कान्यकुब्जेश्वर धर्मपरायण महाराजा
जयचन्द्र गहरवार
(1170 ई. - 1194 ई.)
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी विसंगतियों में से एक है महाराज जयचन्द्र को गद्दार कहना। बिना वस्तुस्थिति का सही मूल्यांकन किये आज समाज का बहुसंख्यक वर्ग बात बात पर जयचन्द्र को गद्दार कहता है। वस्तुतः स्थित बिलकुल विपरीत है।
सम्राट् जयचन्द्र गहरवार वंश के पाँचवें शासक थे। इनका शासनकाल 1170 ई. से 1194 ई. तक था। जयचन्द्र का जन्म उस दिन हुआ था, जिस दिन उनके पितामह महाराज गोविन्दचन्द्र ने दशार्ण देश (पूर्वी मालवा) पर विजय प्राप्त किया था।
इसका उल्लेख करते हुए नयचन्द्र ने अपनी पुस्तक 'रम्भामंजरी' में लिखा है-
पितामहेन तज्जन्मदिने दशार्णदेशेसु प्राप्तं प्रबलम्
यवन सैन्य जितम् अतएव तन्नाम जैत्रचन्द्रः।[1]
अर्थात् इनके जन्म के दिन पितामह ने युद्ध में यवन-सेना पर विजय प्राप्त की अतः इनका नाम जैत्रचन्द्र पड़ा।
तत्कालीन संस्कृत-साहित्य में महाराज जयचन्द्र के अनेक नाम मिलते हैं।
मेरुतुंग ने प्रबन्धचिन्तामणि में 'जयचन्द्र', राजशेखर सूरि ने प्रबन्धकोश में 'जयन्तचन्द्र', नयचन्द्र ने रम्भामंजरी में 'जैत्रचन्द्र' कहा है, जबकि लोक में 'जयचन्द' कहा जाता है।
'रम्भामंजरी' के अनुसार महाराज जयचन्द्र की माता का नाम 'चन्द्रलेखा' था, जो अनंगपाल तोमर की ज्येष्ठ पुत्री थीं, किन्तु 'पृथ्वीराज रासो' के छन्द संख्या 681-682 के अनुसार उनका नाम सुन्दरी देवी था। 'भविष्यपुराण' में महाराज जयचन्द्र की माता का नाम चन्द्रकान्ति बताया गया है। आषाढ़ शुक्ल दशमी संवत् 1224 तदनुसार रविवार 16 जून, 1168 को पिता महाराज विजयचन्द्र ने जयचन्द्र को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया। आषाढ़ शुक्ल षष्ठी संवत् 1226 तदनुसार रविवार 21 जून, 1170 ई. को महाराज जयचन्द्र का राज्याभिषेक हुआ था। राज्याभिषेक के पश्चात् महाराज जयचन्द ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त किया। 'पृथ्वीराज रासो' के अनुसार महाराज जयचन्द ने सिन्धु नदी पर मुसलमानों (सुल्तान, गौर) से ऐसा घोर संग्राम किया कि रक्त के प्रवाह से नदी का नील जल एकदम ऐसा लाल हुआ मानों अमावस्या की रात्रि में ऊषा का अरुणोदय हो गया हो। महाकवि विद्यापति ने 'पुरुष परीक्षा' में लिखा है कि यवनेश्वर सहाबुद्दीन गोरी को जयचन्द्र ने कई बार रण में परास्त किया। 'रम्भामञ्जरी' में भी कहा गया है कि महाराज जयचन्द्र ने यवनों का नाश किया।
बल्लभदेव कृत 'सुभाषितावली' में वर्णित है कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी द्वारा उत्तर-पूर्व के राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने उसे प्रताड़ित करने हेतु अपने दूत के द्वारा निम्नलिखित पद लिखकर भेजा-
स्वच्छन्दं सैन्य संघेन चरन्त मुक्तो भयं।
शहाबुद्दीन भूमीन्द्रं प्राहिणोदिति लेखकम्।।
कथं न हि विशंकसेन्यज कुरग लोलक्रमं।
परिक्रमितु मीहसे विरमनैव शून्यं वनम्।।
स्थितोत्र गजयूथनाथ मथनोच्छलच्छ्रोणितम्।
पिपासुररि मर्दनः सच सुखेन पञ्चाननः।।
अर्थात् स्वतन्त्र और महती सेना के साथ निर्भय भारतवर्ष में शहाबुद्दीन द्वारा राजाओं का पददलित होना सुनकर महाराज जयचन्द्र ने यह पद्य अपने दूतों से भेजा; ऐ तुच्छ मृगशावक, तू अपनी चंचलता से इस महावन रूपी भारतवर्ष में उछल-कूद मचाये हुए है, तेरी समझ में यह वन शून्य है अथवा तुझ-सा पराक्रमी अन्य जन्तु इस महावन में नहीं है, यह केवल तुझे धोखा और भ्रम है। ठहर ठहर आगे मत बढ़, निःशंकता छोड़ देख यह आगे मृगराज गजराजों के रक्त का पिपासु बैठा है, यह महा-अरिमर्दक है, तेरे ऐसों को मारते इसे कुछ भी श्रम प्रतीत नहीं होता, वह इस समय यहाँ सुख से विश्राम ले रहा है।
महाराज जयचन्द्र के सम्बन्ध में 1186 ई. (1243 वि. सं.) में लिखे गये फ़ैज़ाबाद ताम्र-दानपत्र में वर्णित है-
अद्भुत विक्रमादय जयच्चन्द्राभिधानः पतिर्
भूपानामवतीर्ण एष भुवनोद्धाराय नारायणः।
धीमावमपास्य विग्रह रुचिं धिक्कृत्य शान्ताशया
सेवन्ते यमुदग्र बन्धन भयध्वंसार्थिनः पार्थिकाः।।
छेन्मूच्छीमतुच्छां न यदि केवल येत् कूर्म पृष्टामिधात
त्यावृत्तः श्रमार्तो नमदखिल फणश्वा वसात्या सहस्रम्।
उद्योगे यस्य धावद्धरणिधरधुनी निर्झरस्फारधार-
श्याद्दानन्द् विपाली वहल भरगलद्वैर्य मुद्रः फणीन्द्रः।।[2]
यहाँ अभिलेखकार ने पहले श्लोक में बताया है कि महाराज विजयचन्द्र (विजयपाल = देवपाल) के पुत्र महाराज जयचन्द्र हुए, जो अद्भुत वीर थे। राजाओं के स्वामी महाराज जयचन्द्र साक्षात् नारायण के अवतार थे, जिन्होंने पृथ्वी के सुख हेतु जन्म लिया था। अन्य राजागण उनकी स्तुति करते थे। दूसरे श्लोक में कहा गया है कि उनकी हाथियों की सेना के भार से शेषनाग दब जाते थे और मूर्छित होने की अवस्था को प्राप्त होते थे।
उत्तर भारत में महाराज जयचन्द्र का विशाल साम्राज्य था। उन्होंने अणहिलवाड़ा (गुजरात) के शासक सिद्धराज को हराया था। अपने राज्य की सीमा का उत्तर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के तट तक तथा पूर्व में बंगाल के लक्ष्मणसेन के राज्य तक विस्तार किया था। मुस्लिम इतिहासकार इब्न असीर ने अपने इतिहास-ग्रन्थ 'कामिल उत्तवारीख़' में लिखता है कि महाराज जयचन्द्र के समय कन्नौज राज्य की लम्बाई उत्तर में चीन की सीमा से दक्षिण में मालवा प्रदेश तक और चौड़ाई समुद्र तट से दस मैजल लाहौर तक विस्तृत थी। साधारणतः 20 मील (10 कोस) की एक मैजल समझी जाती है। इस प्रकार लाहौर से 200 मील की दूरी तक महाराज जयचन्द्र का साम्राज्य फैला हुआ था। 'योजनशतमानां पृथ्वीम्-असाधयत्' अर्थात् महाराज जयचन्द्र ने 700 योजन पृथ्वी को अपने अधिकार में किया था। इस कथन से यह सिद्ध होता है कि महाराज जयचन्द्र के साम्राज्य का विस्तार 5600 वर्गमील था।
'सूरज प्रकाश' नामक ग्रन्थ के अनुसार सम्राट् जयचन्द्र की सेना में अस्सी हज़ार जिरह बख्तरवाले योद्धा, तीस हज़ार घुड़सवार, तीन लाख पैदल सैनिक, दो लाख तीरन्दाज एवं हज़ारों की संख्या में हाथी सवार योद्धा थे। इसलिए सम्राट् जयचन्द्र को दलपुंगल कहा जाता था। इतिहास में जयचन्द्र के उज्ज्वल चरित्र का वर्णन मिलता है।
दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता को लेकर जो लोकापवाद चन्दबरदाई के पृथ्वीराज रासो से प्रारम्भ हुआ, उसकी बिना छानबीन किये ही महाराज जयचन्द्र को गद्दार कहना उचित नहीं है। किसी भी इतिहासकार ने महाराज जयचन्द की संयोगिता नाम की किसी पुत्री का उल्लेख नहीं किया है। भविष्यपुराण में यह संकेत है कि सम्राट् जयचन्द्र की सोलह रानियों में एक महिषी दिव्यविभावरी गौड़ राजा की पुत्री थी। उसकी दासी सुरभानवी की पुत्री का नाम संयोगिनी था। जब संयोगिनी 12 वर्ष की हुई, तब महाराज जयचन्द्र ने उसके स्वयंवर में विभिन्न राजाओं को बुलाया, परन्तु पृथ्वीराज को न बुलाकर उनकी स्वर्णनिर्मित प्रतिमा कान्यकुब्ज की सभा में स्थापित करवा दी। महाराज पृथ्वीराज चौहान भी सेना लेकर वहाँ आये और संयोगिनी (संयोगिता) का अपहरण कर अपनी राजधानी लौट गये।[3] इस कथा का अनुमोदन पृथ्वीराज रासो भी करता है। महाकवि चन्दबरदाई ने महाराज जयचन्द्र के द्वारा किये गये राजसूय यज्ञ और उसी अवसर पर आयोजित संयोगिता-स्वयंवर का वर्णन किया है। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जिस समय महाराज जयचन्द्र और पृथ्वीराज चौहान का शासन था क्या उस समय राजसूय यज्ञ और स्वयंवर की प्रथा थी?
किसी भी प्रबुद्ध इतिहासकार ने इस कथा को सत्य स्वीकार नहीं किया है। इस प्रकरण को ऐतिहासिक तथ्य से रहित केवल एक कहानी मानते हुए इतिहासकार डॉ. रामशंकर त्रिपाठी लिखते हैं-
'It is, however, difficult to accept this romantic story as a historical fact for at this time svayamvaras and rajasuya yagnas had become obsolete, and if they had been performed, they must have found mention is inscriptions.'[4]
यदि थोड़ी देर के लिए इस कथा को स्वीकार भी कर लिया जाय तो क्या उस समय के भारतीय नरेश जयचन्द्र की दासी-कन्या से विवाह करने के लिए सहमत थे? राज्य को लेकर महाराज जयचन्द्र और महाराज पृथ्वीराज चौहान में विवाद हो सकता है, किन्तु क्या पृथ्वीराज चौहान इतनी नीच प्रवृत्ति के थे कि वे अपने मौसेरे भाई की पुत्री से विवाह कर लेते? 'गहरवार राजवंश का इतिहास' लिखनेवाले डॉ. रोमा नियोगी का भी यही मत है। डॉ. नियोगी के अनुसार जयचन्द्र और पृथ्वीराज में बैरभाव होने का कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है।[5]
सन 1192 से पहले पृथ्वीराज चौहान ने कई वार मुहम्मद गौरी की जान बक्शी पर सन् 1192 ई. में तराइन के युद्ध में मुहम्मद गोरी ने अपनी चाल से दिल्लीश्वर पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर दिया था। इसके परिणामस्वरूप दिल्ली और अजमेर पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया था। वहाँ का शासन-प्रबन्ध मुहम्मद गोरी ने अपने मुख्य सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दिया और स्वयं अपने देश चला गया था। तराइन के युद्ध के बाद भारत में मुसलमानों का स्थायी राज्य बना। ऐबक गोरी का प्रतिनिधि बनकर यहाँ से शासन चलाने लगा। इस युद्ध के दो वर्ष बाद गोरी दुबारा विशाल सेना लेकर भारत को जीतने के लिए आया। इस बार उसका लक्ष्य कन्नौज-विजय का था।
कन्नौज उस समय सम्पन्न राज्य था। गोरी ने उत्तर भारत में अपने विजित इलाक़े को सुरक्षित रखने के अभिप्राय से यह आक्रमण किया। वह जानता था कि बिना शक्तिशाली कन्नौज राज्य को अधीन किये भारत में उसकी सत्ता कायम न रह सकेगी। तराइन के युद्ध के दो वर्ष बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द पर चढ़ाई की। सुल्तान शहाबुद्दीन रास्ते में पचास हज़ार सेना के साथ आ मिला। मुस्लिम आक्रमण की सूचना मिलने पर जयचन्द भी अपनी सेना के साथ युद्धक्षेत्र में आ गये। दोनों के बीच इटावा के पास ‘चन्दावर' नामक स्थान पर संग्राम हुआ। युद्ध में महाराज जयचन्द हाथी पर बैठकर सेना का संचालन करने लगे। इस युद्ध में जयचन्द की पूरी सेना नहीं थी। सेनाएँ विभिन्न क्षेत्रों में थी, जयचन्द के पास उस समय थोड़ी-सी सेना थी। दुर्भाग्य से महाराज जयचन्द की आँख में एक तीर लगा, जिससे उनका प्राणान्त हो गया। युद्ध में गोरी की विजय हुई। यह युद्ध वि. सं. 1250 (1194 ई.) में हुआ था।
महाराज जयचन्द्र विषयक जितने भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें उन्हें देशद्रोही या गद्दार होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते।
आधुनिक काल के जे. एच. गेन्से[6], जाॅन ब्रिग्स [7], डॉ. रामकुमार दीक्षित, कृष्णदत्त वाजपेयी[8], डॉ. आर. सी. मजूमदार [8], डॉ. रोमा नियोगी[9], जे. सी. पावेल-प्राइस[10], डॉ रामशंकर त्रिपाठी[11], विसेंट ए. स्मिथ [12], डॉ आनन्दस्वरूप मिश्र[13], डाॅ. आनन्द शर्मा[14] प्रभृति इतिहासकारों ने महाराज जयचन्द्र को निष्कलंक स्वीकार किया है।
डॉ. आनन्द शर्मा ने महाराज जयचन्द्र की निष्कलंकता के सन्दर्भ में निष्कर्षतः लिखा है- 'इस आधारहीन प्रवाद का उद्गम खोजना मेरे लिए आवश्यक हो गया था। मैं यह जानकर हतप्रभ रह गया कि यह सारा वितण्डावाद पृथ्वीराज के आश्रित चारण चन्दबरदाई रचित पृथ्वीराज रासो ने फैलाया था। इस चारणी-काव्य में चन्दबरदाई ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में ज़मीन-आसमान मिला दिये थे। उसने ही काल्पनिक संयोगिता का सृजन करके उसे दोनों नरेशों की शत्रुता का कारण ही नहीं बनाया, तराइन युद्ध में मारे गये पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गजनी ले जाने, उसे अन्धा करके आँखों में नींबू-मिर्च डलवाने और अन्धे पृथ्वीराज के शब्दबेधी बाण के द्वारा गोरी के मारे जाने तक का उल्लेख कर डाला था। जबकि गोरी तराइन युद्ध के लगभग दस वर्ष बाद सन् 1205-06 में झेलम ज़िले (अब पाकिस्तान में) के समीप शत्रु कबीले द्वारा सोते समय घात लगाकर किये हमले में मारा गया था। स्मिथ ने भी 'अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया' में यही लिखा था। इतिहास के सभी विद्वानों ने 'पृथ्वीराज रासो' को अप्रामाणिक माना है। इस पर भी इतिहास धरा रह गया, रासो की कथा जन जन में प्रचारित हो गयी। एक धर्मपरायण राजा देशद्रोही के रूप में सामान्य जन की घृणा का पात्र बन गया।'[15]
यहाँ निष्कर्षतः केवल इतना ही कहना है कि 'पृथ्वीराज रासो' का हवाला देकर एक दोहे को बार बार उद्धृत करते हुए कहा जाता है कि 1192 ई. में सुल्तान मुहम्मद गोरी पृथ्वीराज चौहान और चन्दबरदाई को गजनी ले गया और वहाँ उन दोनों की आँखें निकलवा लिया। फिर चन्दबरदाई के संकेत पर पृथ्वीराज चौहान ने शब्दबेधी बाण चलाकर मुहम्मद गोरी को मार डाला। अब प्रश्न यह उठता है कि जब 1192 ई. में अन्धे पृथ्वीराज चौहान के शब्दबेधी बाण से मुहम्मद गोरी मार दिया गया, तो फिर 1194 ई. में चन्दावर के रणांगन में महाराज जयचन्द्र किस मुहम्मद गोरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए? और 1205-06 ई. में झेलम ज़िले में घात लगाकर शत्रु कबीले ने किस मुहम्मद गोरी को मारा था? वस्तुतः बिना इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढे न तो महाराज जयचन्द्र का उचित मूल्यांकन किया जा सकता है और न भारतीय इतिहास का ही मूल्यांकन सम्भव है।
सन्दर्भ
1. नयचन्द्र : रम्भामंजरी की प्रस्तावना।
2. Indian Antiquary, XI, (1886 A.D.), Page 6, श्लोक 13-14
3. भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व, अध्याय 6
4. Dr. R. S. Tripathi : History of Kannauj, Page 326
5. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 107
6. J. H. Gense : History of India (1954 A.D.), Page 102
7. John Briggs : Rise of the Mohomeden Power in India (Tarikh-a-Farishta), Vol. I, Page 170
8. डॉ. रामकुमार दीक्षित एवं कृष्णदत्त वाजपेयी : कन्नौज, पृ. 15
9. Dr. R. C. Majumdar : Ancient Indian, Page 336 एवं An Advanced History of India, Page 278
10. Dr. Roma Niyogi : History of Gaharwal Dynasty, Page 112
11. J. C. Powell-Price : History of India, Page 114
12. Vincent Arthur Smith : Early History of India, Page 403
13. डॉ. आनन्दस्वरूप मिश्र : कन्नौज का इतिहास, पृ. 519-555
14. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. viii-xii
15. डाॅ. आनन्द शर्मा : अमृत पुत्र, पृ. xi
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साभार :-
डॉ. जितेंद्र कुमार सिंह
और साभार :-
पारुल सिंह रघुवंशी जी।