बुधवार, 30 सितंबर 2020

महान चक्रवर्ती सम्राट...राजा भोज (राज भोज)


ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुनर्निर्माण कराया था राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदिशंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था…

कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था इनके ही नाम पर भोज नाम से उपाधी देने का भी प्रचलन शुरू हुआ जो इनके ही जैसे महान कार्य करने वाले राजाओं की दी जाती थी…

 भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं…

 राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में 'सरस्वतीकण्ठभरण' नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में 'सरस्वती मंदिर' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम 'भोजशाला' लिखा था पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है…
 
राजा भोज का परिचय :* परमारवंशीय राजाओं ने 
मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया…

 महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया…

 ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं…

 उन्होंने 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वांत संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धांत', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि ग्रंथों की रचना की…

 'भोज प्रबंधनम्' नाम से उनकी आत्मकथा है हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाष्टक के रूप में विश्वविख्यात है तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था…

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा, राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है…

इसके अलवा गौतमी पुत्र शतकर्णी, यशवर्धन, नागभट्ट और बप्पा रावल, मिहिर भोज, देवपाल, अमोघवर्ष , इंद्र द्वितीय, चोल राजा, राजेंद्र चोल, पृथ्वीराज चौहान, विक्रमादित्य , हरिहर राय और बुक्का राय, राणा सांगा, अकबर, श्रीकृष्णदेववर्मन, महाराणा प्रताप, गुरुगोविंद सिंह, शिवाजी महाराज, पेशवा बाजीराव और बालाजी बाजीराव, महाराजा रणजीत सिंह आदि के शासन में भी जनता खुशहाल और निर्भिक रही।

राष्ट्रवीर हिंदुगौरव वीर दुर्गादास राठौड़ जी


आसाणी तव आस में जड़ रैयगी जौधाण
नितर कलमां नित वल्लता मुलां देता माण 

वीर शिरोमणी दुर्गादास राठौड़ वो शख़्स थे जिन्होंने मारवाड़ तथा यहाँ के राजवंश दोनों को मुग़ल* *बादशाह औरंगज़ेब के कोपभाजन से बचाकर इसके गौरवशाली इतिहास को क़ायम रखा…

धर्मांध औरंगज़ेब नें सता हासिल करनें के लिए हर उस शख़्स को अपनें रास्ते से हटाया जो उसके लिए रौड़ा थे वो चाहे उसके अपनें सग्गे भाई दारा,सूजा,मुराद ही क्यों नहीं हो जिनको मारकर तथा अपनें जन्मदाता शाहजंहा को केद में डालकर उसनें राजगद्दी प्राप्त करी थी उसनें अनेकों अनेक प्राचीन मंदिरों को नेस्तनाबूद किया और उन मंदिरों की मूर्तियों को मस्जिदों की सीड्डियों की जगह लगाकर मंदिरों की जगह को मस्जिदों में परिवर्तित किया…

उसनें उन सभी को मरवाया जिसनें अपना धर्म नहीं बदला चाहे वो शिवाजी महाराज के पुत्र शम्भाजी हो जिनके हाथ पाँव के नाख़ून और आँखें तक निकाल ली गयी,सिक्खों के गुरु गोविन्दसिंहजी के पुत्र जौरावरसिंह और फ़तहसिंह वो बहादुर नौजवान थे,जिनको इस्लाम स्वीकार नहीं करनें पर ज़िंदा दीवार में चिनवा दिया ताकि इसको देखकर कायर लोग अपना धर्म परिवर्तन करलें 
 ये सब समकालीन एतिहासिक ग्रंथों में लिखित है जो प्रामाणिक है की धार्मिक कट्टरता के कारण हिंदुस्थान में जगह जगह विद्रोह हुए… 

जिसके फलस्वरूप मुग़ल सता धीरे धीरे कमज़ोर होती गयी आख़िर में हमेशा के लिए समाप्त हुई उसके बाद कोई योग्य उतराधिकारी नहीं रहा…

अगर उसके मन में कहीं किसी का भय था तो सिर्फ मारवाड़ के महानायक दुर्गादास राठौड़ का…

मारवाड़ के अस्तित्व को बचाने व भारतवर्ष मे औरंगजेब की इस्लामीकरण की आंधी को रोकने के लिऐ 28 साल घोड़े की पीठपर अपना आसियाना रखकर यहा तक की घोड़े की पीठपर ही भाले की नोक से श्मशान की आग पर रोटियां सेक कर पेट की आग को शांत कर संघर्ष कर मारवाड़ को तो बचाया ही साथ ही औरंगजेब को लगातार युद्धों मे उलझाये रखकर हिंदुधरम को बचाया हिंदुस्तान के इतिहास मे पुरुषोत्तम श्री राम के बाद समस्त क्षत्रियोचित गुणों को धारण कर हिंदुधरम की रक्षा करने वाली महान शख्सियत वीरदुर्गादास राठौड़ थे जिन्हें बड़े फक्र के साथ हम हिंदुगौरव कहकर अपने आपको गौरवान्वित महसुस करते है।

आठ पहर चौसठ घड़ी , घुड़ले ऊपर वास 
सैल अणि सूं सेकतो, बाटी दुर्गादास।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

पाटण की रानी रुदाबाई

🙏🏻जय🪔मां🪔भवानी🔱

पाटण की रानी रुदाबाई👆जिसने सुल्तान बेगडा के सीने को फाड़ कर 👉दिल निकाल लिया था, और कर्णावती शहर के बिच में टांग दिया था, और

👉धड से सर अलग करके पाटन राज्य के बीचोबीच टांग दिया था। 
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गुजरात से कर्णावती के राजा थे…
राणा वीर सिंह वाघेला (सोलंकी), ईस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली, सुल्तान बेघारा ने सन् 1497 पाटण राज्य पर हमला किया राणा वीर सिंह वाघेला के पराक्रम के सामने सुल्तान  की 40000 से अधिक संख्या की फ़ौज २ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई, सुल्तान बेघारा जान बचाकर भागा। 

असल मे कहते है सुलतान की नजर रानी रुदाबाई पे थी, रानी बहुत सुंदर थी, वो रानी को युद्ध मे जीतकर अपने हरम में रखना चाहता था। सुलतान ने कुछ वक्त बाद फिर हमला किया। 

राज्य का एक साहूकार इस बार सुलतान से जा मिला, और राज्य की सारी गुप्त सूचनाएं सुलतान को दे दी, इस बार युद्ध मे राणा वीर सिंह वाघेला को सुलतान ने छल से हरा दिया जिससे राणा वीर सिंह उस युद्ध मे वीरगति को प्राप्त हुए। 

सुलतान रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर 10000 से अधिक लश्कर लेकर पंहुचा, रानी रूदा बाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा,

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे 2500 धर्धारी वीरांगनाये थी, जो रानी रूदा बाई का इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी, सुलतान  को महल द्वार के अन्दर आने का न्यौता दिया गया। 

सुल्तान  वासना मे अंधा होकर वैसा ही किया जैसे ही वो दुर्ग के अंदर आया राणी ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया। 

सुलतान  का सीना फाड़ कर रानी रुदाबाई ने कलेजा निकाल कर कर्णावती शहर के बीचोबीच लटकवा दिया।

और.. उसके सर को धड से अलग करके पाटण राज्य के बिच टंगवा दिया साथ ही यह चेतावनी भी दी की कोई भी आक्रांता भारतवर्ष पर या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा। 

इस युद्ध के बाद रानी रुदाबाई ने राजपाठ सुरक्षित हाथों में सौंपकर कर जल समाधि ले ली, ताकि कोई भी तुर्क आक्रांता उन्हें अपवित्र न कर पाए। 

ये देश नमन करता है रानी रुदाबाई को, गुजरात के लोग तो जानते होंगे इनके बारे में। ऐसे ही कोई क्षत्रिय और क्षत्राणी नहीं होता, हमारे पुर्वज और विरांगानाये ऐसा कर्म कर क्षत्रिय वंश का मान रखा है और धर्म बचाया है। 

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                Thakur Sachin Chauhan

👑जय💪राजपूताना।🚩

बुधवार, 2 सितंबर 2020

तलवार का नाप

आप के घर में क्या तलवार है :-

 क्या आपको पता है कि उस तलवार का नाप क्या है, और वह आपके जीवन और घर को कितना प्रभावित कर रही है। जी हां, यह जानकारी आप को निचे दोहे और छंद के माध्यम से दी जा रही है आप कि सुविधा के लिए में इसका भावार्थ में पहले कर देता हूँ। 


अगर आपके घर में तलवार है :- 

और अगर नहीं है और खरीदने का मन बना लिया है तो आप अपने हाथ से तलवार की मूंठ से लेकर निचे अणी तक अपनी अंगुलियों से नाप कर लिजिए। अब जो नाप आता है उसमे तेरह की संख्या और मिला दिजिये अब उक्त संख्या में सात का भाग दिजिये शेष जो बचेगा उसी के अनुसार तलवार का नाम और उसका प्रभाव निचे छंद के रूप में दिया गया है आप सभी विद्वजनो के लिए....

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                Thakur Sachin Chauhan
निज अंगुल से नापिये, तेरह और मिलाय।
भाग सात को दिजिये, खड्ग नाप लखाय।।

पेहली निज मालिनी नेत कहै, लख दूण प्रमाण प्रभाव लहै।
द्वितिय जुतकी कही नेत तलै, कर राखत ताही को त्रुंग मीलै।
त्रितिय लख चण्डी नेत तकी, कभी होत न छांह पिशाचन की।
चवथी निज शंखनी कोप करै, धन भोमि कुटुंब ने आद हरै।
पंचमी पद्मिनी नाम गहै निज हाथ रहे तहां प्राण लहै।
अति नून कहावत तेग छठी, कछु काज सरै न घटे न बधी
सत अंगुल भेद कहै वरणी, जय होय सदा अरि को हरणी
यह छंद विधान कहै जग से, वसुधा कुलरीत रहै खग सै। 

नाप लेने के बाद तेरह मिला कर सात का भाग देवै। 
अब शेष जो बचे उसी के अनुसार फलादेश है मान लिजिए एक बचा तो इस को पहली तलवार और नाम है इसका मालिनी यह घर में रहने से गृह स्वामी का प्रभाव दुगुना हो जाता है। 
इसी प्रकार दूसरी तलवार का नाम जुतकी है जिस के पास रहती है उसे घौड़ा मिलता है आज के हिसाब से सवारी मोटरसाइकिल हो सकती है। 

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तीसरी चंडी और काम भूत पिशाच से रक्षा और चौथी नाम शंखनी काम, धन भुमि कुटुंब का नाश करती है पांचवीं नाम पद्मिनी और काम जिस के हाथ में रहती है उसी के प्राणों का हरण करती है।
छठी नाम अति नून इस से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है न घटता है न बढता है। 
जिस में बराबर भाग चला जाए शेष नहीं बचे उसका नाम वरणी है काम युद्ध मैं जीत और शत्रु का विनाश निश्चित है।

क्षत्राणी माता जिया रानी ( मौला देवी पुंडीर ) की गौरवगाथा

इतिहास में कुछ ऐसे अनछुए व्यक्तित्व होते हैं जिनके बारे में ज्यादा लोग
नहीं जानते मगर एक क्षेत्र विशेष में उनकी बड़ी मान्यता होती है और वे
लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं,आज हम आपको एक ऐसी ही वीरांगना
से परिचित कराएँगे जिनकी कुलदेवी के रूप में आज तक उतराखंड में
पूजा की जाती है.
उस वीरांगना का नाम है राजमाता जिया रानी(मौला देवी पुंडीर) जिन्हें
कुमायूं की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है -
जिया रानी(मौला देवी पुंडीर)
हरिद्वार(मायापुर) के शासक चन्द्र पुंडीर सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बड़े
सामन्त थे,
तुर्को से संघर्ष में चन्द्र पुंडीर,उनके वीर पुत्र धीरसेन पुंडीर और
पौत्र पावस पुंडीर ने बलिदान दिया।
ईस्वी 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद
देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था,मगर उसके बाद भी किसी तरह
दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा,
ईस्वी 1380 के आसपास हरिद्वार पर अमरदेव पुंडीर का शासन था, जिया
रानी का बचपन का नाम मौला देवी था,वो हरिद्वार(मायापुर) के राजा
अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी,
इस क्षेत्र में तुर्कों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि
गढ़वाल और कुमायूं में भी तुर्कों के हमले होने लगे,ऐसे ही एक हमले में
कुमायूं (पिथौरागढ़) के कत्युरी राजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव
पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता
के लिए भेजा,
जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी का विवाह
कुमायूं के कत्युरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया,
मौला देवी प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी,उनके धामदेव,दुला,ब्रह्मदेव पुत्र
हुए जिनमे ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से मानते
हैं,मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को जिया
कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया,
कुछ समय बाद जिया रानी की प्रीतम देव की पहली पत्नी से अनबन हो
गयी और वो अपने पुत्र के साथ गोलाघाट की जागीर में चली गयी जहां
उन्होंने एक खूबसूरत रानी बाग़ बनवाया,यहाँ जिया रानी 12 साल तक रही।

⛳जय राजपूताना 🚩 जय क्षत्राणी ⛳