बुधवार, 11 अक्टूबर 2017

Rani Padmini Story in Hindi | रानी पदमिनी की कहानी | Rani Padmavati

Rani Padmini Story in Hindi | Rani Padmavati Story in Hindi

Rani Padmini
12वी और 13वी सदी में दिल्ली के सिंहासन पर दिल्ली सल्तनत का राज था | सुल्तान ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए कई बार मेवाड़ पर आक्रमण किया | इन आक्रमणों में से एक आक्रमण अलाउदीन खिलजी ने सुंदर रानी पदमिनी Padmavati को पाने के लिए किया था | ये कहानी अलाउदीन के इतिहासकारो ने किताबो में लिखी थी ताकि वो राजपूत प्रदेशो पर आक्रमण को सिद्ध कर सके |कुछ इतिहासकार इस कहानी को गलत बताते है क्योंकि ये कहानी मुस्लिम सूत्रों ने राजपूत शौर्य को उत्तेजित करने के लिए लिखी गयी थी | आइये इसकी पुरी कहानी आपको बताते है |

रानी पद्मिनी का बचपन और स्वयंवर में रतन सिंह से विवाह

Rani Padmini and Rawal Ratan singhRani Padmini  रानी पदमिनी के पिता का नाम गंधर्वसेन और माता का नाम चंपावती था | Rani Padmini  रानी पद्मिनी के पिता गंधर्वसेन सिंहल प्रान्त के राजा थे |बचपन में पदमिनी के पास “हीरामणी ” नाम का बोलता तोता हुआ करता था जिससे साथ उसमे अपना अधिकतर समय बिताया था | रानी पदमिनी बचपन से ही बहुत सुंदर थी और बड़ी होने पर उसके पिता ने उसका स्वयंवर आयोजित किया | इस स्वयंवर में उसने सभी हिन्दू राजाओ और राजपूतो को बुलाया | एक छोटे प्रदेश का राजा मलखान सिंह भी उस स्वयंवर में आया था |
राजा रावल रतन सिंह भी पहले से ही अपनी एक पत्नी नागमती होने के बावजूद स्वयंवर में गया था | प्राचीन समय में राजा एक से अधिक विवाह करते थे ताकि वंश को अधिक उत्तराधिकारी मिले | राजा रावल रतन सिंह ने मलखान सिंह को स्वयंमर में हराकर पदमिनी Padmavati से विवाह कर लिया | विवाह के बाद वो अपनी दुसरी पत्नी पदमिनी के साथ वापस चित्तोड़ लौट आया |

संगीतकार राघव चेतन का अपमान और निर्वासन

Ratan singh and Raghav Chetanउस समय चित्तोड़ पर राजपूत राजा रावल रतन सिंह का राज था | एक अच्छे शाषक और पति होने के अलावा रतन सिंह कला के संरक्षक भी थे |उनके ददरबार में कई प्रतिभाशाली लोग थे जिनमे से राघव चेतन संगीतकार भी एक था | राघव चेतन के बारे में लोगो को ये पता नही था कि वो एक जादूगर भी है | वो अपनी इस बुरी प्रतिभा का उपयोग दुश्मन को मार गिराने में उपयोग करता था | एक दिन राघव चेतनका बुरी आत्माओ को बुलाने का कृत्य रंगे हाथो पकड़ा जाता है |इस बात का पता चलते ही रावल रतन सिंह ने उग्र होकर उसका मुह काला करवाकर और गधे पर बिठाकर अपने राज्य से निर्वासित कर दिया| रतन सिंह की इस कठोर सजा के कारण राघव चेतन उसका दुश्मन बन गया |

प्रतिशोध की आग में जला राघव चेतन पहुचा खिलजी के पास

Raghav chetan and Alaaudin Khiljiअपने अपमान से नाराज होकर राघव चेतन दिल्ली चला गया जहा पर वो दिल्ली के सुल्तान अलाउदीन खिलजी को चित्तोड़ पर आक्रमण करने के लिए उकसाने का लक्ष्य लेकर गया |दिल्ली पहुचने पर राघव चेतन दिल्ली के पास एक जंगल में रुक गया जहा पर सुल्तान अक्सर शिकार के लिया आया करते थे |एक दिन जब उसको पता चला कि की सुल्तान का शिकार दल जंगल में प्रवेश कर रहा है तो राघव चेतन ने अपनी बांसुरी से मधुर स्वर निकालना शुरु कर दिया|
जब राघव चेतन की बांसुरी के मधुर स्वर सुल्तान के शिकार दल तक पहुची तो सभी इस विचार में पड़ गये कि इस घने जंगल में इतनी मधुर बांसुरी कौन बजा सकता है | सुल्तान ने अपने सैनिको को बांसुरी वादक को ढूंड कर लाने को कहा | जब राघव चेतन को उसके सैनिको ने अलाउदीन खिलजी के समक्ष प्रस्तुत किया तो सुल्तान ने उसकी प्रशंशा करते हुए उसे अपने दरबार में आने को कहा | चालाक राघव चेतन ने उसी समय राजा से पूछा कि “आप मुझे जैसे साधारण संगीतकार को क्यों बुलाना चाहते है जबकि आपके पास कई सुंदर वस्तुए है ” |
अलाउदीन खिलजी के इतिहास के बारे में यहाँ पढ़े : अलाउदीन खिलजी , जिसको सत्ता की भूख ने बनाया दिल्ली सल्तनत का सबसे शक्तिशाली शासक 
राघव चेतन की बात ना समझते हुए खिलजी ने साफ़ साफ़ बात बताने को कहा | राघव चेतन ने सुल्तान को Rani Padmini  रानी पदमिनी की सुन्दरता का बखान किया जिसे सुनकर खिलजी की वासना जाग उठी |अपनी राजधानी पहुचने के तुरंत बात उसने अपनी सेना को चित्तोड़ पर आक्रमण करने को कहा क्योंकि उसका सपना उस सुन्दरी को अपने हरम में रखना था |

रानी पद्मिनी की एक झलक पाने खिलजी पहुचा चित्तोड़

Rani Padmini and Alauddin Khilji
बैचैनी से चित्तोड़ पहुचने के बाद अलाउदीन को चित्तोड़ का किला भारी रक्षण में दिखा | उस प्रसिद्द सुन्दरी Padmavati की एक झलक पाने के लिए सुल्तान बेताब हो गया और उसने राजा रतन सिंह को ये कहकर भेजा कि वो Rani Padmini  रानी पदमिनी को अपनी बहन समान मानता है और उससे मिलना चाहता है | सुल्तान की बात सुनते ही रतन सिंह ने उसके रोष से बचने और अपना राज्य बचाने के लिए उसकी बात से सहमत हो गया | रानी पदमिनी अलाउदीन को कांच में अपना चेहरा दिखाने के लिए राजी हो गयी | जब अलाउदीन को ये खबर पता चली कि रानी पदमिनी उससे मिलने को तैयार हो गयी है वो अपने चुनिन्दा योद्धाओ के साथ सावधानी से किले में प्रवेश कर गया |

रानी पद्मिनी की सुन्दरता पर मोहित हो खिलजी ने रतन सिंह को बनाया बंदी

Rani Padmini  रानी पदमिनी के सुंदर चेहरे को कांच के प्रतिबिम्ब में जब अलाउदीन खिलजी ने देखा तो उसने सोच लिया कि रानी पदमिनी को अपनी बनाकर रहेगा |वापस अपने शिविर में लौटते वक़्त अलाउदीन कुछ समय के लिए रतन सिंह के साथ चल रहा था | खिलजी ने मौका देखकर रतन सिंह को बंदी बना लिया और पदमिनी की मांग करने लगा | चौहान राजपूत सेनापति गोरा और बादल ने सुल्तान को हराने के लिए एक चाल चलते हुए खिलजी को संदेसा भेजा कि अगली सुबह पदमिनी को सुल्तान को सौप दिया जाएगा |

राजा रतन सिंह को बचाने पहुचे गोरा और बादल

Sainik in Palkiअगले दिन सुबह भोर होते ही 150 पालकिया किले से खिलजी के शिविर की तरफ रवाना की | पालकिया वहा रुक गयी जहा पर रतन सिंह को बंदी बना रखा था |पालकियो को देखकर रतन सिंह ने सोचा, कि ये पालकिया किले से आयी है और उनके साथ रानी भी यहाँ आयी होगी ,वो अपने आप को बहुत अपमानित समझने लगा |उन पालकियो में ना ही उनकी रानी और ना ही दासिया थी और अचानक से उसमे से पूरी तरह से सशस्त्र सैनिक निकले और रतन सिंह को छुड़ा दिया और खिलजी के अस्तबल से घोड़े चुराकर तेजी से घोड़ो पर पर किले की ओर भाग गये | गोरा इस मुठभेड़ में बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये जबकि बादल , रतन सिंह को सुरक्षित किले में पहुचा दिया |

सुल्तान ने किया चित्तोड़ पर आक्रमण

Gora and Badal fight Khiljiजब सुल्तान को पता चला कि उसके योजना नाकाम हो गयी , सुल्तान ने गुस्से में आकर अपनी सेना को चित्तोड़ पर आक्रमण करने का आदेश दिया | सुल्तान के सेना ने किले में प्रवेश करने की कड़ी कोशिश की लेकिन नाकाम रहा |अब खिलजी ने किले की घेराबंदी करने का निश्चय किया | ये घेराबंदी इतनी कड़ी थी कि किले में खाद्य आपूर्ति धीरे धीरे समाप्त हो गयी | अंत में रतन सिंह ने द्वार खोलने का आदेश दिया और उसके सैनिको से लड़ते हुए रतन सिंह वीरगति को प्राप्त हो गया | ये सुचना सुनकर Rani Padmini  पद्मिनी ने सोचा कि अब सुल्तान की सेना चित्तोड़ के सभी पुरुषो को मार देगी | अब चित्तोड़ की औरतो के पास दो विकल्प थे या तो वो जौहर के लिए प्रतिबद्ध हो या विजयी सेना के समक्ष अपना निरादर सहे |

अपनी आबरू बचाने के लिए रानी पद्मिनी ने किया जौहर

Jauhar Rani Padmini in Chittorgarhसभी महिलाओ का पक्ष जौहर की तरह था | एक विशाल चिता जलाई गयी और रानी पदमिनी के बाद चित्तोड़ की सारी औरते उसमे कूद गयी और इस प्रकार दुश्मन बाहर खड़े देखते रह गये | अपनी महिलाओ की मौत पर चित्तोड़ के पुरुष के पास जीवन में कुछ नही बचा था | चित्तोड़ के सभी पुरुषो ने साका प्रदर्शन करने का प्रण लिया जिसमे प्रत्येक सैनिक केसरी वस्त्र और पगड़ी पहनकर दुश्मन सेना से तब तक लड़े जब तक कि वो सभी खत्म नही हो गये | विजयी सेना ने जब किले में प्रवेश किया तो उनको राख और जली हुई हड्डियों के साथ सामना हुआ |जिन महिलाओ ने जौहर किया उनकी याद आज भी लोकगीतों में जीवित है जिसमे उनके गौरवान्वित कार्य का बखान किया जाता है।सौजन्य से :-

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

जुझारू संस्कृति का जनक गढ़ कुण्डार।

जुझारू संस्कृति का जनक गढ़ कुण्डार नक्षत्रों में सूर्य सी आभा लिए जुझौती (आधुनिक बुंदेलखंड ) का प्राचीनतम और पवित्रतम दुर्ग, गढ़ कुंडार एक ऐतिहासिक महत्त्व का दुर्ग ही नही बल्कि राष्ट्र धर्म और जुझारू संस्कृति का जनक भी है!अपने एक सह्त्राब्दी के जीवन काल में इस गढ़ ने अनेकानेक राजनैतिक ,सांस्कृतिक और धार्मिक उतार चढाव देखे हैं !चंदेल शासक परमर्दिदेव के शासन काल में गढ़ कुंडार का अस्तित्व जैजाक भुक्ति के एक प्रमुख सैनिक मुख्यालय के रूप में था ! इस सैनिक मुख्यालय में चंदेल शासन के नाम पर प्रशासक सिया परमार और सेनापति खूब सिंह खंगार नियुक्त थे ! इसी समय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा ओं के चलते महोबा के चंदेल और दिल्ली के चौहानों के बीच ठन गई!

११८२ ई० के इस चंदेल चौहान संग्राम में चंदेल सेना की कमान जहाँ प्रसिद्द बनाफर वीर आल्हा उदल ने सम्हाली तो दिल्ली पति प्रथ्वीराज चौहान अपने महापराक्रमी सामंतों और परम मित्र नर नाहर खेत सिंह खंगार सहित समरांगण में मौजूद थे ! बैरागढ़(उरई ) के मैदान में हुए इस घमासान युद्ध में प्रसिद्द बनाफर वीर उदल वीरगति को प्राप्त हुआ चंदेलों की पराजय हुई परमाल ने मैंदान छोड़ कर कालिंजर के किले में शरण ली किंतु भाग्य के धनी प्रथ्वी राज ने विजयोंन्माद में कालिंजर को भी घेर लिया अंततः समझौते की शर्तों के तहत परमाल को कलिन्जराधिपति बने रहने दिया गया ! महोबा जीत लिया गया ! इस युद्ध में चंदेलों की और से प्रशासक सिया परमार भी वीरगति को प्राप्त हुआ युद्ध की समाप्ति पर सेनापति खूब सिंह खंगार अपनी बची खुची सैन्य शक्ति समेत कुंडार लौट आया और कुंडार का प्रशासक बन गया !

इसी युद्ध से आल्हा को भी संसार से विरक्ति हो गई और वह सब कुछ छोड़ कर गुरु गोरख नाथ के साथ चला गया ! वहीं दूसरी और प्रथ्वी राज ने अपनी विजय का श्रेय सोरठाधिपति रा कवाट के पराक्रमी पुत्र खेत सिंह खंगार को दिया और उसकी मातहती में विजित प्रदेश का भूभाग जिसकी सीमा चम्बल से धसान नदी तक थी का अधिपत्य देकर दिल्ली लौट गया ! महोबा नगर का प्रधान चौहान का महासामंत पज्जुन राय नियुक्त हुआ और क्षेत्रधिपति नर नाहर खेत सिंह खंगार ! गढ़ कुंडार में खूब सिंह खंगार के अधिपत्य को जेजाकभुक्ति में खंगार समीकरण बन जाने से मान्यता प्राप्त हो गई और उसे गढ़ कुंडार का आंचलिक शासक बने रहने दिया गया ! किंतु इसी राजनैतिक गहमागहमी के बीच गोंडों ने शक्ति संकलित कर अपने पुराने गढ़ , गढ़ कुंडार हमला बोल दिया चंदेल - चौहान युद्ध की बिभीसिका में झुलसा खूब सिंह खंगार इस हमले के लिए तैयार नही था किंतु युद्ध हुआ खूब सिंह मारा गया और एक लंबे समय बाद गढ़ कुंडार पुनः गोंडों के अधिकार में आ गया ! गोंड अभी अपनी उपलब्धि का जश्न मना भी न पाए थे कि खेत सिंह खंगार ने गोंडों के विरुद्ध अभियान छेड़ कर उन्हें सदा सर्वदा के लिए कुचल कर गढ़ कुंडार पर अधिकार कर लिया कुंडार का यह सैनिक मुख्यालय खेत सिंह को सामरिक द्रष्टिकोण बहुत अधिक जँचा अतः उन्होंने इस जगह भव्य भवन बनाने का निर्णय लिया और यही भवन गढ़ कुंडार नाम से इतिहास में दर्ज महाराज खेत सिंह कि अनुपम रचना है खंगार शासित प्रदेश कि राजधानी का गौरव इसी महामहल को प्राप्त हुआ !

सन ११९२ ई. तराइन युद्ध में प्रथ्विराज कि दुर्भाग्यपूर्ण पराजय से जेजाक भुक्ति का खंगार राज्य अकेला पड़ गया किन्तु यही वह समय था जब खंगार राज्य को अपनी रीति- नीति स्पष्ट करनी थी या तो यवन सल्तनत की या अनवरत संघर्ष का ऐलान ! ऐसे में महाराज खंगार ने इस माटी की अस्मिता को पहिचान कर अनवरत संघर्ष का विगुल फूंक स्वपोषित राज्य को स्वतंत्र हिन्दू खंगार राज्य घोषित कर दिया ! चौतरफा दुश्मनों से घिरे और यवन आक्रमणों के खतरे से निपटने के लिए इस महामहल से जुझारू संस्कृति का जन्म हुआ और कुंडार की वीर धरा पर राष्ट्र धर्म का पौधा रोपा गया जिसने वट वृक्ष का रूप लेकर इस प्रदेश को हमेशा मुसलमान आक्रान्ताओं की आग धार से सुरक्षित रखा ! महाराज खेत सिंह खंगार प्रणीत जुझारू संस्कारों की जननी यह धरा जुझारू संस्कृति के कारण जुझौती प्रदेश के आदरणीय नाम से संबोधित की गयी ! राष्ट्र-धर्म और जुझारू संस्कृति के संस्कार इस वीर प्रसू में आज भी विद्यमान हैं और इन्ही संस्कारों के कारण गढ़ कुंडार ने कभी भी विधर्मी आक्रान्ताओं को जुझौती के पवित्र आँगन में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी और समर में आक्रान्ताओं की सेनाएं कोसों खदेड़ी गयी !

खेत सिंह खंगार के पश्चात् उसके बाहुबली प्रपौत्र खूब सिंह ने गढ़ कुंडार की कीर्ति पताका को ऊँचा किया ! इसके शासन काल में तत्कालीन कड़ा के गवर्नर अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण कि विजय करके जब गढ़ कुंडार की और अपनी बक्रद्रष्टि की तो खूब सिंह खंगार के अप्रितिम शौर्य के आगे न केवल उसे मैदान छोड़ना पड़ा वरन दक्षिण की उस अकूत धन सम्पदा से भी हाँथ धोना पड़ा जो वह वहां से लूटकर लाया था ! लूट की वह सम्पदा गढ़ कुंडार के राजकोष की भेंट चढ़ गई ! खूब सिंह के पश्चात् उसका पुत्र मानसिंह सिंहासनारुढ़ हुआ इसके समय में शरणागत वंश के कुछ असंतुष्ट सरदारों ने जुझौती की अस्मिता का सौदा तुगलक के दिल्ली दरवार में कर डाला गढ़ कुंडार अपने ही सामंतों की गद्दारी से छला गया ! किन्तु जुझारू संस्कृति की पालक पोषक जुझौती की सेनाओं और जनता ने स्त्री-पुरुष ,बच्चों और बूढों सहित हर मोर्चे पर तुगलक की सेना का अपनी तलवारों से स्वागत किया !किन्तु,खड्ग के धनी खंगारों का भाग्य रूपी सूर्य अस्ताचल को चल दिया था!

कुंडार नगर तबाह हो गया किन्तु गढ़ कुंडार के इस महामहल ने झुकना स्वीकार नहीं किया! महाराज मानसिंह खंगार युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए किन्तु समर रुका नहीं छत्र धारण कर उसके पुत्र बरदाई सिंह ने बची खुची सैन्य शक्ति के साथ साका का ऐलान कर जीवन का मोह त्याग पूरे वेग से दुश्मन पर आक्रमण किया राजनैतिक पराजय सुनिश्चित जान गढ़ कुंडार के महामहल में जौहर की आग धधक उठी राजकुमारी केशर दे सहित सभी खंगार वीरांगनाओं और ललनाओं ने राष्ट्र धर्म के परिपालन में जौहर की यज्ञाग्नि में अपनी देह की आहुति देकर गढ़ कुंडार के सदा ही उन्नत भाल को झुकने नहीं दिया ! दुश्मन तुगलक के आदेश से पूरा नगर ध्वस्त कर दिया गया सिर्फ यह महामहल शेष रहा जो बलिदान की इस पराकाष्ठा को याद कर कभी गौरवान्वित होता है तो कभी स्वतंत्र भारत में अपनी उपेक्षा पर आंसू बहता है!

गढ़ कुंडार और उसके प्रिय खंगार वीरों का सम्मान और सत्य पश्चात्वर्ती शासकों की इर्ष्या की भेंट चढ़ा और किवदंतियो का पुलिंदा बनता रहा जहाँ न केवल पीढियो से इसके शौर्य को छुपाया गया बल्कि इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को फाड़ने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई ! स्वतंत्र भारत की सरकारों के सामने गढ़ कुंडार एक मात्र प्रश्न लिए खड़ा है ,-क्या यवनों से अंग्रेजो तक विधर्मियों के दांत खट्टे करने वाला यह गढ़ और इसके पुजारी जुझारू संस्कारों और राष्ट्र धर्म से प्रेम करने की सजा पा रहे हैं ?🙏

जुझारू संस्कृति का जनक गढ़ कुण्डार नक्षत्रों में सूर्य सी आभा लिए जुझौती (आधुनिक बुंदेलखंड ) का प्राचीनतम और पवित्रतम दुर्ग, गढ़ कुंडार एक ऐतिहासिक महत्त्व का दुर्ग ही नही बल्कि राष्ट्र धर्म और जुझारू संस्कृति का जनक भी है!अपने एक सह्त्राब्दी के जीवन काल में इस गढ़ ने अनेकानेक राजनैतिक ,सांस्कृतिक और धार्मिक उतार चढाव देखे हैं !चंदेल शासक परमर्दिदेव के शासन काल में गढ़ कुंडार का अस्तित्व जैजाक भुक्ति के एक प्रमुख सैनिक मुख्यालय के रूप में था ! इस सैनिक मुख्यालय में चंदेल शासन के नाम पर प्रशासक सिया परमार और सेनापति खूब सिंह खंगार नियुक्त थे ! इसी समय राजनैतिक महत्त्वाकांक्षा ओं के चलते महोबा के चंदेल और दिल्ली के चौहानों के बीच ठन गई!

११८२ ई० के इस चंदेल चौहान संग्राम में चंदेल सेना की कमान जहाँ प्रसिद्द बनाफर वीर आल्हा उदल ने सम्हाली तो दिल्ली पति प्रथ्वीराज चौहान अपने महापराक्रमी सामंतों और परम मित्र नर नाहर खेत सिंह खंगार सहित समरांगण में मौजूद थे ! बैरागढ़(उरई ) के मैदान में हुए इस घमासान युद्ध में प्रसिद्द बनाफर वीर उदल वीरगति को प्राप्त हुआ चंदेलों की पराजय हुई परमाल ने मैंदान छोड़ कर कालिंजर के किले में शरण ली किंतु भाग्य के धनी प्रथ्वी राज ने विजयोंन्माद में कालिंजर को भी घेर लिया अंततः समझौते की शर्तों के तहत परमाल को कलिन्जराधिपति बने रहने दिया गया ! महोबा जीत लिया गया ! इस युद्ध में चंदेलों की और से प्रशासक सिया परमार भी वीरगति को प्राप्त हुआ युद्ध की समाप्ति पर सेनापति खूब सिंह खंगार अपनी बची खुची सैन्य शक्ति समेत कुंडार लौट आया और कुंडार का प्रशासक बन गया !

इसी युद्ध से आल्हा को भी संसार से विरक्ति हो गई और वह सब कुछ छोड़ कर गुरु गोरख नाथ के साथ चला गया ! वहीं दूसरी और प्रथ्वी राज ने अपनी विजय का श्रेय सोरठाधिपति रा कवाट के पराक्रमी पुत्र खेत सिंह खंगार को दिया और उसकी मातहती में विजित प्रदेश का भूभाग जिसकी सीमा चम्बल से धसान नदी तक थी का अधिपत्य देकर दिल्ली लौट गया ! महोबा नगर का प्रधान चौहान का महासामंत पज्जुन राय नियुक्त हुआ और क्षेत्रधिपति नर नाहर खेत सिंह खंगार ! गढ़ कुंडार में खूब सिंह खंगार के अधिपत्य को जेजाकभुक्ति में खंगार समीकरण बन जाने से मान्यता प्राप्त हो गई और उसे गढ़ कुंडार का आंचलिक शासक बने रहने दिया गया ! किंतु इसी राजनैतिक गहमागहमी के बीच गोंडों ने शक्ति संकलित कर अपने पुराने गढ़ , गढ़ कुंडार हमला बोल दिया चंदेल - चौहान युद्ध की बिभीसिका में झुलसा खूब सिंह खंगार इस हमले के लिए तैयार नही था किंतु युद्ध हुआ खूब सिंह मारा गया और एक लंबे समय बाद गढ़ कुंडार पुनः गोंडों के अधिकार में आ गया ! गोंड अभी अपनी उपलब्धि का जश्न मना भी न पाए थे कि खेत सिंह खंगार ने गोंडों के विरुद्ध अभियान छेड़ कर उन्हें सदा सर्वदा के लिए कुचल कर गढ़ कुंडार पर अधिकार कर लिया कुंडार का यह सैनिक मुख्यालय खेत सिंह को सामरिक द्रष्टिकोण बहुत अधिक जँचा अतः उन्होंने इस जगह भव्य भवन बनाने का निर्णय लिया और यही भवन गढ़ कुंडार नाम से इतिहास में दर्ज महाराज खेत सिंह कि अनुपम रचना है खंगार शासित प्रदेश कि राजधानी का गौरव इसी महामहल को प्राप्त हुआ !

सन ११९२ ई. तराइन युद्ध में प्रथ्विराज कि दुर्भाग्यपूर्ण पराजय से जेजाक भुक्ति का खंगार राज्य अकेला पड़ गया किन्तु यही वह समय था जब खंगार राज्य को अपनी रीति- नीति स्पष्ट करनी थी या तो यवन सल्तनत की या अनवरत संघर्ष का ऐलान ! ऐसे में महाराज खंगार ने इस माटी की अस्मिता को पहिचान कर अनवरत संघर्ष का विगुल फूंक स्वपोषित राज्य को स्वतंत्र हिन्दू खंगार राज्य घोषित कर दिया ! चौतरफा दुश्मनों से घिरे और यवन आक्रमणों के खतरे से निपटने के लिए इस महामहल से जुझारू संस्कृति का जन्म हुआ और कुंडार की वीर धरा पर राष्ट्र धर्म का पौधा रोपा गया जिसने वट वृक्ष का रूप लेकर इस प्रदेश को हमेशा मुसलमान आक्रान्ताओं की आग धार से सुरक्षित रखा ! महाराज खेत सिंह खंगार प्रणीत जुझारू संस्कारों की जननी यह धरा जुझारू संस्कृति के कारण जुझौती प्रदेश के आदरणीय नाम से संबोधित की गयी ! राष्ट्र-धर्म और जुझारू संस्कृति के संस्कार इस वीर प्रसू में आज भी विद्यमान हैं और इन्ही संस्कारों के कारण गढ़ कुंडार ने कभी भी विधर्मी आक्रान्ताओं को जुझौती के पवित्र आँगन में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी और समर में आक्रान्ताओं की सेनाएं कोसों खदेड़ी गयी !

खेत सिंह खंगार के पश्चात् उसके बाहुबली प्रपौत्र खूब सिंह ने गढ़ कुंडार की कीर्ति पताका को ऊँचा किया ! इसके शासन काल में तत्कालीन कड़ा के गवर्नर अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण कि विजय करके जब गढ़ कुंडार की और अपनी बक्रद्रष्टि की तो खूब सिंह खंगार के अप्रितिम शौर्य के आगे न केवल उसे मैदान छोड़ना पड़ा वरन दक्षिण की उस अकूत धन सम्पदा से भी हाँथ धोना पड़ा जो वह वहां से लूटकर लाया था ! लूट की वह सम्पदा गढ़ कुंडार के राजकोष की भेंट चढ़ गई ! खूब सिंह के पश्चात् उसका पुत्र मानसिंह सिंहासनारुढ़ हुआ इसके समय में शरणागत वंश के कुछ असंतुष्ट सरदारों ने जुझौती की अस्मिता का सौदा तुगलक के दिल्ली दरवार में कर डाला गढ़ कुंडार अपने ही सामंतों की गद्दारी से छला गया ! किन्तु जुझारू संस्कृति की पालक पोषक जुझौती की सेनाओं और जनता ने स्त्री-पुरुष ,बच्चों और बूढों सहित हर मोर्चे पर तुगलक की सेना का अपनी तलवारों से स्वागत किया !किन्तु,खड्ग के धनी खंगारों का भाग्य रूपी सूर्य अस्ताचल को चल दिया था!

कुंडार नगर तबाह हो गया किन्तु गढ़ कुंडार के इस महामहल ने झुकना स्वीकार नहीं किया! महाराज मानसिंह खंगार युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुए किन्तु समर रुका नहीं छत्र धारण कर उसके पुत्र बरदाई सिंह ने बची खुची सैन्य शक्ति के साथ साका का ऐलान कर जीवन का मोह त्याग पूरे वेग से दुश्मन पर आक्रमण किया राजनैतिक पराजय सुनिश्चित जान गढ़ कुंडार के महामहल में जौहर की आग धधक उठी राजकुमारी केशर दे सहित सभी खंगार वीरांगनाओं और ललनाओं ने राष्ट्र धर्म के परिपालन में जौहर की यज्ञाग्नि में अपनी देह की आहुति देकर गढ़ कुंडार के सदा ही उन्नत भाल को झुकने नहीं दिया ! दुश्मन तुगलक के आदेश से पूरा नगर ध्वस्त कर दिया गया सिर्फ यह महामहल शेष रहा जो बलिदान की इस पराकाष्ठा को याद कर कभी गौरवान्वित होता है तो कभी स्वतंत्र भारत में अपनी उपेक्षा पर आंसू बहता है!

गढ़ कुंडार और उसके प्रिय खंगार वीरों का सम्मान और सत्य पश्चात्वर्ती शासकों की इर्ष्या की भेंट चढ़ा और किवदंतियो का पुलिंदा बनता रहा जहाँ न केवल पीढियो से इसके शौर्य को छुपाया गया बल्कि इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को फाड़ने में भी कोई कोताही नहीं बरती गई ! स्वतंत्र भारत की सरकारों के सामने गढ़ कुंडार एक मात्र प्रश्न लिए खड़ा है ,-क्या यवनों से अंग्रेजो तक विधर्मियों के दांत खट्टे करने वाला यह गढ़ और इसके पुजारी जुझारू संस्कारों और राष्ट्र धर्म से प्रेम करने की सजा पा रहे हैं ?

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

भगत सिंह से यूं ही नहीं डरते थे अंग्रेज, उनके तेवर ही ऐसे थे।

28 सितंबर 1907 सिर्फ एक सामान्य दिन नहीं था, बल्कि भारतीय इतिहास में गौरवमयी दिन के रूप में मशहूर है। अविभाजित भारत की जमीं पर एक ऐसे शख्स का जन्म हुआ जो शायद इतिहास लिखने के लिए ही पैदा हुआ था। जिला लायलपुर (अब पाकिस्तान में) के गांव बावली में क्रांतिकारी भगत सिंह का जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था। भगत सिंह को जब ये समझ में आने लगा कि उनकी आजादी घर की चारदीवारी तक ही सीमित है तो उन्हें जबरदस्त क्षोभ हुआ। वो बार-बार कहा करते थे कि अंग्रजों से आजादी पाने के लिए हमें याचना की जगह रण करना होगा।

भगत सिंह की सोच उस समय पूरी तरह बदल गई, जिस समय जलियांवाला बाग कांड (13 अप्रैल 1919) हुआ था। बताया जाता है कि अंग्रेजों द्वारा किए गए कत्लेआम से वो इस कद्र व्यथित हुए कि पीड़ितों का दर्द बांटने के लिए 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला पहुंचे। भगत सिंह के बगावती सुर से अंग्रेजी सरकार घबरा चुकी थी। भगत सिंह से छुटकारा पाने के लिए अंग्रेजी सरकार जुगत में जुट गई। अंग्रेजों को सांडर्स हत्याकांड में वो मौका मिला। भगत सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाकर फांसी की सजा सुनाई गई। 

फांसी से पहले 3 मार्च को अपने भाई कुलतार को भेजे एक पत्र में भगत सिंह ने लिखा था।

उन्हें यह फिक्र है हरदम, नयी तर्ज-ए-जफा क्या है?
हमें यह शौक है देखें, सितम की इन्तहा क्या है?

दहर से क्यों खफा रहें, चर्ख का क्या गिला करें।
सारा जहां अदू सही, आओ! मुकाबला करें।।

इन जोशीली पंक्तियों से उनके शौर्य का अनुमान लगाया जा सकता है। चन्द्रशेखर आजाद से पहली मुलाकात के समय जलती हुई मोमबती पर हाथ रखकर उन्होंने कसम खायी थी कि उनकी जिन्दगी देश पर ही कुर्बान होगी और उन्होंने अपनी वह कसम पूरी कर दिखायी।

23 मार्च 1931 को जब एक सितारा डूबा

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी दिए जाने से पहले जब उनसे उनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि वह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और उन्हें वह पूरी करने का समय दिया जाए। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था कि ठहरिये ! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले कि ठीक है अब चलो...

फांसी पर जाते समय वे तीनों मस्ती से गा रहे थे 

मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।

काकोरी कांड से जब विचलित हुए थे भगत सिंह

काकोरी कांड नें राम प्रसाद बिस्मिल समेत 4 क्रान्तिकारियों को फांसी और 16 क्रांतिकारियों को कारावास की सजा से भगत सिंह बहुत ज्यादा परेशान हो गए। चन्द्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ गए और संगठन को नया नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन दिया। इस संगठन का मकसद सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था। भगत सिंह ने राजगुरु के साथ मिलकर 17 दिसम्बर 1928 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक रहे अंग्रेज़ अधिकारी सांडर्स को मारा था। इस कार्रवाई में क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद ने उनकी पूरी सहायता की थी। क्रान्तिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर भगत सिंह ने वर्तमान में नई दिल्ली स्थित ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल एसेम्बली के सभागार संसद भवन में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके थे। बम फेंकने के बाद वहीं पर दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

भगत सिंह और क्रांतिकारी आंदोलन

1923 में भगत सिंह ने लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिला लिया। कॉलेज के दिनों में उन्होंने कई नाटकों राणा प्रताप, सम्राट चंद्रगुप्त और भारत दुर्दशा में हिस्सा लिया था। वह लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना जगाने के लिए नाटकों का मंचन करते थे। भगत सिंह रूस की बोल्शेविक क्रांति के प्रणेता लेनिन के विचारों से काफी प्रभावित थे। भगत सिंह महान क्रांतिकारी होने के साथ विचारक भी थे। उन्होंने लाहौर के सेंट्रल जेल में ही अपना बहुचर्चित निबंध  'मैं नास्तिक क्यों हूं' लिखा था। इस निबंध में उन्होंने ईश्वर की उपस्थिति, समाज में फैली असमानता, गरीबी और शोषण के मुद्दे पर तीखे सवाल उठाए थे। स्कूली शिक्षा के दौरान ही भगत सिंह ने यूरोप के कई देशों में तख्ता-पलट और क्रांति के बारे में पढ़ना शुरू किया। उन्होंने नास्तिक क्रांतिकारी विचारकों को पढ़ा और उनका झुकाव क्रांतिकारी विचारधारा की तरफ होने लगा। भगत सिंह ने बहुत कम उम्र में ही देश-विदेश के साहित्य, इतिहास और दर्शन का अध्ययन कर लिया था। इन्हीं विचारों के बदौलत देश में जब हर ओर राजनीतिक स्वतंत्रता की बात हो रही थी भगत और उनके साथी आर्थिक स्वतंत्रता और समानता पर भी जोर दे रहे थे।🙏
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