बुधवार, 27 नवंबर 2019

राजा दाहिर सेन

पहली बार अगर किसी ने मुस्लिमों का विश्वास जीतने की कोशिश की होगी  तो वो राजा दाहिर सेन थे मोहम्मद साहब के परिवार को शरण दी और बदले में उनको  मौत मिली।
 राजा दाहिर सेन एक प्रजावत्सल राजा थे। गोरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। यह देखकर ईरान के शासक हज्जाम ने 712 ई0 में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किये; पर राजा दाहरसेन और हिन्दू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया।
सीधी लड़ाई में बार-बार हारने पर कासिम ने धोखा किया। 20 जून, 712 ई. को उसने सैकड़ों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं जैसा वेश पहना दिया। लड़ाई छिड़ने पर वे महिला वेशधारी सैनिक रोते हुए राजा दाहरसेन के सामने आकर मुस्लिम सैनिकों से उन्हें बचाने की प्रार्थना करने लगे। राजा ने उन्हें अपनी सैनिक टोली के बीच सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शेष महिलाओं की रक्षा के लिए तेजी से उस ओर बढ़ गये, जहां से रोने के स्वर आ रहे थे।

इस दौड़भाग में वे अकेले पड़ गये। उनके हाथी पर अग्निबाण चलाये गये, जिससे विचलित होकर वह खाई में गिर गया। यह देखकर शत्रुओं ने राजा को चारों ओर से घेर लिया। राजा ने बहुत देर तक संघर्ष किया; पर अंततः शत्रु सैनिकों के भालों से उनका शरीर क्षत-विक्षत होकर मातृभूमि की गोद में सदा को सो गया। इधर महिला वेश में छिपे मुस्लिम सैनिकों ने भी असली रूप में आकर हिन्दू सेना पर बीच से हमला कर दिया। इस प्रकार हिन्दू वीर दोनों ओर से घिर गये और मोहम्मद बिन कासिम का पलड़ा भारी हो गया।

राजा दाहरसेन के बलिदान के बाद उनकी पत्नी लाड़ी और बहिन पद्मा ने भी युद्ध में वीरगति पाई। कासिम ने राजा का कटा सिर, छत्र और उनकी दोनों पुत्रियों (सूर्या और परमाल) को बगदाद के खलीफा के पास उपहारस्वरूप भेज दिया। जब खलीफा ने उन वीरांगनाओं का आलिंगन करना चाहा, तो उन्होंने रोते हुए कहा कि कासिम ने उन्हें अपवित्र कर आपके पास भेजा है।
इससे खलीफा भड़क गया। उसने तुरन्त दूत भेजकर कासिम को सूखी खाल में सिलकर हाजिर करने का आदेश दिया। जब कासिम की लाश बगदाद पहुंची, तो खलीफा ने उसे गुस्से से लात मारी। दोनों बहिनें महल की छत पर खड़ी थीं। जोर से हंसते हुए उन्होंने कहा कि हमने अपने देश के अपमान का बदला ले लिया है। यह कहकर उन्होंने एक दूसरे के सीने में विष से बुझी कटार घोंप दी और नीचे खाई में कूद पड़ीं।

सौजन्य से :–
          पं. खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
          राजर्षि राजवंश - आर्यावर्त्य
        धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
        प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़

सोमवार, 25 नवंबर 2019

अमर सिंह हाड़ा [चौहान]


परम उज्जवल हाडा चौहान वंश में अनेक योद्धाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने बाहुबल से समस्त क्षत्रियों का गौरव बढ़ाया। परन्तु आज उन योद्धाओं के केवल नाम ही शेष रह गए हैं और वर्तमान समय में तो वह नाम भी हम भूलते जा रहे हैं। 

हाडा चौहान वंश में जन्मे अमरसिंह हाडा ठिकाना पलायथा की वीरगाथा भी अविस्मरणीय है, यह घटना मध्यकाल से उत्तरार्द्ध तथा उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक काल की हैं। भारत में इस समय अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो चुका था, लेकिन मराठों का उपद्रव रूका नहीं था, इस समय कोटा पर महाराव उम्मेदसिंह का शासन था। इनके समय सन् 1860 में मराठा और अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध में कोटा राज्य की ओर से पलायथा ठिकाणे से अमरसिंह (आपजी सा) इस युद्ध में कर्नल मोन्सून के साथ शामिल हुए थे।



यह युद्ध मध्यप्रदेश के गरोठ नामक स्थान पर हुआ था। युद्ध के दौरान अमरसिंह जी हाडा ने अपनी प्रचण्ड वीरता का परिचय दिया और हाथी पर सवार एक मराठे सरदार को अमरसिंह जी हाडा (आपजी सा) ने मार गिराया। इससे क्रोधित होकर मराठा सरदार जसवंत राव होल्कर ने अपनी सेना के साथ अमरसिंह पर धावा बोल दिया। अमरसिंह जी हाडा (आपजी सा) ने अपनी अद्भूत वीरता तथा युद्ध कौशल का परिचय देते हुए करीबन 837 मराठों को खेत कर दिया यानी मार गिराया। अमरसिंह जी हाडा प्रचण्डता से युद्ध करते हुए काफी सारे दुश्मनों से घिर गए और किसी मराठे ने पीछे से वार कर अमरसिंह जी का सिर कलम कर दिया। अमरसिंह जी हाडा (आपजी सा हुकूम) सिर कटने के बाद भी बराबर तलवार चला रहे थे और मराठाओं को मौत के घाट उतार रहे थे, जो भी अमरसिंह जी हाडा की तलवार के सामने आता वह फना यानी खत्म हो जाता।



यह नजारा अद्भुत एवं रोमांचित कर देने वाला था, जिसे देखकर सभी अचंभित थे। अमरसिंह जी हाडा की बहादुर और वफादार घोड़ी जिसका नाम केसर था, उस घोड़ी ने वक्त की नजाकत को भांपते हुए अमरसिंह जी के धड़ को युद्ध स्थल से पलायथा ठिकाणे ले आई। गरोठ के युद्ध मैदान से पलायथा ठिकाणे की दूरी करीबन 130 किलोमीटर है। इस युद्ध में मराठों की हार हुई थी। 


इतिहास गवाह है कि युद्ध के समय पर राजपूतों के घोड़ों की अहम भूमिका रही है। यहां पर वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के साहसी घोड़े चेतक और वीर अमरसिंह राठौड़ के घोड़े का स्मरण करना प्रासंगिक ही होगा।

🙏वीर भोग्या वसुंधरा।🚩
🙏जय राजपुताना।🚩

शनिवार, 23 नवंबर 2019

क्षत्रिय राजपूत वंश

राजपूत वह जाति है....
जिसका उदाहरण दुनिया मे शायद ही कहीं मिल सकें.... वीरता, दृढ़ता, स्वाभिमान, चातुर्य, युद्धकौशल, निर्भयता, ज्ञान ओर आन पर मर मिट जाने का इतिहास राजपूत जाति का ही मिलेगा...
स्वतंत्रता के उपासक, प्रातः स्मरणीय महाराणा 
प्रताप, सम्राट पृथ्वीराज चौहान,वीरवर सेनापति दुर्गादास, मुगलो के दांत खट्टे करने वाले क्षत्रपति शिवाजी , वीर जयमल मेड़तिया, मिहिरभोज , अमर सिंह राठौड़ राणा सांगा, और ऐसे अनगिनत वीरो का जन्म इस जाति में हुआ है....
कर्तव्यपरायण क्षत्राणी खींची वंश की राजपूतानी पन्ना धाय, दुर्गावती , हाड़ा रानी, सती पद्मावती औेर ऐसी कई वीरांगनाओं ने किस जाति में जन्म लिया, वह कौन सी जाति है, जिसने अपने बेटों, पति, पिता, भाई की बलि देकर संसार मे अपना नाम अमर किया! वह जाति है राजपूत ...
ओह !! मैं यह सुबह सुबह कैसा स्वपन देख रहा हूँ… कितनी सुंदर और पवित्र स्मृतियां है मेरे देश के वीर राजपूतो की… देवताओ ने भी आज तक इतने सुंदर चरित्र और सदाचारी आचरण करने वाले मनुष्य नही देखे होंगे, जैसे वीर राजपूत जाति में पैदा हुए...
पौरूष, विक्रम, त्याग के नाम पर जो भाव व्यक्त किये जा सकते है, वह सभी गुण राजपूतो में है । राजपूत हमारी श्रद्धा के अधिकारी है । राजपूतो का इतिहास लिखना, ओर उनके ह्रदय में जगह बनाना, एक स्वपन जैसा है....
मनुष्य जाति की इस कौम को, मानवता के इस पुष्प को, जिसके सौंदर्य  ओर सौरभ की तुलना संसार मे कोई दूसरा नही कर सकता, ऐसे पुष्प राजपूत जाति में ही खिले है ....
राजपूत ....तू इतिहास का निर्माता है तू अत्यंत मधुरतम  वीररस की  कविता है , तू जीवन का तत्वज्ञान है । तेरी आत्मा महत्तम है । यधपि वर्तमानकाल में तू अपने पूर्ण रुप मे दिखाई नही देता, लेकिन मेरा विश्वास है कि तू शीघ्र ही अपनी आत्मा को पहचानने में सफल होगा । 
अतीत काल मे तू हमेशा उत्पीड़ितों की रक्षा के लिए उठा और लड़ा, तूने रक्त की नदियां बहाई ओर अपने नाम को अमर बनाया....
राजपूत !! तू धन्य है, तेरा नाम स्मरण होते ही, ईश्वर का स्मरण हो जाता है। संपुर्ण विश्व के राजपूत, महान् चौहान, राठौड़, मेवाड़ी, वीर मारवाड़ी, कभी न झुकने वाले हाड़ा, निर्भय भाटी, महाराणा प्रताप , उनका गौरव, उनकी शान, ओर उनके नाम की कीर्ति - पताका आज भी संसार मे प्रसिद्ध है....
राजपूत, तेरे पूर्व के गौरव को देखकर मेरा सिर श्रद्धा से झुक जाता है...... तेरी वीरता का किस्सा पढ़ पढ़ के मेरी इस मुर्दा नसों में भी उबाल आ जाता है। तेरी कथाएं सुनते ही निर्बल मनुष्य की भुजाएं भी फड़क उठती है।
         ||  तू धन्य है ... तुझे बार बार नमन है ||

शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

यह समाधि गवाह है योद्धाओं के अपमान की।

बाबर के ऊपर मौत बन कर टूटे और हिंदुत्व की रक्षा के लिए 80 घाव खा कर भी अंतिम सांस तक लड़ते रहने वाले महायोद्धा रणासांगा की समाधि की ये दुर्दशा। 🥴
यह समाधि राजस्थान के दौसा जिले के बसवा गाँव में रेलवे लाइन के एक तरफ स्थित है। चित्र को देखकर ही समझा जा सकता है कि हम अपने वीरों का कितना सम्मान करते हैं। जिन्होंने इस देश की रक्षा के लिए अपनी जान दी आज हम लोगो ने उनका क्या हाल कर दिया? भले ही दुश्मन उनका सर ना झुका सके लेकिन हम लोगों ने उनकी शान जरूर मिट्टी में मिला दी। 😞😞

हमारी मांग है राष्ट्रवाद के नाम पर सत्ता के सिंहासन पर बैठे उन तमाम लोगों से कि अविलम्ब इस पावन स्थली का जीर्णोद्धार करवा कर इसको नवीनीकरण का स्वरूप दिया जाय जिस से आने वाली पीढ़ी राणा सांगा जैसे महावीरो का इतिहास पढ़ सकें बजाय कि विधर्मी, क्रूर लुटेरे बाबर जैसे आक्रान्ताओं का।

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

क्षत्रिय राजपूत नाम के पीछे सिंह लगाने की परम्परा!

         शेयर जरूर कर दीजियेग हकुम ।



गौरवशाली क्षत्रिये राजपूत इतिहास में बहुत सी परम्पराये है उनमे से एक परम्परा है राजपूत नाम के पीछे सिंह लगाता है आइये जानते है सिंह लगाने का क्या रहस्य रहा है
जो महान देशभक्तों की श्रेणी में अग्रणी रहे हैं, जिन्होंने क्षत्रिय समाज को अपने जीवनकाल में अनेक उपलब्धियां प्रदान की हैं, उनमें से एक प्राप्ति ‘सिंह’ शब्द की है। क्षत्रिय समाज में अपने पुत्रों का कुंभा, जोधा, धंग, धारा, खेता, सांगा आदि नामकरण किया जाता था।

जननी जन्म भूमि के लिये जो नि:स्वार्थ भाव से समर्पित होते रहे हैं। वास्तव में वे ही महापुरुष कहलाते हैं और इतिहास ऐसे वीर पुरुषों की विरदि बरवान करते-करते नहीं अघाते हैं। वह समाज में अपने पीछे एक छाप छोड़ जाते हैं। जो अनुकरणीय होती है। आदर्श कहलाती है।
भारत में सौराष्ट्र प्रान्त के एक ऐसे ही राजपुरुष की कहानी है। जिसके पौरस की गाथाएं कभी इस देश की धरती पर गूंजती रहती थीं। जो महान देशभक्तों की श्रेणी में अग्रणी रहे हैं। जिन्होंने क्षत्रिय समाज को अपने जीवनकाल में अनेक उपलब्धियां प्रदान की हैं।
उनमें से एक प्राप्ति ‘सिंह’ शब्द की है। क्षत्रिय समाज में अपने पुत्रों का कुंभा, जोधा, धंग, धारा, खेता, सांगा आदि नामकरण किया जाता था। नाम के साथ शब्द लिखने का प्रचलन नहीं था। जो महाराजा खेतसिंह खंगार की ही देन है।
दिल्लीश्वर महाराजा पृथ्वीराज चौहान अपनी युवा अवस्था में गिरनार के वनों में शिकार खेलने जाया करते थे। एक बार उन्होंने जंगल में देखा। एक नौजवान राजकुमार वनराज को ललकारकर कुश्ती लड़ रहा है। कभी वनराज ऊपर होता था तो कभी नरराज। चौहान वह दृश्य देख आनंद विभोर होकर अवसन्त खड़े रह गये। उनके देखते ही देखते, राजकुमार ने बलशाली वनराज को पछाड़ लगा दी और लात घूसों से उसको मार डाला।

जब नरराज और वनराज का युध्द समाप्त हो गया तब चौहान उस वीर पुरुष के पास पहुंचे। बोले-बड़े बहादुर हो। क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूं। वह युवक प्रतिउत्तर में बोला-पहले आप अपना परिचय दें। मैं शाकम्भरी चौहान, महाराज सोमेश्वर का पुत्र हूं, पृथ्वीराज चौहान। दिल्ली का प्रशासक हूं। युवक इतने जवाब से ही नतमस्तक हो गया। बोला-महाराज क्षमा करें। अज्ञानतावश मैंने मूढ़ता की है। मेरा परिचय लेकर महाराज क्या करेंगे, हम तो अब वनवासी जन हैं।
नहीं, नहीं आप अपना पूरा परिचय दीजिये। तुम्हारे लक्षण, राज परिवारों जैसे दिखते हैं। मुंह पर कहना अच्छा नहीं लगता है। आप एक असाधारण पुरुष हैं। मुझे सही परिचय देने में संकोच न करें। कहिये भद्र आप कौन हैं।

महाराज मेरे पितामह राजा ऊदलजी खंगार जूनागढ़ाधीश्वर थे, उन्हें यादव वंशी राजाओं ने धोखे से मार डाला और सत्ता छीन ली है। हमारा परिवार छिन्न- भिन्न हो गया। अधिकांश लोग, जेजाहूति प्रदेश चले गये हैं। मेरे पिताश्री रूढ़देव खंगार परिवार सहित पास में ही निवास करते हैं।
मेरा नाम खेता खंगार है। यहां आखेट में आया था। वनराज से भेंट हो गई। परिणाम महाराज के सामने है। राजकुमार हम महाराज रूढ़देव के दर्शन करने की इच्छा रखते हैं। क्या हमें उनके दर्शन लाभ मिल सकेंगे।
हां महाराज जरूर चलिये, अब तो हम साधारण आदमी रह गये हैं।

हमसे आपकी जो टूटी-फूटी सेवा हो सकेगी सेवार्पित करेंगे। दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान, पडिहार नरेश रूढ़देव खंगार से बड़ी आत्मीयता से मिलकर, बहुत प्रसन्न हो गये थे। बातचीत के क्रम में चौहान बोले-महाराज खेता राजकुमार बड़े अजेय योध्दा हैं। मैंने उनकी शूरवीरता देखी है। बड़ा प्रभावित हूं। महाराज आजकल देश की दशा ठीक नहीं है।
क्षत्रिय वंश आपस में ही लड़कर घात कर रहे हैं। जिससे देश की शक्ति का ह्रास हो रहा है। आये दिन यवन आक्रमणकारियों के हमले देश पर हो रहे हैं। रक्षा का चौकस प्रबंध केंद्र में नहीं है। जो बहुत जरूरी है। भारतभूमि की रक्षा के लिये आपसे जेष्ठ पुत्र खेता राजकुमार को मांगता हूं। उन्हें दिल्ली जाने की आज्ञा दे दें। देश की रक्षा, देशभक्त नौजवानों से ही संभव है। आशा है राजन मुझे निराश न करेंगे।

वनवासी रूढ़देव खंगार अवाक रह गये, कुछ देर बाद बोले-भारतभूमि के गौरव, महाराज पृथ्वीराज चौहान खेता राजकुमार के बल पर ही हम इस बियाबान जंगल में रहते हैं। खीचीकुमार अभी नादान है। महाराज की आज्ञा है जिसमें देशहित की बात कही गई है। टालने की हिम्मत नहीं हो रही है। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा है।

पृथ्वीराज चौहान कहने लगे-राजन, रघुवंश भूषण महाराज दशरथ ने मुनि विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा के लिए अपने दोनों राजकुमार राम-लक्ष्मण को भेजकर उनकी मदद की थी। यह तो जननी जन्मभूमि की रक्षा का सवाल है। आप देशरक्षा में भागीदारी कर सुयश प्राप्त करें।

रूढ़देव कहने लगे-महाराज की आज्ञा शिरोधार्य है। जननी जन्मभूमि के लिये तो मेरा रोम-रोम अर्पित है।
पृथ्वीराज चौहान राजकुमार खेता खंगार को उनके दल-बल सहित दिल्ली ले आए, बड़े हर्षित थे। चौहान कहने लगे मैं वनराज की खोज में निकला और पा गया नरराज को।

उस समय अजमेर में उपद्रव हो गया था। राजस्व वसूली बंद पड़ी थी। अशांति का वातावरण बन गया था। आते ही समय महाराज ने राजकुमार को बंदोबस्त के लिये अजमेर भेज दिया। उन्होंने अपने बुध्दि कौशल से पूर्ण शांति व्यवस्था की और राजस्व वसूली का सिलसिला जमाया।

पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सैन्य व्यवस्था में सोलह सामन्तों की रचना की, उसमें राजकुमार खेता खंगार को प्रधान सामन्त नियुक्त किया गया। संयोगिता हरण में राजकुमार का भरपूर सहयोग लिया गया। चन्द कवि ने अपने पृथ्वीराज रासौ नामक ग्रन्थ में इसका वर्णन किया है। वे कहते हैं :-

खण्ड खण्ड निर्वाण सामन्त सार।
खैंची सुगोंड खेता खंगार॥
खित्त रन जीतियो।

पृथ्वीराज चौहान ने सत्रह बार मुहम्मद गौरी को इसी सामन्त के प्रबल पराक्रम से खदेड़ कर भगाया था। सन् 1182 ई. में उरई के मैदान में आला-ऊदल जैसे जगत प्रसिध्द बनाफर वीरों का मान मर्दन कर, परमार चंदेल पर विजयश्री प्राप्त की, जिसमें ऊदल मारा गया था और आल्हा चला गया था।

पृथ्वीराज चौहान ने विजित प्रदेश का प्रबंध सामन्त खेता खंगार और पंजुनराय कछवाहा को सौंपकर सूबेदारी नियुक्त की। चौहान, चंदेल की लड़ाई की उथल-पुथल में, गौड़ों ने कुंडार कर कब्जा कर लिया। जो विजित क्षेत्र का अंग था। राजकुमार खेता खंगार ने, गौड़ों को कुंडार से खदेड़ भगाया और अपना झण्डा गाड़ दिया। पृथ्वीराज चौहान ने कुंडार को खेता खंगार सामन्त की निजी उपलब्धि मानकर उन्हें कुंडार का अधिपति घोषित कर दिया।
खेता खंगार ने कुंडार को अपना मुख्यालय बनाया। वे महोबा छोड़कर कुंडार में आ गये। यहां आकर उन्होंने प्राचीन पध्दति से सर्वप्रथम परकोटे का निर्माण कराया। परकोटे का मुख्य द्वार वंदनवारनुमा बनाया गया। मुस्लिम कला देश में जोरों पर उभरकर आ रही थी बारहवीं शताब्दी में अंदर का निर्माण किया गया। जिसमें मौमिन कला की झलक दिखती है। उन्होंने एक आकर्षित सुदृढ़ और अति दुर्गम दुर्ग का निर्माण कराया। कुंडार अब गढ़कुंडार के नाम से विख्यात हो गया।

पंजुनराय कछवाहा महोबा,राजकुमार खेता खंगार गढ़कुंडार की ख्याति सेर् ईष्यालु हुए, उन्होंने पृथ्वीराज चौहान के भाई, कान्हापाल चौहान को अपने पक्ष में कर खेता खंगार को मरवाने के यत्न ढूंढना चालू किये। बड़ी-बड़ी युक्तियां ढूंढी गईं। अंत में सोचा, महाराज पृथ्वीराज चौहान खेता खंगार को बड़ा शूरवीर कहकर प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि खेता खंगार ने सोरठ (सौराष्ट्र) में कुश्ती लड़कर शेर मारा है। भला यह कैसे हो सकता है। क्यों न शेर से लड़वाकर खेता खंगार को मरवा दिया जाय। कान्हापाल चौहान ने पंजुनराय को भरोसा दिया, मैं महाराज से स्वीकृति ले लूंगा। भिण्ड के वनों में आदमी और शेर के युध्द का नाटक खेला जाय। युक्ति ठीक है।
युक्ति के मुताबिक भिण्ड राज्यान्तर्गत बियाबान जंगल में एक दर्शक मंच बनाया गया। आसपास के सभी राजे, महाराजे, सामंत, सरदार आमंत्रित किये गये। महाराज पृथ्वीराज चौहान की आज्ञा से नरराज और वनराज के आकर्षित युध्द का ऐलान किया गया। निश्चित तिथि पर सब लोग उस बियाबान जंगल में एकत्रित हुए।
दिल्लीश्वर महाराज पृथ्वीराज चौहान ने गढ़कुंडार के अधिपति खेता खंगार को वनराज से कुश्ती लड़ने हेतु निर्वाचित किया। जंगल का हांका किया गया। बब्बर शेर के निकलते ही खेता खंगार को मुकाबला करने हेतु राजा ने आदेशित किया। जंगली मैदान के बीच एक निहत्था विशालकाय शरीर, हृष्ट-पुष्ट रोबीला पुरुष खेता खंगार विद्यमान था। उसी तरह हृष्ट-पुष्ट रोबिला बब्बर शेर निकलकर मैदान में आया। उसने अपने शिकार को सामने खड़ा देखकर गुर्राकर पूंछ को ऐंठ मारी और बड़ी हैकड़ी के साथ गढ़कुंडार अधिपति खेता खंगार पर आक्रमण कर दिया। उसने हमलावर बब्बर शेर के दोनों पैरों को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया। वनराज और नरराज दोनों आपस में गुत्थम गुत्था होने लगे। स्यारों ने समझ लिया था कि उनका कांटा बिन प्रयास निकल गया है।
महाराज पृथ्वीराज चौहान भूतों की चालों से अनभिज्ञ थे। सन्नाटा छाया हुआ था। खेता खंगार पर बब्बर शेर हावी था। खेता ने अपनी पूर्ण शक्ति से वनराज को धकेला और उसे पटकर ऊपर सवार हो गया। फिर लात घूंसा मार-मारकर बब्बर शेर को पस्त कर डाला।

आवेश में उसने बब्बर शेर के बाएं पैर पर, अपना दायां पैर रखा और उसका दायां पैर अपने हाथ में लेकर, उसे चीर डाला। बब्बर शेर के मरते ही, उपस्थित जन समूह चिल्ला उठा। शेर चिरा, शेर चिरा, मंच पर तालियां बज गईं। महाराज पृथ्वीराज चौहान खुशी से झूम उठे, रक्त रंजित खेता खंगार हर्षित मन महाराज पृथ्वीराज चौहान के चरणों में आकर झुक गया। शाबास और धन्यवाद के बीच खेता खंगार का जयघोष गूंज गया।

महाराज पृथ्वीराज चौहान ने इस अविस्मरणीय घटना पर उस जगह एक ग्राम बसाने का ऐलान किया और उसका नाम रखा ‘शेरचिरा’। राजा ने ऐसा कर जनवाणी को ऊपर कर दिया। राजा ने फिर चन्द कवि से पूछा- कविराज शेर का कोई अच्छा सा नाम बताओ।

चन्द बोले राजन-नाहर, केहर, सिंह, राज बोले बस हमने राजकुमार खेता खंगार को अब ‘खेतसिंह’ खंगार की संज्ञा दे दी है। क्यों चन्द ठीक है न, शेर को मारने वाला सिंह पुरूष तो कहलाएगा ही। महाराज की जय हो, जय हो की ध्वनि आकाश मंडल में गूंज गई। तभी बहादुर क्षत्रिय लोग अपने नाम के साथ ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग करने लगे हैं |
जय माँ भवानी।🙏🚩
जय राजपूताना।🙏🚩

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

राष्ट्रीयता के जीवंत परिचायक थे छत्रपति शिवाजी महाराज।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती महाराष्ट्र में वैसे तो 19 फरवरी को मनाई जाती है लेकिन कई संगठन शिवाजी का जन्मदिवस‍ हिन्दू कैलेंडर में आने वाली तिथि के अनुसार मनाते हैं। देश के अनेक महापुरुषों ने वैशाख मास में जन्म लिया, उसी में वैशाख शुक्ल पक्ष में छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था। वे एक बहादुर, बुद्धिमानी, शौर्यवीर और दयालु शासक थे।

 

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1627 को मराठा परिवार में शिवनेरी (महाराष्ट्र) में हुआ। शिवाजी के पिता शाहजी और माता जीजाबाई थीं। उन्होंने भारत में एक सार्वभौम स्वतंत्र शासन स्थापित करने का प्रयत्न स्वतंत्रता के अनन्य पुजारी वीर प्रवर शिवाजी ने भी किया था। वे एक भारतीय शासक थे जिन्होंने मराठा साम्राज्य खड़ा किया था इसीलिए उन्हें एक अग्रगण्य वीर एवं अमर स्वतंत्रता-सेनानी स्वीकार किया जाता है।
 

 

यूं तो शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता है, पर यह सत्य इसलिए नहीं कि उनकी सेना में तो अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी थे तथा अनेक मुस्लिम सरदार और सूबेदारों जैसे लोग भी थे। वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था। नहीं तो वीर शिवाजी राष्ट्रीयता के जीवंत प्रतीक एवं परिचायक थे। इसी कारण निकट अतीत के राष्ट्रपुरुषों में महाराणा प्रताप के साथ-साथ इनकी भी गणना की जाती है।

 

माता जीजाबाई धार्मिक स्वभाव वाली होते हुए भी गुण-स्वभाव और व्यवहार में वीरंगना नारी थीं। इसी कारण उन्होंने बालक शिवा का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की उज्ज्वल कहानियां सुना और शिक्षा देकर किया था। दादा कोणदेव के संरक्षण में उन्हें सभी तरह की सामयिक युद्ध आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस युग में परम संत रामदेव के संपर्क में आने से शिवाजी पूर्णतया राष्ट्रप्रेमी, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा बन गए।
 

 

बचपन में शिवाजी अपनी आयु के बालक इकट्ठे कर उनके नेता बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कर्म की सारे दक्षिण में धूम मच गई, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुंची। अत्याचारी किस्म के यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही मारे डर के बगलें झांकने लगे।
 

 

शिवाजी के बढ़ते प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सके तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार किया। पता चलने पर शिवाजी आग बबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनख का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं। 

 

उनकी इस वीरता के कारण ही उन्हें एक आदर्श एवं महान राष्ट्रपुरुष के रूप में स्वीकारा जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज का 3 अप्रैल 1680 ई. में तीन सप्ताह की बीमारी के बाद रायगढ़ में स्वर्गवास हो गया। 

रविवार, 3 फ़रवरी 2019

राणा सांगा :- बस नाम ही काफी हैं।


मेवाड़ योद्धाओं की भूमि है, यहाँ कई शूरवीरों ने जन्म लिया और अपने कर्तव्य का प्रवाह किया । उन्ही उत्कृष्ट मणियों में से एक थे राणा सांगा । पूरा नाम महाराणा संग्राम सिंह । वैसे तो मेवाड़ के हर राणा  की तरह इनका  पूरा जीवन भी युद्ध के इर्द-गिर्द ही बीता लेकिन इनकी कहानी थोड़ी अलग है । एक हाथ , एक आँख, और एक पैर के पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने के बावजूद इन्होंने ज़िन्दगी से हार नही मानी और कई युद्ध लड़े ।

ज़रा सोचिए कैसा दृश्य रहा होगा जब वो शूरवीर अपने  शरीर मे 80 घाव होने के  बावजूद, एक आँख, एक  हाथ और एक पैर पूर्णतः क्षतिग्रस्त होने  के  बावजूद  जब  वो लड़ने जाता था ।।

कोई योद्धा, कोई दुश्मन इन्हें मार न सका पर जब कुछ अपने ही विश्वासघात करे तो कोई क्या कर सकता है । आईये जानते है ऐसे अजयी मेवाड़ी योद्धा के बारे में, खानवा के युद्ध के बारे में एवं उनकी मृत्यु के पीछे के तथ्यों के बारे में।

परिचय –
राणा रायमल के बाद सन् 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इनका शासनकाल 1509- 1527 तक रहा । इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली राजा थे । इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की  रक्षा तथा उन्नति की।

राणा सांगा अदम्य साहसी थे । इन्होंने सुलतान मोहम्मद शासक माण्डु को युद्ध में हराने व बन्दी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दर्शाता है। बचपन से लगाकर मृत्यु तक इनका जीवन युद्धों में बीता। इतिहास में वर्णित है कि महाराणा संग्राम सिंह की तलवार का वजन 20 किलो था

सांगा के युद्धों का  रोचक इतिहास  –
  महाराणा सांगा का राज्य दिल्ली, गुजरात, और मालवा के मुगल  सुल्तानों के राज्यो से घिरा हुआ था। दिल्ली पर सिकंदर लोदी, गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा और मालवा में नसीरुद्दीन खिलजी सुल्तान थे। तीनो सुल्तानों की सम्मिलित शक्ति से एक स्थान पर महाराणा ने युद्ध किया फिर भी जीत महाराणा की हुई। सुल्तान इब्राहिम लोदी से बूँदी की सीमा पर खातोली के मैदान में वि.स. 1574 (ई.स. 1517) में युद्ध हुआ। इस युद्ध में इब्राहिम लोदी पराजित हुआ और भाग गया। महाराणा की एक आँख तो युवाकाल में भाइयो की आपसी लड़ाई में चली गई थी और इस युद्ध में उनका बायां हाथ तलवार से कट गया तथा एक पाँव के घुटने में तीर लगने से सदा के लिये लँगड़े हो गये थे।

महाराणा ने गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर को लड़ाई में ईडर, अहमदनगर एवं बिसलनगर में परास्त कर अपने अपमान का बदला लिया अपने पक्ष के सामन्त रायमल राठौड़ को ईडर की गद्दी पर पुनः बिठाया।

अहमदनगर के जागीरदार निजामुल्मुल्क ईडर से भागकर अहमदनगर के किले में जाकर रहने लगा और सुल्तान के आने की प्रतीक्षा करने लगा । महाराणा ने ईडर की गद्दी पर रायमल को बिठाकर अहमद नगर को जा घेरा। मुगलों ने किले के दरवाजे बंद कर लड़ाई शुरू कर दी। इस युद्ध में महाराणा का एक नामी सरदार डूंगरसिंह चौहान(वागड़) बुरी तरह घायल हुआ और उसके कई भाई बेटे मारे गये। डूंगरसिंह के पुत्र कान्हसिंह ने बड़ी वीरता दिखाई। किले के लोहे के किवाड़ पर लगे तीक्ष्ण भालों के कारण जब हाथी किवाड़ तोड़ने में नाकाम रहा , तब वीर कान्हसिंह ने भालों के आगे खड़े होकर महावत को कहा कि हाथी को मेरे बदन पर झोंक दे। कान्हसिंह पर हाथी ने मुहरा किया जिससे उसका शरीर भालो से छिन छिन हो गया और वह उसी क्षण मर गया, परन्तु किवाड़ भी टूट गए। इससे मेवाड़ी  सेना में जोश बढा और वे नंगी तलवारे लेकर किले में घुस गये और मुगल  सेना को काट डाला। निजामुल्मुल्क जिसको मुबारिजुल्मुल्क का ख़िताब मिला था वह भी बहुत घायल हुआ और सुल्तान की सारी सेना तितर-बितर होकर अहमदाबाद को भाग गयी।

माण्डू के सुलतान महमूद के साथ वि.स्. 1576 में युद्ध हुआ जिसमें 50 हजार सेना के साथ महाराणा गागरोन के राजा की सहायता के लिए पहुँचे थे। इस युद्ध में सुलतान महमूद बुरी तरह घायल हुआ। उसे उठाकर महाराणा ने अपने तम्बू पहुँचवा कर उसके घावो का इलाज करवाया। फिर उसे तीन महीने तक चितौड़ में कैद रखा और बाद में फ़ौज खर्च लेकर एक हजार राजपूत के साथ माण्डू पहुँचा दिया। सुल्तान ने भी अधीनता के चिन्हस्वरूप महाराणा को रत्नजड़ित मुकुट तथा सोने की कमरपेटी भेंट स्वरूप दिए, जो सुल्तान हुशंग के समय से राज्यचिन्ह के रूप में वहाँ के सुल्तानों के काम आया करते थे। बाबर बादशाह से सामना करने से पहले भी राणा सांगा ने 18 बार बड़ी बड़ी लड़ाईयाँ दिल्ली व् मालवा के सुल्तानों के साथ लड़ी। एक बार वि.स्. 1576 में मालवे के सुल्तान महमूद द्वितीय को महाराणा सांगा ने युद्ध में पकड़ लिया, परन्तु बाद में बिना कुछ लिये उसे छोड़ दिया।

मीरा बाई से सम्बंध –
महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम भोजराज था, जिनका विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रतनसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ हुआ था। मीराबाई मेड़ता के राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी।

बाल्यावस्था में ही उसकी माँ का देहांत हो जाने से मीराबाई को राव दूदा ने अपने पास बुला लिया और वही उसका लालन-पालन हुआ।

मीराबाई का विवाह वि.स्. 1573 (ई.स्. 1516) में महाराणा सांगा के कुँवर भोजराज के साथ होने के कुछ वर्षों बाद कुँवर युवराज भोजराज का देहांत हो गया। मीराबाई बचपन से ही भगवान की भक्ति में रूचि रखती थी। उनका पिता रत्नसिंह राणा सांगा और बाबर की लड़ाई में मारा गया। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद छोटा पुत्र रतनसिंह उत्तराधिकारी बना और उसकी भी वि.स्. 1588(ई.स्. 1531) में मरने के बाद विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। मीराबाई की अपूर्व भक्ति और भजनों की ख्याति दूर दूर तक फैल गयी थी जिससे दूर दूर से साधु संत उससे मिलने आया करते थे। इसी कारण महाराणा विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहा करते और तरह तरह की तकलीफे दिया करता थे। यहाँ तक की उसने मीराबाई को मरवाने के लिए विष तक देने आदि प्रयोग भी किये, परन्तु वे निष्फल ही हुए। ऐसी स्थिति देख राव विरामदेव ने मीराबाई को मेड़ता बुला लिया। जब जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से मेड़ता छीन लिया तब मीराबाई तीर्थयात्रा पर चली गई और द्वारकापुरी में जाकर रहने लगी। जहा वि.स्. 1603(ई.स्. 1546) में उनका देहांत हुआ।

खानवा का युद्ध –
बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था जबकि राणा सांगा तुर्क-अफगान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहता थे, परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य 17 मार्च, 1527 ई. को खानवा में युद्ध आरम्भ हुआ।

इस युद्ध में राणा सांगा का साथ महमूद लोदी दे रहे थे। युद्ध में राणा के संयुक्त मोर्चे की खबर से बाबर के सौनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था जिसे राज्य द्वारा लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने सांगा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की। युद्ध क्षेत्र में राणा सांगा घायल हुए, पर किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिए गये। कालान्तर में अपने किसी सामन्त द्वारा विष दिये जाने के कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई। खानवा के युद्ध को जीतने के बाद बाबर ने ‘ग़ाजी’ की उपाधि धरण की।

मृत्यु –
खानवा के युद्ध मे राणा सांगा के चेहरे पर एक तीर आकर लगा जिससे राणा मूर्छित हो गए ,परिस्थिति को समझते हुए उनके किसी विश्वास पात्र ने उन्हें मूर्छित अवस्था मे रण से दूर भिजवा दिया एवं खुद उनका मुकुट पहनकर युद्ध किया , युद्ध मे उसे भी वीरगति मिली एवं राणा की सेना भी युद्ध हार गई । युद्ध जीतने की बाद बाबर ने मेवाड़ी सेना के कटे सरो की मीनार बनवाई थी । जब राणा को  होश आने के बाद यह बात पता चली तो वो बहुत क्रोधित हुए उन्होंने कहा मैं हारकर चित्तोड़ वापस नही जाऊंगा उन्होंने अपनी बची-कुची सेना को एकत्रित किया और फिर से आक्रमण करने की योजना बनाने लगे इसी बीच उनके किसी विश्वास पात्र ने उनके भोजन में विष मिला दिया ,जिससे उनकी मृत्यु हो गई ।

अस्सी घाव लगे थे तन पे ।
फिर भी व्यथा नहीं थी मन में ।।

जय मेवाड़ !💥

बुधवार, 14 नवंबर 2018

महाराजा रणजीत सिंह का इतिहास

🙏 प्रारंभिक जीवन 🙏 

रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर, 1780 को आधुनिक गुजराती पाकिस्तान में गुजरनवाला में सिखसांसी (खानाबदोश जनजाति) परिवार में हुआ था उस समय पंजाब को बहुत अधिक सिखों ने शासित किया था जिन्होंने मिस्ले नाम से गुटों में विभाजित किया था रणजीत सिंह के पिता महान सिंह सुकरचकिया के मिसालदार (कमांडर मिसल लीडर) थे गुर्जर वाला में उन्होंने अपने मुख्यालय के आसपास स्थित पश्चिम पंजाब में एक क्षेत्र को नियंत्रित किया था।

बचपन में वह चेचक से पीड़ित थे इसके परिणामस्वरूप उनकी बायीं आंख की दृष्टि भी कम हो गई उनकी मां माई राज कौर थी माई राज कौर जींद के राजा की बेटी थी वह माल्वैन नाम से भी जानी जाती थीं जब उनके पिता की मृत्यु हुई तब रणजीत सिंह सिर्फ 12 साल के थे उनके पिता की मृत्यु के बाद रंजीत सिंह को कन्हैया मिसल की सदा कौर ने उठाया था। 18 साल की उम्र में वह सुकरचकिया मिशेल के मिसालदार बने।

एक निडर योद्धा इस महान योद्धा निडर सैनिक समर्थ प्रशासक, ठहराव शासक राजनेता और पंजाब के मुक्तिदाता की 27 जून 1839 को मृत्यु हो गई उनकी समाधि (स्मारक) लाहौर पाकिस्तान में स्थित है कई अभियानों के बाद उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार किया और उन्होंने सिख गुटों को एक राज्य में एकजुट किया उन्होंने 12 अप्रैल 1801 को महाराजा का खिताब लिया 1799 से लाहौर की अपनी राजधानी के रूप में सेवा की।

1802 में उन्होंने पवित्र शहर अमृतसर पर कब्जा कर लिया वह कानून लाये उन्होंने भारत में गैर-धर्मनिरपेक्ष शैली और प्रथा को बंद कर दिया उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के साथ समान रूप से व्यवहार किया उन्होंने भेदभावपूर्ण धार्मिक कर पर प्रतिबंध लगा दिया जो कि जिजा हिंदुओं और सिखों मुसलमान पर मुस्लिम शासकों द्वारा लगाए गए थे।

सभी सैन्यवास से सम्मान रणजीत सिंह के अधिकांश लोग मुस्लिम थे और फिर भी उनके प्रति सभी की गहन निष्ठा थी और वे सिख से सहिष्णुता दिखाते हैं उनके धर्म प्रथाओं और उनके त्योहारों के प्रति सम्मान करते हैं महाराजा रणजीत सिंह यूरोपीय मानकों के लिए अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने वाले पहले एशियाई शासक थे और विभिन्न धर्मों के पुरुषों के साथ अपने दरबार में लीडरशिप पदों को भरने के लिए अच्छी तरह से जाने जाते थे लोगों को उनकी क्षमता पर मान्यता प्राप्त पदोन्नति मिलती थी न कि उनके धर्म पर।

शिव खेड़ा की जीवनी विचार पुस्तकें महाराजा के लिए काम करने वालों द्वारा उन्हें सम्मान प्राप्त होता था सिख साम्राज्य के विदेश मंत्री जो एक मुस्लिम थे फ़क़ीर अज़ीज़ुद्दीन ने ऑकलैंड के पहले अर्ल के ब्रिटिश गवर्नर-जनरल जॉर्ज ईडन के साथ मिलते समय पूछा- महाराजा की कौन सी आँख खराब है।

उन्होंने उत्तर दिया- महाराजा सूरज की तरह है और सूर्य की केवल एक आँख होती है उनकी एक आँख की भव्यता और चमक इतनी है कि मैंने उनकी दूसरी आँख को देखने की हिम्मत कभी नहीं की (महाराजा ने बचपन में चेचक के हमले से एक आँख की दृष्टि खो दी थी एक समय में जब एक व्यक्ति को सत्तारुढ़ से अयोग्य घोषित किया गया था केवल एक आँख की दृष्टि रणजीत सिंह के लिए कोई समस्या नहीं थी जिन्होंने यह टिप्पणी की थी उन्होंने उन्हें अधिक तीव्रता से देखने की क्षमता दी)।

गवर्नर जनरल उनके उत्तर से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने शिमला में अपनी बैठक के दौरान महाराज मंत्री को अपनी सोने की घड़ी दी वे प्रभावी रूप से धर्मनिरपेक्ष थे क्योंकि उन्होंने सिखों को प्राथमिकता नहीं दी थी या मुसलमानों हिंदू या नास्तिकों के खिलाफ भेदभाव नहीं किया था।

यह अपेक्षाकृत आधुनिक थे और एम्पायर के नागरिकों के सभी धर्मों और गैर-धार्मिक परंपराओं के लिए महान सम्मान करते थे साम्राज्य का एकमात्र प्रमुख धार्मिक प्रतीक महाराजा और शाही परिवार सिख (लेकिन खालसा नहीं) थे और सेना में सिख रईसों और खालसा योद्धाओं का वर्चस्व था।

महाराजा ने अपने विषयों पर सिख धर्म को कभी मजबूर नहीं किया यह पिछले मुस्लिम शासकों – अफगानी या मुगल के प्रयासों के जातीय और धार्मिक स्वछता से काफी विपरीत था रणजीत सिंह ने महान राज्य आधारित राज्य बनाया था  जहां सभी ने उनकी पृष्ठभूमि पर ध्यान दिए बिना एक साथ काम किया जहां उनके नागरिकों  धार्मिक मतभेद की बजाय पंजाबी परंपराओं को साझा करते देखा।

मुसलमान और सरकार-ए-खालसा शाह मोहम्मद (पंजाब का एक प्रसिद्ध सूफी कवि) रंजीत सिंह के राज्य के पतन पर जंग नमः  में लिखते हैं: रणजीत सिंह जन्म से योद्धा-राजा थे जिन्होंने देश को अपनी भावना दी थी उन्होंने कश्मीर मुल्तान पेशावर पर विजय प्राप्त की और चम्बा कांगड़ा और जम्मू के सामने उनसे पहले धनुष बनाया उन्होंने अपने प्रदेशों को लद्दाख और चीन तक बढ़ाया और वहां अपना सिक्का लगाया।

शाह मोहम्मद! पचास वर्षों तक उन्होंने संतुष्टि महिमा और शक्ति के साथ शासन किया शाह मोहम्मद के लिए पंजाबी मुसलमान सरकार-ए-खालसा (रणजीत सिंह का सिख राज्य) का हिस्सा बन गए जहां अतीत में वे अफगान अरब, पश्तून, फ़ारसी और तुर्कों पर निर्भर थे जिन्होंने लगातार उनके साथ विश्वासघात किया था।

सुपर 30 के आनन्द कुमार का जीवन परिचय 
महाराजा का सैन्य महाराजा ने एक शक्तिशाली सैन्य मशीन विकसित की जिसने एक व्यापक साम्राज्य का निर्माण किया और इसे शत्रुतापूर्ण और महत्वाकांक्षी पड़ोसियों के बीच बनाए रखा इस साम्राज्य का निर्माण अपनी प्रतिभा का एक परिणाम था वह विरासत में मिली कमजोर शक्ति से लगभग सवारों का एक दल था एक बल जहां हर कोई अपना घोड़ा लाता था और जो भी हथियार वह खरीद सकता था वह बिना किसी के नियमित प्रशिक्षण या संगठन महाराजा ने एशिया की एकमात्र आधुनिक सेना का विकास किया 1880 के दशक में जापानी पुनर्गठन जो कि सतलुज में ब्रिटिश अग्रिम रोकने में सक्षम था उनके सैनिकों को जिसने एक साथ बाँध कर रखा वह उनके नेता के प्रति उनकी निजी वफादारी थी।

गोरिल्ला युद्ध प्रणाली अशांत और अराजक अठारहवीं शताब्दी के दौरान खलसा में अच्छी स्थिति में खड़ी हुई थी लेकिन बदलते समय की ज़रूरतों और एक सुरक्षित राज्य स्थापित करने के लिए रणजीत सिंह की महत्वाकांक्षा के लिए यह अनुपयुक्त थी।

अपने जीवन के शुरुआती दिनों में उन्होंने देखा कि कैसे ब्रिटिश सैनिक अपने व्यवस्थित प्रशिक्षण और उनके अनुशासन के साथ संख्याओं में सबसे ज्यादा भारतीय सेनाओं को पराजित कर चुके थे।

उन्होंने यह भी महसूस किया था कि युद्ध में एक अच्छी तरह से ड्रिलेड पैदल सेना के साथ-साथ तोपखाने भी महत्वपूर्ण थे 1802 में अमृतसर पर कब्जा करने के तुरंत बाद उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से कुछ पालुओं को पैदल सेना के अपने प्लाटूनों को प्रशिक्षित करने के लिए ले लिया।

उन्होंने प्रशिक्षण और रणनीति के ब्रिटिश तरीकों का अध्ययन करने के लिए लुधियाना में अपने कुछ पुरुष भी भेजे। रणजीत सिंह को लाहौर में 12 अप्रैल 1801 को ताज पहनाया गया था 1740 का दशक अराजकता का वर्ष था और शहर में 1745 और 1756 के बीच नौ अलग-अलग राज्यपाल थे स्थानीय सरकार ने आक्रमण और अराजकता कुछ क्षेत्रों में सिखों को नियंत्रित करने के लिए बैंड को नियंत्रित करने की अनुमति दी। 1799 में सभी सिख मिस्त्र (युद्धरत बैंड) एक शाही राजधानी लाहौर से महाराजा रणजीत सिंह द्वारा शासित एक संप्रभु सिख राज्य बनाने के लिए शामिल हो गए थे।

1740 के दशक में अहमद शाह अब्दाली के नेतृत्व में अफ़गानों द्वारा अक्सर आक्रमण और स्थानीय सरकार में अराजकता की वजह से लाहौर के नागरिकों के लिए जीवन बहुत असुविधाजनक रहा भंगी मिस्ल मुगल लाहौर पर आक्रमण करने और लूटने के लिए मुट्ठी सिख बैंड था बाद में रणजीत सिंह इस अराजकता में लाभ कर पाए थे उन्होंने अब्दाली के पोते ज़मान शाह को लाहौर और अमृतसर के बीच लड़ाई में पराजित किया अफगान और सिख संघर्षों के अराजकता से रणजीत सिंह के नाम से एक विजयी सिख उभरा जो सिखों को एकजुट करने में सक्षम था और लाहौर पर कब्जा कर लिया जहां उन्होंने सम्राट को ताज पहनाया था।

एलन मस्क का जीवन परिचय 7 जुलाई 1799 को सुकर्चकिया प्रमुख रणजीत सिंह के सिख मिलिशिया लाहौर के कब्जे में थे रणजीत सिंह ने सिख मिशेलियों को संगठित किया जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी के दौरान एक एकीकृत कमान के तहत अधिक या कम सद्भाव पर शासन किया था और 1799 में उन्होंने एक नए सिख राज्य की प्रशासनिक राजधानी के रूप में लाहौर की स्थापना की।

1802 में रणजीत सिंह के सैनिकों के कब्जे के बाद अमृतसर  राज्य का आध्यात्मिक और वाणिज्यिक केंद्र बन गया और महाराजा ने शहर के प्रमुख समूहों के संरक्षण को बढ़ाने के लिए अपने इरादे की घोषणा की लाहौर पाकिस्तान में सम्राट रणजीत सिंह की समाधि है जबकि लाहौर के अधिकतर मुग़ल युग के निर्माण अठारहवीं शताब्दी के अंत तक खंडहर हो गए।

सिखों के तहत पुनर्निर्माण प्रयास सिख समुदाय पर केंद्रित थे क्योंकि शहर में आने वाले कई आगंतुकों ने उल्लेख किया कि : शहर का अधिकांश भाग जीर्णता में था और इसके कई मस्जिदों को लूट लिया गया था और अपवित्रित किया गया था भव्य बादशाह मस्जिद को घोड़े की स्थिरता के रूप में इस्तेमाल किया गया था और सिख तोपखाने रेजिमेंट के लक्ष्य के रूप में मीनार को इस्तेमाल किया जाता था ज्यादातर शहर के मुस्लिम निवासियों ने इस समय के दौरान काफी नुकसान पहुंचाया और इस अवधि को आम तौर पर लाहौर के प्राचीन वास्तुकला के चमत्कारों के विचलन से जोड़ा जाता है।

रणजीत सिंह की मृत्यु 27 जून 1899 को हुई और अंततः उनका शासनकाल समाप्त हो गया उसके बाद उनके बेटे दलित सिंह उनके उत्तराधिकारी बने उन्हें लाहौर में दफनाया गया था और उनकी समाधि अभी भी वहीँ है।

जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।

गाथा वीर चौहानों की भाग - 9

 

गाथा वीर चौहानों की आपने आठवें भाग तक पढ़ा था जिसमे राजा अजयराज तक का वर्णन हो चुका है।

अजयराज ने अपने पुत्र अर्णोराज चौहान को गद्दी पर बैठाकर पुष्कर की पवित्र झील के किनारे कठोर तपस्या की अर्णोराज चौहान की अपने समय मे स्थिति बहुत ही सम्मानीय थी उन्हें बिजौलिया शिलालेख में #__महाराजधिराज_परमेश्वर_परमभट्टारक  श्रीमन्नअर्णोराज देवा आदि उपाधियों से सम्मानित किया गया इससे यह तो स्पष्ठ होता है की अजयराज के पुत्र अर्णोराज अपने समय मे ईश्वर जितने सम्मानीय ओर लोकप्रिय हुए।

अर्णोराज चौहान के समय मुस्लिम तुर्को ने अजेमर पर आक्रमण किया था अर्णोराज का लाहौर तथा गजनियो के तुर्को से संघर्ष तो अजयराज के समय से चला आ रहा था अजयराज चौहान ने भी इस काल मे नागौर की रक्षा अपनी पूरी सैन्य शक्ति के साथ कि थी अर्णोराज के शाशन के आरम्भ में ही मुसलमानी सेना ने अजेमर पर आक्रमण कर दिया।

अर्णोराज ने बहुत ही चतुराई तथा वीरता से तुर्को का सामना किया तथा उन्हें बुरी तरह परास्त किया अजमेर के बाहर बड़े मैदान में यह युद्ध हुआ था यह पूरा मैदान मुसलमानों के शव से भर गया था पूरा मैदान रक्त से लाल हो गया जहां तहां मुस्लिम सेनाओं से शव नजर आते थे अजमेर निवासियों ने इन शवो के दुर्गंध से बचने के लिए  गांव के गांव फूंककर इन शवो को जलाया था राजपूत कभी सेक्युलर नही थे यह तो आज का रिवाज चल पड़ा है की आतंकवादियों के शव को भी धार्मिक सम्मान देकर दफनाया जाता है उन्हें फूंका नही जाता।

इस महान विजय का अजमेर के निवासियों ने बहुत दिनों तक जश्न मनाया ओर उस मैदान से रक्त को साफ कर अर्नोसागर झील का निर्माण किया गया।

अर्णोराज चौहान ने सिंधु नदी से सरस्वती नदी तक चौहान साम्राज्य की पताका भारत मे फहरा दी थी अर्णोराज चौहान ने हरितनक प्रदेश वर्तमान हरियाणा को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था अर्णोराज ने मालवा के शाशक नरवर्मन को भी परास्त कर उसका वध किया।

हरियाणा की विजय का बहुत ही रोमांचक वर्णन इतिहास की पुस्तकों में है अर्णोराज के सेनिको ने पहले दिल्ली विजय की ठानी चाहमान प्रशस्ति के अनुसार दिल्ली के तोमर राजा और अर्णोराज चौहान के बीच घमासान युद्ध हुआ इसमे तोमर शाशको की शक्ति क्षीण पड़ती जा रही थी हरियाणा को जीतने के लिए चौहान सैनिक यमुना नदी के कीचड़ में घुस गए थे जीत का यह विकराल दृश्य देखकर महिलाएं रोने लगीं इस संघर्ष का अंत तब हुआ जब हरियाणा के साथ साथ बुलंदशहर भी चौहानों के कब्जे में आ गया।

गुजरात के चालुक्यों तथा अजेमर के चौहानों का संघर्ष अजयराज के समय से चला आ रहा था अर्णोराज को सिंहासन पर बैठते ही चालुक्यों के विरुद्ध तलवार उठानी पड़ी उस समय चालुक्यों के नरेश सिंहराज जयसिंहः थे परन्तु चालुक्यों के विरुद्ध युद्ध का परिणाम चौहानों के पक्ष में नही आया सिद्धराज जयसिंहः ने अर्णोराज को परास्त तो कर दिया लेकिन अपनी पुत्री का विवाह भी अर्णोराज से कर दिया इस विवाह ने चालुक्यों तथा चौहानों के मतभेदों को कुछ समय तक दूर तो कर दिया लेकिन् यह मधुर संबंध ज़्यादा दिनों तक नही चल सका चालुक्य सिहासन ओर अब कुमारपाल बैठ चुका था और कुमारपाल और अर्णोराज के बीच संघर्ष लगभग चलता ही रहा।

अर्णोराज के जीवन का एक दिन भी शांति से नही गुजरा था लेकिन इस काल मे भी अर्णोराज ने अपने पिता अजयराज की स्मृति में एक भव्य विशाल शिव मंदिर का निर्माण करवाया था पृथ्वीराज विजय के अनुसार अर्णोराज के महारानी सुधावा ( मारवाड़ की राजकुमारी )  से तीन पुत्र हुए गुण और स्वभाव में अर्णोराज के यह तीनों पुत्र ही एक दूसरे से एकदम भिन्न थे अर्णोराज का पहला पुत्र भृगु के पुत्र परशुराम की तरह बहुत ही क्रोध वाला था जिस प्रकार क्रोध में परशुराम ने अपनी माता का वध किया।

उसी प्रकार दुःखद अंत अर्णोराज का हुआ उनके बड़े पुत्र ने ही उनकी हत्या कर दी जयानक ने तो इस घटना का वर्णन नही किया है लेकिन हम्मीर महाकाव्य, सुरताण चरित्र , ओर प्रबंध कोष में इस घटना का उल्लेख है अर्णोराज को मारकर जगदेव गद्दी ओर बैठा लेकिन पितृहत्यारा जगदेव ज़्यादा दिन सत्ता का सुख भोग नही सका उसके छोटे भाई पितृभक्त विग्रजराज चौहान ने उसका वध कर दिया अर्णोराज का दूसरा पुत्र विग्रहराज बहुत ही स्वाभिमानी कुशल तथा वीर योद्धा था।

चौहानों में एक से बढ़कर एक राजा हुए थे पहले राजाओ की तुलना देवताओ से होती थी लेकिन चौहानों के शाशन के बाद लोगो ने देवताओ की तुलना चौहान राजाओ से करनी शुरू कर दी और यह चौहान राजाओ ने जनता पर जबरदस्ती नही थोपा था बल्कि अपने गुण तथा कर्म से यह सम्मान हासिल किया था।

चौहानों के लिए राष्ट्र की रक्षा करना ही राजा तथा सेना दोनो का प्रमुख कर्तव्य होता था मेघातिथि के अनुसार अगर राज्य पर आक्रमण हो रहा हो नरसंघार हो रहा हो और सैनिक मर रहे हो यदि तब राजा नही लड़ता तो उसका सारा यश अंधकार की गहरी खाई में खो जाएगा ।

चौहान राजाओ के समय पुरोहितों का बहुत सम्मान होता था कहा जाता है कि एक बार विग्रजराज चौहान ने अपने पुरोहित की सलाह को वरीयता देते हुए अपने अनुभवी मंत्रियों यहां तक कि बुजुर्ग श्रीधर की भी नही सुनी थी चौहान राजाओ में पुरोहितों की सलाह बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी  चौहान शाशन में पुरोहितों का पद मंत्रियों से कम नही था।

चौहान साम्राज्य को आधुनिक भारत का सबसे विकसित साम्राज्य कह सकते है इस साम्राज्य की महानता का ज्ञात इसी बात से हित है की विभिन्न मंत्रालयों में एक कृषि मंत्रालय भी हुआ करता था जो किसानों की सारी समशाया सुनता तथा उसका निराकरण करता इस कृषि विभाग को उस समय क्षेत्राप कहा जाता था।

आजकल कुछ गुजर खुद को चौहानों  से जोड़ते है जबकि चौहान काल मे राजपूत शब्द आ चुका था चौहान खुद को राजपूत उर्फ़ राजपुत्र कहना पसन्द करते थे वास्तव में आनुवंशिक सेनिको को राजपूत कहा जाता था जो थे राजपरिवार का हिस्सा ही ।

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जय राजपूताना जय मां भवानी धर्म क्षत्रिय युगे युगे।