सोमवार, 24 जनवरी 2022

राजा जसवंत सिंह पँवार

राजपूतो की वीरता और क्षत्रिय धर्मं परायणता की एक और सच्ची कहानी.......

#उज्जैन_के_राजा_जसवंत_सिंह_पँवार ही नहीं उनके सेनिक भी शूरवीर योद्धा राजपूत थे।

 एक बार एक खबर आई कि मुसलमान सेना भारत मे गुसने वाली हैं। 
तभी राजपुती सेना तैयार हो गई ओर निकल पडी देश ओर धर्म कि रक्षा करने के लिए । मुसलमान सेना जानती थी की अगर क्षत्रिय राजपुतों से टकराए तो बहुत कुछ खोना पडेगा , इसलिए मुल्लो ने एक तरीका निकाला जिससे युद्ध हो लेकिन सेना से नहीं ,। 
शहादत खान ने राजा जसवंत सिहं से कहा कि एक वीर राजपूत सेना की तरफ से लडेगा और दूसरा हमारी तरफ से जो जीतेगा उसकी बात रहेगी ।

राजा जसवंत सिंह ने हा कर दी और कहा पहले अपनी तरफ से वीर भेजो , खान ने सेना के सबसे ताकतवर 8 फिट लंबे योद्धा को भेजा , तब राजा जसवंत सिंह ने कुछ देर तक अपनी सेना कि तरफ देखा , तो खान बोला '' क्या हुआ डर गए क्या? '

'
तब राजा जसवंत सिंह ने जवाव दिया कि '' मै किस वीर को चुनू मेरी सेना मे सारे क्षत्रिय राजपूत वीर ही हैं '' अगर किसी 1 को चुना तो सेना मे लडाई हो जाएगी , कि मुझे क्यों नही चुना ।

राजा ने खान से कहा- कि तु अपने आप चुनले किसी को भी , तो उस कायर मुसलमान ने 1 बुढढा राजपूत को चुना , जभी वो बुढढा राजपूत सीना चौडा करके आगे लडने आता हैं ।

लडाई शुरु हुई देखते - देखते उस मुसलमान ने राजपूत के पेट को भाले से चीर दिया और उपर उठा दिया , सब देखकर दंग रहा गए कि ये क्या हुआ , तभी राजा ने आदेश दिया की '' काट दो इस सेनिक को , तभी उस भाले पर लटके राजपूत ने तलवार निकाली ओर झट से उस मुल्ले का सिर काट डाला और भाले सहित सेना मे आ खडा हुआ ।

सब उस राजपूत की वीरता तो देखकर दंग रहा गए , ओर मुसलमान सैनिको को वापस लोटना पडा ।
विजय या वीरगती ।।

            🚩जय क्षात्र धर्म।🚩
         💥 जय राजपूताना।💥
           🕉जय माँ भवानी।🕉

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

पुंडीर राजवंश- रानी सावलदे और राजा कारक की कथा।


पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे राजा कारक और रानी सावलदेह का किस्सा लोक गीत और रागनियो में बहुत गाया जाता है।

लेकिन बहुत कम ही लोग जानते है की रानी सावलदे और राजा कारक का सम्बंध किस राजवंश से है। ये केवल किस्सा मात्र नहीं है, ये पुंडीर वंश के गौरवशाली इतिहास की वो कड़ी है जिसे हमारी आज की पीढी अंजान है। जिस तरह सावित्री और सत्यवान की कथा अमर है ,उसी तरह रानी सावालदे और राजा कारक की कथा भी अमर है।

मनहारखेडा(राजा मनहार सिंह पुंडीर द्वारा बसाया गया ) जिसे आज जलालाबाद(जिला -शामली ) के नाम से जाना जाता है कभी राजपूत राजांओ की बहादुरी ,तापस्या ,एकता ओर बलीदान का प्रतीक था जिसके किले के गुम्बद आज भी महान राजाओं और उनके बालिदान की कहानियां कहते है।

मनहारखेडा राजवंश मे राजा केशर सिह पुंडीर एक प्रतापी राजा हुए, जिनकी पुत्री सावलदे का विवाह दिल्ली के तंवर वंशी राजा कारक के साथ हुआ।

सावलदे बहुत तपस्वी और अध्यत्मिक थी , विवाह के बाद सावलदे जब मायके आई और कुछ दिन बाद जब राजा कारक उनहे लिवा कर वापस दिल्ली जा रहे थे तब रस्ते में एक बड़ के पेड के नीचे विश्राम के लिए रुके।

 तभी एक चील अपने पंजे मे सर्प को दबाकर उडी जा रही थी , और वह उस वृक्ष पर बैठ गयी , जिसके नीचे राजा-रानी विश्राम कर रहे थे। राजा कारक ने सर्प को चील के पंजे से छुडाने के लिए तीर निकाल लिया ,तभी सावलदे ने उनहे सर्पो से उनके वंश वैर की बात कही और उन्हें धोखे होना का आभास कराया। 

लेकिन राजा क्षात्र धर्म मे बांधे थे, एक न सुनी और तीर चला दिया, चील सर्प को छोड़ उड गई, सर्प खोकर में छिप गया। रानी के द्वारा राजा को धोखे से सावधान करने पर भी राजा न माने और तीर लेने वृक्ष पर चढे, तभी सर्प ने राजा को डस लिया, जिससे राजा प्राण त्याग देते है, रानी राजा की लाश लेकर दिल्ली पहुची, जहां उसे सास के ताने सुन्ने पडे तथा उसे मनहूस कहकर महल में नही आने दिया गया। 

रानी डोले मे लाश लेकर वापस उसी वृक्ष के नीचे आ गई और विलाप करने लगी। सावलदे बहुत तपस्वी थी उसके तप के प्रभाव से वहा नारद मुनी प्रगट हुए और 12 साल वृक्ष के नीचे लाश को घास के पालने मे रखकर तप करने को कहा, 12 साल बाद वहा देवताओं के वैद्य धनातर के आने की बात कहते है। नारद मुनी के आशीर्वाद से राजा कारक की देह सुरक्षित रहती है। 

12 साल सावलदे उस बड़ के वृक्ष के नीचे तप करती है और जब वैद्य धानातर घूमते हुए वहा आते है और उसके तप का कारण और उसका परिचय पुछते है तब वह बताती है की वह मनहारखेडा के राजा केसर सिंह की पुत्री है और अपने दुख का कारण् बताती है और नारद जी के वचन के बारे मे बताती है। तब वैद्य से प्रार्थना करने पर वैद्य राजा कारक को पुन: जीवित कर देते है। 

राजा को जब होश आया तो लगा जैसे गहरी नींद मे थे और रानी की दशा देखकर बहुत दुखी हुए तथा उन्होनें दिल्ली जाने से मना कर दिया, लेकिन सावलदे की प्रार्थना पर वो दोनो दिल्ली लौट गए, ज़िससे दिल्ली में खुशी की लेहर दोड़ गई और राजा कारक और रानी का नाम और किस्सा हमेशा के लिए अमर हो गया।
जय हो क्षत्रिय पुंडीर वंश की पुत्री महातपस्वीनी रानी सावलदे की।🙏🏻

सोमवार, 10 जनवरी 2022

महाराजा विक्रमादित्य परमार

महाराज विक्रमादित्य परमार के बारे में देश को लगभग शून्य बराबर ज्ञान है…



जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था, और स्वर्णिम काल लाया था । इन्ही के नाम से विक्रमी संवत चलता है।
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उज्जैन के राजा थे गन्धर्वसैन परमार, जिनके तीन संताने थी , सबसे बड़ी लड़की थी मैनावती , उससे छोटा लड़का भृतहरि और सबसे छोटा वीर विक्रमादित्य...बहन मैनावती की शादी धारानगरी के राजा पदमसैन के साथ कर दी , जिनके एक लड़का हुआ गोपीचन्द , आगे चलकर गोपीचन्द ने श्री ज्वालेन्दर नाथ जी से योग दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , फिर मैनावती ने भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग दीक्षा ले ली।
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आज ये देश और यहाँ की संस्कृति केवल विक्रमदित्य के कारण अस्तित्व में है…
अशोक मौर्य ने बोद्ध धर्म अपना लिया था और बोद्ध बनकर 25 साल राज किया था,
भारत में तब सनातन धर्म लगभग समाप्ति पर आ गया था, देश में बौद्ध और जैन हो गए थे।
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रामायण, और महाभारत जैसे ग्रन्थ खो गए थे, महाराज विक्रम ने ही पुनः उनकी खोज करवा कर स्थापित किया
विष्णु और शिव जी के मंदिर बनवाये और सनातन धर्म को बचाया।

विक्रमदित्य के 9 रत्नों में से एक कालिदास ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् लिखा, जिसमे भारत का इतिहास है…
अन्यथा भारत का इतिहास क्या मित्रो हम भगवान् कृष्ण और राम को ही खो चुके थे।

हमारे ग्रन्थ ही भारत में खोने के कगार पर आ गए थे,
उस समय उज्जैन के राजा भृतहरि ने राज छोड़कर श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से योग की दीक्षा ले ली और तपस्या करने जंगलों में चले गए , राज अपने छोटे भाई विक्रमदित्य को दे दिया , वीर विक्रमादित्य भी श्री गुरू गोरक्ष नाथ जी से गुरू दीक्षा लेकर राजपाट सम्भालने लगे और आज उन्ही के कारण सनातन धर्म बचा हुआ है, हमारी संस्कृति बची हुई है।
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महाराज विक्रमदित्य ने केवल धर्म ही नही बचाया
उन्होंने देश को आर्थिक तौर पर सोने की चिड़िया बनाई, उनके राज को ही भारत का स्वर्णिम राज कहा जाता है
विक्रमदित्य के काल में भारत का कपडा, विदेशी व्यपारी सोने के वजन से खरीदते थे।

भारत में इतना सोना आ गया था की, विक्रमदित्य काल में सोने की सिक्के चलते थे , आप गूगल इमेज कर विक्रमदित्य के सोने के सिक्के देख सकते हैं।
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विक्रम संवत कैलंडर भी विक्रमदित्य का स्थापित किया हुआ है।

रविवार, 9 जनवरी 2022

हीरा दे : एक वज्रहृदया क्षत्राणी!

संवत 1368, वैशाख का निदाघ पत्थर पिघला रहा था। तभी द्वार पर दस्तक सुनी और हीरा-दे ने दरवाजा खोला। स्वेद में नहाया उसका पति विका दहिया एक पोटली उठाये खड़ा था। उसका काँपता शरीर और लड़खड़ाता स्वर, चोर या तो नैण से पकड़ा जाता है या फिर वैण से। तिस पर हीरा-दे तो क्षत्राणी थी; वह पसीने की गंध से अनुमान लगा सकती थी कि यह पसीना रणक्षेत्र में खपे पराक्रमी का है या भागे हुए गद्दार का। 


" मैंने जालोर का सौदा कर दिया " - विका ने हीरा-दे की लाल होती आँखें देखकर सच बक दिया। इतना पर्याप्त था। शेष बातें तो वह जानती थी। वह जानती थी कि किले के निर्माण में रही खामी को केवल उसका भरतार जानता है। आज उसका पति चंद स्वर्ण-मुद्राओं के बदले सोनगरा चौहानों की मान-मर्यादा और प्राण संकट में डाल आया। अलाउद्दीन कितना बर्बर है, वह जानती थी।

 एकाएक उसकी आँखों के सामने जालोर दुर्ग के दृश्य तैरने लगे। एक तरफ़ कान्हड़देव और कुंवर भतीज
वीरमदेव म्लेच्छ सेना के भीड़ रहे हैं तो दूजी तरफ़ क्षत्रिय स्त्रियों ने जोहर की तैयारी कर ली है। तलवारों की टँकारों से व्योम प्रकम्पित और धरा रक्त से लाल। हीरा-दे ने झटपट आँखें खोल स्वयं को दुःस्वप्न से बाहर लाया। 

उसके पास इतना समय नहीं था कि वह लाभ-हानि का गणित लगाती। माँ चामुंडा का स्मरण किया और कुछ पग आगे बढ़ाते हुए म्यान देखी। वह कटार दुर्भाग्यशालिनी जो शत्रु की छाती को छोड़ म्यान में सोती हो। क्षत्रिय के लिए कटार केवल शस्त्र नहीं, धर्म स्थापना की साधना में पवित्र आयुध है। 

" यह तलवार आज यहाँ है; इसलिए हजारों-लाखों क्षत्राणियों के सुहाग उजड़े हैं, कई नवजात आंखें खोलने से पहले अनाथ हुए हैं। आज इसका ऋण चुकाने की बारी मेरी है। " - आंखों में रक्त भरते हुए हीरा-दे ललकार पड़ी। 

हीरा दे ने म्यान से तलवार क्या खींची; धरा आशीष देने लगी, स्वर्गस्थ पूर्वजों ने दोनों हाथ उठाकर अपनी बेटी को आशीष दिया। अपने भीतर का सम्पूर्ण सामर्थ्य एकत्र कर वह अपने प्राणनाथ के सामने थी। 

" हिरादेवी भणइ चण्डाल सूं मुख देखाड्यूं काळ " हे विधाता! कैसा समय दिखाया कि आज इस चंडाल का मुँह देखना पड़ रहा है। लेकिन नहीं, अब नहीं -- 

" जो चंद कौड़ियों में बिक जाये वो एक क्षत्राणी का पति नहीं हो सकता। गद्दार पिता पति या पुत्र नहीं होता, गद्दार सिर्फ गद्दार होता है। " - यह कहते हुए उस पाषाण हृदया क्षत्राणी ने एक हाथ से अपनी सिंदूर रेख मिटायी और दूसरे हाथ से वह कटार निज पति की छाती में उतारकर इतिहास में एक नई रेख खींच दी। 

सोना-चांदी के प्रलोभन में नहीं झुकती क्षत्राणी, यह उसके लिए मैल से बढ़कर कुछ नहीं। वह इतिहास में अमर होने की इच्छा नहीं पालती, वह तो स्वयं इतिहास को अपनी काँख में दबाकर चलती है। क्षत्राणी विलाप नहीं करती, वह ललकारती है। क्षत्राणी सब क्षमा कर सकती है किंतु कायर और गद्दार पति नहीं। 

राज्य के प्रति ऐसी अनन्य निष्ठा कि अपनी पति तक को मौत के घाट उतार दिया, विश्व इतिहास में ऐसा उदाहरण विरल है। 

कायर पति के सीने में खंजर उतार देती, आग में कूद पड़ती, 
घोड़े पर बैठकर रण में तलवार चलाती, पति और पुत्र के भाल 
पर तिलक कर समर में भेज देती - क्षत्राणी सब नहीं होती!
डेढ़ सेर कलेजा चाहिए।

शनिवार, 8 जनवरी 2022

कौन है असली यदुवंशी…!?

हमारे बहुत से मित्र कहेंगे की द्वारिका तो पूरी नष्ठ हो गयी थी, अब कहाँ यदुवंशी बचे है। उन मित्रो को यही कहना है, की टीवी सीरियल छोड़कर मूल महाभारत पढ़े, द्वारिका में विनाश अवश्य हुआ था, लेकिन फिर भी श्रीकृष्ण ने कुछ हजार लोगों को तीर्थ के बहाने राज्य से निकाला था, अर्जुन ने भी काफी लोगो को बचाया ....तो यदुवंश खत्म नही हुआ था .....


यदुवंश भारत का एक महान वंश है , भगवान श्री कृष्ण का जन्म इसी वंश में हुआ था । वर्तमान में राजपूत जाति के अंतर्गत आने वाले जादौन, भाटी, जडेजा, चूड़ासामा यदुवंशी आदि है ।। 

इतिहास के ज्ञान के अभाव में हम जिन्हें यदुवंशी मानते है, इतिहास की पुस्तकों में उन्हें आभीर कहा गया है । कुछ इतिहासकारो ने तो यहां तक माना है, आभीर एक विदेशी जाति थी, शको का अनुसरण करते हुए यह भारत मे प्रविष्ट हुई, हिरात और कंधार के बीच "अबिरवन " नामक स्थान इनकी भूमि थी, बाद में पश्चिमी और मध्यभारत तक आभीरों की बस्तियां बनी, इतिहास के अधिकतम ग्रन्थों में आभीरों का वर्णन शुद्र के रूप में मिलता है ।

विदेशी शको के शासनकाल के समय आभीरों की स्तिथि बहुत सुदृढ थी , क्यो की शक राजा आभीरों को उच्च पदों पर बिठाते थे। उतरी काठियावाड़ में गुंडा नामक स्थान से १८१ ईस्वी का एक शिलालेख मिला है, इसमें महाक्षत्रप रुद्रसिंह प्रथम के शासनकाल में सेनापति बापक के पुत्र आभीर सेनानी रुद्रभूति द्वारा एक जलाशय खुदवाने का उल्लेख है । इससे यह स्पष्ठ है, की शको के शासनकाल में आभीरों को उच्च पद प्राप्त था ।। इसके उलट विदेशी शको और राजपूतो के बीच संबध सांप और नेवले वाला था । 

पूरे इतिहास में केवल एक आभीर राजा का उल्लेख मिलता है… मारठि पुत्र ईश्वरसेन ।। इनके नवम वर्ष के शासनकाल का एक शिलालेख मिला है, जिसमे उन्होंने कोई भी राजकीय उपाधि धारण नही की है, जैसा क्षत्रिय राजा करते थे ।

आभीर जाति लगभग 200 सालों तक भारत के छोटे प्रदेश पर शासन करती रही है । इतिहास में कदम्ब वंश का वर्णन आता है, जिन्होंने आभीरों और शको दोनो को पराजित किया, उन्होंने भी आभीर राज्यो को आभीर ही कहा है । यदु वंश से आभीरों का कहीं कोई सम्बंध नही बताया गया है ।

महाभारत में आभीर और क्षत्रिय :-

पूरी महाभारत में कहीं भी भगवान श्रीकृष्ण को आभीर नही कहा गया है। न उनके किसी वंसज को आभीर कहा गया है । 

महाभारत में आभीरों का जो वर्णन है, वह यह है :-

" ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः 
आभीरा मंत्रयामासः समेत्याशुभदर्शना " 
(श्रीमहाभारते-मौसलपर्व सप्तमोध्यायः-श्लोक -४७)

इस श्लोक का अर्थ है, लोभ से उनकी विवेक शक्ति नष्ठ हो गयी, उन अशुभदर्शी पापाचारी आभीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की ....

यह श्लोक तब है, जब अर्जुन द्वारिकावासियों को बचाने निकलते है । वहां इनकी मन्त्रणा चलती है

" देखो यह अकेला अर्जुन बूढों, बालको, ओर अनाथ समूह को लिए जा रहा है, अतः इसपर आक्रमण करना चाहिए। 

सिर्फ यही नही, इसी अध्याय में आभीरों का वर्णन म्लेच्छ के रूप में भी आया है :-

प्रेक्षतस्तवेव पार्थस्य वृषणयन्धकवरस्त्रीय
जग्मुरादाय ते मल्लेछा समन्ताजज्नमेय् ।।
(मौसल पर्व-सप्तम अध्याय-श्लोक :-६३)

अर्जुन देखता ही रह गया ,वह म्लेच्छ डाकू सब ओर से वृष्णिवंश और अन्धकवंश कि सुंदर स्त्रियो पर टूट पड़े ।। 

एक ही अध्याय में डाकुओं को आभीर भी कहा गया, म्लेच्छ कहा गया , अगर आभीरों का सम्बंध क्षत्रिय वंश से होता, तो महाभारत में लिखा होता, तो बुद्धि और काल से विवश होकर क्षत्रिय भी म्लेच्छ कर्म करने लगे। क्यो की जब भी क्षत्रियो ने अत्याचार किया है, शास्त्रो में उन्हें "अत्याचारी क्षत्रिय " ही कहा है, डाकू या म्लेच्छ नही । अगर आभीर क्षत्रिय होते, तो उनका भी इसी तरह वर्णण आता ।।

राजपूत ही है असली यादव

रही राजपूतो के यदुवंशी होने की बात, तो इनके पास वंशावली है, शास्त्रो के समस्त बयान इनके पक्ष में है, अहीर जाति प्रमाण पत्र में खुद को यादव लिखेंगे तो उन्हें आरक्षण तक नही मिलेगा ।। गुजरात उच्च न्यायलय ने जड़ेजाओ को गुजरात मे कृष्ण का वंसज माना है, आज भी श्रीकृष्ण की गद्दी करौली मानी जाती है, जैसलमेर में श्रीकृष्ण की छतरी है । 

लेखक की तरफ से विन्रम निवेदन :- यह पोस्ट सत्य तथा प्रमाणों पर आधारित पोस्ट है, इस पोस्ट का उद्देश्य किसी का अपमान करना नही है, अगर किसी को भी इस पोस्ट से तकलीफ हुई है, ।। यह पोस्ट इसलिए लिखनी पड़ी, क्यो की इसी बात को लेकर बार बार राजपूतो को टारगेट किया जाता है, कोई खुद को श्रीकृष्ण का वंशज कहें, पुत्र कहे, इससे किसी को कोई समश्या नही है।।