बुधवार, 17 जुलाई 2024

क्या होता है कि हरम का मतलब…!?

मुगलों के हरम में बड़ी संख्या में किन्नरों की तैनाती की जाती थी. किसी भी बाहर से आने वाले इंसान को लाना और उसे बाहर तक छोड़ना, उनकी जिम्मेदारी का अहम हिस्सा था।

जब भी शाही घराने में किसी चिकित्सक को बुलाया जाता था तो किन्नर उसका सिर ढक देते थे ताकि वो अंदर का माहौल न देख सके. इलाज के बाद उसे बाहर निकालने का तरीका भी वही रहता था।

लेकिन जब मेरा वहां आना-जाना आम हो गया तो उनका मुझ पर भरोसा बढ़ गया और पाबंदिया नहीं रहीं।


इतावली चिकित्सक मनूची ने यह आपबीती अपनी किताब 'मुगल इंडिया' में लिखी है। 

मनूची एक चिकित्सक रहे हैं और उनके दारा शिकोह के साथ सम्बंध अच्छे रहे हैं. वो अपने संस्मरण में लिखते हैं कि एक बार मैं हरम में जा रहा था तभी शिकोह की नजर मुझ पर पड़ी।

उसी वक्त उसने किन्नर को आदेश दिया. कहा- आंखों को ढक रहे कपड़ों को हटाया जाए और भविष्य में मुझे ऐसे ही हरम में ले जाया जाए. इसके पीछे शहजादे की खास सोच थी।

शहजादा शिकोह मानता था कि ईसाइयों में सोच में वो अश्लीलता और गंदगी नहीं होती है जैसी मुस्लिमों में होती है, इसलिए उसे आजादी के साथ हरम में जाने की अनुमति मिली. महिलाएं जानबूझ कर बीमारी का बहाना बनाती थीं।

मनूची लिखते हैं, हरम में मौजूद महिलाओं को उनके पति के अलावा किसी और से मिलने की इजाजत नहीं थी. इसलिए वो जानबूझकर खुद को बीमार बताती थीं, ताकि उनसे मिलने कोई मर्द चिकित्सक आए और नब्ज टटोलने के बहाने छुए और वो भी उन्हें छू सकें।

यह मुलाकात बिल्कुल खुले माहौल में नहीं होती थी. चिकित्सक और महिला के बीच में एक पर्दा लगा होता था. चिकित्सक नब्ज देखने के लिए पर्दे के भीतर अपना हाथ बढ़ाते थे. उसी दौरान कई महिलाएं उसका हाथ चूम लेती थीं और कुछ तो प्यार से काटती भी थीं. इतना ही नहीं कुछ औरते उसका हाथ अपनी छाती से स्पर्श कराती थीं।

मनूची के मुताबिक, कई बार मेरे साथ ऐसा ही हुआ. उस दौरान मैं ऐसा व्यवहार करता था कि मानों कुछ हो ही नहीं रहा, ताकि पास बैठे किन्नर को इसकी जानकारी न मिले।


क्या होता है कि हरम का मतलब…!?

यह शब्द अरबी भाषा से आया है. जिसका मतलब होता है पवित्र या वर्जित. मुगल सम्राज्य में हरम की शुरुआत बाबर के दौर में ही हो गई थी. उसने मात्र 4 साल हुकूमत की थी और उसका ज्यादातर समय जंग के मैदान में बीता, इसलिए उसके दौर में हरम को बहुत अधिक विकसित नहीं किया गया था।

मुगल साम्राज्य को विशाल रूहालांकि हरम में महिलाओं की पहुंच अलग-अलग तरह से होती थी. कुछ पत्नियों के रूप में होती थी, कुछ को जबरन इसलिए लाया जाता था क्योंकि बादशाह की उन पर नजर पड़ी और दिल आ गया. वहीं, कुछ उपहार के दौर में उन्हें दूसरी सल्तनत से मिलती थीं।


हरम बनाने की जरूरत क्यों पड़ी…!?

इस सवाल के जवाब में मनूची लिखते हैं कि हरम की जरूरत के पीछे मुगलों की मानसिकता जिम्मेदार थी. मुसलमानों को महिलाओं से खास लगाव रहा था. उन्हें उनके बीच काफी सुकून मिलता था. हालांकि हरम बनाने का मकसद केवल यौन सुख पाना ही नहीं था।

हरम में बच्चों की परवरिश भी की जाती थी. हम्माम था, स्कूल और खेल के मैदान भी थे. स्नानघर से लेकर रसोई घर भी हुआ करते थे. इतना ही नहीं हरम में शाही खजाने,गुप्त दस्तावेज और शाही मुहर भी रखी जाती थीं।

यह सब इंतजाम इसलिए किए जाते थे ताकि बादशाह अपने सारे काम वहां से भी कर सके वो भी बिना किसी परेशानी के. हरम में औरतों की संख्या इतना ज्यादा होती थी कि कई ऐसी दासी भी होती थीं जिनकी पूरी उम्र बीतने के बाद भी बादशाह को नजर भरके देख तक नहीं पाती थीं।


हरम की आलीशान जिंदगी!

मनूची लिखते हैं कि हरम में रहने वाली औरतों का जीवन बेहद आलीशान होता था. रोजाना सुबह शाही महिलाओं के लिए कपड़े आते थे, जो कपड़ा एक बार वो पहन लेती थीं, उसे दोबारा नहीं पहनती थीं. वो कपड़ा दासियों में बांट दिया जाता था।

शाही औरतें फव्वारों के पास लेटी रहती थीं. रात में आतिशबाजी के नजारे का लुत्फ उठाती थीं. मुर्गे की लड़ाई में दिलचस्पी लेती थीं. इसके अलावा गजलें सुनना, तीरंदाजी करना और किस्से-कहानियां सुनना उनके रोजमर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा हुआ करता था।


अकबर के हरम में पांच हजार औरते थीं!

अकबर के हरम में 5 हजार औरते थीं. उसने हर को इतना व्यवस्थित कर रखा था कि हरम को कई हिस्सों में बांट दिया था. किसी तरह की कोई कलह न हो इसके लिए दरोगा की नियुक्ति भी की गई थी. इतना ही नहीं, कुछ महिलाओं को बतौर गुप्तचर रखा जाता था. अकबर ने हरम को लेकर जो नियम बनाए अगली पीढ़ी में उनका पालन किया गया।

जब भी हरम में कोई नई लड़की आती थी तो उससे बाहरी दुनिया से सम्बंध न रखने की बात कही जाती थी. बादशाह की मौत के बाद भी हरम को न छोड़ने का नियम बना हुआ था।

शनिवार, 8 जून 2024

करपात्री महाराजः उतना ही खाते जितना दोनों हाथों में आ पाता, साधुओं की लाश देख इंदिरा गांधी को दे दिया था 'श्राप'!


30 जुलाई 1907 को प्रतापगढ़ में लालगंज के भटनी गांव के ब्राह्मण परिवार में एक बालक का जन्म हुआ। माता-पिता ने इस बालक का नाम रखा हरि नारायण ओझा। 15 साल की उम्र में हरि नारायण ने घर-परिवार का त्याग कर अध्यात्म का रास्ता चुन लिया।

वह प्रतापगढ़ से बनारस चले गए और वहां स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती महाराज को अपना गुरु मान लिया। ब्रह्मानंद सरस्वती ने हरिनारायण को दीक्षा दी। दीक्षा प्राप्त करने के बाद हरिनारायण का नाम हरिहरानंद सरस्वती हो गया। वे हिन्दू दशनामी परम्परा के भिक्षु थे। हरिहरानंद सरस्वती को ही दुनिया करपात्री महाराज के नाम से जानती है।

करपात्री कैसे पड़ा नाम…!?

हरिहरानंद सरस्वती कभी बर्तन में खाना नहीं खाते थे। वह उतना ही भोजन करते, जितना उनके दोनों हाथों में आ पाता था। हाथों को संस्कृत में कर कहते हैं। कर का पात्र बनाने के कारण वह करपात्री कहलाए। 

करपात्री महाराज की स्मरण शक्ति को उनके अनुयायी 'फोटोग्राफिक' बताते थे। मतलब की उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि एक बार कोई चीज पढ़ लेने के वर्षों बाद भी बता देते थे कि ये किस किताब के किस पेज पर किस रूप में लिखा हुआ है।

धर्म सम्राट की मिली थी उपाधि…!?

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, गौ हत्या बंद हो...। 
इन जयकारों के बिना धार्मिक अनुष्ठान पूरे नहीं होते। यह जयकारा करपात्री जी महाराज की ही देन हैं। उन्होंने भागवत सुधा, रस मीमांसा, गोपी गीत व भक्ति सुधा समेत कई ग्रंथ भी लिखे थे। 

धर्मशास्त्रों में अपने अद्भुत और अतुलनीय विद्वता के कारण संत समाज में वह 'धर्म सम्राट' की उपाधि से भी नवाजे गए। करपात्री महाराज के असर और उनके कद का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि लोग पूजा-आरती के बाद जयकारे में करपात्री महाराज का भी जयकारा लगाते हैं।


गौहत्या के सख्त खिलाफ थे महाराज…!?

करपात्री महाराज भारतीय संस्कृति, देववाणी संस्कृत के प्रबल समर्थक व गायों के पालक रहे। गौहत्या के विरुद्ध तत्कालीन कांग्रेस सरकार से भी टकराए। वो चाहते थे कि आजादी के बाद देश में हिंदू राज की स्थापना हो। इसी कारण स्वामी करपात्री हिंदुओं के बीच बहुत सिद्ध माने जाते थे। शंकराचार्यों के बीच भी उनका बहुत सम्मान था।


नेहरू-इंदिरा से टकराए करपात्री महाराज…!?

करपात्री महाराज का राजनीतिक गलियारे में भी काफी सम्मान था। कई नेता उनके दरबार में हाजिरी लगाया करते थे। नेहरू और इंदिरा से भी उनके मधुर संबंध रहे। हालांकि देश के आजाद होने के बाद उन्होंने नेहरू सरकार के हिंदू कोड बिल के खिलाफ बड़ा आंदोलन छेड़ा। 

वह नेहरू के इतने खिलाफ हो गए थे कि 1952 के चुनाव में उन्होंने नेहरू के खिलाफ जबलपुर बस स्टैंड पर दूध बेचने वाले व्यक्ति (चिरऊ महाराज) को इलाहाबाद की फूलपुर सीट से चुनाव लड़वा दिया था। बाद में उन्होंने गौरक्षा पर भी बड़ा अभियान चलाया।


सक्रिय राजनीति का भी हिस्सा रहे करपात्री महाराज…!?

हिंदू हितों की बात करते हुए करपात्री महाराज ने 'हिंदू हित सर्वोपरि' का नारा दिया। इस उद्देश्य के साथ उन्होंने 1948 में एक राजनीतिक पार्टी बनाई जिसका नाम था अखिल भारतीय रामराज्य परिषद। 

पार्टी का एजेंडा था हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्रवाद। 1952, 1957 और 1962 के लोकसभा चुनाव में महाराज ने अपने देशभर में अपने प्रत्याशी उतारे। 1957 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में करपात्री महाराज की पार्टी 17 सीटें जीतने में कामयाब रही। देश के कई शीर्ष व्यापारियों ने उनकी पार्टी के अपनी तिजोरी के ताले खोल दिये थे।


जब इंदिरा गांधी को दिया श्राप…!?

लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद 1966 में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली। इंदिरा करपात्री जी महाराज का बहुत सम्मान करती थीं। महाराज का भी इंदिरा के प्रति काफी स्नेह था। 

उन्होंने गौहत्या के खिलाफ सख्त कानून और बूचड़खाने को बंद कराने की मांग के साथ 7 नवंबर 1966 को संसद की तरफ कूच कर दिया। प्रदर्शन के दौरान किसी ने भाषण दे दिया कि संसद में घुस कर सांसदों को पकड़कर बाहर ले आएं क्योंकि ऐसा किये बिना हमारी मांगें नहीं मानी जाएंगी। ऐसा भाषण सुन पुलिस ने फायरिंग कर दी। कई साधुओं, महिलाओं और बच्चों की जान चली गई।

करपात्री महाराज को मानने वाले कहते हैं कि जब वह संसद के बाहर सड़क पर से साधुओं और अपने अनुयायियों की लाशें उठा रहे थे तो उन्होंने इंदिरा गांधी को शाप दिया था कि जैसे इंदिरा ने इन साधुओं पर गोलियां चलवाई हैं वैसे ही उनका भी हाल होगा।

जेल भी गए करपात्री महाराज…!?

संसद के बाहर प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने के विरोध में पुरी के शंकराचार्य जगद्गुरु निरंजन देव 72 दिनों तक अनशन पर बैठे रहे। इस बीच करपात्री महाराज को भी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। 

कुछ दिनों बाद भले अनशन और हंगामा थम गया लेकिन उसका अंजाम 1967 के चुनाव में इंदिरा गांधी को झेलना पड़ा। कांग्रेस की 80 सीटें हो गईं कम। काऊ बेल्ट कहे जाने वाले राज्यों में कांग्रेस की सीटें घटीं। महीने भर बाद यूपी से कांग्रेस की सरकार भी गिर गई।

इसके बाद इंदिरा ने अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव किया। अब यह आंदोलन का असर था या संयोग कि जब 1969 में कांग्रेस का विभाजन हुआ, तो इंदिरा गुट ने जो चुनाव चिन्ह चुना वह था 'गाय और बछड़ा'।

7 फरवरी 1982 को करपात्री महाराज ने देह त्याग दिया। उनके अंतिम दर्शन को देश दुनिया से लाखों लोग पहुंच। लोगों ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न की मांग रखी था। मोदी सरकार ने करपात्री महाराज पर एक डाक टिकट भी जारी किया था। अगर आपको यह किस्सा पसंद आया हो तो आप इसे अपने दोस्तों संग शेयर कर सकते हैं।