रविवार, 6 फ़रवरी 2022

चौहान वंश की कुलदेवी माता! 🚩

आशापुरा नाडोल शहर (जिला पाली..राजस्थान) का नगर रक्षक लक्ष्मण जी हमेशा की तरह उस रात भी अपनी नियमित गश्त पर थे.. नगर की परिक्रमा करते-करते लक्ष्मण जी प्यास बुझाने हेतु नगर के बाहर समीप ही बहने वाली भारमली नदी के तट पर जा पहुंचे.. पानी पीने के बाद नदी किनारे बसी चरवाहों की बस्ती पर जैसे लक्ष्मण जी ने अपनी सतर्क नजर डाली.. तब एक झोंपड़ी पर हीरों के चमकते प्रकाश ने आ

कर्षित किया.. वह तुरंत झोंपड़ी के पास पहुंचे और वहां रह रहे चरवाहे को बुला प्रकाशित हीरों का राज पूछा.. चरवाह भी प्रकाश देख अचंभित हुआ और झोंपड़ी पर रखा वस्त्र उतारा.. वस्त्र में हीरे चिपके देख चरवाह के आश्चर्य की सीमा नहीं रही.. उसे समझ ही नहीं आया.. कि जिस वस्त्र को उसने झोपड़ी पर डाला था.. उस पर तो जौ के दाने चिपके थे..

लक्ष्मण जी द्वारा पूछने पर चरवाहे ने बताया.. कि वह पहाड़ी की कन्दरा में रहने वाली एक वृद्ध महिला की गाय चराता है.. आज उस महिला ने गाय चराने की मजदूरी के रूप में उसे कुछ जौ दिए थे.. जिसे वह बनिये को दे आया.. कुछ इसके चिपक गए..जो हीरे बन गये...!!

 लक्ष्मण जी उसे लेकर बनिए के पास गया और बनिए हीरे बरामद वापस ग्वाले को दे दिये.. लक्ष्मण जी इस चमत्कार से विस्मृत थे.. अतः उन्होंने ग्वाले से कहा- अभी तो तुम जाओ.. लेकिन कल सुबह ही मुझे उस कन्दरा का रास्ता बताना जहाँ वृद्ध महिला रहती है..

दुसरे दिन लक्ष्मण जी .. जैसे ही ग्वाले को लेकर कन्दरा में गये.. कन्दरा के आगे समतल भूमि पर उनकी और पीठ किये वृद्ध महिला गाय का दूध निकाल रही थी.. उन्होंने बिना देखे लक्ष्मण जी को पुकारा- “लक्ष्मण, राव लक्ष्मण आ गये बेटा, आओ…”

आवाज सुनते ही लक्ष्मण जी आश्चर्यचकित हो गये और उनका शरीर एक अद्भुत प्रकाश से नहा उठा.. उन्हें तुरंत आभास हो गया.. कि यह वृद्ध महिला कोई और नहीं.. उसकी कुलदेवी माँ शाकम्भरी ही है.. और लक्ष्मण जी सीधे माँ के चरणों में गिर गए.. तभी आवाज आई- मेरे लिए क्या लाये हो बेटा..? बोलो मेरे लिए क्या लाये हो...?

लक्ष्मण जी को माँ का मर्मभरा उलाहना समझते देर नहीं लगी और उन्होंने तुरंत साथ आये ग्वाला का सिर काट माँ के चरणों में अर्पित कर दिया...!!

लक्ष्मण द्वारा प्रस्तुत इस अनोखे उपहार से माँ ने खुश होकर लक्ष्मण से वर मांगने को कहा.. लक्ष्मण जी ने माँ से कहा- माँ आपने मुझे राव संबोधित किया है.. अतः मुझे राव (शासक) बना दो.. ताकि मैं दुष्टों को दंड देकर प्रजा का पालन करूँ.. 

मेरी जब इच्छा हो आपके दर्शन कर सकूं.. और इस ग्वाले को पुनर्जीवित कर देने की कृपा करें..वृद्ध महिला “तथास्तु” कह कर अंतर्ध्यान हो गई.. जिस दिन यह घटना घटी वह वि.स. 1000, माघ सुदी 2 का दिन था.. इसके बाद लक्ष्मण जी नाडोल शहर की सुरक्षा में तन्मयता से लगे रहे..

उस जमाने में नाडोल एक संपन्न शहर था.. अतः मेदों की लूटपाट से त्रस्त था.. लक्ष्मण जी के आने के बाद मेदों को तकड़ी चुनौती मिलने लगी.. नगरवासी अपने आपको सुरक्षित महसूस करने लगे.. एक दिन मेदों ने संगठित होकर लक्ष्मण जी पर हमला किया.. भयंकर युद्ध हुआ.. मेद भाग गए..

लक्ष्मण जी ने उनका पहाड़ों में पीछा किया और मेदों को सबक सिखाने के साथ ही खुद घायल होकर अर्धविक्षिप्त हो गए.. मूर्छा टूटने पर लक्ष्मण जी ने माँ को याद किया.. माँ को याद करते ही लक्ष्मण जी का शरीर तरोताजा हो गया.. 

सामने माँ खड़ी थी बोली- बेटा ! निराश मत हो.. शीघ्र ही मालव देश से असंख्य घोड़ेे तेरे पास आयेंगे..तुम उन पर केसरमिश्रित जल छिड़क देना.. घोड़ों का प्राकृतिक रंग बदल जायेगा.. उनसे अजेय सेना तैयार करो और अपना राज्य स्थापित करो..अगले दिन माँ का कहा हुआ सच हुआ.. असंख्य घोड़े आये.. 

लक्ष्मण जी ने केसर मिश्रित जल छिड़का.. घोड़ों का रंग बदल गया.. लक्ष्मण जी ने उन घोड़ों की बदौलत सेना संगठित की.. इतिहासकार डा. दशरथ शर्मा इन घोड़ों की संख्या 12000 हजार बताते है..तो मुंहता नैंणसी ने इन घोड़ों की संख्या 13000 लिखी है..

अपनी नई सेना के बल पर लक्ष्मण जी ने लुटरे मेदों का सफाया किया.. जिससे नाडोल की जनता प्रसन्न हुई और उसका अभिनंदन करते हुए नाडोल के अयोग्य शासक सामंतसिंह चावड़ा को सिंहासन से उतार लक्ष्मण जी को सिंहासन पर आरूढ कर पुरस्कृत किया...!!

इस प्रकार लक्ष्मण जी माँ शाकम्भरी के आशीर्वाद और अपने पुरुषार्थ के बल पर नाडोल का शासक बने.. मेदों के साथ घायल अवस्था में लक्ष्मण जी ने जहाँ पानी पिया और माँ के दुबारा दर्शन किये जहाँ माँ शाकम्भरी ने उसकी सम्पूर्ण आशाएं पूर्ण की! 

वहां राव लक्ष्मण ने अपनी कुलदेवी माँ शाकम्भरी को “आशापुरा माँ” के नाम से अभिहित कर मंदिर की स्थापना की तथा उस कच्ची बावड़ी जिसका पानी पिया था.. को पक्का बनवाया.. यह बावड़ी आज भी अपने निर्माता वीरवर राव लक्ष्मण की याद को जीवंत बनाये हुए है..

आज भी नाडोल में आशापुरा माँ का मंदिर लक्ष्मण के चौहान वंश के साथ कई जातियों व वंशों के कुलदेवी के मंदिर के रूप में ख्याति प्राप्त कर.. उस घटना की याद दिलाता है.. आशापुरा माँ को कई लोग आज आशापूर्णा माँ भी कहते है और अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते है..
कौन था लक्ष्मण ..?

लक्ष्मण शाकम्भर(वर्तमान नमक के लिए प्रसिद्ध सांभर, राजस्थान) के चौहान राजा वाक्प्तिराज का छोटा पुत्र था.. पिता की मृत्यु के बाद लक्ष्मण के बड़े भाई को सांभर की गद्दी और लक्ष्मण को छोटी सी जागीर मिली थी.. पर पराक्रमी, पुरुषार्थ पर भरोसा रखने वाले लक्ष्मण की लालसा एक छोटी सी जागीर कैसे पूरी कर सकती थी..? 

अतः लक्ष्मण ने पुरुषार्थ के बल पर राज्य स्थापित करने की लालसा मन में ले जागीर का त्याग कर सांभर छोड़ दिया.. उस वक्त लक्ष्मण अपनी पत्नी व एक सेवक के साथ सांभर छोड़ पुष्कर पहुंचा और पुष्कर में स्नान आदि कर पाली की और चल दिया..

उबड़ खाबड़ पहाड़ियों को पार करते हुए थकावट व रात्री के चलते लक्ष्मण नाडोल के पास नीलकंठ महादेव के मंदिर परिसर को सुरक्षित समझ आराम करने के लिए रुका.. थकावट के कारण तीनों वहीं गहरी नींद में सो गये.. सुबह मंदिर के पुजारी ने उन्हें सोये देखा.. 

पुजारी सोते हुए लक्ष्मण के चेहरे के तेज से समझ गया ..कि यह किसी राजपरिवार का सदस्य है.. अतः पुजारी ने लक्ष्मण के मुख पर पुष्पवर्षा कर उसे उठाया.. परिचय व उधर आने प्रयोजन जानकार पुजारी ने लक्ष्मण से आग्रह किया कि वो नाडोल शहर की सुरक्षा व्यवस्था संभाले.. 

पुजारी ने नगर के महामात्य संधिविग्रहक से मिलकर लक्ष्मण को नाडोल नगर का मुख्य नगर रक्षक नियुक्त करवा दिया.. जहाँ लक्ष्मण ने अपनी वीरता, कर्तव्यपरायणता, शौर्य के बल पर गठीले शरीर, गजब की फुर्ती वाले मेद जाति के लुटेरों से नाडोल नगर की सुरक्षा की.. और जनता का दिल जीता.. 

उस काल नाडोल नगर उस क्षेत्र का मुख्य व्यापारिक नगर था.. व्यापार के चलते नगर की संपन्नता लुटेरों व चोरों के आकर्षण का मुख्य केंद्र थी.. पंचतीर्थी होने के कारण जैन श्रेष्ठियों ने नाडोल नगर को धन-धान्य से पाट डाला था.. 

हालाँकि नगर सुरक्षा के लिहाज से एक मजबूत प्राचीर से घिरा था.. पर सामंतसिंह चावड़ा जो गुजरातियों का सामंत था.. अयोग्य और विलासी शासक था..अतः जनता में उसके प्रति रोष था.. जो लक्ष्मण के लिए वरदान स्वरूप काम आया..

चौहान वंश की कुलदेवी शुरू से ही शाकम्भरी माता रही है.. हालाँकि कब से है का कोई ब्यौरा नहीं मिलता.. लेकिन चौहान राजवंश की स्थापना से ही शाकम्भरी को कुलदेवी के रूप में पूजा जाता रहा है..

चौहान वंश का राज्य शाकम्भर (सांभर) में स्थापित हुआ तब से ही चौहानों ने माँ आद्ध्यशक्ति को शाकम्भरी के रूप में शक्तिरूपा की पूजा अर्चना शुरू कर दी थी..
माँ आशापुरा मंदिर तथा नाडोल राजवंश पुस्तक के लेखक डॉ. विन्ध्यराज चौहान के अनुसार- ज्ञात इतिहास के सन्दर्भ में सम्पूर्ण भारतवर्ष में नगर (ठी.उनियारा) जनपद से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति सवार्धिक प्राचीन है.. 

1945 में अंग्रेज पुरातत्वशास्त्री कार्लाइल ने नगर के टीलों का सर्वेक्षण किया..1949 में श्रीकृष्णदेव के निर्देशन में खनन किया गया तो महिषासुरमर्दिनी के कई फलक भी प्राप्त हुए जो आमेर संग्रहालय में सुरक्षित है..
नाडोल में भी राव लक्ष्मण ने माँ की शाकम्भरी माता के रूप में ही आराधना की थी.. 

लेकिन माँ के आशीर्वाद स्वरूप उसकी सभी आशाएं पूर्ण होने पर लक्ष्मण ने माता को आशापुरा (आशा पूरी करने वाली) संबोधित किया.. जिसकी वजह से माता शाकम्भरी एक और नाम “आशापुरा” के नाम से विख्यात हुई और कालांतर में चौहान वंश के लोग माता शाकम्भरी को आशापुरा माता के नाम से कुलदेवी मानने लगे..

भारतवर्ष के जैन धर्म के सुदृढ. स्तम्भ तथा उद्योगजगत के मेरुदंड भण्डारी जो मूलतः चौहान राजवंश की ही शाखा भी माँ आशापुरा को कुलदेवी के रूप में मानते है.. गुजरात के जडेजा भी माँ आशापुरा की कुलदेवी के रूप में ही पूजा अर्चना करते है..

माँ आशपुरा के दर्शन लाभ हेतु अजमेर-अहमदाबाद रेल मार्ग वे पर स्थित रानी रेल स्टेशन पर उतरकर बस व टैक्सी के माध्यम से नाडोल जाया जा सकता है..मंदिर में पशुबलि निषेध है...!!

          🙏🏻 जय मां आशापुरा। 🚩
          🚩 जय मां शाकम्भरी। 🚩

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

पंवार (परमार) क्षत्रिय राजवंश का इतिहास


पंवार (परमार ) राजपूतों का इतिहास काफी स्वर्णिम रहा है, यह युद्धभूमि में वीरता का परिचय देने और अपने कुशल नेतृत्व के लिए जाने जाते है। 

पंवार मुलतः अग्निवंश है जिसकी उत्पति आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ के यज्ञ अग्निकुण्ड से मूल पूरुष परमार से मानी गई है। प्राचीनकाल में विन्ध्यशिखर पर धारानगरी और माण्डु नामक दो नगरों की स्थापना पंवार वंश के राजाओं ने ही की थी। 

पंवार वंश में एक भोज नामक महाबली और पराक्रमी राजा हुए जिनका यश और कीर्ति आज भी इस कुल को प्रकाशमय बनाए हुए है। पंवार वंश के शासकों के अधीन महेश्वर (माहिष्मति), धारानगरी, माण्डु, उज्जयिनी, चन्द्रभागा, चित्तौड़, आबू, चन्द्रावती, महू, मैदान, पॅवारवती, अमरकोट, विखार, होहदुबी और पाटन आदि नगर रहे थे।  

मालवा के परमार मुंज ने आबू को जीतकर अपने पुत्र अरण्यराज और चन्दन को क्रमशः आबू और जवालिपुर का शासन सौंपा। इस प्रकार आबू, जालौर, सिरोही, पालनपुर, मारवाड़ और दांता राज्यों के कई गाॅवों पर इनका अधिकार हो गया। 

आबू पर्वत पर अचलगढ़ का किला और चन्द्रावती नगर परमारों ने ही बसाये थे। परमारों ने दसवीं शताब्दी में मालवा, मौर्यो से जीतकर उज्जैन नगरी को अपनी राजधानी बनाया। उसके बाद संवत् १३६८ तक आबू पर इनका राज्य रहा जो कि किसी कवि ने इस प्रकार स्पष्ट किया है:-

"पृथ्वी पुंवारों तणी, अने पृथ्वी तणो पॅवार।
एक आबूगढ़ बसाणों, दूजी उज्जैनी धार॥

आबू के प्रथम राजा सिन्धुराज सं. १००० के लगभग हुए, सिन्धुराज की पांचवी पीढ़ी में धरणीवराह पंवार हुए जिन्होंने अपने भाइयों में अपने राज्य को नौ भागों में बांटकर मारवाड़ नवकोट की स्थापना की। 

धरणीवराह के पुत्र-महिपाल, बाहड़ व ध्रुवभट्ट थे। महिपाल जो आबू के राजा थे। दूसरे पुत्र बाहड़ के तीन पुत्र सोढा़, सांखला और बाघ थे। सोढा़ से सोढा़ राजपूत व सांखला से सांखला राजपूत हुए। सोढा़ ने सिन्ध प्रान्त में अमरकोट में अपना राज्य स्थापित किया। 

वीर एवं न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य जिन्होंने विक्रम सम्वत की स्थापना की, वे भी पंवार वंश के राजा थे जिन्होंने उज्जैन में राज किया। मालवा के राजा उदियादीप के एक पुत्र जगदेव पंवार काफी प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने देवी को अपना शीश अर्पण कर दिया, इस सम्बन्ध में एक कहावत है कि :—

"पुंवार नकारो नी करे, सुमेर पर्वत के हियो।
कंकाली भाटण कीरत भणे, शीशदान जगदेव दियो॥"

पंवार वंश में कुल छत्तीस शाखाएं है जिसमें विहल शाखा ही विशेष प्रसिद्ध हुई। इस शाखा के राजाओं ने काफी समय तक अरावली के पश्चिम में स्थित चन्द्रावती नगर पर राज्य किया। 

इतिहासकार व शिलालेख (आबू पर्वत वि.स.१२८७)के अनुसार इस वंश में प्रथम पुरुष का नाम धूमराज लिखा है। धूमराज के ध्रुवभट्ट और रामदेव। रामदेव के यशोधवल राजा हुए। 

यशोधवल का पुत्र धारावर्ष आबू के परमारों में बड़ा प्रसिद्ध वीर प्रराक्रमी हुआ। पंवार वंश की चार प्रमुख पाटी है, जिसमें धारानाथ की एक पाटी है। धारानाथ से हरिशचन्द्र तक वंशावली इस प्रकार है:- 

धारानाथ→ भोमरक्ष→ ध्रोमरक्ष→ इन्द्रसेन→ अभयचन्द→ नीलरक्ष→ डाबरक्ष→ छत्रनख→ चन्द्रकेशर→ हरिशचन्द्र। 

हरिशचन्द्र के दो पुत्र हुए- रोहितास व मोटाजी। रोहितास के दो पुत्र हरिश और सरिया जी हुए। हरिश जी के वंशज ही मोठिस पंवार कहलाते है। सरियाजी के वंशज जहाजपुर, खेराड़ आदि क्षेत्र में रहते है। 

मोठिस पंवार की प्रमुख शाखायें निम्नलिखित स्थानो पर निवास करती है:- हरिया जी के वंश परम्परा में बालाराव के सात पुत्र हुए, जिनमें खत्रियाम के देवाजी व सातूजी के वंशज बारह भालियों में रहते है। 

दूसरे पुत्र देवधानकजी के वंशज देवाता रहते है। तीसरे पुत्र गोपालजी के वंशज गाफा में रहते है। चौथे पुत्र रीछाजी के वंशज रीछमाल में रहते है। पांचवे पुत्र पीपहंस के वंशज पीपलबावड़ी में रहते है। छठे पुत्र दोमाजी के वंशज रडाना में रहते है। सातवें पुत्र बूड़ी के वंशज बेड़ा भायलों में रहते है। 

सातूजी के पांच पुत्र नामटजी, अणदरायजी, ददेपाल, महपाल, मालाजी(मालदेव,मोठिस वंश के कुलदेवता) और एक पुत्री इन्दो बाई (कुण्डा माता,मोठिस पंवारो की कुल देवी) हुई। अणदरायजी के लखनदेव , कोदसी व सारणसी हुए।

देहलात पंवार:- हरिशचन्द्र के मोटाजी के वंश परम्परा में बहरोवरजी का पुत्र देलजी हआ जिसके वंशज देहलात पंवार कहलाते है। देहलात अधिकतर जवाजा, विहार, रावतमाल, लस्सानी आदि क्षेत्रों में रहते है। देहलात पंवारों की कुलदेवी बिहार माता का मंदिर जवाजा में स्थित है।

कल्लावत पंवार:- राजाजी के कूकराजी और कूकराजी के कटाराजी हुए जिनके वंशज कल्लावत/कलात पंवार कहलाते है।

धोधिंग पंवार:- पीथाजी के भैराजी, भैराजी के बोहराजी और बोहराजी के धोधिंगजी हुए, जिनके वंशज धोधिंग पंवार कहलाते है।

बोया पंवार:- गुणरायजी के वंशज बोया पंवार कहलाते है।
वेरात पंवार- वेराजी के वंशज वेरात पंवार कहलाते है‌।
पंवारों की बडे़ रूप में छत्तीस शाखा है- पंवार, सांखला, भरमा, भावल, पेस, पाणिसवल, वहीया, वाहल, छाहड़, मोटसी, हूवंड, सिलोरा, जयपाल, कंठावा, काब, उमर, धांधू, धूरिया, भई, कछोड़िया, काला, कालमुह, खेरा, खूंटा, ढल, ढेसल, जागा, ढूंढा, गेहलड, कलिलिया, कुकड़, पितालिया, डोडा, बारड़।

भानजी जाड़ेजा।


इतिहास का वह महान योद्धा जिसके युद्ध कौशल और वीरता को देख अकबर को बीच युद्ध से भागना पड़ा था।
 
वैसे तो भारत की भूमि वीर गथाओ से भरी पड़ी है पर कभी-कभी इतिहास के पन्नो ने उन वीरो को सदा के लिए भुला दिया, जिनका महत्व स्वय उस समय के शासक भी मानते थे और उन वीरो के नाम से थर-थर कांपते थे।

 आज अपने इस लेख में हम आपको उन्ही में से एक ऐसे वीर की कहानी बतायेंगे जो आपने पहले शायद ही कही पढ़ी हो, वह वीर उस स्वाभिमानी और बलिदानी कौम के थे जिनकी वीरता के दुश्मन भी दीवाने थे।

जिनके जीते जी दुश्मन राजपूत राज्यो की प्रजा को छु तक नही पाये, अपने रक्त से मातृभूमि को लाल करने वाले जिनके सिर कटने पर भी धड़ लड़-लड़ कर झुंझार हो गए तो आईये जानते है इन्ही की सम्पूर्ण सच्ची कहानी।


•☞︎︎︎ वीर योद्धा : भानजी जाडेजा।

•☞︎︎︎ अकबर और भानजी जाड़ेजा के मध्य संग्राम।

•☞︎︎︎ मुगलो को दौड़ा-दौड़ा कर भगाया।

यह सच्ची कहानी है एक वीर सनातनी योद्धा की जिन्होंने अकबर को हरा कर भागने पर मजबूर किया और कब्जे में ले लिए उनके 52 हाथी 3530 घोड़े पालकिया आदि बात वक़्त की है जब विक्रम सम्वंत 1633(1576 ईस्वी) में मेवाड़ गोंड़वाना के साथ-साथ गुजरात भी युद्ध में मुगलो से लोहा ले रहा था, गुजरात में स्वय अकबर और उसके सेनापति कमान संभाले थे।

इसी बीच अकबर ने जूनागढ़ रियासत पर 1576 ईस्वी में आक्रमण करना चाहा तब वहा के नवाब ने पडोसी राज्य नवानगर (जामनगर) के राजपूत राजा जाम सताजी जडेजा से सहायता मांगी क्षत्रिय धर्म के अनुरूप महाराजा ने पडोसी राज्य जूनागढ़ की सहायता के लिए अपने 30000 योद्धाओ को भेजा जिसका नेतत्व कर रहे थे नवानगर के सेनापति वीर योद्धा भानजी जाडेजा।

सभी राजपूत योद्धा देवी दर्शन और तलवार शास्त्र पूजा कर जूनागढ़ की और सहायता के निकले पर माँ भवानी को उस दिन कुछ और ही मंजूर था। 

"अकबर और भानजी जड़ेजा के मध्य संग्राम" 

जूनागढ़ के नवाब ने अकबर की स्वजातीय विशाल सेना के सामने लड़ने से अचानक साफ़ इंकार कर दिया व आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो गया और नवानगर के सेनापति वीर भांनजी दाल जडेजा को वापस अपने राज्य लौट जाने को कहा। 

भानजी और उनके वीर राजपूत योद्धा अत्यंत क्रोधित हुए और भान जी जडेजा ने सीधे-सीधे जूनागढ़ नवाब को राजपूती तेवर में कहा क्षत्रिय युद्ध के लिए निकलता है या तो वो जीतकर लौटेगा या फिर रण भूमि में वीर गति को प्राप्त होकर वहा सभी वीर जानते थे की जूनागढ़ के बाद नवानगर पर आक्रमण होगा आखिर सभी वीरो ने फैसला किया की वे बिना युद्ध किये नही लौटेंगे।

अकबर की सेना लाखो में थी उन्होंने मजेवाड़ी गाव के मैदान में अपना डेरा जमा रखा था अन्तः भान जी जडेजा ने मुगलो के तरीके से ही कुटनीति का उपयोग करते हुए आधी रात को युद्ध लड़ने का फैसला किया और इसके बाद सभी योद्धा आपस में गले मिले फिर अपने इष्ट का स्मरण कर युद्ध स्थल की और निकल पड़े।
 
आधी रात और युद्ध शूरू हुआ मुगलो का नेतृत्व मिर्ज़ा खान कर रहा था उस रात हजारो मुगलो को काटा गया और मिर्जा खांन भी भाग खड़ा हुआ सुबह तक युद्ध चला और मुग़ल सेना अपना सामान युद्ध के मैदान में ही छोड़ भाग खड़ी हुयी बादशाह अकबर जो की सेना से कुछ किमी की दुरी पर था वो भी उसी सुबह अपने विश्वसनीय लोगो के साथ काठियावाड़ छोड़ भाग खड़ा हुआ। 

उनके साथ युद्ध में मुग़ल सेनापति मिर्जा खान भी था इस युद्ध में भान जी ने बहुत से मुग़ल मनसबदारो को काट डाला व हजारो मुग़ल मारे गए।

"मुगलो को दौड़ा-दौड़ा कर भगाया"

नवानगर की सेना ने मुगलो का 20 कोस तक पीछा किया, जो हाथ आये वो काटे गए. अंत भानजीदाल जडेजा में मजेवाड़ी में अकबर के शिविर से 52 हाथी 3530 घोड़े और पालकियों को अपने कब्जे में ले लिया।

उस के बाद राजपूती फ़ौज सीधी जूनागढ़ गयी वहा नवाब को कायरकता का जवाब देने के लिए जूनागढ़ के किले के दरवाजे भी उखाड दिए ये दरवाजे आज जामनगर में खम्बालिया दरवाजे के नाम से जाने जाते है जो आज भी वहा लगे हुए है।

बाद में जूनागढ़ के नवाब को शर्मिन्दिगी और पछतावा हुआ उसने नवानगर महाराजा साताजी से क्षमा मांगी और दंड स्वरूप् जूनागढ़ रियासत के चुरू, भार सहित 24 गांव और जोधपुर परगना (काठियावाड़ वाला) नवानगर रियासत को दिए।

कुछ समय बाद बदला लेने की मंशा से अकबर फिर आया और इस बार उसे दुबारा तामचान की लड़ाई में फिर हार का मुह देखना पड़ा इस युद्ध वर्णन सौराष्ट्र नु इतिहास में भी दर्ज है जिसे लिखा है शम्भूप्रसाद देसाई ने साथ ही यह में भी प्रकाशित हुआ था इसके अलावा विभा विलास तथा यदु वन्स प्रकाश जो की मवदान जी रतनु ने लिखी है उसमे भी इस अदभुत शौर्य गाथा का वर्णन है।

दोस्तो ऐसे ओर भी कई गुमनाम योद्धा हमारी पावन भूमि पर हुवे है जिन्होंने अपनी वीरता की मिसाले दी है लेकिन उन वीरो की गाथा बस किस्से कहानियों में ही सीमित रह गए है तो मेरी आपसे विनती है हमे उन वीरो की वीरता के बारे में जाने और सभी को अपना गौरवशाली इतिहास बताये।

🙏🏻जय मां भवानी।🚩

"राजमाता नायिका देवी पाटन" क्षत्राणी


"चालुक्य (सोलंकी) राजपूतो का पराक्रम"

राजमाता नायिका देवी जिसने साबुद्दीन मोहम्मद गोरी को भारत में पहली पराजय का रास्ता दिखाया युद्धभूमि में धूल चटा दी थी।

राजमाता नायिका देवी ने मोहम्मद गौरी की विजय के उपलक्ष में रण हस्ति सिक्के जारी किए थे..

राजमाता नायिका देवी पाटन की सेना के सेनापति सोलंकी भीमदेव द्वितीय थे जिन्होंने अपने पराक्रम से गोरी के सेना का भागने में मजबूर कर दिया 

युद्ध में पाटन के सामंत राजाओं ने भी भाग लिया जिसमें आबू के परमार वे नाडोल के चौहानों का भी योगदान रहा..

महारानी नायिका देवी सम्राट अजयपाल सोलंकी की विधवा महारानी व बाल मूलराज जी द्वित्तीय की माता थी नायिका देवी जी  

महाराज अजयपाल जी के निधन के बाद सारा राजपाट का भार राजमाता नायका देवी के कंधों पर आ गया,

उनके पुत्र बाल मूलराज अभी बाल अवस्था में थे 

मुहम्मद गोरी का पहला आक्रमण मुल्तान और उच के किले पर था। मुल्तान और उच पर कब्जा करने के बाद, वह दक्षिण की ओर दक्षिणी राजपुताना और गुजरात की ओर मुड़ गया। उसका निशाना अनहिलवाड़ा पाटन का समृद्ध किला था 

जब गोरी ने पाटन पर हमला किया, तो यह मूलराज-द्वितीय के शासन में था, जो अपने पिता अजयपाल के निधन के बाद एक 10 वर्षीय उमर में सिंहासन पर चढ़े थे। हालांकि, यह वास्तव में उनकी मां, नयिकी देवी थी, जिन्होंने राजमाता के रूप में राज्य की बागडोर संभाली थी। दिलचस्प बात यह है कि इस तथ्य ने गोरी को अन्हिलवाड़ा पाटन पर कब्जा करने के बारे में आश्वस्त कर दिया था –

उन्होंने माना कि एक महिला और एक बच्चा बहुत अधिक प्रतिरोध प्रदान नहीं करेगा। पर गोरी जल्द ही सत्य सीख जाएगा

राजमाता नायकि देवी तलवार चलाने, घुड़सवार सेना, सैन्य रणनीति, कूटनीति और राज्य के अन्य सभी विषयों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित थी। गौरी के आसन्न हमले की संभावना से दुखी होकर, उसने चालुक्य सेना की कमान संभाली और आक्रमणकारी सेना के लिए एकसुनियोजित विरोध का आयोजन किया।

चालुक्य सेना संख्याबल में कम होने के कारण दुश्मन सैनिकों की भारी भीड़ को हराने के लिए पर्याप्त नहीं थी, राजमाता नायिकी देवी ने सावधानीपूर्वक एक युद्ध की रणनीति बनाई। उसने गदरघाट के बीहड़ इलाके को चुना – कसाहरदा गाँव के पास माउंट आबू के एक इलाके में (आधुनिक-सिरोही जिले में) – लड़ाई के स्थल के रूप में। गदरघाट की संकरी पहाड़ी दर्रा ग़ोरी की हमलावर सेना के लिए अपरिचित ज़मीन थी, जिससे नायकी देवी को बहुत बड़ा फायदा हुआ।

और एक शानदार चाल ने युद्ध को संतुलित कर दिया। और इसलिए जब गौरी और उसकी सेना आखिर कसरावदा पहुंची, राजमाता नायिका देवी एक विशाल गजराज पर अपने पुत्र के साथ में सवार थी ई, जिससे उसके सैनिकों ने भीषण जवाबी हमला किया।

इसके बाद क्या था उस लड़ाई में, जिसे (कसारदा की लड़ाई के रूप में जाना जाता है), आगे चलकर चालुक्य सेना और उसके युद्ध के हाथियों की टुकड़ी ने हमलावर ताकत को कुचल दिया। यह वही गोरी की सेना थी जिसने एक बार मुल्तान के शक्तिशाली सुल्तानों को युद्ध में हराया था।

एक अपनी पहली हार बड़ी हार का सामना करते हुए, शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी मुट्ठी भर अंगरक्षकों के साथ भाग गया। उसका अभिमान चकनाचूर हो गया, और उसने फिर कभी गुजरात को जीतने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय, उसने अगले साल खैबर दर्रे के माध्यम से उत्तर भारत में प्रवेश करने वाले अधिक संवेदनशील पंजाब की ओर देखा।

भारत के इतिहास की सबसे महान योद्धाओं में से महिलाओं में से एक, राजमाता नायिका देवी की अदम्य साहस और अदम्य भावना झांसी की पौराणिक रानी लक्ष्मी बाई, मराठों की रानी ताराबाई और कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के बराबर हैं। फिर भी, इतिहास की किताबों में उसकी अविश्वसनीय कहानी के बारे में बहुत कम लिखा गया है।

राजमाता नायिकी देवी जैसी वीरता की मूर्ति यह साबित करती हैं की भारत में स्थायी रूप से इस्लामिक शासन कोई नहीं स्थापित कर पाया था ऐतिहासिक नक़्शे कासिम से लेकर औरंगजेब तक के शाशन काल तक का सब धोखा हैं अप्रमाणित हैं (वामपंथी इतिहासकारों ने 1957 से इतिहास लिखना शुरू किया था इन मार्क्स के लाल बंदरो ने जहा जहा मुस्लिम बहुल इलाके का नक्षा मिला 1939 से लेकर 1950 तक का उसीको औरंगजेब एवं मुग़ल , अफ़ग़ान , तुर्क इत्यादि लूटेरो की राजधानी बना दिया और उनके द्वारा शाशित किये गए राज्य बना दिए) ।

बाल मूलराज जी की मृत्यु के बाद पाटन के महान सोलंकी सम्राट भीमदेव द्वितीय बने ..

वामपंथ इतिहासकार ने इतिहास में मुगलों को भारत विजय का ताज पहना दिया हकीकत में सनातनी राजाओ एवं दुर्गा स्वरुप रानी से पराजय होकर जिहादी लूटेरो को वापस अरब के रेगिस्तान में लौटना पड़ा ।

इतिहास में दंत कथाओं के इतिहास को ज्यादा बढ़ावा मिला है लेकिन सत्य इतिहास को बहुत कम..

जय हो राजमाता नायिका देवी की! 🚩
क्षत्रिय राजपूत वंश 

🙏🏻जय मां भवानी।🚩

सोमवार, 24 जनवरी 2022

राजा जसवंत सिंह पँवार

राजपूतो की वीरता और क्षत्रिय धर्मं परायणता की एक और सच्ची कहानी.......

#उज्जैन_के_राजा_जसवंत_सिंह_पँवार ही नहीं उनके सेनिक भी शूरवीर योद्धा राजपूत थे।

 एक बार एक खबर आई कि मुसलमान सेना भारत मे गुसने वाली हैं। 
तभी राजपुती सेना तैयार हो गई ओर निकल पडी देश ओर धर्म कि रक्षा करने के लिए । मुसलमान सेना जानती थी की अगर क्षत्रिय राजपुतों से टकराए तो बहुत कुछ खोना पडेगा , इसलिए मुल्लो ने एक तरीका निकाला जिससे युद्ध हो लेकिन सेना से नहीं ,। 
शहादत खान ने राजा जसवंत सिहं से कहा कि एक वीर राजपूत सेना की तरफ से लडेगा और दूसरा हमारी तरफ से जो जीतेगा उसकी बात रहेगी ।

राजा जसवंत सिंह ने हा कर दी और कहा पहले अपनी तरफ से वीर भेजो , खान ने सेना के सबसे ताकतवर 8 फिट लंबे योद्धा को भेजा , तब राजा जसवंत सिंह ने कुछ देर तक अपनी सेना कि तरफ देखा , तो खान बोला '' क्या हुआ डर गए क्या? '

'
तब राजा जसवंत सिंह ने जवाव दिया कि '' मै किस वीर को चुनू मेरी सेना मे सारे क्षत्रिय राजपूत वीर ही हैं '' अगर किसी 1 को चुना तो सेना मे लडाई हो जाएगी , कि मुझे क्यों नही चुना ।

राजा ने खान से कहा- कि तु अपने आप चुनले किसी को भी , तो उस कायर मुसलमान ने 1 बुढढा राजपूत को चुना , जभी वो बुढढा राजपूत सीना चौडा करके आगे लडने आता हैं ।

लडाई शुरु हुई देखते - देखते उस मुसलमान ने राजपूत के पेट को भाले से चीर दिया और उपर उठा दिया , सब देखकर दंग रहा गए कि ये क्या हुआ , तभी राजा ने आदेश दिया की '' काट दो इस सेनिक को , तभी उस भाले पर लटके राजपूत ने तलवार निकाली ओर झट से उस मुल्ले का सिर काट डाला और भाले सहित सेना मे आ खडा हुआ ।

सब उस राजपूत की वीरता तो देखकर दंग रहा गए , ओर मुसलमान सैनिको को वापस लोटना पडा ।
विजय या वीरगती ।।

            🚩जय क्षात्र धर्म।🚩
         💥 जय राजपूताना।💥
           🕉जय माँ भवानी।🕉

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

पुंडीर राजवंश- रानी सावलदे और राजा कारक की कथा।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे राजा कारक और रानी सावलदेह का किस्सा लोक गीत और रागनियो में बहुत गाया जाता है।

लेकिन बहुत कम ही लोग जानते है की रानी सावलदे और राजा कारक का सम्बंध किस राजवंश से है। ये केवल किस्सा मात्र नहीं है, ये पुंडीर वंश के गौरवशाली इतिहास की वो कड़ी है जिसे हमारी आज की पीढी अंजान है। जिस तरह सावित्री और सत्यवान की कथा अमर है ,उसी तरह रानी सावालदे और राजा कारक की कथा भी अमर है।

मनहारखेडा(राजा मनहार सिंह पुंडीर द्वारा बसाया गया ) जिसे आज जलालाबाद(जिला -शामली ) के नाम से जाना जाता है कभी राजपूत राजांओ की बहादुरी ,तापस्या ,एकता ओर बलीदान का प्रतीक था जिसके किले के गुम्बद आज भी महान राजाओं और उनके बालिदान की कहानियां कहते है।

मनहारखेडा राजवंश मे राजा केशर सिह पुंडीर एक प्रतापी राजा हुए, जिनकी पुत्री सावलदे का विवाह दिल्ली के तंवर वंशी राजा कारक के साथ हुआ।

सावलदे बहुत तपस्वी और अध्यत्मिक थी , विवाह के बाद सावलदे जब मायके आई और कुछ दिन बाद जब राजा कारक उनहे लिवा कर वापस दिल्ली जा रहे थे तब रस्ते में एक बड़ के पेड के नीचे विश्राम के लिए रुके।

 तभी एक चील अपने पंजे मे सर्प को दबाकर उडी जा रही थी , और वह उस वृक्ष पर बैठ गयी , जिसके नीचे राजा-रानी विश्राम कर रहे थे। राजा कारक ने सर्प को चील के पंजे से छुडाने के लिए तीर निकाल लिया ,तभी सावलदे ने उनहे सर्पो से उनके वंश वैर की बात कही और उन्हें धोखे होना का आभास कराया। 

लेकिन राजा क्षात्र धर्म मे बांधे थे, एक न सुनी और तीर चला दिया, चील सर्प को छोड़ उड गई, सर्प खोकर में छिप गया। रानी के द्वारा राजा को धोखे से सावधान करने पर भी राजा न माने और तीर लेने वृक्ष पर चढे, तभी सर्प ने राजा को डस लिया, जिससे राजा प्राण त्याग देते है, रानी राजा की लाश लेकर दिल्ली पहुची, जहां उसे सास के ताने सुन्ने पडे तथा उसे मनहूस कहकर महल में नही आने दिया गया। 

रानी डोले मे लाश लेकर वापस उसी वृक्ष के नीचे आ गई और विलाप करने लगी। सावलदे बहुत तपस्वी थी उसके तप के प्रभाव से वहा नारद मुनी प्रगट हुए और 12 साल वृक्ष के नीचे लाश को घास के पालने मे रखकर तप करने को कहा, 12 साल बाद वहा देवताओं के वैद्य धनातर के आने की बात कहते है। नारद मुनी के आशीर्वाद से राजा कारक की देह सुरक्षित रहती है। 

12 साल सावलदे उस बड़ के वृक्ष के नीचे तप करती है और जब वैद्य धानातर घूमते हुए वहा आते है और उसके तप का कारण और उसका परिचय पुछते है तब वह बताती है की वह मनहारखेडा के राजा केसर सिंह की पुत्री है और अपने दुख का कारण् बताती है और नारद जी के वचन के बारे मे बताती है। तब वैद्य से प्रार्थना करने पर वैद्य राजा कारक को पुन: जीवित कर देते है। 

राजा को जब होश आया तो लगा जैसे गहरी नींद मे थे और रानी की दशा देखकर बहुत दुखी हुए तथा उन्होनें दिल्ली जाने से मना कर दिया, लेकिन सावलदे की प्रार्थना पर वो दोनो दिल्ली लौट गए, ज़िससे दिल्ली में खुशी की लेहर दोड़ गई और राजा कारक और रानी का नाम और किस्सा हमेशा के लिए अमर हो गया।
जय हो क्षत्रिय पुंडीर वंश की पुत्री महातपस्वीनी रानी सावलदे की।🙏🏻

सोमवार, 10 जनवरी 2022

महाराजा विक्रमादित्य परमार

महाराज विक्रमादित्य परमार के बारे में देश को लगभग शून्य बराबर ज्ञान है…



जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था, और स्वर्णिम काल लाया था । इन्ही के नाम से विक्रमी संवत चलता है।
-----------
उज्जैन के राजा थे गन्धर्वसैन परमार, जिनके तीन संताने थी , सबसे बड़ी लड़की थी मैनावती , उससे छोटा लड़का भृतहरि और सबसे छोटा वीर विक्रमादित्य...बहन मैनावती की शादी धारानगरी के राजा पदमसैन के साथ कर दी , जिनके एक लड़का हुआ गोपीचन्द , आगे चलकर गोपीचन्द ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , फिर मैनावती ने भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा ले ली।
-----------
आज ये देश और यहाँ की संस्कृति केवल विक्रमदित्य के कारण अस्तित्व में है…
अशोक मौर्य ने बोद्ध धर्म अपना लिया था और बोद्ध बनकर 25 साल राज किया था,
भारत में तब सनातन धर्म लगभग समाप्ति पर आ गया था, देश में बौद्ध और जैन हो गए थे।
----------
रामायण, और महाभारत जैसे ग्रन्थ खो गए थे, महाराज विक्रम ने ही पुनः उनकी खोज करवा कर स्थापित किया
विष्णु और शिव जी के मंदिर बनवाये और सनातन धर्म को बचाया।

विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् लिखा, जिसमे भारत का इतिहास है…
अन्यथा भारत का इतिहास क्या मित्रो हम भगवान् कृष्ण और राम को ही खो चुके थे।

हमारे ग्रन्थ ही भारत में खोने के कगार पर आ गए थे,
उस समय उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे और आज उन्ही के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है।
--------------
महाराज विक्रमदित्य ने केवल धर्म ही नही बचाया
उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है
विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे।

भारत में इतना सोना आ गया था की, विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे , आप गूगल इमेज कर विक्रमदित्य के सोने के सिक्के देख सकते हैं।
----------------
विक्रम संवत कैलंडर भी विक्रमदित्य का स्थापित किया हुआ है।

रविवार, 9 जनवरी 2022

हीरा दे : एक वज्रहृदया क्षत्राणी!

संवत 1368, वैशाख का निदाघ पत्थर पिघला रहा था। तभी द्वार पर दस्तक सुनी और हीरा-दे ने दरवाजा खोला। स्वेद में नहाया उसका पति विका दहिया एक पोटली उठाये खड़ा था। उसका काँपता शरीर और लड़खड़ाता स्वर, चोर या तो नैण से पकड़ा जाता है या फिर वैण से। तिस पर हीरा-दे तो क्षत्राणी थी; वह पसीने की गंध से अनुमान लगा सकती थी कि यह पसीना रणक्षेत्र में खपे पराक्रमी का है या भागे हुए गद्दार का। 


" मैंने जालोर का सौदा कर दिया " - विका ने हीरा-दे की लाल होती आँखें देखकर सच बक दिया। इतना पर्याप्त था। शेष बातें तो वह जानती थी। वह जानती थी कि किले के निर्माण में रही खामी को केवल उसका भरतार जानता है। आज उसका पति चंद स्वर्ण-मुद्राओं के बदले सोनगरा चौहानों की मान-मर्यादा और प्राण संकट में डाल आया। अलाउद्दीन कितना बर्बर है, वह जानती थी।

 एकाएक उसकी आँखों के सामने जालोर दुर्ग के दृश्य तैरने लगे। एक तरफ़ कान्हड़देव और कुंवर भतीज
वीरमदेव म्लेच्छ सेना के भीड़ रहे हैं तो दूजी तरफ़ क्षत्रिय स्त्रियों ने जोहर की तैयारी कर ली है। तलवारों की टँकारों से व्योम प्रकम्पित और धरा रक्त से लाल। हीरा-दे ने झटपट आँखें खोल स्वयं को दुःस्वप्न से बाहर लाया। 

उसके पास इतना समय नहीं था कि वह लाभ-हानि का गणित लगाती। माँ चामुंडा का स्मरण किया और कुछ पग आगे बढ़ाते हुए म्यान देखी। वह कटार दुर्भाग्यशालिनी जो शत्रु की छाती को छोड़ म्यान में सोती हो। क्षत्रिय के लिए कटार केवल शस्त्र नहीं, धर्म स्थापना की साधना में पवित्र आयुध है। 

" यह तलवार आज यहाँ है; इसलिए हजारों-लाखों क्षत्राणियों के सुहाग उजड़े हैं, कई नवजात आंखें खोलने से पहले अनाथ हुए हैं। आज इसका ऋण चुकाने की बारी मेरी है। " - आंखों में रक्त भरते हुए हीरा-दे ललकार पड़ी। 

हीरा दे ने म्यान से तलवार क्या खींची; धरा आशीष देने लगी, स्वर्गस्थ पूर्वजों ने दोनों हाथ उठाकर अपनी बेटी को आशीष दिया। अपने भीतर का सम्पूर्ण सामर्थ्य एकत्र कर वह अपने प्राणनाथ के सामने थी। 

" हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ " हे विधाता! कैसा समय दिखाया कि आज इस चंडाल का मुँह देखना पड़ रहा है। लेकिन नहीं, अब नहीं -- 

" जो चंद कौड़ियों में बिक जाये वो एक क्षत्राणी का पति नहीं हो सकता। गद्दार पिता पति या पुत्र नहीं होता, गद्दार सिर्फ गद्दार होता है। " - यह कहते हुए उस पाषाण हृदया क्षत्राणी ने एक हाथ से अपनी सिंदूर रेख मिटायी और दूसरे हाथ से वह कटार निज पति की छाती में उतारकर इतिहास में एक नई रेख खींच दी। 

सोना-चांदी के प्रलोभन में नहीं झुकती क्षत्राणी, यह उसके लिए मैल से बढ़कर कुछ नहीं। वह इतिहास में अमर होने की इच्छा नहीं पालती, वह तो स्वयं इतिहास को अपनी काँख में दबाकर चलती है। क्षत्राणी विलाप नहीं करती, वह ललकारती है। क्षत्राणी सब क्षमा कर सकती है किंतु कायर और गद्दार पति नहीं। 

राज्य के प्रति ऐसी अनन्य निष्ठा कि अपनी पति तक को मौत के घाट उतार दिया, विश्व इतिहास में ऐसा उदाहरण विरल है। 

कायर पति के सीने में खंजर उतार देती, आग में कूद पड़ती, 
घोड़े पर बैठकर रण में तलवार चलाती, पति और पुत्र के भाल 
पर तिलक कर समर में भेज देती - क्षत्राणी सब नहीं होती!
डेढ़ सेर कलेजा चाहिए।

शनिवार, 8 जनवरी 2022

कौन है असली यदुवंशी…!?

हमारे बहुत से मित्र कहेंगे की द्वारिका तो पूरी नष्ठ हो गयी थी, अब कहाँ यदुवंशी बचे है। उन मित्रो को यही कहना है, की टीवी सीरियल छोड़कर मूल महाभारत पढ़े, द्वारिका में विनाश अवश्य हुआ था, लेकिन फिर भी श्रीकृष्ण ने कुछ हजार लोगों को तीर्थ के बहाने राज्य से निकाला था, अर्जुन ने भी काफी लोगो को बचाया ....तो यदुवंश खत्म नही हुआ था .....


यदुवंश भारत का एक महान वंश है , भगवान श्री कृष्ण का जन्म इसी वंश में हुआ था । वर्तमान में राजपूत जाति के अंतर्गत आने वाले जादौन, भाटी, जडेजा, चूड़ासामा यदुवंशी आदि है ।। 

इतिहास के ज्ञान के अभाव में हम जिन्हें यदुवंशी मानते है, इतिहास की पुस्तकों में उन्हें आभीर कहा गया है । कुछ इतिहासकारो ने तो यहां तक माना है, आभीर एक विदेशी जाति थी, शको का अनुसरण करते हुए यह भारत मे प्रविष्ट हुई, हिरात और कंधार के बीच "अबिरवन " नामक स्थान इनकी भूमि थी, बाद में पश्चिमी और मध्यभारत तक आभीरों की बस्तियां बनी, इतिहास के अधिकतम ग्रन्थों में आभीरों का वर्णन शुद्र के रूप में मिलता है ।

विदेशी शको के शासनकाल के समय आभीरों की स्तिथि बहुत सुदृढ थी , क्यो की शक राजा आभीरों को उच्च पदों पर बिठाते थे। उतरी काठियावाड़ में गुंडा नामक स्थान से १८१ ईस्वी का एक शिलालेख मिला है, इसमें महाक्षत्रप रुद्रसिंह प्रथम के शासनकाल में सेनापति बापक के पुत्र आभीर सेनानी रुद्रभूति द्वारा एक जलाशय खुदवाने का उल्लेख है । इससे यह स्पष्ठ है, की शको के शासनकाल में आभीरों को उच्च पद प्राप्त था ।। इसके उलट विदेशी शको और राजपूतो के बीच संबध सांप और नेवले वाला था । 

पूरे इतिहास में केवल एक आभीर राजा का उल्लेख मिलता है… मारठि पुत्र ईश्वरसेन ।। इनके नवम वर्ष के शासनकाल का एक शिलालेख मिला है, जिसमे उन्होंने कोई भी राजकीय उपाधि धारण नही की है, जैसा क्षत्रिय राजा करते थे ।

आभीर जाति लगभग 200 सालों तक भारत के छोटे प्रदेश पर शासन करती रही है । इतिहास में कदम्ब वंश का वर्णन आता है, जिन्होंने आभीरों और शको दोनो को पराजित किया, उन्होंने भी आभीर राज्यो को आभीर ही कहा है । यदु वंश से आभीरों का कहीं कोई सम्बंध नही बताया गया है ।

महाभारत में आभीर और क्षत्रिय :-

पूरी महाभारत में कहीं भी भगवान श्रीकृष्ण को आभीर नही कहा गया है। न उनके किसी वंसज को आभीर कहा गया है । 

महाभारत में आभीरों का जो वर्णन है, वह यह है :-

" ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः 
आभीरा मंत्रयामासः समेत्याशुभदर्शना " 
(श्रीमहाभारते-मौसलपर्व सप्तमोध्यायः-श्लोक -४७)

इस श्लोक का अर्थ है, लोभ से उनकी विवेक शक्ति नष्ठ हो गयी, उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की ....

यह श्लोक तब है, जब अर्जुन द्वारिकावासियों को बचाने निकलते है । वहां इनकी मन्त्रणा चलती है

" देखो यह अकेला अर्जुन बूढों, बालको, ओर अनाथ समूह को लिए जा रहा है, अतः इसपर आक्रमण करना चाहिए। 

सिर्फ यही नही, इसी अध्याय में आभीरों का वर्णन म्लेच्छ के रूप में भी आया है :-

प्रेक्षतस्तवेव पार्थस्य वृषणयन्धकवरस्त्रीय
जग्मुरादाय ते मल्लेछा समन्ताजज्नमेय् ।।
(मौसल पर्व-सप्तम अध्याय-श्लोक :-६३)

अर्जुन देखता ही रह गया ,वह म्लेच्छ डाकू सब ओर से वृष्णिवंश और अन्धकवंश कि सुंदर स्त्रियो पर टूट पड़े ।। 

एक ही अध्याय में डाकुओं को आभीर भी कहा गया, म्लेच्छ कहा गया , अगर आभीरों का सम्बंध क्षत्रिय वंश से होता, तो महाभारत में लिखा होता, तो बुद्धि और काल से विवश होकर क्षत्रिय भी म्लेच्छ कर्म करने लगे। क्यो की जब भी क्षत्रियो ने अत्याचार किया है, शास्त्रो में उन्हें "अत्याचारी क्षत्रिय " ही कहा है, डाकू या म्लेच्छ नही । अगर आभीर क्षत्रिय होते, तो उनका भी इसी तरह वर्णण आता ।।

राजपूत ही है असली यादव

रही राजपूतो के यदुवंशी होने की बात, तो इनके पास वंशावली है, शास्त्रो के समस्त बयान इनके पक्ष में है, अहीर जाति प्रमाण पत्र में खुद को यादव लिखेंगे तो उन्हें आरक्षण तक नही मिलेगा ।। गुजरात उच्च न्यायलय ने जड़ेजाओ को गुजरात मे कृष्ण का वंसज माना है, आज भी श्रीकृष्ण की गद्दी करौली मानी जाती है, जैसलमेर में श्रीकृष्ण की छतरी है । 

लेखक की तरफ से विन्रम निवेदन :- यह पोस्ट सत्य तथा प्रमाणों पर आधारित पोस्ट है, इस पोस्ट का उद्देश्य किसी का अपमान करना नही है, अगर किसी को भी इस पोस्ट से तकलीफ हुई है, ।। यह पोस्ट इसलिए लिखनी पड़ी, क्यो की इसी बात को लेकर बार बार राजपूतो को टारगेट किया जाता है, कोई खुद को श्रीकृष्ण का वंशज कहें, पुत्र कहे, इससे किसी को कोई समश्या नही है।।