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बुधवार, 27 नवंबर 2019
राजा दाहिर सेन
सोमवार, 25 नवंबर 2019
अमर सिंह हाड़ा [चौहान]
शनिवार, 23 नवंबर 2019
क्षत्रिय राजपूत वंश
शुक्रवार, 8 नवंबर 2019
यह समाधि गवाह है योद्धाओं के अपमान की।
मंगलवार, 5 नवंबर 2019
क्षत्रिय राजपूत नाम के पीछे सिंह लगाने की परम्परा!
शेयर जरूर कर दीजियेग हकुम ।
गौरवशाली क्षत्रिये राजपूत इतिहास में बहुत सी परम्पराये है उनमे से एक परम्परा है राजपूत नाम के पीछे सिंह लगाता है आइये जानते है सिंह लगाने का क्या रहस्य रहा है
जो महान देशभक्तों की श्रेणी में अग्रणी रहे हैं, जिन्होंने क्षत्रिय समाज को अपने जीवनकाल में अनेक उपलब्धियां प्रदान की हैं, उनमें से एक प्राप्ति ‘सिंह’ शब्द की है। क्षत्रिय समाज में अपने पुत्रों का कुंभा, जोधा, धंग, धारा, खेता, सांगा आदि नामकरण किया जाता था।
जननी जन्म भूमि के लिये जो नि:स्वार्थ भाव से समर्पित होते रहे हैं। वास्तव में वे ही महापुरुष कहलाते हैं और इतिहास ऐसे वीर पुरुषों की विरदि बरवान करते-करते नहीं अघाते हैं। वह समाज में अपने पीछे एक छाप छोड़ जाते हैं। जो अनुकरणीय होती है। आदर्श कहलाती है।
भारत में सौराष्ट्र प्रान्त के एक ऐसे ही राजपुरुष की कहानी है। जिसके पौरस की गाथाएं कभी इस देश की धरती पर गूंजती रहती थीं। जो महान देशभक्तों की श्रेणी में अग्रणी रहे हैं। जिन्होंने क्षत्रिय समाज को अपने जीवनकाल में अनेक उपलब्धियां प्रदान की हैं।
उनमें से एक प्राप्ति ‘सिंह’ शब्द की है। क्षत्रिय समाज में अपने पुत्रों का कुंभा, जोधा, धंग, धारा, खेता, सांगा आदि नामकरण किया जाता था। नाम के साथ शब्द लिखने का प्रचलन नहीं था। जो महाराजा खेतसिंह खंगार की ही देन है।
दिल्लीश्वर महाराजा पृथ्वीराज चौहान अपनी युवा अवस्था में गिरनार के वनों में शिकार खेलने जाया करते थे। एक बार उन्होंने जंगल में देखा। एक नौजवान राजकुमार वनराज को ललकारकर कुश्ती लड़ रहा है। कभी वनराज ऊपर होता था तो कभी नरराज। चौहान वह दृश्य देख आनंद विभोर होकर अवसन्त खड़े रह गये। उनके देखते ही देखते, राजकुमार ने बलशाली वनराज को पछाड़ लगा दी और लात घूसों से उसको मार डाला।
जब नरराज और वनराज का युध्द समाप्त हो गया तब चौहान उस वीर पुरुष के पास पहुंचे। बोले-बड़े बहादुर हो। क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूं। वह युवक प्रतिउत्तर में बोला-पहले आप अपना परिचय दें। मैं शाकम्भरी चौहान, महाराज सोमेश्वर का पुत्र हूं, पृथ्वीराज चौहान। दिल्ली का प्रशासक हूं। युवक इतने जवाब से ही नतमस्तक हो गया। बोला-महाराज क्षमा करें। अज्ञानतावश मैंने मूढ़ता की है। मेरा परिचय लेकर महाराज क्या करेंगे, हम तो अब वनवासी जन हैं।
नहीं, नहीं आप अपना पूरा परिचय दीजिये। तुम्हारे लक्षण, राज परिवारों जैसे दिखते हैं। मुंह पर कहना अच्छा नहीं लगता है। आप एक असाधारण पुरुष हैं। मुझे सही परिचय देने में संकोच न करें। कहिये भद्र आप कौन हैं।
महाराज मेरे पितामह राजा ऊदलजी खंगार जूनागढ़ाधीश्वर थे, उन्हें यादव वंशी राजाओं ने धोखे से मार डाला और सत्ता छीन ली है। हमारा परिवार छिन्न- भिन्न हो गया। अधिकांश लोग, जेजाहूति प्रदेश चले गये हैं। मेरे पिताश्री रूढ़देव खंगार परिवार सहित पास में ही निवास करते हैं।
मेरा नाम खेता खंगार है। यहां आखेट में आया था। वनराज से भेंट हो गई। परिणाम महाराज के सामने है। राजकुमार हम महाराज रूढ़देव के दर्शन करने की इच्छा रखते हैं। क्या हमें उनके दर्शन लाभ मिल सकेंगे।
हां महाराज जरूर चलिये, अब तो हम साधारण आदमी रह गये हैं।
हमसे आपकी जो टूटी-फूटी सेवा हो सकेगी सेवार्पित करेंगे। दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान, पडिहार नरेश रूढ़देव खंगार से बड़ी आत्मीयता से मिलकर, बहुत प्रसन्न हो गये थे। बातचीत के क्रम में चौहान बोले-महाराज खेता राजकुमार बड़े अजेय योध्दा हैं। मैंने उनकी शूरवीरता देखी है। बड़ा प्रभावित हूं। महाराज आजकल देश की दशा ठीक नहीं है।
क्षत्रिय वंश आपस में ही लड़कर घात कर रहे हैं। जिससे देश की शक्ति का ह्रास हो रहा है। आये दिन यवन आक्रमणकारियों के हमले देश पर हो रहे हैं। रक्षा का चौकस प्रबंध केंद्र में नहीं है। जो बहुत जरूरी है। भारतभूमि की रक्षा के लिये आपसे जेष्ठ पुत्र खेता राजकुमार को मांगता हूं। उन्हें दिल्ली जाने की आज्ञा दे दें। देश की रक्षा, देशभक्त नौजवानों से ही संभव है। आशा है राजन मुझे निराश न करेंगे।
वनवासी रूढ़देव खंगार अवाक रह गये, कुछ देर बाद बोले-भारतभूमि के गौरव, महाराज पृथ्वीराज चौहान खेता राजकुमार के बल पर ही हम इस बियाबान जंगल में रहते हैं। खीचीकुमार अभी नादान है। महाराज की आज्ञा है जिसमें देशहित की बात कही गई है। टालने की हिम्मत नहीं हो रही है। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
पृथ्वीराज चौहान कहने लगे-राजन, रघुवंश भूषण महाराज दशरथ ने मुनि विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा के लिए अपने दोनों राजकुमार राम-लक्ष्मण को भेजकर उनकी मदद की थी। यह तो जननी जन्मभूमि की रक्षा का सवाल है। आप देशरक्षा में भागीदारी कर सुयश प्राप्त करें।
रूढ़देव कहने लगे-महाराज की आज्ञा शिरोधार्य है। जननी जन्मभूमि के लिये तो मेरा रोम-रोम अर्पित है।
पृथ्वीराज चौहान राजकुमार खेता खंगार को उनके दल-बल सहित दिल्ली ले आए, बड़े हर्षित थे। चौहान कहने लगे मैं वनराज की खोज में निकला और पा गया नरराज को।
उस समय अजमेर में उपद्रव हो गया था। राजस्व वसूली बंद पड़ी थी। अशांति का वातावरण बन गया था। आते ही समय महाराज ने राजकुमार को बंदोबस्त के लिये अजमेर भेज दिया। उन्होंने अपने बुध्दि कौशल से पूर्ण शांति व्यवस्था की और राजस्व वसूली का सिलसिला जमाया।
पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सैन्य व्यवस्था में सोलह सामन्तों की रचना की, उसमें राजकुमार खेता खंगार को प्रधान सामन्त नियुक्त किया गया। संयोगिता हरण में राजकुमार का भरपूर सहयोग लिया गया। चन्द कवि ने अपने पृथ्वीराज रासौ नामक ग्रन्थ में इसका वर्णन किया है। वे कहते हैं :-
खण्ड खण्ड निर्वाण सामन्त सार।
खैंची सुगोंड खेता खंगार॥
खित्त रन जीतियो।
पृथ्वीराज चौहान ने सत्रह बार मुहम्मद गौरी को इसी सामन्त के प्रबल पराक्रम से खदेड़ कर भगाया था। सन् 1182 ई. में उरई के मैदान में आला-ऊदल जैसे जगत प्रसिध्द बनाफर वीरों का मान मर्दन कर, परमार चंदेल पर विजयश्री प्राप्त की, जिसमें ऊदल मारा गया था और आल्हा चला गया था।
पृथ्वीराज चौहान ने विजित प्रदेश का प्रबंध सामन्त खेता खंगार और पंजुनराय कछवाहा को सौंपकर सूबेदारी नियुक्त की। चौहान, चंदेल की लड़ाई की उथल-पुथल में, गौड़ों ने कुंडार कर कब्जा कर लिया। जो विजित क्षेत्र का अंग था। राजकुमार खेता खंगार ने, गौड़ों को कुंडार से खदेड़ भगाया और अपना झण्डा गाड़ दिया। पृथ्वीराज चौहान ने कुंडार को खेता खंगार सामन्त की निजी उपलब्धि मानकर उन्हें कुंडार का अधिपति घोषित कर दिया।
खेता खंगार ने कुंडार को अपना मुख्यालय बनाया। वे महोबा छोड़कर कुंडार में आ गये। यहां आकर उन्होंने प्राचीन पध्दति से सर्वप्रथम परकोटे का निर्माण कराया। परकोटे का मुख्य द्वार वंदनवारनुमा बनाया गया। मुस्लिम कला देश में जोरों पर उभरकर आ रही थी बारहवीं शताब्दी में अंदर का निर्माण किया गया। जिसमें मौमिन कला की झलक दिखती है। उन्होंने एक आकर्षित सुदृढ़ और अति दुर्गम दुर्ग का निर्माण कराया। कुंडार अब गढ़कुंडार के नाम से विख्यात हो गया।
पंजुनराय कछवाहा महोबा,राजकुमार खेता खंगार गढ़कुंडार की ख्याति सेर् ईष्यालु हुए, उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के भाई, कान्हापाल चौहान को अपने पक्ष में कर खेता खंगार को मरवाने के यत्न ढूंढना चालू किये। बड़ी-बड़ी युक्तियां ढूंढी गईं। अंत में सोचा, महाराज पृथ्वीराज चौहान खेता खंगार को बड़ा शूरवीर कहकर प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि खेता खंगार ने सोरठ (सौराष्ट्र) में कुश्ती लड़कर शेर मारा है। भला यह कैसे हो सकता है। क्यों न शेर से लड़वाकर खेता खंगार को मरवा दिया जाय। कान्हापाल चौहान ने पंजुनराय को भरोसा दिया, मैं महाराज से स्वीकृति ले लूंगा। भिण्ड के वनों में आदमी और शेर के युध्द का नाटक खेला जाय। युक्ति ठीक है।
युक्ति के मुताबिक भिण्ड राज्यान्तर्गत बियाबान जंगल में एक दर्शक मंच बनाया गया। आसपास के सभी राजे, महाराजे, सामंत, सरदार आमंत्रित किये गये। महाराज पृथ्वीराज चौहान की आज्ञा से नरराज और वनराज के आकर्षित युध्द का ऐलान किया गया। निश्चित तिथि पर सब लोग उस बियाबान जंगल में एकत्रित हुए।
दिल्लीश्वर महाराज पृथ्वीराज चौहान ने गढ़कुंडार के अधिपति खेता खंगार को वनराज से कुश्ती लड़ने हेतु निर्वाचित किया। जंगल का हांका किया गया। बब्बर शेर के निकलते ही खेता खंगार को मुकाबला करने हेतु राजा ने आदेशित किया। जंगली मैदान के बीच एक निहत्था विशालकाय शरीर, हृष्ट-पुष्ट रोबीला पुरुष खेता खंगार विद्यमान था। उसी तरह हृष्ट-पुष्ट रोबिला बब्बर शेर निकलकर मैदान में आया। उसने अपने शिकार को सामने खड़ा देखकर गुर्राकर पूंछ को ऐंठ मारी और बड़ी हैकड़ी के साथ गढ़कुंडार अधिपति खेता खंगार पर आक्रमण कर दिया। उसने हमलावर बब्बर शेर के दोनों पैरों को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया। वनराज और नरराज दोनों आपस में गुत्थम गुत्था होने लगे। स्यारों ने समझ लिया था कि उनका कांटा बिन प्रयास निकल गया है।
महाराज पृथ्वीराज चौहान भूतों की चालों से अनभिज्ञ थे। सन्नाटा छाया हुआ था। खेता खंगार पर बब्बर शेर हावी था। खेता ने अपनी पूर्ण शक्ति से वनराज को धकेला और उसे पटकर ऊपर सवार हो गया। फिर लात घूंसा मार-मारकर बब्बर शेर को पस्त कर डाला।
आवेश में उसने बब्बर शेर के बाएं पैर पर, अपना दायां पैर रखा और उसका दायां पैर अपने हाथ में लेकर, उसे चीर डाला। बब्बर शेर के मरते ही, उपस्थित जन समूह चिल्ला उठा। शेर चिरा, शेर चिरा, मंच पर तालियां बज गईं। महाराज पृथ्वीराज चौहान खुशी से झूम उठे, रक्त रंजित खेता खंगार हर्षित मन महाराज पृथ्वीराज चौहान के चरणों में आकर झुक गया। शाबास और धन्यवाद के बीच खेता खंगार का जयघोष गूंज गया।
महाराज पृथ्वीराज चौहान ने इस अविस्मरणीय घटना पर उस जगह एक ग्राम बसाने का ऐलान किया और उसका नाम रखा ‘शेरचिरा’। राजा ने ऐसा कर जनवाणी को ऊपर कर दिया। राजा ने फिर चन्द कवि से पूछा- कविराज शेर का कोई अच्छा सा नाम बताओ।
चन्द बोले राजन-नाहर, केहर, सिंह, राज बोले बस हमने राजकुमार खेता खंगार को अब ‘खेतसिंह’ खंगार की संज्ञा दे दी है। क्यों चन्द ठीक है न, शेर को मारने वाला सिंह पुरूष तो कहलाएगा ही। महाराज की जय हो, जय हो की ध्वनि आकाश मंडल में गूंज गई। तभी बहादुर क्षत्रिय लोग अपने नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग करने लगे हैं |
जय माँ भवानी।🙏🚩
जय राजपूताना।🙏🚩
मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019
राष्ट्रीयता के जीवंत परिचायक थे छत्रपति शिवाजी महाराज।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती महाराष्ट्र में वैसे तो 19 फरवरी को मनाई जाती है लेकिन कई संगठन शिवाजी का जन्मदिवस हिन्दू कैलेंडर में आने वाली तिथि के अनुसार मनाते हैं। देश के अनेक महापुरुषों ने वैशाख मास में जन्म लिया, उसी में वैशाख शुक्ल पक्ष में छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था। वे एक बहादुर, बुद्धिमानी, शौर्यवीर और दयालु शासक थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1627 को मराठा परिवार में शिवनेरी (महाराष्ट्र) में हुआ। शिवाजी के पिता शाहजी और माता जीजाबाई थीं। उन्होंने भारत में एक सार्वभौम स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयत्न स्वतंत्रता के अनन्य पुजारी वीर प्रवर शिवाजी ने भी किया था। वे एक भारतीय शासक थे जिन्होंने मराठा साम्राज्य खड़ा किया था इसीलिए उन्हें एक अग्रगण्य वीर एवं अमर स्वतंत्रता-सेनानी स्वीकार किया जाता है।
यूं तो शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे तथा अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था। नहीं तो वीर शिवाजी राष्ट्रीयता के जीवंत प्रतीक एवं परिचायक थे। इसी कारण निकट अतीत के राष्ट्रपुरुषों में महाराणा प्रताप के साथ-साथ इनकी भी गणना की जाती है।
माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरंगना नारी थीं। इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियां सुना और शिक्षा देकर किया था। दादा कोणदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में परम संत रामदेव के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।
बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुंची। अत्याचारी किस्म के यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के बगलें झांकने लगे।
शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आग बबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनख का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं।
उनकी इस वीरता के कारण ही उन्हें एक आदर्श एवं महान राष्ट्रपुरुष के रूप में स्वीकारा जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज का 3 अप्रैल 1680 ई. में तीन सप्ताह की बीमारी के बाद रायगढ़ में स्वर्गवास हो गया।
रविवार, 3 फ़रवरी 2019
राणा सांगा :- बस नाम ही काफी हैं।
मेवाड़ योद्धाओं की भूमि है, यहाँ कई शूरवीरों ने जन्म लिया और अपने कर्तव्य का प्रवाह किया । उन्ही उत्कृष्ट मणियों में से एक थे राणा सांगा । पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह । वैसे तो मेवाड़ के हर राणा की तरह इनका पूरा जीवन भी युद्ध के इर्द-गिर्द ही बीता लेकिन इनकी कहानी थोड़ी अलग है । एक हाथ , एक आँख, और एक पैर के पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद इन्होंने ज़िन्दगी से हार नही मानी और कई युद्ध लड़े ।
ज़रा सोचिए कैसा दृश्य रहा होगा जब वो शूरवीर अपने शरीर मे 80 घाव होने के बावजूद, एक आँख, एक हाथ और एक पैर पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद जब वो लड़ने जाता था ।।
कोई योद्धा, कोई दुश्मन इन्हें मार न सका पर जब कुछ अपने ही विश्वासघात करे तो कोई क्या कर सकता है । आईये जानते है ऐसे अजयी मेवाड़ी योद्धा के बारे में, खानवा के युद्ध के बारे में एवं उनकी मृत्यु के पीछे के तथ्यों के बारे में।
परिचय –
राणा रायमल के बाद सन् 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इनका शासनकाल 1509- 1527 तक रहा । इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली राजा थे । इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की।
राणा सांगा अदम्य साहसी थे । इन्होंने सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है। बचपन से लगाकर मृत्यु तक इनका जीवन युद्धों में बीता। इतिहास में वर्णित है कि महाराणा संग्राम सिंह की तलवार का वजन 20 किलो था
सांगा के युद्धों का रोचक इतिहास –
महाराणा सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात, और मालवा के मुगल सुल्तानों के राज्यो से घिरा हुआ था। दिल्ली पर सिकंदर लोदी, गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा और मालवा में नसीरुद्दीन खिलजी सुल्तान थे। तीनो सुल्तानों की सम्मिलित शक्ति से एक स्थान पर महाराणा ने युद्ध किया फिर भी जीत महाराणा की हुई। सुल्तान इब्राहिम लोदी से बूँदी की सीमा पर खातोली के मैदान में वि.स. 1574 (ई.स. 1517) में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहिम लोदी पराजित हुआ और भाग गया। महाराणा की एक आँख तो युवाकाल में भाइयो की आपसी लड़ाई में चली गई थी और इस युद्ध में उनका बायां हाथ तलवार से कट गया तथा एक पाँव के घुटने में तीर लगने से सदा के लिये लँगड़े हो गये थे।
महाराणा ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को लड़ाई में ईडर, अहमदनगर एवं बिसलनगर में परास्त कर अपने अपमान का बदला लिया अपने पक्ष के सामन्त रायमल राठौड़ को ईडर की गद्दी पर पुनः बिठाया।
अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क ईडर से भागकर अहमदनगर के किले में जाकर रहने लगा और सुल्तान के आने की प्रतीक्षा करने लगा । महाराणा ने ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमद नगर को जा घेरा। मुगलों ने किले के दरवाजे बंद कर लड़ाई शुरू कर दी। इस युद्ध में महाराणा का एक नामी सरदार डूंगरसिंह चौहान(वागड़) बुरी तरह घायल हुआ और उसके कई भाई बेटे मारे गये। डूंगरसिंह के पुत्र कान्हसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई। किले के लोहे के किवाड़ पर लगे तीक्ष्ण भालों के कारण जब हाथी किवाड़ तोड़ने में नाकाम रहा , तब वीर कान्हसिंह ने भालों के आगे खड़े होकर महावत को कहा कि हाथी को मेरे बदन पर झोंक दे। कान्हसिंह पर हाथी ने मुहरा किया जिससे उसका शरीर भालो से छिन छिन हो गया और वह उसी क्षण मर गया, परन्तु किवाड़ भी टूट गए। इससे मेवाड़ी सेना में जोश बढा और वे नंगी तलवारे लेकर किले में घुस गये और मुगल सेना को काट डाला। निजामुल्मुल्क जिसको मुबारिजुल्मुल्क का ख़िताब मिला था वह भी बहुत घायल हुआ और सुल्तान की सारी सेना तितर-बितर होकर अहमदाबाद को भाग गयी।
माण्डू के सुलतान महमूद के साथ वि.स्. 1576 में युद्ध हुआ जिसमें 50 हजार सेना के साथ महाराणा गागरोन के राजा की सहायता के लिए पहुँचे थे। इस युद्ध में सुलतान महमूद बुरी तरह घायल हुआ। उसे उठाकर महाराणा ने अपने तम्बू पहुँचवा कर उसके घावो का इलाज करवाया। फिर उसे तीन महीने तक चितौड़ में कैद रखा और बाद में फ़ौज खर्च लेकर एक हजार राजपूत के साथ माण्डू पहुँचा दिया। सुल्तान ने भी अधीनता के चिन्हस्वरूप महाराणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेंट स्वरूप दिए, जो सुल्तान हुशंग के समय से राज्यचिन्ह के रूप में वहाँ के सुल्तानों के काम आया करते थे। बाबर बादशाह से सामना करने से पहले भी राणा सांगा ने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाईयाँ दिल्ली व् मालवा के सुल्तानों के साथ लड़ी। एक बार वि.स्. 1576 में मालवे के सुल्तान महमूद द्वितीय को महाराणा सांगा ने युद्ध में पकड़ लिया, परन्तु बाद में बिना कुछ लिये उसे छोड़ दिया।
मीरा बाई से सम्बंध –
महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था, जिनका विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ हुआ था। मीराबाई मेड़ता के राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी।
बाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहांत हो जाने से मीराबाई को राव दूदा ने अपने पास बुला लिया और वही उसका लालन-पालन हुआ।
मीराबाई का विवाह वि.स्. 1573 (ई.स्. 1516) में महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज के साथ होने के कुछ वर्षों बाद कुँवर युवराज भोजराज का देहांत हो गया। मीराबाई बचपन से ही भगवान की भक्ति में रूचि रखती थी। उनका पिता रत्नसिंह राणा सांगा और बाबर की लड़ाई में मारा गया। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद छोटा पुत्र रतनसिंह उत्तराधिकारी बना और उसकी भी वि.स्. 1588(ई.स्. 1531) में मरने के बाद विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। मीराबाई की अपूर्व भक्ति और भजनों की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी थी जिससे दूर दूर से साधु संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण महाराणा विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहा करते और तरह तरह की तकलीफे दिया करता थे। यहाँ तक की उसने मीराबाई को मरवाने के लिए विष तक देने आदि प्रयोग भी किये, परन्तु वे निष्फल ही हुए। ऐसी स्थिति देख राव विरामदेव ने मीराबाई को मेड़ता बुला लिया। जब जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया तब मीराबाई तीर्थयात्रा पर चली गई और द्वारकापुरी में जाकर रहने लगी। जहा वि.स्. 1603(ई.स्. 1546) में उनका देहांत हुआ।
खानवा का युद्ध –
बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था जबकि राणा सांगा तुर्क-अफगान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता थे, परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को खानवा में युद्ध आरम्भ हुआ।
इस युद्ध में राणा सांगा का साथ महमूद लोदी दे रहे थे। युद्ध में राणा के संयुक्त मोर्चे की खबर से बाबर के सौनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने सांगा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। युद्ध क्षेत्र में राणा सांगा घायल हुए, पर किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिए गये। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा विष दिये जाने के कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई। खानवा के युद्ध को जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाजी’ की उपाधि धरण की।
मृत्यु –
खानवा के युद्ध मे राणा सांगा के चेहरे पर एक तीर आकर लगा जिससे राणा मूर्छित हो गए ,परिस्थिति को समझते हुए उनके किसी विश्वास पात्र ने उन्हें मूर्छित अवस्था मे रण से दूर भिजवा दिया एवं खुद उनका मुकुट पहनकर युद्ध किया , युद्ध मे उसे भी वीरगति मिली एवं राणा की सेना भी युद्ध हार गई । युद्ध जीतने की बाद बाबर ने मेवाड़ी सेना के कटे सरो की मीनार बनवाई थी । जब राणा को होश आने के बाद यह बात पता चली तो वो बहुत क्रोधित हुए उन्होंने कहा मैं हारकर चित्तोड़ वापस नही जाऊंगा उन्होंने अपनी बची-कुची सेना को एकत्रित किया और फिर से आक्रमण करने की योजना बनाने लगे इसी बीच उनके किसी विश्वास पात्र ने उनके भोजन में विष मिला दिया ,जिससे उनकी मृत्यु हो गई ।
अस्सी घाव लगे थे तन पे ।
फिर भी व्यथा नहीं थी मन में ।।
जय मेवाड़ !💥