बुधवार, 23 जून 2021

वीर भील बालक दुद्धा

एक बार महाराणा प्रताप पुंगा की पहाड़ी बस्ती में रुके हुए थे, बस्ती के भील बारी-बारी से प्रतिदिन राणा प्रताप के लिए भोजन पहुँचाया करते थे। 

इसी कड़ी में आज दुद्धा की बारी थी लेकिन उसके घर में अन्न का दाना भी नहीं था, दुद्धा की मांँ पड़ोस से आटा मांँगकर ले आई और रोटियाँ बनाकर दुद्धा को देते हुए बोली,"ले यह पोटली महाराणा को दे आ… 

दुद्धा ने खुशी-खुशी पोटली उठाई और पहाड़ी पर दौड़ते-भागते रास्ता नापने लगा, घेराबंदी किए बैठे अकबर के सैनिकों को दुद्धा को देखकर शंका हुई, एक ने आवाज लगाकर पूछा: "क्यों रे इतनी जल्दी-जल्दी कहाँ भागा जा रहा है" दुद्धा ने बिना कोई जवाब दिये अपनी चाल बढ़ा दी। 


मुगल सैनिक उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे भागने लगा, लेकिन उस चपल - चंचल बालक का पीछा वह जिरह - बख्तर में कसा सैनिक नहीं कर पा रहा था।

दौड़ते-दौड़ते वह एक चट्टान से टकराया और गिर पड़ा, इस क्रोध में उसने अपनी तलवार चला दी तलवार के वार से बालक की नन्हीं कलाई कटकर गिर गई, खून फूट कर बह निकला, लेकिन उस बालक का जिगर देखिये, नीचे गिर पड़ी रोटी की पोटली उसने दूसरे हाथ से उठाई और फिर सरपट दौड़ने लगा। 

बस, उसे तो एक ही धुन थी - कैसे भी करके राणा तक रोटियाँ पहुँचानी हैं, रक्त बहुत बह चुका था , अब दुद्धा की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा, उसने चाल और तेज कर दी, जंगल की झाड़ियों में गायब हो गया। 

सैनिक हक्के-बक्के रह गये कि कौन था यह बालक…
जिस गुफा में राणा परिवार समेत थे, वहांँ पहुंँचकर दुद्धा चकराकर गिर पड़ा उसने एक बार और शक्ति बटोरी और आवाज लगा दी "राणाजी आवाज सुनकर महाराणा बाहर आये। 

एक कटी कलाई और एक हाथ में रोटी की पोटली लिये खून से लथपथ 12 साल का बालक युद्धभूमि के किसी भैरव से कम नहीं लग रहा था, राणा ने उसका सिर गोद में ले लिया और पानी के छींटे मारकर होश में ले आए।

टूटे शब्दों में दुद्धा ने इतना ही कहा- "राणाजी ये… रोटियाँ...मांँ ने.. भेजी हैं" फौलादी प्रण और तन वाले राणा की आंँखों से शोक का झरना फूट पड़ा वह बस इतना ही कह सके, "बेटा, तुम्हें इतने बड़े संकट में पड़ने की कहा जरूरत थी " वीर दुद्धा ने कहा - "अन्नदात आप तो पूरे परिवार के साथ संकट में हैं। 

“माँ कहती है आप चाहते तो अकबर से समझौता कर आराम से रह सकते थे, पर आपने धर्म और संस्कृति रक्षा के लिये कितना बड़ा त्याग किया, उसके आगे मेरा त्याग तो कुछ नही है।" 

इतना कह कर दुद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया।
राणा जी की आँखों मेंं आंँसू थे मन में कहने लगे "धन्य है तेरी देशभक्ति, तू अमर रहेगा, मेरे बालक तू अमर रहेगा।" अरावली की चट्टानों पर वीरता की यह कहानी आज भी देशभक्ति का उदाहरण बनकर बिखरी हुई है।
क्षत्रिय होना गर्व हैं!

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जय श्री राम।🙏🏻
रक्त राजपूताना।🙏🏻

मंगलवार, 15 जून 2021

बप्पा रावल के नाम का शहर रावलपिंडी

पाकिस्तान में रावलपिंडी शहर का नाम राजपूत शासक बप्पा रावल और पिंड के नाम से दो शब्दों रावल और पिंड का मेल हैं जिसका अर्थ हैं शिवलिंग…

इस क्षेत्र पर शासन करने वाले राजपूत राजा महादेव या शिव के बहुत बड़ें भक्त थे और उन्होंने महादेव शिव से वरदान प्राप्त किया कि उनका नाम और महादेव का पवित्र नाम कभी नहीं बदला जा सकता हैं।


1951 में रावलपिंडी ने कंपनी बाग में पाकिस्तान के पहले निर्वाचित प्रधान मंत्री लियाकत अली खान की हत्या देखी, जिसे अब लियाकत बाग पार्क या लियाकत गार्डन के नाम से जाना जाता है।

पाकिस्तान के प्रधान मंत्री श्री जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो के पिता को 1979 में रावलपिंडी में फांसी दी गई थी।

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27 दिसंबर 2007 को, रावलपिंडी में लियाकत बाग पार्क का पिछला गेट पाकिस्तान की पूर्व प्रधान मंत्री बेनज़ीर भुट्टो की हत्या का स्थल था।

अब इन तीनों हत्याओं में क्या समानता है।

उत्तर:- तीनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों ने रावलपिंडी के नाम को बदलने और इस्लामीकरण करने की कोशिश की उनमें से कोई भी सफल नहीं हुआ और उनमें से प्रत्येक को हिंसक अंत से गुजरना पड़ा।

🙏🏻जय श्री राम।🙏🏻
🙏🏻रक्त राजपूताना।🙏🏻

डोगरा राजवंश के महाप्रतापी राजा प्रताप सिंह की कहानी, जिन्होंने 40 साल के राज में जम्मू कश्मीर को स्वर्ग बना डाला था।

जम्मू में डोगरा राजवंश के संस्थापक महाराजा गुलाब सिंह थे गुलाब सिंह का राजा के तौर पर राजतिलक महाराजा रणजीत सिंह ने स्वयं किया था गुलाब सिंह ने अपने राज्य का विस्तार लद्दाख, गिलगित और बल्तीस्तान तक किया 1846 में कश्मीर घाटा भी इसमें शामिल हो गई इस प्रकार चर्चित जम्मू-कश्मीर रियासत ने मानचित्र पर अपना स्थान ग्रहण किया।

जिसकी सीमाएँ एक ओर तिब्बत और दूसरी ओर अफगानिस्तान व रूस से मिलती थीं गुलाब सिंह ने अगस्त, 1857 में अंतिम श्वास ली उनके बाद उनके 26 साल के बेटे राजगद्दी पर बैठे रणवीर सिंह के चार पुत्र हुए सबसे बड़े प्रताप सिंह थे।

उसके बाद के राम सिंह, अमर सिंह और लछमण सिंह थे लछमण सिंह की मृत्यु तो पाँच साल की अल्प आयु में ही हो गई राम सिंह की मृत्यु भी, जब वे 45 साल के थे, हो गई थी लगभग तीस साल राज्य करने के बाद 55 साल की उम्र में 12 सितंबर, 1885 को रणवीर सिंह की मृत्यु हो गई और परंपरानुसार उनके बड़े सुपुत्र प्रताप सिंह का राजतिलक हुआ।

अगले कुछ वर्षों में ही प्रताप सिंह ने राज्य को बखूबी संभाल लिया और राज्य की सीमा में विस्तार करना शुरू कर दिया 1891 में प्रताप सिंह की सेना ने गिलगित की हुंजा वैली, नागर और यासीन वैली को भी अपने राज्य में मिला लिया।

अब प्रताप के राज्य की सीमाएं उत्तर में रूस तक मिलने लगी थी। हालांकि अंग्रेज इस दौरान प्रताप सिंह की सत्ता को चुनौती की लगातार कोशिश करते रहे। 


लेकिन तमाम साजिशों के बावजूद भी महाराजा प्रताप सिंह डोगरा राजवंश में सबसे ज्यादा काल, 40 सालों तक सत्ता करने में कामयाब रहे अपने कार्यकाल के दौरान प्रताप सिंह ने ढेरों सामाजिक, आर्थिक औऱ ढांचागत विकास कार्य करवाये जिनकी झलक आज भी जम्मू कश्मीर में देखने को मिलती है।

1. प्रताप सिंह की मदद से पहले श्रीनगर में एनी बेसेंट ने द हिंदू कॉलेज की स्थापना की जिसको 1905 में प्रताप की सरकार ने टेक - ऑवर कर लिया बाद में इसी कॉलेज का नाम श्री प्रताप सिंह कॉलेज पड़ा।

2. इसके अलावा जम्मू में भी महाराजा ने प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज की स्थापना की बाद में जिसका नाम जीएम साइंस कॉलेज रखा गया।

3. श्रीनगर में ही अमर सिंह के नाम पर एक टेक्निकल इंस्टीट्यूट की भी स्थापना महाराजा ने की थी।

4. महाराजा प्रताप सिंह ने श्रीनगर और जम्मू दोनों शहरों में सरकारी अस्पताल बनवाये ताकि हेल्थ के मामले में जम्मू कश्मीर आत्मनिर्भर बन सके।

5. वो महाराजा प्रताप सिंह ही थे, जिन्होंने जम्मू और श्रीनगर दोनों शहरों में फिल्टर पानी के सप्लाई की व्यवस्था चालू करवाई।

6. श्रीनगर में मॉडल एग्रीकल्चरल फार्म शालीमार बाग को भी महाराजा प्रताप सिंह ने ही बनवाया था।

यातायात को सुधारने के लिए प्रताप सिंह ने जम्मू से सियालकोट तक रेल लाइन बिछवाई और रेलवे सर्विस शुरू की 2 बड़े ट्रंक रोड़ बनवाये, जिसमें से एक 132 मील लंबा झेलम वैली रोड़ था, जोकि कश्मीर वैली को कोहाला से जोड़ता था, दूसरा 203 मील लंबा बनिहाल कार्ट रोड़, जोकि कश्मीर वैली को जम्मू से जोड़ता है।

बिजली के लिए राज्य को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मोहारा पावर प्रोजेक्ट को शुरू करवाया श्रीनगर और जम्मू में म्यूनिसिपल प्रशासन की व्यवस्था शुरू करवाई जिसका काम सैनिटेशन और बाकी लोकल शहरों के विकास कार्यों को देखने का था। 

नदियों की सफाई से लेकर पुनर्उद्धार का काम भी महाराजा प्रताप सिंह ने करवाया सूखे के दौरान झेलम में पानी बना रहे इसके लिए छाताबल डैम का निर्माण करवाया महाराजा हरि सिंह 1907 में डोगरा कोर्ट में पर्शियन लैंग्वेज के स्थान पर उर्दू को शामिल किया।

श्रीनगर के कईं मुस्लिस शैक्षणिक संस्थानों के लिए महाराजा प्रताप सिंह ने भारी आर्थिक मदद की श्रीनगर के इस्लामिया हाई स्कूल को 3 हजार रूपये प्रति माह आर्थिक सहायता दी, अनेकों मुस्लिम स्कूलों को सरकारी मान्यता से लेकर मुस्लिम छात्रों को स्कॉलरशिप तक की व्यवस्था करवाई, 3200 रूपये जरूरतमंद मुस्लिम छात्रों की सहायता के लिए प्रति वर्ष मुहैया करवाये मुस्लिम स्कूलों में टीचर्स की व्यवस्था करवाई इसके लिए भी आर्थिक सहायता की।

महाराजा प्रताप के राजवंश में पारिवारिक साजिश और भतीजे हरि सिंह को उत्तराधिकारी बनाने की कहानी

प्रताप सिंह के कोई संतान नहीं थी प्रताप सिंह के राजगद्दी पर बैठने के दस साल बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह के घर हरि सिंह का जन्म हुआ कुल मिलाकर 1895 में गुलाब सिंह के परिवार में केवल तीन प्राणी जीवित थे प्रताप सिंह, जो रियासत के महाराजा थे उनके भाई अमर सिंह, जो राजा थे और हरि सिंह, जिनकी उम्र केवल कुछ दिनों की थी और वे ही इस राजवंश के अकेले वारिस थे।

हरि सिंह के जन्म पर सारी रियासत में खुशियाँ मनाई गईं उस दिन सभी महलों में और पूरे जम्मू नगर में दीपमालिका की गई पूरे राज्य में सभी मजहबों और जातियों के लोग खुशियों से झूम रहे थे, उन दिनों देश की रियासतों में राजपरिवार के घर राजकुमार का जन्म लेना आम जनता के लिए खुशियाँ मनाने का अवसर माना जाता था। 

मछलियाँ पकड़ने, शिकार खेलने और किसी भी प्रकार की जीव-हत्या पर कुछ दिनों के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया मंदिरों-मसजिदों को दान दिया गया विद्यालयों में मिठाई बाँटी गई, कैदियों की सजा मुआफ कर दी गई और गरीबों में खैरात बाँटी गई।

उनके पिता राजा अमर सिंह की अपने भाई महाराजा प्रताप सिंह से नहीं बनती थी, अंग्रेजों ने महाराजा प्रताप सिंह से सभी अधिकार छीन लिये और उसके स्थान पर जिस परिषद् का गठन किया गया था, उसके मुखिया भी हरि सिंह के पिता अमर सिंह ही बनाए गए थे।

जब हरि सिंह अभी चौदह साल के ही थे, तभी उनके पिता अमर सिंह की 1909 में मृत्यु हो गई थी, इस प्रकार वंश परंपरा में केवल हरि सिंह ही बचे थे, महाराजा प्रताप सिंह हरि सिंह से बहुत प्यार करते थे, लेकिन उनकी पत्नी महारानी चडक हरि सिंह के प्रति बहुत ही शत्रुतापूर्ण रवैया रखती थी। 

महाराजा हरि सिंह के ही शब्दों में, "वह मुझसे बहत घृणा करती थी और यदि उसका बस चलता तो वह मुझे मरवा ही देती, उसकी एक ही इच्छा रहती थी कि मैं किसी प्रकार भी उसके पति की राजगद्दी का उत्तराधिकारी न बन पाऊँ, इसलिए वह सदा महाराजा प्रताप सिंह के मन में मेरे प्रति जहर भरती रहती थी।

वह हर रोज कोई-न-कोई नई चाल निकालती थी, ताकि मैं गद्दी पर न बैठ उसने पुंछ के राजा, जो जम्मू राज के अधीनस्थ ही था, के बेटे को गोद ले लिया ताऊजी उसकी इन सब चालों को जानते थे, लेकिन उसका ताऊजी पर ऐसा नियंत्रण था कि वे उसके सामने विवश थे और उसका सामना नहीं कर सकते थे। 

वे किसी भी की पर उसे नाराज नहीं कर सकते थे, वे उसके कहने पर दिन को रात और रात को दिन कहते थे, महाराज प्रताप सिंह जानते थे, कि महारानी मेरे बहुत खिलाफ थी, लेकिन इस पर चुप ही रहते थे।

महारानी चडक प्रयास करती रहती थी, कि महाराजा सार्वजनिक रूप से दत्तक पुत्र के पक्ष में व्यवहार करें, लेकिन उन्होंने इसके बारे में कभी एक शब्द तक नहीं कहा चडक, रियासत के दीवान को भी मेरे खिलाफ गुमनाम पत्र लिखाती रहती थीं “वह ब्रिटिश रेजीडेंट को भी उपहार भेजती रहती थी।

ताकि उससे अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित करवाने में सहायता ले सके "वह दिल से तो मेरी मौत ही देखना चाहती थी, इसके लिए वह कोई भी घटिया से घटिया तरकीब अपना सकती थी, यदि मेरी मौत हो जाती तो उसकी इच्छा पूर्ति के रास्ते की बाधा दूर हो जाती।

महाराजा के एक मंत्री शोभा सिंह मेरे शुभचिंतक थे, वे निरंतर मुझे सावधान करते रहते थे, कि मैं महारानी के हाथ से लेकर कोई भी चीज न खाऊँ, वह तो मुझे यहाँ तक आगाह करते थे, कि मैं अपने महल में भी कोई चीज खाने से पहले, किसी और को खिलाकर जाँच करता रहूं हूँ कि कहीं उसमें जहर तो नहीं मिला हुआ।

इन्हीं षड्यंत्रों के कारण मैं ज्यादातर राज्य से बाहर ही रहना चाहता था परिवार में इस कलह और षड्यंत्रों के कारण वातावरण कैसा रहा होगा, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है, इन्हीं षड्यंत्रों के चलते हरि सिंह की पत्नी को जहर देकर मार दिया गया था और उन्हें अपना जीवन हर पल हर क्षण खतरे में लगता था।
 
राजवंश परंपरा की चिंता

लेकिन राजपरिवार निस्संतान था, इसको लेकर चिंता तो राजवंश में थी ही महाराजा प्रताप सिंह बुढे हो रहे थे और वंश में औलाद नहीं थी, उधर उनके भतीजे हरि सिंह ने बिल्लौरन की मौत के बाद ही सोच लिया था, कि अब किसी और से शादी नहीं करूगा।

लेकिन इस समय सबसे बड़ा सवाल किसी भी तरह वंश परंपरा को चलाए रखने का था महारानी चडक ने एक रास्ता और निकाल लिया था दत्तक पुत्र ले लेने का, लेकिन महाराजा समेत सभी दरबारी जानते थे, कि इसके पीछे वंश परंपरा को चलाए रखने की इतनी चिंता नहीं है।

जितनी हरि सिंह को भविष्य में राज सिंहासन से महरूम कर देने की इसलिए हरि सिंह पर शादी कर लेने के लिए सभी ओर से दबाव पड़ रहा था अंततः हरि सिंह ने तीसरी शादी सौराष्ट्र की रियासत धर्मकोट के महाराजा की बेटी से 30 अप्रैल, 1923 को की इस शादी के लिए उन पर महाराजा प्रताप सिंह ने दबाव डाला था। 

ताकि पुत्र प्राप्ति से वंश परंपरा चलती रहे ''17 नई रानी महारानी धनवंत कुँवेरी बाईजी साहिबा के नाम से जानी गई, अभी तक रियासत के राजवंश की जितनी शादियाँ हुई थीं, वह धनाढ्य भूपतियों के परिवारों में हुई थीं यह पहली शादी थी। 

जो किसी राजवंश की लड़की से हो रही थी इस शादी में धर्मकोट नरेश ने इतना दहेज दिया कि जम्मू स्तब्ध रह गया महारानी के साथ ही उनके नौकर - चाकर इत्यादि दहेज में आए।

इसलिए उनको वेतन भी धर्मकोट से ही मिलता था '' महारानी दयाल, निश्छल और दैवी गुणोंवाली थीं ''18 लेकिन दुर्भाग्य से नई रानी से महाराजा का मन नहीं मिल पाया ''जब हरि सिंह की यह तीसरी शादी हुई थी, तो वे राजकुमार थे और उनकी पत्नी राजकुमारी, लेकिन राजगद्दी मिलने पर, जब हरि सिंह महाराजा हो गए तो उनकी पत्नी भी महारानी बन गईं।

लेकिन महाराजा का नई रानी से मन नहीं मिल पाया महाराजा किसी उत्सव या किसी अन्य विशेष अवसर पर उससे मिलने राजमहल में जाते थे, उन दिनों राजवंशों में परंपरा थी कि जब किसी राजकुमारी की शादी हो जाती थी, तो उसकी अर्थी ही वहाँ से निकलती थी धर्मकोट महारानी सारा समय मंडी मुबारक में ही रहीं।

कभी कभार वह कार में बाहर घूमने के लिए निकलती थीं, वह आधा साल जम्मू और आधा कश्मीर में रहती थीं, ''19 हरि सिंह के ही शब्दों में, न मुझे उसकी भाषा समझ में आती थी और न ही उसे मेरी जब भी वह मिलती थी तो अपनी भाषा में केवल एक बात ही कहती थी कि मैं आपके सिर की मालिश करती हूँ ''20 लेकिन धर्मकोट महारानी से भी महाराजा को कोई संतान प्राप्त नहीं हुई।

कैप्टन दीवान सिंह के ही शब्दों में, वह शुरू से ही बीमार रहती थी वह संतान प्राप्ति के लिए भी अक्षम थी हरि सिंह के सिवा वह किसी के भी सामने नहीं आती थी, यहाँ तक कि जब वह कार में भी बैठती थी, तो परदे किए जाते थे ''21 धर्मपुर महारानी ने हरि सिंह को कोई संतान चाहे न दी हो।

लेकिन इस शादी के दो साल के भीतर ही उन्हें राज गद्दी अवश्य मिल गई इस राजगद्दी के रास्ते में भी उनकी ताई महारानी चडक ने अनेक रुकावटें खड़ी कर दी थीं।

प्रताप सिंह का देहांत

महाराजा प्रताप सिंह के अंतिम दिनों में ही महारानी चडक ने अपना ताना - बाना बुनना शरू कर दिया था कि हरि सिंह उत्तराधिकारी न बन सके, लेकिन प्रताप सिंह की अपनी कोई औलाद नहीं थी, इसलिए स्वाभाविक उत्तराधिकारी राजा हरि सिंह ही बन सकते थे।

लेकिन प्रताप सिंह ने परोक्ष रूप से उन्हें इस काम के लिए प्रशिक्षित भी किया था, लेकिन महारानी चडक ने इसकी काट के लिए पुंछ के राजा के बेटे जगत देव सिंह को गोद ले लिया था चडक की योजना थी कि प्रताप सिंह अपनी मौत से पहले उस दत्तक पत्र का राजतिलक कर दें।

यद्यपि प्रताप सिंह महारानी चडक के आगे बोल पाने की हिम्मत तो नहीं रखते थे, लेकिन वे किसी भी हालत में पुंछ के राजा के इस बेटे को अपना उत्तराधिकारी बनाने को तैयार नहीं थे, पर महारानी चडक ने दरबार में अपने आदमी भर रखे थे प्रताप सिंह बिस्तर पर थे आगे की कहानी मलिका पुखराज के ही शब्दों में…

जब महाराजा प्रताप सिंह मरणासन्न थे, उस समय हरि सिंह गुलमर्ग में थे उन्हें जान-बूझकर प्रताप सिंह के स्वास्थ्य के बारे में कोई सूचना नहीं दी जा रही थी, अपने अंतिम दिनों में प्रताप सिंह (महारानी चडक के षड्यंत्रों को लेकर काफी चिंतित थे उन्होंने सभी को कह रखा था कि हरि सिंह को तुरंत बुलाया जाए।

लेकिन महारानी ने महाराजा के आस - पास के सभी लोगों को ईनाम - इकराम का लालच देकर अपने पक्ष में कर रखा था इसलिए ऐसे सभी व्यक्ति महाराजा प्रताप सिंह को तो ये कहते रहते थे, कि हरि सिंह रास्ते में हैं और किसी क्षण भी पहुँच सकते हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी हरि सिंह को प्रताप सिंह का संदेश नहीं भिजवाया था।

 यदि महारानी चडक अपने षड्यंत्रों में कामयाब हो जाती तो प्रताप सिंह के बाद उत्तराधिकारी को लेकर निश्चय ही एक विवाद खड़ा हो जाता तब मामला निर्णय के लिए इंग्लैंड पहुँच जाता महारानी चडक के नियंत्रण में पूरे हालात थे।

इसलिए विवाद में वह यह तर्क दे देती कि महाराजा प्रताप सिंह की अंतिम इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए अंतिम इच्छा क्या थी, यह बतानेवाली भी महारानी चडक ही थी महाराजा के आसपास के लोग तो पहले ही महारानी से मिले हुए थे, ऐसी स्थिति में यह संभव था कि वह ब्रिटिश अधिकारियों को घूस देकर अपने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नियुक्त करवाने में सफल हो जाती।

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लेकिन महाराजा के एक मंत्री शोभा सिंह ने प्रयास किया कि महारानी अपनी चालों में सफल न हों उन्होंने अपनी कार देकर अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को गुलमर्ग से हरि सिंह को लाने भेजा इस प्रकार प्रताप सिंह की मृत्यु से पहले हरि सिंह उनसे मिलने में कामयाब हो गए और महाराजा ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।

इक्कीस तोपों की सलामी दी गई सब जगह खबर फैल गई की मरने से पहले महाराजा ने अपने भतीजे के माथे पर तिलक लगा दिया था। शोभा सिंह के इन प्रयासों में जनक सिंह और करतार सिंह ने भी उनका साथ दिया था।

🙏🏻जय श्री राम।🙏🏻
🙏🏻जय राजपूताना।🙏🏻

रविवार, 6 जून 2021

कौन है राजपूत…!!?

1. गजनवी तुर्कों के खून से अजमेर शहर को सजा देने वाला पृथ्वीराज चौहान का दादा अर्नोराज चौहान ( 1133 - 55 ) राजपूत।

2. अपने वक्त की सुपर पावर उम्मयद खिलाफत को टक्कर देने वाला बप्पा रावल ( 728 - 753 ) राजपूत।

3. अपने वक्त की सुपर पावर अबु खिलाफत को टक्कर देने वाला मिहिरभोज प्रतिहार ( 836 - 86 ) राजपूत।

4. जिन प्रचंड तुर्कों ने मंगोलों को टक्कर दी उन्हीं प्रचंड तुर्कों को बार बार हराने वाला पृथ्वीराज चौहान का परपोता वाघबाता चौहान ( 1226 - 56 ) राजपूत।

5. दुनिया के तारीख के सबसे ताकतवर और जालिम शासन करने वाला तैमूर लंग को सबसे बड़ी टक्कर देने वाला और कश्मीर से लेकर मुल्तान तक ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से लेकर दिल्ली तक हुकूमत करने वाला राजा जसरथ खोखर ( 1422 - 42 ) राजपूत।

6. शाहजहां की 31000 की मुगलों की फौज को सिर्फ एक हजार राजपूतों से टक्कर देने वाली रानी कर्णावती घरवाली ( कटोच राजकुमारी ) ( 1631 - 41 ) राजपूत।

7. मोहम्मद बिन तुगलक की एक लाख तुर्को की फौज को सिर्फ एक हजार राजपूतों की फौज के साथ टक्कर देने वाला पृथ्वी चंद कटोच ( 1330 - 45 ) राजपूत।

8. ख़ैबर पख़्तूनख़्वा से पार जाकर काबुल कंधार पर हुकूमत करने वाला राजा मान सिंह कछवाहा ( 1589 - 1614 ) राजपूत।

9. अपने वक्त की सुपर पावर श्वेत हूण को हिंदुस्तान से बाहर निकाल फेंकने वाला राजा यशोधर्मन कलचुरी ( 515 - 45 ) राजपूत।

10. अपने वक्त की सुपर पावर अलेक्जेंडर द ग्रेट के हमले को नाकाम बनाने वाला राजा पोरस कटोच ( 327 BC - 321 BC ) राजपूत।

11. अपने वक्त की सुपर पावर सासानी साम्राज्य के शाह खुसरो परवेज के हिंदुस्तान पर हमले को रोकने वाला राय सिहारास ( 585 - 627 ) राजपूत।

12. शहाबुद्दीन गोरी को सर झुका कर माफी मांगने पर मजबूर करने वाला छोटा सा बच्चा मूलराज सोलंकी ( 1175 - 78 ) राजपूत।

13. पूरे आर्यव्रत से गजनवी तुर्को की ताकत को खत्म करने वाला विग्रहराज चौहान चतुर्थ ( 1155 - 64 ) राजपूत।

14. एशिया के सबसे ताकतवर शासन करने वाला औरंगजेब को एक के बाद एक लगातार नौ बार टक्कर देने वाला छत्रसाल बुंदेला ( 1671 - 1731 ) राजपूत।

15. मुसलमान तनिक दारो की नजर में हिंदुस्तान के तारीख का सबसे ताकतवर राजा कहलाने वाला राव मालदेव राठौर ( 1532 - 62 ) राजपूत।

16. गिलगित - बाल्टिस्तान लेह लद्दाख हिमालय अक्साई चीन और वेस्टर्न तिब्बत जैसे खतरनाक ठंडे पहाड़ी इलाकों को जीतने वाला जोरावर सिंह कहलौरिया ( 1822 - 41 ) राजपूत।

17. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी दीवार कुंभलगढ़ बनाने वाले राणा कुंभा ( 1433 - 1468 ) राजपूत।

18. दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा किला मेहरानगढ़ बनाने वाले राव जोधा ( 1438 - 1489 ) राजपूत।

19. नींव के बिना दुनिया की सबसे बड़ी इमारत हवा महल बनाने वाले सिवाई प्रताप सिंह ( 1778 - 1803 ) राजपूत।

20. दुनिया में सबसे ज्यादा लंबे समय तक हुकूमत करने वाला कांगड़ा का कटोच खानदान राजपूत।

21. दुनिया में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर मौजूद स्कार्दू किला जीतने वाले जोरावर सिंह कहलौरिया ( 1784 - 1841 ) राजपूत।

22. दुनिया का सबसे बड़ा मकली नेक्रोपोलिस बनाने वाला सिंध का सम्मा साम्राज्य ( 1336 - 1524 ) राजपूत।

23. दुनिया के तारीख के दूसरे सबसे खतरनाक जंजू महमूद गजनबी को टक्कर देने वाले विद्याधर चंदेल ( 1002 - 1035 ) राजपूत।

24. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जंग विश्वयुद्ध प्रथम में तुर्को और जर्मनों को टक्कर देने वाले दलपत सिंह शेखावत राजपूत।

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शुक्रवार, 4 जून 2021

महाराणा कुम्भा

महाराणा कुम्भा राजपूताने के ऐसे प्रतापी शासक थे,
जिनके युद्ध कौशल, विद्वता, कला एवं साहित्य प्रियता की गाथा मेवाड़ के चप्पे-चप्पे से उद्घोषित होती है।
महाराणा कुम्भा जी का जन्म 1403 ई.
में हुआ था। कुम्भा जी चित्तौड़ के महाराणा मोकल के पुत्र थे।


उनकी माता परमारवंशीय राजकुमारी सौभाग्य देवी थी। अपने पिता चित्तौड़ के महाराणा मोकल की हत्या के बाद कुम्भा जी 1433 ई. में मेवाड़ के राजसिंहासन पर आसीन हुए ,तब उनकी उम्र अत्यंत कम थी। कई समस्याएं सिर उठाए उसके सामने खड़ी थी। मेवाड़ में विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियाँ थी,

जिनका प्रभाव कुम्भा जी की विदेश नीति पर पड़ना स्वाभाविक था।
ऐसे समय में उनको प्रतिदिन युद्ध की प्रतिध्वनि गूंजती दिखाई दे रही थी।
उनके पिता के हत्यारे चाचा, मेरा (महाराणा खेता की उपपत्नी का पुत्र) व उनका समर्थक महपा पंवार स्वतंत्र थे और विद्रोह का झंडा खड़ा कर चुनौती दे रहे थे।
मेवाड़ दरबार भी सिसोदिया व राठौड़ दो गुटों में बंटा हुआ था।

कुम्भा जी के छोटे भाई खेमा की भी महत्वाकांक्षा मेवाड़ राज्य प्राप्त करने की थी और इनकी पूर्ति के लिए वह मांडू (मालवा) पहुँच कर वहाँ के सुल्तान की सहायता प्राप्त करने के प्रयास में लगे हुए थे।

दुर्ग बत्‍तीसी' के संयोजनकार-महाराणा कुंभा
दुर्ग या किले अथवा गढ किसी राज्‍य की बडी ताकत माने जाते थे। दुर्गों के स्‍वामी होने से राजा को दुर्गपति कहा जाता था, दुर्गनिवासिनी होने से ही शक्ति को भी दुर्गा कहा गया। दुर्ग बडी ताकत होते हैं, चाणक्‍य से लेकर मनु और राजनीतिक ग्रंथों में दुर्गों की महिमा में सैकडों श्‍लोक मिलते हैं।

महाराणा कुंभा या कुंभकर्ण (शिव के एक नाम पर ही यह नाम रखा गया, शिलालेखों में कुंभा का नाम कलशनृ‍पति भी मिलता है, काल 1433-68 ई.) के काल में लिखे गए अधिकांश वास्‍तु ग्रंथों में दुर्ग के निर्माण की विधि लिखी गई है। यह उस समय की आवश्‍यकता थी और उसके जीवनकाल में अमर टांकी चलने की मान्‍यता इसीलिए है कि तब शिल्‍पी और कारीगर दिन-रात काम में लगे हुए रहते थे।

यूं भी इतिहासकारों का मत है कि कुंभा ने अपने राज्‍य में 32 दुर्गों का निर्माण करवाया था। मगर, नाम सिर्फ दो-चार ही मिलते हैं। यथा- कुंभलगढ, अचलगढ, चित्‍तौडगढ और वसंतगढ।

सच ये है कि कुंभा के समय में मेवाड-राज्‍य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्‍तीसी की रचना की गई, अर्थात् राज्‍य की सीमा पर चारों ही ओर दुर्गों की रचना की जाए। यह कल्‍पना 'सिंहासन बत्‍तीसी' की तरह आई हो, यह कहा नहीं जा सकता मगर जैसे 32 दांत जीभ की सुरक्षा करते हैं, वैसे ही किसी राज्‍य की सुरक्षा के लिए दुर्ग-बत्‍तीसी को जरूरी समझा गया हो :
“श्रीमेदपाटं देशं रक्षति यो दुर्गमन्‍य देशांश्‍च। तस्‍य गुणानखिलानपि वक्‍तुं नालं चतुर्वदन:।। “
(एकलिंग माहात्‍म्‍य 54)

कुंभा के काल में दुर्गों के जो 32 कार्य हुए, वे निम्नांकित है-

**विस्‍तार कार्य –

1. इसके अंतर्गत चित्‍तौडगढ का कार्य प्रमुख है, जिसमें कुंभा ने न केवल प्रवेश का मार्ग बदला (पश्चिम से पूर्व किया) बल्कि नवीन रथ्‍याओं या पोलों, द्वारों का कार्य करवाया और सुदृढ प्रकार, परिखा का निर्माण भी करवाया जो करीब 90 साल तक बना रहा।
2. इसी प्रकार मांडलगढ को विस्‍तार दिया गया।
3. वसंतगढ (आबू) को उत्‍तर से लेकर पूर्व की ओर बढाया गया मगर चंद्रावती को तब छोड दिया गया।
4. अचलगढ (आबू) की कोट को किले के रूप में बढाया गया। 
5. और यही कार्य जालोर में भी हुआ।
6. इसी प्रकार आहोर (जालोर) में दुर्ग की रचना को बढाया गया जहां कि पुलस्‍त्‍य मुनि का आश्रम था।

*स्‍थापना कार्य-

7. अपनी रानी कुंभलदेवी के नाम पर कुंभलगढ की स्‍थापना की गई, यह नवीन राजधानी के रूप में कल्पित था, यहां से गोडवाड, मारवाड, मेरवाडा आदि पर नजर रखी जा सकती थी।
8. इसी प्रकार जावर में किला बनाया गया।
9. कोटडा में नवीन दुर्ग बनवाया।
10. पानरवा में भी नवीन किला निर्मित किया गया। झाडोल में नवीन दुर्ग बने।
यही नहीं, गोगुंदा के पास घाटे में निम्नलिखित स्थानों पर कोट बनवाए गए ताकि उधर से होने वाले हमलों को रोका जा सके-
11. सेनवाडा
12. बगडूंदा
13. देसूरी
14. घाणेराव
15. मुंडारा
16. आकोला में सूत्रधार केल्‍हा की देखरेख में उपयोगी भंडारण के लिए किला बनवाया गया।

पुनरुद्धार कार्य -

कुंभा के काल में निम्नांकित पुराने किलों भी का जीर्णोद्धार किया गया।
17. धनोप ।
18. बनेडा ।
19. गढबोर ।
20. सेवंत्री ।
21. कोट सोलंकियान ।
22. मिरघेरस या मृगेश्‍वर ।
23. राणकपुर के घाटे का कोट ।
24. इसी प्रकार उदावट के पास एक कोट का उद्धार हुआ।
25. केलवाडा में हमीरसर के पास कोट का जीर्णोद्धार किया।
26. आदिवासियों पर नियंत्रण के लिए देवलिया में कोटडी गिराकर नवीन किला बनवाया।
27. ऐसे ही गागरोन का पुनरुद्धार हुआ।
28. नागौर के किले को जलाकर नवीन बनाया गया।
29. एकलिंगजी मंदिर के लिए पिता महाराणा मोकल द्वारा प्रारंभ किए कार्य के तहत किला-परकोटा बनवाकर सुरक्षा दी गई। इस समय इस बस्‍ती का नाम 'काशिका' रखा गया जो वर्तमान में कैलाशपुरी है।

नवनिरूपण कार्य –

30. शत्रुओं को भ्रमित करने के लिहाज से चित्‍तौडगढ के पूर्व की पहाडी पर नकली किला बनाया गया।
31. ऐसी ही रचना कैलाशपुरी में त्रिकूट पर्वत के लिए की गई।
32. भैसरोडगढ किले को नवीन स्‍वरुप दिया गया।

कुंभा की यह दुर्ग -बत्‍तीसी आज तक अपनी अहमियत रखती है। पहली बार इन बत्‍तीस दुर्गों का जिक्र हुआ है...!!

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गुरुवार, 3 जून 2021

इतिहास धाकड़ जाति

धाकड़ जाति की उत्पत्ति के संबंध में परिपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी एवं साक्ष्यक उपलब्ध नहीं है। कुछ विचारों एवं लेखकों का मत है कि ‘धाकड़’ ठाकुर जाति की उपजाति है या क्षत्रिय वंशजों में से बने हुए एक समूह का नाम है। राजपुताना प्रांत बनने से पूर्व ‘धरकड़ ठाकुर’ एवं ‘’राजपूत ठाकुर’’ के समूह थे, बाद में ये दोनों समूह पृथक-पृथक जातियों में विभाजित हो गये। महाराजा बीसलदेव द्वारा संवत् 1140 के लगभग (महमूद गजनवी के अजमेर आक्रमण के बाद) समस्तज धौर, धवल, सामंती राजाओं आदि की आमसभा आयोजित की थी, जिसमें कृषक क्षत्रिय अधिक संख्या में उपस्थित थे , उस समय इस समूह का नाम बीसलदेव (विग्रह राज) द्वारा धरकर या धरकड़ रखा गया था आगे चलकर धरकड़ का अपभ्रंश धाकर-धाकड़ हो गया। श्री केसरी सिंह राठौर (धाकड़) बयाना (राज.) द्वारा सन्धि विच्छेद इस प्रकार किया गया है – धरकर – धरकट – धरकड़ – धाकर – धाकड़ धर – धरती, भूमि कट – काटना, जोतना अर्थात भूमि स्वाकमी (कृषक) भूमि को जोतने वाला। ‘’धाकड़’’ – रौब, अड़-अड़ना, हटी। शाब्दिक अर्थानुसार रौब, हठ एवं गर्व के साथ रहने वाला वयक्ति धाकड़ कहलाता है। अजयराज चौहान ने अजय मेरु (अजमेर) नगर की नींव डाली थी राजा बिसलदेव इन्ही के वंशज थे। पृथ्वीराज चौहान तृतीय (सम्वत् 1225 से 1248) की राज्य सभा में 30 धवल सामंत धरकड़ समूह के थे। उपरोक्त तथ्यों के साथ ही धाकड़ जाति की उत्पत्ति के संबंध में राव (भाट) की पोथियों में भी विस्तृंत वर्णन है। सोलिया (मालव) धाकड़ के राव श्री दुर्गाशंकर बिहारीलाल मुकाम बांगरोद जिला रतलाम से हस्तलिखित (पाण्डूेलिपी) पोथी के आधार पर जो जानकारी प्राप्त हुई है, इस प्रकार है-

अजमेर में राजा बिसलदेव चौहान का राज्य था, उस समय उस क्षेत्र में ब्राह्माणों का वर्चस्वर था तथा वे राजा से रूष्ठ थे। महाराजा ने ब्राह्मणों को मनाने के लिये विक्रम संवत 797 में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। अजमेर में आयोजित इस महायज्ञ में 84 न्यात के लगभग 10 लाख 56 हजार ब्राह्मण सम्मिलित हुए। यज्ञ कार्य सम्पन्नल होने पर दक्षिणा में ब्राह्मणों द्वारा राज्य की मांग की गई तथा राज्य न सौंपने पर श्रापित करने का कहा गया। राजा को असमंजस में देखकर मंत्री व सहायकों ने कुटिल चाल चली और समस्त ब्राह्मणों से निवेदन किया कि आप पहले सपरिवार भोजन कर लें फिर आपकी इच्छा पूर्ण की जावेगी। भोजन करते समय आकाशवाणी से ज्ञात हुआ कि भोजन में मांस मिला हुआ है। ब्राह्मणों के साथ धोखा हुआ है वो अपवित्र तथा तपक्षीण हो गये है। तत्क्षण आवेश में आकर लाखो ब्राह्मणों ने आत्म हत्या कर ली तथा धैर्यशील (बचे हुए) ब्राह्मण मिलकर श्री धरणीधंर ब्राह्मण देवता (ऋषि) के पास विचार-विमर्श करने पहूंचे। श्री धरणींधर जी ने कहा कि आप धर्म से विचलित हुए हो, सब एक साथ मिलकर (समूह में) राहो, धोखे के फलस्वरूप आज से आपकी जाति ‘धाकड़’ कहलायेगी। उस समय ब्राह्मणों ने अजमेर छोड़ने की प्रतिज्ञा की तथा आसपास के क्षेत्रों में बसने के लिये चले गये। शाखा विवरण – श्री राव के अनुसार धाकड़ की कुल सात शाखाएं है- 1. सौलिया धाकड़ 109 गौत्र 2. नागर धाकड़ 164 गौत्र 3. विसया धाकड़ 120 गौत्र 4. धाकड़ा 162 गौत्र 5. नागर चारिया (चार) 143 गौत्र 6. पल्लीवाल ननवाणा 187 गौत्र

बनिया धाकड़ 114 गौत्र योग 999 गौत्र उपरोक्त शाखाओं में से 2 शाखा ने अपनी पृथक पहचान स्थापित कर ली – 1. पल्लीवाल ननवाण – ब्राह्मण जाति से जुड़ गये और ‘ब्राह्मण पल्लीवाल ननवाणां’ कहलाये। 2. बनिया धाकड़ – इन्होंने जाति को उपनाम (गौत्र) के रूप में अपनाया और बनिया (वैश्य) समाज से जुड़ गये। गौत्र का नामकरण – जिस नाम या विशेषण से किसी वंश या समूह का परिचय प्राप्त होता है वह शब्द ‘गौत्र’ कहलाता है। गौत्र – रचना, पितृ पुरूष, कुलगुरू, ऋषि, व्यवसाय-विशेष, सामाजिक स्थिति, आर्थिक सम्पन्नता एवं स्थान विशेष में निवास आदि से होती है। सौलिया धाकड़ में गौत्र एवं शाखा नामकरण ऋषि अनुसार हुआ है यथा- श्री सोमेश्वर ऋषि के साथ जिन ब्राह्मणों ने भोजन किया वे ‘सौलिया’ हुए। श्री नरदेव ऋषि से ‘नागर’, श्री धरणींधर ऋषि से ‘कीरार’ तथा श्री वेशीश्वर ऋषि के साथ पल्ली में आटा लेने वाले ‘पल्लीवाल’ कहलाये। कुलदेवी – माँ अन्नपूर्णा को कुलदेवी माना गया है। ‘सोलिया’ का सविस्तार विवरण देने के पूर्व ‘नागर चार (चारिया) की पोथी जो प्राचीन डिंगर लिपि में लिपिबद्ध है, के तथ्यों का उल्लेख करना चाहूंगा। नागर चार की पोथी का विवरण – चौहानों की 24 शाखाओं में से एक शाखा दाईमा चौहान ने राजा धरणीधर हुए उन्होने शस्त्र छोड़कर (राज कार्य छोड़कर) कृषि कार्य प्रारम्भ किया। श्री धरणीधर से ही धाकड़ समाज की नामकरण हुआ। राजा धरणीधर के चार पुत्र थे 1. शारपाल, 2. वीरपाल, 3. विशुपाल, 4. बावनिया। जिनके उत्तरोत्तर वंश से चार शाखाएं हुई - 1. शारपाल – सौलिया मेवाड़ा धाकड़ 2. वीर पाल – नागर धाकड़ (नागर चार) 3. विशुपाल – मालवी धाकड़ 4. बावनिया – पुरवीया धाकड़ (किरार) गौ्त्र विवरण – चार शाखाओं की कुल 444 गौत्र है नागर की 144 गौत्र क्षत्रिय राजपूत कुलों के नाम से हैं। ऐतिहासि‍क तथ्यों एवं पोथियों के विलेखों से इतना तो निर्विवाद है कि धाकड़ जाति की उत्पत्ति स्थाान राजस्थांन का मेवाड़ क्षेत्र है। कृषि व्यवसाय को अपनाकर वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसते रहे। विशेष का भी नामकरण पर प्रभाव पड़ा जैसे – जो समूह नागर चाल – बुंदी की सीमा व नागौर में जाकर बसे वे ‘नागर’ कहलाये। मालवा में बसे ‘मालवी’ एवं पूर्व-उत्तगरांचल में जाकर बसे वे ‘किरार’ (किराड़) कहलाये। इस तरह समाज के पूर्वजों, कुल ऋषियों एवं स्थान के अनुसार गौत्र एवं शाखाओं का नामकरण होता रहा। प्रथम मत सोलिया धाकड़ के अनुसार धाकड़ समाज की उत्प त्ति ब्राह्मण वर्ण से मानी गई है जबकि द्वितीय मतानुसार नागर चार (नागर धाकड़) में क्षत्रीय वर्ण से मानी गई है। अगर अन्ये जातियों की उत्प त्ति पर दृष्टिपात करें तो पोरवाल समाज की उत्पंत्ति क्षत्रीय समाज से हुई है, तथापि पोरवाल वेश्यों के गौत्र ऋषि (सनक, भारद्वाज, पाराशर आदि) के नाम पर है। वहीं मारवाड़ी बीसा (प्राग्वाौट) पोरवाल (पोरवाड़) की सभी शाखाओं के कुल गौत्र क्षत्रीय राजपूत कुलों के हैं। अत: सामान्य बुद्धि से तर्क-वितर्क करना अनुचित ही होगा।

किरार एक चिंतन(किरार-धाकड-नागर-मालव)

(समाज को अपने गौरवशाली इतिहास से अवगत कराने का एक प्रयास है।)

हमारे पूर्वजों ने हमेशा धर्म को सत्ता और धन से आगे रखा है। क्योकि धन और सत्ता चले जाये तो फिर से प्राप्त किये जा सकते है परन्तु धर्म नष्ट नही होना चाहिए अत धरम की रक्षा के लिए जितना कष्ट किरार (किरार-धाकड-नागर-मालव)जाती ने सहन किये वह अन्य ने नही किये। 
किरार क्षत्रिय सदेव से निर्भीक रहे है कभी भी यवनों से समझोता नही किया और न ही उनके दास बने। 
१) ...जब यवनों ने मेवाड क्षेत्र पर आक्रमण किया तो राजपूतों की और से किरार उदय सिंह,चंद्रमान चोहान,मानिकचंद चोहान के साथ बड़ी संख्या में किरार क्षेत्रीय संयुक्त रूप से युद्ध में शामिल हुए। राजपूत वीर अपनी शान व् निर्भीकता से लडे उन्होंने इस युद्ध में यवनों की ऐसी दुर्गति की उनकी लाशो की खाइयाँ भर दी। उदय सिंह किरार ने कुशल नेतृत्व का परिचय दिया।

२)...ऐसे ही एक किरार सेनानी रघुपति सिंह थे जिन्होंने चित्तोडगढ की रक्षा में राणा जी की सेना का नेतृत्व किया ओर अकबर की सेना से अजय दुर्ग के आठो द्वार बंद कर आक्रमण किया।इसमें इन्होने अपने पुत्र की भी चिंता नही की जो जीवन त्याग रहा था ये अपने कर्तव्य पर अडिग रहे।
३)...इसी प्रकार जस्सू किरार का नाम इतिहास में गर्व के साथ लिया जाता है। जब प्रतिष्ठित खलीफा अल्वादीह(प्रथम) की सेनाओ ने भारत पर आक्रमण किया तो जस्सू किरार ने अपने सिन्ध की राजधानी अरोर में उसका सामना किया और उसे मार भगाया। जस्सू किरार भारत विख्यात राजा सालिवाहन के प्रपुत्र थे।
उस समय एक मुस्लिम सुभचिन्तक तानासाह भी थे इन्होने नर्मदा की घाटी में बसे हुए किरार जाति को रास्ता दिखाया ये एक सच्चे सुभचिन्तक रहे और इसी कारण शिवाजी के विश्वासपात्र माने जाते थे।
४)...जस्सू किरार की पुत्री ताराबाई जो शिवाजी महाराज के द्वितिय पुत्र राजाराम की विधवा थी जिन्होंने मराठों की खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त करने हेतु मुगलों सी युद्ध किया और उनके छक्के छुड़ा दिये।
इससे ये पता चलता है की किरार नवयुवक ही नही वल्कि उनकी बलाओ में भी इतना साहस था कि औरंगजेब जेसे अत्याचारी बादशाह को उनके डर से तम्बू में मुह छुपाना पड़ता था।
यदि किरार राज्य की दृष्टि से देखो तो भारत ही नही नेपाल पर भी 374 वर्ष किरारो का राज्य रहा है। इसी प्रकार देखे तो कन्नोज के राज्य की सीमा दक्षिण तक फेली थी उसी समय राजा नरसिंह देव किरार ने अपने नाम पर नगर बसाया जिसका नाम नरशिंहपुर रखा ये 500 इश्वी का बताया जाता है। राजा नरसिंह देव किरार की दक्षिण की कई जनपदों पर राज्य रहा।आज भी नरसिंगपुर जनपद में किरार क्षत्रियो की संख्या अधिक है।
कहा जाता है किसी जाति या वर्ग को कमजोर बनाना हो तो उसको हीन भावना से ग्रसित कर दो ऐसा ही हमारे साथ हुआ। क्योंकि हमारे पूर्वज का इतहास गौरवशाली रहा है। हम शारीरिक रूप से बलवान,सच्चरित,निपुड,निर्भीक एवं अपने कार्यो में विकसित तेज़ क्षमता ,क्षमा,शौर्य ये देवीय गुण हमारे समाज का अंग रहे हैं। हमारे पूर्वज त्याग और बलिदान की मूर्ति थे इनको ध्यान में रखकर हमे आगे कार्य करना है। हमारा समाज कर्मनिष्ट,इमानदार,एवं कठोर परिश्रम द्वारा अर्जित फल का पक्षकार रहा है। और यही हमारी जमा पूंजी है।

(किरार दर्पण स्मारिका से )

किराड़ क्षत्रिय ,जय धारणीधर - जय धाकड़।

मथुरा नरेश महाराज सुरसेन के सुपुत्र महाराज वसुदेव हुए।महाराज वसुदेव की पत्नी रोहिणी ने बलराम एवम् 
 देवकी ने श्रीकृष्ण को जन्म दिया।
शेषनाग के अवतार श्रीलक्ष्मण के अवतार श्रीबलराम है।
आपने हल को कृषि यंत्र रूप मे व युद्ध मे शस्त्र के रूप मे उपयोग किया, इसीलिए आप हलधर कहलाए।
अपने कृषि कार्य को प्रमुखता दी व इसके विकास मे महत्वपूर्ण योगदान दिया। 
हमारा समाज भी खेतीहर समाज है भगवान हलधर धारणीधर श्री बलराम हमारे पूज्‍यनीय है धारणीधर भगवान का प्रसिद्ध मंदिर मान्डूकला (राजस्थान) मे सुंदर तालाब के किनारे शोभमान हैं।
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संक्षिप्त परिचय :-
 
धाकड पुराण के अनुसार ''धाकड़ क्षत्रिय'' समूह का उद्भव महाभारत काल में हुआ। ''धाकड क्षत्रिय'' समूह लगभग बारहवीं शताब्दी के बाद एक जाति के रूप में परिणित हुआ। ''धाकड '' ऐतिहासिक क्षत्रिय वंशजों में से बने हुयेएक समूह का नाम है, जिसका मूल पेशा कृषि है।

कालान्तर में यह जाति रूप में परिवर्तित हो गया। बहुत समय पहले की धाकड क्षत्रियों के विषय में यह कहावत सुनी जाती है- ''धाकड लाकड सायर सा, नर बारे नल वंश'' अर्थात् नर बर के राजा नल के वंशज धाकड सायर की लकडी के समान मजबूत थे। ''धाकड'' क्षत्रियों के विषय में एक अंग्रेज सेना नायक जेम्स मेड्रिड ने कहा था कि -''धाकड क्षत्री'' अफगानी घोड़ों की तरह मजबूत, कुशल तथा चतुर लडाकू हैं। आजकल ''धाकड'' शब्द का प्रयोग तेजतर्रार, वीरता और मजबूती का भाव प्रकट करने के लिए किया जाता है। जिससे जाहिर होता है कि किसी समय में धाकड क्षत्रियों का वैभव ऊंचा रहा है।

 कुछ धाकड क्षत्रिय वंशज पृथ्वीराज तृतीय की राजसभा में धवल, सामन्त रहे थे जिनकी वीरता एवं वैभव का अनुभव ''पृथ्वीराजरासो'' ग्रन्थ की इस पंक्ति के द्वारा होता है- ''धब्बरे धाबर धक्करेै रण बंकरै।'' ''धाकड क्षत्रिय'' देश में नागर, मालव, किराड तीन उपसमूहों के रूप में प्रायः राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में पाये जाते हैं। ''धाकड'' श्री धरणीधर भगवान (बलदाऊ) जिन्हैं हलधर कहा जाता है, को अपना ईष्टदेव मानते हैं। 

श्री धरणीधर भगवान का नागर चाल क्षेत्र के मांडकला गांव में तथा जिला झालावाड के सुगर गांव में भव्य मन्दिर है। ऐतिहासिक वर्णनों एवं प्रमाणों के अनुसार बारहवीं शताब्दी से पूर्व सभी क्षत्रिय वंश शाखाओं के वंशजों को ''क्षत्रिय'' शब्द का ही प्रयोग होता था। लगभग बारहवीं-तेरहवीं शताबदी से राजवंशी क्षत्रियों को राजपूत तथा कृषिकर्मी क्षत्रियों को धाकड़ कहा जाने लगा। अतः धाकड सभी क्षत्रिय वंश शाखाओं में से बने हुए एक समूह का नाम है, जिनका मूल पेशा कृषि था।

देशभर में धाकड जाति के लोग अधिकतर कृषि प्रधान ही मिलते हैं। पहले किसी की नौकरी करना धाकड जाति में घृणास्पद माना जाता था। ''उतम खेती , मध्यम व्यापार, कनिष्ठ चाकरी'' के कथनानुसार अब भी धाकड जाति में कर्मठ किसान पाये जाते हैं। वर्तमान में धाकड क्षत्रिय तीन उपसमूहों में विभकत हैं- नागर, मालव और किराड। इन उपसमूहों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध एवं रोटी बेटी व्यवहार होता है। धाकड जाति में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं है। धाकड जाति प्रायः राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में पाई जाती है।
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धाकड़ शब्द का शाब्दिक अर्थ :-

''धाकड '' शब्द धरखड या धरकट शब्द का अपभ्रंश है, जो समानार्थक हैं।
धरखड = धरती जोतने वाला समूह
धर =धरती (धरती जोतनेवाल ) कृषक
खड = जोतने वाला
कट =काटने वाला
धाकड क्षत्रिय = कृषक क्षत्रियों के समूह का नाम।
धर =धरती (धरती वाले )कृषक
कड = वाले
धाक + अड =धाकड
धाक् =रौब (रौबीला,हठीला)
अड= अड ना, हठी
धा =धाय (पालन करना )
कड = वाले अर्थात अन्न धन पैदाकर पालन करने वाले क्षत्री (कृषक क्षत्री)
''भाष्कर'' ग्रन्थ के अनुसार
धाकड =धरती जोतने वाला या धरती के कण बिखेरने वाला।
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             धाकड़ उत्पत्ति एवं उपसमूह

धाकड पुराण एवं पुस्तक वस्त्रभूषण के अनुसार
महाभारत काल में योगिराज श्रीकृष्ण जो मुकट व वंशीधर रहे थे दाउबलराम जो हलधारण करने के कारण हलधर कहलाये ने पुरूषार्थी कृषकों को संगठित किया और कृषि कार्य को करते हुए क्षात्रधर्म का पालन करने के लिऐ प्रेरित किया, वे क्षत्री ही ''धाकड क्षत्रिय'' कहलाये। 

बलदाउजी को धरणीधर भी कहते हैं यह शेषनाग अवतार थे। उपरोक्त की पुनरावृति वि० सं.११४० में अजमेर के राजा बीसल देव के समय में हुई । जो कृषक क्षत्रीयत्व को भूलकर के कृषि कार्य में लगे हुए थे, साथ ही युद्ध में क्षत्रीयों के वीरगति को प्राप्त हो जाने से संखया कम हो रही थी। 

उस समय बीसल देव को उसके सहयोगी मालवा नरेश उदयादित्य परमार ने एक युक्ति बतलाई। तद्नुसार उन्होनें उन कृषकों को जो मूलतः क्षत्रीय ही थे, संगठित किया और उनके वह स्वयं ही अधिनायक बने। उस समूह का नाम उन्होंने धरा को खड करने वाला अर्थात् भूमि को जोतने वाला ''धरखड'' क्षत्रीय रखा। जो कालान्तर में परिवर्तित होकर धाकड कहलाया।

नागर चाल जागा की पोथी के अनुसार
चौहानों की २४ शाखाओं में से एक शाखा दाईमा चौहान से राजा धरणीधर हुऐ, उन्होंने शस्त्र छोडकर (राजकार्य छोडकर )कृषि कार्य प्रारम्भ किया। श्री धरणीधर से ही ''धाकड'' नामकरण हुआ। राजा धरणीधर के चार पुत्र थे-' (१)शारपाल (२) वीरपाल (३) विशुपाल (४)वावनिया। जिनके उतरोतर वंश से चार शाखायें हुई :- १. शारपाल-सोलिया मेवाडा धाकड २. वीरपाल- नागर धाकड ३. विशुपाल-मालव धाकड ४. वावनिया-पुरवीया धाकड (किराड) कृषि व्यवसाय को अपनाकर वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर बस गये। स्थान (क्षेत्र) विशेष के आधार पर भी नामकरण पर प्रभाव पड़ा जैसे-नागर चाल बूंदी की सीमा व नागौर परगने में जाकर बसे वे नागर, मालवा में बसे वे मालव एवं पूर्वउतराचल में जाकर बसे वे किराड कहलाये।

 लटूर जागा, कैथून जिला कोटा के अनुसार राजा बीसलदेव जी ने गढ अजमेर में राज किया। दिल्ली में राज किया । बीसलदेवजी के तपोधन पुत्र हुआ। तपोधन के धरणीधर पुत्र हुआ। धरणीधर के अजमल जी पुत्र हुआ। अजमलजी की धर्मपत्नी पूरणमलजी की कान कंवरबाई की पढीपात की पुत्री। 

जिनका पुत्र-नागराज जी, कानाजी, माधौजी, नेनगजी हुआ। दूजी धर्मपत्नी कीवसी की केसरबाई पोखरणा ब्राह्मण की। बेटा-धारू जी हुआ। १- नागराज जी- अन्तरवेद की धरती, नागर चाल में बंटया जिससे नागर धाकड हुए। १४० गोत्र। २- कानाजी- पूरब की धरती में बंटया जिससे किराड धाकड हुए। 

किराड गोत्र ३६० ३- माधोजी-डीडवाना की धरती में बंटया जिससे मेसरी (महेद्गवरी)धाकड हुऐ। गोत्र १४४ ४- नेनगजी-मालवा देश में बंटया,जिससे नथफोडा धाकड हुऐ। गोत्र १४२ ५- धारूजी -मालवा देश में बंटया, जिससे जनेउ कतरा माली (मालव)धाकड हुए। गोत्र१०९ ''उक्तांकित जागा लेखों के अनुसार धाकड जाति चौहान बंशी होनी चाहिए, जबकि धाकड जाति में सभी क्षत्रिय वश पाये जाते है। 

जागाओं की लिखने की लिपि एक अलग ही प्रकार की होती है जिसे मैं अपने शब्दों में '' अद्गुाद्ध लेखन लिपि ही कहूंगा। इन जागाओं के लेखों में ''कही की ईट कही का रोडा, भानवती ने कुनवा जोडा'' वाली कहावत चरितार्थ होती हैं। जिसके कारण इनके लेख ऐतिहासिक तथ्यों से पूर्णतया मेल नहीं खाते हैं।'' 

अन्ततः उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि धाकड जाति क्षत्रीय वर्ण की है। ''धाकड'' कृषि कर्मी क्षत्रीयों के एक समूह का नाम है, जिसमें सभी क्षत्रीय वंश पाये जाते हैं। धाकड समूह का उदभव महाभारत काल में हुआ वि०सं० ११४० में अजमेर के राजा बीसलदेव धाकड (धरखड)समूह के अधिनायक बने। 

कालान्तर में यह समूह धाकड जाति के रूप में परिणित हो गया। अजमेर के राजा वीसलदेव के समय में भंयकर युद्धाग्नि या अकाल से पीडित होने के कारण अथवा यह कहिए किसी भी कारणवश धाकड क्षत्रिय अजमेर छोड़कर यत्र-तत्र बस गये। 

पृथक-पृथक क्षेत्रों या स्थानों पर बसने के कारण क्षेत्रों या स्थानों के नाम पर ही पृथक-पृथक उपसमूहों का नामकरण हुआ ।


मालवा जागाओं की पोथी के अनुसार :-

अजमेर के राजा वीसलदेव चौहान थे। उनके समय में ब्राह्मणों का बड़ा बर्चस्व था, वह राजा से रूष्ट थे। उन्होंने कर एवं लगान देना बन्द कर दिया। तब बीसलदेव ने ब्राह्मणों को वश में करने के लिए मंत्री की सलाह से एक यज्ञ का आयोजन किया यज्ञ में नो लाख छत्तीस हजार ब्राह्मणों को ब्रह्मभोज का आयोजन था। 

भोजन में मास मिलाया गया जिससे कि उनका ब्रह्मत्व नष्ट हो जावे। जब ब्राह्मणो को भोजनपरोस दिया गया तब भोजन करते समय आकाशवाणी द्वारा उनको मालूम हुआ कि भोजन में मास मिला हुआ है, ब्राह्मण उठ खडे हुऐ और क्रोधित होकर श्राप देने लगे कि-''हे राजा तेरा राज्य नष्ट हो जायेगा।'' 

श्राप देकर प्द्गचाताप करने लगे, कुछ ब्राह्मणों ने आत्महत्या भी कर ली शेष सब मिलकर धरणीधर ऋषि के पास विचार विमर्श करने पहुंचे। सारा वृतान्त ऋषि को सुनाया। ऋषि ने कहा कि तुम धर्म से विचलित हुऐ हो, तुम्हारा ब्रह्मत्व नष्ट हो चुका है। अतः अब तुम सब मिलकर एक साथ रहो तुमने धोखे से अभक्ष का भक्षण किया हैं। 

जिसके कारण आज से तुम्हारी जाति धाकड कहलायेगी। उस समय ब्राह्मणो ने अजमेर छोडने की प्रतिज्ञा की तथा स्वेच्छा से कृषि कार्य को अपना लिया। ''उपरोक्त लेखन से ऐसा प्रतीत होता है कि राजा बीसलदेव द्वारा किये गये यज्ञ आयोजन में सम्मलित होने वाले ब्राह्मण निराक्षत्री रह गये। जिन्होंने स्वेच्छा से कृषि कार्य को अपनाकर क्षात्रधर्म का पालन करनेलगें तथा अजमेर राज्य छोड कर यत्र तत्र बस गये।''
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उपसमूह नागर :-

अजमेर के राजा बीसलदेव के शासन काल में उत्तर पद्गिचम की तरफ खैबर के दर्रे से मुसलमानों के लगातार आक्रमण के कारण साथ ही भीषण अकाल पड़ने के कारण उसके राज्य में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। 

किसान तबाह हो गये, खेती बाडी नष्ट हो गयी, जनजीवन त्रस्त हो गया। फलस्वरूप वहां से अधिकाशं कृषक क्षत्रिय (धरखड-धाकड)पलायन कर सुविधानुसार बस गये। जो नागर चाल (उण्यिारा बूंदीकी सीमा ) और नागौर परगने में जाकर बसे थे, मूलतः ''नागर'' धाकड कहलाये। वर्तमान में जयपुर, अलवर, भरतपुर, करौली, आगरा, मथुरा जिलों में भी नागर धाकड रहते हैं।


मालव :-

मालव नाम की एक प्राचीन जाति थी। मालव जाति के लोगों ने आकर (पूर्वी मालवा), अवन्ति (पद्गिचमी मालवा),उज्जैन तथा उसके आस-पास के भागों पर अपना अधिकार जमाया तो उन्होंने अपना अधीन किये हुए इलाकों का सामूहिक नाम मालवा प्रदेश रखा।

प्रतापगढ, कोटा, झालावाड तथा कुछ हिस्सा टोंक का मालवा प्रदेश के अर्न्तगत ही था। मलवा पर परमार वंशी क्षत्रियों का भी राज्य रहा। वि.सं. १०२८ से १०५४ तक के समय में मालवा का परमार वंशी राजा ''मुंज'' रहा। उसके दरबार के पंडित हलायुद्ध ने पिंगल सूत्र विधि'' में मुंज को ''ब्रह्म क्षत्र'' कुल का कहा है। 

ब्रह्मक्षत्र शब्द का अर्थ है, जिसमें ब्रह्मत्व एवं क्षत्रत्व दोनों का गुण विद्यमान हों या जिनके पूर्वज ब्राह्मण से क्षत्रिय हो गये हों। अतः राजा मुंज के समय तक परमार वंद्गिायों को ब्रह्मक्षत्र कहा गया। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. दशरथ शर्मा ने बिजौलिया लेख के आधार पर चौहानों को ब्राह्मणों की सन्तान बतलाया है। 

कर्नल टांड ने चौहानों को विदेशी माना है। प्रतिहार वंशी क्षत्रियों को जब बौद्ध धम्र से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित कर (अग्नि साक्षी संस्कार कर ) लिया गया तो उनके मूल पुरूष को यज्ञप्रतिहार कहा गया। इसकी एक शाखा मालवा में जाकर रही थी। ''पृथ्वीराज राशो'' में परमार, चौहान, सौलंकी, प्रतिहार (परिहार )वंशों को अग्निवंशी लिखा है। 

अग्निवंश का तात्पर्य है कि इनके मूल पुरूष क्षत्रिय नहीं थे, जिससे उनको ''अग्नि साक्षी'' का संस्कार कर क्षत्रियों में मिला लिया। मालव धाकड अग्निवंद् गाी क्षत्रिय है। अजमेर के राजा वीसलदेव ने ब्राह्मणों को वश में करने के लिये एक यज्ञ किया था। उस यज्ञ में सम्मिलित होने वाले ब्राह्मणों (ब्रह्मक्षत्रों) को धोखे से भोजन में मांस खिला दिया गया। 

जिससे उनका ब्रह्मत्व नष्ट हो गया उनका ब्रह्मत्व नष्ट हो गया उनका ब्रह्मत्व नष्ट हो जाने पर जो अजमेर को छोडकर मालवा प्रदेश में आकर बस गये और कृषि कार्य करने लगे या यवनों के आक्रमण के कारण जो कृषि कर्मी क्षत्रिय मालवा में आकर बस गये तथा जो आरम्भ से ही मालवा प्रदेश के रहने वाले थे, कृषक क्षत्रीय मालवधाकड कहलाये। 

मुखयतः मालव धाकडों में अग्निवंशी क्षत्रिय हैं। इतिहासकारों ने परमार (ब्रह्ममक्षत्र)चौहान,सोलंकी प्रतिहार क्षत्रीय वंशोें को अग्निवंश में माना है मालव धाकडों को ''मेवाडा'' एवं ''सोलिया'' भी कहा जाता है। यह फर्क क्षेत्रीयतानुसार प्रतीत होता है।

किराड़ :-

जोधपुर राज्य के परगने मालानी में बाडमेर से १० मील उतरपद्गिचम में प्राचीनऐतिहासिक नगर किराडू, किरारकोट या किरारकूट (किराडू) कहा जाने वाला ध्वंशावद्गोष के रूप में स्थित है। यहां परमार शासकों के मन्दिरों के खंडहर हैं। 

मूलनगर वीरान हो चुका है। किराडू परमारवंशी क्षत्रीयों की राजधानी रही थी। किराडू का संस्थापक एवं प्रथम शासक तथा किराडू का परमार वंश का प्रथम ऐतिहासिक पुरूष सिन्धुराज वि०.सं०९५६ से ९८१ तक रहा। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार ९वीं सदी से लेकर १३ वीं सदी तक किराडू पर परमार,सोलंकी वंशी क्षत्रीयों का शासन रहा। 

यवन आक्रमण काल में यवनों का भारत में मुखयतः समृद्वि गूजर और मालवा प्रदेश की ओर जाने का मार्ग किराडू होकर ही था। अतः सबसे पहले यवनों का सामना किरार कोट (किराडू)को ही करना पडता था।

अतः (कि=करना, रार=लडाई कोट =किला)इस नगर का ''किरार कोट या किरार कूट'' नाम पडने का यही कारण है। किरार कोट या किरार कूट का रूपान्तर शब्द किरारू या किराडू कहलाया। किरारू का अर्थ है (कि=करना, रारू =लडाकू)अर्थात लडाई करने वाले। राजस्थानी भाषा में ''र'' का उच्चारण ''ड'' किया जाता है। जिसके कारण किरारू शब्द को किराडू कहा जाता हैं।

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