंवर अगर
7) कुंवर पच्चन
8) कुंवर सिम्हा
9) कुंवर मानसिंह
10) कुंवर कान्हा
11) कुंवर कल्याणमल
12) कुंवर लूणकरण सिंह
13) कुंवर शार्दुल सिंह
14) कुंवर सुल्तान सिंह
15) कुंवर महेशदास
16) कुंवर चन्दासिंह
17) कुंवर रुद्रसिंह
18) कुंवर खानसिंह
19) कुंवर नगजसिंह
20) कुंवर साहेब खान
21) कुंवर भवसिंह
22) कुंवर बेरिसाल
23) कुंवर जैतसिंह
24) कुंवर रायसिंह(इस भाग में महाराणा। उदयसिंह द्वारा अकबर के शत्रुओं को शरण देने के बारे में बताया गया है।)

1556-57 ई.

अकबर की पानीपत, जैतारण, अजमेर व नागौर विजय।

पानीपत के युद्ध में हेमचन्द्र (विक्रमादित्य) पराजित हुए व इस विजय से अकबर को 1500 हाथी मिले | मुगलों की तरफ से इस युद्ध का नेतृत्व बैरम खान ने किया |

1558 ई.

बेदला के प्रतापसिंह चौहान (महाराणा प्रताप के ससुर जी) का देहान्त

इनके पुत्र बलभद्र सिंह चौहान बेदला के शासक बने | इन्होंने आगे चलकर महाराणा प्रताप का छापामार युद्धों में साथ दिया |

1559 ई.

अकबर की ग्वालियर विजय।

ग्वालियर के राजा रामशाह तंवर का चित्तौड़ आगमन।

इसी वर्ष 16 मार्च को राजसमन्द के मचीन्द में महाराणा प्रताप व महारानी अजबदे बाई के पुत्र कुंवर अमरसिंह का जन्म हुआ।

इसी वर्ष महाराणा उदयसिंह अपने पौत्र के जन्म की खुशी में एकलिंग जी के दर्शन करने कैलाशपुरी पधारे | लौटते वक्त आहड़ के पास आखेट हेतु पधारे, जहां उनकी भेंट योगी प्रेमगिरी से हुई | महाराणा उदयसिंह ने योगी प्रेमगिरी की सलाह से एक भव्य नगर उदयपुर की स्थापना की | महाराणा उदयसिंह ने यहां एक महल बनवाया, जो मोती महल के नाम से जाना जाता है |

1560 ई.

अकबर ने रणथम्भौर दुर्ग पर सेना भेजी | महाराणा उदयसिंह द्वारा नियुक्त राव सुर्जन हाडा ने दुर्ग पर कब्जा बनाए रखा | अकबर ने बिना सफलता के अपनी फौज वापस बुला ली |

इसी वर्ष अकबर के संरक्षक बैरम खान ने अकबर के खिलाफ बगावत कर दी | बैरम खान ने मेवाड़, बीकानेर, मारवाड़ से मदद मांगी | मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने बैरम खान की सहायता से इनकार किया |

तिलवाड़ा का युद्ध -

अकबर द्वारा बैरम खान की पराजय।

1561 ई.

एक अफगान द्वारा बैरम खान का कत्ल।

इसी वर्ष अकबर ने गागरोन दुर्ग पर कब्जा किया

इसी वर्ष अकबर ने आदम खान को मालवा भेजा

मालवा के बाज बहादुर ने पराजित होने के बाद चित्तौड़ में शरण ली।

(चित्तौड़ के तीसरे साके का ये एक महत्वपूर्ण कारण था)

1562 ई.

अकबर की मेड़ता विजय।

मेड़ता के वीर जयमल राठौड़ का चित्तौड़ आगमन।

इसी वर्ष राव मालदेव का देहान्त हुआ | उनके पुत्र राव चन्द्रसेन मारवाड़ की राजगद्दी पर बैठे |

1563 ई.

महाराणा उदयसिंह की भोमट के राठौड़ों पर विजय।

इस युद्ध में कुंवर प्रताप भी लड़े, लेकिन नेतृत्व महाराणा उदयसिंह ने किया।

1564 ई.

अकबर की गोंडवाना विजय

गोंडवाना की रानी दुर्गावती के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें पराजय मिली

इस विजय से अकबर को 1000 हाथी मिले

इसी वर्ष अकबर ने पूरे हिन्दुस्तान में जजिया कर माफ किया

1565 ई.

महाराणा उदयसिंह द्वारा बाढ़ रुकवाकर उदयसागर झील का निर्माण।

1566 ई.

जेम्स विन्सेट के अनुसार "अकबर ने चित्तौड़ पर अपनी सेना भेजी, पर असफल हुआ"

अगले वर्ष अकबर ने खुद चित्तौड़ पर हमला किया।

भाग - 6.."महाराणा प्रताप"


"चित्तौड़ का तीसरा साका"

1567 ई.

निजामुद्दीन अहमद बख्शी (अकबर का दरबारी लेखक) तबकात-ए-अकबरी में लिखता है। "तकरीबन हिन्दुस्तान के सारे राजा-महाराजाओं ने बादशाही मातहती कुबूल कर ली थी, पर मेवाड़ का राणा उदयसिंह मजबूत किलों और ज्यादा फौज से मगरुर होकर सरकशी (बगावत) करता था"

31 अगस्त, 1567 ई.

इस दिन अकबर ने धौलपुर में पड़ाव डाला, जहां उसकी मुलाकात मेवाड़ के कुंवर शक्तिसिंह से हुई।

इस दौरान प्रसिद्ध इतिहासकार अबुल फजल भी यहीं मौजूद था | अबुल फजल ने शक्तिसिंह का नाम शक्ता लिखा है।

अबुल फजल अकबरनामा में लिखता है "शहंशाह ने धौलपुर में पड़ाव डाला, यहां उनकी मुलाकात राणा उदयसिंह के बेटे शक्ता से हुई | शहंशाह ने शक्ता से कहा कि हम राणा उदयसिंह पर हमला करने जा रहे हैं, तुम भी चलोगे हमारे साथ ? ये सुनते ही शक्ता गुस्से में आकर शहंशाह को कोर्निश (सलाम) किए बगैर ही चला गया"

सितम्बर, 1567 ई.

कुंवर शक्तिसिंह चित्तौड़ आए और महाराणा उदयसिंह को अकबर के हमले की सूचना से अवगत कराया।

महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़ के आस-पास की जमीन को उजाड़ दिया, फसलें खत्म कर दीं, ताकि मुगल सेना को रसद सामग्री ना मिल सके।

अबुल फजल लिखता है "इस दौरान चित्तौड़ में घास तक नहीं बची"

अक्टूबर, 1567 ई.

अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग के समीप पड़ाव डाला व दुर्ग को घेरना शुरु किया।

महाराणा उदयसिंह ने अपने सामन्तों की बात मानते हुए समस्त राजपरिवार व राजकोष के साथ दुर्ग छोड़ने का इरादा किया व दुर्ग की कमाल जयमल-पत्ता के हाथों में सौंपी।

महाराणा उदयसिंह लड़ते हुए दुर्ग से बाहर निकले।

महाराणा व राजपरिवार को दुर्ग से बाहर निकालने में वांकड़ा वीरगति को प्राप्त हुए।

इधर दुर्ग में सेना कम होने के कारण आस-पास के क्षेत्रों से फौरन सेना मंगवाई गई।

मेड़ता के वीर जयमल राठौड़ ने काल्पी के 1000 बक्सरिया बन्दूकची अफगानों को बुलवाया।
(ये लोग बन्दूक चलाने में माहिर थे)

दुर्ग में कुल 5000 राजपूत, 1000 अफगान, तकरीबन 1000 राजपूत क्षत्राणियां, 40000 की प्रजा व शेष अफगानों की पत्नियां व बच्चे थे

23 अक्टूबर, 1567 ई.

अकबर ने चित्तौड़ दुर्ग को घेर लिया।

महाराणा उदयसिंह उदयपुर पहुंचे व उदयपुर से कुम्भलगढ़ पहुंचे।

महाराणा ने कुम्भलगढ़ में कुंवर प्रताप, कुंवर शक्तिसिंह व राव नेताजी को तैनात कर स्वयं राजपरिवार समेत गुजरात की ओर रेवा कांठा पर गोडिल राजपूतों की राजधानी राजपीपला पहुंचे।

यहां के राजा भैरव सिंह ने उनकी बड़ी खातिरदारी की।

महाराणा उदयसिंह यहां 4 माह तक रहे।

गुरुवार, 17 मई 2018

हिन्दू-वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप और बहलोल खां

डरपोक अकबर ने 7 फ़ीट 8 इंची बहलोल खान को भेजा था महाराणा प्रताप का सर लाने, कभी नहीं हारा था बहलोल --------


मुगली अकबर का सबसे खतरनाक वाला एक सेना नायक हुआ . . . नाम - बहलोल खां . . . . कहा जाता है कि हाथी जैसा बदन था इसका . . . और ताक़त का जोर इतना कि नसें फटने को होती थीं . . . ज़ालिम इतना कि तीन दिन के बालक को भी गला रेत-रेत के मार देता था . . . . बशर्ते वो हिन्दू का हो . . . . . एक भी लड़ाई कभी हारा नहीं था अपने पूरे करियर में ये बहलोल खां काफी लम्बा था, 7 फुट 8 इंच की हाइट थी, कहा जाता है की घोडा उसके सामने छोटा लगता था ॥

बहुत चौड़ा और ताकतवर था बहलोल खां, अकबर को बहलोल खां पर खूब नाज था, लूटी हुई औरतों में से बहुत सी बहलोल खां को दे दी जाती थी ॥

फिर हल्दीघाटी का युद्ध हुआ, अकबर और महाराणा प्रताप की सेनाएं आमने सामने थी, अकबर महाराणा प्रताप से बहुत डरता था इसलिए वो खुद इस युद्ध से दूर रहा ॥

अब इसी बहलोल खां को अकबर ने भिड़ा दिया हिन्दू-वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप से . . . . . लड़ाई पूरे जोर पर और मुगलई गंद खा-खा के ताक़त का पहाड़ बने बहलोल खां का आमना-सामना हो गया अपने प्रताप से ॥

अफीम के ख़ुमार में डूबी हुई सुर्ख नशेड़ी आँखों से भगवा अग्नि की लपट सी प्रदीप्त रण के मद में डूबी आँखें टकराईं और जबरदस्त भिडंत शुरू. . . कुछ देर तक तो राणा यूँ ही मज़ाक सा खेलते रहे मुगलिया बिलाव के साथ . . . .
और फिर गुस्से में आ के अपनी तलवार से एक ही वार में घोड़े सहित . . हाथी सरीखे उस नर का पूरा धड़ बिलकुल सीधी लकीर में चीर दिया . . . ऐसा फाड़ा कि बहलोल खां का आधा शरीर इस तरफ और आधा उस तरफ गिरा ॥

ऐसे-ऐसे युद्ध-रत्न उगले हैं सदियों से भगवा चुनरी ओढ़े रण में तांडव रचने वाली मां भारती ने . . . . .!!
⛳🚩जय महाराणा🚩⛳


गुरुवार, 10 मई 2018

क्या आप महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक के बारे में ये बात जानते हैं?

कहते है अरब का व्यापारी महाराणा प्रताप के पास दो घोडे़ लेकर आया था ! व्यापारी ने महाराणा को दोनों घोडों की नस्ल व वफादारी के बारे में बताते हुए दोनों घोडे़ खरीद लेने की विनती की ! पर महाराणा ने अनजान व्यापारी से बडी़ कीमत में घोडे खरीदना उचित नहीं समझा ! व्यापारी भी श्रेष्ठ नस्ल के घोडे़ होने के कारण राणा जी से बार-बार विनती करी ! 


अंत में महाराणा व्यापारी से एक शर्त पर घोडा़ खरीदने को तैयार हो गये कि इन घोडो की वफादारी व समझदारी का एक सबूत पेश करों ! कहते है व्यापारी ने बडे़ घोडे़ को अपने पास बुलाया और उसके चारों पैरों के नीचे पिघला हुआ कांचा (जिसको पिघलाकर कीसी चीज को मजबुती से जोड़ने के काम में लिया जाता था) रखा, ताकि घोडें के चारों पांव जमीन से चिपक जाय ! चारों पांव जमीन से चिपकाकर व्यापारी वहां से दुर चला गया ! फिर दुर से अचानक व्यापारी ने अपने मुंह से इस तरिके से आवाज निकाली जैसे वह कीसी संकट में फंसा हुआ हो ! कहते हैं कि उस व्यापारी की आवाज सुनकर घोडे़ ने अपने स्वामी को संकट में देखकर इतनी जोर से चलांग लगाई कि घोडें के चारों पांव उस कांचे से छिपके हुए रह गये और घोडे़ का धड़ अस्सी-सौ फीट दुर जाकर गिर गया !
ये दृश्य देखकर महाराणा प्रताप के आंखो से अश्रुधारा बहने लगी ! महाराणा प्रताप को बडा़ पश्चाताप हुआ ! फिर महाराणा ने दोनों घोडो़ की कीमत चुकाते हुए छोटा घोडा़ अपने पास रख दिया ! कहते है ये घोडा़ चेतक नाम से इतिहास प्रसिद्ध हुआ, इसी स्वाभीमानी घोडे़ ने महाराणा प्रताप को संकट के समय खुद के घायल होने के बाद भी बडें-बडें नालों को पार करते हुए शत्रुओं से बचाव करते हुए सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया था !

जिसके प्रति महाराणा के विचार थे :-
चेतक था सहयोगी मेरा, प्राणों से भी प्यारा था !
पशु नहीं कोई देवता था, इस भारत का उजियारा था!!⛳🙏

शुक्रवार, 4 मई 2018

जानिये अम्बेडकर की मौत कैसे हुई...!!

महाराजा बच्चू सिंह बहुत अच्छे पायलट थे जिन्होंने एक बार जब इंग्लैंड की महारानी भारत आई थी तो इन्होंने अपने ग्लाइडर में बैठाकर इंडिया गेट के अंदर से उन्हें निकाला था। ऐसा करने वाले वो एकमात्र पायलट थे।

एक बार इंग्लैंड में नेहरू को भी बचाया था। वहां उनको मारने की साजिश थी तो राजा साहब ने नेहरू को अलग जहाज में बैठाकर  भारत ले आये। इसलिए उनके 3 खून माफ हुए और वो अपनी पिस्तौल कही भी ले जा सकते थे।

एक बार वो संसद में बैठे थे तभी नेहरू और अम्बेडकर आये और उनके स्वागत में सब खड़े हो गए।

परन्तु महाराजा बच्चू सिंह अपने स्थान पर बैठे रहे।

अम्बेडकर ने नेहरू से पूछा कि
ये कौन गुस्ताख है ये जो हमारी शान में खडा नहीं हुआ ।

तो नेहरू ने कहा भरतपुर के महाराजा बच्चू सिंह जी हैं ।

तब अम्बेडकर ने महाराजा बच्चू सिंह जी से कहा कि
रस्सी जल गई पर बल नही गया।
रजवाड़े चले गए पर राजपाठ और अकड़ नही गयी ।

इन बातों से आहत होकर महाराजा बच्चू सिंह जी ने पिस्तौल निकाली और भरी संसद में अम्बेडकर को गोली मार दी।

और उसके बाद नेहरू के सीने पर पिस्तौल लगा दी
और कहा
क्यों नेहरू जी मैंने सही किया ना।

तो डरे सहमे नेहरू ने कहा हाँ राजा साहब आपने कोई गलती नही की।

उसके बाद इस बात के तथ्य मिटा दिए गए किसी ने कोई विरोध नही किया कारण था…

एक तो अम्बेडकर का घमंड और दूसरा राजा साहब का डर।
और आज तक सरकार के पास अम्बेडकर की मृत्यु कैसे हुई का कोई सबूत नही है।

परन्तु बात आजादी के बाद की थी तो ये बात आज भी लोगो की जुबान पर मिल जाती है।

👑महाराजा बच्चू सिंह को शत-शत नमन।👑
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

मंगलवार, 1 मई 2018

कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर कर मरा, यह तो सब जानते हैं, लेकिन कैसे?

यह आज हम आपको बताएंगे..

वो वीर महाराणा प्रताप जी का 'चेतक' सबको याद है,
लेकिन 'शुभ्रक' नहीं!


तो मित्रो आज सुनिए कहानी 'शुभ्रक' की......

सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया, और उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।
कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,
जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।

एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई.. और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया। यह तय हुआ कि राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..
.
कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया।

'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया, तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया.. उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए, जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए! इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए..
.
मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए। 'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी.. लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!

राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया, तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।
सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया..

भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं! जबकि फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।

नमन स्वामीभक्त 'शुभ्रक' को.. 🙏

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