क्यों नहीं कर सके गाण्डीव धारी अर्जुन (भगवान श्री कृष्ण के परम प्रिय सखा पार्थ) भगवान श्रीकृष्ण की 16100 रानियों सहित यदुवंश की बची हुई स्त्रियों की आभीरों से रक्षा और क्यों आभीरों ने उनको लूटा इस रहस्य की कथा कुछ इस प्रकार है ।
यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण जी एवं शेषावतार हलधर बलदेव जी ने अपने निज स्वरूप में आ कर ,मानव देह का त्याग किया और अपने लोक को चले गये और समस्त यदुवंश का नाश का यह वज्राघात जैसा समाचार जब भगवान श्री कृष्ण जी के सारथी दारुक ने द्वारिकापुरी में आकर सुनाया तो इससे आहत होकर यदुराज उग्रसेन जी और श्री कृष्ण जी के पिता वासुदेव जी आदि सभी वयोवृद्ध यदुवंशी मर गए । बलदेव जी की माता रोहिणी जी और श्री कृष्ण जी की माता देवकी जी दोनों ने अग्नि प्रवेश किया और भस्म हो गयी । इसके बाद सारी यदुवंशियों की स्त्रियां अर्जुन के साथ प्रभास क्षेत्र में आईं ।रुक्मणी जी सहित सभी आठों पटरानियों ने श्री कृष्ण जी की मृत देह के साथ अग्नि में प्रवेश किया और बलदेव जी की रानी रेवती जी भी अपने पति बलदेव जी की मृत देह के साथ सभी प्राणियों द्वारा की जा रही स्तुति के बीच सती हो गई ।
इसके बाद अर्जुन ने सभी म्रत यदुवंशियों की अंत्येष्टि की ।सभी का विधि विधान पूर्वक प्रेतकर्म किया । मद्य पान से उन्मत हुए असंख्य यदुवंशी वहां उस प्रभास क्षेत्र में आपस ही में मर कट गये थे ।
अनिरुद्ध का एक पुत्र जिसका नाम बज्रनाभ था वह ही प्रधान यदुवंशियों में बच रहा था । प्रभु श्री कृष्ण के द्वारा अपने सारथी दारुक के माध्यम से भेजे संदेशानुसार अर्जुन बज्रनाभ जी सहित यदुवंशियों की सभी स्त्रियों को लेकर पार्थ ने द्वारिकापुरी से पंचनंद की ओर प्रयाण किया। रानिवास से 16100 ललनाओं (भगवान श्री कृष्ण की रानियां जो प्रभु ने भामसुर की कैद से निकाल कर सभी का पाणिग्रहण किया था )के साथ बज्र को लेकर अर्जुन अपने गाण्डीव औऱ वाणों से सज्जित हो कर चले । रानिवास की यदुवंशियो की स्त्रियों के साथ बचे हुए पुरजनों को द्वारिका से निकाल कर पंचनंद(पंजाब) में आ रहे और पीछे से प्रभु श्री कृष्ण जी के बिना वीरान हुई सम्पूर्ण द्वारिकापुरी को समुद्र ने अपने में केवल भगवान श्री कृष्ण जी के महल को छोड़ कर समा लिया । तब वहाँ आभीरों ने (द्वारिका के पास) जब अर्जुन को ऐसी सुन्दर सजी-धजी युवतियों को ले जाते देखा तो उन्होंने काफिले पर हमला कर दिया और वे इन स्त्रियों के आभूषण लूटने लगे । अर्जुन ने उन्हें ललकारते हुए कहा कि अपने प्राण चाहते हो तो तुरन्त भाग जाओ अन्यथा सभी मारे जाओगे। अर्जुन का कहा सुन कर वे हँस कर धमकाते हुये बोले कि तेरे मन में वह मिथ्या/ व्रथा(झूठा) अभिमान बढ़ गया लगता है अब चुप रह। युद्ध में जयद्रथ ,कर्म ,बिंद ,भगदत्त,भीष्म आदि को मारने से अर्जुन तेरे भीतर खोखला दर्प भर गया है। हे कुन्तीपुत्र ! तुमने अभी तक ग्रामीण तस्करों और डाकुओं को आजमाया नहीं है इस लिए चुपचाप हमारी राह से हट जा अन्यथा अभी गले में टुंपा (फांसी) लगने से अपने आप ही टल जाायेग। यह सुनकर पार्थ ने अपना गाण्डीव संभाला पर उससे तो बमुश्किल तमाम प्रयासों से भी प्रत्यंचा भी पुरी नहीँ चढ़ पाई । वह पुनः ढीली हो गई ।
अर्जुन के गाण्डीव धनुष ने भी काम नही किया अन्य सारे शस्त्र ना काम हो गये । यह देख अर्जुन को मन ही मन अत्यंत विस्मय हुआ । उन तस्करों ने श्रीकृष्ण की 16100 रानियों सहित सभी यदुवंश की स्त्रियों का हरण करके उनका व्रत भंग किया था । कुपित होकर अर्जुन बज्र को औऱ बचे हुई स्त्रियों और परिजनों को लेकर ही मथुरा आ पाए । बृज (मथुरा) की राजगद्दी पर बज्रनाभ जी को बिठा कर अर्जुन लज्जित हो, हस्तिनापुर को लौट कर आ रहे थे ,राह में उनको वेदव्यास मिले । उन्होंने अर्जुन का कांतिविहीन मलिन मुख देख कर पूछा ,"क्या बात हुई अर्जुन आखिर मलिन क्यों?" प्रत्युत्तर में अर्जुन ने पूरे यदुवंश के नाश का समाचार और राह में स्त्रियों की लज्जा भंग होने का व्रतांत कह सुनाया।
पूरा व्रतांत सुनकर वेदव्यास ने कहा कि काल पुरुष का यही क्रम है जो जन्म लेता है उसे एक दिन मरना पड़ता है और यह उन म्लेच्छों ने स्त्रियों की लाज लूटी है इसका एक कारण है उसे तुम सुनो ।
एक बार सुमेरु पर्वत पर असुरों का संहार करने के लिए शूरवीरों का मेला लगा । सारे समाजों से आ कर योद्धा गण वहां एकत्रित हुए । असुर संहार का सुन कर वहां जाती हुई अप्सराओं को बीच राह में मुनि अष्टावक्र मिले ।अप्सराओं ने उन्हें आकंठ पानी में खड़े और ब्रह्मा समाधि में लीन ध्यान लगाये देखा । सारी अप्सराओं ने पूरे आदर और सम्मान तथा विनम्रता के साथ हाथ जोड़ कर मुनि की स्तुति की तब प्रसन्न हो कर अष्ट्रावक्र मुनि ने उनसे कहा कि तुम्हारी इच्छा हो सो वर मांगों।
इस पर तिलोत्तमा ,रंभा ,आदि प्रमुख अप्सराओंने कहा "हे मुनि ! आपकी प्रसन्नता ही हमारा सबसे बड़ा वरदान है । इसे छोड़ कर हम दूसरे वरदान की क्या प्रत्याशा करें? दूसरा कुछ मांगना हमारी भूल होगी । आगे भी कई अप्सराओं ने श्री हरि को पति के रूपमें मांगा है ,अधिक हम भी यही वर माँगती है। "यह सुन कर उदार मुनि अष्टावक्र जी ने "तथास्तु"कहा और पानी से बाहर आये ।
लेकिन पानी से निकलने पर अष्टावक्र मुनि को आठ जगह से टेड़ा देख कर वे हँसी। इस पर कुपित हो कर इसे अपना अपमान समझते हुये मुनि अष्टावक्र जी ने उन सभी अप्सराओं को शाप दिया कि" तुम्हें मेरे वरदान स्वरूप गोविन्द को पति रूप में प्राप्ति तो होगी पर श्री हरि के साथ भोग भोगने के बाद तुम सभी म्लेच्छों के भोगने योग्य हो जाओगी ओर चोर तुम्हारा हरण करेंगे ।"
इस प्रकार शाप का वज्राघात पा कर सारी अप्सराएं मुनि अष्ट्रावक्र के चरणों में गिर पड़ी। इससे कोमल ह्रदय वाले मुनि अष्टावक्र जी ने कहा कि चलो , तुम्हें अन्त में स्वर्ग की प्राप्ति होगी । बाद में तुम सभी स्वर्ग में ही बसोगी। यह कथा सुना कर वेदव्यास जी बोले कि हे अर्जुन ! इस प्रकार द्विजवर अष्टावक्र जी के शाप के कारण वे आभीर जन (अहिर लोग) तूम्हें हरा पाए और इसी शाप के कारण वे अप्सराओं से भोग कर पाए। इस लिए हे वीर ! तुम्हारे लिए इसमें लज्जित होने योग्य कुछ भी नहीं।
तब अर्जुन यह सब सुन कर विकलमना हो तेज गति से वापस हस्तिनापुर की ओर बढ़े और वहां जा कर रोते हुए पार्थ ने सभी यदुवंशियों के कुलनाश का समाचार अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठर जी को सुनाया । सभी पांडव फिर परीक्षत को पूरा राज्य सौंप कर वन में गये वहां उन्होंने श्री कृष्ण हरि भक्ति में लीन होकर हिमालय पर इस संसार सागर का त्याग किया ।
जय श्री कृष्णा । जय यदुवंश।
"जदुवंशी क्षत्रियो की शौर्य गाथा"