गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

"राजमाता नायिका देवी पाटन" क्षत्राणी


"चालुक्य (सोलंकी) राजपूतो का पराक्रम"

राजमाता नायिका देवी जिसने साबुद्दीन मोहम्मद गोरी को भारत में पहली पराजय का रास्ता दिखाया युद्धभूमि में धूल चटा दी थी।

राजमाता नायिका देवी ने मोहम्मद गौरी की विजय के उपलक्ष में रण हस्ति सिक्के जारी किए थे..

राजमाता नायिका देवी पाटन की सेना के सेनापति सोलंकी भीमदेव द्वितीय थे जिन्होंने अपने पराक्रम से गोरी के सेना का भागने में मजबूर कर दिया 

युद्ध में पाटन के सामंत राजाओं ने भी भाग लिया जिसमें आबू के परमार वे नाडोल के चौहानों का भी योगदान रहा..

महारानी नायिका देवी सम्राट अजयपाल सोलंकी की विधवा महारानी व बाल मूलराज जी द्वित्तीय की माता थी नायिका देवी जी  

महाराज अजयपाल जी के निधन के बाद सारा राजपाट का भार राजमाता नायका देवी के कंधों पर आ गया,

उनके पुत्र बाल मूलराज अभी बाल अवस्था में थे 

मुहम्मद गोरी का पहला आक्रमण मुल्तान और उच के किले पर था। मुल्तान और उच पर कब्जा करने के बाद, वह दक्षिण की ओर दक्षिणी राजपुताना और गुजरात की ओर मुड़ गया। उसका निशाना अनहिलवाड़ा पाटन का समृद्ध किला था 

जब गोरी ने पाटन पर हमला किया, तो यह मूलराज-द्वितीय के शासन में था, जो अपने पिता अजयपाल के निधन के बाद एक 10 वर्षीय उमर में सिंहासन पर चढ़े थे। हालांकि, यह वास्तव में उनकी मां, नयिकी देवी थी, जिन्होंने राजमाता के रूप में राज्य की बागडोर संभाली थी। दिलचस्प बात यह है कि इस तथ्य ने गोरी को अन्हिलवाड़ा पाटन पर कब्जा करने के बारे में आश्वस्त कर दिया था –

उन्होंने माना कि एक महिला और एक बच्चा बहुत अधिक प्रतिरोध प्रदान नहीं करेगा। पर गोरी जल्द ही सत्य सीख जाएगा

राजमाता नायकि देवी तलवार चलाने, घुड़सवार सेना, सैन्य रणनीति, कूटनीति और राज्य के अन्य सभी विषयों में अच्छी तरह से प्रशिक्षित थी। गौरी के आसन्न हमले की संभावना से दुखी होकर, उसने चालुक्य सेना की कमान संभाली और आक्रमणकारी सेना के लिए एकसुनियोजित विरोध का आयोजन किया।

चालुक्य सेना संख्याबल में कम होने के कारण दुश्मन सैनिकों की भारी भीड़ को हराने के लिए पर्याप्त नहीं थी, राजमाता नायिकी देवी ने सावधानीपूर्वक एक युद्ध की रणनीति बनाई। उसने गदरघाट के बीहड़ इलाके को चुना – कसाहरदा गाँव के पास माउंट आबू के एक इलाके में (आधुनिक-सिरोही जिले में) – लड़ाई के स्थल के रूप में। गदरघाट की संकरी पहाड़ी दर्रा ग़ोरी की हमलावर सेना के लिए अपरिचित ज़मीन थी, जिससे नायकी देवी को बहुत बड़ा फायदा हुआ।

और एक शानदार चाल ने युद्ध को संतुलित कर दिया। और इसलिए जब गौरी और उसकी सेना आखिर कसरावदा पहुंची, राजमाता नायिका देवी एक विशाल गजराज पर अपने पुत्र के साथ में सवार थी ई, जिससे उसके सैनिकों ने भीषण जवाबी हमला किया।

इसके बाद क्या था उस लड़ाई में, जिसे (कसारदा की लड़ाई के रूप में जाना जाता है), आगे चलकर चालुक्य सेना और उसके युद्ध के हाथियों की टुकड़ी ने हमलावर ताकत को कुचल दिया। यह वही गोरी की सेना थी जिसने एक बार मुल्तान के शक्तिशाली सुल्तानों को युद्ध में हराया था।

एक अपनी पहली हार बड़ी हार का सामना करते हुए, शहाबुद्दीन मोहम्मद गौरी मुट्ठी भर अंगरक्षकों के साथ भाग गया। उसका अभिमान चकनाचूर हो गया, और उसने फिर कभी गुजरात को जीतने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय, उसने अगले साल खैबर दर्रे के माध्यम से उत्तर भारत में प्रवेश करने वाले अधिक संवेदनशील पंजाब की ओर देखा।

भारत के इतिहास की सबसे महान योद्धाओं में से महिलाओं में से एक, राजमाता नायिका देवी की अदम्य साहस और अदम्य भावना झांसी की पौराणिक रानी लक्ष्मी बाई, मराठों की रानी ताराबाई और कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के बराबर हैं। फिर भी, इतिहास की किताबों में उसकी अविश्वसनीय कहानी के बारे में बहुत कम लिखा गया है।

राजमाता नायिकी देवी जैसी वीरता की मूर्ति यह साबित करती हैं की भारत में स्थायी रूप से इस्लामिक शासन कोई नहीं स्थापित कर पाया था ऐतिहासिक नक़्शे कासिम से लेकर औरंगजेब तक के शाशन काल तक का सब धोखा हैं अप्रमाणित हैं (वामपंथी इतिहासकारों ने 1957 से इतिहास लिखना शुरू किया था इन मार्क्स के लाल बंदरो ने जहा जहा मुस्लिम बहुल इलाके का नक्षा मिला 1939 से लेकर 1950 तक का उसीको औरंगजेब एवं मुग़ल , अफ़ग़ान , तुर्क इत्यादि लूटेरो की राजधानी बना दिया और उनके द्वारा शाशित किये गए राज्य बना दिए) ।

बाल मूलराज जी की मृत्यु के बाद पाटन के महान सोलंकी सम्राट भीमदेव द्वितीय बने ..

वामपंथ इतिहासकार ने इतिहास में मुगलों को भारत विजय का ताज पहना दिया हकीकत में सनातनी राजाओ एवं दुर्गा स्वरुप रानी से पराजय होकर जिहादी लूटेरो को वापस अरब के रेगिस्तान में लौटना पड़ा ।

इतिहास में दंत कथाओं के इतिहास को ज्यादा बढ़ावा मिला है लेकिन सत्य इतिहास को बहुत कम..

जय हो राजमाता नायिका देवी की! 🚩
क्षत्रिय राजपूत वंश 

🙏🏻जय मां भवानी।🚩

सोमवार, 24 जनवरी 2022

राजा जसवंत सिंह पँवार

राजपूतो की वीरता और क्षत्रिय धर्मं परायणता की एक और सच्ची कहानी.......

#उज्जैन_के_राजा_जसवंत_सिंह_पँवार ही नहीं उनके सेनिक भी शूरवीर योद्धा राजपूत थे।

 एक बार एक खबर आई कि मुसलमान सेना भारत मे गुसने वाली हैं। 
तभी राजपुती सेना तैयार हो गई ओर निकल पडी देश ओर धर्म कि रक्षा करने के लिए । मुसलमान सेना जानती थी की अगर क्षत्रिय राजपुतों से टकराए तो बहुत कुछ खोना पडेगा , इसलिए मुल्लो ने एक तरीका निकाला जिससे युद्ध हो लेकिन सेना से नहीं ,। 
शहादत खान ने राजा जसवंत सिहं से कहा कि एक वीर राजपूत सेना की तरफ से लडेगा और दूसरा हमारी तरफ से जो जीतेगा उसकी बात रहेगी ।

राजा जसवंत सिंह ने हा कर दी और कहा पहले अपनी तरफ से वीर भेजो , खान ने सेना के सबसे ताकतवर 8 फिट लंबे योद्धा को भेजा , तब राजा जसवंत सिंह ने कुछ देर तक अपनी सेना कि तरफ देखा , तो खान बोला '' क्या हुआ डर गए क्या? '

'
तब राजा जसवंत सिंह ने जवाव दिया कि '' मै किस वीर को चुनू मेरी सेना मे सारे क्षत्रिय राजपूत वीर ही हैं '' अगर किसी 1 को चुना तो सेना मे लडाई हो जाएगी , कि मुझे क्यों नही चुना ।

राजा ने खान से कहा- कि तु अपने आप चुनले किसी को भी , तो उस कायर मुसलमान ने 1 बुढढा राजपूत को चुना , जभी वो बुढढा राजपूत सीना चौडा करके आगे लडने आता हैं ।

लडाई शुरु हुई देखते - देखते उस मुसलमान ने राजपूत के पेट को भाले से चीर दिया और उपर उठा दिया , सब देखकर दंग रहा गए कि ये क्या हुआ , तभी राजा ने आदेश दिया की '' काट दो इस सेनिक को , तभी उस भाले पर लटके राजपूत ने तलवार निकाली ओर झट से उस मुल्ले का सिर काट डाला और भाले सहित सेना मे आ खडा हुआ ।

सब उस राजपूत की वीरता तो देखकर दंग रहा गए , ओर मुसलमान सैनिको को वापस लोटना पडा ।
विजय या वीरगती ।।

            🚩जय क्षात्र धर्म।🚩
         💥 जय राजपूताना।💥
           🕉जय माँ भवानी।🕉

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

पुंडीर राजवंश- रानी सावलदे और राजा कारक की कथा।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे राजा कारक और रानी सावलदेह का किस्सा लोक गीत और रागनियो में बहुत गाया जाता है।

लेकिन बहुत कम ही लोग जानते है की रानी सावलदे और राजा कारक का सम्बंध किस राजवंश से है। ये केवल किस्सा मात्र नहीं है, ये पुंडीर वंश के गौरवशाली इतिहास की वो कड़ी है जिसे हमारी आज की पीढी अंजान है। जिस तरह सावित्री और सत्यवान की कथा अमर है ,उसी तरह रानी सावालदे और राजा कारक की कथा भी अमर है।

मनहारखेडा(राजा मनहार सिंह पुंडीर द्वारा बसाया गया ) जिसे आज जलालाबाद(जिला -शामली ) के नाम से जाना जाता है कभी राजपूत राजांओ की बहादुरी ,तापस्या ,एकता ओर बलीदान का प्रतीक था जिसके किले के गुम्बद आज भी महान राजाओं और उनके बालिदान की कहानियां कहते है।

मनहारखेडा राजवंश मे राजा केशर सिह पुंडीर एक प्रतापी राजा हुए, जिनकी पुत्री सावलदे का विवाह दिल्ली के तंवर वंशी राजा कारक के साथ हुआ।

सावलदे बहुत तपस्वी और अध्यत्मिक थी , विवाह के बाद सावलदे जब मायके आई और कुछ दिन बाद जब राजा कारक उनहे लिवा कर वापस दिल्ली जा रहे थे तब रस्ते में एक बड़ के पेड के नीचे विश्राम के लिए रुके।

 तभी एक चील अपने पंजे मे सर्प को दबाकर उडी जा रही थी , और वह उस वृक्ष पर बैठ गयी , जिसके नीचे राजा-रानी विश्राम कर रहे थे। राजा कारक ने सर्प को चील के पंजे से छुडाने के लिए तीर निकाल लिया ,तभी सावलदे ने उनहे सर्पो से उनके वंश वैर की बात कही और उन्हें धोखे होना का आभास कराया। 

लेकिन राजा क्षात्र धर्म मे बांधे थे, एक न सुनी और तीर चला दिया, चील सर्प को छोड़ उड गई, सर्प खोकर में छिप गया। रानी के द्वारा राजा को धोखे से सावधान करने पर भी राजा न माने और तीर लेने वृक्ष पर चढे, तभी सर्प ने राजा को डस लिया, जिससे राजा प्राण त्याग देते है, रानी राजा की लाश लेकर दिल्ली पहुची, जहां उसे सास के ताने सुन्ने पडे तथा उसे मनहूस कहकर महल में नही आने दिया गया। 

रानी डोले मे लाश लेकर वापस उसी वृक्ष के नीचे आ गई और विलाप करने लगी। सावलदे बहुत तपस्वी थी उसके तप के प्रभाव से वहा नारद मुनी प्रगट हुए और 12 साल वृक्ष के नीचे लाश को घास के पालने मे रखकर तप करने को कहा, 12 साल बाद वहा देवताओं के वैद्य धनातर के आने की बात कहते है। नारद मुनी के आशीर्वाद से राजा कारक की देह सुरक्षित रहती है। 

12 साल सावलदे उस बड़ के वृक्ष के नीचे तप करती है और जब वैद्य धानातर घूमते हुए वहा आते है और उसके तप का कारण और उसका परिचय पुछते है तब वह बताती है की वह मनहारखेडा के राजा केसर सिंह की पुत्री है और अपने दुख का कारण् बताती है और नारद जी के वचन के बारे मे बताती है। तब वैद्य से प्रार्थना करने पर वैद्य राजा कारक को पुन: जीवित कर देते है। 

राजा को जब होश आया तो लगा जैसे गहरी नींद मे थे और रानी की दशा देखकर बहुत दुखी हुए तथा उन्होनें दिल्ली जाने से मना कर दिया, लेकिन सावलदे की प्रार्थना पर वो दोनो दिल्ली लौट गए, ज़िससे दिल्ली में खुशी की लेहर दोड़ गई और राजा कारक और रानी का नाम और किस्सा हमेशा के लिए अमर हो गया।
जय हो क्षत्रिय पुंडीर वंश की पुत्री महातपस्वीनी रानी सावलदे की।🙏🏻

सोमवार, 10 जनवरी 2022

महाराजा विक्रमादित्य परमार

महाराज विक्रमादित्य परमार के बारे में देश को लगभग शून्य बराबर ज्ञान है…



जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था, और स्वर्णिम काल लाया था । इन्ही के नाम से विक्रमी संवत चलता है।
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उज्जैन के राजा थे गन्धर्वसैन परमार, जिनके तीन संताने थी , सबसे बड़ी लड़की थी मैनावती , उससे छोटा लड़का भृतहरि और सबसे छोटा वीर विक्रमादित्य...बहन मैनावती की शादी धारानगरी के राजा पदमसैन के साथ कर दी , जिनके एक लड़का हुआ गोपीचन्द , आगे चलकर गोपीचन्द ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , फिर मैनावती ने भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा ले ली।
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आज ये देश और यहाँ की संस्कृति केवल विक्रमदित्य के कारण अस्तित्व में है…
अशोक मौर्य ने बोद्ध धर्म अपना लिया था और बोद्ध बनकर 25 साल राज किया था,
भारत में तब सनातन धर्म लगभग समाप्ति पर आ गया था, देश में बौद्ध और जैन हो गए थे।
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रामायण, और महाभारत जैसे ग्रन्थ खो गए थे, महाराज विक्रम ने ही पुनः उनकी खोज करवा कर स्थापित किया
विष्णु और शिव जी के मंदिर बनवाये और सनातन धर्म को बचाया।

विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् लिखा, जिसमे भारत का इतिहास है…
अन्यथा भारत का इतिहास क्या मित्रो हम भगवान् कृष्ण और राम को ही खो चुके थे।

हमारे ग्रन्थ ही भारत में खोने के कगार पर आ गए थे,
उस समय उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे और आज उन्ही के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है।
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महाराज विक्रमदित्य ने केवल धर्म ही नही बचाया
उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है
विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे।

भारत में इतना सोना आ गया था की, विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे , आप गूगल इमेज कर विक्रमदित्य के सोने के सिक्के देख सकते हैं।
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विक्रम संवत कैलंडर भी विक्रमदित्य का स्थापित किया हुआ है।

रविवार, 9 जनवरी 2022

हीरा दे : एक वज्रहृदया क्षत्राणी!

संवत 1368, वैशाख का निदाघ पत्थर पिघला रहा था। तभी द्वार पर दस्तक सुनी और हीरा-दे ने दरवाजा खोला। स्वेद में नहाया उसका पति विका दहिया एक पोटली उठाये खड़ा था। उसका काँपता शरीर और लड़खड़ाता स्वर, चोर या तो नैण से पकड़ा जाता है या फिर वैण से। तिस पर हीरा-दे तो क्षत्राणी थी; वह पसीने की गंध से अनुमान लगा सकती थी कि यह पसीना रणक्षेत्र में खपे पराक्रमी का है या भागे हुए गद्दार का। 


" मैंने जालोर का सौदा कर दिया " - विका ने हीरा-दे की लाल होती आँखें देखकर सच बक दिया। इतना पर्याप्त था। शेष बातें तो वह जानती थी। वह जानती थी कि किले के निर्माण में रही खामी को केवल उसका भरतार जानता है। आज उसका पति चंद स्वर्ण-मुद्राओं के बदले सोनगरा चौहानों की मान-मर्यादा और प्राण संकट में डाल आया। अलाउद्दीन कितना बर्बर है, वह जानती थी।

 एकाएक उसकी आँखों के सामने जालोर दुर्ग के दृश्य तैरने लगे। एक तरफ़ कान्हड़देव और कुंवर भतीज
वीरमदेव म्लेच्छ सेना के भीड़ रहे हैं तो दूजी तरफ़ क्षत्रिय स्त्रियों ने जोहर की तैयारी कर ली है। तलवारों की टँकारों से व्योम प्रकम्पित और धरा रक्त से लाल। हीरा-दे ने झटपट आँखें खोल स्वयं को दुःस्वप्न से बाहर लाया। 

उसके पास इतना समय नहीं था कि वह लाभ-हानि का गणित लगाती। माँ चामुंडा का स्मरण किया और कुछ पग आगे बढ़ाते हुए म्यान देखी। वह कटार दुर्भाग्यशालिनी जो शत्रु की छाती को छोड़ म्यान में सोती हो। क्षत्रिय के लिए कटार केवल शस्त्र नहीं, धर्म स्थापना की साधना में पवित्र आयुध है। 

" यह तलवार आज यहाँ है; इसलिए हजारों-लाखों क्षत्राणियों के सुहाग उजड़े हैं, कई नवजात आंखें खोलने से पहले अनाथ हुए हैं। आज इसका ऋण चुकाने की बारी मेरी है। " - आंखों में रक्त भरते हुए हीरा-दे ललकार पड़ी। 

हीरा दे ने म्यान से तलवार क्या खींची; धरा आशीष देने लगी, स्वर्गस्थ पूर्वजों ने दोनों हाथ उठाकर अपनी बेटी को आशीष दिया। अपने भीतर का सम्पूर्ण सामर्थ्य एकत्र कर वह अपने प्राणनाथ के सामने थी। 

" हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ " हे विधाता! कैसा समय दिखाया कि आज इस चंडाल का मुँह देखना पड़ रहा है। लेकिन नहीं, अब नहीं -- 

" जो चंद कौड़ियों में बिक जाये वो एक क्षत्राणी का पति नहीं हो सकता। गद्दार पिता पति या पुत्र नहीं होता, गद्दार सिर्फ गद्दार होता है। " - यह कहते हुए उस पाषाण हृदया क्षत्राणी ने एक हाथ से अपनी सिंदूर रेख मिटायी और दूसरे हाथ से वह कटार निज पति की छाती में उतारकर इतिहास में एक नई रेख खींच दी। 

सोना-चांदी के प्रलोभन में नहीं झुकती क्षत्राणी, यह उसके लिए मैल से बढ़कर कुछ नहीं। वह इतिहास में अमर होने की इच्छा नहीं पालती, वह तो स्वयं इतिहास को अपनी काँख में दबाकर चलती है। क्षत्राणी विलाप नहीं करती, वह ललकारती है। क्षत्राणी सब क्षमा कर सकती है किंतु कायर और गद्दार पति नहीं। 

राज्य के प्रति ऐसी अनन्य निष्ठा कि अपनी पति तक को मौत के घाट उतार दिया, विश्व इतिहास में ऐसा उदाहरण विरल है। 

कायर पति के सीने में खंजर उतार देती, आग में कूद पड़ती, 
घोड़े पर बैठकर रण में तलवार चलाती, पति और पुत्र के भाल 
पर तिलक कर समर में भेज देती - क्षत्राणी सब नहीं होती!
डेढ़ सेर कलेजा चाहिए।

शनिवार, 8 जनवरी 2022

कौन है असली यदुवंशी…!?

हमारे बहुत से मित्र कहेंगे की द्वारिका तो पूरी नष्ठ हो गयी थी, अब कहाँ यदुवंशी बचे है। उन मित्रो को यही कहना है, की टीवी सीरियल छोड़कर मूल महाभारत पढ़े, द्वारिका में विनाश अवश्य हुआ था, लेकिन फिर भी श्रीकृष्ण ने कुछ हजार लोगों को तीर्थ के बहाने राज्य से निकाला था, अर्जुन ने भी काफी लोगो को बचाया ....तो यदुवंश खत्म नही हुआ था .....


यदुवंश भारत का एक महान वंश है , भगवान श्री कृष्ण का जन्म इसी वंश में हुआ था । वर्तमान में राजपूत जाति के अंतर्गत आने वाले जादौन, भाटी, जडेजा, चूड़ासामा यदुवंशी आदि है ।। 

इतिहास के ज्ञान के अभाव में हम जिन्हें यदुवंशी मानते है, इतिहास की पुस्तकों में उन्हें आभीर कहा गया है । कुछ इतिहासकारो ने तो यहां तक माना है, आभीर एक विदेशी जाति थी, शको का अनुसरण करते हुए यह भारत मे प्रविष्ट हुई, हिरात और कंधार के बीच "अबिरवन " नामक स्थान इनकी भूमि थी, बाद में पश्चिमी और मध्यभारत तक आभीरों की बस्तियां बनी, इतिहास के अधिकतम ग्रन्थों में आभीरों का वर्णन शुद्र के रूप में मिलता है ।

विदेशी शको के शासनकाल के समय आभीरों की स्तिथि बहुत सुदृढ थी , क्यो की शक राजा आभीरों को उच्च पदों पर बिठाते थे। उतरी काठियावाड़ में गुंडा नामक स्थान से १८१ ईस्वी का एक शिलालेख मिला है, इसमें महाक्षत्रप रुद्रसिंह प्रथम के शासनकाल में सेनापति बापक के पुत्र आभीर सेनानी रुद्रभूति द्वारा एक जलाशय खुदवाने का उल्लेख है । इससे यह स्पष्ठ है, की शको के शासनकाल में आभीरों को उच्च पद प्राप्त था ।। इसके उलट विदेशी शको और राजपूतो के बीच संबध सांप और नेवले वाला था । 

पूरे इतिहास में केवल एक आभीर राजा का उल्लेख मिलता है… मारठि पुत्र ईश्वरसेन ।। इनके नवम वर्ष के शासनकाल का एक शिलालेख मिला है, जिसमे उन्होंने कोई भी राजकीय उपाधि धारण नही की है, जैसा क्षत्रिय राजा करते थे ।

आभीर जाति लगभग 200 सालों तक भारत के छोटे प्रदेश पर शासन करती रही है । इतिहास में कदम्ब वंश का वर्णन आता है, जिन्होंने आभीरों और शको दोनो को पराजित किया, उन्होंने भी आभीर राज्यो को आभीर ही कहा है । यदु वंश से आभीरों का कहीं कोई सम्बंध नही बताया गया है ।

महाभारत में आभीर और क्षत्रिय :-

पूरी महाभारत में कहीं भी भगवान श्रीकृष्ण को आभीर नही कहा गया है। न उनके किसी वंसज को आभीर कहा गया है । 

महाभारत में आभीरों का जो वर्णन है, वह यह है :-

" ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः 
आभीरा मंत्रयामासः समेत्याशुभदर्शना " 
(श्रीमहाभारते-मौसलपर्व सप्तमोध्यायः-श्लोक -४७)

इस श्लोक का अर्थ है, लोभ से उनकी विवेक शक्ति नष्ठ हो गयी, उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की ....

यह श्लोक तब है, जब अर्जुन द्वारिकावासियों को बचाने निकलते है । वहां इनकी मन्त्रणा चलती है

" देखो यह अकेला अर्जुन बूढों, बालको, ओर अनाथ समूह को लिए जा रहा है, अतः इसपर आक्रमण करना चाहिए। 

सिर्फ यही नही, इसी अध्याय में आभीरों का वर्णन म्लेच्छ के रूप में भी आया है :-

प्रेक्षतस्तवेव पार्थस्य वृषणयन्धकवरस्त्रीय
जग्मुरादाय ते मल्लेछा समन्ताजज्नमेय् ।।
(मौसल पर्व-सप्तम अध्याय-श्लोक :-६३)

अर्जुन देखता ही रह गया ,वह म्लेच्छ डाकू सब ओर से वृष्णिवंश और अन्धकवंश कि सुंदर स्त्रियो पर टूट पड़े ।। 

एक ही अध्याय में डाकुओं को आभीर भी कहा गया, म्लेच्छ कहा गया , अगर आभीरों का सम्बंध क्षत्रिय वंश से होता, तो महाभारत में लिखा होता, तो बुद्धि और काल से विवश होकर क्षत्रिय भी म्लेच्छ कर्म करने लगे। क्यो की जब भी क्षत्रियो ने अत्याचार किया है, शास्त्रो में उन्हें "अत्याचारी क्षत्रिय " ही कहा है, डाकू या म्लेच्छ नही । अगर आभीर क्षत्रिय होते, तो उनका भी इसी तरह वर्णण आता ।।

राजपूत ही है असली यादव

रही राजपूतो के यदुवंशी होने की बात, तो इनके पास वंशावली है, शास्त्रो के समस्त बयान इनके पक्ष में है, अहीर जाति प्रमाण पत्र में खुद को यादव लिखेंगे तो उन्हें आरक्षण तक नही मिलेगा ।। गुजरात उच्च न्यायलय ने जड़ेजाओ को गुजरात मे कृष्ण का वंसज माना है, आज भी श्रीकृष्ण की गद्दी करौली मानी जाती है, जैसलमेर में श्रीकृष्ण की छतरी है । 

लेखक की तरफ से विन्रम निवेदन :- यह पोस्ट सत्य तथा प्रमाणों पर आधारित पोस्ट है, इस पोस्ट का उद्देश्य किसी का अपमान करना नही है, अगर किसी को भी इस पोस्ट से तकलीफ हुई है, ।। यह पोस्ट इसलिए लिखनी पड़ी, क्यो की इसी बात को लेकर बार बार राजपूतो को टारगेट किया जाता है, कोई खुद को श्रीकृष्ण का वंशज कहें, पुत्र कहे, इससे किसी को कोई समश्या नही है।।

रविवार, 3 अक्टूबर 2021

अल्लाउद्धिन खिलजी की बेटी दिल्ली की फिरोजा बाई के प्यार और राजपूत वंश गौरव की युद्ध गाथा।


फिरोजा बाई जो दिल्ली की मुस्लिम राजकुमारी थी वह अल्लाउद्धिन खिलजी की लाडली और जिद्दी बेटी थी
वो जालौर के चौहान राजकुमार की वीरगति बाद सती हुई थी वह उस राजपूत राजकुमार से बेइंतहा मुहब्बत करती थी फीरोजा बाई बेहद सुंदर भी थी पर वो मुहब्बत इकतरफा थी क्योंकि उस राजपूत राजकुमार ने उसके विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया और इसी कारण वो युद्ध में वीरगति को प्राप्त होता है। 

हम फिर भी फीरोजा बाई के उस राजपूत राजकुमार के प्रति ऐसे एकतरफा प्यार समर्पण का सम्मान करते हैं।

क्योंकि वह दुनिया की पहली ऐसी मुस्लिम राजकुमारी थी जो एक राजपूत राजकुमार की मृत्यु बाद श्री यमुना जी में उस राजकुमार के कटे सिर साथ जल समाधि ले सती हुई जब उसके पिता अल्लाउद्धिन खिलजी ने अपनी बेटी समक्ष थाली मे सजा वीरमदेव का कटा सिर भेजा तो वो दिल्ली स्थित यमुना जी नदी में उस कटे सिर साथ जल समाधि ले इतिहास में अनूठी प्रेम कथा को अमर कर गई |

पर इस प्रेम एवम युद्ध गाथा के पीछे क्षत्रिय वंश गौरव की एक पारंपरिक कहानी है जो संक्षिप्त में इस प्रकार से है फिरोजा उस रणबांकुरे राजकुमार के सुंदर वीरता पर मुग्ध हो अपनी सुध बुद्ध खो बेठी थी और उसने 'वीरम दे' नाम के उस राजपूत राजकुमार को अपनी तरफ से प्रणय निवेदन भेजा।

पर राजपूत राजकुमार ने अपने क्षत्रिय संस्कारो कारण उस राजकुमारी को खेद जताते हुए सविनय मना कर दिया असमर्थता जता दी कि यह हम लोगों के धर्म एवं रक्त वंश परंपरा के खिलाफ है।

अपने खुद के कुल वंश के दाग लगने साथ अपने ननिहाल के यदुवंशी भाटीयों को भी उस म्लेच्छ युवती संग विवाह करने से लज्जित न होना पड़े ऐसा स्वरचित दोहा कहते हुए कि मामा लाजै भाटियां कुल लाजै चह्वमान जे तै परणू तुर्कसी पश्चिम उगै भान।

उस सुंदर मुस्लिम राजकुमारी से विवाह न कर पाने का कह उसके विवाह प्रस्ताव को एक तरह से ठुकरा दिया
और उसी कारण क्रोध में आ उस हठी राजकुमारी के बाप दिल्ली के सुल्तान उस अल्लाउद्धिन खिलजी ने
जो एक क्रुर और निर्दयी शासक के रुप में कुख्यात था उसने अपनी भारी भरकम फौजी लश्करों साथ जालौर की राजपूत रियासत पर 1311-12 में आक्रमण कर दिया।

अल्लाउद्धिन खिलजी की सेना ने जालौर दुर्ग को घेरते हुए वहीं पड़ाव डाल दिया और कई महीनों के घेरे बाद आखिर थक हारकर सुल्तान अल्लाउद्धिन खिलजी ने उस जालौर राजकुमार के पास एक सुंदर सा मन को लुभाने वाला संधी प्रस्ताव भेजा।

पर अपने वंश की मर्यादा पर दाग न लगे यह विचार कर लड़ने मरने की ठानते हुए उस सोनगरा राजकुमार ने अल्लाउद्धिन खिलजी के उस प्रलोभन को भी ठुकराते हुए युद्ध में अपनी जौहर प्रदर्शित करते हुए लड़ने का निर्णय।

और ऐसे प्रलोभन को ठुकराने वाला वो एक राजपूत ही हो सकता है जिसने सुंदर राजकुमारी और हिंदुस्तान की आधी सल्तनत ठुकरा दी जाहिर है कि सुल्तान के मरने बाद फीरोजा ही एकमात्र बेटी होने के कारण उत्तराधिकारी तो उसका दामाद ही बनता इस प्रकार उसने हिंदुस्तान की सल्तनत ठुकरा दी अपनी वंश परंपरा और क्षत्रिय संस्कारो के लिए जहाँ स्व धर्म को सर्वोपरि मानने की रीत रही है।

उस वीर बांकुरे राजपूत राजकुमार ने विवाह करने पर आधे हिंदुस्तान की सल्तनत देने के अल्लाउद्धिन खिलजी के प्रस्ताव को ठुकराते हुए युद्ध का अनुसरण किया शक्तिशाली दुश्मनों की बड़ी फौज मुकाबले अपनी कम संख्या वाली सेना वीर राजपूत सैनिकों की मदद से बड़ी तादाद में दुश्मन सेना को मारते काटते हुए वह शूरमा आखिर वीरगति को प्राप्त हुआ।

ऐसे वीर वंश से हैं हम राजपूत जिन्होंने धर्म की रक्षा को रियासतों के सुख वैभव से भी सदैव ऊपर माना धर्म और स्वाभिमान की रक्षा सर्वोपरि मानते हुए हम राजपूतों की वीरता साथ हमारे पूर्वजो के त्याग और बलिदान के ऐसे असंख्य उदाहरण है।

जो विश्व में कहीं भी देखने सुनने और पढ़ने को नहीं मिलेंगे इसीलिए कर्नल टॉड ने राजपूतो की बहादुरी पर लिखा कि अगर कोई यह कहे कि मैं मरने से नहीं डरता तो या तो वो झूठ बोल रहा है या फिर वो कोई राजपूत है।

कुछ सिरफिरे इतिहासकारों ने लिखा है कि राजपूत तो लड़ना नहीं वो तो मरना जानते हैं और यह सही भी है कि हम लोगों नें तुर्को माफिक चाल अपनाई होती तो आज संपूर्ण दुनिया में हमारी ही हुकूमत होती।

⚔ जय 👑 राजपूताना।⚔

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

मुगलई दुर्गंध :- अनारकली, सलीम और अकबर का सच!

भारत में इतिहास शोध का विषय कभी रहा ही नही वरन एक विशेष एजेंडे को स्थापित करने के लिए दरबारियों द्वारा कल्पना के आधार पर अनाप शनाप लिखा जाता रहा। 

पाठ्य पुस्तकों और फिल्मों के माध्यम से असत्य और भ्रामक बातों का प्रचार- प्रसार करने में कोई कमी नहीं की गयी।झूठ बोलने/लिखने वालों को महान लेखकों की पदवी दी गयी। पद, प्रतिष्ठाऔर पुरस्कार दिए गये ताकि वैसा लिखने समझने की एक परम्परा बन सके। 

गुलामों ने गुलाम वंश को जीवित रखने का भरपूर प्रयास किया पर वे भूल गये कि यह देश सत्य और धर्म की परम्परा मानने वालों का देश है। 

धीरे धीरे असत्य के बादलों का विलोपन होना शुरू हुआ।जब सत्य का सूरज चमका तो सारी गंदगी और कूड़ा अनावृत हो गया। ऐसी ही एक गंदी और असत्य कहानी सामने आयी जिसे इतिहास में सलीम अनारकली की प्रेम कहानी के नाम से ग्लोरीफाई किया गया।

एक काल्पनिक बात को इतिहास के नाम से प्रचारित किया गया, अकबर को न्याय के लिए बेटे का बलिदान देते हुए बताया गया और सलीम को मोहब्बत के लिए हिन्दुस्तान का ताज ठुकराते हुए दिखाया गया। पर क्या आप जानते हैं कि असलियत क्या है।असलियत में इस प्रकरण में मुगलई दुर्गंध भरी पड़ी है। 

अनारकली का नाम नादिरा बेगम हुआ करता था. ईरान से एक विवश ,अति सुंदर नारी को खरीद कर व्यापारी उसे अकबर के दरबार में ले आये, उन्हें पता था कि अकबर औरतों की खरीद का अच्छा दाम देता है। 

जब उसे अकबर बादशाह के दरबार में पेश किया गया तो अकबर उसके लिए मचल उठा। अकबर ने उसके चटख रंग व खूबसूरती को देख कर अनारकली नाम देकर अपने हरम में भेज दिया ।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी जी ने इस सच्चाई को अपनी पु‌स्तक दास्तान- मुगल महिलाओं की के पेज नं. 141 से 148 तक में लिखा है।  

प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी के अनुसार ,सलीम अपनी सौतेली मां और अकबर की पत्नी व अपने सबसे छोटे भाई दानियाल की मां 'अनारकली' के साथ जिस्मानी सम्बन्ध रखता था। 

इस बात से मुगल 'हरम' में सभी लोग वाकिफ थे। जी हां, अनारकली सलीम की प्रेमिका नहीं बल्कि रिश्ते में मां लगती थी जिससे सलीम शारीरिक सम्बन्ध बनाया करता था। 

हेरम्ब चतुर्वेदी अपनी पुस्तक में कहते हैं कि इस बात का खुलासा कई अंग्रेज यात्रियों ने अपनी पुस्तकों में किया है। उन्हीं में से एक यात्री विलियम फिंच ने 1611 में हिंदुस्तान का भ्रमण करते हुए अनारकली और सलीम के संबंधों को नाजायज़ बताया।

पर्चास हिज पिल्ग्रिम्स नामक पुस्तक में सैमुअल पर्चास ने लिखा कि सलीम और अनारकली के बीच में मां-बेटे का संबंध होते हुए भी अवैध शारिरिक संबंध थे। जब अनारकली-सलीम के बारे में अकबर को पता चला तो उन्होने अनारकली को सलीम से दूर रहने की चेतावनी दी। 

वहीं फिन्च के अनुसार, एक बार अकबर ने अपनी पत्नी नादिरा बेगम उर्फ अनारकली को पर्दे के पीछे से सलीम के साथ मुस्कुराता हुआ देख लिया था, तब उसे यकीन हो गया इस मामले में अनारकली की भी सहमति है, तो अकबर ने लाहौर के अपने महल की दीवार में नादिरा बेगम यानि अनारकली को चुनवा देने का आदेश दे डाला, पर कुछ कारणों से उसे अपना आदेश वापस लेना पड़ा।

उसकी मृत्यु के बाद जहांगीर जब बादशाह बना तो लाहौर में ही अनारकली का मकबरा बनवा दिया। इसी के बगल में अनारकली के बेटे दानियाल का भी मकबरा है।

फिंच के पांच साल बाद पादरी एडवर्ड टेरी ने भी अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अकबर अपनी प्रिय पत्नी ईरान से आई नादिरा उर्फ़ अनारकली से अवैध संबंधों के कारण सलीम को उत्तराधिकार से वंचित करना चाहता था, पर दानियाल के मरने के बाद उसे अपना निर्णय बदलना पड़ा। 

द लास्ट स्प्रिंग द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ़ ग्रेट मुगल्स के लेखक अब्राहम एराली ने अनारकली को अकबर की पत्नी बताते हुए दानियाल की माँ बताया है ।  

भारत आने वाले अन्य विदेशी यात्रियों ने भी लगभग यही बातें लिखी हैं और कहा कि अकबर और जहांगीर के बीच कटुता की मुख्य वजह जहांगीर का अपनी सौतेली मां से शारीरिक संबंध बनाना ही था।

कुछ और पुस्तकों पर नजर डालें तो एक महत्वपूर्ण किताब तहकीकात-ई-चिश्तिया का उल्लेख करना जरूरी हो जाता है जिसे नूर अहमद चिश्ती ने 1860 में लिखा था। वह कहता है कि अनारकली अकबर को बहुत प्रिय थी जिससे अकबर की अन्य दो बीवियां जलती थी।अकबर जब दक्कन की लड़ाई में गया तब अनारकली बीमार हो गयी थी। 

तारीख-ई-लाहौर में सैयद अब्दुल लतीफ़ ने भी इसे लिखा था कि अनारकली अकबर के हरम मे रहती थी, जिसमें केवल अकबर की पत्नियाँ या उसकी दासियाँ रह सकती थी। अकबर को सलीम-अनारकली के रिश्ते का शक हो जाता हैं और वो इसलिए अनारकली को जिन्दा दीवार में चुनवा देता है।

दरअसल प्रेम कहानी जैसा कुछ था ही नहीं! यह मुगलों के व्यभिचारिक संबंधों का उद्घाटन है। यह कडवा सत्य है पर कोई फिल्म, कोई कल्पना, कोई कहानी बना कर इस सच को कब तक झुठलाया जा सकता है।

मध्यकालीन भारत कुछ और नही केवल सनातन को ध्वंस करने के प्रयासों पर निर्मित खँडहर के सिवा कुछ नही है।पाखंडियों का भांडा फूट चुका है। फर्जी कहानीकारों, चाटुकारों और भारत द्रोही लोगों का पर्दाफाश होना धीरे धीरे ही सही ,पर आरंभ अवश्य हो गया है।

स्वरूप कंवर जी


पुत्र वियोग से हुई देवलोक, पीहर के दमामी (ढोली) को दिया पहला पर्चा

जैसलमेर जिले के जोगीदास गांव में वि.सं. 1745 को जोगराज सिंह भाटी के यहां एक पुत्री का जन्म हुआ, नाम रखा गया स्वरूप कंवर।

मालाणी की राजधानी जसोल के राव भारमल के पुत्र जेतमाल के उत्तराधिकारी राव कल्याण सिंह के पहली पत्नी के पुत्र नहीं होने पर स्वरूप कंवर के साथ उनका दूसरा विवाह हुआ।

विवाह के दो साल बाद राणी भटियाणीजी ने बालक को जन्म दिया, जिसका नाम लालसिंह रखा गया। इससे प्रथम राणी देवड़ी के रूठी रहने लगी तो स्वरूप कंवर ने उन्हें विश्वास दिलाते हुए कहा कि मां भवानी की पूजा-अर्चना कर व्रत व आस्था रखें, उनकी मुराद जरूर पूरी होगी।

देवड़ी राणी ने स्वरूप कंवर की बातों में विश्वास कर वैसा ही किया, इस पर कुछ समय पश्चात उनके भी पुत्र र| की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि कुछ समय पश्चात एक दासी ने देवड़ी राणी को बहकाया कि छोटी राणी स्वरूपों का पुत्र प्रताप सिंह से बड़ा होने पर वह ही कल्याण सिंह का उत्तराधिकारी बनेगा।

दासी बार-बार उनके पुत्र को राजपाट दिलाने के लिए बहकाने लगी। इस पर देवड़ी राणी अपने पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने के लिए चिंतित रहने लगी।

श्रावण पक्ष की काजली तीज के दिन राणी स्वरूप कंवर ने राणी देवड़ी को झुला झूलने के लिए बाग में चलने को कहा तो उन्होंने बहाना बनाते हुए मना कर दिया, तब राणी स्वरूप अपने पुत्र लालसिंह को राणी देवड़ी के पास छोड़कर झूला झूलने चली गई।

इस अवसर को देखते हुए उसने विश्वासपात्र दासी को जहर मिला दूध लेकर बुलाया, कुछ समय बाद खेलते-खेलते दूध के लिए रोने लगा तो दासी ने जहर मिला दूध लालसिंह को पिला दिया। इससे लालसिंह के प्राण निकल गए।

राणी स्वरूप कंवर जब झूला झुलाकर वापस आई तो अपने पुत्र के न जागने पर व उसे मृत देखकर पुत्र वियोग में व्याकुल हो गई तथा कुछ समय बाद ही उन्होंने भी प्राण त्याग दिए। एक दिन राणी भटियाणीजी के गांव से दो ढोली शंकर व ताजिया रावल कल्याणमल के यहां जसोल पहुंचे।

उन्होंने बाईसा से मिलने का कहा तो राणी देवड़ी ने उन्हें श्मशान में जाकर मिलने की बात कही। इससे दुखी होकर ढोली गांव के श्मशानघाट पर जाकर बाईसा से विनती करने लगे और आप बीती सुनाई।

इस पर प्रसन्न होकर राणी भटियाणीजी ने दोनों को साक्षात दर्शन देकर पर्चा दिया और दमामियों को उपहार स्वरूप नेक भी दी।

इसे लेकर वे वापस रावल के यहां पहुंचे तो एकबारगी सभी अचरज में पड़ गए, लेकिन कुछ ही दिनों में यह बात आस-पास के गांवों में फैल गई।

इस पर रावल कल्याणमल कुछ लोगों के साथ श्मशानघाट पहुंचे तो

वहां पर खड़ी खेजड़ी हरी-भरी नजर आई।
इस पर उसी जगह राणी भटियाणीजी के चबूतरे पर
एक मंदिर बनवा दिया और उनकी विधिवत पूजा
करने लगे। मंदिर में गोरक्षक सवाईसिंहजी, लाल
बन्ना, कल्याणसिंह, बायोसा आदि की भी पूजा की जाती है।

स्वरूप कंवर जी को रानी भटियाणी जी, माजीसा,
भुआसा आदि विभिन्न नामों से जाना जाता है..
माजीसा का विख्यात मंदिर बाड़मेर के जसोल गांव
में है जिसे जसोल धाम के नाम से जाना जाता है।