*क्यों संकट में है भारतीय संस्कृति व धर्म?*
आज सबसे बड़ा प्रश्न यही है। क्यों हिन्दू समाज संरक्षण के लिए राजनेताओं और न्यायालयों के मुंह ताकता फिरता है?
प्रथम दृष्ट्या हमारे पास यही उत्तर होता है कि *हिन्दू संगठित नही है*।
क्यों संगठित नही है? क्योंकि हमें ब्रिटिशकाल के समय से हमें भाषा, प्रान्त, क्षेत्र, खानपान, जाति में बांटा गया।
*रचना करना विध्वंश से कहीं अधिक बड़ा और कठिन कार्य है।*
इसलिए हमारा या समाज का विघटन करना आसान है और संगठित करना बहुत कठिन। उदाहरण के तौर पर किसी भवन को ले लीजिए निर्माण में वर्षों लग जाएंगे परंतु तोड़ना होतो कुछ ही पल पर्याप्त हैं, तोड़ने में संसाधन भी कम लगेंगे।
इसलिए समाज को तोड़ने वाले वामपंथी, ईसाई और मुल्ले किसी न किसी रूप में हम पर हावी रहे हैं।
*लेकिन शत्रुओं से ज्यादा समस्या हम हिन्दुओ से ही है।*
क्योंकि अगर कोई हिंदुओं को संगठित करने के लिए निःस्वार्थ भाव से आगे आये भी तो उसको हिन्दू ही टांग पकड़ कर नीचे खींच देते हैं।
*हिंदुत्ववादी संगठनों में आपस मे विवाद।*
*एक दूसरे की बुराई व शिकायत करना।*
*छोटी छोटी बातों पर एक दूसरे का विरोध करना।*
*उसे ये पद क्यों और कैसे? और मुझे फलाना पद नही तो मैं कार्य नही करूँगा।*
ये उक्त नैसर्गिक गुण दिखाई देते हैं तथाकथित *हिंदुत्ववादी* लोगों में। अरे भाई! कोई अहसान कर रहे हैं क्या हम-आप समाज के लिए कार्य करके?
मुझे पीड़ा होती हिंदुओं के मानसिक दिवालियापन को देखकर। खासकर उन्हें देखकर जिनके लिए हिन्दू संगठन राजनीति का अखाड़ा हैं अथवा राजनीति में घुसने का एक मार्ग।
हर हिंदुत्ववादी कार्यकर्ता के मन कुछ बातें स्पष्ट होनी चाहिए।
१. *लक्ष्य* - भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करवाना (न कि स्वयं को कोई पद दिलवाना या चुनाव लड़ना)
२. *मार्ग* - त्याग। सब कुछ त्याग कर देने की क्षमता विकसित करना राष्ट्र और धर्म के लिए (न कि एक दूसरे से विवाद करना, शिकायत करना, आपस मे politics खेलना)
३. *आचरण* - धार्मिक होना, धैर्यवान होना, विवेकशील होना, *अनुशासित होना* (न कि पोस्टरबाजी करना, fb/whatsapp डायलॉगबाजी करना)
४. *विचार* - हर समय राष्ट्र की, भारत माता की, सनातन धर्म व संस्कृति के बारे में विचार करना (न कि फलाने ने मेरे बारे में ये कहा, उसने वो किया, किसी को कैसे गिराऊं किसी को कैसे उठाऊं?
*राजनीति का हिन्दुत्वकरण होना था परंतु हिंदुत्व का राजनीतिकरण हो गया* जो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।
आज हर हिन्दू और विशेषतः हिन्दू संगठनों के कार्यकर्तों के कंधे पर बड़ा बोझ है समाज को एक धारा में लाने का उन्हें संगठित करने का।
व्यक्ति भी वही बड़ा बन पाया है जिसने अपने व्यक्तिगत हितों को त्यागकर लोगों को संगठित किया है।
राजनीतिक महत्वकांशा वाले हिन्दू भाइयों को मेरा इतना कि कहना है कि किसी भी सड़क पर चलते व्यक्ति से (या स्वयं से) अपने क्षेत्र के पिछले 5 विधायक सांसदों के नाम पूछिये और भारत के सभी प्रधानमंत्रियों/राष्ट्रपतियों के नाम पूछिये...मेरा दावा है 99% लोग नही बात पाएंगे। यह समाज उसको याद रखता है जिसने समाज को शक्ति दी, संगठित किया। उसी दिशा में हमारा जीवन होना चाहिए। संगठित करना कठिन है परंतु असंभव नही। बहुत त्याग की आवश्यकता है। और सबसे पहले स्वार्थ और अहंकार का त्याग आवश्यक है।
*जय जय श्री राम*
*जय श्री महाकाल*
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