रविवार, 24 सितंबर 2017

खँगार और गढ़कुँडार

खँगार और गढ़कुँडार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश : –

इस पुस्तक में बुंदेलखंड के इतिहास का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इतिहास का जितना संबंध इस कहानी से है, बहुत संक्षेप में केवल उसी का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा।

परिचय: –

इस उपन्यास की घटनाओं के परिचय के लिए और कुछ लिखने की आवश्यकता न होती, परंतु इसमें यत्र-तत्र तत्कालीन इतिहास की चर्चा है, इसलिए यहाँ थोड़ा-सा परिचय देने की आवश्यकता जान पड़ी। बुंदेलखंड के इतिहास का संक्षेप में भी यहाँ वर्णन करना अभीष्ट नहीं है। इतिहास का जितना संबंध इस कहानी से है, बहुत संक्षेप में केवल उसी का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा। 

पहले यहाँ गोंडों का राज्य था, परंतु उनके मंडलेश्वर या सम्राट पाटलिपुत्र और पश्चात् प्रयाग के मौर्य हुए। जब मौर्य क्षीण हो गए, तब पड़िहारों का राज्य हुआ, परंतु उनकी राजधानी मऊ सहानिया हुई, जो नौगाँव छावनी से पूर्व में लगभग तीन मील दूर है। आठवीं शताब्दी के लगभग चंदेलों का उदय खजुराहो और मनियागढ़ के निकट हुआ और उनके राज्य-काल में जुझौति (आधुनिक बुंदेलखंड) आश्चर्यपूर्ण श्री और गौरव को प्राप्त हुआ। सन् 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने अंतिम चंदेलराजा परमर्दिदेव (परमाल) को पहूज नदी के सिरसागढ़ पर हराकर चंदेल-गौरव को सदा के लिए अस्त कर दिया।
इसके बाद सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान स्वयं शहाबुद्दीन गोरी से पराजित खेतसिंह खंगार के हाथ में था। वह 1192 के बाद स्वतंत्र हो गया, और खंगारों के हाथ में जुझौति का अधिकांश भाग अस्सी वर्ष के लगभग रहा। 

इस बीच में मुसलमानों के कई हमले जुझौति पर हुए, परंतु दीर्घ काल तक कभी भी यह प्रदेश मुसलामानों की अधीनता में नहीं रहा। कुंडार का अंतिम खंगार राजा हुरमतसिंह था। उसकी अधीनता में कुछ बुंदेले सरदार भी थे। सोहनपाल के भाई, माहौनी के अधिकारी भी ऐसे ही सरदारों में थे। सोहनपाल के साथ उनके भाई ने न्यायोचित बरताव नहीं किया था, इसलिए उनको कुंडार-राजा से सहायता की याचना करनी पड़ी। उनका विश्वस्त साथी धीर प्रधान नाम का एक कायस्थ था। धीर प्रधान का एक मित्र विष्णुदत्त पांडे उस समय कुंडार में था। पांडे बहुत बड़ा साहूकार था। उसका लाखों रुपया ऋण हुरमतसिंह पर था-शायद पहले से पांडे घराने का ऋण खंगार राजाओं पर चला आता हो। धीरे प्रधान अपने मित्र विष्णुदत्त पांडे के पास अपने स्वामी सोहनपाल का अभीष्ट सिद्ध करने के लिए गया। हुरमतसिंह अपने लड़के नागदेव के साथ सोहनपाल की कन्या का विवाह-संबंध चाहता था। यह बुंदेलों को स्वीकार न हुआ। उसी जमाने में सोहनपाल स्वयं सकुटुंब कुंडार गए। हुरमतसिंह के पुत्र ने उनकी लड़की को जबरदस्ती पकड़ना चाहा। परंतु यह प्रयत्न विफल हुआ। इसके पश्चात् जब बुंदेलों ने देखा कि उनकी अवस्था और किसी तरह नहीं सुधर सकती, तब उन्होंने खंगार राजा के पास संवाद भेजा कि लड़की देने को तैयार हैं; साथ ही विवाह की रीति-रस्म भी खंगारों की विधि के अनुसार ही बरती जाने की हामी भर दी। खंगार इसको चाहते ही थे। मद्यपान का उनमें अधिकता के साथ प्रचार था। 

विवाह के पहले एक जलसा हुआ। खंगारों ने उसमें खूब शराब ढाली। मदमत्त होकर नशे में चूर हो गए। तब बुंदेलों ने उनका नाश कर दिया। यह घटना सन् 1228 (संवत् 1345) की बतलाई जाती है। बुंदेलों के पहले राजा सोहनपाल हुए। उनका देहांत सन् 1299 में हो गया। उनके बाद राजा सहजेंद्र हुए और उन्होंने सन् 1326 तक राज्य किया। इस प्रकार बुंदेले कुंडार में अपनी राजधानी सन् 1507 तक बनाए रहे। सन् 1507 में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप ने ओरछे को बसाकर अपनी राजधानी ओरछे में कायम कर ली। 

सहजेंद्र की राज्य-प्राप्ति में करेरा के पँवार सरदार पुण्यलाल ने सहायता की थी। इसके उपलक्ष्य में सहजेंद्र की बहिन, जिसका नाम उपन्यास में हेमवती बतलाया गया है, और राज्य के भाट के कथनानुसार रूपकुमारी था, पँवार सरदार को ब्याह दी गई। 
उपन्यास में जितने वर्णित चरित्र इतिहास-प्रसिद्ध हैं, उनका नाम ऊपर आ गया है। मूल घटना भी एक ऐतिहासिक सत्य है, परंतु खंगारों के विनाश के कुछ कारणों में थोड़ा-सा मतभेद है। 
बुंदेलों का कहना है कि कुंडार का खंगार राजा हुरमतसिंह जबरदस्ती और पैशाचिक उपाय से बुंदेला-कुमारी का अपहरण युवराज नागदेव के लिए करना चाहता था। खंगार लोग अपने अंतिम दिवस में शराबी, शिथिल, क्रूर और राज्य के अयोग्य हो गए थे, इसलिए जान-बूझकर वे विवाह-प्रस्ताव की आग में शराब पीकर कूदे, और खुली लड़ाई में उनका अंत किया गया। एक कारण यह भी बतलाया जाता है कि खंगार राजा दिल्ली के मुसलमान राजाओं के मेली थे, इसलिए उनका पूर्ण संहार जरूरी हो गया था।

खंगार लोग और बात कहते हैं-वे अपने को क्षत्रिय कहते हैं, और कोई संदेह नहीं कि कई क्षेत्रों में उनका राज्य रहा है। वे यह भी कहते हैं कि क्षत्रिय राजाओं-सामंतों की कन्याएँ उनके यहाँ ब्याही जाती थीं। उपन्यास संबंधी प्रसंग के बारे में उनका कहना है कि बुंदेलों ने पहले तो लड़की देने का प्रस्ताव किया, फिर कपट करके, शराब पिलाकर और इस तरह अचेत करके खंगारों को जन-बच्चों सहित मार गिराया। वे लोग यह भी कहते हैं कि बुंदेले मुसलमानों को जुझौति में ले आए थे।
खंगारों का पिछला कथन इतिहास के बिलकुल विरुद्ध है, और युक्ति से असंभव जान पड़ता है, इसलिए कहानी-लेखकों तक को ग्राह्य नहीं हो सकता। 

बुंदेलों ने अपना राज्य कायम करने के बाद जुझौति की शान को बनाए रखने की काफी चेष्टा की। प्रदेश की स्वाधीनता के लिए उन्होंने घोर प्रयत्न किए और बड़े-बड़े बलिदान भी। बुंदेलखंड की वर्तमान हिंदू जनता में जो प्राचीन हिंदुत्व (Classical culture) अभी थोड़ा-बहुत शेष है उसकी रक्षा का अधिकांश श्रेय बुंदेलों को ही है। बेचारे खंगारों का नाम सन् 1288 के पश्चात् जुझौति के संबंध में बिलकुल नहीं आता। उनका पतन उसके बाद ऐसा घोर और इतना विकट हुआ कि आजकल उनकी गिनती बहुत निम्न श्रेणी में की जाती है। परंतु इसमें जरा भी संदेह नहीं कि एक समय उनके गौरव का था और उनके नाम की पताका जुझौति के अनेक गढ़ों पर वीरों और सांमतों के ऊँचे सिरों पर फहराया करती थी। उनके पतन की जिम्मेदारी उनके निज के दोषों पर कम है, उसका दायित्व उस समय के समाज पर अधिक है। लेखक को इसी कारण अग्निदत्त पांडे की शरण लेनी पड़ी। 

जिस तरह गढ़ कुंडार पर्वतों और वनों से प्ररिवेष्ठित, बाह्य दृष्टि से छिपा हुआ पड़ा है, उसी तरह उसका तत्कालीन इतिहास भी दबा हुआ-सा है। 
परंतु वे स्थल, वह समय और समाज अब भी अनेकों के लिए आकर्षण रखते हैं। उपन्यास में वर्णित चरित्रों के वर्तमान सादृश्य प्रकट करने का इस समय लेखक को अधिकार नहीं, केवल अपने एक मित्र का नाम कृतज्ञता-ज्ञापन की विवशता के कारण बतलाना पड़ेगा। नाम है दुर्जन कुम्हार। सुल्तानपुरा (चिरगाँव से उत्तर में दो मील) का निवासी था। उपन्यास में जिन स्थानों का वर्णन किया गया है, वे जंगलों में अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े हुए हैं। दुर्जन कुम्हार की सहायता से लेखक ने उनको देखा। ‘गढ़ कुंडार’ का अर्जुन कुम्हार इसी दुर्जन का प्रतिबिंब है। ‘गढ़ कुंडार’ की कहानी उसने सुनी है, उसने समझी भी है या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता ! परंतु उसको यह कहते हुए सुना है-‘‘बाबू सा’ब, मोरे चाए कोऊ टूँका-टूँका भलैइँ कर डारै, पै, नौन हरामी मौसैं कभऊँ न हुइए।

-लेखक

गढ़ कुंडार
प्रवेश

तेरहवीं शताब्दी का अंत निकट था, महोबे में चंदेलों की कीर्ति-पताका नीची हो चुकी थी। जिसको आज बुंलेदखंड कहते हैं, उस समय उसे जुझौति कहते थे। जुझौति के बेतवा, सिंध और केन द्वारा सिंचित और विदीर्ण एक बृहत् भाग पर कुंडार के खंगार राजा हुरमतसिंह का राज्य था।
कुंडार, जो वर्तमान झाँसी से पूर्व-पूर्वोत्तर कोने की तरफ तीस मील दूर है, इस राज्य की समृद्धि-संपन्न राजधानी थी। कुंडार का गढ़ अब भी अपनी प्राचीन शालीनता का परिचय दे रहा है। बीहड़ जंगल, घाटियों और पहाड़ों से आवृत्त यह गढ़ बहुत दिनों तक जुझौति को मुसलमानों की आग और तलवार से बचाए रहा था।
महोबा के राजा परमर्दिदेव चंदेल के पृथ्वीराज चौहान द्वारा हराए जाने के बाद से चंदेले छिन्न-भिन्न हो गए। पृथ्वीराज ने अपने सामंत खेतसिंह खंगार को कुंडार का शासक नियुक्त किया। उसी खेतसिंह का वंशज हरमतसिंह था। हरमतसिंह लड़ाकू, हठी और उदार था। परंतु वृद्धावस्था में उसकी उदारता अपने एकमात्र पुत्र नागदेव के निस्सीम स्नेह में परिवर्तित हो गई थी। 

नागदेव प्रायः बेतवा के पूर्वी तट पर स्थित देवरा, सेंधरी माधुरी और शक्तिभैरव के जंगलों में शिकार खेला करता था। सेंधरी और माधुरी अभी बाकी हैं, शक्तिभैरव, जो पूर्वकाल में एक बड़ा नगर था, आजकल लगभग भग्नावस्था में है। वर्तमान चिरगाँव से पूर्व की ओर छः मील पर एक घाट देवराघाट के नाम से प्रसिद्ध है। देवरा का और कुछ शेष नहीं है। तेरहवीं शताब्दी में देवरा एक बड़ा गाँव था। अब तो खोज लगाने पर विशाल बेतवा-तल की ऊँची करार पर कहीं-कहीं पुरानी ईंटे और कटे हुए पत्थर, गड़े हुए मिलते हैं। कुंडार से आठ मील उत्तर की ओर देवरा की चौकी चमूसी पड़िहार के हाथ में थी, जो हुरमतसिंह का एक सामंत था। बेतवा के पश्चिमी तट पर देवल, देवधर (देदर), भरतपुरा, बजटा सिकरी रामनगर इत्यादि की चौकियाँ भरतपुरा के हरी चंदेल के हाथ में थीं। इसकी गढ़ी भरतपुरा में थी। यह बेतवा के पश्चिमी किनारे पर ठीक तट के ऊपर थी। यहाँ से कुंडार का गढ़ पूर्व और दक्षिण के कोने की पहाड़ियों में होकर झाँकता-सा दिखाई पड़ता था। अब उस गढ़ी के कुछ थोड़े से चिह्न हैं। किसी समय इस गढ़ी में पाँच सौ सैनिकों के आश्रय के लिए स्थान था। वर्तमान भरतपुरा अब यहाँ से दो मील उत्तर-पश्चिम के कोने में जा बसा है। प्राचीन गढ़ी के पृथ्वी से मिले हुए खंडहर में अब वन्यपशु विलास किया करते हैं, और नीचे से बेतवा पत्थरों को तोड़ती-फोड़ती कलकल निनाद करती हुई बहती रहती है। यही हालत बजटा की है। केवल कुछ थोड़े-से चिह्न-मात्र रह गए हैं। तेरहवीं शताब्दी में बजटा अहीरों की बस्ती थी, जो खेती कम करते थे और पशु-पालन अधिक। 

देवल में, तेरहवीं शताब्दी में, देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर था। पुराना देवल मिट गया है, और उसका पुराना देवालय भी। केवल कुछ टूटी-फुटी मूर्तियाँ वर्तमान देवल के पीछे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। पुराने देवल के धुस्स बेतवा के बैजापारा नामक घाट के पश्चिमी कूल पर फैले हुए हैं, जो खोज लगाने पर भी नहीं मिलते। कभी-कभी कोई गड़रिया बरसात में यहाँ पर भेड़-बकरी चराता-चराता कहीं कोई स्थान खोदता है, तो अपने परिश्रम के पुरस्कार में एक-आध चंदेली सिक्का या चंदेली ईंट पा जाता है। देवधर का नाम देदर हो गया है। रामनगर, सिकरी इत्यादि मौजूद हैं, परंतु अपने प्राचीन स्थानों से बहुत इधर-उधर हट गए हैं। कुछ तो इसका कारण बेतवा की प्रखर धार है, जिसने लाखों बीघे भूमि काट-कूटकर भरकों में लौट-पलट कर दी है, और कुछ इसका कारण आक्रमणकारियों की आग और तलवार है। 
आजकल देवराघाट के पूर्वी किनारे पर, जिसके मील-भर पीछे दिग्गज पलोथर पहाड़ी है, करधई के जंगल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परंतु जिस समय का वर्णन हम करना चाहते हैं, उस समय वहाँ कुछ भूमि पर खेती होती थी। शेष आजकल की तरह वन था। 

पीछे पहाड़, बीच में हरी-भरी खेती और इधर-उधर जंगल। उसके बाद नील तरंगमय दो भागों में विभक्त बेतवा। एक धारा देवल के पास से निकलकर देवधर (वर्तमान देदर) के नीचे पश्चिम की ओर देवरा से आधा मील आगे चलकर पूर्व की ओर दूसरी धार से मिल गई है। दोनों भागों के बीच लगभग एक मील लंबा और आधा मील चौड़ा एक टापू बन गया है, जिसे अब बरौल का सूँड़ा कहते हैं। इसके दक्षिणी सिरे पर शायद खंगारों के समय से पहले की एक छोटी-सी गढ़ी और चहारदीवारी बनी चली आती थी, जो अब बिलकुल खंडहर हो गई है। आजकल इसमें तेंदुए और जंगली सुअर विहार करते हैं। 
देवल, देवरा और देवधर में बड़े-बड़े मंदिरों की काफी संख्या थी। दुर्गा और शिव की पूजा विशेष रूप से होती थी। इन मंदिरों की रक्षा के लिए और कुंडार में मुसलमानों और अन्य शत्रुओं का प्रवेश रोकने के लिए इन सब चौकियों में खंगारों के करीब दो सहस्र सैनिक रहा करते थे। टापू की चौकी किशुन खंगार के आधिपत्य में थी। कुंडार-राज की सेना में पड़िहार, कछवाहे, पँवार, धंधेरे, चौहान, सेंगर, चंदेले इत्यादि राजपूत और लोधी, अहीर, खंगार इत्यादि जातियों के लोग थे। खास कुंडार में करीब बाईस सहस्र पैदल और घुड़सवार थे।

शक्तिभैरव नगर इस नाम के मंदिर के कारण दूर-दूर प्रसिद्ध था। दो सौ वर्ष के लगभग हुए, तब मंदिर बिलकुल ध्वस्त हो गया था। कहते हैं, ओरछा के किसी संपन्न अड़जरिया ब्राह्मण को शिव की मूर्ति ने स्वप्न में दर्शन देकर अपना पता बतलाया था और उसी ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करा दिया था। यह मंदिर शक्ति, भैरव और महादेव का था। मंदिर के अहाते के एक कोने में भैरवी-चक्र की एक शिला अब भी पड़ी हुई है। उस नगर के वर्तमान भग्नावशेष को लोग आजकल सकतभैरों कहते हैं। चालीस-पचास वर्ष पहले तक इस नगर की कुछ श्री शेष रही। परंतु उसके पश्चात् एकदम उसका अंत हो गया। वहाँ के अनेक वैश्य और सुनार झाँसी, चिरगाँव और अन्यान्य कस्बों में चले गए और वहाँ ही जा बसे। 

यद्यपि जुझौति का सब कुछ चला गया, मान-मर्यादा गई, स्वाधीनता गई, समृद्धि गई, बल-विक्रम भी चला गया-तो भी चंदेलों के बनाए अत्यंत मनोहर और करुणोत्पादक मंदिर और गढ़ अब भी बचे हुए हैं और बची हुई हैं चंदेलों, की झीलें, जिनके कारण यहाँ के किसान अब भी चंदेलों का नाम याद कर लिया करते हैं। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य जिनका सौंदर्य और भयावनापन अपनी-अपनी प्रभुता के लिए परस्पर होड़ लगाया करता है, अब भी शेष है। पलोथर की पहाड़ी पर खड़े होकर चारों ओर देखनेवाले को कभी अपना मन सौंदर्य के हाथ और कभी भय के हाथ में दे देना पड़ता है। ऐसा ही उस समय भी होता था, जब संध्या समय पलोथर के नीचे बेतवा के दोनों किनारों पर शंख और घंटे तथा कुंडार के गढ़ से खंगारों की तुरही बजा करती थी। और अब भी है जब पलोथर की चोटी पर खड़ा होकर नाहर अपने नाद से देवरा, देवल, भरतपुरा इत्यादि के खंडहरों को गुंजारता और बेतवा के कलकल शब्द को भयानक बनाता है। अब कुंडार में तुरही नहीं बजती। उसमें करधई का इतना घना जंगल है कि साँभर, सुअर और कभी-कभी तेंदुआ भी छिपाव का स्थान पाते हैं।

प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन

प्रकाशित वर्ष:2006

आईएसबीएन: 81-7315-073-7

पृष्ठ: 318

✋कांग्रेस मुक्त भारत... आखिर क्यों..?✋

बहुत जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ कृपया राजनीति से एक बार ऊपर उठ कर सोचियेगा जरूर।

हमेशा से हिंदू विरोधी रही है कांग्रेस..

1. वंदेमातरम से थी दिक्कत:
आजादी के बाद यह तय था कि वंदे मातरम राष्ट्रगान होगा। लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने इसका विरोध किया और कहा कि वंदे मातरम से मुसलमानों के दिल को ठेस पहुंचेगी। जबकि इससे पहले तक तमाम मुस्लिम नेता वंदे मातरम गाते थे। नेहरू ने ये रुख लेकर मुस्लिम कट्टरपंथियों को शह दे दी। जिसका नतीजा देश आज भी भुगत रहा है। आज तो स्थिति यह है कि वंदेमातरम को जगह-जगह अपमानित करने की कोशिश होती है। जहां भी इसका गायन होता है कट्टरपंथी मुसलमान बड़ी शान से बायकॉट करते हैं।

2. सोमनाथ मंदिर का विरोध:
गांधी और नेहरू ने हिंदुओं के सबसे अहम मंदिरों में से एक सोमनाथ मंदिर को दोबारा बनाने का विरोध किया था। गांधी ने तो बाकायदा एतराज जताते हुए कहा था कि सरकारी खजाने का पैसा मंदिर निर्माण में नहीं लगना चाहिए, जबकि इस समय तक हिंदू मंदिरों में दान की बड़ी रकम सरकारी खजाने में जमा होनी शुरू हो चुकी थी। जबकि सोमनाथ मंदिर के वक्त ही अगर बाबरी, काशी विश्वनाथ और मथुरा कृष्ण जन्मभूमि के विवादों को भी हल किया जा सकता था। लेकिन कांग्रेस ने ऐसा नहीं होने दिया।

3. बीएचयू में हिंदू शब्द से एतराज:
नेहरू और गांधी को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदू शब्द पर आपत्ति थी। दोनों चाहते थे कि इसे हटा दिया जाए। इसके लिए उन्होंने महामना मदनमोहन मालवीय पर दबाव भी बनाया था। जबकि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से दोनों को ही कोई एतराज नहीं था।

4. हज के लिए सब्सिडी शुरू की:
ये कांग्रेस सरकार ही थी जिसने हज पर जाने वाले मुसलमानों को सब्सिडी देने की शुरुआत की। दुनिया के किसी दूसरे देश में ऐसी सब्सिडी नहीं दी जाती। जबकि कांग्रेस सरकार ने अमरनाथ यात्रा पर खास तौर पर टैक्स लगाया। इसके अलावा हिंदुओं की दूसरी धार्मिक यात्राओं के लिए भी बुनियादी ढांचा कभी विकसित नहीं होने दिया गया। अब मोदी सरकार के आने के बाद उत्तराखंड के चारों धाम को जोड़ने का काम शुरू हुआ है।

5. 26/11 के पीछे हिंदुओं का हाथ:
मुंबई हमले के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इसके पीछे हिंदू संगठनों की साजिश का दावा किया था। दिग्विजय के इस बयान का पाकिस्तान ने खूब इस्तेमाल किया और आज भी जब इस हमले का जिक्र होता है तो पाकिस्तानी सरकार दिग्विजय के हवाले से यही साबित करती है कि हमले के पीछे आरएएस का हाथ है। दिग्विजय के इस बयान पर उनके खिलाफ कांग्रेस ने कभी कोई कार्रवाई या खंडन तक नहीं किया।

6. मंदिर जाने वाले छेड़खानी करते हैं:
राहुल गांधी ने कहा था कि जो लोग मंदिर जाते हैं वो लड़कियां छेड़ते हैं। यह बयान भी कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व की हिंदू विरोधी सोच की निशानी थी। यह अलग बात कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद खुद राहुल गांधी कई मंदिरों के चक्कर काट चुके हैं। हालांकि उनकी मां सोनिया अब भी ऐसा कुछ नहीं करती हैं जिससे यह मैसेज जाए कि उनका हिंदू धर्म से कोई नाता है।

7. राम सेतु पर हलफनामा:
2007 में कांग्रेस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि चूंकि राम, सीता, हनुमान और वाल्मिकी वगैरह काल्पनिक किरदार हैं इसलिए रामसेतु का कोई धार्मिक महत्व नहीं माना जा सकता है। जब बीजेपी ने इस मामले को जोरशोर से उठाया तब जाकर मनमोहन सरकार को पैर वापस खींचने पड़े। हालांकि बाद के दौर में भी कांग्रेस रामसेतु को तोड़ने के पक्ष में दिखती रही है।

8. हिंदू आतंकवाद शब्द गढ़ा:
इससे पहले हिंदू के साथ आतंकवाद शब्द कभी इस्तेमाल नहीं होता था। मालेगांव और समझौता ट्रेन धमाकों के बाद कांग्रेस सरकारों ने बहुत गहरी साजिश के तहत हिंदू संगठनों को इस धमाके में लपेटा और यह जताया कि देश में हिंदू आतंकवाद का खतरा मंडरा रहा है। जबकि ऐसा कुछ था ही नहीं। इस केस में जिन बेगुनाहों को गिरफ्तार किया गया वो इतने सालों तक जेल में रहने के बाद बेकसूर साबित हो रहे हैं।

9. राम की तुलना इस्लामी कुरीति से:
तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने इसकी तुलना भगवान राम से की। यह तय है कि कपिल सिब्बल ने यह बात अनजाने में नहीं, बल्कि बहुत सोच-समझकर कही है। उनकी नीयत भगवान राम का मज़ाक उड़ाने की है। कोर्ट में ये दलील देकर कांग्रेस ने मुसलमानों को खुश करने की कोशिश की है।

माना जा रहा है कि कपिल सिब्बल ने सोच-समझकर हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की नीयत से ये बयान दिया है। लेकिन कपिल सिब्बल का बयान इस लंबे सिलसिले की एक कड़ी भर है।

10. सेना में फूट डालने की कोशिश:
सोनिया गांधी के वक्त में भारतीय सेना को जाति और धर्म में बांटने की बड़ी कोशिश हुई थी। तब सच्चर कमेटी की सिफारिश के आधार पर सेना में मुसलमानों पर सर्वे की बात कही गई थी। बीजेपी के विरोध के बाद मामला दब गया, लेकिन इसे देश की सेनाओं को तोड़ने की गंभीर कोशिश के तौर पर आज भी देखा जाता है।

एस सी श्रीवास्तव जी की वाल से ...

शनिवार, 23 सितंबर 2017

आपके आसपास का एक कट्टर से कट्टर हिन्दू क्या सोचता है?

आपके आसपास का एक कट्टर से कट्टर हिन्दू क्या सोचता है?

कि देश में हिन्दू धर्म किसी तरह बचा रहे। शांति बनी रहे, सुख समृद्धि हो, देश प्रगति करे क्योंकि देश है तो धर्म है...और दूसरे सारे धर्म भी हमारे साथ साथ सहअस्तित्व में रहें।
     जब कि एक लिबरल हिन्दू का क्या अर्थ है? उसके लिए हिन्दू धर्म का कोई अर्थ नहीं है. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिन्दू हैं या नहीं रहें. धर्म कोई खाने को देता है क्या? नाम के हिन्दू हैं, बाप दादे हिन्दू थे इसलिए हिन्दू हैं, वरना हिन्दू होने और नहीं होने में फर्क ही क्या है?

    इसी का एक सबसेट है सेक्युलर हिन्दू, जो घोर हिन्दू विरोधी हैं...इन्हें हिन्दू धर्म में सारी बुराइयाँ दिखाई देती हैं...और उन बुराइयों को मिटाने का उनका एक ही तरीका है - हिन्दू धर्म को मिटा देना. यह वर्ग लगभग कनवर्टेड है, या कन्वर्शन की कगार पर है. इसे कनवर्टेड मान भी लें तो बचे खुचे हिंदुओं में खुद को सहजता से हिन्दू मानने वाले हिन्दू 10-20% से ज्यादा नहीं हैं।

        दूसरी ओर इस्लाम को देखिए...लिबरल से लिबरल मुसलमान के लिए अपने मुस्लिम होने में कोई भी दुविधा नहीं है. अवसर पड़ने पर दूसरे मुसलमानों की उचित या अनुचित मांगों के लिए भी खड़े होने में उसे कोई दुविधा नहीं है. अपनी उदारता के सबसे जबरदस्त दौरे पड़ने पर वह हिंदुओं के साथ सह-अस्तित्व को स्वीकार कर सकता है, पर बिना मुस्लिम हितों के साथ कोई समझौता किये. अगर मुसलमानों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सुप्रीमेसी सुनिश्चित हो तो उसे हिंदुओं के अस्तित्व से कोई ज्यादा शिकायत नहीं है...इस्लाम के कॉन्टेक्स्ट में यह उदारता का चरम विंदु है और किसी भी परिभाषा से इस दायरे में 10-20% से ज्यादा मुस्लिम नहीं आते. यानि कट्टर से कट्टर हिन्दू, लिबरल से लिबरल मुसलमान के मुश्किल से समकक्ष बैठता है।

      वहीं कट्टर या सिर्फ सामान्य मुसलमान हिंदुओं को नापसंद करने से लेकर उन्हें घृणा करने से आगे उन्हें नष्ट करने में सक्रिय भागीदारी से होते हुए उनकी हत्या और बलात्कार को पवित्र धार्मिक ड्यूटी समझने के स्पेक्ट्रम में फैला है...और इस स्पेक्ट्रम में वह कहाँ फिट होगा यह देश काल की स्थितियों पर निर्भर करता है।

        हिंदुओं के लिए सबसे बड़ा गोल अधिक से अधिक क्या होता है - तात्कालिक सर्वाइवल. कट्टर से कट्टर हिन्दू क्या बोलता है - अरे, बीस करोड़ को मार तो नहीं सकते ना...1000 सालों में भी मुसलमान इस देश से कहीं चला थोड़े ना जाएगा...इन्हें कंट्रोल में रखना है, जैसा मोदी ने गुजरात में रखा है...

      यह गोल अधिक से अधिक हमारा सर्वाइवल सुनिश्चित करता है, वह भी सिर्फ एक पीढ़ी तक, वह भी सिर्फ अपेक्षाकृत सुरक्षित हिन्दू जनसंख्या बहुल इलाके में. स्ट्रेटेजिक सोच की तो शुरुआत भी नहीं होती।
   
       वहीं मुसलमान के गोल स्पष्ट हैं - हिंदुओं का नाश, हिंदुस्तान पर कब्ज़ा और इस्लामिक हुकूमत. कट्टर मुस्लिमों के लिए जहाँ यह जीवन का लक्ष्य है, लिबरल से लिबरल मुस्लिम भी इस लक्ष्य के रास्ते में खड़ा नहीं होता।

        यानि खेल की भाषा में बोलें तो मुस्लिम जीत के लिए खेल रहा है, जहाँ खराब से खराब अवस्था में मैच ड्रॉ छूटता है...वहीं हिन्दू की बड़ी से बड़ी महत्वाकांक्षा ड्रॉ कराना है...हिन्दू ड्रॉ के लिए ही खेल रहा है, वह भी आधी-चौथाई टीम के साथ...तीन चौथाई टीम को तो पता ही नहीं है कि मैच चल रहा है, खेल के नियम क्या हैं, गोलपोस्ट किधर है और स्कोरबोर्ड पर क्या लिखा है...

    जागें, जीत के लिए खेलें, जियें...!!🙏

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

~~जुझौतखंड v/s बुंदेलखंड~~

गुजरात के जूनागढ़ के राजा रा कवाट-२ के पुत्र खेतसिंह खंगार महाराज पृथ्वीराज चौहान के सामंत रहे तथा अपनी वीरता एवं पराकृम से गढ़कुंडार जीत कर जुझौतिखंड (बर्तमान बुंदेलखंड) मे खंगार राज्य की स्थापना की जुझौतखंड (बुदेलखंड) पर १७० वर्षों से भी अधिक खंगारों ने राज्य किया..!!

चलिये मुद्दे पर बात करते हैं...!!

१३ वीं सदी मे मुस्लिम आकृमण कारीयों ने कई हिंदु राजाओं को अपने आधीन कर लिया ! उस समय दिल्ली पर मुसलमानों का राज्य स्थापित हो चुका था ! कुछ हिंदु राजपूतों ने मुसलमानो से भय के कारण उन से विबाह संवंध बना लिये थे ! तथा कुछ ने मुसलमानों की दासता स्बीकार करली थी ! जिससे कि उनके राज्य मुसलमानों के आधीन सुरक्षित रहे ! गढ़ कुंडार के खंगार राजा मानसिंह से भी दिल्ली शहंशाह द्बारा खंगार कुल कंन्या केशरदे का हाथ मांगा  गया था ! परन्तु खंगार तो शेर थे रिस्ते को मना कर दिया ! तथा युद्ध स्बीकार कर लिया ! तथा जो चापलूस मुसलमानों मे मिलगये थे ! (जो कि खंगार राजाओं और उनकी बांदियों की संतान जो कि बांदैला कहलाते थे ) तथा सवंत १२५७ मे महाराज ने  उत्तम  सेबाके फलस्वरूप ब्योना जागीर के १२ गॉव पट्टा लिख कर दे दिये गये थे ! जिसमे मॉ गजानन को साक्षी रखा गया था !  यही नौकर (बांदैला)  सोहनपाल दिल्ली सुल्तान से मिला और खंगार राजा मानसिंह की कंन्या केशर दे का हाथ मॉगने को उकसाया ! हम  उनकी घोर निंदा करते थे ! मोहम्मद तुगलक से युद्ध हुआ जिसमे महाराज बीर गति को प्राप्त हुऐ ! केशरदे एबं अन्य रानियों ने जौहर किया ! गढ़कुडार राज घराने से संबधित कुछ खंगारो ने काल्पनिक जातियों का सहारा लेकर जंगलों मे बागी जीबन यापन किया ! इस कारण खंगार एक लंबे अर्से तक सामाजिक मुख्यधारा से दूर रहे ! तथा अलग अलग गोत्र निर्माण कर आपस मे बिबाह संबध करने लगे ! इधर तुगलकों द्बारा गढ़कुंडार जीत कर अपने चापलूस गुलामों (दासी पुत्रों बांदैलों ) को दे दिया गया ! जिनने जुझौति खंड नाम बदल कर बुंदेलखंड कर दिया ! तथा राजधानी को ओरछा स्थानातरित कर लिया ! तथा अपनी पीढ़ीयो मे खंगारों के बारे मे गलत संदेश दिये जाने लगे यहां तक की अपने बच्चो को यह भी कहा जाने लगा कि खंगार क्षत्रीय नही होते ! वाह रे बांदी पुत्र अपने बाप को पहचानने से मना कर रहे हो ! और तो और बृनदाबन लाल बर्मा जैसे लालची लोगों को ४० एकड़ की जागीर देकर खंगार बिरोधी उपन्यास लिखबाया गया ! जिसमे खंगारों के इतिहास को बिगाड़ने की पूरी कोशिश की गई है..! दासी पुत्रों ने तो नीचता की हद तव करदी जव अपने राज्य को मुल्लों से सुरक्षित रखने के लिये अपने ही महल में अपने आकाओं को अय्याशी के लिये जहॉगीर महल बनबाया गया ! जो आज भी ओरछा के राजमहल में जिंदा प्रमाण है ! जरा सोचो भाईयो कामुक मुल्लों ने क्या नही किया होगा इनकी बहन बेटियों के साथ ! दूसरी नीचता सगे भाई के अपनी भाभी संबध होने का झूठा लांछन लगाकर कलंकित कर जहर दिलबा कर मार दिया वाहरे क्षत्रीयों..जो सगे देव तुल्य भाई के नही हुये वह किसके हो सकते हैं....खुद को राजपूत कहते हैं.......मुल्लों के चमचे..शर्म करो तुम्हारे इतिहास मे तुमने क्षत्रीयों बाला कोई काम नही किया !

चमचों की खिदमत मे पेश है :-

बाहरे चमचो तुमरी लीला न्यारी,
चमचों से चमचा मिलें होंय सुखारी !

रोटी खाबतई हमखों याद तुमारी आबे,
राजदरबार में भी तुमरी जरूरत पड़ जाबे !

सच्चों खों झूठा बनादो तुम,
झूठों खों बना दो तुम साकाहारी !

बाहरे चमचो तुमरी लीला न्यारी,
चमचों से चमचा मिलें होंय सुखारी !

चमचों कौ दुनिया में बोलबालो है,
सच्चों को जा दुनिया में मुंह कालो है !

चमचा चाहें तो बनादयें रंक खौं राजा,
राजा खौं बना दयें चमचा भिखारी !

बाहरे चमचो तुमरी लीला न्यारी,
चमचों से चमचा मिलें होय सुखारी !

सादर समर्पित दासी पुत्रों को...!

यह वह जाति है जिसे तत्कालीन क्षत्रीय सभा बुलाकर क्षत्रीय समाज से वहिष्कृित कर दिया गया था ! 
इनमे खून तो यदुवंशी खंगारों का था ! अब इनको खुदको  तक पता नही है ! कि हम हिंदु हैं या मुसलमान !

~~~~जय राजपुताना ~~~~