गुरुवार, 28 जनवरी 2021

महारानी जोधाबाई, जो कभी थी ही नहीं, लेकिन बड़ी सफाई से उनका अस्तित्व गढ़ा गया और हम सब झांसे में आ गए....


जब भी कोई हिन्दू राजपूत किसी मुग़ल की गद्दारी की बात करता है तो कुछ मुग़ल प्रेमियों द्वारा उसे जोधाबाई का नाम लेकर चुप कराने की कोशिश की जाती है!

बताया जाता है कि कैसे जोधा ने अकबर की आधीनता स्वीकार की या उससे विवाह किया! परन्तु अकबर कालीन किसी भी इतिहासकार ने जोधा और अकबर की प्रेम कहानी का कोई वर्णन नहीं किया है!

उन सभी इतिहासकारों ने अकबर की सिर्फ 5 बेगम बताई है!
1.सलीमा सुल्तान
2.मरियम उद ज़मानी
3.रज़िया बेगम
4.कासिम बानू बेगम
5.बीबी दौलत शाद

अकबर ने खुद अपनी आत्मकथा अकबरनामा में भी किसी हिन्दू रानी से विवाह का कोई जिक्र नहीं किया। परन्तु हिन्दू राजपूतों को नीचा दिखाने के षड्यंत्र के तहत बाद में कुछ इतिहासकारों ने अकबर की मृत्यु के करीब 300 साल बाद 18 वीं सदी में “मरियम उद ज़मानी”, को जोधा बाई बता कर एक झूठी अफवाह फैलाई!

और इसी अफवाह के आधार पर अकबर और जोधा की प्रेम कहानी के झूठे किस्से शुरू किये गए! जबकि खुद अकबरनामा और जहांगीर नामा के अनुसार ऐसा कुछ नहीं था!

18वीं सदी में मरियम को हरखा बाई का नाम देकर हिन्दू बता कर उसके मान सिंह की बेटी होने का झूठा पहचान शुरू किया गया। फिर 18 वीं सदी के अंत में एक ब्रिटिश लेखक जेम्स टॉड ने अपनी किताब "एनालिसिस एंड एंटीक्स ऑफ़ राजस्थान" में मरियम से हरखा बाई बनी इसी रानी को जोधा बाई बताना शुरू कर दिया!

और इस तरह ये झूठ आगे जाकर इतना प्रबल हो गया कि आज यही झूठ भारत के स्कूलों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया है और जन जन की जुबान पर ये झूठ सत्य की तरह आ चुका है!

और इसी झूठ का सहारा लेकर राजपूतों को नीचा दिखाने की कोशिश जाती है! जब भी मैं जोधाबाई और अकबर के विवाह प्रसंग को सुनता या देखता हूं तो मन में कुछ अनुत्तरित सवाल कौंधने लगते हैं!

आन, बान और शान के लिए मर मिटने वाले शूरवीरता के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध भारतीय क्षत्रिय अपनी अस्मिता से क्या कभी इस तरह का समझौता कर सकते हैं??
हजारों की संख्या में एक साथ अग्नि कुंड में जौहर करने वाली क्षत्राणियों में से कोई स्वेच्छा से किसी मुगल से विवाह कर सकती हैं???? जोधा और अकबर की प्रेम कहानी पर केंद्रित अनेक फिल्में और टीवी धारावाहिक मेरे मन की टीस को और ज्यादा बढ़ा देते हैं!

अब जब यह पीड़ा असहनीय हो गई तो एक दिन इस प्रसंग में इतिहास जानने की जिज्ञासा हुई तो पास के पुस्तकालय से अकबर के दरबारी 'अबुल फजल' द्वारा लिखित 'अकबरनामा' निकाल कर पढ़ने के लिए ले आया, उत्सुकतावश उसे एक ही बैठक में पूरा पढ़ डाली । पूरी किताब पढ़ने के बाद घोर आश्चर्य तब हुआ, जब पूरी पुस्तक में जोधाबाई का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं मिला!

मेरी आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा को भांपते हुए मेरे मित्र ने एक अन्य ऐतिहासिक ग्रंथ 'तुजुक-ए- जहांगिरी' जो जहांगीर की आत्मकथा है उसे दिया! इसमें भी आश्चर्यजनक रूप से जहांगीर ने अपनी मां जोधाबाई का एक भी बार जिक्र नहीं किया!

हां कुछ स्थानों पर हीर कुँवर और हरका बाई का जिक्र जरूर था। अब जोधाबाई के बारे में सभी ऐतिहासिक दावे झूठे समझ आ रहे थे । कुछ और पुस्तकों और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी के पश्चात हकीकत सामने आयी कि “जोधा बाई” का पूरे इतिहास में कहीं कोई जिक्र या नाम नहीं है!

इस खोजबीन में एक नई बात सामने आई, जो बहुत चौंकाने वाली है! इतिहास में दर्ज कुछ तथ्यों के आधार पर पता चला कि आमेर के राजा भारमल को दहेज में 'रुकमा' नाम की एक पर्सियन दासी भेंट की गई थी, जिसकी एक छोटी पुत्री भी थी!

रुकमा की बेटी होने के कारण उस लड़की को 'रुकमा-बिट्टी' नाम से बुलाते थे आमेर की महारानी ने रुकमा बिट्टी को 'हीर कुँवर' नाम दिया चूँकि हीर कुँवर का लालन पालन राजपूताना में हुआ, इसलिए वह राजपूतों के रीति-रिवाजों से भली भांति परिचित थी!

राजा भारमल उसे कभी हीर कुँवरनी तो कभी हरका कह कर बुलाते थे। राजा भारमल ने अकबर को बेवकूफ बनाकर अपनी परसियन दासी रुकमा की पुत्री हीर कुँवर का विवाह अकबर से करा दिया, जिसे बाद में अकबर ने मरियम-उज-जमानी नाम दिया!

चूँकि राजा भारमल ने उसका कन्यादान किया था, इसलिये ऐतिहासिक ग्रंथों में हीर कुँवरनी को राजा भारमल की पुत्री बता दिया! जबकि वास्तव में वह कच्छवाह राजकुमारी नहीं, बल्कि दासी-पुत्री थी!

राजा भारमल ने यह विवाह एक समझौते की तरह या राजपूती भाषा में कहें तो हल्दी-चन्दन किया था। इस विवाह के विषय में अरब में बहुत सी किताबों में लिखा है!

(“ونحن في شك حول أكبر أو جعل الزواج راجبوت الأميرة في هندوستان آرياس كذبة لمجلس”) हम यकीन नहीं करते इस निकाह पर हमें
संदेह है, इसी तरह ईरान के मल्लिक नेशनल संग्रहालय एन्ड लाइब्रेरी में रखी किताबों में एक भारतीय मुगल शासक का विवाह एक परसियन दासी की पुत्री से करवाए जाने की बात लिखी है!

'अकबर-ए-महुरियत' में यह साफ-साफ लिखा है कि (ہم راجپوت شہزادی یا اکبر کے بارے میں شک میں ہیں)

हमें इस हिन्दू निकाह पर संदेह है, क्योंकि निकाह के वक्त राजभवन में किसी की आखों में आँसू नहीं थे और ना ही हिन्दू गोद भराई की रस्म हुई थी!

सिक्ख धर्म गुरू अर्जुन और गुरू गोविन्द सिंह ने इस विवाह के विषय में कहा था कि क्षत्रियों ने अब तलवारों और बुद्धि दोनों का इस्तेमाल करना सीख लिया है, मतलब राजपूताना अब तलवारों के साथ-साथ बुद्धि का भी काम लेने लगा है!

17वी सदी में जब 'परसी' भारत भ्रमण के लिये आये तब अपनी रचना ”परसी तित्ता” में लिखा “यह भारतीय राजा एक परसियन वैश्या को सही हरम में भेज रहा है अत: हमारे देव (अहुरा मझदा) इस राजा को स्वर्ग दें"!

भारतीय राजाओं के दरबारों में राव और भाटों का विशेष स्थान होता था, वे राजा के इतिहास को लिखते थे और विरदावली गाते थे उन्होंने साफ साफ लिखा है-

”गढ़ आमेर आयी तुरकान फौज ले ग्याली पसवान कुमारी ,राण राज्या राजपूता ले ली इतिहासा पहली बार ले बिन लड़िया जीत! (1563 AD)

मतलब आमेर किले में मुगल फौज आती है और एक दासी की पुत्री को ब्याह कर ले जाती है! हे रण के लिये पैदा हुए राजपूतों तुमने इतिहास में ले ली बिना लड़े पहली जीत 1563 AD!

ये ऐसे कुछ तथ्य हैं, जिनसे एक बात समझ आती है कि किसी ने जानबूझकर गौरवशाली क्षत्रिय समाज को नीचा दिखाने के उद्देश्य से ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ की और यह कुप्रयास अभी भी जारी है!

लेकिन अब यह षड़यंत्र अधिक दिन नहीं चलेगा।

साभार🙏🏻

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट हर्षवर्धन


इस्लाम धर्म के संस्‍थापक हजरत मुहम्मद के समकालीन राजा हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था उनके काल में कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे…

 हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था यहां 51 शक्तिपीठों में से 1 पीठ है हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संदर्भ में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजा गया है…

हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था उनके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा
हर्ष ने लगभग 41 वर्ष शासन किया इन वर्षों में हर्ष ने अपने साम्राज्य का विस्तार जालंधर, पंजाब, कश्मीर, नेपाल एवं बल्लभीपुर तक कर लिया इसने आर्यावर्त को भी अपने अधीन किया हर्ष को बादामी के चालुक्यवंशी शासक पुलकेशिन द्वितीय से पराजित होना पड़ा ऐहोल प्रशस्ति (634 ई.) में इसका उल्लेख मिलता है माना जाता है कि हर्षवर्धन ने अरब पर भी चढ़ाई कर दी थी…

लेकिन रेगिस्तान के एक क्षेत्र में उनको रोक दिया गया 
 6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया…

 कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना थी…

'कादंबरी' के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी 'हर्षचरित' में विस्तार से लिखी है।

बुधवार, 30 सितंबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट...राजा भोज (राज भोज)


ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुनर्निर्माण कराया था राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदिशंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था…

कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था इनके ही नाम पर भोज नाम से उपाधी देने का भी प्रचलन शुरू हुआ जो इनके ही जैसे महान कार्य करने वाले राजाओं की दी जाती थी…

 भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं…

 राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में 'सरस्वतीकण्ठभरण' नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में 'सरस्वती मंदिर' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम 'भोजशाला' लिखा था पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है…
 
राजा भोज का परिचय :* परमारवंशीय राजाओं ने 
मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया…

 महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया…

 ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं…

 उन्होंने 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वांत संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धांत', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि ग्रंथों की रचना की…

 'भोज प्रबंधनम्' नाम से उनकी आत्मकथा है हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाष्टक के रूप में विश्वविख्यात है तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था…

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा, राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है…

इसके अलवा गौतमी पुत्र शतकर्णी, यशवर्धन, नागभट्ट और बप्पा रावल, मिहिर भोज, देवपाल, अमोघवर्ष , इंद्र द्वितीय, चोल राजा, राजेंद्र चोल, पृथ्वीराज चौहान, विक्रमादित्य , हरिहर राय और बुक्का राय, राणा सांगा, अकबर, श्रीकृष्णदेववर्मन, महाराणा प्रताप, गुरुगोविंद सिंह, शिवाजी महाराज, पेशवा बाजीराव और बालाजी बाजीराव, महाराजा रणजीत सिंह आदि के शासन में भी जनता खुशहाल और निर्भिक रही।

राष्ट्रवीर हिंदुगौरव वीर दुर्गादास राठौड़ जी


आसाणी तव आस में जड़ रैयगी जौधाण
नितर कलमां नित वल्लता मुलां देता माण 

वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड़ वो शख़्स थे जिन्होंने मारवाड़ तथा यहाँ के राजवंश दोनों को मुग़ल* *बादशाह औरंगज़ेब के कोपभाजन से बचाकर इसके गौरवशाली इतिहास को क़ायम रखा…

धर्मांध औरंगज़ेब नें सता हासिल करनें के लिए हर उस शख़्स को अपनें रास्ते से हटाया जो उसके लिए रौड़ा थे वो चाहे उसके अपनें सग्गे भाई दारा,सूजा,मुराद ही क्यों नहीं हो जिनको मारकर तथा अपनें जन्मदाता शाहजंहा को केद में डालकर उसनें राजगद्दी प्राप्त करी थी उसनें अनेकों अनेक प्राचीन मंदिरों को नेस्तनाबूद किया और उन मंदिरों की मूर्तियों को मस्जिदों की सीड्डियों की जगह लगाकर मंदिरों की जगह को मस्जिदों में परिवर्तित किया…

उसनें उन सभी को मरवाया जिसनें अपना धर्म नहीं बदला चाहे वो शिवाजी महाराज के पुत्र शम्भाजी हो जिनके हाथ पाँव के नाख़ून और आँखें तक निकाल ली गयी,सिक्खों के गुरु गोविन्दसिंहजी के पुत्र जौरावरसिंह और फ़तहसिंह वो बहादुर नौजवान थे,जिनको इस्लाम स्वीकार नहीं करनें पर ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया ताकि इसको देखकर कायर लोग अपना धर्म परिवर्तन करलें 
 ये सब समकालीन एतिहासिक ग्रंथों में लिखित है जो प्रामाणिक है की धार्मिक कट्टरता के कारण हिंदुस्थान में जगह जगह विद्रोह हुए… 

जिसके फलस्वरूप मुग़ल सता धीरे धीरे कमज़ोर होती गयी आख़िर में हमेशा के लिए समाप्त हुई उसके बाद कोई योग्य उतराधिकारी नहीं रहा…

अगर उसके मन में कहीं किसी का भय था तो सिर्फ मारवाड़ के महानायक दुर्गादास राठौड़ का…

मारवाड़ के अस्तित्व को बचाने व भारतवर्ष मे औरंगजेब की इस्लामीकरण की आंधी को रोकने के लिऐ 28 साल घोड़े की पीठपर अपना आसियाना रखकर यहा तक की घोड़े की पीठपर ही भाले की नोक से श्मशान की आग पर रोटियां सेक कर पेट की आग को शांत कर संघर्ष कर मारवाड़ को तो बचाया ही साथ ही औरंगजेब को लगातार युद्धों मे उलझाये रखकर हिंदुधरम को बचाया हिंदुस्तान के इतिहास मे पुरुषोत्तम श्री राम के बाद समस्त क्षत्रियोचित गुणों को धारण कर हिंदुधरम की रक्षा करने वाली महान शख्सियत वीरदुर्गादास राठौड़ थे जिन्हें बड़े फक्र के साथ हम हिंदुगौरव कहकर अपने आपको गौरवान्वित महसुस करते है।

आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले ऊपर वास 
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

🙏🏻जय🪔मां🪔भवानी🔱

पाटण की रानी रुदाबाई👆जिसने सुल्तान बेगडा के सीने को फाड़ कर 👉दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, और

👉धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था। 
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गुजरात से कर्णावती के राजा थे…
राणा वीर सिंह वाघेला (सोलंकी), ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह वाघेला के पराक्रम के सामने सुल्तान  की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज २ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह वाघेला को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान  को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान  वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान  का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और.. उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 

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                Thakur Sachin Chauhan

👑जय💪राजपूताना।🚩

बुधवार, 2 सितंबर 2020

तलवार का नाप

आप के घर में क्या तलवार है :-

 क्या आपको पता है कि उस तलवार का नाप क्या है, और वह आपके जीवन और घर को कितना प्रभावित कर रही है। जी हां, यह जानकारी आप को निचे दोहे और छंद के माध्यम से दी जा रही है आप कि सुविधा के लिए में इसका भावार्थ में पहले कर देता हूँ। 


अगर आपके घर में तलवार है :- 

और अगर नहीं है और खरीदने का मन बना लिया है तो आप अपने हाथ से तलवार की मूंठ से लेकर निचे अणी तक अपनी अंगुलियों से नाप कर लिजिए। अब जो नाप आता है उसमे तेरह की संख्या और मिला दिजिये अब उक्त संख्या में सात का भाग दिजिये शेष जो बचेगा उसी के अनुसार तलवार का नाम और उसका प्रभाव निचे छंद के रूप में दिया गया है आप सभी विद्वजनो के लिए....

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                Thakur Sachin Chauhan
निज अंगुल से नापिये, तेरह और मिलाय।
भाग सात को दिजिये, खड्ग नाप लखाय।।

पेहली निज मालिनी नेत कहै, लख दूण प्रमाण प्रभाव लहै।
द्वितिय जुतकी कही नेत तलै, कर राखत ताही को त्रुंग मीलै।
त्रितिय लख चण्डी नेत तकी, कभी होत न छांह पिशाचन की।
चवथी निज शंखनी कोप करै, धन भोमि कुटुंब ने आद हरै।
पंचमी पद्मिनी नाम गहै निज हाथ रहे तहां प्राण लहै।
अति नून कहावत तेग छठी, कछु काज सरै न घटे न बधी
सत अंगुल भेद कहै वरणी, जय होय सदा अरि को हरणी
यह छंद विधान कहै जग से, वसुधा कुलरीत रहै खग सै। 

नाप लेने के बाद तेरह मिला कर सात का भाग देवै। 
अब शेष जो बचे उसी के अनुसार फलादेश है मान लिजिए एक बचा तो इस को पहली तलवार और नाम है इसका मालिनी यह घर में रहने से गृह स्वामी का प्रभाव दुगुना हो जाता है। 
इसी प्रकार दूसरी तलवार का नाम जुतकी है जिस के पास रहती है उसे घौड़ा मिलता है आज के हिसाब से सवारी मोटरसाइकिल हो सकती है। 

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तीसरी चंडी और काम भूत पिशाच से रक्षा और चौथी नाम शंखनी काम, धन भुमि कुटुंब का नाश करती है पांचवीं नाम पद्मिनी और काम जिस के हाथ में रहती है उसी के प्राणों का हरण करती है।
छठी नाम अति नून इस से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है न घटता है न बढता है। 
जिस में बराबर भाग चला जाए शेष नहीं बचे उसका नाम वरणी है काम युद्ध मैं जीत और शत्रु का विनाश निश्चित है।

क्षत्राणी माता जिया रानी ( मौला देवी पुंडीर ) की गौरवगाथा

इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए व्यक्तित्व होते हैं जिनके बारे में ज्यादा लोग
नहीं जानते मगर एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वे
लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं,आज हम आपको एक ऐसी ही वीरांगना
से परिचित कराएँगे जिनकी कुलदेवी के रूप में आज तक उतराखंड में
पूजा की जाती है.
उस वीरांगना का नाम है राजमाता जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) जिन्हें
कुमायूं की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है -
जिया रानी(मौला देवी पुंडीर)
हरिद्वार(मायापुर) के शासक चन्द्र पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े
सामन्त थे,
तुर्को से संघर्ष में चन्द्र पुंडीर,उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और
पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया।
ईस्वी 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद
देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था,मगर उसके बाद भी किसी तरह
दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा,
ईस्वी 1380 के आसपास हरिद्वार पर अमरदेव पुंडीर का शासन था, जिया
रानी का बचपन का नाम मौला देवी था,वो हरिद्वार(मायापुर) के राजा
अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी,
इस क्षेत्र में तुर्कों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि
गढ़वाल और कुमायूं में भी तुर्कों के हमले होने लगे,ऐसे ही एक हमले में
कुमायूं (पिथौरागढ़) के कत्युरी राजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव
पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता
के लिए भेजा,
जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी का विवाह
कुमायूं के कत्युरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया,
मौला देवी प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी,उनके धामदेव,दुला,ब्रह्मदेव पुत्र
हुए जिनमे ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से मानते
हैं,मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को जिया
कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया,
कुछ समय बाद जिया रानी की प्रीतम देव की पहली पत्नी से अनबन हो
गयी और वो अपने पुत्र के साथ गोलाघाट की जागीर में चली गयी जहां
उन्होंने एक खूबसूरत रानी बाग़ बनवाया,यहाँ जिया रानी 12 साल तक रही।

⛳जय राजपूताना 🚩 जय क्षत्राणी ⛳

बुधवार, 26 अगस्त 2020

भारतीय इतिहास के पन्नों में अत्यंत सुंदर और साहसी रानी; रानी पद्मावती।

भारतीय इतिहास के पन्नों में अत्यंत सुंदर और साहसी रानी; रानी पद्मावती का उल्लेख है। रानी पद्मावती को रानी पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता है। रानी पद्मावती के पिता सिंघल प्रांत (श्रीलंका) के राजा थे। उनका नाम गंधर्वसेन था। और उनकी माता का नाम चंपावती था। पद्मावती बाल्य काल से ही दिखने में अत्यंत सुंदर और आकर्षक थीं। उनके माता-पिता नें उन्हे बड़े लाड़-प्यार से बड़ा किया था। कहा जाता है बचपन में पद्मावती के पास एक बोलता तोता था जिसका नाम हीरामणि रखा गया था।

रानी पद्मावती का स्वयंवर

महाराज गंधर्वसेन नें अपनी पुत्री पद्मावती के विवाह के लिए उनका स्वयंवर रचाया था जिस में भाग लेने के लिए भारत के अगल अलग हिन्दू राज्यों के राजा-महाराजा आए थे। गंधर्वसेन के राज दरबार में लगी राजा-महाराजाओं की भीड़ में एक छोटे से राज्य का पराक्रमी राजा मल्खान सिंह भी आया था। उसी स्वयंवर में विवाहित राजा रावल रत्न सिंह भी मौजूद थे। उन्होनें मल्खान सिंह को स्वयंवर में परास्त कर के रानी पद्मिनी पर अपना अधिकार सिद्ध किया और उनसे धाम-धूम से विवाह रचा लिया। इस तरह राजा रावल रत्न सिंह अपनी दूसरी पत्नी रानी पद्मावती को स्वयंवर में जीत कर अपनी राजधानी चित्तौड़ वापस लौट गये।

चित्तौड़ राज्य

प्रजा प्रेमी और न्याय पालक राजा रावल रत्न सिंह चित्तौड़ राज्य को बड़े कुशल तरीके से चला रहे थे। उनके शासन में वहाँ की प्रजा हर तरह से सुखी समपन्न थीं। राजा रावल रत्न सिंह रण कौशल और राजनीति में निपुण थे। उनका भव्य दरबार एक से बढ़कर एक महावीर योद्धाओं से भरा हुआ था। चित्तौड़ की सैन्य शक्ति और युद्ध कला दूर-दूर तक मशहूर थी।

चित्तौड़ का प्रवीण संगीतकार राघव चेतन
चित्तौड़ राज्य में राघव चेतन नाम का संगीतकार बहुत प्रसिद्ध था। महाराज रावल रत्न सिंह उन्हे बहुत मानते थे इसीलिये राज दरबार में राघव चेतन को विशेष स्थान दिया गया था। चित्तौड़ प्रजा और वहाँ के महाराज को उन दिनों यह बात मालूम नहीं थी की राघव चेतन संगीत कला के अतिरिक्त जादू-टोना भी जनता था। ऐसा कहा जाता है की राघव चेतन अपनी इस आसुरी प्रतिभा का उपयोग शत्रु को परास्त करने और अपने कार्य सिद्ध करने में करता था। एक दिन राघव चेतन जब अपना कोई तांत्रिक कार्य कर रहा था तब उसे रंगे हाथों पकड़ लिया गया और राजदरबार में राजा रावल रत्न सिंह के समक्ष पेश कर दिया गया। सभी साक्ष्य और फरियादी पक्ष की दलील सुन कर महाराज नें चेतन राघव को दोषी पाया और तुरंत उसका मुंह काला करा कर गधे पर बैठा कर देश निकाला दे दिया।

अलाउद्दीन खिलजी से मिला राघव चेतन

अपने अपमान और राज्य से निर्वासित किये जाने पर राघव चेतन बदला लेने पर आमादा हो गया। अब उसके जीवन का एक ही लक्ष्य रहे गया था और वह था चित्तौड़ के महाराज रावल रत्न सिंह का सम्पूर्ण विनाश। अपने इसी उद्देश के साथ वह दिल्ली राज्य चला गया। वहां जाने का उसका मकसद दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को उकसा कर चित्तौड़ पर आक्रमण करवा कर अपना प्रतिशोध पूरा करने का था।

12वीं और 13वीं सदी में दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी का राज था। उन दिनों दिल्ली के बादशाह से मिलना इतना आसान कार्य नहीं था। इसीलिए राघव चेतन दिल्ली के पास स्थित एक जंगल में अपना डेरा डाल कर रहने लगता है क्योंकि वह जानता था कि दिल्ली का बादशाह अलाउद्दीन खिलजी शिकार का शौक़ीन है और वहाँ पर उसकी भेंट ज़रूर अलाउद्दीन खिलजी से हो जाएगी। कुछ दिन इंतज़ार करने के बाद आखिर उसे सब्र का फल मिल जाता है।

एक दिन अलाउद्दीन खिलजी अपने खास सुरक्षा कर्मी लड़ाकू दस्ते के साथ घने जंगल में शिकार खेलने पहुँचता है। मौका पा कर ठीक उसी वक्त राघव चेतन अपनी बांसुरी बजाना शुरू करता है। कुछ ही देर में बांसुरी के सुर बादशाह अलाउद्दीन खिलजी और उसके दस्ते के सिपाहियों के कानों में पड़ते हैं। अलाउद्दीन खिलजी फ़ौरन राघव चेतन को अपने पास बुला लेता है राज दरबार में आ कर अपना हुनर प्रदर्शित करने का प्रस्ताव देता है। तभी चालाक राघव चेतन अलाउद्दीन खिलजी से कहता है- कि आप मुझ जैसे साधारण कलकार को अपनें राज्य दरबार की शोभा बना कर क्या पाएंगे, अगर हासिल ही करना है तो अन्य समपन्न राज्यों की ओर नज़र दौड़ाइये जहां एक से बढ़ कर एक बेशकीमती नगीने मौजूद हैं और उन्हे  जीतना और हासिल करना भी सहज है।

अलाउद्दीन खिलजी तुरंत राघव चेतन को पहेलिया बुझानें की बजाए साफ-साफ अपनी बात बताने को कहता हैं। तब राघव चेतन चित्तौड़ राज्य की सैन्य शक्ति, चित्तौड़ गढ़ की सुरक्षा और वहाँ की सम्पदा से जुड़ा एक-एक राज़ खोल देता है और राजा रावल रत्न सिंह की धर्म पत्नी रानी पद्मावती के अद्भुत सौन्दर्य का बखान भी कर देता है। यह सब बातें जान कर अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ राज्य पर आक्रमण कर के वहाँ की सम्पदा लूटने, वहाँ कब्ज़ा करने और परम तेजस्वी रूप रूप की अंबार रानी पद्मावती को हासिल करने का मन बना लेता है।

अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ राज्य पर आक्रमण की योजना।

राघव चेतन की बातें सुन कर अलाउद्दीन खिलजी नें कुछ ही दिनों में चित्तौड़ राज्य पर आक्रमण करने का मन बना लिया और अपनी एक विशाल सेना चित्तौड़ राज्य की और रवाना कर दी। अलाउद्दीन खिलजी की सेना चित्तौड़ तक पहुँच तो गयी पर चित्तौड़ के किले की अभेद्य सुरक्षा देख कर अलाउद्दीन खिलजी की पूरी सेना स्तब्ध हो गयी। उन्होने वहीं किले के आस पास अपने पड़ाव डाल लिए और चित्तौड़ राज्य के किले की सुरक्षा भेदने का उपाय ढूँढने लगे।

अलाउद्दीन खिलजी नें राजा रावल रत्न सिंह को भेजा कपट संदेश

जब से राजा रावल रत्न सिंह नें रूप सुंदरी रानी पद्मावती को स्वयमर में जीता था तभी से पद्मावती अपनी सुंदरता के लिये दूर-दूर तक चर्चा का विषय बनी हुई थी। इस बात का फायदा उठाते हुए कपटी अलाउद्दीन खिलजी नें चित्तौड़ किले के अंदर राजा रावल रत्न सिंह के पास एक संदेश भिजवाया कि वह रानी पद्मावती की सुंदरता का बखान सुन कर उनके दीदार के लिये दिल्ली से यहाँ तक आये हैं और अब एक बार रूप सुंदरी रानी पद्मावती को दूर से देखने का अवसर चाहते हैं।

अलाउद्दीन खिलजी नें यहाँ तक कहा की वह रानी पद्मावती को अपनी बहन समान मानते हैं और वह सिर्फ उसे दूर से एक नज़र देखने की ही तमन्ना रखते हैं।

चित्तौड़ के महाराज रावल रत्न सिंह का अलाउद्दीन खिलजी को जवाब

अलाउद्दीन खिलजी की इस अजीब मांग को राजपूत मर्यादा के विरुद्ध बता कर राजा रावल रत्न सिंह नें ठुकरा दिया। पर फिर भी अलाउद्दीन खिलजी नें रानी पद्मावती को बहन समान बताया था इसलिये उस समय एक रास्ता निकाला गया। पर्दे के पीछे रानी पद्मावती सीढ़ियों के पास से गुज़रेंगी और सामने एक विशाल काय शीशा रखा जाएगा जिसमें रानी पद्मावती का प्रतिबिंम अलाउद्दीन खिलजी देख सकते हैं। इस तरह राजपूतना मर्यादा भी भंग ना होगी और अलाउद्दीन खिलजी की बात भी रह जायेगी।

अलाउद्दीन खिलजी नें दिया धोखा

शर्त अनुसार चित्तौड़ के महाराज ने अलाउद्दीन खिलजी को आईने में रानी पद्मावती का प्रतिबिंब दिखला दिया और फिर अलाउद्दीन खिलजी को खिला-पिला कर पूरी महेमान नवाज़ी के साथ चित्तौड़ किले के सातों दरवाज़े पार करा कर उनकी सेना के पास छोड़ने खुद गये। इसी अवसर का लाभ ले कर कपटी अलाउद्दीन खिलजी नें राजा रावल रत्न सिंह को बंदी बना लिया और किले के बाहर अपनी छावनी में कैद कर दिया।

 इसके बाद संदेश भिजवा दिया गया कि –
अगर महाराज रावल रत्न सिंह को जीवित देखना है तो रानी पद्मावती को फौरन अलाउद्दीन खिलजी की खिदमद में किले के बाहर भेज दिया जाये।

रानी पद्मावती, चौहान राजपूत सेनापति गौरा और बादल की युक्ति

चित्तौड़ राज्य के महाराज को अलाउद्दीन खिलजी की गिरफ्त से सकुशल मुक्त कराने के लिये रानी पद्मावती, गौरा और बादल नें मिल कर एक योजना बनाई। इस योजना के तहत किले के बाहर मौजूद अलाउद्दीन खिलजी तक यह पैगाम भेजना था की रानी पद्मावती समर्पण करने के लिये तैयार है और पालकी में बैठ कर किले के बाहर आने को राज़ी है। और फिर पालकी में रानी पद्मावती और उनकी सैकड़ों दासीयों की जगह नारी भेष में लड़ाके योद्धा भेज कर बाहर मौजूद दिल्ली की सेना पर आक्रमण कर दिया जाए और इसी अफरातफरी में राजा रावल रत्न सिंह को अलाउद्दीन खिलजी की कैद से मुक्त करा लिया जाये।

रानी पद्मावती के इंतज़ार में बावरा हुआ अलाउद्दीन खिलजी

कहा जाता है की वासना और लालच इन्सान की बुद्धि हर लेती है। अलाउद्दीन खिलजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। जब चित्तौड़ किले के दरवाज़े एक के बाद एक खुले तब अंदर से एक की जगह सैकड़ों पालकियाँ बाहर आने लगी। जब यह पूछा गया की इतनी सारी पालकियाँ क्यूँ साथ हैं तब अलाउद्दीन खिलजी को यह उत्तर दिया गया की यह सब रानी पद्मावती की खास दासीयों का काफिला है जो हमेशा उनके साथ जाता है।

अलाउद्दीन खिलजी रानी पद्मावती पर इतना मोहित था की उसने इस बात की पड़ताल करना भी ज़रूरी नहीं समझा की सभी पालकियों को रुकवा कर यह देखे कि उनमें वाकई में दासियाँ ही है। और इस तरह चित्तौड़ का एक पूरा लड़ाकू दस्ता नारी भेष में किले के बाहर आ पहुंचा। कुछ ही देर में अलाउद्दीन खिलजी नें रानी पद्मावती की पालकी अलग करवा दी और परदा हटा कर उनका दीदार करना चाहा। तो उसमें से राजपूत सेनापति गौरा निकले और उन्होने आक्रमण कर दिया। उसी वक्त चित्तौड़ सिपाहीयों नें भी हमला कर दिया और वहाँ मची अफरातफरी में बादल नें राजा रावल रत्न सिंह को बंधन मुक्त करा लिया और उन्हे अलाउद्दीन खिलजी के अस्तबल से चुराये हुए घोड़े पर बैठा कर सुरक्षित चित्तौड़ किले के अंदर पहुंचा दिया। इस लड़ाई मे राजपूत सेनापति गौरा और पालकी के संग बाहर आये सभी योद्धा शहीद हो गये।
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अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण

अपनी युक्ति नाकाम हो जाने की वजह से बादशाह अलाउद्दीन खिलजी झल्ला उठा उसनें उसी वक्त चित्तौड़ किले पर आक्रमण कर दिया पर वे उस अभेद्य किले में दाखिल नहीं हो सके। तब उन्होने किले में खाद्य और अन्य ज़रूरी चीजों के खत्म होने तक इंतज़ार करने का फैसला लिया। कुछ दिनों में किले के अंदर खाद्य आपूर्ति समाप्त हो गयी और वहाँ के निवासी किले की सुरक्षा से बाहर आ कर लड़ मरने को मजबूर हो गये। अंत में रावल रत्न सिंह नें द्वार खोल कर आर- पार की लड़ाई लड़ने का फैसला कर लिया और किले के दरवाज़े खोल दिये। किले की घेराबंदी कर के राह देख रहे मौका परस्त अलाउद्दीन खिलजी ने और उसकी सेना नें दरवाज़ा खुलते ही तुरंत आक्रमण कर दिया।

इस भीषण युद्ध में पराक्रमी राजा रावल रत्न सिंह वीर गति हो प्राप्त हुए और उनकी पूरी सेना भी हार गयी। अलाउद्दीन खिलजी नें एक-एक कर के सभी राजपूत योद्धाओं को मार दिया और किले के अंदर घुसने की तैयारी कर ली।

चित्तौड़ की महारानी पद्मावती और नगर की सभी महिलाओं नें लिया जौहर करने का फैसला

युद्ध में राजा रावल रत्न सिंह के मारे जाने और चित्तौड़ सेना के समाप्त हो जाने की सूचना पाने के बाद रानी पद्मावती जान चुकी थी कि अब अलाउद्दीन खिलजी की सेना किले में दाखिल होते ही चित्तौड़ के आम नागरिक पुरुषों और बच्चों को मौत के घाट उतार देगी और औरतों को गुलाम बना कर उन पर अत्याचार करेगी। इसलिये राजपूतना रीति अनुसार वहाँ की सभी महिलाओं नें जौहर करने का फैसला लिया।

जौहर की रीति निभाने के लिए नगर के बीच एक बड़ा सा अग्नि कुंड बनाया गया और रानी पद्मावती और अन्य महिलाओं ने एक के बाद एक महिलायेँ उस धधकती चिता में कूद कर अपने प्राणों की बलि दे दी।

इतिहास में राजा रावल रत्न सिंह, रानी और पद्मावती, सेना पति गौरा और बादल का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है और चित्तौड़ की सेना वहाँ के आम नागरिक भी सम्मान के साथ याद किये जाते हैं जिनहोने अपनी जन्म भूमि की रक्षा के खातिर अपने प्राणों का बलिदान दिया।

सोमवार, 10 अगस्त 2020

पहला हाईप्रोफाइल पुलिस एनकाउंटर


#पहला_हाईप्रोफाइल_पुलिस_एनकाउंटर

राजस्थान के भरतपुर- डीग में 20 फरवरी 1985 को पुलिस फायरिंग में हुई थी राजा मानसिंह की मौत .... मानसिंह पर तत्कालीन सीएम शिवचरण माथुर के हेलिकाॅप्टर को तोड़ने का लगा था आरोप....

केस में अब तक हो चुकीं 1607 तारीखें....करीब 35 साल पहले हुए इस हत्याकांड में अब तक लगभग 1607 तारीखें पड़ने के साथ ही 14 वकील बदल चुके हैं.... फैसला कब आएगा यह तो नहीं कहा जा सकता.... लेकिन.... भरतपुर के लोगों को इसका इंतजार जरूर है.... केस की गंभीरता इसी से आंकी जा सकती है कि मुख्य आरोपी तत्कालीन डीएसपी कानसिंह भाटी एवं 14 अन्य आरोपियों को पेशी पर स्पेशल टास्क फोर्स की निगरानी में लाया जाता है.... अनुमान है कि एक पेशी पर सरकार के करीब 50 हजार रुपए खर्च होते हैं.... अब तक पेशी कराने में ही सरकार के करीब 9 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं.....

झंडा उतारने से नाराज राजा मानसिंह ने तोड़ दिया था सीएम का हेलीकॉप्टर............

वर्ष 1985 में विधानसभा चुनाव हो रहे थे..... राजा मानसिंह निर्दलीय प्रत्याशी थे और कांग्रेस के प्रत्याशी सेवानिवृत आईएएस ब्रजेंद्रसिंह थे.... कांग्रेस के पक्ष में सभा करने के लिए 20 फरवरी को तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर डीग आए थे... बताया जाता है कि कांग्रेस समर्थकों ने किले में लक्खा तोप के पास लगे राजा मानसिंह के रियासतकालीन झंडे को हटाकर कांग्रेस का झंडा लगा दिया था.... इससे राजा मानसिंह नाराज हो गए.....

एफआईआर के अनुसार राजा मानसिंह ने चौड़ा बाजार में लगे तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवचरण माथुर के सभा मंच को जोंगा (वाहन) की टक्कर से तोड़ दिया.... इसके बाद वे हायर सेकंडरी स्कूल पहुंचे और सीएम के हेलीकॉप्टर को टक्कर मारकर क्षतिग्रस्त कर दिया..... इस मामले में दो एफआईआर दर्ज हुई... तत्कालीन डीएसपी कानसिंह भाटी 21 फरवरी 1985 को दोनों एफआईआर की कापी लेकर जयपुर जाने वाले थे... लेकिन.... बताते हैं कि उन्हें फोन आया और वे जयपुर जाने के बजाय थाने पहुंच गए..... वहां आरएसी के कुछ जवानों समेत हथियार बंद फोर्स को तैयार कर राजा मानसिंह को गिरफ्तार करने की बात कही.....

पुलिस ने अनाज मंडी में राजा मानसिंह को हाथ से रुकने का इशारा किया.... लेकिन, राजा मानसिंह ने आगे रुकने का इशारा किया.... इस पर पुलिस जीप के ड्राइवर महेंद्र सिंह ने जीप को जोंगा के आगे लगा दिया.... जब राजा मानसिंह अपने जोंगा को बैक करने लगे तभी फायरिंग हुई.... इसमें राजा मानसिंह... ...सुमेरसिंह और हरिसिंह को गोली लगी... जिन्हें भरतपुर के अस्पताल लाया गया.... जहां उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया.... इस काण्ड के बाद शिवचरण माथुर की मुख्यमंत्री पद की कुर्सी चली गई थी....||

ये वो जोंगा जीप का कबाड़ है जिससे मानसिंह ने मंच और हेलिकॉप्टर तोड़ा था...
कॉपी पेस्ट.....साभार