28 सितंबर 1907 सिर्फ एक सामान्य दिन नहीं था, बल्कि भारतीय इतिहास में गौरवमयी दिन के रूप में मशहूर है। अविभाजित भारत की जमीं पर एक ऐसे शख्स का जन्म हुआ जो शायद इतिहास लिखने के लिए ही पैदा हुआ था। जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के गांव बावली में क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। भगत सिंह को जब ये समझ में आने लगा कि उनकी आजादी घर की चारदीवारी तक ही सीमित है तो उन्हें जबरदस्त क्षोभ हुआ। वो बार-बार कहा करते थे कि अंग्रजों से आजादी पाने के लिए हमें याचना की जगह रण करना होगा।
भगत सिंह की सोच उस समय पूरी तरह बदल गई, जिस समय जलियांवाला बाग कांड (13 अप्रैल 1919) हुआ था। बताया जाता है कि अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम से वो इस कद्र व्यथित हुए कि पीड़ितों का दर्द बांटने के लिए 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला पहुंचे। भगत सिंह के बगावती सुर से अंग्रेजी सरकार घबरा चुकी थी। भगत सिंह से छुटकारा पाने के लिए अंग्रेजी सरकार जुगत में जुट गई। अंग्रेजों को सांडर्स हत्याकांड में वो मौका मिला। भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाकर फांसी की सजा सुनाई गई।
फांसी से पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था।
उन्हें यह फिक्र है हरदम, नयी तर्ज-ए-जफा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?
दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्या गिला करें।
सारा जहां अदू सही, आओ! मुकाबला करें।।
इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।
23 मार्च 1931 को जब एक सितारा डूबा
23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी दिए जाने से पहले जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था कि ठहरिये ! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले कि ठीक है अब चलो...
फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।
काकोरी कांड से जब विचलित हुए थे भगत सिंह
काकोरी कांड नें राम प्रसाद बिस्मिल समेत 4 क्रान्तिकारियों को फांसी और 16 क्रांतिकारियों को कारावास की सजा से भगत सिंह बहुत ज्यादा परेशान हो गए। चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और संगठन को नया नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दिया। इस संगठन का मकसद सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान में नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।
भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन
1923 में भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों में उन्होंने कई नाटकों राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया था। वह लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने के लिए नाटकों का मंचन करते थे। भगत सिंह रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रणेता लेनिन के विचारों से काफी प्रभावित थे। भगत सिंह महान क्रांतिकारी होने के साथ विचारक भी थे। उन्होंने लाहौर के सेंट्रल जेल में ही अपना बहुचर्चित निबंध 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लिखा था। इस निबंध में उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति, समाज में फैली असमानता, गरीबी और शोषण के मुद्दे पर तीखे सवाल उठाए थे। स्कूली शिक्षा के दौरान ही भगत सिंह ने यूरोप के कई देशों में तख्ता-पलट और क्रांति के बारे में पढ़ना शुरू किया। उन्होंने नास्तिक क्रांतिकारी विचारकों को पढ़ा और उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारधारा की तरफ होने लगा। भगत सिंह ने बहुत कम उम्र में ही देश-विदेश के साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन कर लिया था। इन्हीं विचारों के बदौलत देश में जब हर ओर राजनीतिक स्वतंत्रता की बात हो रही थी भगत और उनके साथी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता पर भी जोर दे रहे थे।🙏
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