क्या राजपूत शब्द नवीन है ? इस इतिहास को बताने से पहले ही गुर्जर विवाद करेंगे की राजपूत शब्द तो नवीन है तो पहले यह स्पष्ठ करना जरूरी है की राजपूत शब्द नवीन नही बल्कि आदिकाल से है ।।
राजपूत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है प्राचीन भारत मे राजपुत्र शब्द का प्रयोग क्षत्रियों के लिए होता था ( ऐते रुक्मरथानाम राजपुत्रा महारथाः - महाभारत 7 -112-2 )
शासक वर्ग से सम्बंध होने के कारण क्षत्रिय कुमार राजकुमार , महाराजकुमार , राजपुत्र या महाराजपुत्र नाम से संबोधित होते थे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सौन्दरानंद ( अश्वघोष ) में कालिदास के मालविकाग्निमित्र में ओर हर्षचरित्र के कादम्बरी बाण में राजपूत शब्द का प्रयोग हुआ है ।
अब तो अभिलेखों में भी राजपुत्र शब्द ढूंढ निकाला गया है विक्रमं संवत 1287 के तेजपाल मंदिर अभिलेख में भालीभाड़ा प्रवर्ति ग्रामेषु संतिस्थमान श्रीप्रतिहारःवंशीय सर्वराज पुत्रेश्चय साफ साफ लिखा हुआ है ।।
इसके अलावा एपी●इंडिया● खण्ड 16 पेज संख्या 10 टिप्पणी 4 बहिखण्ड 20 पृष्ठ 135 टिप्पणी में राजपुत्र शब्द का उल्लेख हुआ है विक्रमसंवत १२८७ के हिंडोरिया जिला जिला दमोह अभिलेख में चंदेल हमीरवर्मा के सामन्त को महाराजपुत्र कहा गया है लेकिन विदेशी हेनसांग ने जब भारत पर किताब लिखी अपनी यात्रा का वर्णन लिखा तो राजपूतों को केवल क्षत्रिय कहा।
बस यही से मसाला मिल गया मूर्खो को उन्हे यह नही पता की हेनसांग तो कल की बकरी थी जबकि राजपूत शब्द तो तब से है जब से इस धरती का निर्माण हुआ है मनुमहाराज राजपूत इसलिए नही क्यो की वह किसी महाराज के पुत्र नही वह स्वयम्भू है लेकिन वर्ण तो उनका भी क्षत्रिय ही है।
अंग्रेज कर्नलजेम्सटॉड ने यह भसड़ फैलाई थी कि राजपूत शक ओर सीथियन के वंसज है ओर अंग्रेजो ओर अंग्रेजो की भारतीय औलादों ने इसे ही ब्रह्मसत्य मान लिया टॉड को यह कहने का मौका भी इसलिए मिला क्यो की परमारो का अग्निकुल का होना उस समय भी जगतविख्यात था इसी को आधार मानकर कर्नलटॉड ने राजपूतों को शक सीथियन कहा उसका मानना था कि शक सीथियन को शुद्ध करके अग्नि प्रतिज्ञा दिलवाकर उन्हें क्षत्रिय बनाया गया।
टॉड का कहना है कि अग्निकुल के राजपूतो की शक्ल सूरत पर्शियन राजाओ से मिलती जुलती है इसके अतिरिक्त दोनो जातियों में समानता भी है - जैसे अश्वपूजा, शस्त्रपूजा, अश्वमेघ, सुरापान के प्रति अनुराग , शकुन, अपशकुन विचार, अंधविश्वास, युद्ध मे काम आने वाले रथ, चारण प्रथा, समाज मे स्त्रियों का स्थान तथा युद्ध के नियम।
पार्थियन के यह सब गुण राजपूतों से मिलते है लेकिन इस बात का खंडन तो यही हो जाता है क्यो की राजपूतो में तो यह प्रथा बहुत प्राचीन है पार्थियन आदि का तो इतिहास ही 4000 साल से ज़्यादा पुराना नही बल्कि राजपूतों में तो ( जैसा कि महाभारत में भी राजपूत नाम आ चुका है ) महाभारत काल से ही यह सारी प्रथाएं प्रचलन में थी।
इससे तो यह स्पष्ठ होता है कि पार्थियन राज्य भी पहले क्षत्रिय के अधीन ही था लेकिन बाद में उन्होने अपना अलग पंथ चलाया ओर वे मल्लेछ हो गए असल सत्य को दबाने के लिए शातिर खोपड़ी के टॉड ने राजपूतो को ही शक सीथियन घोषित कर दिया और यही ब्रह्मसत्य है सूर्यपूजा, अश्वपूजा, यह तो वैदिक काल से चला आ रहा है अश्वमेघ यज्ञ तो आज से 10 लाख वर्ष पूर्व श्रीराम के काल मे ही प्रचलन में था राजपूतों के गोत्र ओर प्रवर भी आज भी वही है जो वेदिकयुग में थे नारायण ।।
अब बात आती है बम्बई गेजेटियर् की -- जैसे महाराजपुत्र होता है उसी तरह अंग्रेजो में महामूर्ख होता है इसमें केम्पबेल ओर जैक्सन नाम के दो महामूर्ख लेखकों ने महामूर्ख प्रतियोगिता में बाजी मार ली ओर यही पहले मूर्ख थे जिन्होने राजपूतो की उतपति गुर्जर( गुजर) जाति से बताई इन दोनों शब्दो की ध्वनि समान है इस कारण उन्होने बिना सोचे समझे इतिहास को अपमानित किया कलम की स्याही बेकार की ।।
रही अग्निकुल की बात - तो अग्नि सूर्य और चन्द्र के बीच का प्रतीक है अग्नि सूर्य और चन्द्र के बीच मध्यममार्ग है सूर्य का तेज तो ऐसा है कि उनके निकट जाना भी संभव नही इसलिए आदमी सुरक्षित है लेकिन अग्नि के निकट परवाना बनकर जाना ही होता है मिटना ही होता है दो चन्द्रवन्स के ओर दो सूर्यवंश के योद्धाओं को लिया गया ओर बन् गया मध्यममार्ग अग्निकुल ।।
परमारो का चन्द्रवँशी होने का सीधा सीधा प्रमाण उनका ध्वज ही है यदुओं के नेता श्रीकृष्ण के ध्वज पर भी गरुड़ विधमान ताज विक्रमादित्य परमार के ध्वज पर गरुड़ ही था जो वर्तमान तक है अगर परमार चन्द्रवंश से अलग होते तो उन्हें यदुओं का ध्वज इस्तेमाल करने दिया जाता ? ओर वे खुद भी दूसरों का ध्वज अपने महल पर भला क्यो लगायेंगे ??
जैसा कि रामायण में वर्णन है कि वसिष्ठ ने अग्निकुंड से प्रतिहार, परमार, चाहमान ओर चालुक्यों का निर्माण किया जबकि ऐसा नही है वसिष्ठ के कहने पर यह चार जातियां विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध करने को उद्धत हुईं, ओर विश्वामित्र को पराजित भी किया तभी कहा जाता है की वसिष्ठ में वह सारा सामर्थ्य था की वह राजपूतों से ही राजपूतो का नाश करवा देते लेकिन उन्होंने असमर्थ की भांति विश्वामित्र को क्षमा कर दिया ।।
815 ईस्वी तक के प्रतिहारो के जितने भी अभिलेख प्राप्त हुए है उनमें से किसी एक मे भी प्रतिहारो को अग्निवंशी नही कहा गया है ग्वालियर प्रशस्ति में भी उन्हें सूर्यवँशी ही बताया गया है।
मन्विज्ञाकुकस्थ(तस्थ) मुल पृथ्वः स्मापालकल्पद्रूमा ।।
तेषां वंशें सुजन्मा क्रमनिहतपदे धामिन वजेषु घोरं।
रामः पौलस्त्यहिन्श्र ज्ञतविहित सीम्नकम्र्मचकपालशः।।
श्लाध्यस्त हथानुजोसौ मधवमधनादस्यसख्यें।
सौमित्रिस्तीव्रदण्डः प्रतिहरण विधेर्य प्रतिहारः आसीत।।
इसीप्रकार चाहमानों के भी अनेक अभिलेख, दानपत्र, ऐतिहासिक संस्कृत ग्रँथ प्राप्त हुए है जहां कहीं भी चौहानों को अग्निकुल का नही बताया गया है पृथ्वीराज विजय में ओर हम्मीर महाकाव्य के सर्ग में चौहानों का सूर्यवंश से होना साफ साफ लिखा है :- फिलहाल आपके संतोष के लिए पृथ्वीराज विजय से साक्ष्य आपके सामने है।
सुतोप्यपरगांगेयो निन्येस्य रविसनुना उन्नति रविवंशस्य पृथ्वीराजेन पश्यता ।। ( पृथ्वीराज विजय - 18 ; 34 )
वास्तविक बात तो यह है 1600 ईस्वी तक अग्निकुल था ही नही पृथ्वीराज रासो में मिलावट करके इसे 1600 ईस्वी में खूब प्रचारित किया गया और उसका परिणाम आज सामने है ।।
#चौहानो_के_सूर्यवँशी_राजपूत_होने_का_संक्षिप्त_वर्णन
चौहान वंश वास्तव में चतुर्भुजचव्हाण के नाम से चला है चतुर्भुज का अर्थ यह नही है कि चव्हाण नाम के राजा के चार हाथ थे बल्कि चौहान नाम के इस राजा की मारक क्षमता इतनी थी की अलंकारिक रूप में इन्हें चतुर्भुज कहा गया चौहान निश्चित रूप से राम के वंसज रघुवंशी ही है इसका प्रमाण भी साफ साफ है।
सूर्यवंश के उपवंश चौहान वंश में एक राजा विजयसिंह जी हुए जिन्होंने हरपालिया कीर्तिस्तम्भ में अचलेश्वर शिलालेख ( मरु भारती पिलानी ) में आसराज के प्रसंग में लिखा है।
राघर्यथा वंश करोहिवंशे सुर्यस्यशुरोभुतिमंडलेsग्रे ।
तथा बभूवत्र पराक्रमेंणा स्वानामसिद्धः प्रभुरामसराजः ।। १६।।
भावार्थ :- पृथ्वीतल पर जिस प्रकार पहले सूर्यवँश में पराक्रमी राजा रघु हुए, उसी प्रकार इस वंश रघुवंश में अपने पराक्रम से कीर्तिराज आसराज नामक राजा हुए इस शिलालेख से स्पष्ठ है कि चौहान सूर्यवँशी थे राम के रघुवंश से थे जब श्रीराम ही ठाकुरजी है तो उनके वंसज गुर्जर कैसे हो सकते है ??
अब सवाल यह उठता है कि चौहानो का सूर्यवँशी राम से सम्बन्ध कहाँ जुड़ता है ;- तो अजमेर के सरस्वती मंदिर शिलालेख में लिखा है :-
सप्तद्वीपभुजो नृपः सम्भवन्निक्ष्वाकु रामादयः।
तस्मित्रयारिविजयेन विराजमानो राजानुरंजित जनोजानि चाहमान ।। ३७ ।।
इसमें साफ साफ वर्णन है की चौहान श्रीराम के कुल से है तो चौहान अगर राम के कुल में है तो इस वंश का आदि पुरुष कौन है ? इसपर भी विचार करना जरूरी है हम सब जानते है कि चौहानों का उत्कर्ष राजस्थान से है बिजौलिया शिलालेख में इन्हें अहिस्छतरपुर अंकित किया है पृथ्वीराज विजय हमीर महाकाव्य, तथा सुरजन चरित्र में इनका मूल स्थान पुष्कर है।
चौहानो के बहिभाट नर्मदा के उत्तर में स्थित महिष्मति ग्राम को इनका मूल बताते है इन सब आधार पर तो एक ही निष्कर्ष निकलता है की चौहानो का मूल स्थान राजस्थान ही है परंतु चौहान भृववट 813 में भड़ौच गुजरात पर शासन कर रहा था जो कि पहले गुर्जर प्रदेश हुआ करता था तो इनका मूल स्थान यह भी हो सकता है आबू पर्वत में चन्द्रवंशी अर्जुनायन में चालुक्य( चोल ) नाम का राजा चौहानो में चौहान नाम का राजा एक प्रतिहारः राजा तथा एक यदुवंशी परमार नाम के राजा सम्मिलित हुए, इनके नाम से ही इनका वंश चला ।।
#गुर्जर(गुजरो) का इतिहास भी सम्मानीय है -
यह सच है कि प्राचीन समय मे गुर्जर जाति की तुलना राजवंशों में ही होती थी इन वंश की उतपति के बारे में अनेक इतिहासकारो के अनेक विचार है डॉ भण्डारकर का तो कहना है की #खजर नाम की विदेशी जाति से #गुजर नाम की उतपति हुई कनिधम ने इन्हें कुषाणवंशी माना है वी.ए स्मिथ ने इनकी तुलना हूणों में की है ( राज . ई .प्र. जि.प्र. भाग ओझा पेज 133-34)
लेकिन यह सब बातें आधारहीन है इसने यह कह दिया उसने वह कह दिया -- यह कौई इतिहास का आधार नही होता इतिहास का अर्थ है - इति+हास = ऐसा ही हुआ था जिसमे घटनाओं का सही सही और सटीक वर्णन होता है ।।
श्रीवैद्य में इन्हें पशुपालन ओर कृषि के करने के कारण वैश्य वर्ग में माना है( हिंदू भारत का उत्कर्ष - पृ. 16 ) किंतु यह भी मात्र अनुमान ही है।
नवसारी ( गुजरात ) मे मिले भड़ौच ( गुजरात ) से मिले भड़ौच शाशक ने विक्रम संबत में गुर्जरों को महाराज कर्ण ( महाभारत वाले ) का वंसज अंकित किया है वायु पुराण में कर्ण के पौत्र द्विज का नाम आया है( वायु पुराण 99/112/|| ) इससे यह स्पष्ठ हो जाता है कि महाराज कर्ण का वंश महाभारत के बाद भी चल रहा था।
इससे यह सिद्ध हो जाता है कि गुर्जर ना तो विदेशी थे ओर ना वैश्य यह कर्ण के वंसज चन्द्रवँशी क्षत्रिय ही थे हां ! कर्ण के सुत के घर मे पलने के कारण वह सूतपुत्र कहलाता था संभवतः इसी कारण कर्ण के वसँजो को भी क्षत्रिय जाति में सम्मान नही मिल सका क्यो की कर्ण ने सूतपुत्र कहलाने के अलावा अपने अपराध से भी खुद कों पतित किया था।
गुर्जरों के कई वंश में इन्हें नृपति वंश भी कहा गया है कर्ण के किसी वंश में गुर्जर होने के कारण यह गुर्जर कहलाये बाद में उसी राजा के नाम पर गुर्जर प्रदेश का नाम पड़ा क्षत्रियों में अपने वंस के नाम पर विस्तार होने के कारण जैसे वह अपने राजा के नाम पर ही अपना विस्तार किया - जैसे शिवि, जोधा
इसी तरह गुर्जरों ने अपने वंश का विस्तार गुर्जर नाम के राजा के नाम पर किया हर्ष चरित्र में प्रभाकर वर्धन के शत्रुओ में गुर्जरों का नाम आया है :- इससे यह तय हो जाता है कि लगभग 661 ईस्वी तक गुर्जर लगातार सत्ता में थे ( हूण हरिण केसरी सिंधुराज्वेगुर्जरप्रजारको गांवारधीचगनः द्वपकुटपालकोलाटपाट व कोटच्चरी मालवा लक्ष्मीलतापृरथू: इतिप्रथितापरनामा प्रभाकरवर्धननोनामगराजधिराजः - हर्षचरित्र पेज संख्या 120 राज ई प्र जि प्र भाग ओझा पेज 156)
जब प्रतिहार सूर्यवँशी राजपूत की शाखा चावड़ा ने भीनमाल पर आक्रमण कर उसे अपने राज्य में मिलाया था उससे पहले वह गुर्जर राज्य ही था जैसे शकों को परास्त करने के कारण विक्रमादित्य शकारि कहलाये कुशवाहा नागवंशी क्षत्रियों को परास्त करने के कारण कच्छवाहा कहलाये उसी तरह जब प्रतिहारो ने गुर्जरों को परास्त कर दिया उसे बाद गुर्जरधिपति कहलाने लगे और जिस जिस राजपूतों ने अंगराज कर्ण के वंशज गुर्जर की खापो पर विजय प्राप्त की तबतब उन्होने अपने आप को गुर्जरधिपति कहा गुर्जर राजा के नाम पर ही गुर्जरात्रा आठवी सदी तक चल रहा था ।।
नवसारी में मिले भड़ौच के गुर्जर राजा जयभट्ट तृतीय ने कलचुरी संवत 456 विक्रमं संवत 762 के दानपत्र में खुद को अंगराजकर्ण का वंसज लिखा है कर्ण कब वसँजो में यहां का प्रथम शासक दद था कुछ इतिहासकारों ने दद को प्रतिहारः मान लिया लेकिन यह एकदम गलत है क्यो की दद कर्ण का वंसज था जबकि प्रतिहारः रघुवंशी श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के बंसज है एक दूसरा दद्द हुआ है जो हरिश्चन्द्र प्रतिहारः का पुत्र था जिसकी माता क्षत्राणी भद्रा थी गुर्जर दद खुद राजा नही था जबकि किसी राजा का सामन्त था ।।
बाद में यही कर्ण के वंसज लगातार पराजित होने के कारण ( अरबो ओर राजपूतों से ) खेती बाड़ी के काम मे लग गए और जब इन्होंने अपना मूल काम छोड़ दिया तो यह क्षत्रिय जाति से अलग हो गए बाद में कई राजपूत भी इनके साथ मिल गए ओर गाय चराने का काम करने लगे ओर वे भी गुजर कहलाये इसी कारण गुर्जरों में प्रतिहार्, परमार, यह सब मिल जाते है वास्तव में यह समयदोष के कारण गुजर बने ओर बाद में इन्होंने क्षत्रिय धर्म की कठोरता को त्याग दिया खासकर अरबो के आक्रमण के कारण इस जाति का बहुत विनाश हुआ ओर यह अपनी मूल जाति से अलग हो गए।
अतः गुर्जरों से मेरा तो यही कहना है की आपका स्वयं का इतिहास भी कम गौरवशाली नही है जो अंगराज कर्ण महाभारत में अर्जुन जैसे तपस्वी ओर वीर को टक्कर देता है जिसकी प्रशंसा खुद श्रीकृष्णविष्णु करते है उनके बसँजो को किसी अन्य का इतिहास चुराने की क्या जरूरत है ? दरअसल यह चुराने की परंपरा भी नई नही है ;- अंगराज कर्ण ने भी धोखे से ज्ञान चुराया था यही रीत गुजर भाइयो में आजतक चली आ रही है लेकिन इनकी योग्यता पर संदेह नही किया जा सकता यह वास्तव में बहादुर कौम है ।।
यह तो हुआ गुर्जरवंश का परिचय - आप गुर्जरभाई जाने ओर समस्त जनता जाने की पृथ्वीराज चौहान किस वंश से थे चौहान राजाओ का सम्पूर्ण इतिहास आगले के लेख में आप पेज को लाइक करना ना भूलें ।
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जय राजपूताना।
जय मां भवानी।
धर्म क्षत्रिय युगे युगे।