बुधवार, 24 मार्च 2021

राणा हर राय चौहान

यह पोस्ट है चौहान वंश के ऐसे वीर यौद्धा के बारे में जिनके बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं,
एक समय हरियाणा के इतिहास में उनका महत्वपूर्ण
योगदान रहा है,यही नहीं दसवी सदी में इस हिस्से पर
उनके शासन के बाद ही यह क्षेत्र हरयाणा के नाम से
प्रसिद्ध हुआ।

आज हरियाणा, पंजाब, यमुना पार सहारनपुर, मुजफरनगर के लगभग सभी चौहान राजपूत राणा हर राय और उनके सगे सम्बन्धियों के वंशज हैं, यही नहीं गुर्जर, जाट, रोड, जातियों में जो चौहान वंश है उन सबके पूर्वज भी राणा हर राय चौहान को माना जाता है, जो राणा हर राय चौहान अथवा उनके पुत्रो के उस समय उन
जातियों की महिलाओ से अंतरजातीय विवाह से
उत्पन्न संतान के वंशज हैं जिनसे उन जातियों में
चौहान वंश का प्रचलन हुआ।

====== राणा हर राय का हरयाणा =======

यह ऐतिहासिक कहानी है दसवी सदी की जब
हरयाणा के उत्तर पूर्वी भाग पर चौहानो का राज्य
स्थापित हुआ, नीमराना के चौहानो और पुण्डरी(करनाल, कैथल) के पुंडीर राजपूतों के बीच हुए इस रक्तरंजित युद्ध का इतिहास गवाह है। 

यह ऐतिहासिक कहानी आपको हरियाणा के उस
स्वर्णिम काल में ले जाएगी जब यहां क्षत्रिय
राजपूतो का राज था, यानी अंग्रेजों और मुगलों के
समय से भी पहले नीमराणा के राणा हर राय चौहान संतानहींन थे।

राज पुरोहितो के सुझाव के पश्चात राणा हर राय
गंगा स्नान के लिए हरिद्वार के लिए निकले। लौटते
हुए उन्होंने एक रात करनाल के पास के क्षेत्र में
खेमा लगाया। उस क्षेत्र का नाम बाद में जा कर
जुंडला पड़ा क्यूंकि यहां जांडी के पेड़ उगते थे।

राणा जी और उनकी सेना इस इलाके की उर्वरता व
हरयाली देख कर मोहित हो गये। उनके पुरोहितों ने
उन्हें यहीं राज्य स्थापित करने का सुझाव दिया क्यूंकि पुरोहितों को यह भूमि उनके वंश की वृद्धि के लिए शुभ लगी।

उस समय यह क्षेत्र पुंडीर क्षत्रियों के पुण्डरी राज्य
के अंतर्गत था। विक्रमसम्वत 602 में यह राज्य राजा मधुकर देव पुंडीर जी ने बसाया था। राजा मधुकर देव जी का शासन तेलंगाना में था, वे अपने सैनिको के साथ तेलांगना से कुरुक्षेत्र ब्रह्मसरोवर में स्नान के लिए आये थे। 

तभी यहां के रघुवंशी राजा सिन्धु ( जो की हर्षवर्धन के पूर्वज हो सकते हैं) ने आपने बेटी अल्प्दे का विवाह उनसे
किया और दहेज़ में कैथल करनाल का इलाका उन्हें
दिया।

राजा मधुकर देव पुंडीर ने यही पर अपने पूर्वज के नाम
पर पुण्डरी नाम से राजधानी स्थापित की, बाद में उनके वंशजो ने यहां चार गढ़ स्थापित किये जो कि पुण्डरी, पुंडरक, हावडी, चूर्णी(चूर्णगढ़) के नाम से जाने गए।

हर्षवर्धन के पश्चात् सन 712 इसवी के आसपास पुंडीर
राजपूतो ने यमुना पार सहारनपुर और हरिद्वार क्षेत्र
पर भी कब्जा कर 1440 गाँव पर अपना शासन
स्थापित किया।

पुंडीर राज्य के दक्षिण पश्चिम में मंडाड राजपूतों का शासन था जोकि यहां मेवाड़ से आये थे और राजोर गढ़ के बड़गुजरों की शाखा थे। उनके एक राज़ा जिन्द्रा ने जींद शहर बसाया और इस क्षेत्र में राज किया। 

इन्होने चंदेल और परमार राजपूतों को इस इलाके से हराकर निकाल दिया और घग्गर नदी से यमुना नदी तक राज्य स्थापित किया। चंदेल उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों की तराई में जा बसे।

(यहां इन्होने नालागढ़ (पंजाब) और रामगढ़
( पंचकुला, हरयाणा ) राज्य बसाये। वराह परमार
राजपूत सालवन क्षेत्र छोडकर घग्घर नदी के पार
पटियाला जा बसे। जींद ब्राह्मणों को दान देने के
बाद मंढाडो ने कैथल के पास कलायत में राजधानी बसाई व घरौंदा, सफीदों, राजौंद और असंध
में ठिकाने बनाये। 

मंडाड राजपूतो का कई बार पुंडीर राज्य से संघर्ष हुआ पर उन्हें सफलता नहीं मिली। गंगा स्नान से लौटते वक्त राणा हर राय चौहान थानेसर पहुंचे तथा पुरोहितो के सुझाव पर पुंडीरो से कुछ क्षेत्र राज करने के लिए भेंट में माँगा। पुंडीरो ने राणा जी की मांग ठुकराई और क्षत्रिये धर्म निभाते हुए विवाद का निर्णय युद्ध में करने के लिए राणा हर राय देव को आमंत्रित किया। जिसे हर राय देव ने स्वीकार किया।

ऐसा कहा जाता है कि मंडाड राजपूतो ने चौहानो का इस युद्ध में साथ दिया, पुंडीर सेना पर्याप्त शक्तिशाली होने के कारण प्रारम्भ में हर राय को सफलता नहीं मिली मात्र पुण्डरी पर वो कब्जा कर पाए, राणा हर राय ने हार नजदीक देख नीमराणा से मदद बुलवाई।

नीमराणा से राणा हर राय चौहान के परिवार के
राय दालू तथा राय जागर अपनी सेना के साथ इस
युद्ध में हिस्सा लेने पहुंचे। नीमराणा की अतिरिक्त
सेना और मंडाड राज्य की सेना के साथ मिलने से
राणा हर राय चौहान की स्थिति मजबूत हो गयी और चौहानो ने फिर हावडी, पुंड्रक को जीत लिया, अंत में पुंडीर राजपूतो ने चूर्णगढ़ किले में अंतिम संघर्ष किया और रक्त रंजित युद्ध के बाद इस किले पर भी राणा हर राय चौहान का कब्ज़ा हो गया।

इसके बाद बचे हुए पुंडीर राजपूत यमुना पार कर आज के सहारनपुर क्षेत्र में आये और कुछ समय पश्चात् उन्होंने
दोबारा संगठित होकर मायापुरी(हरिद्वार) को राजधानी बनाकर राज्य किया, बाद में इस मायापुरी राज्य के चन्द्र पुंडीर और धीर सिंह पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े सामंत बने और सम्राट द्वारा उन्हें पंजाब का सूबेदार बनाया गया। 

यह मायापुर राज्य हरिद्वार, सहारनपुर, मुजफरनगर तक
फैला हुआ था। बाद में युद्ध की कटुता को भूलाते हुए चौहानों और पुंडीरो में पुन वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे, पुंडीर राज्य पर जीत के बाद राणा हर राय ने राय डालु को 48 गांव की जागीर भेंट की जो की आज के नीलोखेड़ी के आसपास का इलाका था। 

जागर को 12 गांव की जागीर यमुनानगर के जगाधरी शहर के पास मिली तथा हर राय के भतीजे को टोंथा के ( कैथल ) आस-पास के 24 गांव की जागीर मिली। 

राणा हर राय देव ने जुंडला से शासन किया। इन्ही के नाम पर इस इलाके का नाम हरयाणा पड़ा। जिसका मतलब वो स्थान जहा हर राय राणा के वंशज राज्य करते थे। 
(हर राय राणा =हररायराणा = हररायणा = हरयाणा)

परन्तु आजादी के बाद इसका अर्थ राजपूत विरोधी जातियों ने हरी का आना बना दिया जबकि हरी तो हमेशा से उत्तर प्रदेश में ही अवतरित हुए है, हरयाणा तो हरी की कर्म भूमि थी।
राणा हरराय चौहान और उनके चौहान सेना के वंशज
आज हरयाणा के अम्बाला पंचकुला, करनाल, यमुनानगर जिलो के 164 गाँवो में बसते है। 

रायपुर रानी (84 गाँव की जागीर) इनका आखिरी बचा बड़ा ठिकाना है। जो की आजादी के बाद तक भी रहा। हालाकिं इन चौहानो कई छोटी जागीरे चौबीसी के टिकाइओ के नीचे बचीं रहीं जैसे :- मंधौर, उनहेरी, टोंथा, शहजादपुर, जुंडला, घसीटपुर आदि जो बाद में अंग्रेजो के शासन के अंतर्गत आ गयी। 

इन चौहानो की एक चौबीसी यमुना पार मुज़्ज़फरनगर जिले में भी मिलती है। कलस्यान गुर्जर भी खुद को इसी चौहान वंश की शाखा मानते है, (मुजफरनगर गजेटियर पढ़े) राणा हर राय देव के एक वंशज राव कलस्यान ने गुर्जरी से विवाह किया जिनकी संतान ये कलसियान गुर्जर है। 

ये गुर्जर आज चौहान सरनेम लगाते है और इनके 84 गांव मुज़्ज़फरनगर के चौहान राजपूतो के 24 गाँव के साथ ही बसे हुए है।

राणा हर राय चौहान ने दूसरी जातियों जैसे जाट, रोड़, नाइ, जोगन जातियों की लड़कियों से भी वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। कुरुक्षेत्र के पास के अमीन गाँव चौहान रोड़ इन्ही के वंशज माने जाते है। लकड़ा जाट या चौहान जाट भी इन्ही चौहानो के वंशज माने जाते है। 

नाई व जोगन बीविओं की संताने आज सोनीपत और उत्तर प्रदेश के घाड के आसपास के इलाके में बसते है इन्हे खाकी चौहान कहा जाता है जिनमे शुद्ध रक्त राजपूत विवाह नहीं करते।

राणा हर राय के वंशज राणा शुभमल के समय
अंबाला, करनाल क्षेत्र में चौहानो के 169 गाँव थे।
शुभमल के पुत्र त्रिलोक चंद को 84 गाँव मिले, जबकि दुसरे पुत्र मानक चंद को 85 गाँव मिले, जो मुसलमान बन गया। त्रिलोक चंद की आठवी पीढ़ी में जगजीत हुए जो गुरु गोविनद सिंह के समय बहुत शक्तिशाली थे, 1756 में जगजीत के पोते फ़तेह चंद ने अपने दो पुत्रो भूप सिंह और चुहर सिंह के साथ अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला किया जिसमे अब्दाली की विशाल शाही सेना ने कोताहा में धोखेे से घेरकर 7000 चौहानो का नरसंहार किया।

हरयाणा के चौहान आज भी बहुत स्वाभिमानी है और अपने इतिहास पर गर्व करते है। हरियाणा में राजपूतो की जनसँख्या और प्रभुत्व आज नगण्य सा हो गया है, राणा हर राय देव चौहान की छतरी आज भी जुंडला गाँव (करनाल) में मौजूद है। पर ये दुःख की बात यहाँ के चौहान राजपूत अपने वीर पूर्वज की शौर्य गाथा को भूलते जा रहे है और हरयाणा में आज तक राणा हर राय देव के नाम पर कोई संग्रहालय मूर्ति या चौक नहीं स्थापित किये गए। 

हम आशा करते है इस पोस्ट को पढ़ने के बाद राणा हर राय देव चौहान को उनको वंशज यथा संभव सम्मान
दिलवा पाएंगे।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

राजपूत कुलदेविया

आप सभी क्षत्रिय बन्धुओं को उनकी कुलदेवियों की जानकारी देना चाहूँगा:-

1. राठौड़ नागणेचिया
2. गहलोत बाणेश्वरी माता
3. बैस कालका माता
4. दहिया कैवाय माता
5. गोहिल बाणेश्वरी माता
6. चौहान आशापूर्णा माता
7. बुन्देला अन्नपूर्णा माता
8. भारदाज शारदा माता
9. चंदेल मेंनिया माता
10. नेवतनी अम्बिका भवानी
11. शेखावत जमवाय माता
12. चुड़ासमा अम्बा भवानी माता
13. बड़गूजर कालिका(महालक्ष्मी)माँ
14. निकुम्भ कालिका माता
15. भाटी स्वांगिया माता
16. उदमतिया कालिका माता
17. उज्जेनिया कालिका माता
18. दोगाई कालिका(सोखा)माता
19. धाकर कालिका माता
20. गर्गवंश कालिका माता
21. परमार सच्चियाय माता
22. पड़िहार चामुण्डा माता
23. सोलंकी खीवज माता
24. इन्दा चामुण्डा माता
25. जेठंवा चामुण्डा माता
26. चावड़ा चामुण्डा माता
27. गोतम चामुण्डा माता
28. यादव योगेश्वरी माता
29. कौशिक योगेश्वरी माता
30. परिहार योगेश्वरी माता
31. बिलादरिया योगेश्वरी माता
32. तंवर चिलाय माता
33. हैध्य विन्ध्यवासिनि माता
34. कलचूरी विन्धावासिनि माता
35. सेंगर विन्धावासिनि माता
36. भॉसले जगदम्बा माता
37. दाहिमा दधिमति माता
38. रावत चण्डी माता
39. लोह थम्ब चण्डी माता
40. काकतिय चण्डी माता
41. लोहतमी चण्डी माता
42. कणड़वार चण्डी माता
43. केलवाडा नंदी माता
44. हुल बाण माता
45. बनाफर शारदा माता
46. झाला शक्ति माता
47. सोमवंश महालक्ष्मी माता
48. जाडेजा आशपुरा माता
49. वाघेला अम्बाजी माता
50. सिंघेल पंखनी माता
51. निशान भगवती दुर्गा माता
52. गोंड़ महाकाली माता
54. देवल सुंधा माता
55. खंगार गजानन माता
56. चंद्रवंशी गायत्री माता
57. पुरु महालक्ष्मी माता
58. जादोन कैला देवी (करोली )
59. छोकर चन्डी केलावती माता
60. नाग विजवासिन माता
61. लोहतमी चण्डी माता
62. चंदोसिया दुर्गा माता
63. सरनिहा दुर्गा माता
64. सीकरवाल दुर्गा माता
65. किनवार दुर्गा माता
66. दीक्षित दुर्गा माता
67. काकन दुर्गा माता
68. तिलोर दुर्गा माता
69. विसेन दुर्गा माता
70. निमीवंश दुर्गा माता
71. निमुडी प्रभावती माता
72. नकुम वेरीनाग बाई
73. वाला गात्रद माता
74. स्वाति कालिका माता
75. राउलजी क्षेमकल्याणी माता...!!

जो में नहीं लिख पाया वो आप कमेंट बॉक्स में लिख दीजिए...😊🙏🏻

⚔️जय🛡️राजपूताना।⚔️

शनिवार, 6 फ़रवरी 2021

वही अर्जुन वही बाण ,कृष्ण की ललनाएँ आभीरो ने क्यों लूटीं? जानिए इस रहस्य को…!!


क्यों नहीं कर सके  गाण्डीव धारी अर्जुन (भगवान श्री कृष्ण के  परम प्रिय सखा पार्थ) भगवान श्रीकृष्ण की 16100 रानियों सहित यदुवंश की बची हुई  स्त्रियों की आभीरों से रक्षा और क्यों आभीरों ने  उनको लूटा इस रहस्य की कथा कुछ इस प्रकार है ।
यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण जी एवं  शेषावतार हलधर बलदेव जी ने अपने निज स्वरूप में आ कर ,मानव देह का त्याग किया और अपने लोक को चले गये और समस्त यदुवंश का नाश का यह वज्राघात जैसा समाचार जब भगवान श्री कृष्ण जी के सारथी दारुक ने द्वारिकापुरी में आकर सुनाया तो इससे आहत होकर यदुराज उग्रसेन जी और श्री कृष्ण जी के पिता वासुदेव जी आदि सभी वयोवृद्ध यदुवंशी मर गए । बलदेव जी की माता रोहिणी जी और श्री कृष्ण जी की माता देवकी जी दोनों ने अग्नि प्रवेश किया और भस्म हो गयी । इसके बाद सारी यदुवंशियों की स्त्रियां अर्जुन के साथ प्रभास क्षेत्र में आईं ।रुक्मणी जी सहित सभी आठों पटरानियों ने श्री कृष्ण जी की मृत देह के साथ अग्नि में प्रवेश किया और बलदेव जी की रानी रेवती जी भी अपने पति बलदेव जी की मृत देह के साथ सभी प्राणियों द्वारा की जा रही स्तुति के बीच सती हो गई ।
इसके बाद अर्जुन ने सभी म्रत यदुवंशियों की अंत्येष्टि की ।सभी का विधि विधान पूर्वक प्रेतकर्म किया । मद्य पान से उन्मत हुए असंख्य यदुवंशी वहां उस प्रभास क्षेत्र में आपस ही में मर कट गये थे ।
अनिरुद्ध का एक पुत्र जिसका नाम बज्रनाभ था वह ही प्रधान यदुवंशियों में बच रहा था । प्रभु श्री कृष्ण के द्वारा अपने सारथी दारुक के माध्यम से भेजे संदेशानुसार अर्जुन बज्रनाभ जी  सहित यदुवंशियों की सभी स्त्रियों को लेकर पार्थ ने द्वारिकापुरी से पंचनंद की ओर प्रयाण किया। रानिवास से 16100 ललनाओं  (भगवान श्री कृष्ण की रानियां जो प्रभु ने भामसुर की कैद से निकाल कर सभी का पाणिग्रहण किया था )के साथ बज्र को लेकर अर्जुन अपने गाण्डीव औऱ वाणों से सज्जित हो कर चले । रानिवास की यदुवंशियो की स्त्रियों के साथ बचे हुए पुरजनों को द्वारिका से निकाल कर पंचनंद(पंजाब) में आ रहे और पीछे से प्रभु श्री कृष्ण जी के बिना  वीरान हुई सम्पूर्ण द्वारिकापुरी को समुद्र ने अपने में केवल भगवान श्री कृष्ण जी के महल को छोड़ कर समा लिया । तब वहाँ आभीरों ने (द्वारिका के पास) जब अर्जुन को ऐसी सुन्दर सजी-धजी युवतियों को ले जाते देखा तो उन्होंने काफिले पर हमला कर दिया और वे इन स्त्रियों के आभूषण लूटने लगे । अर्जुन ने उन्हें ललकारते हुए कहा कि अपने प्राण चाहते हो तो तुरन्त भाग जाओ अन्यथा सभी मारे जाओगे। अर्जुन का कहा सुन कर वे हँस कर धमकाते हुये बोले कि तेरे मन में वह मिथ्या/ व्रथा(झूठा) अभिमान बढ़ गया लगता है अब चुप रह। युद्ध में जयद्रथ ,कर्म ,बिंद ,भगदत्त,भीष्म आदि को मारने से अर्जुन तेरे भीतर खोखला दर्प भर गया है। हे कुन्तीपुत्र ! तुमने अभी तक ग्रामीण तस्करों और डाकुओं को आजमाया नहीं है इस लिए चुपचाप हमारी राह से हट जा अन्यथा अभी गले में टुंपा (फांसी) लगने से अपने आप ही टल जाायेग।  यह सुनकर पार्थ ने अपना गाण्डीव संभाला पर उससे तो बमुश्किल तमाम प्रयासों से भी प्रत्यंचा भी पुरी नहीँ चढ़ पाई । वह पुनः ढीली हो गई ।
अर्जुन के गाण्डीव धनुष ने भी काम नही किया अन्य सारे शस्त्र ना काम हो गये । यह देख अर्जुन को मन ही मन अत्यंत विस्मय हुआ । उन तस्करों ने श्रीकृष्ण की 16100 रानियों सहित  सभी यदुवंश की स्त्रियों का हरण करके उनका व्रत भंग किया था । कुपित होकर अर्जुन बज्र को औऱ बचे हुई स्त्रियों और परिजनों को लेकर ही मथुरा आ पाए । बृज (मथुरा) की राजगद्दी पर बज्रनाभ जी को बिठा कर अर्जुन लज्जित हो, हस्तिनापुर को लौट कर आ रहे थे ,राह में उनको वेदव्यास मिले । उन्होंने अर्जुन का कांतिविहीन मलिन मुख देख कर पूछा ,"क्या बात हुई अर्जुन आखिर मलिन क्यों?" प्रत्युत्तर में अर्जुन ने पूरे यदुवंश के नाश का समाचार और राह में स्त्रियों की लज्जा भंग होने का व्रतांत कह सुनाया।
  पूरा व्रतांत सुनकर वेदव्यास ने कहा कि काल पुरुष का यही क्रम है जो जन्म लेता है उसे एक दिन मरना पड़ता है और यह उन म्लेच्छों ने स्त्रियों की लाज लूटी है इसका एक कारण है उसे तुम सुनो ।
  एक बार सुमेरु पर्वत पर असुरों का संहार करने के लिए शूरवीरों का मेला लगा । सारे समाजों से आ कर योद्धा गण वहां एकत्रित हुए । असुर संहार का सुन कर वहां जाती हुई अप्सराओं को बीच राह में मुनि अष्टावक्र मिले ।अप्सराओं ने उन्हें आकंठ पानी में खड़े और ब्रह्मा समाधि में लीन ध्यान लगाये देखा । सारी अप्सराओं ने पूरे आदर और सम्मान तथा विनम्रता के साथ हाथ जोड़ कर मुनि की स्तुति की तब प्रसन्न हो कर अष्ट्रावक्र मुनि ने उनसे कहा कि तुम्हारी इच्छा हो सो वर मांगों।
   इस पर तिलोत्तमा ,रंभा ,आदि प्रमुख अप्सराओंने कहा "हे मुनि ! आपकी प्रसन्नता ही हमारा सबसे बड़ा वरदान है । इसे छोड़ कर हम दूसरे वरदान की क्या प्रत्याशा करें? दूसरा कुछ मांगना हमारी भूल होगी । आगे भी कई अप्सराओं ने श्री हरि को पति के रूपमें मांगा है ,अधिक हम भी यही वर माँगती है। "यह सुन कर उदार मुनि अष्टावक्र जी ने "तथास्तु"कहा और पानी से बाहर आये ।
   लेकिन पानी से निकलने पर अष्टावक्र मुनि को आठ जगह से टेड़ा देख कर वे हँसी। इस पर कुपित हो कर इसे अपना अपमान समझते हुये मुनि अष्टावक्र जी ने उन सभी अप्सराओं को शाप दिया कि" तुम्हें मेरे वरदान स्वरूप गोविन्द को पति रूप में प्राप्ति तो होगी पर श्री हरि के साथ भोग भोगने के बाद तुम सभी म्लेच्छों के भोगने योग्य हो जाओगी ओर चोर तुम्हारा हरण करेंगे ।"
   इस प्रकार शाप का वज्राघात पा कर सारी अप्सराएं मुनि अष्ट्रावक्र के चरणों में गिर पड़ी। इससे कोमल ह्रदय वाले मुनि अष्टावक्र जी ने कहा कि चलो , तुम्हें अन्त में स्वर्ग की प्राप्ति होगी । बाद में तुम सभी स्वर्ग में ही बसोगी। यह कथा सुना कर वेदव्यास जी बोले कि हे अर्जुन ! इस प्रकार द्विजवर अष्टावक्र जी के शाप के कारण वे आभीर जन (अहिर लोग) तूम्हें हरा पाए और इसी शाप के कारण वे अप्सराओं से भोग कर पाए। इस लिए हे वीर ! तुम्हारे लिए इसमें लज्जित होने योग्य कुछ भी नहीं।
   तब अर्जुन यह सब सुन कर विकलमना हो तेज गति से वापस हस्तिनापुर की ओर बढ़े और वहां जा कर रोते हुए पार्थ ने सभी यदुवंशियों के कुलनाश का समाचार अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठर जी को सुनाया । सभी पांडव फिर परीक्षत को पूरा राज्य सौंप कर वन में गये वहां उन्होंने श्री कृष्ण हरि भक्ति में लीन होकर हिमालय पर इस संसार सागर का त्याग किया ।
   जय श्री कृष्णा । जय यदुवंश।

"जदुवंशी क्षत्रियो की शौर्य गाथा"

गुरुवार, 28 जनवरी 2021

महारानी जोधाबाई, जो कभी थी ही नहीं, लेकिन बड़ी सफाई से उनका अस्तित्व गढ़ा गया और हम सब झांसे में आ गए....


जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है!

बताया जाता है कि कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया! परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नहीं किया है!

उन सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया। परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखाने के षड्यंत्र के तहत बाद में कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!

और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए! जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नहीं था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठा पहचान शुरू किया गया। फिर 18 वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरियम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!

और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया कि आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चुका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को नीचा दिखाने की कोशिश जाती है! जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन, बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं???? जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया, उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाली । पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ, जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए- जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया! इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नहीं किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी ऐतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे । कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई, जो बहुत चौंकाने वाली है! इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी, जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ, इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया, जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था, इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथों में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया! जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नहीं, बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था। इस विवाह के विषय में अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें
संदेह है, इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں)

हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है, क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नहीं थे और ना ही हिन्दू गोद भराई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय में कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनों का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव (अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था, वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत! (1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं, जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!

लेकिन अब यह षड़यंत्र अधिक दिन नहीं चलेगा।

साभार🙏🏻

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन


इस्लाम धर्म के संस्‍थापक हजरत मुहम्मद के समकालीन राजा हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था उनके काल में कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे…

 हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था यहां 51 शक्तिपीठों में से 1 पीठ है हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संदर्भ में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजा गया है…

हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था उनके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा
हर्ष ने लगभग 41 वर्ष शासन किया इन वर्षों में हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लभीपुर तक कर लिया इसने आर्यावर्त को भी अपने अधीन किया हर्ष को बादामी के चालुक्यवंशी शासक पुलकेशिन द्वितीय से पराजित होना पड़ा ऐहोल प्रशस्ति (634 ई.) में इसका उल्लेख मिलता है माना जाता है कि हर्षवर्धन ने अरब पर भी चढ़ाई कर दी थी…

लेकिन रेगिस्तान के एक क्षेत्र में उनको रोक दिया गया 
 6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया…

 कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना थी…

'कादंबरी' के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी 'हर्षचरित' में विस्तार से लिखी है।

बुधवार, 30 सितंबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट...राजा भोज (राज भोज)


ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुनर्निर्माण कराया था राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदिशंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था…

कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था इनके ही नाम पर भोज नाम से उपाधी देने का भी प्रचलन शुरू हुआ जो इनके ही जैसे महान कार्य करने वाले राजाओं की दी जाती थी…

 भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं…

 राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में 'सरस्वतीकण्ठभरण' नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में 'सरस्वती मंदिर' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम 'भोजशाला' लिखा था पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है…
 
राजा भोज का परिचय :* परमारवंशीय राजाओं ने 
मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया…

 महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया…

 ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं…

 उन्होंने 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वांत संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धांत', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि ग्रंथों की रचना की…

 'भोज प्रबंधनम्' नाम से उनकी आत्मकथा है हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाष्टक के रूप में विश्वविख्यात है तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था…

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा, राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है…

इसके अलवा गौतमी पुत्र शतकर्णी, यशवर्धन, नागभट्ट और बप्पा रावल, मिहिर भोज, देवपाल, अमोघवर्ष , इंद्र द्वितीय, चोल राजा, राजेंद्र चोल, पृथ्वीराज चौहान, विक्रमादित्य , हरिहर राय और बुक्का राय, राणा सांगा, अकबर, श्रीकृष्णदेववर्मन, महाराणा प्रताप, गुरुगोविंद सिंह, शिवाजी महाराज, पेशवा बाजीराव और बालाजी बाजीराव, महाराजा रणजीत सिंह आदि के शासन में भी जनता खुशहाल और निर्भिक रही।

राष्ट्रवीर हिंदुगौरव वीर दुर्गादास राठौड़ जी


आसाणी तव आस में जड़ रैयगी जौधाण
नितर कलमां नित वल्लता मुलां देता माण 

वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड़ वो शख़्स थे जिन्होंने मारवाड़ तथा यहाँ के राजवंश दोनों को मुग़ल* *बादशाह औरंगज़ेब के कोपभाजन से बचाकर इसके गौरवशाली इतिहास को क़ायम रखा…

धर्मांध औरंगज़ेब नें सता हासिल करनें के लिए हर उस शख़्स को अपनें रास्ते से हटाया जो उसके लिए रौड़ा थे वो चाहे उसके अपनें सग्गे भाई दारा,सूजा,मुराद ही क्यों नहीं हो जिनको मारकर तथा अपनें जन्मदाता शाहजंहा को केद में डालकर उसनें राजगद्दी प्राप्त करी थी उसनें अनेकों अनेक प्राचीन मंदिरों को नेस्तनाबूद किया और उन मंदिरों की मूर्तियों को मस्जिदों की सीड्डियों की जगह लगाकर मंदिरों की जगह को मस्जिदों में परिवर्तित किया…

उसनें उन सभी को मरवाया जिसनें अपना धर्म नहीं बदला चाहे वो शिवाजी महाराज के पुत्र शम्भाजी हो जिनके हाथ पाँव के नाख़ून और आँखें तक निकाल ली गयी,सिक्खों के गुरु गोविन्दसिंहजी के पुत्र जौरावरसिंह और फ़तहसिंह वो बहादुर नौजवान थे,जिनको इस्लाम स्वीकार नहीं करनें पर ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया ताकि इसको देखकर कायर लोग अपना धर्म परिवर्तन करलें 
 ये सब समकालीन एतिहासिक ग्रंथों में लिखित है जो प्रामाणिक है की धार्मिक कट्टरता के कारण हिंदुस्थान में जगह जगह विद्रोह हुए… 

जिसके फलस्वरूप मुग़ल सता धीरे धीरे कमज़ोर होती गयी आख़िर में हमेशा के लिए समाप्त हुई उसके बाद कोई योग्य उतराधिकारी नहीं रहा…

अगर उसके मन में कहीं किसी का भय था तो सिर्फ मारवाड़ के महानायक दुर्गादास राठौड़ का…

मारवाड़ के अस्तित्व को बचाने व भारतवर्ष मे औरंगजेब की इस्लामीकरण की आंधी को रोकने के लिऐ 28 साल घोड़े की पीठपर अपना आसियाना रखकर यहा तक की घोड़े की पीठपर ही भाले की नोक से श्मशान की आग पर रोटियां सेक कर पेट की आग को शांत कर संघर्ष कर मारवाड़ को तो बचाया ही साथ ही औरंगजेब को लगातार युद्धों मे उलझाये रखकर हिंदुधरम को बचाया हिंदुस्तान के इतिहास मे पुरुषोत्तम श्री राम के बाद समस्त क्षत्रियोचित गुणों को धारण कर हिंदुधरम की रक्षा करने वाली महान शख्सियत वीरदुर्गादास राठौड़ थे जिन्हें बड़े फक्र के साथ हम हिंदुगौरव कहकर अपने आपको गौरवान्वित महसुस करते है।

आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले ऊपर वास 
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

🙏🏻जय🪔मां🪔भवानी🔱

पाटण की रानी रुदाबाई👆जिसने सुल्तान बेगडा के सीने को फाड़ कर 👉दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, और

👉धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था। 
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गुजरात से कर्णावती के राजा थे…
राणा वीर सिंह वाघेला (सोलंकी), ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह वाघेला के पराक्रम के सामने सुल्तान  की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज २ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह वाघेला को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान  को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान  वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान  का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और.. उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 

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                Thakur Sachin Chauhan

👑जय💪राजपूताना।🚩

बुधवार, 2 सितंबर 2020

तलवार का नाप

आप के घर में क्या तलवार है :-

 क्या आपको पता है कि उस तलवार का नाप क्या है, और वह आपके जीवन और घर को कितना प्रभावित कर रही है। जी हां, यह जानकारी आप को निचे दोहे और छंद के माध्यम से दी जा रही है आप कि सुविधा के लिए में इसका भावार्थ में पहले कर देता हूँ। 


अगर आपके घर में तलवार है :- 

और अगर नहीं है और खरीदने का मन बना लिया है तो आप अपने हाथ से तलवार की मूंठ से लेकर निचे अणी तक अपनी अंगुलियों से नाप कर लिजिए। अब जो नाप आता है उसमे तेरह की संख्या और मिला दिजिये अब उक्त संख्या में सात का भाग दिजिये शेष जो बचेगा उसी के अनुसार तलवार का नाम और उसका प्रभाव निचे छंद के रूप में दिया गया है आप सभी विद्वजनो के लिए....

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                Thakur Sachin Chauhan
निज अंगुल से नापिये, तेरह और मिलाय।
भाग सात को दिजिये, खड्ग नाप लखाय।।

पेहली निज मालिनी नेत कहै, लख दूण प्रमाण प्रभाव लहै।
द्वितिय जुतकी कही नेत तलै, कर राखत ताही को त्रुंग मीलै।
त्रितिय लख चण्डी नेत तकी, कभी होत न छांह पिशाचन की।
चवथी निज शंखनी कोप करै, धन भोमि कुटुंब ने आद हरै।
पंचमी पद्मिनी नाम गहै निज हाथ रहे तहां प्राण लहै।
अति नून कहावत तेग छठी, कछु काज सरै न घटे न बधी
सत अंगुल भेद कहै वरणी, जय होय सदा अरि को हरणी
यह छंद विधान कहै जग से, वसुधा कुलरीत रहै खग सै। 

नाप लेने के बाद तेरह मिला कर सात का भाग देवै। 
अब शेष जो बचे उसी के अनुसार फलादेश है मान लिजिए एक बचा तो इस को पहली तलवार और नाम है इसका मालिनी यह घर में रहने से गृह स्वामी का प्रभाव दुगुना हो जाता है। 
इसी प्रकार दूसरी तलवार का नाम जुतकी है जिस के पास रहती है उसे घौड़ा मिलता है आज के हिसाब से सवारी मोटरसाइकिल हो सकती है। 

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तीसरी चंडी और काम भूत पिशाच से रक्षा और चौथी नाम शंखनी काम, धन भुमि कुटुंब का नाश करती है पांचवीं नाम पद्मिनी और काम जिस के हाथ में रहती है उसी के प्राणों का हरण करती है।
छठी नाम अति नून इस से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है न घटता है न बढता है। 
जिस में बराबर भाग चला जाए शेष नहीं बचे उसका नाम वरणी है काम युद्ध मैं जीत और शत्रु का विनाश निश्चित है।