शनिवार, 8 जून 2024

करपात्री महाराजः उतना ही खाते जितना दोनों हाथों में आ पाता, साधुओं की लाश देख इंदिरा गांधी को दे दिया था 'श्राप'!


30 जुलाई 1907 को प्रतापगढ़ में लालगंज के भटनी गांव के ब्राह्मण परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। माता-पिता ने इस बालक का नाम रखा हरि नारायण ओझा। 15 साल की उम्र में हरि नारायण ने घर-परिवार का त्याग कर अध्यात्म का रास्ता चुन लिया।

वह प्रतापगढ़ से बनारस चले गए और वहां स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती महाराज को अपना गुरु मान लिया। ब्रह्मानंद सरस्वती ने हरिनारायण को दीक्षा दी। दीक्षा प्राप्त करने के बाद हरिनारायण का नाम हरिहरानंद सरस्वती हो गया। वे हिन्दू दशनामी परम्परा के भिक्षु थे। हरिहरानंद सरस्वती को ही दुनिया करपात्री महाराज के नाम से जानती है।

करपात्री कैसे पड़ा नाम…!?

हरिहरानंद सरस्वती कभी बर्तन में खाना नहीं खाते थे। वह उतना ही भोजन करते, जितना उनके दोनों हाथों में आ पाता था। हाथों को संस्कृत में कर कहते हैं। कर का पात्र बनाने के कारण वह करपात्री कहलाए। 

करपात्री महाराज की स्मरण शक्ति को उनके अनुयायी 'फोटोग्राफिक' बताते थे। मतलब की उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी बता देते थे कि ये किस किताब के किस पेज पर किस रूप में लिखा हुआ है।

धर्म सम्राट की मिली थी उपाधि…!?

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, गौ हत्या बंद हो...। 
इन जयकारों के बिना धार्मिक अनुष्ठान पूरे नहीं होते। यह जयकारा करपात्री जी महाराज की ही देन हैं। उन्होंने भागवत सुधा, रस मीमांसा, गोपी गीत व भक्ति सुधा समेत कई ग्रंथ भी लिखे थे। 

धर्मशास्त्रों में अपने अद्भुत और अतुलनीय विद्वता के कारण संत समाज में वह 'धर्म सम्राट' की उपाधि से भी नवाजे गए। करपात्री महाराज के असर और उनके कद का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग पूजा-आरती के बाद जयकारे में करपात्री महाराज का भी जयकारा लगाते हैं।


गौहत्या के सख्त खिलाफ थे महाराज…!?

करपात्री महाराज भारतीय संस्कृति, देववाणी संस्कृत के प्रबल समर्थक व गायों के पालक रहे। गौहत्या के विरुद्ध तत्कालीन कांग्रेस सरकार से भी टकराए। वो चाहते थे कि आजादी के बाद देश में हिंदू राज की स्थापना हो। इसी कारण स्वामी करपात्री हिंदुओं के बीच बहुत सिद्ध माने जाते थे। शंकराचार्यों के बीच भी उनका बहुत सम्मान था।


नेहरू-इंदिरा से टकराए करपात्री महाराज…!?

करपात्री महाराज का राजनीतिक गलियारे में भी काफी सम्मान था। कई नेता उनके दरबार में हाजिरी लगाया करते थे। नेहरू और इंदिरा से भी उनके मधुर संबंध रहे। हालांकि देश के आजाद होने के बाद उन्होंने नेहरू सरकार के हिंदू कोड बिल के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ा। 

वह नेहरू के इतने खिलाफ हो गए थे कि 1952 के चुनाव में उन्होंने नेहरू के खिलाफ जबलपुर बस स्टैंड पर दूध बेचने वाले व्यक्ति (चिरऊ महाराज) को इलाहाबाद की फूलपुर सीट से चुनाव लड़वा दिया था। बाद में उन्होंने गौरक्षा पर भी बड़ा अभियान चलाया।


सक्रिय राजनीति का भी हिस्सा रहे करपात्री महाराज…!?

हिंदू हितों की बात करते हुए करपात्री महाराज ने 'हिंदू हित सर्वोपरि' का नारा दिया। इस उद्देश्य के साथ उन्होंने 1948 में एक राजनीतिक पार्टी बनाई जिसका नाम था अखिल भारतीय रामराज्य परिषद। 

पार्टी का एजेंडा था हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद। 1952, 1957 और 1962 के लोकसभा चुनाव में महाराज ने अपने देशभर में अपने प्रत्याशी उतारे। 1957 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में करपात्री महाराज की पार्टी 17 सीटें जीतने में कामयाब रही। देश के कई शीर्ष व्यापारियों ने उनकी पार्टी के अपनी तिजोरी के ताले खोल दिये थे।


जब इंदिरा गांधी को दिया श्राप…!?

लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद 1966 में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। इंदिरा करपात्री जी महाराज का बहुत सम्मान करती थीं। महाराज का भी इंदिरा के प्रति काफी स्नेह था। 

उन्होंने गौहत्या के खिलाफ सख्त कानून और बूचड़खाने को बंद कराने की मांग के साथ 7 नवंबर 1966 को संसद की तरफ कूच कर दिया। प्रदर्शन के दौरान किसी ने भाषण दे दिया कि संसद में घुस कर सांसदों को पकड़कर बाहर ले आएं क्योंकि ऐसा किये बिना हमारी मांगें नहीं मानी जाएंगी। ऐसा भाषण सुन पुलिस ने फायरिंग कर दी। कई साधुओं, महिलाओं और बच्चों की जान चली गई।

करपात्री महाराज को मानने वाले कहते हैं कि जब वह संसद के बाहर सड़क पर से साधुओं और अपने अनुयायियों की लाशें उठा रहे थे तो उन्होंने इंदिरा गांधी को शाप दिया था कि जैसे इंदिरा ने इन साधुओं पर गोलियां चलवाई हैं वैसे ही उनका भी हाल होगा।

जेल भी गए करपात्री महाराज…!?

संसद के बाहर प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने के विरोध में पुरी के शंकराचार्य जगद्गुरु निरंजन देव 72 दिनों तक अनशन पर बैठे रहे। इस बीच करपात्री महाराज को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 

कुछ दिनों बाद भले अनशन और हंगामा थम गया लेकिन उसका अंजाम 1967 के चुनाव में इंदिरा गांधी को झेलना पड़ा। कांग्रेस की 80 सीटें हो गईं कम। काऊ बेल्ट कहे जाने वाले राज्यों में कांग्रेस की सीटें घटीं। महीने भर बाद यूपी से कांग्रेस की सरकार भी गिर गई।

इसके बाद इंदिरा ने अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव किया। अब यह आंदोलन का असर था या संयोग कि जब 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ, तो इंदिरा गुट ने जो चुनाव चिन्ह चुना वह था 'गाय और बछड़ा'।

7 फरवरी 1982 को करपात्री महाराज ने देह त्याग दिया। उनके अंतिम दर्शन को देश दुनिया से लाखों लोग पहुंच। लोगों ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न की मांग रखी था। मोदी सरकार ने करपात्री महाराज पर एक डाक टिकट भी जारी किया था। अगर आपको यह किस्सा पसंद आया हो तो आप इसे अपने दोस्तों संग शेयर कर सकते हैं।

सोमवार, 20 मई 2024

भगवान श्री कृष्ण के सबसे प्रिय वंशज भाटी छत्राला यादवपति!


भगवान श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

वंश परिचय :-

श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |

३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |

४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |

५. इष्टदेव

श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |

६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |

८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

9.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |

११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा |

१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |

13.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14 पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |

15. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |

16.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है

२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |
खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |
एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है | भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी।

सोमवार, 13 मई 2024

शिवाजी से जान बचाकर भागा शाइस्ता खाँ / इतिहास स्मृति – 6 अप्रैल 1663

शिवाजी महाराज के किलों में पुणे का लाल महल बहुत महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने बचपन का बहुत सा समय वहाँ बिताया था; पर इस समय उस पर औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ का कब्जा था। उसके एक लाख सैनिक महल में अन्दर और बाहर तैनात थे; पर शिवाजी ने भी संकटों से हार मानना नहीं सीखा था। उन्होंने स्वयं ही इस अपमान का बदला लेनेे का निश्चय किया।

6 अप्रैल, 1663 (चैत्र शुक्ल 8) की मध्यरात्रि का मुहूर्त इसके लिए निश्चित किया गया। यह दिन औरंगजेब के शासन की वर्षगाँठ थी। उन दिनों मुसलमानों के रोजे चल रहे थे। दिन में तो बेचारे कुछ खा नहीं सकते थे; पर रात में खाने-पीने और फिर सुस्ताने के अतिरिक्त कुछ काम न था। इसी समय शिवाजी ने मैदान मारने का निश्चय किया। हर बार की तरह इस बार भी अभियान के लिए सर्वश्रेष्ठ साथियों का चयन किया गया।

तीन टोलियों में सब वीर चले। द्वार पर पहरेदारों ने रोका; पर बताया कि गश्त से लौटते हुए देर हो गयी है। शाइस्ता खाँ की सेना में मराठे हिन्दू भी बहुत थे। अतः पहरेदारों को शक नहीं हुआ। द्वार खोलकर उन्हें अन्दर जाने दिया गया। सब महल के पीछे पहुँच गये। माली के हाथ में कुछ अशर्फियाँ रखकर उसे चुप कर दिया गया। शिवाजी तो महल के चप्पे-चप्पे से परिचित थे ही। अब वे रसोइघर तक पहुँच गये।
रसोई में सुबह के खाने की तैयारी हो रही थी। हिन्दू सैनिकों ने चुपचाप सब रसोइयों को यमलोक पहुँचा दिया। थोड़ी सी आवाज हुई; पर फिर शान्त। दीवार के उस पार जनानखाना था। वहाँ शाइस्ता खाँ अपनी बेगमों और रखैलों के बीच बेसुध सो रहा था। शिवाजी के साथियों ने वह दीवार गिरानी शुरू की। दो-चार ईंटों के गिरते ही हड़कम्प मच गया। एक नौकर ने भागकर खाँ साहब को दुश्मनों के आने की खबर की।

यह सुनते ही शाइस्ता खाँ के फरिश्ते कूच कर गये; पर तब तक तो दीवार तोड़कर पूरा दल जनानखाने में आ घुसा। औरतें चीखने-चिल्लाने लगीं। सब ओर हाय-तौबा मच गयी। एक मराठा सैनिक ने नगाड़ा बजा दिया। इससे महल में खलबली मच गयी। चारों ओर ‘शिवाजी आया, शिवाजी आया’ का शोर मच गया। लोग आधे-अधूरे नींद से उठकर आपस में ही मारकाट करने लगे। हर किसी को लगता था कि शिवाजी उसे ही मारने आया है।

पर शिवाजी को तो शाइस्ता खाँ से बदला लेना था। उन्होंने तलवार के वार से पर्दा फाड़ दिया। सामने ही खान अपनी बीवियों के बीच घिरा बैठा काँप रहा था। एक बीवी ने समझदारी दिखाते हुए दीपक बुझा दिया। खान को मौत सामने दिखायी दी। उसने आव देखा न ताव, बीवियों को छोड़ वह खिड़की से नीचे कूद पड़ा; पर तब तक शिवाजी की तलवार चल चुकी थी। उसकी तीन उँगलियाँ कट गयीं। अंधेरे के कारण शिवाजी समझे कि खान मारा गया। अतः उन्होंने सबको लौटने का संकेत कर दिया।

इसी बीच एक मराठे ने मुख्य द्वार खोल दिया। शिवाजी और उनके साथी भी मारो-काटो का शोर मचाते हुए लौट गये। अब खान की वहाँ एक दिन भी रुकने की हिम्मत नहीं हुई। वह गिरे हुए मनोबल के साथ औरंगजेब के पास गया। औरंगजेब ने उसे सजा देकर बंगाल भेज दिया।

अगले दिन श्रीरामनवमी थी। माता जीजाबाई को जब शिवाजी ने इस सफल अभियान की सूचना दी, तो उन्होंने हर्ष से पुत्र का माथा चूम लिया।

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

आज हम आपको एक ऐसे राजपूत राजवंश के विषय में बताएँगे जिसने इतिहास के पन्नों को गौरांवित किया..!!....हिस्ट्री ऑफ़ ग्रेट पुंडीर राजपूत राजवंश

पुण्डीर दाहिमा वंश जोधपुर जिले में गोठ और मांगलोद के मध्य दधिमति माता का मन्दिर है। इस मन्दिर के नाम से यह क्षेत्र दधिमति क्षेत्र कहलाता है। 

इस क्षेत्र में रहने वाले राजपूत‘दाहिमे’ क्षत्रिय कहलाये। इस क्षेत्र से ये बयाना और वहाँ से दक्षिण की ओर चले गये। पृथ्वीराज चौहान का सेनापति कैमास दाहिमा वंश का ही था। 

कन्निटिया कैमास पृष्ट देखत मन लाग्यो। 
कलमलि चित्त सुहत्ति मयनपूरन जुरि जग्गो।। 
गयो गेह दाहिम्म, तलप अलप मन किन्नो। 
बोलि अप्प सो दासि। काम कारन हित दिन्नो।। (पृथ्वीराज रासो-कैमास करनाटी प्रसंग) 

रासो के आधार पर नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने दोयमत या दाहिम्म का आशय दाहिमा वंश से लिया है। इस वंश के क्षत्रिय बागपत तहसील जिलामेरठ के चार गाँवों में बसते हैं। 

शाखाः पुण्डीर (पुण्डिर) क्षत्रिय सूर्यवंशीः- यह दाहिमा वंश की शाखा है। १॰ पुलस्त- कहीं कपिल भी है। २॰ प्रवर- पुलस्त, विश्वश्रवस और दंभोलि। ३॰ वेद - यजुर्वेद। ४॰ शाखा- वाजसनेयी माध्यन्दिनी ५॰ सुत्र- पारस्कर गृह्यसूत्र। ६॰ कुलदेवि- दधिमति माता। 

इन दोनों वंशों की कुलमाता का एक होना भी इस मतको अधिक दृढ़ करता है। दाहिमा वंश के राजा पुण्डीर (पुण्डरीक) की सन्तान होने से ही ये वंश पुण्डीर पुण्डीर कहलाये। पहले इनका राज्य तिलंगाना (आन्ध्रप्रदेश) में था। 

इनके कुछ नाम ब्रह्मदेव, कपिलदेव, सुमन्दराज, लोपराज, फीमराज, केवलराज, जढ़ासुरराज और मढ़ासुरराज बताए जाते हैं।मढ़ासुरराज कुरुक्षेत्र में स्नान करने के आया था। वहाँ के शासक सिन्धु रघुवंशी ने अपनी पुत्री अल्पद का विवाह राजा मढ़ासुरराज से कर कैथल का क्षेत्र दहेज में दे दिया। 

यह घटना वि॰ सं॰ ६०२ की मानी जाती है। मढ़ासुरराज ने पुण्डरी शहर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। जिला करनाल में पुण्डरक, हावड़ी और चूर्णी स्थानों पर पुण्डीरों ने किले बनवाए। 

नीमराणा के राजा हरिराज चौहान ने पुन्डीरराज्य छीनकर चौहान राज्य की स्थापना की जिससे पुण्डीर यमुना पार करके उत्तरप्रदेश में चले गये और वहाँ के १४४० गाँवों पर अधिकार कर मायापुरी(हरिद्वार) को अपनी राजधानी बनाया। 

पुण्डीरों के वर्णन में है कि पुण्डीर शासक ईसम हरिद्वार का शासक था। उसके बाद क्रमशः सीखेमल, वीडो, कदम, हास और कुंथल शासक हुए। 

कुंथल के बारह पुत्र हुएः-अजत, अनत,लालसिंह, नौसर, सलाखन, गोगदे, मामदे, भाले, हद, विद, भोईग और जय सिंह। 

अजत ने निम्न ग्राम बसायेः- जुरासी, पतरासी, मोरमाजरा, खटका, लादपुर, गोगमा,हरड़, रामपुर, सोथा, हींड, मोहब्बतपुर, कैड़ी, बाबरी, बनत, हिनवाड़ा, नसला, लगदा, पीपलहेड़ा, भसानी, सिक्का। 

अनत ने निम्न ग्राम बसायेः- दूधली, कसौली, मारवा, शेरपुर, चौवड़, दुदाहेड़ी, वामन हेड़ी, बाननगर, रामपुर, कल्लरपुर, कौलाहेड़ी, कछोली, सरवर, मगलाना।

लालसिंह ने निम्न ग्राम बसायेः- गिरहाऊ, कोटा, खजूरवाला, माही, हसनपुर, भलसवा,बोहड़पुर। 

नौसर ने निम्न ग्राम बसायेः- नौसरहेड़ी, खुजनावर, जीवाला, हलवाना, अनवरपुर, बड़ौली, बेहड़ा, माडॅला, मानकपुर, मुसेल, गदरहेड़ी, सरदोहेड़ी, रामखेड़ी, चुबारा, गगाली, खपराना। सलाखन मायापुर (हरिद्वार) में ही रहा तथा वहाँ का शासक हुआ। 

इसके दो पुत्र चांदसिंह और गजसिंह थे। गजसिंह गंगापार रामगढ़ (वर्तमान अलीगढ़) की तरफ चला गया था। उसके वंशजों के १२५ गाँव थे, जिनमें ८० गाँव मैनपुरी और इटावा जिले में और ६ गाँव लखान छतेल्ला, भभिला, नसीरपुर, कुलहेड़ी, रणायच मुजफ्फरनगर में है। 

चौहान सम्राट पृथ्वीराज के समय में पुण्डीर उसके आधीन हो गए। उसने इन्हें जागीर में पंजाब का इलाका दिया। पृथ्वीराज के बड़े सामंतों में चांदसिंह पुण्डीर था, उसकी पुत्री से पृथ्वीराज का विवाह भी हुआ था। जिससे रणजीत सिंह का जन्म हुआ था। 

एक बार पृथ्वीराज शिकार खेलने गया था। उस समय शहाबुद्दीन गौरी ने भारत पर चढ़ाई की। चांदसिंह पुण्डीर ने सेना लेकर चिनाब नदी के किनारे उसका मार्ग रोका। काफी देर तक युद्ध होने के बाद चांदसिंह पुण्डीर के घायल होकर गिरने पर ही मुसलमान सेना चिनाब नदी पार कर सकी थी। 

पृथ्वीराज के पहुँचने पर फिर गौरी से जबरदस्त युद्ध हुआ। उसमें बगल से चांदसिंह पुण्डीर ने शत्रु पर हमला किया। उस युद्ध में इसका एक पुत्र वीरतापूर्वक युद्ध करता हुआ। मातृभूमि के लिये बलिदान हुआ था।

शहाबुद्दीन फिर युद्ध में परास्त होकर भागा। जब पृथ्वीराज कन्नौज सेसंयोगिता का हरण करके भागा, तब जयचन्द की विशाल सेना ने उसका पीछा किया। जयचन्द की सेना से पृथ्वीराज के सामंतों ने घोर युद्ध करके उस विशालवाहिनी कोरोका था, जिससे पृथ्वीराज को निकल जाने का समय मिल गया। 

उस भीषण युद्ध में चांदसिंह पुण्डीर कन्नोज की सेना से युद्ध करके जूझा था। चन्द पुण्डीर का पुत्र धीर पुण्डीरथा। वह भी बड़ा सामंत था। धीर सिंह और कैमास दाहिमा को पृथ्वीराज रासो में भाई होना लिखा है। 

इससे भी पुण्डीर वंश दाहिमा वंश की शाखा होना प्रमाणित होती है। उसके अजयदेव, उदयदेव, वीरदेव, सवीरदेव, साहबदेव और बीसलदेव छह भाई और थे। एक बार जब शहाबुद्दीन भारत पर आक्रमण करने आया, तब पृथ्वीराज का सामंत जैतराव आठ हजार घुड़सवार सेना के साथ उसे रोकने के लिये गया था। 

उसके साथ धीर पुण्डीर तथा उसके अन्य भाई भी थे। उस युद्ध में धीर पुण्डीर का भाई उदयदेव वीर गति को प्राप्त हुआ था। एक बार मुसलमान घोड़ों के सौदागर बनकर पंजाब में आए और धोखे से धीर पुण्डीर को मार डाला। इस पर पावस पुण्डीर ने उन्हें मारा। 

पृथ्वीराज को जब इस घटना की खबर मिली, तब उसे बड़ा अफसोस हुआ। पावस पुण्डीर धीर पुण्डीर का पुत्र था। पृथ्वीराज के ई॰ ११९२ में गौरी के साथ हुए अन्तिम युद्ध में पावस पुण्डीर मारा गया।

इस वंश का एक राज्य ‘जसमौर’ था, जहाँ “शाकम्भरी देवी” का मेला लगता है। यह मन्दिर सहारनपुर जिले में शिवालिक की पहाड़ी की तराई में बना है। पुण्डीर पंजाब के अलावा उत्तर प्रदेश में सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मैनपुरी, इटावा और अलीगढ़ जिलों में है। पुण्डीरों की एक शाखा ‘कलूवाल’ है।

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पुंडीर क्षत्रिय की वंशावली व गोत्र:-
वंश - सूर्य
कुल - पुण्डरीक/पुण्डीर/पुण्ढीर
कुलदेवता - महादेव
कुलदेवी - दधिमाता ( जिला - नागौर ,तहसील - जायल , गाँव - गौठ मंगलोद :- राजस्थान )
गौत्र - पौलिस्त / पुलत्सय
नदी - सर्यू
निकास - अयोध्या से तिलांगाना व तिलंगाना से हरियाणा ( करनाल, कुरुक्षेत्र, कैथल) व पुण्डरी से मायापुर (7 हरिद्वार व पश्चिम उत्तर प्रदेश)
पक्षी - सफेद चील
पेड़ - कदंब
प्रवर - महर्षि पौलिस्त, महर्षि दंभौली, महर्षि विश्वाश्रवस
शाखा - तीसरी शताब्दी के महाराज पुण्डरीक द्वितीय से
भगवान श्री राम के पुत्र की 158वीं पिढी मे महाराज पुण्डरीक द्वितीय हुए, महाराज पुण्डरीक द्वितीय (तीसरी शताब्दी के अंत में) -- असम -- धनवंत -- बाहुनिक - राजा लक्षण कुमार (तिलंगदेव :- तिलंगाना शहर बसाया) - जढेश्नर (जढासुर :- कुरुक्षेत्र स्नान हेतु सपरिवार व सेना सहित कुरुक्षेत्र पधारे) -- मंढेश्वर (मँढासुर :- सिंधुराज की पुत्री अल्पदे से विवाह कर कैथल क्षेत्र दहेज मे प्राप्त किया व " पुण्डरी " नगर की स्थापना हुइ) - राजा सुफेदेव - राजा इशम सिंह (सतमासा) - सीरबेमस - बिडौजी - राजा कदम सिंह (निमराणा के चौहान शस्क हरिराय से दूसरे युद्ध मे पराजय मिली व इनके पुत्र हंस ने मायापुरी मे राज्य कायम कर 1440 गाँवो पर अधिकार किया) -- हंस (वासुदेव) -- राजा कुंथल ( मायापुर के स्वामी बने व इनके 12 पुत्र हुए)  
1- अजट सिंह (इनके पुण्डीर वंशज गोगमा, हिनवाडा आदि गाँव मे है जो जिला शामली मे है)
2- अणत सिंह (इनके पुण्डीर वंशज दूधली, कसौली, कछ्छौली आदि गाँव मे है)
3- लाल सिंह (अविवाहित) 
4- नौसर सिंह (पता नही) 
5- सलाखनदेव (मायापुर राज्य मे रहा) 

राजा सुलखन (सलाखन देव) के 2 पुत्र हुए
राजा चाँद सिंह पुण्डीर (मायापुरी के राजा बने व दिल्ली पति संम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामंत बने व इनका पुत्र पंजाब का सुबेदार बना, इस वीर चाँद सिंह की वीरता पृथ्वीराज रासौ मे स्वर्ण अक्षरों मे अमर है।)
राजा गजै सिंह पुण्डीर (यहां गंगा पार कर एटा, अलीगंज क्षेत्र गए व इनके वंशज 82 गांव मे विराजमान है।)

राजा चाँद सिंह पुंडीर के 7 पुत्र हुए
वीर योद्धा धीर सिंह पुण्डीर
कुँवर अजय देव
कुंवर उदय देव
कुंवर बीसलदेव
कुवर सौविर सिंह
कुंवर साहब सिंह
कुंवर वीर सिंह
इनमे धीर सिंह पुंडीर मीरो से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए व इनके पुत्र पावस पुंडीर तराई के अंतिम युद्ध मे पृथ्वीराज चौहान के सहयोगी बन कर लौहाना अजानबाहू का सिर काटकर वीरगती को प्राप्त हुए, चांद सिंह के इन पुत्रो के वंशज आज सहारनपुर जिले में विराजमान है जिनके ठिकानों की संख्या कम से कम 120-130 है।

जय राजपुताना..!

जय पुंडीर राजवंश..!!

बुधवार, 24 जनवरी 2024

रामचंद्रजी की प्रमाणित मेवाड़ वंशावली!

चारों जुग परताप तुम्हारा।
परसिद्ध जगत उजियारा॥

बहती गंगा में हाथ धोने की होड़ मची है, जिनकी इकहत्तर पीढि़यों ने कभी शमशिरे छुई तक नहीं ऐसे "ठग" स्वयं को धर्मध्वज राजा घोषित करवा रहें हैं अंधभक्तों के जरिए । खैर ऐसे "ठगी राजा" को उसकी  कृत्रिम गद्दी मुबारक ।
आइए, अब असली धर्मध्वज राजाओं की बात करते हैं,,
राजाधीराज राजा रामचंद्रजी की प्रमाणित मेवाड़ वंशावली 
१ राजा लव
२ राजा बड़उज्ज्वल
३ राजा निशिध
४ राजा नल
५ राजा नल 
६ राजा नभ
७ राजा पुंडरीक
८ राजा क्षेमधनवा
९ राजा देवानिक
१० राजा अहिनगु
११ राजा पारिपात्र
१२ राजा बल
१३ राजा उत्क
१४ राजा वज्रनाभ
१५ राजा शंख
१६ राजा विश्वसह
१७ राजा हिरण्यनाभ कौशल्य
१८ राजा पुष्प
१९ राजा ध्रुवसंधि
२० राजा सुदर्शन
२१ राजा अग्निवर्ष
२२ राजा शोधन
२३ राजा मरू
२४ राजा प्रसूश्रुत
२५ राजा राजा संधि
२६ राजा अमर्ष
२७ राजा विश्रुतवान
२८ राजा विश्रुवबाहु
२९ राजा प्रसेनजीत
३० राजा तक्ष्क
३१ राजा बृहद्बबल
३२ राजा बृहक्षत्र
३३ राजा उरूक्षय
३४ राजा वत्सव्यूह
३५ राजा प्रतिव्योम 
३६ राजा दिवाकर
३७ राजा सहदेव
३८ राजा बृहद्सव
३९ राजा भानुरथ
४० राजा प्रतितासव
४१ राजा सुप्रतिक
४२ राजा मरुदेव
४३ राजा सुनक्षत्रा
४४ राजा अंतरिक्ष
४५ राजा सुषेण
४६ राजा अनिभाजित
४७ राजा बृहद्भानु
४८ राजा धर्म
४९ राजा कृतजयि
५० राजा रण्यजय
५१ राजा संजय
५२ राजा प्रसेनजीत
५३ राजा क्षुदर्क
५४ राजा कुलक
५५ राजा सूरथ
५६ राजा सुमित्र
५७ राजा वज्रनाभ
५८ राजा महारथी
५९ राजा अतिरथी
६० राजा अचलसेन
६१ राजा कनकसेन
६२ राजा महासेन
६३ राजा विजयसेन
६४ राजा अजयसेन
६५ राजा अभंगसेन
६६ राजा मदसेन
६७ राजा सिंहराय
६८ राजा सिंहरथ
६९ राजा विजयभूप
७० राजा पद्मादित्य
७१ राजा हरदत्
७२ राजा सुजसादित्य
७३ राजा सुमुखादित्य
७४ राजा सोमदत्त
७५ राजा शिलादित्य
७६ राजा केशवादित्य
७७ राजा नागदित्य
७८ राजा भोगदित्य
७९ राजा राजा आशादित्य
८० राजा भोजदित्य
८१ राजा गुहादित्य ( गुहील )
८२ राजा कालभोज ( बाप्पा रावल)
८३ रावल खुमांण
८४ रावल मत्तत
८५ रावल भरतुभट्ट
८६ रावल सिंह
८७ रावल खुमांण ( द्वितीय )
८८ रावल महायक
८९ रावल खुमांण ( तृतीय )
९० रावल भरूतभट्ट ( द्वितीय )
९१ रावल अल्लट ( अल्हण )
९२ रावल नरवाहन
९३ रावल शालीवाहन
९४ रावल शक्ति
९५ रावल अंबा ( अंब )
९६ रावल शुचिवर्मा
९७ रावल नरवर्मा
९८ कीर्तिवर्मा
९९ रावल योगराज
१०० रावल वैराट ( विराट )
१०१ रावल हंसपाल
१०२ रावल वैरसिंह
१०३ रावल विजयसिंह
१०४ रावल अरिसिंह
१०५ रावल चौड़सिंह
१०६ रावल विक्रमसिंह
१०७ रावल रणसिंह ( कर्णसिंह )
१०८ रावल क्षेमसिंह
१०९ रावल सामंतसिंह
११० रावल कुमारसिंह
१११ रावल मंथनसिंह
११२ रावल पदमसिंह
११३ रावल जैतसिंह
११४ रावल तेजसिंह
११५ रावल समरसिंह
११६ रावल रतनसिंह
११७ रावल अजयसिंह
११८ राणा हम्मीरसिंह
११९ राणा छत्रसिंह
१२० राणा लाखा
१२१ राणा मोकल
१२२ राणा कुम्भा ( भा कुम्भा )
१२३ राणा उदयकर्ण
१२४ राणा रायमल
१२५ राणा सांगा
१२६ राणा रतन
१२७ राणा विक्रमादित्य
१२८ राणा उदयसिंह
१२९ महाराणा प्रतापसिंह ( हिंदुआ सूर्य )
१३० महाराणा अमरसिंह
१३१ महाराणा करणसिंह
१३२ महाराणा जगतसिंह
१३३ महाराणा राजसिंह
१३४ महाराणा जयसिंह
१३५ महाराणा समरसिंह
१३६ महाराणा संग्रामसिंह
१३७ महाराणा जगतसिंह
१३८ महाराणा प्रतापसिंह
१३९ महाराणा राजसिंह
१४० महाराणा अरिसिंह
१४१ महाराणा हम्मीरसिंह
१४२ महाराणा भीमसिंह
१४३ महाराणा जवानसिंह
१४४ महाराणा सरदारसिंह
१४५ महाराणा स्वरूपसिंह
१४६ महाराणा शंभूसिंह
१४७ महाराणा सज्जनसिंह
१४८ महाराणा फतेसिंह
१४९ महाराणा भुपालसिंह
१५० महाराणा भगवतसिंह
१५१ महाराणा महेंद्रसिंहजी ( वर्तमान में राजा रामचंद्रजी की पीढ़ी में विद्यमान १५१ वे वंशज राजा मेवाड़ गद्दी। )

आपका जीवन मंगलमय हो, खमा घणी, राजाधीराज राजा रामचंद्रजी की जय, महाराणा प्रतापजी की जय!

साभार:- अखिल भारतीय वंशावली लेखक परिषद, दिल्ली।१०

मंगलवार, 23 जनवरी 2024

मीर उस्मान अली खान आजादी के समय ये शख्स था भारत का सबसे अमीर आदमी, घर में बिखरे रहते थे हीरे-मोती; अब कोई 'नामलेवा' नहीं!

                  मीर उस्मान अली खान 

Nizam of Hyderabad: आजादी के वक्त यानी साल 1947 में हैदराबाद के निजाम नवाब मीर उस्मान अली खान न सिर्फ भारत के बल्कि की दुनिया के सबसे अमीर शख्स माने जाते थे, 77 साल पहले निजाम की कुल दौलत करीब 17.5 लाख करोड़ रुपए आंकी गई थी,
टाइम मैगजीन ने निजाम को फ्रंट पेज पर जगह देते हुए उन्हें दुनिया का सबसे रईस शख़्स करार दिया था।

मशहूर इतिहासकार डॉमिनिक लापियर और लेरी कॉलिंस अपनी चर्चित किताब ‘फ्रीडम एड मिडनाइट’ में लिखते हैं कि हैदराबाद के निजाम के पास आजादी के वक्त 20 लाख पाउंड से ज्यादा की तो नगद रकम रही होगी, निजाम के महल में बंडल के बंडल नोट अखबार में लपेटकर में दुछत्ती में रखे रहते थे।

पेपरवेट की तरह यूज करते थे ‘जैकब’ हीरामशहूर टाइम मैगजीन ने फरवरी, 1937 के अंक में निजाम को फ्रंट पेज पर जगह देते हुए उन्हें दुनिया का सबसे रईस शख़्स करार दिया था, निजाम के महल में लाखों रुपए जहां-तहां धूल फांकते थे, हर साल कई हजार पाउंड के नोट तो चूहे कुतर जाते थे, जिनका कोई हिसाब ही नहीं, कॉलिंस और लापियर लिखते हैं कि निजाम के महल में उनकी मेज की दराज में मशहूर ‘जैकब’ हीरा रखा रहता था।

                    मशहूर जैकब हीरा

यह बेशकीमती हीरा नींबू के बराबर था और 280 कैरेट का था, लेकिन निजाम इस हीरे को पेपर वेट की तरह इस्तेमाल किया करते थे।

महल में बिखरे रहते थे हीरे-मोतीकॉलिंस और लापियर अपनी किताब में लिखते हैं कि निजाम के बाग में जहां-तहां झाड़ झंखाड़ के बीच सोने की ईंट से लदे ट्रक खड़े रहते थे, आलम यह था कि महल में हीरे-जवाहरात रखने की जगह नहीं बची थी, नीलम, पुखराज, हीरे, मोती फर्श पर कोयले की तरह बिखरे पड़े रहते, उस वक्त निजाम हैदराबाद के पास इतने मोती थे कि लंदन के पिकैडिली सर्कस के सारे फुटपाथ उन मोतियों से ढंक जाते।

कंजूसी के लिए बदनाम
निजाम हैदराबाद मीर उस्मान अली (Mir Osman Ali Khan) जितने अमीर थे, उतने ही अपनी कंजूसी के लिए बदनाम थे, ”फ्रीडम एट मिडनाइट” के मुताबिक निजाम के पास सोने के इतने बर्तन थे कि एक साथ 200 लोगों को उनमें खाना खिला सकें, लेकिन उनकी कंजूसी का आलम यह था कि खुद टीन के बर्तन में खाना खाया करते थे, अक्सर एक ही मैला-कुचैला सूती पायजामा पहना करते थे और पैर में बहुत घटिया किस्म की जूती होती थी।

        सरदार पटेल के साथ मीर उस्मान अली

बुझी सिगरेट तक नहीं छोड़ते थे।
निजाम की कंजूसी का आलम यह था कि उनसे जो मिलने आता और ऐशट्रे में बुझी सिगरेट छोड़ जाता, निजाम बाद में उसे सुलगा कर पीने लगते, इतिहासकारों के मुताबिक उस वक्त परंपरा थी कि बड़े-बड़े अमीर-उमरा और जमींदार अपने राजा को एक अशर्फी का नजराना पेश करते थे, बाद में राजा उस अशर्फी को छूकर लौटा दिया करते थे, लेकिन निजाम हैदराबाद इससे उलट थे, निजाम को कोई नजराने के तौर पर अशर्फी देता तो उसको झपटकर अपने पास रख लिया करते थे।

निजाम (Mir Osman Ali Khan) का बेडरूम किसी झोपड़पट्टी के कमरे जैसा दिखाई देता था, उसमें एक टूटी-फूटी सी पलंग पड़ी रहती थी, तीन कुर्सी और गिने-चुने फर्नीचर के अलावा कुछ नहीं था, जगह-जगह मकड़ी के जाल लगे रहते थे और बदबू आती थी, निजाम के कमरे को उनके सालगिरह के दिन सिर्फ साल में एक बार साफ किया जाता था।

   मीर उस्मान अली के अंतिम संस्कार में उमड़ी भीड़

अंग्रेजों को दिया 2.5 करोड़ पाउंड
आजादी के वक्त निजाम हैदराबाद (Nizam Hyderabad Mir Osman Ali Khan) हिंदुस्तान के इकलौते ऐसे शासक थे जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने ”एग्जॉल्टेड हाईनेस” का खिताब दिया था. अंग्रेजों ने निजाम को यह खिताब इसलिए दिया था, क्योंकि उन्होंने पहले विश्व युद्ध यानी फर्स्ट वर्ल्ड वॉर में ब्रिटिश हुकूमत के युद्ध कोष में ढाई करोड़ पाउंड की रकम दी थी, हैदराबाद निजाम मीर उस्मान अली उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत के सबसे निष्ठावान मित्र माने जाते थे।

अफीम की लत थी, हमेशा एक डर सताता था
निजाम हैदराबाद को अक्सर डर सताता था कि कोई उन्हें जहर देकर मार देगा और उनकी दौलत कब्जा लेगा. सवा पांच फीट लंबे निजाम हमेशा सुपारी चबाया करते थे और उनके दांत लगभग सड़ चुके थे।

कॉलिंस और लापियर लिखते हैं कि निजाम जहां कहीं जाते, अपने साथ एक खाना चखने वाला लेकर जाते थे. पहले वह खाना चखता, इसके बाद ही निजाम उसे हाथ लगाते।