बुधवार, 14 नवंबर 2018

महाराजा रणजीत सिंह का इतिहास

🙏 प्रारंभिक जीवन 🙏 

रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 को आधुनिक गुजराती पाकिस्तान में गुजरनवाला में सिखसांसी (खानाबदोश जनजाति) परिवार में हुआ था उस समय पंजाब को बहुत अधिक सिखों ने शासित किया था जिन्होंने मिस्ले नाम से गुटों में विभाजित किया था रणजीत सिंह के पिता महान सिंह सुकरचकिया के मिसालदार (कमांडर मिसल लीडर) थे गुर्जर वाला में उन्होंने अपने मुख्यालय के आसपास स्थित पश्चिम पंजाब में एक क्षेत्र को नियंत्रित किया था।

बचपन में वह चेचक से पीड़ित थे इसके परिणामस्वरूप उनकी बायीं आंख की दृष्टि भी कम हो गई उनकी मां माई राज कौर थी माई राज कौर जींद के राजा की बेटी थी वह माल्वैन नाम से भी जानी जाती थीं जब उनके पिता की मृत्यु हुई तब रणजीत सिंह सिर्फ 12 साल के थे उनके पिता की मृत्यु के बाद रंजीत सिंह को कन्हैया मिसल की सदा कौर ने उठाया था। 18 साल की उम्र में वह सुकरचकिया मिशेल के मिसालदार बने।

एक निडर योद्धा इस महान योद्धा निडर सैनिक समर्थ प्रशासक, ठहराव शासक राजनेता और पंजाब के मुक्तिदाता की 27 जून 1839 को मृत्यु हो गई उनकी समाधि (स्मारक) लाहौर पाकिस्तान में स्थित है कई अभियानों के बाद उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार किया और उन्होंने सिख गुटों को एक राज्य में एकजुट किया उन्होंने 12 अप्रैल 1801 को महाराजा का खिताब लिया 1799 से लाहौर की अपनी राजधानी के रूप में सेवा की।

1802 में उन्होंने पवित्र शहर अमृतसर पर कब्जा कर लिया वह कानून लाये उन्होंने भारत में गैर-धर्मनिरपेक्ष शैली और प्रथा को बंद कर दिया उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के साथ समान रूप से व्यवहार किया उन्होंने भेदभावपूर्ण धार्मिक कर पर प्रतिबंध लगा दिया जो कि जिजा हिंदुओं और सिखों मुसलमान पर मुस्लिम शासकों द्वारा लगाए गए थे।

सभी सैन्यवास से सम्मान रणजीत सिंह के अधिकांश लोग मुस्लिम थे और फिर भी उनके प्रति सभी की गहन निष्ठा थी और वे सिख से सहिष्णुता दिखाते हैं उनके धर्म प्रथाओं और उनके त्योहारों के प्रति सम्मान करते हैं महाराजा रणजीत सिंह यूरोपीय मानकों के लिए अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने वाले पहले एशियाई शासक थे और विभिन्न धर्मों के पुरुषों के साथ अपने दरबार में लीडरशिप पदों को भरने के लिए अच्छी तरह से जाने जाते थे लोगों को उनकी क्षमता पर मान्यता प्राप्त पदोन्नति मिलती थी न कि उनके धर्म पर।

शिव खेड़ा की जीवनी विचार पुस्तकें महाराजा के लिए काम करने वालों द्वारा उन्हें सम्मान प्राप्त होता था सिख साम्राज्य के विदेश मंत्री जो एक मुस्लिम थे फ़क़ीर अज़ीज़ुद्दीन ने ऑकलैंड के पहले अर्ल के ब्रिटिश गवर्नर-जनरल जॉर्ज ईडन के साथ मिलते समय पूछा- महाराजा की कौन सी आँख खराब है।

उन्होंने उत्तर दिया- महाराजा सूरज की तरह है और सूर्य की केवल एक आँख होती है उनकी एक आँख की भव्यता और चमक इतनी है कि मैंने उनकी दूसरी आँख को देखने की हिम्मत कभी नहीं की (महाराजा ने बचपन में चेचक के हमले से एक आँख की दृष्टि खो दी थी एक समय में जब एक व्यक्ति को सत्तारुढ़ से अयोग्य घोषित किया गया था केवल एक आँख की दृष्टि रणजीत सिंह के लिए कोई समस्या नहीं थी जिन्होंने यह टिप्पणी की थी उन्होंने उन्हें अधिक तीव्रता से देखने की क्षमता दी)।

गवर्नर जनरल उनके उत्तर से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने शिमला में अपनी बैठक के दौरान महाराज मंत्री को अपनी सोने की घड़ी दी वे प्रभावी रूप से धर्मनिरपेक्ष थे क्योंकि उन्होंने सिखों को प्राथमिकता नहीं दी थी या मुसलमानों हिंदू या नास्तिकों के खिलाफ भेदभाव नहीं किया था।

यह अपेक्षाकृत आधुनिक थे और एम्पायर के नागरिकों के सभी धर्मों और गैर-धार्मिक परंपराओं के लिए महान सम्मान करते थे साम्राज्य का एकमात्र प्रमुख धार्मिक प्रतीक महाराजा और शाही परिवार सिख (लेकिन खालसा नहीं) थे और सेना में सिख रईसों और खालसा योद्धाओं का वर्चस्व था।

महाराजा ने अपने विषयों पर सिख धर्म को कभी मजबूर नहीं किया यह पिछले मुस्लिम शासकों – अफगानी या मुगल के प्रयासों के जातीय और धार्मिक स्वछता से काफी विपरीत था रणजीत सिंह ने महान राज्य आधारित राज्य बनाया था  जहां सभी ने उनकी पृष्ठभूमि पर ध्यान दिए बिना एक साथ काम किया जहां उनके नागरिकों  धार्मिक मतभेद की बजाय पंजाबी परंपराओं को साझा करते देखा।

मुसलमान और सरकार-ए-खालसा शाह मोहम्मद (पंजाब का एक प्रसिद्ध सूफी कवि) रंजीत सिंह के राज्य के पतन पर जंग नमः  में लिखते हैं: रणजीत सिंह जन्म से योद्धा-राजा थे जिन्होंने देश को अपनी भावना दी थी उन्होंने कश्मीर मुल्तान पेशावर पर विजय प्राप्त की और चम्बा कांगड़ा और जम्मू के सामने उनसे पहले धनुष बनाया उन्होंने अपने प्रदेशों को लद्दाख और चीन तक बढ़ाया और वहां अपना सिक्का लगाया।

शाह मोहम्मद! पचास वर्षों तक उन्होंने संतुष्टि महिमा और शक्ति के साथ शासन किया शाह मोहम्मद के लिए पंजाबी मुसलमान सरकार-ए-खालसा (रणजीत सिंह का सिख राज्य) का हिस्सा बन गए जहां अतीत में वे अफगान अरब, पश्तून, फ़ारसी और तुर्कों पर निर्भर थे जिन्होंने लगातार उनके साथ विश्वासघात किया था।

सुपर 30 के आनन्द कुमार का जीवन परिचय 
महाराजा का सैन्य महाराजा ने एक शक्तिशाली सैन्य मशीन विकसित की जिसने एक व्यापक साम्राज्य का निर्माण किया और इसे शत्रुतापूर्ण और महत्वाकांक्षी पड़ोसियों के बीच बनाए रखा इस साम्राज्य का निर्माण अपनी प्रतिभा का एक परिणाम था वह विरासत में मिली कमजोर शक्ति से लगभग सवारों का एक दल था एक बल जहां हर कोई अपना घोड़ा लाता था और जो भी हथियार वह खरीद सकता था वह बिना किसी के नियमित प्रशिक्षण या संगठन महाराजा ने एशिया की एकमात्र आधुनिक सेना का विकास किया 1880 के दशक में जापानी पुनर्गठन जो कि सतलुज में ब्रिटिश अग्रिम रोकने में सक्षम था उनके सैनिकों को जिसने एक साथ बाँध कर रखा वह उनके नेता के प्रति उनकी निजी वफादारी थी।

गोरिल्ला युद्ध प्रणाली अशांत और अराजक अठारहवीं शताब्दी के दौरान खलसा में अच्छी स्थिति में खड़ी हुई थी लेकिन बदलते समय की ज़रूरतों और एक सुरक्षित राज्य स्थापित करने के लिए रणजीत सिंह की महत्वाकांक्षा के लिए यह अनुपयुक्त थी।

अपने जीवन के शुरुआती दिनों में उन्होंने देखा कि कैसे ब्रिटिश सैनिक अपने व्यवस्थित प्रशिक्षण और उनके अनुशासन के साथ संख्याओं में सबसे ज्यादा भारतीय सेनाओं को पराजित कर चुके थे।

उन्होंने यह भी महसूस किया था कि युद्ध में एक अच्छी तरह से ड्रिलेड पैदल सेना के साथ-साथ तोपखाने भी महत्वपूर्ण थे 1802 में अमृतसर पर कब्जा करने के तुरंत बाद उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से कुछ पालुओं को पैदल सेना के अपने प्लाटूनों को प्रशिक्षित करने के लिए ले लिया।

उन्होंने प्रशिक्षण और रणनीति के ब्रिटिश तरीकों का अध्ययन करने के लिए लुधियाना में अपने कुछ पुरुष भी भेजे। रणजीत सिंह को लाहौर में 12 अप्रैल 1801 को ताज पहनाया गया था 1740 का दशक अराजकता का वर्ष था और शहर में 1745 और 1756 के बीच नौ अलग-अलग राज्यपाल थे स्थानीय सरकार ने आक्रमण और अराजकता कुछ क्षेत्रों में सिखों को नियंत्रित करने के लिए बैंड को नियंत्रित करने की अनुमति दी। 1799 में सभी सिख मिस्त्र (युद्धरत बैंड) एक शाही राजधानी लाहौर से महाराजा रणजीत सिंह द्वारा शासित एक संप्रभु सिख राज्य बनाने के लिए शामिल हो गए थे।

1740 के दशक में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफ़गानों द्वारा अक्सर आक्रमण और स्थानीय सरकार में अराजकता की वजह से लाहौर के नागरिकों के लिए जीवन बहुत असुविधाजनक रहा भंगी मिस्ल मुगल लाहौर पर आक्रमण करने और लूटने के लिए मुट्ठी सिख बैंड था बाद में रणजीत सिंह इस अराजकता में लाभ कर पाए थे उन्होंने अब्दाली के पोते ज़मान शाह को लाहौर और अमृतसर के बीच लड़ाई में पराजित किया अफगान और सिख संघर्षों के अराजकता से रणजीत सिंह के नाम से एक विजयी सिख उभरा जो सिखों को एकजुट करने में सक्षम था और लाहौर पर कब्जा कर लिया जहां उन्होंने सम्राट को ताज पहनाया था।

एलन मस्क का जीवन परिचय 7 जुलाई 1799 को सुकर्चकिया प्रमुख रणजीत सिंह के सिख मिलिशिया लाहौर के कब्जे में थे रणजीत सिंह ने सिख मिशेलियों को संगठित किया जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी के दौरान एक एकीकृत कमान के तहत अधिक या कम सद्भाव पर शासन किया था और 1799 में उन्होंने एक नए सिख राज्य की प्रशासनिक राजधानी के रूप में लाहौर की स्थापना की।

1802 में रणजीत सिंह के सैनिकों के कब्जे के बाद अमृतसर  राज्य का आध्यात्मिक और वाणिज्यिक केंद्र बन गया और महाराजा ने शहर के प्रमुख समूहों के संरक्षण को बढ़ाने के लिए अपने इरादे की घोषणा की लाहौर पाकिस्तान में सम्राट रणजीत सिंह की समाधि है जबकि लाहौर के अधिकतर मुग़ल युग के निर्माण अठारहवीं शताब्दी के अंत तक खंडहर हो गए।

सिखों के तहत पुनर्निर्माण प्रयास सिख समुदाय पर केंद्रित थे क्योंकि शहर में आने वाले कई आगंतुकों ने उल्लेख किया कि : शहर का अधिकांश भाग जीर्णता में था और इसके कई मस्जिदों को लूट लिया गया था और अपवित्रित किया गया था भव्य बादशाह मस्जिद को घोड़े की स्थिरता के रूप में इस्तेमाल किया गया था और सिख तोपखाने रेजिमेंट के लक्ष्य के रूप में मीनार को इस्तेमाल किया जाता था ज्यादातर शहर के मुस्लिम निवासियों ने इस समय के दौरान काफी नुकसान पहुंचाया और इस अवधि को आम तौर पर लाहौर के प्राचीन वास्तुकला के चमत्कारों के विचलन से जोड़ा जाता है।

रणजीत सिंह की मृत्यु 27 जून 1899 को हुई और अंततः उनका शासनकाल समाप्त हो गया उसके बाद उनके बेटे दलित सिंह उनके उत्तराधिकारी बने उन्हें लाहौर में दफनाया गया था और उनकी समाधि अभी भी वहीँ है।

जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

गाथा वीर चौहानों की भाग - 9

 

गाथा वीर चौहानों की आपने आठवें भाग तक पढ़ा था जिसमे राजा अजयराज तक का वर्णन हो चुका है।

अजयराज ने अपने पुत्र अर्णोराज चौहान को गद्दी पर बैठाकर पुष्कर की पवित्र झील के किनारे कठोर तपस्या की अर्णोराज चौहान की अपने समय मे स्थिति बहुत ही सम्मानीय थी उन्हें बिजौलिया शिलालेख में #__महाराजधिराज_परमेश्वर_परमभट्टारक  श्रीमन्नअर्णोराज देवा आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया इससे यह तो स्पष्ठ होता है की अजयराज के पुत्र अर्णोराज अपने समय मे ईश्वर जितने सम्मानीय ओर लोकप्रिय हुए।

अर्णोराज चौहान के समय मुस्लिम तुर्को ने अजेमर पर आक्रमण किया था अर्णोराज का लाहौर तथा गजनियो के तुर्को से संघर्ष तो अजयराज के समय से चला आ रहा था अजयराज चौहान ने भी इस काल मे नागौर की रक्षा अपनी पूरी सैन्य शक्ति के साथ कि थी अर्णोराज के शाशन के आरम्भ में ही मुसलमानी सेना ने अजेमर पर आक्रमण कर दिया।

अर्णोराज ने बहुत ही चतुराई तथा वीरता से तुर्को का सामना किया तथा उन्हें बुरी तरह परास्त किया अजमेर के बाहर बड़े मैदान में यह युद्ध हुआ था यह पूरा मैदान मुसलमानों के शव से भर गया था पूरा मैदान रक्त से लाल हो गया जहां तहां मुस्लिम सेनाओं से शव नजर आते थे अजमेर निवासियों ने इन शवो के दुर्गंध से बचने के लिए  गांव के गांव फूंककर इन शवो को जलाया था राजपूत कभी सेक्युलर नही थे यह तो आज का रिवाज चल पड़ा है की आतंकवादियों के शव को भी धार्मिक सम्मान देकर दफनाया जाता है उन्हें फूंका नही जाता।

इस महान विजय का अजमेर के निवासियों ने बहुत दिनों तक जश्न मनाया ओर उस मैदान से रक्त को साफ कर अर्नोसागर झील का निर्माण किया गया।

अर्णोराज चौहान ने सिंधु नदी से सरस्वती नदी तक चौहान साम्राज्य की पताका भारत मे फहरा दी थी अर्णोराज चौहान ने हरितनक प्रदेश वर्तमान हरियाणा को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था अर्णोराज ने मालवा के शाशक नरवर्मन को भी परास्त कर उसका वध किया।

हरियाणा की विजय का बहुत ही रोमांचक वर्णन इतिहास की पुस्तकों में है अर्णोराज के सेनिको ने पहले दिल्ली विजय की ठानी चाहमान प्रशस्ति के अनुसार दिल्ली के तोमर राजा और अर्णोराज चौहान के बीच घमासान युद्ध हुआ इसमे तोमर शाशको की शक्ति क्षीण पड़ती जा रही थी हरियाणा को जीतने के लिए चौहान सैनिक यमुना नदी के कीचड़ में घुस गए थे जीत का यह विकराल दृश्य देखकर महिलाएं रोने लगीं इस संघर्ष का अंत तब हुआ जब हरियाणा के साथ साथ बुलंदशहर भी चौहानों के कब्जे में आ गया।

गुजरात के चालुक्यों तथा अजेमर के चौहानों का संघर्ष अजयराज के समय से चला आ रहा था अर्णोराज को सिंहासन पर बैठते ही चालुक्यों के विरुद्ध तलवार उठानी पड़ी उस समय चालुक्यों के नरेश सिंहराज जयसिंहः थे परन्तु चालुक्यों के विरुद्ध युद्ध का परिणाम चौहानों के पक्ष में नही आया सिद्धराज जयसिंहः ने अर्णोराज को परास्त तो कर दिया लेकिन अपनी पुत्री का विवाह भी अर्णोराज से कर दिया इस विवाह ने चालुक्यों तथा चौहानों के मतभेदों को कुछ समय तक दूर तो कर दिया लेकिन् यह मधुर संबंध ज़्यादा दिनों तक नही चल सका चालुक्य सिहासन ओर अब कुमारपाल बैठ चुका था और कुमारपाल और अर्णोराज के बीच संघर्ष लगभग चलता ही रहा।

अर्णोराज के जीवन का एक दिन भी शांति से नही गुजरा था लेकिन इस काल मे भी अर्णोराज ने अपने पिता अजयराज की स्मृति में एक भव्य विशाल शिव मंदिर का निर्माण करवाया था पृथ्वीराज विजय के अनुसार अर्णोराज के महारानी सुधावा ( मारवाड़ की राजकुमारी )  से तीन पुत्र हुए गुण और स्वभाव में अर्णोराज के यह तीनों पुत्र ही एक दूसरे से एकदम भिन्न थे अर्णोराज का पहला पुत्र भृगु के पुत्र परशुराम की तरह बहुत ही क्रोध वाला था जिस प्रकार क्रोध में परशुराम ने अपनी माता का वध किया।

उसी प्रकार दुःखद अंत अर्णोराज का हुआ उनके बड़े पुत्र ने ही उनकी हत्या कर दी जयानक ने तो इस घटना का वर्णन नही किया है लेकिन हम्मीर महाकाव्य, सुरताण चरित्र , ओर प्रबंध कोष में इस घटना का उल्लेख है अर्णोराज को मारकर जगदेव गद्दी ओर बैठा लेकिन पितृहत्यारा जगदेव ज़्यादा दिन सत्ता का सुख भोग नही सका उसके छोटे भाई पितृभक्त विग्रजराज चौहान ने उसका वध कर दिया अर्णोराज का दूसरा पुत्र विग्रहराज बहुत ही स्वाभिमानी कुशल तथा वीर योद्धा था।

चौहानों में एक से बढ़कर एक राजा हुए थे पहले राजाओ की तुलना देवताओ से होती थी लेकिन चौहानों के शाशन के बाद लोगो ने देवताओ की तुलना चौहान राजाओ से करनी शुरू कर दी और यह चौहान राजाओ ने जनता पर जबरदस्ती नही थोपा था बल्कि अपने गुण तथा कर्म से यह सम्मान हासिल किया था।

चौहानों के लिए राष्ट्र की रक्षा करना ही राजा तथा सेना दोनो का प्रमुख कर्तव्य होता था मेघातिथि के अनुसार अगर राज्य पर आक्रमण हो रहा हो नरसंघार हो रहा हो और सैनिक मर रहे हो यदि तब राजा नही लड़ता तो उसका सारा यश अंधकार की गहरी खाई में खो जाएगा ।

चौहान राजाओ के समय पुरोहितों का बहुत सम्मान होता था कहा जाता है कि एक बार विग्रजराज चौहान ने अपने पुरोहित की सलाह को वरीयता देते हुए अपने अनुभवी मंत्रियों यहां तक कि बुजुर्ग श्रीधर की भी नही सुनी थी चौहान राजाओ में पुरोहितों की सलाह बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी  चौहान शाशन में पुरोहितों का पद मंत्रियों से कम नही था।

चौहान साम्राज्य को आधुनिक भारत का सबसे विकसित साम्राज्य कह सकते है इस साम्राज्य की महानता का ज्ञात इसी बात से हित है की विभिन्न मंत्रालयों में एक कृषि मंत्रालय भी हुआ करता था जो किसानों की सारी समशाया सुनता तथा उसका निराकरण करता इस कृषि विभाग को उस समय क्षेत्राप कहा जाता था।

आजकल कुछ गुजर खुद को चौहानों  से जोड़ते है जबकि चौहान काल मे राजपूत शब्द आ चुका था चौहान खुद को राजपूत उर्फ़ राजपुत्र कहना पसन्द करते थे वास्तव में आनुवंशिक सेनिको को राजपूत कहा जाता था जो थे राजपरिवार का हिस्सा ही ।

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जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

राजपूतों की मूँछे: आन-बान-शान

।। ॐ जय श्रीराम ।।


मुझे गोली मार सकते हो लेकिन मेरी मूछों को हाथ मत लगाना ।
मूछें हम राजपूतों की आन बान और शान का प्रतीक हैं ।

उपरोक्त शब्द थे दुश्मन से घिरे और घायल हमारे एक सुबेदार साहब के। यूपी के निवासी, लम्बे चौडे शरीर के धनी, श्यामल रंग, चेहरे पर बिखरे चेचक के दाग और गहरी और बड़ी बड़ी कटार नुमा मूछें एक सम्पूर्ण योध्दा।

1971 का युध्द चरम पर था दिसम्बर सात तारीख हमारी प्लाटून पाकिस्तान की तरफ से आ रहे एक सूखे नाले में उतरी जहा से आने वाले पाकिस्तानी टैंको को बरबाद करना हमारा लक्ष्य था । हम चार पाँच लोग नये थे हमें पीछे रखा गया था ।

लेकिन किसी गद्दार के जरिये यह खबर पाकिस्तानियों को लग गई थी और प्लाटून अम्बूस में फंस गयी। नाले के दोनों तरफ उँची पहाड़ियों पर बैठे दुश्मन ने गोलियों की बरसात कर दी।

कुछ शहीद हो गये बाकी बुरी तरह घायल । पीछे वाले कुछ बच निकले।
सबको घेर कर तलाशी शुरू हुयी एक पाकिस्तानी मेजर ने सुबेदार साहब की तलाशी ली तो जेब में राजपूत लिखे कंधा नम्बर मिले।

मेजर ―
" ओह राजपूत..!! "
तुम जानते हो हम हम मुस्लिम जब आगे बढते हैं तो हमें कोई रोक नही सकता।

सुबेदार साहब ― तो तुम्हे यह भी पता होगा कि हम राजपूतों का तो पूरा इतिहास ही खून से लिखा हुआ है । हमारे साथ धोखा हो गया नहीं आमने सामने की लड़ाई होती तो तुम्हे पता चलता कौन आगे बढता है और कौन पीछे।

मेजर ने गुस्से में सुबेदार साहब की मूँछों की तरफ हाथ किया और उसके हाथ को पकड़ कर झटकते हुय बोले तुम मुझे गोली मार सकते हो पर मेरी मुछों को हाथ मत लगाना।

मेजर ने अपने हाथ वापिस खींच लिये ।
घायल अवस्था में उनको कैद करके ले गये और एक साल बाद वो वापिस आये।

आज शायद वो इस दुनियाँ में नही हैं पर मैं सोचता हूँ कि बहादुरी का तब पता चलता है जब मौत इतनी निकट हो और आपके चेहरे पर उसका तनिक भी खोफ ना हो।

🙏।। जय श्री राम ।।🙏
✌।। ⚔ जय राजपूताना ⚔ ।।✌

गुरुवार, 25 अक्टूबर 2018

उत्तर प्रदेश में शस्त्र लाइसेंस आवेदन हेतु वांछित अभिलेख और औपचारिकताएं।


द्वारा:- ठाकुर सचिन चौहान अग्निवंशी


(1.) मूल निवास प्रमाण पत्र की छायाप्रति।

(2.) आधार कार्ड की छायाप्रति।

(3.) वोटर कार्ड अथवा ड्राइविंग लाइसेंस अथवा पासपोर्ट की छायाप्रति।

(4.) पैनकार्ड की छायाप्रति।

(5.) आर्थिक स्थिति हेतु इनकम टैक्स रिटर्न की छायाप्रति अथवा यदि नौकरी कर रहे है तो नियोक्ता द्वारा प्रदत्त वेतनमान पत्र की छायाप्रति।

(6.) शैक्षिक योग्यता का प्रमाण पत्र।

(7.) व्यपार किये जाने का प्रमाण पत्र।

(8.) आयु हेतु जन्म प्रमाण पत्र या हाईस्कूल की सनद की छायाप्रति।

(9.) मुख्य चिकित्साधिकारी द्वारा प्रदत्त स्वास्थ्य प्रमाण पत्र एस-3।

(10.) विवाहित होने पर पत्नी का अनापत्ति शपथ पत्र अथवा अविवाहित होने पर माता का अनापत्ति शपथ पत्र।

(11.) जाति प्रमाण पत्र की छायाप्रति।

(12.) फिंगर प्रिंट शपथ पत्र की छायाप्रति।

(13.) यदि आवेदक वृद्ध अथवा मृतक श्रेणी के अंतर्गत आवेदन कर रहा है तो उसे वारिसान के अनापत्ति शपथ पत्र प्रस्तुत करने होंगे। मृतक का मृत्यु व वारिसान प्रमाण पत्र की छायाप्रति।

(14.) यदि आवेदक अपराध पीड़ित श्रेणी के अंतर्गत आवेदन कर रहा है तो F.I.R. की सत्यापित प्रति प्रस्तुत करनी होगी, जिसमें उसका नाम अथवा गवाह के रूप में होगा तभी आवेदन पत्र स्वीकार किया जा सकता हैं।

(15.) दो गारन्टर के शपथ पत्र मय गारन्टर की आईडी के प्रस्तुत करने होंगे तथा गारन्टर के विरुद्ध कोई आपराधिक वाद नहीं होना चाहिए।

(16.) यदि आवेदक वन सेंचुरी में अथवा वन सेंचुरी के 10 किमी के दायरे में निवास करता हैं तो वन विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त कर प्रस्तुत करना होगा।

(17.) स्वयं के शपथ पत्र की छायाप्रति।

(18.) वृद्ध श्रेणी में आवेदन करने पर संबंधित वृद्ध का अनापत्ति शपथ पत्र प्रस्तुत करना होगा।

(19.) मृतक श्रेणी में आवेदन करने पर शस्त्र जमा करने की रसीद/मूल लाइसेंस।

(20.) प्रतिसार निरीक्षक, पुलिस लाइन से शस्त्र संचालन का एस–1 प्रमाण पत्र।

(21.) एस–2 प्रमाण पत्र।

(22.) आवेदक व्यपारी है तो व्यपार से संबंधित साक्ष्य।

(23) आवेदक उद्यमी है तो उद्यमी से संबंधित साक्ष्य।

नोट :- उपरोक्त अभिलेख तीन प्रतियों में स्वप्रमाणित कर निर्धारित प्रारूप के साथ संलग्न करने होंगे। सभी शपथ पत्र मय फ़ोटो के होने चाहिए।

बुधवार, 24 अक्टूबर 2018

सम्राट पृथ्वीराज चौहान




भारत के प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय, का जन्म गुजरात के अन्हिलवाड़ा नामक स्थान पर दिनांक 7 जून, 1166 ज्येष्ठ कृष्ण 12 विक्रम संवत 1223 को हुआ था।

उनके पिता का सोमेश्वर चौहान और माता का नाम कमला देवी कर्पूरी देवी तंवर था, जो अजमेर के सम्राट थे। कमला देवी की बड़ी बहिन सुर सुन्दरी, कनौज के राजा विजयपाल जयचन्द राठौड़ की पत्नी थी।

पृथ्वीराज के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि पृथ्वीराज बड़े-बड़े राजाओं का घमण्ड खत्म करेगा और कई राजाओं को हराकर दिल्ली पति चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया।

★बाल्यकाल★
जब पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का वि.स. 1234 में देहांत हो गया और 14 वर्ष की आयु में उनका राजतिलक कर उन्हें राजगद्दी पर बिठा दिया। पृथ्वीराज बाल्यावस्था होने के कारण उनकी माता ने प्रधानमंत्री के मास की देखरेख में राज्य का कार्यभार संभाला और पुत्र को ज्ञान दिया। और कुलगुरु आचार्य के सानिध्य में उन्होंने 25 वर्ष की आयु तक 64 कलाओं, 14 विद्याओं और गणित, युद्ध-शास्त्र, तुरंग विद्या, चित्रकला, संगीत, इंद्रजाल, कविता, वाणिज्य, विनय तथा विविध देशो की भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। पृथ्वीराज को शब्द-भेदी धनुर्विद्या उनके गुरू ने देकर आशीर्वाद दिया था कि ‘‘इस शब्द-भेदी बाण-विद्या से तुम विश्व में एक मात्र योद्धा कहलाओगे और धनुर्विद्या में कोई तुम्हारा मुकाबला नहीं कर पाएगा और तुम चक्रवर्ती सम्राट कहलाओगे।’’ इस प्रकार ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के तदनुसारसार पृथ्वीराज ने अपने दरबार के 150 सामंतों के सहयोग से छोटी सी उम्र में दिग्विजय का बीड़ा उठाया और चारों दिशाओं के राजाओं पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बन गया।

★युवावस्था★
पृथ्वीराज को कविता में रूचि थी। उनके दरबार में कश्मीरी पंडित कवि जयानक, विद्यापति गौड़, वणीश्वर जर्नादन, विश्वरूप प्रणभनाथ और पृथ्वी भट्ट जिसे चंद्रबरदायी कहते थे, उच्च कोटि के कवि थे। पत्राचार और बोल-चाल की भाषा संस्कृत थी। उज्जैन और अजमेर के सरस्वती कण्ठ भरण विद्यापीठ से उत्तीर्ण छात्र प्रकाण्ड पण्डित माने जाते थे। पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल तंवर दिल्ली के राजा थे, और उनके कोई संतान नहीं होने के कारण पृथ्वीराज को 1179 में दिल्ली की राजगद्दी मिली। अनंगपाल ने अपने दोहित्र पृथ्वीराज को शास्त्र सम्मत युक्ति के अनुसार उत्तराधिकारी बनाने हेतु अजमेर के प्रधानमंत्री कैमास को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने यह लिखा कि ‘‘मेरी पुत्री का पुत्र पृथ्वीराज 36 कुलों में श्रेष्ठ चौहान वंश का सिरमौर है। मैं वृद्धावस्था के कारण उसे उत्तरदायित्व देकर भगवत् स्मरण को जाना चाहता हॅूं, तद्नुसार व्यवस्था करावें।’’ इस प्रकार हेमन्त ऋतु के आरम्भ में वि.स. 1229 मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी गुरूवार को पृथ्वीराज का दिल्लीपति घोषित करते हुए राजतिलक किया गया। दिल्ली में पृथ्वीराज ने एक किले का निर्माण करवाया जो ‘‘राय पिथौरा किले’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

★विवाह★

प्रथम विवाह - पृथ्वीराज चौहान का प्रथम विवाह बाल्यकाल में ही नाहर राय प्रतिहार परमार की पुत्री से होना निश्चित हो गया था, परन्तु बाद में नाहर राय ने अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज के साथ करने से मना कर दिया। इस पर पृथ्वीराज ने संदेश भिजवाया कि यदि यह विवाह नहीं हुआ तो युद्ध होगा और क्षत्रिय परम्परानुसार हम कन्या का हरण करके विवाह करने को बाध्य होंगे। नाहर राय ने पृथ्वीराज की बात नहीं मानी और दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें नाहर राय की पराजय हुई तथा पृथ्वीराज ने कन्या का हरण कर विवाह किया।

द्वितीय विवाह - पृथ्वीराज का दूसरा विवाह आबू के परमारों के यहां हुआ, राजकुमारी का नाम ‘‘इच्छानी’’ था।

तृतीय विवाह - पृथ्वीराज का तीसरा विवाह चन्दपुण्डीर की पुत्री से हुआ।

चर्तुथ विवाह - पृथ्वीराज का चौथा विवाह दाहिमराज दायमा की पुत्री से हुआ और इसी रानी से पृथ्वीराज को रयणसीदेव पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।

पंचम विवाह - पृथ्वीराज का पांचवा विवाह राजा पदमसेन यादव की पुत्री पदमावती से हुआ। पदमावती एक दिन बाग में विहार कर रही थी, तभी उसने वहाँ पर बैठे हुए एक शुक सुवा तोता को पकड़ लिया। वह सुवा पृथ्वीराज चौहान के राज्य का था और शास्त्रवेता होने के कारण उसकी वाणी पर राजकुमारी मुग्ध हो गई तथा वह शुक को अपने पास रखने लगी। उस शुक ने राजकुमारी को पृथ्वीराज चौहान की वीरता एवं शौर्य की कहानी सुनाई, जिसके कारण राजकुमारी पृथ्वीराज चौहान पर मोहित हो गई तथा उस शुक के साथ ही पृथ्वीराज को यह संदेश भिजवाया कि ‘‘आप कृष्ण की भांति रूकमणी जैसा हरण पर मेरे साथ पाणिग्रहण करो, मैं आपकी भार्या हॅू।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज का पाचवा विवाह हुआ।

षष्ठम् विवाह - पृथ्वीराज चौहान का छठा विवाह देवगिरी के राजा तवनपाल यादव की पुत्री शशिवृता के साथ हुआ। तनवपाल यादव की रानी ने पृथ्वीराज के पास संदेश भिजवाया कि ‘‘हमारी पुत्री शशिवृता ने आपको परिरूप में वरण करने का निश्चिय किया है। उसकी सगाई कन्नोज के राज जयचन्द राठौड़ के भाई वीरचन्द के साथ हुई है, परन्तु कन्या उसे स्वीकार नहीं करती है, अस्तु आप आकर उसका युक्ति-बुद्धि से वरण करें।’’

सप्तम विवाह - पृथ्वीराज का सातवां विवाह सारंगपुर मालवाद्ध के राजा भीम परमार की पुत्री इन्द्रावती के साथ खड़ग विवाह हुआ। जब पृथ्वीराज विवाह हेतु सारंगपुर आ रहे थे, तब दूत से खबर मिली कि पाटण के राजा भोला सालंकी ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया है। यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने अपनी सैन्य शक्ति के साथ चित्तौड़ की ओर प्रयाण किया और सामंतों से मंत्रणा विवाह हेतु अपना खड़ग आमेर के राजा पजवनराय कछवाहा के साथ सारंगपुर भिजवा दिया। निश्चित दिन राजकुमारी इन्द्रावती का पृथ्वीराज के खड़ग से विवाह की रस्म पूरी हुई।

अष्ठम विवाह - कांगड़ के युद्ध के पश्चात जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर की पुत्री के साथ पृथ्वीराज का आठवां विवाह सम्पन्न हुआ।

नवम् विवाह - पृथ्वीराज का नवां विवाह पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की कहानी के रूप में मशहूर है, कन्नोज के राजा जयचन्द राठौड़ की पुत्री संयोगिता थी । संयोगिता अपने मन में पृथ्वीराज को अपना पति मान चुकी थी और उसने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आकर वरण करने का संदेश भिजवाया था। संयोगिता के विवाह हेतु राजा जयचन्द ने स्वयंवर का आयोजन किया था, जिसमें कई राजा-महाराजाओं को निमंत्रित किया गया, लेकिन पृथ्वीराज से मन-मुटाव नाराजगी के कारण उनको निमंत्रण नहीं भिजवाया गया और उपस्थिति के रूप में द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा लगवा दी। स्वयंवर में राजकवि क्रमानुसार उपस्थित राजाओं की विरूदावली बखानते हुए चल रहा था और संयोगिता भी आगे बढ़ती रही। इस प्रकार सभी राजाओं के सामने से गुजरने के बावजूद किसी भी राजा के गले में संयोगिता ने वरमाला पहनाकर अपना पति नहीं चुना और द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में वरमाला डालकर पृथ्वीराज को अपना पति चुन लिया। संयोगिता के इस कृत्य से जयचन्द बहुत क्रोधित हुआ और दूसरी वरमाला संयोगिता के हाथ में देकर पुनः सभी राजाओं की विरूदावलियों के बखान के साथ संयोगिता को स्वयंवर पाण्डाल में घुमाया गया फिर भी संयोगिता ने पृथ्वीराज के गल्ले में ही अपनी वरमाला पहनाकर अपना पति चुना। इस प्रकार यह क्रम तीसरी बार भी चलाया गया और उसका वही परिणाम हुआ। तभी पृथ्वीराज ने जो कि अपने अंगरक्षकों के साथ उसकी प्रतिमा के पास खड़ा था संयोगिता को उठाकर अपने घोड़े पर बिठा लिया और वहां से चल निकला। जयचन्द ने भी अपने सैनिक पृथ्वीराज संयोगिता के पीछे लगा दिए और बीच रास्ते में पृथ्वीराज और जयचन्द के सैनिकों के बीच युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज की विजय हुई और वह संयोगिता को लेकर दिल्ली पहुंच गया। बाद में जयचन्द ने कुल-पुरोहितों को यथोचित भेंट के साथ दिल्ली भिजवाकर पृथ्वीराज और संयोगिता का विधिवत विवाह करवाया और यह संयोगिता के लिए यह संदेश भिजवाया कि ‘‘हे प्यारी पुत्री तुझे वीर चौहान को समर्पित करते हुए दिल्ली नगर में अपनी प्रतिष्ठा दान में अर्पित करता हॅूं।’’

आल्हाखंड में राजकुमारी संयोगिता का अपहरणका वर्णन -

आगे आगे पृथ्वीराज हैं, पाछे चले कनौजीराय।

कबहुंक डोला जैयचंद छिने, कबहुंक पिरथी लेय छिनाय।

जौन शूर छीने डोला को, राखे पांच कोस पर जाय।

कोस पचासक डोला बढ़िगो, बहुतक क्षत्री गये नशाय।

लडत भिडत दोनो दल आवैं, पहुंचे सौरां के मैदान ।

राजा जयचंद नें ललकारो, सुनलो पृथ्वीराज चौहान।

डोला ले जई हौ चोरी से, तुम्हरो चोर कहे हे नाम।

डोला धरि देउ तुम खेतन में, जो जीते सो लय उठाय।

इतनी बात सुनि पिरथी नें , डोला धरो खेत मैदान।

हल्ला हवईगो दोनों दल में, तुरतै चलन लगी तलवार।

झुरमुट हवईग्यो दोनों दल को, कोता खानी चलै कटार।

कोइ कोइ मारे बन्दूकन से, कोइ कोइ देय सेल को घाव।

भाल छूटे नागदौनी के, कहुं कहुं कडाबीन की मारू।

जैयचंद बोले सब क्षत्रीन से, यारो सुन लो कान लगाय।

सदा तुरैया ना बन फुलै, यारों सदा ना सावन होय।

सदा न माना उर में जनि हे, यारों समय ना बारम्बार।

जैसे पात टूटी तरुवर से, गिरी के बहुरि ना लागै डार।

मानुष देही यहु दुर्लभ है, ताते करों सुयश को काम।

लडिकै सन्मुख जो मरिजैहों, ह्वै है जुगन जुगन लो नाम।

झुके सिपाही कनउज वाले, रण में कठिन करै तलवार।

अपन पराओ ना पहिचानै, जिनके मारऊ मारऊ रट लाग।

झुके शूरमा दिल्ली वाले, दोनों हाथ लिये हथियार।

खट खट खट खट तेग बोलै, बोले छपक छपक तलवार।

चले जुन्नबी औ गुजराती, उना चले विलायत वयार।

कठिन लडाई भई डोला पर, तहं बही चली रक्त की धार।

उंचे खाले कायर भागे, औ रण दुलहा चलै पराय।

शूर पैंतीसक पृथीराज के, कनउज बारे दिये गिराय।

एक लाख झुके जैचंद कें, दिल्ली बारे दिये गिराय।

ए॓सो समरा भयो सोरौं में, अंधाधु्ंध चली तलवार।

आठ कोस पर डोला पहुंचै, जीते जंग पिथोरा राय।

पृथ्वीराज द्वारा निम्नलिखित युद्ध किये गए:-

प्रथम युद्ध:- पृथ्वीराज ने प्रथम युद्ध 1235 में अपने प्रधानमंत्री और माता के निर्देशन में चालुक्य भीम द्वारा नागौर पर हमला करने के कारण लड़ा और उसमें विजयी हुए।

दितीय युद्ध:- राज्य सिंहासन पर बैठते ही मात्र 14 वर्ष की आयु में पृथ्वीराज से गुड़गांव पर नागार्जुन ने अधिकार के लिये विद्रोह किया था, उसमें वि.स. 1237 में विजय प्राप्त की।

तृतीय युद्ध:- वि.स. 1239 में अलवर रेवाड़ी, भिवानी आदि क्षेत्रों में मदानकों ने विद्रोह किया, इस विद्रोह को दबाकर विजय प्राप्त की।

चर्तुथ युद्ध:- वि. स. 1239 में ही महोबा के चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव (परिमालद्ध पर आक्रमण कर उस युद्ध में विजय प्राप्त कर उसके राज्य को अपने अधीन किया।

पंचम युद्ध:- कर्नाटक के राजा वीरसेन यादव को जीतने के लिये पृथ्वीराज ने उस पर हमला करके उसे अपने अधीन कर लिया और दक्षिण के सभी राजा इस युद्ध के बाद उसके अधीन हो गए। सब राजाओं ने मिलकर इस विजय पर पृथ्वीराज को कई चीजें भेंट की।

षष्ठम् युद्ध:- पृथ्वीराज ने कांगड़ा नरेश भोटी भान को कहलवाया कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर लें, परन्तु भोटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस कारण पृथ्वीराज ने कांगड़ा पर हमला किया, जिसमें भोटी भान मारा गया। भान के पश्चात उसका साथी वीर पल्हन जो शिशुपाल का वंशज था, एक लाख सवार और एक लाख पैदल सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने आया। इस पर पृथ्वीराज ने मुकाबला करने के लिए जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर को कांगड़ा राज्य का प्रशासन सौंपा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने वीर पल्हन को बन्दी बनाकर कांगड़ा में चौहान राज्य स्थापित किया। बाद में पृथ्वीराज ने हमीर को ही कांगड़ा का राजा बना दिया, जिसने पहले ही पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर रखी थी। हमीर ने अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज से कर पारीवारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच शत्रुता एवं युद्ध:-

मोहम्मद गौरी की चित्ररेखा नामक एक दरबारी गायिका रूपवान एवं सुन्दर स्त्री थी। वह संगीत एवं गान विद्या में निपुण, वीणा वादक, मधुर भाषिणी और बत्तीस गुण लक्षण बहुत सुन्दर नारी थी। शाहबुदीन गौरी का एक कुटुम्बी भाई था ‘‘मीर हुसैन’’ वह शब्दभेदी बाण चलाने वाला, वचनों का पक्का और संगीत का प्रेमी तथा तलवार का धनी था। चित्ररेखा गौरी को बहुत प्रिय थी, किन्तु वह मीर हुसैन को अपना दिल दे चुकी थी और हुसैन भी उस पर मंत्र-मुग्ध था। इस कारण गौरी और हुसैन में अनबन हो गई। गौरी ने हुसैन को कहलवाया कि ‘‘चित्ररेखा तेरे लिये कालस्वरूप है, यदि तुम इससे अलग नहीं रहे तो इसके परिणाम भुगतने होंगें।’’ इसका हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ और वह अनवरत चित्ररेखा से मिलता रहा। इस पर गौरी क्रोधित हुआ और हुसैन को कहलवाया कि वह अपनी जीवन चाहता है तो यह देश छोड़ कर चला जाए, अन्यथा उसे मार दिया जाएगा। इस बात पर हुसैन ने अपी स्त्री, पुत्र आदि एवं चित्ररेखा के साथ अफगानिस्तान को त्यागकर पृथ्वीराज की शरण ली, उस समय पृथ्वीराज नागौर में थे। शरणागत का हाथ पकड़कर सहारा और सुरक्षा देकर पृथ्वी पर धर्म-ध्वजा फहराना हर क्षत्रिय का धर्म होता है। इधर मोहम्मद गौरी ने अपने शिपह-सालार आरिफ खां को मीर हुसैन को मनाकर वापस स्वदेश लाने के लिए भेजा, किन्तु हुसैन ने आरिफ को स्वदेश लौटने से मना कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीराज द्वारा मीर हुसैन को शरण दिये जाने के कारण मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी हो गई।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया। जब-जब भी मोहम्मद गौरी परास्त होता, उससे पृथ्वीराज द्वारा दण्ड-स्वरूप हाथी, घोड़े लेकर छोड़ दिया जाता । मोहम्मद गौरी द्वारा 15वीं बार किये गए हमले में पृथ्वीराज की ओर से पजवनराय कछवाहा लड़े थे तथा उनकी विजय हुई। गौरी ने दण्ड स्वरूप 1000 घोड़ और 15 हाथी देकर अपनी जान बचाई। कैदखाने में पृथ्वीराज ने गौरी को कहा कि ‘‘आप बादशाह कहलाते हैं और बार-बार प्रोढ़ा की भांति मान-मर्दन करवाकर घर लौटते हो। आपने कुरान शरीफ और करीम के कर्म को भी छोड़ दिया है, किन्तु हम अपने क्षात्र धर्म के अनुसार प्रतिज्ञा का पालन करने को प्रतिबद्ध हैं। आपने कछवाहों के सामने रणक्षेत्र में मुंह मोड़कर नीचा देखा है।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने उदारवादी विचारधारा का परिचय देते हुए गौरी को 17 बार क्षमादान दिया। चंद्रवरदाई कवि पृथ्वीराज के यश का बखान करते हुए कहते हैं कि ‘‘हिन्दु धर्म और उसकी परम्परा कितनी उदार है।’’

18वीं बार मोहम्मद गौरी ने और अधिक सैन्य बल के साथ पृथ्वीराज चौहान के राज्य पर हमला किया, तब पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया ही था, इसलिए अधिकतर समय वे संयोगिता के साथ महलों में ही गुजारते थे। उस समय पृथ्वीराज को गौरी की अधिक सशक्त सैन्य शक्ति का अंदाज नहीं था, उन्होंने सोचा पहले कितने ही युद्धों में गौरी को मुंह की खानी पड़ी है, इसलिए इस बार भी उनकी सेना गौरी से मुकाबला कर विजयश्री हासिल कर लेगी। परन्तु गौरी की अपार सैन्य शक्ति एवं पृथ्वीराज की अदूरदर्शिता के कारण गौरी की सेना ने पृथ्वीराज के अधिकतर सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और कई सैनिकों को जख्मी कर दिल्ली महल पर अपना कब्जा जमा कर पृथ्वीराज को बंदी बना दिया। गौरी द्वारा पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया और उनके साथ घोर अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया। गौरी ने यातनास्वरूप पृथ्वीराज की आँखे निकलवा ली और ढ़ाई मन वजनी लोहे की बेड़ियों में जकड़कर एक घायल शेर की भांति कैद में डलवा दिया। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई और हजारों क्षत्राणियों ने पृथ्वीराज की रानियों के साथ अपनी मान-मर्यादा की रक्षा हेतु चितारोहण कर अपने प्राण त्याग दिये।

इधर पृथ्वीराज का राजकवि चन्दबरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया। इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया:-

‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण।

ता ऊपर सुल्तान है, चूके मत चौहान।।’’

अर्थात् :-
चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।

इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया। गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक-दूसरे को कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये। आज भी पृथ्वीराज चौहान और चंद्रवरदाई की अस्थियां एक समाधी के रूप में काबुल में विद्यमान हैं। इस प्रकार भारत के प्रतापी सम्राट का 1192 में अन्त हो गया और फिर हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। चंद्रवरदाई और पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। अपने महान राजा पृथ्वीराज चौहान के सम्मान में रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है। अंततोगत्वा पृथ्वीराज चौहान एक पराजित विजेता कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा।

🚩🙏जय⚔भवानी।🙏🚩
🚩💪जय🎯राजपूताना।✌🚩