बुधवार, 14 जुलाई 2021

सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश का संक्षिप्त परिचय

सिकरवार' शब्द राजस्थान के 'सिकार' (Sikar) जिले से बना है।
यह जिला सिकरवार राजपूतों ने ही स्थापित किया था।
इसके बाद इन्होने 823 ई में "विजयपुर सीकरी" की स्थापना की, बाद में खानवा के युद्ध में जीतने के बाद 1524 ई में बाबर ने "फतेहपुर सीकरी" नाम रख दिया।
इस शहर का निर्माण चित्तोड के महाराज राणा भत्रपति के शाशनकाल में 'खान्वजी सिकरवार' के द्वारा हुआ था।

•इतिहास• 

1524 ई में 'राव धाम देव सिंह सिकरवार' ने "खनहुआ के युद्ध" में राणा संगा (संग्राम सिंह) की बाबर के विरुद्ध मदद की,बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये।

• राव जयराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र क्रमशः थे…
1 - काम देव सिंह सिकरवार(दलपति)
2 - धाम देव सिंह सिकरवार (राणा संगा के मित्र)
3 - विराम सिंह सिकरवार

• काम देव सिंह सिकरवार जो दलखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने मध्यप्रदेश के जिला मुरैना में जाकर अपना वंश चलया।

• कामदेव सिकरवार (दलकू) सिकरवार की वंशावली •

चंबल घाटी के सिकरवार राव दलपत सिंह यानि दलखू बाबा के वंशज कहलाते हैं ...

दलखू बाबा के गॉंव इस प्रकार हैं -

सिरसैनी – स्थापना विक्रम संवत 1404
भैंसरोली – स्थापना विक्रम संवत 1465
पहाड़गढ़ – स्थापना विक्रम संवत 1503
सिहौरी - स्थापना बिवक्रम संवत 1606

इनके परगना जौरा में कुल 70 गॉंव थे , दलखू बाबा की पहली पत्नी के पुत्र रतनपाल के ग्राम बर्रेंड़ , पहाड़गढ़, चिन्नौनी, हुसैनपुर, कोल्हेरा, वालेरा, सिकरौदा, पनिहारी आदि 29 गॉंव रहे।

भैरोंदास त्रिलोकदास के सिहोरी, भैंसरोली, "खांडोली" आदि 11 गॉंव रहे।

हैबंत रूपसेन के तोर, तिलावली, पंचमपुरा बागचीनी , देवगढ़ आदि 22 गॉंव रहे।

दलखू बाबा की दूसरी पत्नी की संतानें – गोरे, भागचंद, बादल, पोहपचंद खानचंद के वंशज कोटड़ा तथा मिलौआ परगना ये सब परगना जौरा के ग्रामों में आबाद हैं , गोरे और बादल मशहूर लड़ाके रहे हैं।

राव दलपत सिंह (दलखू बाबा) के वंशजों की जागीरें – 

1. कोल्हेरा 2. बाल्हेरा 3. हुसैनपुर 4. चिन्नौनी (चिलौनी) 5. पनिहारी 6. सिकरौदा आदि रहीं।

मुरैना जिला में सिहौरी से बर्रेंड़ तक सिकरवार राजपूतों की आबादी है, आखरी गढ़ी सिहोरी की विजय सिकरवारों ने विक्रम संवत 1606 में की उसके बाद मुंगावली और आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया , इनके आखेट और युद्ध में वीरता के अनेकों वृतांत मिलते हैं।

दूसरा व्रतांत

वर्ष 1527 ई में राजपूत एवं बाबर के बीच हुए खानवा के युद्व में राजपूतों की हार हुई। युद्व में फतेहपुर-सिकरी के राजा धाम देव अपना सब कुछ गवाँ दिया । उनको कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। 

वह अपनी कुलदेवी माँ कामाँख्या देवी को याद करने लगे। माँ कामाँख्या ने उन्हे स्वप्न में आदेशित किया कि तुम काशी की तरफ प्रस्थान करो और विश्वामित्र एंव जमदिग्न में तपोभूमि में निवास करो। उनके आदेश से राजा धाम देव काशी की तरफ प्रस्थान कर दिये। 

उनके साथ उनके परिवार के सदस्य, पुरोहित सेवक इत्यादि साथ थे। वह सबके साथ आगे बढ़ते गये उस समय यहाँ चेरू-राजा शशांक का अधिपत्य था, वे काफी क्रूर थे। राजा धाम देव ने उनके साथ युद्व कर उन्हें पराजित कर दिया तथा इस स्थान पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। 

सकराडीह के पास गंगा के पावन तट पर माँ कामाँख्‍या मंदिर की स्थापना कर निवास करने लगे। उस समय गंगा का बहाव माँ के धाम के पास था। अब गंगा की धारा अब मंदिर से दूर हो गयी है। संकरागढ़ को जीत कर राजा घाम देव ने इसे अपना निवास बनाया तो पुरोहितो एवं विद्वानो ने राजा घाम देव के नाम के शादिब्क अर्थ पर इस जगह का नामकरण गृहामर किया। इस प्रकार गृहामर की स्थापना हुई। मगर भाषा विकार के कारण गृहामर का नाम गहमर हुआ।

प्राचीन काल में गहमर का नाम गृहामर एवं गहवन होने का भी उल्लेख होता है। गाजीपुर गजेटियर में भी गृहामर का ही जिक्र है। कुछ लोगो का मानना है कि अंग्रेजो के भारत आगमन के बाद भाषा विकार के तहत गृहामर का नाम गहमर हो गया। गहमर के स्थापना के विषय में कुछ लोग का मानना है कि ''राजा घाम देव अपने साथीयों के साथ आगें बढ़ते चले जा रहे थे।

पर इस जगह पर काफी धना जंगल था यहाँ जब घाम देव पहुचे तो देखा कि यहाँ बिल्ली को चुहो से भगाते देखा तो उनको लगा इस जगह पर कोई दैव्य शक्ति का चमत्कार है। उन्होनें अपना डेरा यही डाल दिया और इस प्रकार गहमर की स्थापना हुई ''। इतिहास से यह बात प्रमाणित नहीं होती है कहा जाता है 1530 के पहले ही यह क्षेत्र काफी विकसित हो चुका था जिससे तथा चेरू राजा का साम्राज्य था। इस लिये जंगल होने का प्रश्न ही नहीं होता है।

-सिकरवार राजपूत और चैरासी :-

राजा धाम देव सिकरी के राजा थे और वहाँ से आकर ही गृहामर या गहमर की स्थापना किये थे। इस लिये यहाँ के रहने वाले क्षत्रिय वंश के लोग सिकरवार राजपूत कहलाने लगे। सकराडीह - वर्तमान समय में माँ कामाँख्या मंदिर के पास वन विभाग है। 

वही स्थान सकराडीह के नाम से जाना जाता है। इस स्थान के पास गंगा का बहाव था। बाढ़़ के समय चारो ओर पानी आ जाता था। यह छोटा टीला ही सुरक्षित बचता था। काफी सकरा स्थान लोगो के सुरक्षित रहने के लिये था । इस लिये इस स्थान का नाम सकराड़ीह पड़ा।

इसी टीले के नाम से यहाँ के राजपूत सिकरवार कहलाने लगें। सिकरवार वंश के लोग अहिनौरा, हथौरी, देवल, डरवन, महुआरी, विश्रामपुर, भँवतपुरा, बगाढ़ी, मुसिया, पुरबोतिमपरु, तरैथा, सूर्यपुरा, जुझारपुर, कर्मछाता, कन्हुआ, बड़ा सीझूआ, छोटा सीझूआ, चपरागढ़, नईकोट, पुरानी कोट, गोड़सरा ,गोडि़यारी, सागरपर, तुर्कवलिया, पुरैनी, सिमवार, भैरवा, सेवराई, अमौरा, पढियारी, लहना, खुदुरा, समहुता, खरहना, बकइनिया, करहिया सहित 36 गाँवो में फैल गये। जो चैरासी के नाम से जाने जाते है।

सिकरवार क्षत्रिय राजपूत वंश

शनिवार, 10 जुलाई 2021

गौरवशाली इतिहास के कुछ स्वर्णाक्षर (रोहिला क्षत्रिय)

1. भारत वर्ष का क्षेत्रफल 42,02,500 वर्ग किमी था।

2. रोहिला साम्राज्य 25 ,000  वर्ग किमी 10,000  वर्गमील में फैला हुआ था।

3. रोहिला, राजपूतो का एक गोत्र, कबीला (परिवार) या परिजन-समूह है जो कठेहर-रोहिलखण्ड के शासक एंव संस्थापक थे मध्यकालीन भारत में बहुत से राजपूत लडाको को रोहिला की उपाधि से विभूषित किया गया उनके वंशज आज भी रोहिला परिवारों में पाए जाते हैं।

4. रोहिले-राजपूत प्राचीन काल से ही सीमा - प्रांत, मध्य देश (गंगा- यमुना का दोआब), पंजाब, काश्मीर, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश में शासन करते रहे हैं जबकि मुस्लिम-रोहिला साम्राज्य अठारहवी शताब्दी में इस्लामिक दबाव के पश्चात् स्थापित हुआ मुसलमानों ने इसे उर्दू में "रूहेलखण्ड" कहा।

5. 1702 से 1720 ई तक रोहिलखण्ड में रोहिले राजपूतो का शासन था जिसकी राजधानी बरेली थी।

6. रोहिले राजपूतो के महान शासक "राजा इन्द्रगिरी" ने रोहिलखण्ड की पश्चिमी सीमा पर सहारनपुर में एक किला बनवाया जिसे "प्राचीन रोहिला किला" कहा जाता है सन 1801 ई में रोहिलखण्ड को अंग्रेजो ने अपने अधिकार में ले लिया था, हिन्दू रोहिले-राजपुत्रो द्वारा बनवाए गये इस प्राचीन रोहिला किला को 1806 से 1857 के मध्य कारागार में परिवर्तित कर दिया गया था इसी प्राचीन-रोहिला-किला में आज सहारनपुर की जिला-कारागार है।

7. "सहारन" राजपूतो का एक गोत्र है जो रोहिले राजपूतो में पाया जाता है यह सूर्य वंश की एक प्रशाखा है जो राजा भरत के पुत्र तक्षक के वंशधरो से प्रचालित हुई थी।

8.फिरोज तुगलक के आक्रमण के समय "थानेसर" (वर्तमान में हरियाणा में स्थित) का राजा "सहारन" ही  था।

9. दिल्ली में गुलाम वंश के समय रोहिलखण्ड की राजधानी "रामपुर" में राजा रणवीर सिंह कठेहरिया (काठी कोम, निकुम्भ वंश, सूर्यवंश रावी नदी के काठे से विस्थापित कठगणों के वंशधर) का शासन था इसी रोहिले राजा रणवीर सिंह ने तुगलक के सेनापति नसीरुद्दीन चंगेज को हराया था 'खंड' क्षत्रिय राजाओं से सम्बंधित है, जैसे भरतखंड, बुंदेलखंड, विन्धयेलखंड  , रोहिलखंड, कुमायुखंड, उत्तराखंड आदि।

10. प्राचीन भारत  की केवल दो भाषाएँ संस्कृत व प्राकृत (सरलीकृत संस्कृत) थी रोहिल प्राकृत और खंड संस्कृत के शब्द हैं जो क्षत्रिय राजाओं के प्रमाण हैं इस्लामिक नाम है दोलताबाद, कुतुबाबाद, मुरादाबाद, जलालाबाद, हैदराबाद, मुबारकबाद, फैजाबाद, आदि 

11. रोहिले राजपूतो की उपस्तिथि के प्रमाण हैं योधेय गणराज्य के सिक्के, गुजरात का (1445 वि) ' का शिलालेख (रोहिला मालदेव के सम्बन्ध में), मध्यप्रदेश में स्थित रोहिलखंड रामपुर में राजा रणवीर सिंह के किले के खंडहर, रानी तारादेवी सती का मंदिर, पीलीभीत में राठौर रोहिलो (महिचा-प्रशाखा) की सतियों के सतियों के मंदिर, सहारनपुर का प्राचीन रोहिला किला, मंडोर का शिलालेख, " बड़ौत  में स्तिथ " राजा रणवीर सिंह रोहिला मार्ग "

नगरे नगरे ग्रामै ग्रामै विलसन्तु संस्कृतवाणी…
सदने-सदने जन-जन बदने,जयतु चिरं कल्याणी।

12. जोधपुर का शिलालेख, प्रतिहार शासक हरीशचंद्र को मिली रोहिल्लाद्व्यंक की उपाधि, कई अन्य।

13. राजपूतो के वंशो को प्राप्त उपाधियाँ, 'पृथ्वीराज रासो', आल्हाखण्ड-काव्यव, सभी राजपूत वंशो में पाए जाने वाले प्रमुख गोत्र।

14. अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा भारत द्वारा प्रकाशित पावन ग्रन्थ क्षत्रिय वंशाणर्व (रोहिले क्षत्रियों का राज्य रोहिलखण्ड  का पूर्व नाम पांचाल व मध्यप्रदेश)

15. वर्तमान में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा से अखिल भारतीय रो. क्ष. वि. परिषद को संबद्धता प्राप्त होना, वर्तमान में भी रोहिलखण्ड (संस्कृत भाषा में)

16. क्षेत्र का नाम यथावत बने रहना, अंग्रेजो द्वारा भी उत्तर रेलवे को "रोहिलखण्ड-रेलवे" का नाम देना जो बरेली से देहरादून तक सहारनपुर होते हुए जाती थी।

17. वर्तमान में लाखो की संख्या में पाए जाने वाले रोहिला-राजपूत, रोहिले-राजपूतों के सम्पूर्ण भारत में फैले हुए कई अन्य संगठन अखिल भारतीय स्तर पर 'राजपूत रत्न' रोहिला शिरोमणि डा. कर्णवीर सिंह द्वारा संगठित एक अखिल भारतीय रोहिला क्षत्रिय विकास परिषद (सम्बद्ध अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा) पंजीकरण संख्या - 545, आदि।

18. पानीपत की तीसरी लड़ाई (रोहिला वार) में रोहिले राजपूत - राजा गंगासहाय राठौर (महेचा) के नेतृत्व में मराठों की ओर से अफगान आक्रान्ता अहमदशाह अब्दाली व रोहिला पठान नजीबदौला के विरुद्ध लड़े व वीरगति पाई इस मराठा युद्ध में लगभग एक हजार चार सौ रोहिले राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए (1761-1774 ई) (इतिहास-रोहिला-राजपूत)

19. प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में भी रोहिले राजपूतों ने अपना योगदान दिया, ग्वालियर के किले में रानी लक्ष्मीबाई को हजारों की संख्या में रोहिले राजपूत मिले, इस महायज्ञ में स्त्री पुरुष सभी ने अपने गहने धन आदि एकत्र कर झाँसी की रानी के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए सम्राट बहादुरशाह-जफर तक पहुँचाए अंग्रेजों ने ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें काट डाला जिससे रोहिले राजपूतों ने अज्ञातवास की शरण ली।

20. राजपूतों की हार के प्रमुख कारण थे हाथियों का प्रयोग, सामंत प्रणाली व आपसी मतभेद, ऊँचे व भागीदार कुल का भेदभाव (छोटे व बड़े की भावना) आदि।

21. सम्वत 825 में बप्पा रावल चित्तौड़ से विधर्मियों को खदेड़ता हुआ ईरान तक गया बप्पा रावल से समर सिंह तक 400 वर्ष होते हैं, गह्लौतों का ही  शासन रहा इनकी 24 शाखाएँ हैं जिनके 16 गोत्र (बप्पा रावल के वंशधर) रोहिले राजपूतों में पाए जाते हैं।

22. चितौड़ के राणा समर सिंह (1193 ई) की रानी पटना की राजकुमारी थी इसने 9 राजा, 1 रावत और कुछ रोहिले साथ लेकर मौ. गोरी के गुलाम कुतुबद्दीन का आक्रमण रोका और उसे ऐसी पराजय दी कि कभी उसने चितौड़ की ओर नही देखा।

23. रोहिला शब्द क्षेत्रजनित, गुणजनित व 'मूल पुरुष' नाम - जनित है यह गोत्र जाटों में भी रूहेला, रोहेला, रूलिया, रूहेल, रूहिल, रूहिलान नामों से पाया जाता है।

24. रूहेला गोत्र जाटों में राजस्थान व उ. प्र. में पाया जाता है रोहेला गोत्र के जाट जयपुर में बजरंग बिहार और ईनकम टैक्स कालोनी टौंक रोड में विद्यमान है।

झुनझुन, सीकर, चुरू, अलवर, बाडमेर में भी रोहिला गोत्र के जाट विद्यमान हैं, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रोहेला गोत्र के जाटों के बारह गाँव हैं महाराष्ट्र में रूहिलान गोत्र के जाट वर्धा में केसर व खेड़ा गाँव में विद्यमान हैं। 

25. मुगल सम्राट अकबर ने भी राजपूत राजाओं को विजय प्राप्त करने के पश्चात् रोहिला-उपाधि से विभूषित किया था, जैसे राव, रावत, महारावल, राणा, महाराणा, रोहिल्ला, रहकवाल आदि।

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26."रोहिला-राजपूत" समाज, क्षत्रियों का वह परिवार है जो सरल ह्रदयी, परिश्रमी, राष्ट्रप्रेमी, स्वधर्मपरायण, स्वाभिमानी व वर्तमान में अधिकांश अज्ञातवास के कारण साधनविहीन है। 40 प्रतिशत कृषि कार्य से, 30 प्रतिशत श्रम के सहारे व 30 प्रतिशत व्यापार व लघु उद्योगों के सहारे जीवन यापन कर रहे हैं।

इनके पूर्वजो ने हजारों वर्षों तक अपनी आन, मान, मर्यादा की रक्षा के लिए बलिदान दिए हैं और अनेको आक्रान्ताओं को रोके रखने में अपना सर्वस्व मिटाया है।

गणराज्य व लोकतंत्रात्मक व्यवस्था को सजीव बनाये रखने की भावना के कारण वंश परंपरा के विरुद्ध रहे, करद राज्यों में भी स्वतंत्रता बनाये रखी कठेहर रोहिलखण्ड की स्थापना से लेकर सल्तनत काल की उथल पुथल, मार काट, दमन चक्र तक लगभग आठ सौ वर्ष के शासन काल के पश्चात् 1857 के ग़दर के समय तक रोहिले राजपूतों ने राष्ट्रहित में बलिदान दिये हैं।

क्रूर काल के झंझावालों से संघर्ष करते हुए क्षत्रियों का यह 'रोहिला परिवार' बिखर गया है, इस समाज की पहचान के लिए भी आज स्पष्टीकरण देना पड़ता है।

कैसा दुर्भाग्य है यह क्षत्रिय वर्ग का जो अपनी पहचान को भी टटोलना पड़ रहा है, परन्तु समय के चक्र में सब कुछ सुरक्षित है, इतिहास के दर्पण में थिरकते चित्र, बोलते हैं, अतीत झाँकता है, सच सोचता है कि उसके होने के प्रमाण धुंधले-धुंधले से क्यों हैं हे- क्षत्रिय तुम धन्य हो, पहचानो अपने प्रतिबिम्बों को' -

"क्षत्रिय एकता का बिगुल फूँक…
  सब धुंधला धुंधला छंटने दो…

  हो अखंड भारत के राजपुत्र…
  खण्ड खण्ड में न सबको बंटने दो।"

🙏🏻जय श्री राम।🙏🏻
🙏🏻जय राजपूताना।🙏🏻

बुधवार, 7 जुलाई 2021

चंदेल शासक विद्याधर का इतिहास

चंदेल शासक गंड के बाद उसका पुत्र विद्याधर ( 1019 - 1029 ईस्वी ) शासक बना वह चंदेल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। 
उसके शासन काल की घटनाओं का उल्लेख हमें तत्कालीन लेखों तथा मुसलमान लेखों के विवरण से मिलता है।


मुसलमान लेखक विद्याधर का नंद तथा विदा नाम से भी उल्लेख करते हैं…

इब्न उल अतहर लिखता है, कि उसके पास सबसे बङी सेना थी तथा उसके देश का नाम खजुराहो था…

विद्याधर के राजा बनते ही महमूद गजनवी के नेतृत्व में तुर्कों के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण तेज हो गये, किन्तु वीर चंदेल शासक विद्याधर तुर्कों से नहीं डरा और तुर्कों का बङी वीरता से सामना किया।

भारत पर तुर्क आक्रमणः महमूद गजनवी

1019 ईस्वी में महमूद ने कन्नौज के प्रतिहार शासक राज्यपाल के ऊपर आक्रमण किया राज्यपाल ने डरकर बिना युद्ध किये ही आत्मसमर्पण कर दिया।

जब विद्याधर को इस घटना का पता चला तो वह अत्यंत क्रुद्ध हुआ तथा उसने राज्यपाल को दंडित करने का निश्चय किया मुस्लिम लेखक इब्न-उल-अतहर बताता है, कि विद्याधर ने कन्नौज पर आक्रमण किया तथा एक दीर्घकालीन युद्ध के बाद वहाँ के राजा राज्यपाल की इस कारण हत्या कर दी थी…

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कि वह मुसलमानों के विरुद्ध भाग खङा हुआ तथा अपना, राज्य उन्हें समर्पित कर दिया था, इस विवरण की पुष्टि अभिलेखों से भी होती है, ग्वालियर के कछवाहा नरेश चंदेलों के सामंत थे इस वंश के विक्रम सिंह के दूबकुंड लेख ( 1088 ईस्वी ) से पता लगता है, कि उसके एक पूर्वज अर्जुन ने विद्याधर की ओर से युद्ध करते हुये कन्नौज के राजा राज्यपाल को मार डाला था।

चंदेल वंश का एक लेख महोबा से भी मिलता है, जिससे भी विद्याधर द्वारा राज्यपाल के मारे जाने की बात पुष्ट होती है, राज्यपाल का वध करने से विद्याधर की ख्याति चारों ओर फैल गयी तथा वह उत्तर भारत का सार्वभौम सम्राट बन गया था, कन्नौज में विद्याधर ने अपनी ओर राज्यपाल के बेटे त्रिलोचनपाल को राजा बनाया तथा उसने विद्याधर की अधीनता स्वीकार की थी।

अन्य हिन्दू राजाओं ने भी विद्याधर का लोहा मान लिया था यह महमूद गजनवी को खुली चुनौती थी, जिसका सामना करने के लिये वह प्रस्तुत हुआ 

चंदेलों पर महमूद गजनवी का पहला आक्रमण 1019 - 20 ईस्वी

1019 - 20 ईस्वी में चंदेलों पर महमूद गजनवी का प्रथम आक्रमण हुआ था, मुस्लिम स्रोतों के अनुसार दोनों के बीच किसी नदी के किनारे भीषण युद्ध हुआ, किन्तु इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकला था, इस युद्ध में विद्याधर ने राजनैतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया तथा रात्रि के अंधकार में युद्ध - स्थल उपयुक्त न होने के कारण अपनी सेना को हटा लिया महमूद गजनवी भी गजनी वापस लौट गया।

महमूद गजनवी का चंदेलों पर दूसरा आक्रमण 1022 ईस्वी

महमूद गजनवी ने 1022 ईस्वी में चंदेल शासक विद्याधर पर दूसरी बार आक्रमण किया था, सबसे पहले उसने ग्वालियर के दुर्ग का घेरा डाला, जो चार दिनों तक चलता रहा अंत में दुर्गपाल ने 35 हाथियों की भेंट कर उससे पीछा छुङवाया। 

उसके बाद उसने कालिंजर के दुर्ग का घेरा डाला शक्ति तथा अभेद्यता में वह दुर्ग संपूर्ण हिन्दुस्तान में बेजोङ था, ऐसा लगता है, कि महमूद दुर्ग को जीत नहीं सका तथा दोनों में संधि हो गयी तथा महमूद गजनवी मजबूर होकर गजनी वापस चला गया। 

इसके बाद उसने चंदेल राज्य पर आक्रमण करने की दुबारा हिम्मत नहीं करी तथा विद्याधर और महमूद गजनवी दोनों के बीच मित्रता के संबंध स्थापित हो गये।

दोनों के बीच यह मित्रता 1029 ईस्वी तक बनी रही, महमूद गजनवी के अलावा चंदेल शासक विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेयदेव को भी पराजित किया था। 

इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि विद्याधर अपने समय का महान शासक था। उसके पितामह धंग ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था, विद्याधर ने अपने वीरतापूर्वक कृत्यों द्वारा उसे गौरवान्वित कर दिया।

🙏🏻 जय श्री राम। 🙏🏻
👑 जय राजपूताना।⚔️

हुतात्मा ठाकुर मोहन सिंह मडाड

ठाकुर मोहन सिंह मडाड का इतिहास साहस और शौर्य की परकाष्ठा है। भारत के इतिहास में जालौर के सोनीगारा चौहान वीरमदेव के बाद क्षत्रियों का शौर्य प्रदर्शित करने वाले इस दुर्लभ वीर पुरुष की जितनी प्रशंशा की जाय वह कम ही होगी…

क्योकि अल्प और सीमित साधन रहते हुए इन्होंने उस बाबर की समुद्र सी लहराती प्रबल सत्ता को चुनौती दी उसके अह्निर्श विजयों से उत्तर भारत थर थर काँप रहा था, इन्होंने उस महाबली बाबर को भी अपनी तलवार का पानी पिला कर छोड़ा उस समय बाबर लाहौर में था और आगरा जाने की तैयारी में था। 


4 मार्च सन् 1530 ईस्वी को बाबर ने लाहौर से आगरा जोन के लिए प्रस्थान किया सरहिंद पहुँचने पर उसे समाना के काजी ने उससे मुलाकात कर बताया की कैथल के मोहन सिंह मडाड ( मंडहिर ) नामक राजपूत ने उसकी इमलाक ( जागीर ) पर हमला करके उसे लूटा पाटा और जलाया और उसके बेटे को मार डाला। 

काजी की बात सुन के आग बबूला हुए बाबर ने फ़ौरन ही तीन हजार घुड़सवारों के साथ अली कुली हमदानी को कैथल परगना में ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गाँव भेजा यादगार अहमद बताता है कि अलसुबह मुग़लों की सेना ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गाँव पहुँचीं उस समय गाँव में बारात आई हुयी थी। 

जाड़े का दिन था और उस दिन ठण्ड भी कुछ ज्यादा ही था, जब मुघल सेना की गाँव की तरफ कूच की खबर सुनी तब वह भी अपने नौजवानों के साथ बाहर निकला और सामने आते ही मडाडों ने तेजी से वाणों की वर्षा करते हुए शाही सेना के पाँव उखाड़ दिए। 

इस भयंकर युद्ध में 1 हजार तुर्क मारे गए शेष भाग कर पास के ही एक जंगल में छिप गए यादगार अहमद को शर्मिंदगी उठाते हुए भी इस घटना का जिक्र करना पड़ा और उसने हार का बहाना बनाते हुए लिखा के जाड़े की दिनों में तुर्की धनुष की तांत अकड़ जाती है इस वजह से तुर्क कायदे से धनुष पर बाण चढ़ा ही नहीं सके। 

जंगल में पहुचने के बाद तुर्कों ने लकड़ियाँ इकट्ठी कर के उसमे आग जलाकर पूरी तरह तापा और आग से धनुष की तांत को ढीला कर फर से योजना बनाकर एक बार फिर मोहन के गाँव की और बढ़ने लगे तुर्कों की इस धृष्टता को देखकर राजपूतों की आँखों में खून उतर आया।

उन्होंने दुगने उत्साह से तुर्कों से मुकाबला किया इस बार भी बहुत सारे शाही सैनिक मारे गए बाकि सैनिको को लेकर अली खान हमदानी भाग चला और सरहिंद पहुँच कर ही साँस ली।

शाही सेना की हार सुनकर बाबर शर्मसार होते हुए ठाकुर मोहन सिंह मडाड के नाश का संकल्प लेते हुए तुरन्त 6000 घुड़सवार सैनिकों के साथ अपने सिपहसालार तरसम बहादुर और नौरंगवेग को भेजा, जो पानीपत दोनों युद्धों में अपनी तलवार और तीर का जौहर दिखा चुके थे।

इन्होंने छोटे मोटे युद्ध तो देखे ही नहीं थे बड़ी बड़ी लड़ाइयों में अपनी योग्यता दिखाने का आनंद आता था। ठाकुर मोहन सिंह मडाड के प्राराक्रम की कहानी अली कुली हमदानी के मुँह से तरसेम बेग ने सुनी थी।

हमदानी संकोच करते हुए बेग को बताता है की अब तक लड़ीं हुईं लड़ाइयों में सिर्फ ठाकुर मोहन सिंह मडाड ने ही उसकी पीठ देखी है सरहिंद से चलते-चलते तरसेम बेग ने सोचा की मोहन सिंह जरूर विशेष किस्म का बहादुर व्यक्ति होगा।

नहीं तो सब ओर गालियाँ न्योछावर करने वाला अली कुली मोहन सिंह के तारीफों के पुल नहीं बाँधता रास्ता तय करते हुए उसने सोच लिया के दुश्मन को सिर्फ बल से नहीं छल से मारना और हराना होगा। 

ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गांव के नजदीक आने पर तरसेम बेग ने अपने सैनिकों को तीन भागों में बाँट दिया हरावल दस्ते को यह हिदायत दी कि वे गाँव के पास जाकर मडाडों को ललकारें जब ललकार सुनकर राजपूत गाँव से बाहर युध्द के लिए आग बबूला होकर निकलें तो हरावल दस्ता भाग चले और भागते जाए…

इसी बीच उसकी राइट विंग गाँव को घेर ले और उसमें आग लगा दे इस विंग की कमांड उसने खुद अपने हाथों में ली और नौरंग बेग के हाथों में 2 हजार घुड़सवारों की सेना रिजर्व रखी,जब मडाड बीच में घिर जाएँ तब उन पर जोरदार हमला करना इस दस्ते का काम था।

यादगार अहमद बताता है के जिस दिन जब शाही सेना ठाकुर मोहन सिंह मडाड के गाँव पहुची संयोगवश उस दिन भी गांव में बारात आई हुई थी, जब शाही सेना का हरावल दस्ता गाँव के नजदीक पहुँचा, तो योजना अनुसार उन्होंने मडाडों को ललकारा तब मडाडों की नस नस में चिंगारी दौड़ पङी और वह तुरन्त तैयार होकर बहार निकले और शाही सेना पर तीरों की बौछार करने लगे।

राजपूतों के आम के साथ ही पूर्व योजनानुसार शाही सेना पश्चिम की ओर भागने लगी और क्षत्रियों ने उनका तेजी से पीछा किया शाही सेना भागती रही और राजपूत सेना उसका पीछा करती रही, इसी बीच तरसेम बेग की टुकड़ी ने राजपूत विहीन गाँव में आग लगा दी, जब राजपूतों ने गाँव से उमड़ता हुआ धुँआ देखा तो वग वापिस लौटे…

उनके पीछे मुड़ते ही भागती हुई सेना लौटने लगी इस प्रकार राजपूतों की सेना शाही सेना के बीच फंस गयी इसी समय नौरंगबेग अपनी सेना के साथ राजपूतों पर टूट पड़ा, चारों और से घिरने के बाद भी राजपूत वीरता और शौर्य से लड़े उधर गाँव धु-धु करता जलता रहा। 

राजपूत शाही सेना के इस छल को नहीं समझ पाए और पूरा साहस और पराक्रम होते हुए भी इन्हें पराजित होना पड़ा इस युद्ध में एक हजार वीर राजपूत शहीद हुए ठाकुर मोहन सिंह अंत तक लड़ते रहे, परन्तु कब तक आखिर उन्हें भी पृथ्वीराज चौहान की तरह कैदी बनना पड़ा। 

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उस दिन हजारों नर नारियों और बच्चों को शाही सेना ने कैद कर लिया और मोहन सिंह के साथ उन कैदियों को दिल्ली ले जाया गया, क्योकि तब तक बाबर सरहिंद से रवाना होकर दिल्ली पहुँच गया था, दिल्ली दरबार में ठाकुर मोहन सिंह मडाड की पेशी हुई और बाबर ने इन्हें सजा ए मौत का फरमान सुनाया…

पर साथ साथ यह भी कहा यदि ठाकुर मोहन सिंह मडाड इस्लाम कबूल लेतें है तो उनकी सजा माफ़ कर दी जायेगी…

ठाकुर साहब चाहते तो मुस्लिम बनकर अपने प्राण बचा सकते थे, परन्तु उस योद्धा को जीवन से प्यारा वह मूल्य था, जो क्षत्रियों के लिए अभिप्रीत था…उनका धर्म…

मोहन सिंह मडाड ने यह साबित कर दिया कि वह एक सच्चे प्रतिहार और रघुवंशी थे, जिनकी रीत में ही प्राणों से पहले वचन और धर्म की रक्षा करना है।

सिजदा से गर वहिश्त मिले दूर कीजिये,
दोजख ही सही सर को झुकाना नहीं अच्छा 
बेटा तूं राजपूत, याद सदा ही राखिजे,
माथा झुके न सूत, चाहे शीश ही कटिजे।

मृत्युंजय मोहन

स्वाभिमानी ठाकुर मोहन अपना सर नहीं झुका सका और ख़ुशी ख़ुशी मृत्यु को आलिंगन करते हुए आगे बढे… क्षत्रियों के इस वारिस को बाबर ने एक विषेश प्रकार की विधि से मौत देने का फैसला किया ठाकुर मोहन सिंह को कमर तक मिटटी में दफना दिया गया और शाही सेना ने उनपर तीरों की बौछारें शुरू कर दी। 

सैकड़ों तीर देखते ही देखते ठाकुर मोहन सिंह का शरीर भेदने लगे उनके शरीर से खून की फुहारें छूटने लगीं… परन्तु गर्दन और शीश बाबर के सामने तना खड़ा रहा, वह अभी भी नहीं झुका जिससे बाबर झल्ला उठा जब तक रक्त की अंतिम बूँद ठाकुर मोहन सिंह के शरीर से नहीं छुटी, वह तन के खड़े रहे।

देखने वाले भी हैरानी से देखते रहे की इतनी आघातों के बाद भी उनके चेहरे पर दर्द और पीड़ा नहीं छलक रही थी जैसे वह संवेदनहीन ही हो गए हो, अंत में ठाकुर मोहन सिंह जी का शीश धरती माँ को वंदन करते हुए छु पड़ा।

उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए… ठाकुर मोहन सिंह मर कर भी अमर हो गए, उन्होंने दो बार शाही सेना को अपने शौर्य से पराजित किया, जिससे बाबर लज्जित हुआ।

उसने अपनी आत्मकथा तजुके बाबरी में जहाँ छोटी-छोटी बातें भी दर्ज कर लीं थी, वहीं शर्मिन्दिगी के कारण इस प्रसंग को छोड़ दिया, इस महत्वपूर्ण घटना का पूर्ण विवरण हुमायूँ कालीन यादगार अहमद ने अपनी तवारीख ए सलातीने अफगाना में दिया।

इस युद्ध में मुआँना गाँव के परम् योद्धा ठाकुर मामचन्द मडाड भी शाही सेना के साथ युद्ध करते हुए शहीद हुए… वे ठाकुर मोहन सिंह के रिसालदार थे, जिनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी कपूर कँवर सतीं हुई, जिनकी देवली मुआँना गाँव तहसील सफीदों जिला जींद हरयाणा में आज तक बनीं हुई है जहाँ शादी के बाद हर नव विवाहिता राजपूत क्षत्राणी आशीर्वाद और सौभाग्य लेने जाती है।

जय श्री राम।🙏🏻
जय राजपूताना।🙏🏻

बुधवार, 23 जून 2021

वीर भील बालक दुद्धा

एक बार महाराणा प्रताप पुंगा की पहाड़ी बस्ती में रुके हुए थे, बस्ती के भील बारी-बारी से प्रतिदिन राणा प्रताप के लिए भोजन पहुँचाया करते थे। 

इसी कड़ी में आज दुद्धा की बारी थी लेकिन उसके घर में अन्न का दाना भी नहीं था, दुद्धा की मांँ पड़ोस से आटा मांँगकर ले आई और रोटियाँ बनाकर दुद्धा को देते हुए बोली,"ले यह पोटली महाराणा को दे आ… 

दुद्धा ने खुशी-खुशी पोटली उठाई और पहाड़ी पर दौड़ते-भागते रास्ता नापने लगा, घेराबंदी किए बैठे अकबर के सैनिकों को दुद्धा को देखकर शंका हुई, एक ने आवाज लगाकर पूछा: "क्यों रे इतनी जल्दी-जल्दी कहाँ भागा जा रहा है" दुद्धा ने बिना कोई जवाब दिये अपनी चाल बढ़ा दी। 


मुगल सैनिक उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे भागने लगा, लेकिन उस चपल - चंचल बालक का पीछा वह जिरह - बख्तर में कसा सैनिक नहीं कर पा रहा था।

दौड़ते-दौड़ते वह एक चट्टान से टकराया और गिर पड़ा, इस क्रोध में उसने अपनी तलवार चला दी तलवार के वार से बालक की नन्हीं कलाई कटकर गिर गई, खून फूट कर बह निकला, लेकिन उस बालक का जिगर देखिये, नीचे गिर पड़ी रोटी की पोटली उसने दूसरे हाथ से उठाई और फिर सरपट दौड़ने लगा। 

बस, उसे तो एक ही धुन थी - कैसे भी करके राणा तक रोटियाँ पहुँचानी हैं, रक्त बहुत बह चुका था , अब दुद्धा की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, उसने चाल और तेज कर दी, जंगल की झाड़ियों में गायब हो गया। 

सैनिक हक्के-बक्के रह गये कि कौन था यह बालक…
जिस गुफा में राणा परिवार समेत थे, वहांँ पहुंँचकर दुद्धा चकराकर गिर पड़ा उसने एक बार और शक्ति बटोरी और आवाज लगा दी "राणाजी आवाज सुनकर महाराणा बाहर आये। 

एक कटी कलाई और एक हाथ में रोटी की पोटली लिये खून से लथपथ 12 साल का बालक युद्धभूमि के किसी भैरव से कम नहीं लग रहा था, राणा ने उसका सिर गोद में ले लिया और पानी के छींटे मारकर होश में ले आए।

टूटे शब्दों में दुद्धा ने इतना ही कहा- "राणाजी ये… रोटियाँ...मांँ ने.. भेजी हैं" फौलादी प्रण और तन वाले राणा की आंँखों से शोक का झरना फूट पड़ा वह बस इतना ही कह सके, "बेटा, तुम्हें इतने बड़े संकट में पड़ने की कहा जरूरत थी " वीर दुद्धा ने कहा - "अन्नदात आप तो पूरे परिवार के साथ संकट में हैं। 

“माँ कहती है आप चाहते तो अकबर से समझौता कर आराम से रह सकते थे, पर आपने धर्म और संस्कृति रक्षा के लिये कितना बड़ा त्याग किया, उसके आगे मेरा त्याग तो कुछ नही है।" 

इतना कह कर दुद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया।
राणा जी की आँखों मेंं आंँसू थे मन में कहने लगे "धन्य है तेरी देशभक्ति, तू अमर रहेगा, मेरे बालक तू अमर रहेगा।" अरावली की चट्टानों पर वीरता की यह कहानी आज भी देशभक्ति का उदाहरण बनकर बिखरी हुई है।
क्षत्रिय होना गर्व हैं!

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जय श्री राम।🙏🏻
रक्त राजपूताना।🙏🏻

मंगलवार, 15 जून 2021

बप्पा रावल के नाम का शहर रावलपिंडी

पाकिस्तान में रावलपिंडी शहर का नाम राजपूत शासक बप्पा रावल और पिंड के नाम से दो शब्दों रावल और पिंड का मेल हैं जिसका अर्थ हैं शिवलिंग…

इस क्षेत्र पर शासन करने वाले राजपूत राजा महादेव या शिव के बहुत बड़ें भक्त थे और उन्होंने महादेव शिव से वरदान प्राप्त किया कि उनका नाम और महादेव का पवित्र नाम कभी नहीं बदला जा सकता हैं।


1951 में रावलपिंडी ने कंपनी बाग में पाकिस्तान के पहले निर्वाचित प्रधान मंत्री लियाकत अली खान की हत्या देखी, जिसे अब लियाकत बाग पार्क या लियाकत गार्डन के नाम से जाना जाता है।

पाकिस्तान के प्रधान मंत्री श्री जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो के पिता को 1979 में रावलपिंडी में फांसी दी गई थी।

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27 दिसंबर 2007 को, रावलपिंडी में लियाकत बाग पार्क का पिछला गेट पाकिस्तान की पूर्व प्रधान मंत्री बेनज़ीर भुट्टो की हत्या का स्थल था।

अब इन तीनों हत्याओं में क्या समानता है।

उत्तर:- तीनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों ने रावलपिंडी के नाम को बदलने और इस्लामीकरण करने की कोशिश की उनमें से कोई भी सफल नहीं हुआ और उनमें से प्रत्येक को हिंसक अंत से गुजरना पड़ा।

🙏🏻जय श्री राम।🙏🏻
🙏🏻रक्त राजपूताना।🙏🏻

डोगरा राजवंश के महाप्रतापी राजा प्रताप सिंह की कहानी, जिन्होंने 40 साल के राज में जम्मू कश्मीर को स्वर्ग बना डाला था।

जम्मू में डोगरा राजवंश के संस्थापक महाराजा गुलाब सिंह थे गुलाब सिंह का राजा के तौर पर राजतिलक महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं किया था गुलाब सिंह ने अपने राज्य का विस्तार लद्दाख, गिलगित और बल्तीस्तान तक किया 1846 में कश्मीर घाटा भी इसमें शामिल हो गई इस प्रकार चर्चित जम्मू-कश्मीर रियासत ने मानचित्र पर अपना स्थान ग्रहण किया।

जिसकी सीमाएँ एक ओर तिब्बत और दूसरी ओर अफगानिस्तान व रूस से मिलती थीं गुलाब सिंह ने अगस्त, 1857 में अंतिम श्वास ली उनके बाद उनके 26 साल के बेटे राजगद्दी पर बैठे रणवीर सिंह के चार पुत्र हुए सबसे बड़े प्रताप सिंह थे।

उसके बाद के राम सिंह, अमर सिंह और लछमण सिंह थे लछमण सिंह की मृत्यु तो पाँच साल की अल्प आयु में ही हो गई राम सिंह की मृत्यु भी, जब वे 45 साल के थे, हो गई थी लगभग तीस साल राज्य करने के बाद 55 साल की उम्र में 12 सितंबर, 1885 को रणवीर सिंह की मृत्यु हो गई और परंपरानुसार उनके बड़े सुपुत्र प्रताप सिंह का राजतिलक हुआ।

अगले कुछ वर्षों में ही प्रताप सिंह ने राज्य को बखूबी संभाल लिया और राज्य की सीमा में विस्तार करना शुरू कर दिया 1891 में प्रताप सिंह की सेना ने गिलगित की हुंजा वैली, नागर और यासीन वैली को भी अपने राज्य में मिला लिया।

अब प्रताप के राज्य की सीमाएं उत्तर में रूस तक मिलने लगी थी। हालांकि अंग्रेज इस दौरान प्रताप सिंह की सत्ता को चुनौती की लगातार कोशिश करते रहे। 


लेकिन तमाम साजिशों के बावजूद भी महाराजा प्रताप सिंह डोगरा राजवंश में सबसे ज्यादा काल, 40 सालों तक सत्ता करने में कामयाब रहे अपने कार्यकाल के दौरान प्रताप सिंह ने ढेरों सामाजिक, आर्थिक औऱ ढांचागत विकास कार्य करवाये जिनकी झलक आज भी जम्मू कश्मीर में देखने को मिलती है।

1. प्रताप सिंह की मदद से पहले श्रीनगर में एनी बेसेंट ने द हिंदू कॉलेज की स्थापना की जिसको 1905 में प्रताप की सरकार ने टेक - ऑवर कर लिया बाद में इसी कॉलेज का नाम श्री प्रताप सिंह कॉलेज पड़ा।

2. इसके अलावा जम्मू में भी महाराजा ने प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज की स्थापना की बाद में जिसका नाम जीएम साइंस कॉलेज रखा गया।

3. श्रीनगर में ही अमर सिंह के नाम पर एक टेक्निकल इंस्टीट्यूट की भी स्थापना महाराजा ने की थी।

4. महाराजा प्रताप सिंह ने श्रीनगर और जम्मू दोनों शहरों में सरकारी अस्पताल बनवाये ताकि हेल्थ के मामले में जम्मू कश्मीर आत्मनिर्भर बन सके।

5. वो महाराजा प्रताप सिंह ही थे, जिन्होंने जम्मू और श्रीनगर दोनों शहरों में फिल्टर पानी के सप्लाई की व्यवस्था चालू करवाई।

6. श्रीनगर में मॉडल एग्रीकल्चरल फार्म शालीमार बाग को भी महाराजा प्रताप सिंह ने ही बनवाया था।

यातायात को सुधारने के लिए प्रताप सिंह ने जम्मू से सियालकोट तक रेल लाइन बिछवाई और रेलवे सर्विस शुरू की 2 बड़े ट्रंक रोड़ बनवाये, जिसमें से एक 132 मील लंबा झेलम वैली रोड़ था, जोकि कश्मीर वैली को कोहाला से जोड़ता था, दूसरा 203 मील लंबा बनिहाल कार्ट रोड़, जोकि कश्मीर वैली को जम्मू से जोड़ता है।

बिजली के लिए राज्य को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मोहारा पावर प्रोजेक्ट को शुरू करवाया श्रीनगर और जम्मू में म्यूनिसिपल प्रशासन की व्यवस्था शुरू करवाई जिसका काम सैनिटेशन और बाकी लोकल शहरों के विकास कार्यों को देखने का था। 

नदियों की सफाई से लेकर पुनर्उद्धार का काम भी महाराजा प्रताप सिंह ने करवाया सूखे के दौरान झेलम में पानी बना रहे इसके लिए छाताबल डैम का निर्माण करवाया महाराजा हरि सिंह 1907 में डोगरा कोर्ट में पर्शियन लैंग्वेज के स्थान पर उर्दू को शामिल किया।

श्रीनगर के कईं मुस्लिस शैक्षणिक संस्थानों के लिए महाराजा प्रताप सिंह ने भारी आर्थिक मदद की श्रीनगर के इस्लामिया हाई स्कूल को 3 हजार रूपये प्रति माह आर्थिक सहायता दी, अनेकों मुस्लिम स्कूलों को सरकारी मान्यता से लेकर मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप तक की व्यवस्था करवाई, 3200 रूपये जरूरतमंद मुस्लिम छात्रों की सहायता के लिए प्रति वर्ष मुहैया करवाये मुस्लिम स्कूलों में टीचर्स की व्यवस्था करवाई इसके लिए भी आर्थिक सहायता की।

महाराजा प्रताप के राजवंश में पारिवारिक साजिश और भतीजे हरि सिंह को उत्तराधिकारी बनाने की कहानी

प्रताप सिंह के कोई संतान नहीं थी प्रताप सिंह के राजगद्दी पर बैठने के दस साल बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह के घर हरि सिंह का जन्म हुआ कुल मिलाकर 1895 में गुलाब सिंह के परिवार में केवल तीन प्राणी जीवित थे प्रताप सिंह, जो रियासत के महाराजा थे उनके भाई अमर सिंह, जो राजा थे और हरि सिंह, जिनकी उम्र केवल कुछ दिनों की थी और वे ही इस राजवंश के अकेले वारिस थे।

हरि सिंह के जन्म पर सारी रियासत में खुशियाँ मनाई गईं उस दिन सभी महलों में और पूरे जम्मू नगर में दीपमालिका की गई पूरे राज्य में सभी मजहबों और जातियों के लोग खुशियों से झूम रहे थे, उन दिनों देश की रियासतों में राजपरिवार के घर राजकुमार का जन्म लेना आम जनता के लिए खुशियाँ मनाने का अवसर माना जाता था। 

मछलियाँ पकड़ने, शिकार खेलने और किसी भी प्रकार की जीव-हत्या पर कुछ दिनों के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया मंदिरों-मसजिदों को दान दिया गया विद्यालयों में मिठाई बाँटी गई, कैदियों की सजा मुआफ कर दी गई और गरीबों में खैरात बाँटी गई।

उनके पिता राजा अमर सिंह की अपने भाई महाराजा प्रताप सिंह से नहीं बनती थी, अंग्रेजों ने महाराजा प्रताप सिंह से सभी अधिकार छीन लिये और उसके स्थान पर जिस परिषद् का गठन किया गया था, उसके मुखिया भी हरि सिंह के पिता अमर सिंह ही बनाए गए थे।

जब हरि सिंह अभी चौदह साल के ही थे, तभी उनके पिता अमर सिंह की 1909 में मृत्यु हो गई थी, इस प्रकार वंश परंपरा में केवल हरि सिंह ही बचे थे, महाराजा प्रताप सिंह हरि सिंह से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उनकी पत्नी महारानी चडक हरि सिंह के प्रति बहुत ही शत्रुतापूर्ण रवैया रखती थी। 

महाराजा हरि सिंह के ही शब्दों में, "वह मुझसे बहत घृणा करती थी और यदि उसका बस चलता तो वह मुझे मरवा ही देती, उसकी एक ही इच्छा रहती थी कि मैं किसी प्रकार भी उसके पति की राजगद्दी का उत्तराधिकारी न बन पाऊँ, इसलिए वह सदा महाराजा प्रताप सिंह के मन में मेरे प्रति जहर भरती रहती थी।

वह हर रोज कोई-न-कोई नई चाल निकालती थी, ताकि मैं गद्दी पर न बैठ उसने पुंछ के राजा, जो जम्मू राज के अधीनस्थ ही था, के बेटे को गोद ले लिया ताऊजी उसकी इन सब चालों को जानते थे, लेकिन उसका ताऊजी पर ऐसा नियंत्रण था कि वे उसके सामने विवश थे और उसका सामना नहीं कर सकते थे। 

वे किसी भी की पर उसे नाराज नहीं कर सकते थे, वे उसके कहने पर दिन को रात और रात को दिन कहते थे, महाराज प्रताप सिंह जानते थे, कि महारानी मेरे बहुत खिलाफ थी, लेकिन इस पर चुप ही रहते थे।

महारानी चडक प्रयास करती रहती थी, कि महाराजा सार्वजनिक रूप से दत्तक पुत्र के पक्ष में व्यवहार करें, लेकिन उन्होंने इसके बारे में कभी एक शब्द तक नहीं कहा चडक, रियासत के दीवान को भी मेरे खिलाफ गुमनाम पत्र लिखाती रहती थीं “वह ब्रिटिश रेजीडेंट को भी उपहार भेजती रहती थी।

ताकि उससे अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करवाने में सहायता ले सके "वह दिल से तो मेरी मौत ही देखना चाहती थी, इसके लिए वह कोई भी घटिया से घटिया तरकीब अपना सकती थी, यदि मेरी मौत हो जाती तो उसकी इच्छा पूर्ति के रास्ते की बाधा दूर हो जाती।

महाराजा के एक मंत्री शोभा सिंह मेरे शुभचिंतक थे, वे निरंतर मुझे सावधान करते रहते थे, कि मैं महारानी के हाथ से लेकर कोई भी चीज न खाऊँ, वह तो मुझे यहाँ तक आगाह करते थे, कि मैं अपने महल में भी कोई चीज खाने से पहले, किसी और को खिलाकर जाँच करता रहूं हूँ कि कहीं उसमें जहर तो नहीं मिला हुआ।

इन्हीं षड्यंत्रों के कारण मैं ज्यादातर राज्य से बाहर ही रहना चाहता था परिवार में इस कलह और षड्यंत्रों के कारण वातावरण कैसा रहा होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, इन्हीं षड्यंत्रों के चलते हरि सिंह की पत्नी को जहर देकर मार दिया गया था और उन्हें अपना जीवन हर पल हर क्षण खतरे में लगता था।
 
राजवंश परंपरा की चिंता

लेकिन राजपरिवार निस्संतान था, इसको लेकर चिंता तो राजवंश में थी ही महाराजा प्रताप सिंह बुढे हो रहे थे और वंश में औलाद नहीं थी, उधर उनके भतीजे हरि सिंह ने बिल्लौरन की मौत के बाद ही सोच लिया था, कि अब किसी और से शादी नहीं करूगा।

लेकिन इस समय सबसे बड़ा सवाल किसी भी तरह वंश परंपरा को चलाए रखने का था महारानी चडक ने एक रास्ता और निकाल लिया था दत्तक पुत्र ले लेने का, लेकिन महाराजा समेत सभी दरबारी जानते थे, कि इसके पीछे वंश परंपरा को चलाए रखने की इतनी चिंता नहीं है।

जितनी हरि सिंह को भविष्य में राज सिंहासन से महरूम कर देने की इसलिए हरि सिंह पर शादी कर लेने के लिए सभी ओर से दबाव पड़ रहा था अंततः हरि सिंह ने तीसरी शादी सौराष्ट्र की रियासत धर्मकोट के महाराजा की बेटी से 30 अप्रैल, 1923 को की इस शादी के लिए उन पर महाराजा प्रताप सिंह ने दबाव डाला था। 

ताकि पुत्र प्राप्ति से वंश परंपरा चलती रहे ''17 नई रानी महारानी धनवंत कुँवेरी बाईजी साहिबा के नाम से जानी गई, अभी तक रियासत के राजवंश की जितनी शादियाँ हुई थीं, वह धनाढ्य भूपतियों के परिवारों में हुई थीं यह पहली शादी थी। 

जो किसी राजवंश की लड़की से हो रही थी इस शादी में धर्मकोट नरेश ने इतना दहेज दिया कि जम्मू स्तब्ध रह गया महारानी के साथ ही उनके नौकर - चाकर इत्यादि दहेज में आए।

इसलिए उनको वेतन भी धर्मकोट से ही मिलता था '' महारानी दयाल, निश्छल और दैवी गुणोंवाली थीं ''18 लेकिन दुर्भाग्य से नई रानी से महाराजा का मन नहीं मिल पाया ''जब हरि सिंह की यह तीसरी शादी हुई थी, तो वे राजकुमार थे और उनकी पत्नी राजकुमारी, लेकिन राजगद्दी मिलने पर, जब हरि सिंह महाराजा हो गए तो उनकी पत्नी भी महारानी बन गईं।

लेकिन महाराजा का नई रानी से मन नहीं मिल पाया महाराजा किसी उत्सव या किसी अन्य विशेष अवसर पर उससे मिलने राजमहल में जाते थे, उन दिनों राजवंशों में परंपरा थी कि जब किसी राजकुमारी की शादी हो जाती थी, तो उसकी अर्थी ही वहाँ से निकलती थी धर्मकोट महारानी सारा समय मंडी मुबारक में ही रहीं।

कभी कभार वह कार में बाहर घूमने के लिए निकलती थीं, वह आधा साल जम्मू और आधा कश्मीर में रहती थीं, ''19 हरि सिंह के ही शब्दों में, न मुझे उसकी भाषा समझ में आती थी और न ही उसे मेरी जब भी वह मिलती थी तो अपनी भाषा में केवल एक बात ही कहती थी कि मैं आपके सिर की मालिश करती हूँ ''20 लेकिन धर्मकोट महारानी से भी महाराजा को कोई संतान प्राप्त नहीं हुई।

कैप्टन दीवान सिंह के ही शब्दों में, वह शुरू से ही बीमार रहती थी वह संतान प्राप्ति के लिए भी अक्षम थी हरि सिंह के सिवा वह किसी के भी सामने नहीं आती थी, यहाँ तक कि जब वह कार में भी बैठती थी, तो परदे किए जाते थे ''21 धर्मपुर महारानी ने हरि सिंह को कोई संतान चाहे न दी हो।

लेकिन इस शादी के दो साल के भीतर ही उन्हें राज गद्दी अवश्य मिल गई इस राजगद्दी के रास्ते में भी उनकी ताई महारानी चडक ने अनेक रुकावटें खड़ी कर दी थीं।

प्रताप सिंह का देहांत

महाराजा प्रताप सिंह के अंतिम दिनों में ही महारानी चडक ने अपना ताना - बाना बुनना शरू कर दिया था कि हरि सिंह उत्तराधिकारी न बन सके, लेकिन प्रताप सिंह की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसलिए स्वाभाविक उत्तराधिकारी राजा हरि सिंह ही बन सकते थे।

लेकिन प्रताप सिंह ने परोक्ष रूप से उन्हें इस काम के लिए प्रशिक्षित भी किया था, लेकिन महारानी चडक ने इसकी काट के लिए पुंछ के राजा के बेटे जगत देव सिंह को गोद ले लिया था चडक की योजना थी कि प्रताप सिंह अपनी मौत से पहले उस दत्तक पत्र का राजतिलक कर दें।

यद्यपि प्रताप सिंह महारानी चडक के आगे बोल पाने की हिम्मत तो नहीं रखते थे, लेकिन वे किसी भी हालत में पुंछ के राजा के इस बेटे को अपना उत्तराधिकारी बनाने को तैयार नहीं थे, पर महारानी चडक ने दरबार में अपने आदमी भर रखे थे प्रताप सिंह बिस्तर पर थे आगे की कहानी मलिका पुखराज के ही शब्दों में…

जब महाराजा प्रताप सिंह मरणासन्न थे, उस समय हरि सिंह गुलमर्ग में थे उन्हें जान-बूझकर प्रताप सिंह के स्वास्थ्य के बारे में कोई सूचना नहीं दी जा रही थी, अपने अंतिम दिनों में प्रताप सिंह (महारानी चडक के षड्यंत्रों को लेकर काफी चिंतित थे उन्होंने सभी को कह रखा था कि हरि सिंह को तुरंत बुलाया जाए।

लेकिन महारानी ने महाराजा के आस - पास के सभी लोगों को ईनाम - इकराम का लालच देकर अपने पक्ष में कर रखा था इसलिए ऐसे सभी व्यक्ति महाराजा प्रताप सिंह को तो ये कहते रहते थे, कि हरि सिंह रास्ते में हैं और किसी क्षण भी पहुँच सकते हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी हरि सिंह को प्रताप सिंह का संदेश नहीं भिजवाया था।

 यदि महारानी चडक अपने षड्यंत्रों में कामयाब हो जाती तो प्रताप सिंह के बाद उत्तराधिकारी को लेकर निश्चय ही एक विवाद खड़ा हो जाता तब मामला निर्णय के लिए इंग्लैंड पहुँच जाता महारानी चडक के नियंत्रण में पूरे हालात थे।

इसलिए विवाद में वह यह तर्क दे देती कि महाराजा प्रताप सिंह की अंतिम इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए अंतिम इच्छा क्या थी, यह बतानेवाली भी महारानी चडक ही थी महाराजा के आसपास के लोग तो पहले ही महारानी से मिले हुए थे, ऐसी स्थिति में यह संभव था कि वह ब्रिटिश अधिकारियों को घूस देकर अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करवाने में सफल हो जाती।

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लेकिन महाराजा के एक मंत्री शोभा सिंह ने प्रयास किया कि महारानी अपनी चालों में सफल न हों उन्होंने अपनी कार देकर अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को गुलमर्ग से हरि सिंह को लाने भेजा इस प्रकार प्रताप सिंह की मृत्यु से पहले हरि सिंह उनसे मिलने में कामयाब हो गए और महाराजा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।

इक्कीस तोपों की सलामी दी गई सब जगह खबर फैल गई की मरने से पहले महाराजा ने अपने भतीजे के माथे पर तिलक लगा दिया था। शोभा सिंह के इन प्रयासों में जनक सिंह और करतार सिंह ने भी उनका साथ दिया था।

🙏🏻जय श्री राम।🙏🏻
🙏🏻जय राजपूताना।🙏🏻

रविवार, 6 जून 2021

कौन है राजपूत…!!?

1. गजनवी तुर्कों के खून से अजमेर शहर को सजा देने वाला पृथ्वीराज चौहान का दादा अर्नोराज चौहान ( 1133 - 55 ) राजपूत।

2. अपने वक्त की सुपर पावर उम्मयद खिलाफत को टक्कर देने वाला बप्पा रावल ( 728 - 753 ) राजपूत।

3. अपने वक्त की सुपर पावर अबु खिलाफत को टक्कर देने वाला मिहिरभोज प्रतिहार ( 836 - 86 ) राजपूत।

4. जिन प्रचंड तुर्कों ने मंगोलों को टक्कर दी उन्हीं प्रचंड तुर्कों को बार बार हराने वाला पृथ्वीराज चौहान का परपोता वाघबाता चौहान ( 1226 - 56 ) राजपूत।

5. दुनिया के तारीख के सबसे ताकतवर और जालिम शासन करने वाला तैमूर लंग को सबसे बड़ी टक्कर देने वाला और कश्मीर से लेकर मुल्तान तक ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से लेकर दिल्ली तक हुकूमत करने वाला राजा जसरथ खोखर ( 1422 - 42 ) राजपूत।

6. शाहजहां की 31000 की मुगलों की फौज को सिर्फ एक हजार राजपूतों से टक्कर देने वाली रानी कर्णावती घरवाली ( कटोच राजकुमारी ) ( 1631 - 41 ) राजपूत।

7. मोहम्मद बिन तुगलक की एक लाख तुर्को की फौज को सिर्फ एक हजार राजपूतों की फौज के साथ टक्कर देने वाला पृथ्वी चंद कटोच ( 1330 - 45 ) राजपूत।

8. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से पार जाकर काबुल कंधार पर हुकूमत करने वाला राजा मान सिंह कछवाहा ( 1589 - 1614 ) राजपूत।

9. अपने वक्त की सुपर पावर श्वेत हूण को हिंदुस्तान से बाहर निकाल फेंकने वाला राजा यशोधर्मन कलचुरी ( 515 - 45 ) राजपूत।

10. अपने वक्त की सुपर पावर अलेक्जेंडर द ग्रेट के हमले को नाकाम बनाने वाला राजा पोरस कटोच ( 327 BC - 321 BC ) राजपूत।

11. अपने वक्त की सुपर पावर सासानी साम्राज्य के शाह खुसरो परवेज के हिंदुस्तान पर हमले को रोकने वाला राय सिहारास ( 585 - 627 ) राजपूत।

12. शहाबुद्दीन गोरी को सर झुका कर माफी मांगने पर मजबूर करने वाला छोटा सा बच्चा मूलराज सोलंकी ( 1175 - 78 ) राजपूत।

13. पूरे आर्यव्रत से गजनवी तुर्को की ताकत को खत्म करने वाला विग्रहराज चौहान चतुर्थ ( 1155 - 64 ) राजपूत।

14. एशिया के सबसे ताकतवर शासन करने वाला औरंगजेब को एक के बाद एक लगातार नौ बार टक्कर देने वाला छत्रसाल बुंदेला ( 1671 - 1731 ) राजपूत।

15. मुसलमान तनिक दारो की नजर में हिंदुस्तान के तारीख का सबसे ताकतवर राजा कहलाने वाला राव मालदेव राठौर ( 1532 - 62 ) राजपूत।

16. गिलगित - बाल्टिस्तान लेह लद्दाख हिमालय अक्साई चीन और वेस्टर्न तिब्बत जैसे खतरनाक ठंडे पहाड़ी इलाकों को जीतने वाला जोरावर सिंह कहलौरिया ( 1822 - 41 ) राजपूत।

17. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी दीवार कुंभलगढ़ बनाने वाले राणा कुंभा ( 1433 - 1468 ) राजपूत।

18. दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा किला मेहरानगढ़ बनाने वाले राव जोधा ( 1438 - 1489 ) राजपूत।

19. नींव के बिना दुनिया की सबसे बड़ी इमारत हवा महल बनाने वाले सिवाई प्रताप सिंह ( 1778 - 1803 ) राजपूत।

20. दुनिया में सबसे ज्यादा लंबे समय तक हुकूमत करने वाला कांगड़ा का कटोच खानदान राजपूत।

21. दुनिया में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर मौजूद स्कार्दू किला जीतने वाले जोरावर सिंह कहलौरिया ( 1784 - 1841 ) राजपूत।

22. दुनिया का सबसे बड़ा मकली नेक्रोपोलिस बनाने वाला सिंध का सम्मा साम्राज्य ( 1336 - 1524 ) राजपूत।

23. दुनिया के तारीख के दूसरे सबसे खतरनाक जंजू महमूद गजनबी को टक्कर देने वाले विद्याधर चंदेल ( 1002 - 1035 ) राजपूत।

24. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जंग विश्वयुद्ध प्रथम में तुर्को और जर्मनों को टक्कर देने वाले दलपत सिंह शेखावत राजपूत।

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शुक्रवार, 4 जून 2021

महाराणा कुम्भा

महाराणा कुम्भा राजपूताने के ऐसे प्रतापी शासक थे,
जिनके युद्ध कौशल, विद्वता, कला एवं साहित्य प्रियता की गाथा मेवाड़ के चप्पे-चप्पे से उद्घोषित होती है।
महाराणा कुम्भा जी का जन्म 1403 ई.
में हुआ था। कुम्भा जी चित्तौड़ के महाराणा मोकल के पुत्र थे।


उनकी माता परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी। अपने पिता चित्तौड़ के महाराणा मोकल की हत्या के बाद कुम्भा जी 1433 ई. में मेवाड़ के राजसिंहासन पर आसीन हुए ,तब उनकी उम्र अत्यंत कम थी। कई समस्याएं सिर उठाए उसके सामने खड़ी थी। मेवाड़ में विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियाँ थी,

जिनका प्रभाव कुम्भा जी की विदेश नीति पर पड़ना स्वाभाविक था।
ऐसे समय में उनको प्रतिदिन युद्ध की प्रतिध्वनि गूंजती दिखाई दे रही थी।
उनके पिता के हत्यारे चाचा, मेरा (महाराणा खेता की उपपत्नी का पुत्र) व उनका समर्थक महपा पंवार स्वतंत्र थे और विद्रोह का झंडा खड़ा कर चुनौती दे रहे थे।
मेवाड़ दरबार भी सिसोदिया व राठौड़ दो गुटों में बंटा हुआ था।

कुम्भा जी के छोटे भाई खेमा की भी महत्वाकांक्षा मेवाड़ राज्य प्राप्त करने की थी और इनकी पूर्ति के लिए वह मांडू (मालवा) पहुँच कर वहाँ के सुल्तान की सहायता प्राप्त करने के प्रयास में लगे हुए थे।

दुर्ग बत्‍तीसी' के संयोजनकार-महाराणा कुंभा
दुर्ग या किले अथवा गढ किसी राज्‍य की बडी ताकत माने जाते थे। दुर्गों के स्‍वामी होने से राजा को दुर्गपति कहा जाता था, दुर्गनिवासिनी होने से ही शक्ति को भी दुर्गा कहा गया। दुर्ग बडी ताकत होते हैं, चाणक्‍य से लेकर मनु और राजनीतिक ग्रंथों में दुर्गों की महिमा में सैकडों श्‍लोक मिलते हैं।

महाराणा कुंभा या कुंभकर्ण (शिव के एक नाम पर ही यह नाम रखा गया, शिलालेखों में कुंभा का नाम कलशनृ‍पति भी मिलता है, काल 1433-68 ई.) के काल में लिखे गए अधिकांश वास्‍तु ग्रंथों में दुर्ग के निर्माण की विधि लिखी गई है। यह उस समय की आवश्‍यकता थी और उसके जीवनकाल में अमर टांकी चलने की मान्‍यता इसीलिए है कि तब शिल्‍पी और कारीगर दिन-रात काम में लगे हुए रहते थे।

यूं भी इतिहासकारों का मत है कि कुंभा ने अपने राज्‍य में 32 दुर्गों का निर्माण करवाया था। मगर, नाम सिर्फ दो-चार ही मिलते हैं। यथा- कुंभलगढ, अचलगढ, चित्‍तौडगढ और वसंतगढ।

सच ये है कि कुंभा के समय में मेवाड-राज्‍य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्‍तीसी की रचना की गई, अर्थात् राज्‍य की सीमा पर चारों ही ओर दुर्गों की रचना की जाए। यह कल्‍पना 'सिंहासन बत्‍तीसी' की तरह आई हो, यह कहा नहीं जा सकता मगर जैसे 32 दांत जीभ की सुरक्षा करते हैं, वैसे ही किसी राज्‍य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्‍तीसी को जरूरी समझा गया हो :
“श्रीमेदपाटं देशं रक्षति यो दुर्गमन्‍य देशांश्‍च। तस्‍य गुणानखिलानपि वक्‍तुं नालं चतुर्वदन:।। “
(एकलिंग माहात्‍म्‍य 54)

कुंभा के काल में दुर्गों के जो 32 कार्य हुए, वे निम्नांकित है-

**विस्‍तार कार्य –

1. इसके अंतर्गत चित्‍तौडगढ का कार्य प्रमुख है, जिसमें कुंभा ने न केवल प्रवेश का मार्ग बदला (पश्चिम से पूर्व किया) बल्कि नवीन रथ्‍याओं या पोलों, द्वारों का कार्य करवाया और सुदृढ प्रकार, परिखा का निर्माण भी करवाया जो करीब 90 साल तक बना रहा।
2. इसी प्रकार मांडलगढ को विस्‍तार दिया गया।
3. वसंतगढ (आबू) को उत्‍तर से लेकर पूर्व की ओर बढाया गया मगर चंद्रावती को तब छोड दिया गया।
4. अचलगढ (आबू) की कोट को किले के रूप में बढाया गया। 
5. और यही कार्य जालोर में भी हुआ।
6. इसी प्रकार आहोर (जालोर) में दुर्ग की रचना को बढाया गया जहां कि पुलस्‍त्‍य मुनि का आश्रम था।

*स्‍थापना कार्य-

7. अपनी रानी कुंभलदेवी के नाम पर कुंभलगढ की स्‍थापना की गई, यह नवीन राजधानी के रूप में कल्पित था, यहां से गोडवाड, मारवाड, मेरवाडा आदि पर नजर रखी जा सकती थी।
8. इसी प्रकार जावर में किला बनाया गया।
9. कोटडा में नवीन दुर्ग बनवाया।
10. पानरवा में भी नवीन किला निर्मित किया गया। झाडोल में नवीन दुर्ग बने।
यही नहीं, गोगुंदा के पास घाटे में निम्नलिखित स्थानों पर कोट बनवाए गए ताकि उधर से होने वाले हमलों को रोका जा सके-
11. सेनवाडा
12. बगडूंदा
13. देसूरी
14. घाणेराव
15. मुंडारा
16. आकोला में सूत्रधार केल्‍हा की देखरेख में उपयोगी भंडारण के लिए किला बनवाया गया।

पुनरुद्धार कार्य -

कुंभा के काल में निम्नांकित पुराने किलों भी का जीर्णोद्धार किया गया।
17. धनोप ।
18. बनेडा ।
19. गढबोर ।
20. सेवंत्री ।
21. कोट सोलंकियान ।
22. मिरघेरस या मृगेश्‍वर ।
23. राणकपुर के घाटे का कोट ।
24. इसी प्रकार उदावट के पास एक कोट का उद्धार हुआ।
25. केलवाडा में हमीरसर के पास कोट का जीर्णोद्धार किया।
26. आदिवासियों पर नियंत्रण के लिए देवलिया में कोटडी गिराकर नवीन किला बनवाया।
27. ऐसे ही गागरोन का पुनरुद्धार हुआ।
28. नागौर के किले को जलाकर नवीन बनाया गया।
29. एकलिंगजी मंदिर के लिए पिता महाराणा मोकल द्वारा प्रारंभ किए कार्य के तहत किला-परकोटा बनवाकर सुरक्षा दी गई। इस समय इस बस्‍ती का नाम 'काशिका' रखा गया जो वर्तमान में कैलाशपुरी है।

नवनिरूपण कार्य –

30. शत्रुओं को भ्रमित करने के लिहाज से चित्‍तौडगढ के पूर्व की पहाडी पर नकली किला बनाया गया।
31. ऐसी ही रचना कैलाशपुरी में त्रिकूट पर्वत के लिए की गई।
32. भैसरोडगढ किले को नवीन स्‍वरुप दिया गया।

कुंभा की यह दुर्ग -बत्‍तीसी आज तक अपनी अहमियत रखती है। पहली बार इन बत्‍तीस दुर्गों का जिक्र हुआ है...!!

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साभार 🙏🏻