शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

जुझारू संस्कृति का जनक गढ़ कुण्डार।

जुझारू संस्कृति का जनक गढ़ कुण्डार नक्षत्रों में सूर्य सी आभा लिए जुझौती (आधुनिक बुंदेलखंड ) का प्राचीनतम और पवित्रतम दुर्ग, गढ़ कुंडार एक ऐतिहासिक महत्त्व का दुर्ग ही नही बल्कि राष्ट्र धर्म और जुझारू संस्कृति का जनक भी है!अपने एक सह्त्राब्दी के जीवन काल में इस गढ़ ने अनेकानेक राजनैतिक ,सांस्कृतिक और धार्मिक उतार चढाव देखे हैं !चंदेल शासक परमर्दिदेव के शासन काल में गढ़ कुंडार का अस्तित्व जैजाक भुक्ति के एक प्रमुख सैनिक मुख्यालय के रूप में था ! इस सैनिक मुख्यालय में चंदेल शासन के नाम पर प्रशासक सिया परमार और सेनापति खूब सिंह खंगार नियुक्त थे ! इसी समय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा ओं के चलते महोबा के चंदेल और दिल्ली के चौहानों के बीच ठन गई!

११८२ ई० के इस चंदेल चौहान संग्राम में चंदेल सेना की कमान जहाँ प्रसिद्द बनाफर वीर आल्हा उदल ने सम्हाली तो दिल्ली पति प्रथ्वीराज चौहान अपने महापराक्रमी सामंतों और परम मित्र नर नाहर खेत सिंह खंगार सहित समरांगण में मौजूद थे ! बैरागढ़(उरई ) के मैदान में हुए इस घमासान युद्ध में प्रसिद्द बनाफर वीर उदल वीरगति को प्राप्त हुआ चंदेलों की पराजय हुई परमाल ने मैंदान छोड़ कर कालिंजर के किले में शरण ली किंतु भाग्य के धनी प्रथ्वी राज ने विजयोंन्माद में कालिंजर को भी घेर लिया अंततः समझौते की शर्तों के तहत परमाल को कलिन्जराधिपति बने रहने दिया गया ! महोबा जीत लिया गया ! इस युद्ध में चंदेलों की और से प्रशासक सिया परमार भी वीरगति को प्राप्त हुआ युद्ध की समाप्ति पर सेनापति खूब सिंह खंगार अपनी बची खुची सैन्य शक्ति समेत कुंडार लौट आया और कुंडार का प्रशासक बन गया !

इसी युद्ध से आल्हा को भी संसार से विरक्ति हो गई और वह सब कुछ छोड़ कर गुरु गोरख नाथ के साथ चला गया ! वहीं दूसरी और प्रथ्वी राज ने अपनी विजय का श्रेय सोरठाधिपति रा कवाट के पराक्रमी पुत्र खेत सिंह खंगार को दिया और उसकी मातहती में विजित प्रदेश का भूभाग जिसकी सीमा चम्बल से धसान नदी तक थी का अधिपत्य देकर दिल्ली लौट गया ! महोबा नगर का प्रधान चौहान का महासामंत पज्जुन राय नियुक्त हुआ और क्षेत्रधिपति नर नाहर खेत सिंह खंगार ! गढ़ कुंडार में खूब सिंह खंगार के अधिपत्य को जेजाकभुक्ति में खंगार समीकरण बन जाने से मान्यता प्राप्त हो गई और उसे गढ़ कुंडार का आंचलिक शासक बने रहने दिया गया ! किंतु इसी राजनैतिक गहमागहमी के बीच गोंडों ने शक्ति संकलित कर अपने पुराने गढ़ , गढ़ कुंडार हमला बोल दिया चंदेल - चौहान युद्ध की बिभीसिका में झुलसा खूब सिंह खंगार इस हमले के लिए तैयार नही था किंतु युद्ध हुआ खूब सिंह मारा गया और एक लंबे समय बाद गढ़ कुंडार पुनः गोंडों के अधिकार में आ गया ! गोंड अभी अपनी उपलब्धि का जश्न मना भी न पाए थे कि खेत सिंह खंगार ने गोंडों के विरुद्ध अभियान छेड़ कर उन्हें सदा सर्वदा के लिए कुचल कर गढ़ कुंडार पर अधिकार कर लिया कुंडार का यह सैनिक मुख्यालय खेत सिंह को सामरिक द्रष्टिकोण बहुत अधिक जँचा अतः उन्होंने इस जगह भव्य भवन बनाने का निर्णय लिया और यही भवन गढ़ कुंडार नाम से इतिहास में दर्ज महाराज खेत सिंह कि अनुपम रचना है खंगार शासित प्रदेश कि राजधानी का गौरव इसी महामहल को प्राप्त हुआ !

सन ११९२ ई. तराइन युद्ध में प्रथ्विराज कि दुर्भाग्यपूर्ण पराजय से जेजाक भुक्ति का खंगार राज्य अकेला पड़ गया किन्तु यही वह समय था जब खंगार राज्य को अपनी रीति- नीति स्पष्ट करनी थी या तो यवन सल्तनत की या अनवरत संघर्ष का ऐलान ! ऐसे में महाराज खंगार ने इस माटी की अस्मिता को पहिचान कर अनवरत संघर्ष का विगुल फूंक स्वपोषित राज्य को स्वतंत्र हिन्दू खंगार राज्य घोषित कर दिया ! चौतरफा दुश्मनों से घिरे और यवन आक्रमणों के खतरे से निपटने के लिए इस महामहल से जुझारू संस्कृति का जन्म हुआ और कुंडार की वीर धरा पर राष्ट्र धर्म का पौधा रोपा गया जिसने वट वृक्ष का रूप लेकर इस प्रदेश को हमेशा मुसलमान आक्रान्ताओं की आग धार से सुरक्षित रखा ! महाराज खेत सिंह खंगार प्रणीत जुझारू संस्कारों की जननी यह धरा जुझारू संस्कृति के कारण जुझौती प्रदेश के आदरणीय नाम से संबोधित की गयी ! राष्ट्र-धर्म और जुझारू संस्कृति के संस्कार इस वीर प्रसू में आज भी विद्यमान हैं और इन्ही संस्कारों के कारण गढ़ कुंडार ने कभी भी विधर्मी आक्रान्ताओं को जुझौती के पवित्र आँगन में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी और समर में आक्रान्ताओं की सेनाएं कोसों खदेड़ी गयी !

खेत सिंह खंगार के पश्चात् उसके बाहुबली प्रपौत्र खूब सिंह ने गढ़ कुंडार की कीर्ति पताका को ऊँचा किया ! इसके शासन काल में तत्कालीन कड़ा के गवर्नर अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण कि विजय करके जब गढ़ कुंडार की और अपनी बक्रद्रष्टि की तो खूब सिंह खंगार के अप्रितिम शौर्य के आगे न केवल उसे मैदान छोड़ना पड़ा वरन दक्षिण की उस अकूत धन सम्पदा से भी हाँथ धोना पड़ा जो वह वहां से लूटकर लाया था ! लूट की वह सम्पदा गढ़ कुंडार के राजकोष की भेंट चढ़ गई ! खूब सिंह के पश्चात् उसका पुत्र मानसिंह सिंहासनारुढ़ हुआ इसके समय में शरणागत वंश के कुछ असंतुष्ट सरदारों ने जुझौती की अस्मिता का सौदा तुगलक के दिल्ली दरवार में कर डाला गढ़ कुंडार अपने ही सामंतों की गद्दारी से छला गया ! किन्तु जुझारू संस्कृति की पालक पोषक जुझौती की सेनाओं और जनता ने स्त्री-पुरुष ,बच्चों और बूढों सहित हर मोर्चे पर तुगलक की सेना का अपनी तलवारों से स्वागत किया !किन्तु,खड्ग के धनी खंगारों का भाग्य रूपी सूर्य अस्ताचल को चल दिया था!

कुंडार नगर तबाह हो गया किन्तु गढ़ कुंडार के इस महामहल ने झुकना स्वीकार नहीं किया! महाराज मानसिंह खंगार युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए किन्तु समर रुका नहीं छत्र धारण कर उसके पुत्र बरदाई सिंह ने बची खुची सैन्य शक्ति के साथ साका का ऐलान कर जीवन का मोह त्याग पूरे वेग से दुश्मन पर आक्रमण किया राजनैतिक पराजय सुनिश्चित जान गढ़ कुंडार के महामहल में जौहर की आग धधक उठी राजकुमारी केशर दे सहित सभी खंगार वीरांगनाओं और ललनाओं ने राष्ट्र धर्म के परिपालन में जौहर की यज्ञाग्नि में अपनी देह की आहुति देकर गढ़ कुंडार के सदा ही उन्नत भाल को झुकने नहीं दिया ! दुश्मन तुगलक के आदेश से पूरा नगर ध्वस्त कर दिया गया सिर्फ यह महामहल शेष रहा जो बलिदान की इस पराकाष्ठा को याद कर कभी गौरवान्वित होता है तो कभी स्वतंत्र भारत में अपनी उपेक्षा पर आंसू बहता है!

गढ़ कुंडार और उसके प्रिय खंगार वीरों का सम्मान और सत्य पश्चात्वर्ती शासकों की इर्ष्या की भेंट चढ़ा और किवदंतियो का पुलिंदा बनता रहा जहाँ न केवल पीढियो से इसके शौर्य को छुपाया गया बल्कि इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को फाड़ने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई ! स्वतंत्र भारत की सरकारों के सामने गढ़ कुंडार एक मात्र प्रश्न लिए खड़ा है ,-क्या यवनों से अंग्रेजो तक विधर्मियों के दांत खट्टे करने वाला यह गढ़ और इसके पुजारी जुझारू संस्कारों और राष्ट्र धर्म से प्रेम करने की सजा पा रहे हैं ?🙏

जुझारू संस्कृति का जनक गढ़ कुण्डार नक्षत्रों में सूर्य सी आभा लिए जुझौती (आधुनिक बुंदेलखंड ) का प्राचीनतम और पवित्रतम दुर्ग, गढ़ कुंडार एक ऐतिहासिक महत्त्व का दुर्ग ही नही बल्कि राष्ट्र धर्म और जुझारू संस्कृति का जनक भी है!अपने एक सह्त्राब्दी के जीवन काल में इस गढ़ ने अनेकानेक राजनैतिक ,सांस्कृतिक और धार्मिक उतार चढाव देखे हैं !चंदेल शासक परमर्दिदेव के शासन काल में गढ़ कुंडार का अस्तित्व जैजाक भुक्ति के एक प्रमुख सैनिक मुख्यालय के रूप में था ! इस सैनिक मुख्यालय में चंदेल शासन के नाम पर प्रशासक सिया परमार और सेनापति खूब सिंह खंगार नियुक्त थे ! इसी समय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा ओं के चलते महोबा के चंदेल और दिल्ली के चौहानों के बीच ठन गई!

११८२ ई० के इस चंदेल चौहान संग्राम में चंदेल सेना की कमान जहाँ प्रसिद्द बनाफर वीर आल्हा उदल ने सम्हाली तो दिल्ली पति प्रथ्वीराज चौहान अपने महापराक्रमी सामंतों और परम मित्र नर नाहर खेत सिंह खंगार सहित समरांगण में मौजूद थे ! बैरागढ़(उरई ) के मैदान में हुए इस घमासान युद्ध में प्रसिद्द बनाफर वीर उदल वीरगति को प्राप्त हुआ चंदेलों की पराजय हुई परमाल ने मैंदान छोड़ कर कालिंजर के किले में शरण ली किंतु भाग्य के धनी प्रथ्वी राज ने विजयोंन्माद में कालिंजर को भी घेर लिया अंततः समझौते की शर्तों के तहत परमाल को कलिन्जराधिपति बने रहने दिया गया ! महोबा जीत लिया गया ! इस युद्ध में चंदेलों की और से प्रशासक सिया परमार भी वीरगति को प्राप्त हुआ युद्ध की समाप्ति पर सेनापति खूब सिंह खंगार अपनी बची खुची सैन्य शक्ति समेत कुंडार लौट आया और कुंडार का प्रशासक बन गया !

इसी युद्ध से आल्हा को भी संसार से विरक्ति हो गई और वह सब कुछ छोड़ कर गुरु गोरख नाथ के साथ चला गया ! वहीं दूसरी और प्रथ्वी राज ने अपनी विजय का श्रेय सोरठाधिपति रा कवाट के पराक्रमी पुत्र खेत सिंह खंगार को दिया और उसकी मातहती में विजित प्रदेश का भूभाग जिसकी सीमा चम्बल से धसान नदी तक थी का अधिपत्य देकर दिल्ली लौट गया ! महोबा नगर का प्रधान चौहान का महासामंत पज्जुन राय नियुक्त हुआ और क्षेत्रधिपति नर नाहर खेत सिंह खंगार ! गढ़ कुंडार में खूब सिंह खंगार के अधिपत्य को जेजाकभुक्ति में खंगार समीकरण बन जाने से मान्यता प्राप्त हो गई और उसे गढ़ कुंडार का आंचलिक शासक बने रहने दिया गया ! किंतु इसी राजनैतिक गहमागहमी के बीच गोंडों ने शक्ति संकलित कर अपने पुराने गढ़ , गढ़ कुंडार हमला बोल दिया चंदेल - चौहान युद्ध की बिभीसिका में झुलसा खूब सिंह खंगार इस हमले के लिए तैयार नही था किंतु युद्ध हुआ खूब सिंह मारा गया और एक लंबे समय बाद गढ़ कुंडार पुनः गोंडों के अधिकार में आ गया ! गोंड अभी अपनी उपलब्धि का जश्न मना भी न पाए थे कि खेत सिंह खंगार ने गोंडों के विरुद्ध अभियान छेड़ कर उन्हें सदा सर्वदा के लिए कुचल कर गढ़ कुंडार पर अधिकार कर लिया कुंडार का यह सैनिक मुख्यालय खेत सिंह को सामरिक द्रष्टिकोण बहुत अधिक जँचा अतः उन्होंने इस जगह भव्य भवन बनाने का निर्णय लिया और यही भवन गढ़ कुंडार नाम से इतिहास में दर्ज महाराज खेत सिंह कि अनुपम रचना है खंगार शासित प्रदेश कि राजधानी का गौरव इसी महामहल को प्राप्त हुआ !

सन ११९२ ई. तराइन युद्ध में प्रथ्विराज कि दुर्भाग्यपूर्ण पराजय से जेजाक भुक्ति का खंगार राज्य अकेला पड़ गया किन्तु यही वह समय था जब खंगार राज्य को अपनी रीति- नीति स्पष्ट करनी थी या तो यवन सल्तनत की या अनवरत संघर्ष का ऐलान ! ऐसे में महाराज खंगार ने इस माटी की अस्मिता को पहिचान कर अनवरत संघर्ष का विगुल फूंक स्वपोषित राज्य को स्वतंत्र हिन्दू खंगार राज्य घोषित कर दिया ! चौतरफा दुश्मनों से घिरे और यवन आक्रमणों के खतरे से निपटने के लिए इस महामहल से जुझारू संस्कृति का जन्म हुआ और कुंडार की वीर धरा पर राष्ट्र धर्म का पौधा रोपा गया जिसने वट वृक्ष का रूप लेकर इस प्रदेश को हमेशा मुसलमान आक्रान्ताओं की आग धार से सुरक्षित रखा ! महाराज खेत सिंह खंगार प्रणीत जुझारू संस्कारों की जननी यह धरा जुझारू संस्कृति के कारण जुझौती प्रदेश के आदरणीय नाम से संबोधित की गयी ! राष्ट्र-धर्म और जुझारू संस्कृति के संस्कार इस वीर प्रसू में आज भी विद्यमान हैं और इन्ही संस्कारों के कारण गढ़ कुंडार ने कभी भी विधर्मी आक्रान्ताओं को जुझौती के पवित्र आँगन में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी और समर में आक्रान्ताओं की सेनाएं कोसों खदेड़ी गयी !

खेत सिंह खंगार के पश्चात् उसके बाहुबली प्रपौत्र खूब सिंह ने गढ़ कुंडार की कीर्ति पताका को ऊँचा किया ! इसके शासन काल में तत्कालीन कड़ा के गवर्नर अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण कि विजय करके जब गढ़ कुंडार की और अपनी बक्रद्रष्टि की तो खूब सिंह खंगार के अप्रितिम शौर्य के आगे न केवल उसे मैदान छोड़ना पड़ा वरन दक्षिण की उस अकूत धन सम्पदा से भी हाँथ धोना पड़ा जो वह वहां से लूटकर लाया था ! लूट की वह सम्पदा गढ़ कुंडार के राजकोष की भेंट चढ़ गई ! खूब सिंह के पश्चात् उसका पुत्र मानसिंह सिंहासनारुढ़ हुआ इसके समय में शरणागत वंश के कुछ असंतुष्ट सरदारों ने जुझौती की अस्मिता का सौदा तुगलक के दिल्ली दरवार में कर डाला गढ़ कुंडार अपने ही सामंतों की गद्दारी से छला गया ! किन्तु जुझारू संस्कृति की पालक पोषक जुझौती की सेनाओं और जनता ने स्त्री-पुरुष ,बच्चों और बूढों सहित हर मोर्चे पर तुगलक की सेना का अपनी तलवारों से स्वागत किया !किन्तु,खड्ग के धनी खंगारों का भाग्य रूपी सूर्य अस्ताचल को चल दिया था!

कुंडार नगर तबाह हो गया किन्तु गढ़ कुंडार के इस महामहल ने झुकना स्वीकार नहीं किया! महाराज मानसिंह खंगार युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए किन्तु समर रुका नहीं छत्र धारण कर उसके पुत्र बरदाई सिंह ने बची खुची सैन्य शक्ति के साथ साका का ऐलान कर जीवन का मोह त्याग पूरे वेग से दुश्मन पर आक्रमण किया राजनैतिक पराजय सुनिश्चित जान गढ़ कुंडार के महामहल में जौहर की आग धधक उठी राजकुमारी केशर दे सहित सभी खंगार वीरांगनाओं और ललनाओं ने राष्ट्र धर्म के परिपालन में जौहर की यज्ञाग्नि में अपनी देह की आहुति देकर गढ़ कुंडार के सदा ही उन्नत भाल को झुकने नहीं दिया ! दुश्मन तुगलक के आदेश से पूरा नगर ध्वस्त कर दिया गया सिर्फ यह महामहल शेष रहा जो बलिदान की इस पराकाष्ठा को याद कर कभी गौरवान्वित होता है तो कभी स्वतंत्र भारत में अपनी उपेक्षा पर आंसू बहता है!

गढ़ कुंडार और उसके प्रिय खंगार वीरों का सम्मान और सत्य पश्चात्वर्ती शासकों की इर्ष्या की भेंट चढ़ा और किवदंतियो का पुलिंदा बनता रहा जहाँ न केवल पीढियो से इसके शौर्य को छुपाया गया बल्कि इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को फाड़ने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई ! स्वतंत्र भारत की सरकारों के सामने गढ़ कुंडार एक मात्र प्रश्न लिए खड़ा है ,-क्या यवनों से अंग्रेजो तक विधर्मियों के दांत खट्टे करने वाला यह गढ़ और इसके पुजारी जुझारू संस्कारों और राष्ट्र धर्म से प्रेम करने की सजा पा रहे हैं ?

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

भगत सिंह से यूं ही नहीं डरते थे अंग्रेज, उनके तेवर ही ऐसे थे।

28 सितंबर 1907 सिर्फ एक सामान्य दिन नहीं था, बल्कि भारतीय इतिहास में गौरवमयी दिन के रूप में मशहूर है। अविभाजित भारत की जमीं पर एक ऐसे शख्स का जन्म हुआ जो शायद इतिहास लिखने के लिए ही पैदा हुआ था। जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के गांव बावली में क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। भगत सिंह को जब ये समझ में आने लगा कि उनकी आजादी घर की चारदीवारी तक ही सीमित है तो उन्हें जबरदस्त क्षोभ हुआ। वो बार-बार कहा करते थे कि अंग्रजों से आजादी पाने के लिए हमें याचना की जगह रण करना होगा।

भगत सिंह की सोच उस समय पूरी तरह बदल गई, जिस समय जलियांवाला बाग कांड (13 अप्रैल 1919) हुआ था। बताया जाता है कि अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम से वो इस कद्र व्यथित हुए कि पीड़ितों का दर्द बांटने के लिए 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला पहुंचे। भगत सिंह के बगावती सुर से अंग्रेजी सरकार घबरा चुकी थी। भगत सिंह से छुटकारा पाने के लिए अंग्रेजी सरकार जुगत में जुट गई। अंग्रेजों को सांडर्स हत्याकांड में वो मौका मिला। भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाकर फांसी की सजा सुनाई गई। 

फांसी से पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था।

उन्हें यह फिक्र है हरदम, नयी तर्ज-ए-जफा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?

दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्या गिला करें।
सारा जहां अदू सही, आओ! मुकाबला करें।।

इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।

23 मार्च 1931 को जब एक सितारा डूबा

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी दिए जाने से पहले जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था कि ठहरिये ! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले कि ठीक है अब चलो...

फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे 

मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।

काकोरी कांड से जब विचलित हुए थे भगत सिंह

काकोरी कांड नें राम प्रसाद बिस्मिल समेत 4 क्रान्तिकारियों को फांसी और 16 क्रांतिकारियों को कारावास की सजा से भगत सिंह बहुत ज्यादा परेशान हो गए। चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और संगठन को नया नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दिया। इस संगठन का मकसद सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान में नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन

1923 में भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों में उन्होंने कई नाटकों राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया था। वह लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने के लिए नाटकों का मंचन करते थे। भगत सिंह रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रणेता लेनिन के विचारों से काफी प्रभावित थे। भगत सिंह महान क्रांतिकारी होने के साथ विचारक भी थे। उन्होंने लाहौर के सेंट्रल जेल में ही अपना बहुचर्चित निबंध  'मैं नास्तिक क्यों हूं' लिखा था। इस निबंध में उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति, समाज में फैली असमानता, गरीबी और शोषण के मुद्दे पर तीखे सवाल उठाए थे। स्कूली शिक्षा के दौरान ही भगत सिंह ने यूरोप के कई देशों में तख्ता-पलट और क्रांति के बारे में पढ़ना शुरू किया। उन्होंने नास्तिक क्रांतिकारी विचारकों को पढ़ा और उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारधारा की तरफ होने लगा। भगत सिंह ने बहुत कम उम्र में ही देश-विदेश के साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन कर लिया था। इन्हीं विचारों के बदौलत देश में जब हर ओर राजनीतिक स्वतंत्रता की बात हो रही थी भगत और उनके साथी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता पर भी जोर दे रहे थे।🙏
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रविवार, 24 सितंबर 2017

खँगार और गढ़कुँडार

खँगार और गढ़कुँडार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश : –

इस पुस्तक में बुंदेलखंड के इतिहास का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इतिहास का जितना संबंध इस कहानी से है, बहुत संक्षेप में केवल उसी का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा।

परिचय: –

इस उपन्यास की घटनाओं के परिचय के लिए और कुछ लिखने की आवश्यकता न होती, परंतु इसमें यत्र-तत्र तत्कालीन इतिहास की चर्चा है, इसलिए यहाँ थोड़ा-सा परिचय देने की आवश्यकता जान पड़ी। बुंदेलखंड के इतिहास का संक्षेप में भी यहाँ वर्णन करना अभीष्ट नहीं है। इतिहास का जितना संबंध इस कहानी से है, बहुत संक्षेप में केवल उसी का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा। 

पहले यहाँ गोंडों का राज्य था, परंतु उनके मंडलेश्वर या सम्राट पाटलिपुत्र और पश्चात् प्रयाग के मौर्य हुए। जब मौर्य क्षीण हो गए, तब पड़िहारों का राज्य हुआ, परंतु उनकी राजधानी मऊ सहानिया हुई, जो नौगाँव छावनी से पूर्व में लगभग तीन मील दूर है। आठवीं शताब्दी के लगभग चंदेलों का उदय खजुराहो और मनियागढ़ के निकट हुआ और उनके राज्य-काल में जुझौति (आधुनिक बुंदेलखंड) आश्चर्यपूर्ण श्री और गौरव को प्राप्त हुआ। सन् 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने अंतिम चंदेलराजा परमर्दिदेव (परमाल) को पहूज नदी के सिरसागढ़ पर हराकर चंदेल-गौरव को सदा के लिए अस्त कर दिया।
इसके बाद सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान स्वयं शहाबुद्दीन गोरी से पराजित खेतसिंह खंगार के हाथ में था। वह 1192 के बाद स्वतंत्र हो गया, और खंगारों के हाथ में जुझौति का अधिकांश भाग अस्सी वर्ष के लगभग रहा। 

इस बीच में मुसलमानों के कई हमले जुझौति पर हुए, परंतु दीर्घ काल तक कभी भी यह प्रदेश मुसलामानों की अधीनता में नहीं रहा। कुंडार का अंतिम खंगार राजा हुरमतसिंह था। उसकी अधीनता में कुछ बुंदेले सरदार भी थे। सोहनपाल के भाई, माहौनी के अधिकारी भी ऐसे ही सरदारों में थे। सोहनपाल के साथ उनके भाई ने न्यायोचित बरताव नहीं किया था, इसलिए उनको कुंडार-राजा से सहायता की याचना करनी पड़ी। उनका विश्वस्त साथी धीर प्रधान नाम का एक कायस्थ था। धीर प्रधान का एक मित्र विष्णुदत्त पांडे उस समय कुंडार में था। पांडे बहुत बड़ा साहूकार था। उसका लाखों रुपया ऋण हुरमतसिंह पर था-शायद पहले से पांडे घराने का ऋण खंगार राजाओं पर चला आता हो। धीरे प्रधान अपने मित्र विष्णुदत्त पांडे के पास अपने स्वामी सोहनपाल का अभीष्ट सिद्ध करने के लिए गया। हुरमतसिंह अपने लड़के नागदेव के साथ सोहनपाल की कन्या का विवाह-संबंध चाहता था। यह बुंदेलों को स्वीकार न हुआ। उसी जमाने में सोहनपाल स्वयं सकुटुंब कुंडार गए। हुरमतसिंह के पुत्र ने उनकी लड़की को जबरदस्ती पकड़ना चाहा। परंतु यह प्रयत्न विफल हुआ। इसके पश्चात् जब बुंदेलों ने देखा कि उनकी अवस्था और किसी तरह नहीं सुधर सकती, तब उन्होंने खंगार राजा के पास संवाद भेजा कि लड़की देने को तैयार हैं; साथ ही विवाह की रीति-रस्म भी खंगारों की विधि के अनुसार ही बरती जाने की हामी भर दी। खंगार इसको चाहते ही थे। मद्यपान का उनमें अधिकता के साथ प्रचार था। 

विवाह के पहले एक जलसा हुआ। खंगारों ने उसमें खूब शराब ढाली। मदमत्त होकर नशे में चूर हो गए। तब बुंदेलों ने उनका नाश कर दिया। यह घटना सन् 1228 (संवत् 1345) की बतलाई जाती है। बुंदेलों के पहले राजा सोहनपाल हुए। उनका देहांत सन् 1299 में हो गया। उनके बाद राजा सहजेंद्र हुए और उन्होंने सन् 1326 तक राज्य किया। इस प्रकार बुंदेले कुंडार में अपनी राजधानी सन् 1507 तक बनाए रहे। सन् 1507 में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप ने ओरछे को बसाकर अपनी राजधानी ओरछे में कायम कर ली। 

सहजेंद्र की राज्य-प्राप्ति में करेरा के पँवार सरदार पुण्यलाल ने सहायता की थी। इसके उपलक्ष्य में सहजेंद्र की बहिन, जिसका नाम उपन्यास में हेमवती बतलाया गया है, और राज्य के भाट के कथनानुसार रूपकुमारी था, पँवार सरदार को ब्याह दी गई। 
उपन्यास में जितने वर्णित चरित्र इतिहास-प्रसिद्ध हैं, उनका नाम ऊपर आ गया है। मूल घटना भी एक ऐतिहासिक सत्य है, परंतु खंगारों के विनाश के कुछ कारणों में थोड़ा-सा मतभेद है। 
बुंदेलों का कहना है कि कुंडार का खंगार राजा हुरमतसिंह जबरदस्ती और पैशाचिक उपाय से बुंदेला-कुमारी का अपहरण युवराज नागदेव के लिए करना चाहता था। खंगार लोग अपने अंतिम दिवस में शराबी, शिथिल, क्रूर और राज्य के अयोग्य हो गए थे, इसलिए जान-बूझकर वे विवाह-प्रस्ताव की आग में शराब पीकर कूदे, और खुली लड़ाई में उनका अंत किया गया। एक कारण यह भी बतलाया जाता है कि खंगार राजा दिल्ली के मुसलमान राजाओं के मेली थे, इसलिए उनका पूर्ण संहार जरूरी हो गया था।

खंगार लोग और बात कहते हैं-वे अपने को क्षत्रिय कहते हैं, और कोई संदेह नहीं कि कई क्षेत्रों में उनका राज्य रहा है। वे यह भी कहते हैं कि क्षत्रिय राजाओं-सामंतों की कन्याएँ उनके यहाँ ब्याही जाती थीं। उपन्यास संबंधी प्रसंग के बारे में उनका कहना है कि बुंदेलों ने पहले तो लड़की देने का प्रस्ताव किया, फिर कपट करके, शराब पिलाकर और इस तरह अचेत करके खंगारों को जन-बच्चों सहित मार गिराया। वे लोग यह भी कहते हैं कि बुंदेले मुसलमानों को जुझौति में ले आए थे।
खंगारों का पिछला कथन इतिहास के बिलकुल विरुद्ध है, और युक्ति से असंभव जान पड़ता है, इसलिए कहानी-लेखकों तक को ग्राह्य नहीं हो सकता। 

बुंदेलों ने अपना राज्य कायम करने के बाद जुझौति की शान को बनाए रखने की काफी चेष्टा की। प्रदेश की स्वाधीनता के लिए उन्होंने घोर प्रयत्न किए और बड़े-बड़े बलिदान भी। बुंदेलखंड की वर्तमान हिंदू जनता में जो प्राचीन हिंदुत्व (Classical culture) अभी थोड़ा-बहुत शेष है उसकी रक्षा का अधिकांश श्रेय बुंदेलों को ही है। बेचारे खंगारों का नाम सन् 1288 के पश्चात् जुझौति के संबंध में बिलकुल नहीं आता। उनका पतन उसके बाद ऐसा घोर और इतना विकट हुआ कि आजकल उनकी गिनती बहुत निम्न श्रेणी में की जाती है। परंतु इसमें जरा भी संदेह नहीं कि एक समय उनके गौरव का था और उनके नाम की पताका जुझौति के अनेक गढ़ों पर वीरों और सांमतों के ऊँचे सिरों पर फहराया करती थी। उनके पतन की जिम्मेदारी उनके निज के दोषों पर कम है, उसका दायित्व उस समय के समाज पर अधिक है। लेखक को इसी कारण अग्निदत्त पांडे की शरण लेनी पड़ी। 

जिस तरह गढ़ कुंडार पर्वतों और वनों से प्ररिवेष्ठित, बाह्य दृष्टि से छिपा हुआ पड़ा है, उसी तरह उसका तत्कालीन इतिहास भी दबा हुआ-सा है। 
परंतु वे स्थल, वह समय और समाज अब भी अनेकों के लिए आकर्षण रखते हैं। उपन्यास में वर्णित चरित्रों के वर्तमान सादृश्य प्रकट करने का इस समय लेखक को अधिकार नहीं, केवल अपने एक मित्र का नाम कृतज्ञता-ज्ञापन की विवशता के कारण बतलाना पड़ेगा। नाम है दुर्जन कुम्हार। सुल्तानपुरा (चिरगाँव से उत्तर में दो मील) का निवासी था। उपन्यास में जिन स्थानों का वर्णन किया गया है, वे जंगलों में अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े हुए हैं। दुर्जन कुम्हार की सहायता से लेखक ने उनको देखा। ‘गढ़ कुंडार’ का अर्जुन कुम्हार इसी दुर्जन का प्रतिबिंब है। ‘गढ़ कुंडार’ की कहानी उसने सुनी है, उसने समझी भी है या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता ! परंतु उसको यह कहते हुए सुना है-‘‘बाबू सा’ब, मोरे चाए कोऊ टूँका-टूँका भलैइँ कर डारै, पै, नौन हरामी मौसैं कभऊँ न हुइए।

-लेखक

गढ़ कुंडार
प्रवेश

तेरहवीं शताब्दी का अंत निकट था, महोबे में चंदेलों की कीर्ति-पताका नीची हो चुकी थी। जिसको आज बुंलेदखंड कहते हैं, उस समय उसे जुझौति कहते थे। जुझौति के बेतवा, सिंध और केन द्वारा सिंचित और विदीर्ण एक बृहत् भाग पर कुंडार के खंगार राजा हुरमतसिंह का राज्य था।
कुंडार, जो वर्तमान झाँसी से पूर्व-पूर्वोत्तर कोने की तरफ तीस मील दूर है, इस राज्य की समृद्धि-संपन्न राजधानी थी। कुंडार का गढ़ अब भी अपनी प्राचीन शालीनता का परिचय दे रहा है। बीहड़ जंगल, घाटियों और पहाड़ों से आवृत्त यह गढ़ बहुत दिनों तक जुझौति को मुसलमानों की आग और तलवार से बचाए रहा था।
महोबा के राजा परमर्दिदेव चंदेल के पृथ्वीराज चौहान द्वारा हराए जाने के बाद से चंदेले छिन्न-भिन्न हो गए। पृथ्वीराज ने अपने सामंत खेतसिंह खंगार को कुंडार का शासक नियुक्त किया। उसी खेतसिंह का वंशज हरमतसिंह था। हरमतसिंह लड़ाकू, हठी और उदार था। परंतु वृद्धावस्था में उसकी उदारता अपने एकमात्र पुत्र नागदेव के निस्सीम स्नेह में परिवर्तित हो गई थी। 

नागदेव प्रायः बेतवा के पूर्वी तट पर स्थित देवरा, सेंधरी माधुरी और शक्तिभैरव के जंगलों में शिकार खेला करता था। सेंधरी और माधुरी अभी बाकी हैं, शक्तिभैरव, जो पूर्वकाल में एक बड़ा नगर था, आजकल लगभग भग्नावस्था में है। वर्तमान चिरगाँव से पूर्व की ओर छः मील पर एक घाट देवराघाट के नाम से प्रसिद्ध है। देवरा का और कुछ शेष नहीं है। तेरहवीं शताब्दी में देवरा एक बड़ा गाँव था। अब तो खोज लगाने पर विशाल बेतवा-तल की ऊँची करार पर कहीं-कहीं पुरानी ईंटे और कटे हुए पत्थर, गड़े हुए मिलते हैं। कुंडार से आठ मील उत्तर की ओर देवरा की चौकी चमूसी पड़िहार के हाथ में थी, जो हुरमतसिंह का एक सामंत था। बेतवा के पश्चिमी तट पर देवल, देवधर (देदर), भरतपुरा, बजटा सिकरी रामनगर इत्यादि की चौकियाँ भरतपुरा के हरी चंदेल के हाथ में थीं। इसकी गढ़ी भरतपुरा में थी। यह बेतवा के पश्चिमी किनारे पर ठीक तट के ऊपर थी। यहाँ से कुंडार का गढ़ पूर्व और दक्षिण के कोने की पहाड़ियों में होकर झाँकता-सा दिखाई पड़ता था। अब उस गढ़ी के कुछ थोड़े से चिह्न हैं। किसी समय इस गढ़ी में पाँच सौ सैनिकों के आश्रय के लिए स्थान था। वर्तमान भरतपुरा अब यहाँ से दो मील उत्तर-पश्चिम के कोने में जा बसा है। प्राचीन गढ़ी के पृथ्वी से मिले हुए खंडहर में अब वन्यपशु विलास किया करते हैं, और नीचे से बेतवा पत्थरों को तोड़ती-फोड़ती कलकल निनाद करती हुई बहती रहती है। यही हालत बजटा की है। केवल कुछ थोड़े-से चिह्न-मात्र रह गए हैं। तेरहवीं शताब्दी में बजटा अहीरों की बस्ती थी, जो खेती कम करते थे और पशु-पालन अधिक। 

देवल में, तेरहवीं शताब्दी में, देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर था। पुराना देवल मिट गया है, और उसका पुराना देवालय भी। केवल कुछ टूटी-फुटी मूर्तियाँ वर्तमान देवल के पीछे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। पुराने देवल के धुस्स बेतवा के बैजापारा नामक घाट के पश्चिमी कूल पर फैले हुए हैं, जो खोज लगाने पर भी नहीं मिलते। कभी-कभी कोई गड़रिया बरसात में यहाँ पर भेड़-बकरी चराता-चराता कहीं कोई स्थान खोदता है, तो अपने परिश्रम के पुरस्कार में एक-आध चंदेली सिक्का या चंदेली ईंट पा जाता है। देवधर का नाम देदर हो गया है। रामनगर, सिकरी इत्यादि मौजूद हैं, परंतु अपने प्राचीन स्थानों से बहुत इधर-उधर हट गए हैं। कुछ तो इसका कारण बेतवा की प्रखर धार है, जिसने लाखों बीघे भूमि काट-कूटकर भरकों में लौट-पलट कर दी है, और कुछ इसका कारण आक्रमणकारियों की आग और तलवार है। 
आजकल देवराघाट के पूर्वी किनारे पर, जिसके मील-भर पीछे दिग्गज पलोथर पहाड़ी है, करधई के जंगल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परंतु जिस समय का वर्णन हम करना चाहते हैं, उस समय वहाँ कुछ भूमि पर खेती होती थी। शेष आजकल की तरह वन था। 

पीछे पहाड़, बीच में हरी-भरी खेती और इधर-उधर जंगल। उसके बाद नील तरंगमय दो भागों में विभक्त बेतवा। एक धारा देवल के पास से निकलकर देवधर (वर्तमान देदर) के नीचे पश्चिम की ओर देवरा से आधा मील आगे चलकर पूर्व की ओर दूसरी धार से मिल गई है। दोनों भागों के बीच लगभग एक मील लंबा और आधा मील चौड़ा एक टापू बन गया है, जिसे अब बरौल का सूँड़ा कहते हैं। इसके दक्षिणी सिरे पर शायद खंगारों के समय से पहले की एक छोटी-सी गढ़ी और चहारदीवारी बनी चली आती थी, जो अब बिलकुल खंडहर हो गई है। आजकल इसमें तेंदुए और जंगली सुअर विहार करते हैं। 
देवल, देवरा और देवधर में बड़े-बड़े मंदिरों की काफी संख्या थी। दुर्गा और शिव की पूजा विशेष रूप से होती थी। इन मंदिरों की रक्षा के लिए और कुंडार में मुसलमानों और अन्य शत्रुओं का प्रवेश रोकने के लिए इन सब चौकियों में खंगारों के करीब दो सहस्र सैनिक रहा करते थे। टापू की चौकी किशुन खंगार के आधिपत्य में थी। कुंडार-राज की सेना में पड़िहार, कछवाहे, पँवार, धंधेरे, चौहान, सेंगर, चंदेले इत्यादि राजपूत और लोधी, अहीर, खंगार इत्यादि जातियों के लोग थे। खास कुंडार में करीब बाईस सहस्र पैदल और घुड़सवार थे।

शक्तिभैरव नगर इस नाम के मंदिर के कारण दूर-दूर प्रसिद्ध था। दो सौ वर्ष के लगभग हुए, तब मंदिर बिलकुल ध्वस्त हो गया था। कहते हैं, ओरछा के किसी संपन्न अड़जरिया ब्राह्मण को शिव की मूर्ति ने स्वप्न में दर्शन देकर अपना पता बतलाया था और उसी ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करा दिया था। यह मंदिर शक्ति, भैरव और महादेव का था। मंदिर के अहाते के एक कोने में भैरवी-चक्र की एक शिला अब भी पड़ी हुई है। उस नगर के वर्तमान भग्नावशेष को लोग आजकल सकतभैरों कहते हैं। चालीस-पचास वर्ष पहले तक इस नगर की कुछ श्री शेष रही। परंतु उसके पश्चात् एकदम उसका अंत हो गया। वहाँ के अनेक वैश्य और सुनार झाँसी, चिरगाँव और अन्यान्य कस्बों में चले गए और वहाँ ही जा बसे। 

यद्यपि जुझौति का सब कुछ चला गया, मान-मर्यादा गई, स्वाधीनता गई, समृद्धि गई, बल-विक्रम भी चला गया-तो भी चंदेलों के बनाए अत्यंत मनोहर और करुणोत्पादक मंदिर और गढ़ अब भी बचे हुए हैं और बची हुई हैं चंदेलों, की झीलें, जिनके कारण यहाँ के किसान अब भी चंदेलों का नाम याद कर लिया करते हैं। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य जिनका सौंदर्य और भयावनापन अपनी-अपनी प्रभुता के लिए परस्पर होड़ लगाया करता है, अब भी शेष है। पलोथर की पहाड़ी पर खड़े होकर चारों ओर देखनेवाले को कभी अपना मन सौंदर्य के हाथ और कभी भय के हाथ में दे देना पड़ता है। ऐसा ही उस समय भी होता था, जब संध्या समय पलोथर के नीचे बेतवा के दोनों किनारों पर शंख और घंटे तथा कुंडार के गढ़ से खंगारों की तुरही बजा करती थी। और अब भी है जब पलोथर की चोटी पर खड़ा होकर नाहर अपने नाद से देवरा, देवल, भरतपुरा इत्यादि के खंडहरों को गुंजारता और बेतवा के कलकल शब्द को भयानक बनाता है। अब कुंडार में तुरही नहीं बजती। उसमें करधई का इतना घना जंगल है कि साँभर, सुअर और कभी-कभी तेंदुआ भी छिपाव का स्थान पाते हैं।

प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन

प्रकाशित वर्ष:2006

आईएसबीएन: 81-7315-073-7

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